गुरमुख सिंह की वसीयत (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Gurmukh Singh Ki Vasiyat (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
पहले छुरा भौंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिन में चाक़ू छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तिमाल की जाती थीं। कभी कभी देसी साख़त के बम फटने की इत्तिला भी मिलती थी।
अमृतसर में क़रीब क़रीब हर एक का यही ख़्याल था कि ये फ़िर्क़ा वारादाना फ़सादात देर तक जारी नहीं रहेंगे। जोश है, जूंही ठंडा हुआ, फ़िज़ा फिर अपनी असली हालत पर आजाएगी। इस से पहले ऐसे कई फ़साद अमृतसर में हो चुके थे जो देर पा नहीं थे। दस से पंद्रह रोज़ तक मार कटाई का हंगामा रहता था, फिर ख़ुदबख़ुद फ़र्व हो जाता था। चुनांचे पुराने तजुर्बे की बिना पर लोगों का यही ख़याल था कि ये आग थोड़ी देर के बाद अपना ज़ोर ख़त्म करके ठंडी हो जाएगी। मगर ऐसा न हुआ। बलवों का ज़ोर दिन बदिन बढ़ता ही गया।
हिंदूओं के मुहल्ले में जो मुस्लमान रहते थे भागने लगे। इसी तरह वो हिंदू जो मुस्लमानों के मुहल्ले में थे अपना घर बार छोड़ के महफ़ूज़ मुक़ामों का रुख़ करने लगे। मगर ये इंतिज़ाम सब के नज़दीक आरिज़ी था, उस वक़्त तक के लिए जब फ़िज़ा फ़सादात के तकद्दुर से पाक हो जाने वाली थी।
मियां अब्दुलहैय रिटायर्ड सब जज को तो सौ फ़ीसदी यक़ीन था कि सूरत-ए-हाल बहुत जल्द दुरुस्त हो जाएगी, यही वजह है कि वो ज़्यादा परेशान नहीं थे उन का एक लड़का था ग्यारह बरस का। एक लड़की थी सतरह बरस की। एक पुराना मुलाज़िम था जिस की उम्र सत्तर के लग भग थी। मुख़्तसर सा ख़ानदान था। जब फ़सादात शुरू हुए तो मियां साहिब ने बतौर हिफ़्ज़-ए-मातक़द्दुम काफ़ी राशन घर में जमा कर लिया था। इस तरह से वो बिलकुल मुतमइन थे कि अगर ख़ुदा-ना-ख़ास्ता हालात कुछ ज़्यादा बिगड़ गए और दुकानें वग़ैरा बंद होगईं तो उन्हें खाने पीने के मुआमले में तरद्दुद नहीं करना पड़ेगा। लेकिन उन की जवान लड़की सुग़रा बहुत मुतरद्दिद थी। इन का घर तीन मंज़िला था। दूसरी इमारतों के मुक़ाबले में काफ़ी ऊंचा। उस की ममटी से शहर का तीन चौथाई हिस्सा बख़ूबी नज़र आता था। सुग़रा अब कई दिनों से देख रही थी कि नज़दीक दूर कहीं न कहीं आग लगी होती है। शुरू शुरू में तो फ़ायर ब्रिगेड की टन टन सुनाई देती थी पर अब वो भी बंद होगई थी, इस लिए कि जगह जगह आग भड़कने लगी थी।
रात को अब कुछ और ही समां होता। घुप्प अंधेरे में आग के बड़े बड़े शोले उठते जैसे देव हैं जो अपने मुँह से आग के फव्वारे से छोड़ रहे हैं। फिर अजीब अजीब सी आवाज़ें आतीं जो हर हर महादेव और अल्लाह अकबर के नारों के साथ मिल कर बहुत ही वहशत नाक बन जातीं।
सुग़रा बाप से अपने ख़ौफ़-ओ-हिरास का ज़िक्र नहीं करती थी। इस लिए कि वो एक बार घर में कह चुके थे कि डरने की कोई वजह नहीं। सब ठीक ठाक हो जाएगा। मियां साहिब की बातें अक्सर दुरुस्त हुआ करती थीं। सुग़रा को इस से एक गौना इत्मिनान था। मगर जब बिजली का सिलसिला मुनक़ते होगया और साथ ही नलों में पानी आना बंद होगया तो उस ने मियां साहिब से अपनी तशवीश का इज़हार किया और डरते डरते राय दी थी कि चंद रोज़ के लिए शरीफ़ पूरे उठ जाएं जहां अड़ोस पड़ोस के सारे मुस्लमान आहिस्ता आहिस्ता जा रहे थे। मियां साहिब ने अपना फ़ैसला न बदला और कहा। “बेकार घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। हालात बहुत जल्द ठीक हो जाऐंगे।”
मगर हालात बहुत जल्दी ठीक न हो जाये और दिन बदिन बिगड़ते गए। वो मुहल्ला जिस में मियां अब्दुलहैय का मकान था मुस्लमानों से ख़ाली होगया। और ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि मियां साहिब पर एक रोज़ अचानक फ़ालिज गिरा जिस के बाइस वो साहब-ए-फ़िराश होगए। उन का लड़का बशारत भी जो पहले अकेला घर में ऊपर नीचे तरह तरह के खेलों में मसरूफ़ रहता था अब बाप की चारपाई के साथ लग कर बैठ गया और हालात की नज़ाकत समझने लगा।
वो बाज़ार जो उन के मकान के साथ मुल्हिक़ था सुनसनान पड़ा था। डाक्टर ग़ुलाम मुस्तफा की डिसपेंसरी मुद्दत से बंद पड़ी थी। इस से कुछ दूर हट कर डाक्टर गौर अंदता मिल थे। सुग़रा ने शहनशीन से देखा था कि उन की दुकान में भी ताले पड़े हैं। मियां साहब की हालत बहुत मख़दूश थी। सुग़रा इस क़दर परेशान थी कि उस के होश-ओ-हवास बिलकुल जवाब दे गए थे। बशारत को अलग ले जा कर उस ने कहा। “ख़ुदा के लिए, तुम ही कुछ करो। मैं जानती हूँ कि बाहर निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं, मगर तुम जाओ....... किसी को भी बुला लाओ। अब्बा जी की हालत बहुत ख़तरनाक है।”
बशारत गया, मगर फ़ौरन ही वापिस आगया। उस का चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। चौक में उस ने एक लाश देखी थी, ख़ून से तरबतर....... और पास ही बहुत से आदमी ठाटे बांधे एक दुकान लूट रहे थे। सुग़रा ने अपने ख़ौफ़ज़दा भाई को सीने के साथ लगाया और सब्र शुक्र के बैठ गई। मगर उस से अपने बाप की हालत नहीं देखी जाती थी। मियां साहब के जिस्म का दाहिना हिस्सा बिलकुल सुन होगया था जैसे इस में जान ही नहीं। गोयाई में भी फ़र्क़ पड़ गया था और वो ज़्यादा तर इशारों ही से बातें करते थे जिस का मतलब ये था कि सुग़रा घबराने की कोई बात नहीं। ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से सब ठीक हो जाएगा।
कुछ भी न हुआ। रोज़े ख़त्म होने वाले थे। सिर्फ़ दो रह गए थे। मियां साहब का ख़याल था कि ईद से पहले पहले फ़िज़ा बिलकुल साफ़ हो जाएगी मगर अब ऐसा मालूम होता था कि शायद ईद ही का रोज़ रोज़-ए-क़ियामत हो, क्योंकि ममटी पर से अब शहर के क़रीब क़रीब हर हिस्से से धोईं के बादल उठते दिखाई देते थे। रात को बम फटने की ऐसी ऐसी होलनाक आवाज़ें आती थीं कि सुग़रा और बशारत एक लहज़े के लिए भी सो नहीं सकते थे। सुग़रा को यूं भी बाप की तीमारदारी के लिए जागना पड़ता था, मगर अब ये धमाके, ऐसा मालूम होता था कि उस के दिमाग़ के अंदर हो रहे हैं। कभी वो अपने मफ़लूज बाप की तरफ़ देखती और कभी अपने वहशत ज़दा भाई की तरफ़....... सत्तर बरस का बूढ्ढा मुलाज़िम अकबर था जिस का वजूद होने न होने के बराबर था। वो सारा दिन और सारी रात पर अपनी कोठड़ी में खाँसता खनकारता और बलग़म निकालता रहता था। एक रोज़ तंग आकर सुग़रा उस पर बरस पड़ी। “तुम किस मर्ज़ की दवा हो। देखते नहीं हो, मियां साहब की क्या हालत है। असल में तुम परले दर्जे के नमक हराम हो। अब ख़िदमत का मौक़ा आया है तो दमे का बहाना करके यहां पड़े रहते हो....... वो भी ख़ादिम थे जो आक़ा के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान कर देते थे।”
सुग़रा अपना जी हल्का करके चली गई। बाद में उस को अफ़सोस हुआ कि नाहक़ उस ग़रीब को इतनी लानत मलामत की। रात का खाना थाल में लगा कर उस की कोठड़ी में गई तो देखा ख़ाली है। बशारत ने घर में इधर उधर तलाश किया मगर वो न मिला। बाहर के दरवाज़े की कुंडी खुली थी जिस का ये मतलब था कि वो मियां साहब के लिए कुछ करने गया है। सुग़रा ने बहुत दुआएं मांगीं कि ख़ुदा उसे कामयाब करे लेकिन दो दिन गुज़र गए और वो न आया।
शाम का वक़्त था। ऐसी कई शामें सुग़रा और बशारत देख चुके थे। जब ईद की आमद आमद के हंगामे बरपा होते थे जब आसमान पर चांद देखने के लिए उन की नज़रें जमी रहती थीं। दूसरे रोज़ ईद थी। सिर्फ़ चांद को इस का ऐलान करना था। दोनों इस ऐलान के लिए कितने बेताब हुआ करते थे। आसमान पर चांद वाली जगह पर अगर बादल का कोई हटीला टुकड़ा जम जाता तो कितनी कोफ़्त होती थी उन्हें मगर अब चारों तरफ़ धोएं के बादल थे। सुग़रा और बशारत दोनों ममटी पर चढ़े। दूर कहीं कहीं कोठों पर लोगों के साय धब्बों की सूरत में दिखाई देते थे, मगर मालूम नहीं ये चांद देख रहे थे या जगह जगह सुलगती और भड़कती हुई आग।
चांद भी कुछ ऐसा ढीट था कि धोईं की चादर में से भी नज़र आगया। सुग़रा ने हाथ उठा कर दुआ मांगी कि ख़ुदा अपना फ़ज़ल करे और इस के बाप को तंदरुस्ती अता फ़रमाए। बशारत दिल ही दिल में कोफ़्त महसूस कर रहा था कि गड़बड़ के बाइस एक अच्छी भली ईद ग़ारत होगई।
दिन अभी पूरी तरह ढला नहीं था। यानी शाम की स्याही अभी गहरी नहीं हुई थी। मियां साहब की चारपाई छिड़काओ किए हुए सहन में बिछी थी। वो इस पर बेहिस-ओ-हरकत लेटे थे और दूर आसमान पर निगाहें जमाए जाने क्या सोच रहे थे। ईद का चांद देख कर जब सुग़रा ने पास आकर उन्हें सलाम किया तो उन्हों ने इशारे से जवाब दिया। सुग़रा ने सर झुकाया तो उन्हों ने वो बाज़ू जो ठीक था उठाया और उस पर शफ़क़त से हाथ फेरा। सुग़रा की आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे तो मियां साहब की आँखें भी नमनाक होगईं, मगर उन्हों ने तसल्ली देने की ख़ातिर बमुश्किल अपनी नीम मफ़लूज ज़बान से ये अल्फ़ाज़ निकाले। “अल्लाह तबारक-ओ-ताला सब ठीक करदेगा।”
ऐन उसी वक़्त बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। सुग़रा का कलेजा धक से रह गया। इस ने बशारत की तरफ़ देखा। जिस का चेहरा काग़ज़ की तरह सफ़ैद होगया था।
दरवाज़े पर दस्तक हुई। मियां साहब सुग़रा से मुख़ातब हुए। “देखो, कौन है!”
सुग़रा ने सोचा कि शायद बूढ्ढा अकबर हो। इस ख़याल ही से उस की आँखें तिमतिमा उठीं। बशारत का बाज़ू पकड़ कर उस ने कहा। “जाओ देखो.......शायद अकबर आया है।”
ये सुन कर मियां साहब ने नफ़ी में यूं सर हिलाया जैसे वो ये कह रहे हैं। “नहीं.......ये अकबर नहीं है।”
सुग़रा ने कहा। “तो और कौन हो सकता है अब्बा जी?”
मियां अब्दुलहैय ने अपनी क़ुव्वत-ए-गोयाई पर ज़ोर दे कर कुछ कहने की कोशिश की कि बशारत आगया। वो सख़्त ख़ौफ़ज़दा था। एक सांस ऊपर, एक नीचे, सुग़रा को मियां साहब की चारपाई से एक तरफ़ हटा कर उस ने हौले से कहा।
“एक सिख है!”
सुग़रा की चीख़ निकल गई। “सिख?.......क्या कहता है?”
बशारत ने जवाब दिया। “कहता है दरवाज़ा खोलो।”
सुग़रा ने काँपते हुए बशारत को खींच कर अपने साथ चिमटा लिया और बाप की चारपाई पर बैठ गई और अपने बाप की तरफ़ वीरान नज़रों से देखने लगी।
मियां अब्दुलहैय के पतले पतले बेजान होंटों पर एक अजीब सी मुस्कुराहट पैदा हो गई। “जाओ....... गुरमुख सिंह है!”
बशारत ने नफ़ी में सर हिलाया। “कोई और है?”
मियां साहब ने फ़ैसलाकुन अंदाज़ में कहा। “जाओ सुग़रा वही है!”
सुग़रा उठी। वो गुरमुख सिंह को जानती थी। पैंशन लेने से कुछ देर पहले उस के बाप ने इस नाम के एक सिख का कोई काम किया था। सुग़रा को अच्छी तरह याद नहीं था। शायद उस को एक झूटे मुक़द्दमे से नजात दिलाई थी। जब से वो हर छोटी ईद से एक दिन पहले रूमाली सवैयों का एक थैला लेकर आया करता था। उस के बाप ने कई मर्तबा उस से कहा था। “सरदार जी, आप ये तकलीफ़ न क्या करें।” मगर वो हाथ जोड़ कर जवाब दिया करता था। “मियां साहब वाहगोरो जी की कृपा से आप के पास सब कुछ है। ये तो एक तोहफ़ा ये जो मैं जनाब की ख़िदमत में हर साल लेकर आता हूँ। मुझ पर जो आप ने एहसान किया था। इस का बदला तो मेरी सो पुश्त भी नहीं चुका सकती....... ख़ुदा आप को ख़ुश रखे।”
सरदार गुरमुख सिंह को हर साल ईद से एक रोज़ पहले सवैयों का थैला लाते इतना अर्सा होगया था कि सुग़रा को हैरत हुई कि उस ने दस्तक सुन कर ये क्यों ख़्याल न किया कि वही होगा, मगर बशारत भी तो उस को सैंकड़ों मर्तबा देख चुका था, फिर उस ने क्यों कहा कोई और है....... और कौन हो सकता है। ये सोचती सुग़रा डेयोढ़ी तक पहुंची। दरवाज़ा खोले या अंदर ही से पूछे, इस के मुतअल्लिक़ वो अभी फ़ैसला ही कररही थी कि दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक हुई। सुग़रा का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। बमुश्किल तमाम इस ने हलक़ से आवाज़ निकाली है। “कौन है?”
बशारत पास खड़ा था। उस ने दरवाज़े की एक दर्ज़ की तरफ़ इशारा किया और सुग़रा से कहा। “इस में से देखो?”
सुग़रा ने दर्ज़ में से देखा। गुरमुख सिंह नहीं था। वो तो बहुत बूढ़ा था, लेकिन ये जो बाहर थड़े पर खड़ा था जवान था। सुग़रा अभी दर्ज़ पर आँख जमाए उस का जायज़ा ले रही थी कि उस ने फिर दरवाज़ा खटखटाया। सुग़रा ने देखा कि उस के हाथ में काग़ज़ का थैला था वैसा ही जैसा गुरमुख सिंह लाया करता था।
सुग़रा ने दर्ज़ से आँख हटाई और ज़रा बुलंद आवाज़ में दस्तक देने वाला से पूछा। “कौन हैं आप?”
बाहर से आवाज़ आई। “जी.......जी मैं....... मैं सरदार गुरमुख सिंह का बेटा हूँ.......संतोख!”
सुग़रा का ख़ौफ़ बहुत हद तक दूर हो गया। बड़ी शाइस्तगी से उस ने पूछा। “फ़रमाईए। आप कैसे आए हैं?”
बाहर से आवाज़ आई। “जी....... जज साहब कहाँ हैं।”
सुग़रा ने जवाब दिया। “बीमार हैं।”
सरदार संतोख सिंह ने अफ़सोस आमेज़ लहजे में कहा। “ओह....... फिर उस ने काग़ज़ का थैला खड़खड़ाया। जी ये सिवय्यां हैं....... सरदार जी का देहांत हो गया है....... वो मर गए हैं!”
सुग़रा ने जल्दी से पूछा। “मर गए हैं?”
बाहर से आवाज़ आई। “जी हाँ....... एक महीना हो गया है....... मरने से पहले उन्हों ने मुझे ताकीद की थी कि देखो बेटा, मैं जज साहब की ख़िदमत में पूरे दस बरसों से हर छोटी ईद पर सिवय्यां ले जाता रहा हूँ... ये काम मेरे मरने के बाद अब तुम्हें करना होगा....... मैंने उन्हें वचन दिया था। जो मैं पूरा कररहा हूँ....... ले लीजिए सिवय्यां।”
सुग़रा इस क़दर मुतअस्सिर हुई कि उस की आँखों में आँसू आ गए। उस ने थोड़ा सा दरवाज़ा खोला। सरदार गुरमुख सिंह के लड़के ने सिवय्यों का थैला आगे बढ़ा दिया जो सुग़रा ने पकड़ लिया और कहा। “ख़ुदा सरदार जी को जन्नत नसीब करे।”
गुरमुख सिंह का लड़का कुछ तवक्कुफ़ के बाद बोला। “जज साहब बीमार हैं?”
सुग़रा ने जवाब दिया। “जी हाँ!”
“क्या बीमारी है?”
“फ़ालिज”
“ओह.......सरदार जी ज़िंदा होते तो ये उन्हें ये सुन कर बहुत दुख होता.......मरते दम तक उऩ्हें जज साहब का एहसान याद था। कहते थे कि वो इंसान नहीं देवता है....... अल्लाह मियां उन्हें ज़िंदा रखे.......उन्हें मेरा सलाम।”
और ये कह कर वो थरे से उतर गया....... सुग़रा सोचती ही रह गई कि वो उसे ठहराए और कहे के जज साहब के लिए किसी डाक्टर का बंद-ओ-बस्त करदे।
सरदार गुरमुख सिंह का लड़का संतोख जज साहब के मकान से थड़े से उतर कर चंद गज़ के आगे बढ़ा तो चार ठाटा बांधे हुए आदमी इस के पास आए। दो के पास जलती मशालें थीं और दो के पास मिट्टी के तेल के कनस्तर और कुछ दूसरी आतिश ख़ेज़ चीज़ें। एक ने संतोख से पूछा। “क्यों सरदार जी, अपना काम कर आए?”
संतोख ने सर हिला कर जवाब दिया। “हाँ कर आया।”
उस आदमी ने ठाटे के अंदर हंस कर पूछा। “तो करदें मुआमला ठंडा जज साहब का।”
“हाँ.......जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!” ये कह कर सरदार गुरमुख सिंह का लड़का चल दिया।
(5 अक्तूबर 1951-ई.)