गुप्त धन (बांग्ला कहानी) : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Gupt Dhan (Bangla Story in Hindi) : Rabindranath Tagore

अमावस्या की आधी रात थी। मृत्युंजय तांत्रिक मतानुसार अपनी प्राचीन देवी जयकाली की पूजा करने बैठा। पूजा समाप्त करके जब वह उठा तो निकटस्थ आम के बग़ीचे से प्रातःकाल का पहला कौआ बोला।

मृत्युंजय ने पीछे घूमकर देखा, मंदिर का द्वार बंद था। तब उसने देवी के चरणों में एक बार माथा टेककर उनका आसन सरकाया। आसन के नीचे से कटहल के काठ का एक बक्स बाहर निकला। जनेऊ में चाबी बँधी थी। वह चाबी लगाकर मृत्युंजय ने बक्स खोला। खोलते ही चौंककर हाथ से माथा ठोंक लिया।

मृत्युंजय का अंदर का बग़ीचा प्राचीर से घिरा था। उसी बाग़ के एक भाग में बड़े-बड़े पेड़ों की छाया के अंधकार में यह छोटा-सा मंदिर था। मंदिर में जयकाली की मूर्ति को छोड़कर और कुछ न था। उसमें केवल एक प्रवेश-द्वार था। मुत्युंजय ने बक्स उठाकर बहुत देर तक हिला-डुलाकर देखा। मृत्युंजय के बक्स खोलने के पहले वह बंद ही था‒किसी ने उसे तोड़ा न था। मृत्युंजय ने कई बार प्रतिमा के चारों ओर चक्कर लगाकर टटोलकर देखा‒कुछ भी नहीं मिला। उन्मत्त होकर मंदिर का दरवाज़ा खोल दिया‒उस समय प्रभात की किरणें फूट रही थीं। मंदिर के चारों ओर मृत्युंजय घूम-घूमकर व्यर्थ की आशा में खोजते हुए चक्कर लगाने लगा।

प्रभातकालीन आलोक जब प्रस्फुटित हो उठा, तब वह बाहर के चंडीमंडप में आकर सिर पर हाथ रखे बैठकर सोचने लगा। सारी रात जागने के बाद श्रांतदेह को थोड़ी-सी झपकी आ गई, इसी समय हठात् चौंक पड़ा। सुना, “जय हो बाबा।”

प्रांगण में सामने एक जटाजूटधारी संन्यासी खड़े थे। मृत्युंजय ने भक्ति-भाव से उनको प्रणाम किया। संन्यासी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा, “बेटा, तुम मन में व्यर्थ शोक कर रहे हो।”

सुनकर मृत्युंजय को आश्चर्य हुआ। कहा, “आप अंतर्यामी हैं, नहीं तो मेरा शोक किस प्रकार जान लिया। मैंने तो किसी से भी कुछ नहीं कहा।”

संन्यासी बोले, “वत्स, मैं कहता हूँ, तुम्हारा जो कुछ खो गया है, उसके लिए तुम आनंद मनाओ, शोक मत करो!” मृत्युंजय ने उनके पैर पकड़कर कहा, “तब तो आप सभी-कुछ जान गए हैं‒किस तरह खो गया है, कहाँ जाकर फिर मिलेगा, यह जब तक न बताएँगे मैं आपके चरण नहीं छोड़ूंगा।”

संन्यासी ने कहा, “मैं यदि तुम्हारी अमंगल कामना करता तो बताता। किन्तु भगवती ने कृपा करके जो हर लिया है, उसके लिए शोक न करना!”

संन्यासी को प्रसन्न करने के लिए मृत्युंजय ने सारे दिन विविध प्रकार से उनकी सेवा की। दूसरे दिन प्रातः अपनी गौशाला से लोटा-भर फेनयुक्त दूध दुहकर लाने पर देखा, संन्यासी नहीं थे।

मृत्युंजय जब बच्चा था, जब उसके पितामह हरिहर एक दिन इसी चंडी-मंडप में बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे, तब इसी तरह एक संन्यासी ‘जय हो बाबा’ कहते हुए इसी आँगन में आ खड़े हुए थे। हरिहर ने उस संन्यासी को कई दिन घर में रखकर विधिपूर्वक सेवा द्वारा संतुष्ट किया था।

विदा के समय संन्यासी ने जब यह प्रश्न किया, “वत्स, तुम क्या चाहते हो?” तो हरिहर ने कहा, “बाबा, यदि संतुष्ट हुए हों तो एक बार मेरी हालत सुनें। एक समय इस गाँव में हम सबसे समृद्ध थे। मेरे प्रपितामह ने दूर के एक कुलीन को बुलवाकर उससे अपनी एक कन्या का विवाह कर दिया था। उनके वह दौहिजवंशज ही हमको धोखा देकर आजकल इस गाँव में बड़े आदमी बन बैठे हैं। इस समय हमारी अवस्था अच्छी नहीं है, इसी कारण उनका अहंकार सहते रहते हैं। किन्तु अब और नहीं सहा जाता। कैसे हमारा कुल फिर से बड़ा हो, यही उपाय बता दें, यही आशीर्वाद दें।”

संन्यासी ने थोड़ा हँसकर कहा, “बेटा, छोटे होकर सुख से रहो, बड़े होने के प्रयत्न में मुझे भलाई नहीं दिखती।”

किन्तु हरिहर ने फिर भी नहीं छोड़ा; वंश को बड़ा करने के लिए वह सब-कुछ स्वीकार करने के लिए राज़ी था।

तब संन्यासी ने अपनी झोली से कपड़े में लिपटा रुई से बने काग़ज पर लिखा एक लेख निकाला। काग़ज़ लंबा था, जन्म-पत्री के समान लिपटा था। संन्यासी ने उसको ज़मीन पर फैला दिया। हरिहर ने देखा, उसमें बने नाना प्रकार के चक्रों में अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न अंकित थे, और सबके नीचे एक लंबी तुकबंदी लिखी हुई थी, जिसका आरंभ इस प्रकार था‒

पाये धरे साधा।
रा नाहि देय राधा।।
शेषे 1 दिल 2 रा।
पागोल छाड़ो पा।।
तेंतूल बटेर कोल 3,
दक्षिण याओ 4 चले।।
ईशानकोणे ईशानी
कहे दिलाम 5 निशानी। इत्यादि

हरिहर ने कहा, “बाबा, मैं तो कुछ भी नहीं समझा।”

संन्यासी बोले, “पास रख लो, देवी की पूजा करो। उनके प्रसाद से तुम्हारे वंश में कोई-न-कोई इस लिखावट को समझ सकेगा। उस समय वह इतना ऐश्वर्य पाएगा, जिसकी जग में तुलना नहीं।”

हरिहर ने मिन्नत करके कहा, “बाबा, क्या समझा न देंगे?”

संन्यासी ने कहा, “नहीं, साधना द्वारा समझना होगा।”

इसी समय हरिहर का छोटा भाई शंकर आ पहुँचा। उसको देखकर हरिहर ने चटपट लेख छिपाने की चेष्टा की। संन्यासी ने हँसकर कहा, “बड़े होने के रास्ते का दुःख अभी से शुरू हो गया। किन्तु छिपाने की आवश्यकता नहीं है। कारण, इसका रहस्य केवल एक ही व्यक्ति जान सकेगा। हज़ार प्रयत्न करने पर भी और कोई उसे नहीं जान पाएगा। तुममें से वह व्यक्ति कौन है, यह कोई नहीं जानता। अतएव इसे सबके सामने निर्भय खोलकर रख सकते हो।”

संन्यासी चले गए। किन्तु हरिहर उस काग़ज़ को छिपाकर रखे बिना न रह सका। कहीं और कोई इससे लाभान्वित न हो जाए, कहीं उसका छोटा भाई शंकर इसका फल-भोग न कर ले, इसी आशंका से हरिहर ने इस काग़ज़ को कटहल के काठ के एक बक्स में बंद करके अपनी आराध्य देवी जयकाली के आसन के नीचे छिपा दिया था। प्रत्येक अमावस्या की अर्धरात्रि को देवी की पूजा करके एक बार वह उस काग़ज़ को खोलकर देखता, काश देवी प्रसन्न होकर उसको अर्थ समझने की शक्ति दे दें।

कुछ दिन से शंकर हरिहर से विनती करने लगा था, “भैया, एक बार अच्छी तरह मुझे वह काग़ज़ देख लेने दो न!”

हरिहर ने कहा, “धत् पगले, वह काग़ज़ क्या अब धरा है। वह पाखंडी संन्यासी काग़ज़ में कुछ चीलबिलौआ बनाकर झाँसा दे गया था‒मैंने उसे जला डाला है।”

शंकर चुप रह गया। सहसा एक दिन शंकर घर में दिखाई नहीं दिया। उसके बाद से वह लापता रहा।

हरिहर का सारा काम-काज नष्ट हो गया‒गुप्त ऐश्वर्य का ध्यान वह क्षणभर के लिए भी न भूल सका।

मृत्यु-काल आ पहुँचने पर संन्यासी के दिए हुए उस काग़ज़ को वह अपने बड़े लड़के श्यामपद को दे गया।

यह काग़ज़ पाने पर श्यामापद ने नौकरी छोड़ दी। जयकाली की पूजा और एकाग्रचित्त से इस लेख के पाठ की चर्चा में उसका संपूर्ण जीवन कैसे बीत गया। इसका उसे पता भी न चला।

मृत्युंजय श्यामापद का बड़ा लड़का था। पिता की मृत्यु के पश्चात् वह संन्यासी के दिए हुए इस गुप्त लेख का अधिकारी हुआ। उसकी अवस्था उत्तरोत्तर जितनी ही ख़राब होती जाती थी, उतने ही आग्रह से उस काग़ज़ के प्रति उसका सारा ध्यान एकाग्र होता जाता। तभी गत अमावस्या की रात को पूजा के पश्चात् वह लेख नहीं दिखाई पड़ा‒संन्यासी भी कहीं अंतर्धान हो गया।

मृत्युंजय ने कहा, “उस संन्यासी को छोड़ने से काम न चलेगा। सारा पता उसी से मिलेगा।”

यह कहकर वह घर छोड़कर संन्यासी की खोज में निकला। एक वर्ष रास्तों में घूमते ही बीत गया।

गाँव का नाम धारागोल था। वहाँ मोदी की दुकान पर बैठा मृत्युंजय तंबाकू पी रहा था और अन्यमनस्क भाव से अनेक बातें सोच रहा था। कुछ दूरी पर मैदान की बग़ल से एक संन्यासी जा रहा था। पहले तो मृत्युंजय का ध्यान उधर नहीं गया, थोड़ी देर बाद सहसा उसे लगा, जो आदमी जा रहा था, यह वही संन्यासी है। झटपट हुक़्क़ा रखकर मोदी को आश्चर्य में डाल, एक दौड़ में वह दुकान से बाहर निकल गया। किन्तु, वह संन्यासी दिखाई नहीं दिया।

उस समय संध्या का अँधेरा हो गया था। अपरिचित स्थान में वह संन्यासी की खोज करने कहाँ जाए, यह निश्चय न कर सका। लौटकर दुकान पर आकर मोदी से पूछा, “यह जो सघन वन दिख रहा है, वहाँ क्या है?”

मोदी ने कहा, “किसी समय यह वन शहर था, किन्तु अगस्त्य मुनि के शाप से वहाँ के राजा-प्रज्ञा सब महामारी में मर गए। कहा जाता है, वहाँ खोजने से आज भी बहुत धन-रत्न मिल सकता है; किन्तु दिन-दोपहरी में भी कोई उस वन में जाने का साहस नहीं कर पाता। जो गया वह फिर कभी नहीं लौटा।”

मृत्युंजय का मन चंचल हो उठा। सारी रात मोदी की दुकान में चटाई पर लेटा वह मच्छरों के मारे अपने अंगों को चपेटता रहा और उस वन की बात, संन्यासी की बात, उस खोए हुए लेख की बात सोचता रहा। बार-बार पढ़ने के कारण वह लेख मृत्युंजय को प्रायः कंठस्थ हो गया था, इसलिए अनिद्रा की इस अवस्था में उसके मस्तिष्क में बस यही घूम रहा था‒

पये धरे साधा।
रा नाहिं देय राधा।।
शेषे दिल रा।
पागोल छाड़ो पा।।

सिर भन्ना गया, इन पंक्तियों को वह किसी भी प्रकार अपने मन से न निकाल सका। अंत में भोर वेला में जब उसे ज़रा झपकी आई, तब स्वप्न में इन चार पंक्तियों का अर्थ उसे अत्यंत सहज प्रतीत हुआ। ‘रा नाहिं देय राधा’ अर्थात् ‘राधा’ का ‘रा’ न रहने से ‘धा’ रह गया‒‘शेषे दिल रा’ अर्थात् ‘धारा’ हो गया‒‘पागोल छाड़ो पा’, ‘पागोल’ का ‘पा’ छोड़ देने से ‘गोल’ बाक़ी रहा‒अर्थात् सब मिलकर ‘धारागोल’ हुआ‒इस जगह का नाम तो ‘धारागोल’ ही है।

सपना देखते-देखते मृत्युंजय उछल पड़ा।

दिन-भर वन में घूमकर बड़े कष्ट से रास्ता खोजकर बिना कुछ खाए संध्या-समय मृत्युप्राय अवस्था में मृत्युंजय गाँव को लौटा।

दूसरे दिन चादर में चिवड़ा बाँधकर फिर उसने वन की यात्रा की। अपराह्वन में वह एक बावड़ी के पास जा पहुँचा।

बावड़ी के पश्चिमी किनारे पर मृत्युंजय अचानक चौंककर खड़ा हो गया। देखा, इमली के एक पेड़ को घेरकर एक विशाल वट वृक्ष खड़ा था। तत्क्षण उसे याद आया‒

तेंतुल बटेर कोले (वट की गोद में इमली)
दक्षिणे याओ चले (दक्षिण दिशा में चले जाओ)

कुछ दूर दक्षिण दिशा की ओर जाने पर वह घने जंगल में जा पहुँचा। वहाँ बेंत की झाड़ियों को पार करके चलना उसके लिए एकदम असंभव हो गया। जो हो, मृत्युंजय ने तय किया, इस वृक्ष को खो देने से किसी भी प्रकार काम नहीं चलेगा।

इस पेड़ के पास लौटकर आते हुए पास ही वृक्ष के बीच से एक मंदिर का शिखर दिखाई पड़ा। उसी दिशा की ओर लक्ष्य करके चलता हुआ मृत्युंजय एक टूटे मंदिर के पास आ पहुँचा। उसने देखा, पास ही एक छोटा-सा चूल्हा, जली लकड़ी और राख पड़ी थी। ख़ूब सावधानी से मृत्युंजय ने मंदिर के टूटे दरवाज़े में झाँका। वहाँ कोई आदमी नहीं था, प्रतिमा नहीं थी, केवल एक कंबल; एक कमंडल और एक गेरुआ उत्तरीय पड़ा था।

उस समय संध्या हो चली थी; गाँव बहुत दूर था, अँधेरे में वन में रास्ता ढूँढ़ा जा सकेगा या नहीं, अतः इस मंदिर में मनुष्य के बसने का लक्षण देखकर मृत्युंजय ख़ुश हुआ। मंदिर का एक बहुत बड़ा पत्थर का टुकड़ा टूटकर द्वार के पास पड़ा हुआ था; उस पत्थर पर बैठकर नीचा सिर किए सोचते-सोचते मृत्युंजय ने अचानक पत्थर पर जाने क्या खुदा हुआ देखा। झुककर देखा, एक चक्र अंकित था, उसमें कुछ स्पष्ट कुछ लुप्तप्राय ढंग से निम्नलिखित सांकेतिक अक्षर खुदे हुए थे‒

यह मृत्युंजय का सुपरिचित चक्र था। अमावस्या की कितनी रातों में उसने सुगंधित धूप के धुएँ और घी के दीये से प्रकाशित पूजा-गृह में रुई के काग़ज़ पर अंकित हुए चक्र-चिह्न पर झुककर रहस्य जानने के लिए एकाग्रचित्त से देवी की कृपा की याचना की थी। अभीष्ट सिद्धि के अत्यंत पास आ पहुँचने पर आज उसका सर्वांग जैसे काँपने लगा। कहीं किनारे आकर नौका न डूब जाए, कहीं किसी एक साधारण-सी भूल के कारण उसका सब-कुछ नष्ट न हो जाए, कहीं वह संन्यासी पहले ही आकर सब-कुछ ढूँढ़कर न ले जा चुका हो, इसी आशंका से उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई, उस समय उसका क्या कर्तव्य था, यह वह न सोच सका। उसे लगा, वह कदाचित् ऐश्वर्य-भंडार के बिलकुल ऊपर बैठा है, फिर भी कुछ जान नहीं पा रहा है।

बैठे-बैठे वह काली का नाम जपने लगा; संध्या का अंधकार घना हो आया; झिल्ली की झनकार से वनभूमि मुखरित हो उठी।

तभी कुछ दूर घने जंगल में आग की चमक दिखाई पड़ी। मृत्युंजय अपना पत्थर का आसन छोड़कर उठा और उस अग्नि-शिखा को लक्ष्य करके चलने लगा।

अत्यंत कठिनाई से कुछ दूर जाकर पीपल के तने की ओट से स्पष्ट देखा, उसका वही परिचित संन्यासी अग्नि के प्रकाश में वह रुई काग़ज़ का लेख फैलाकर एक सींक से राख के ऊपर एकाग्र मन से हिसाब लगा रहा था।

मृत्युंजय के घर के उस पैतृक लेख की लिखावट! अरे पाखंडी चोर! इसी कारण इसने मृत्युंजय से शोक न करने को कहा था।

संन्यासी बार-बार हिसाब लगाता और एक छड़ी लेकर ज़मीन नापता। थोड़ी दूर नापकर हताश होकर गर्दन हिलाकर फिर आकर हिसाब लगाने में जुट जाता।

इस तरह करते हुए जब रात समाप्त होने को आई, जब रात के अंत की शीतल वायु से वनस्पतियों की चोटियों के पत्ते मर्मरित हो उठे, तब संन्यासी वह लेखपत्र लपेटकर चला गया।

मृत्युंजय यह न समझ सका कि क्या करे। वह यह भली-भाँति समझ गया कि संन्यासी की सहायता के बिना इस लिखावट का रहस्य-भेद करना उसके लिए संभव न था। और यह भी निश्चित था कि लुब्ध संन्यासी मृत्युंजय की सहायता नहीं करेगा। अतः छिपकर संन्यासी के ऊपर निगाह रखने के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। किन्तु, दिन में गाँव में बिना गए उसे भोजन नहीं मिलेगा; अतएव कम-से-कम कल सवेरे एक बार गाँव जाना आवश्यक था।

भोर की तरफ़ अंधकार के तनिक फीका पड़ते ही वह पेड़ से नीचे उतर आया जहाँ संन्यासी राख पर सवाल लगा रहा था, वहाँ अच्छी तरह देखा, कुछ समझ न सका। चारों ओर घूमकर देखा, जंगल में कोई ख़ास बात न थी।

वन-प्रांत का अंधकार धीरे-धीरे जब क्षीण हो आया, तब बड़ी सावधानी से चारों ओर देखता हुआ मृत्युंजय गाँव की ओर चला। उसे डर था कि कहीं संन्यासी उसे देख न ले।

जिस दुकान में मृत्युंजय ने आश्रय ग्रहण किया था, उसके पास एक कायस्था गृहिणी व्रत के उपलक्ष्य में उस दिन ब्राह्मण-भोजन कराने की तैयारी कर रही थी। वहीं अब मृत्युंजय को भोजन मिल गया। कई दिन के भोजन के कष्ट के पश्चात् आज उसका भोजन भारी हो गया। इस भारी भोजन के बाद उसने जैसे ही हुक़्क़ा पीकर दुकान की चटाई पर ज़रा लेटने की इच्छा की, वैसे ही गत रात्रि को न सो सकने के कारण मृत्युंजय ने सोचा था कि जल्दी ही भोजनादि करके काफ़ी दिन रहते बाहर निकलेगा। हुआ ठीक इसका उल्टा। जब उसकी नींद टूटी, तब सूर्य अस्त हो चुका था। तो भी मृत्युंजय निरुत्साहित नहीं हुआ। अँधेरे में ही उसने वन में प्रवेश किया।

देखते-देखते रात घनीभूत हो आई। पेड़ों की छाया में निगाह काम नहीं देती थी, जंगल में रास्ता रुक जाता। मृत्युंजय किस ओर कहाँ जा रहा था, इसका उसे कोई पता न चला। जब रात बीत गई, तब देखा कि सारी रात वह वन के किनारे एक ही जगह चक्कर काटता रहा था।

कौओं का झुंड काँव-काँव करता हुआ गाँव की ओर उड़ चला। यह शब्द मृत्युंजय के कानों को व्यंग्यपूर्ण धिक्कार-वाक्य जैसा लगा।

गणना करने में बार-बार भूल होती रही थी, वही भूल ठीक करते-करते अंत में संन्यासी ने सुरंग का रास्ता ढूँढ़ लिया। मशाल लेकर वे सुरंग में घुसे। पक्की भीत पर काई जमी थी। बीच-बीच में किसी-किसी जगह से जल टपक रहा था। जगह-जगह अनेक मेंढक एक-दूसरे से सटे हुए स्तूपाकार होकर सो रहे थे। इस रपटीले रास्ते से कुछ दूर जाते ही संन्यासी ने देखा, सामने दीवार खड़ी थी। राह अवरुद्ध थी। कुछ भी न समझ सके। हर जगह दीवार में लोहे के डंडे से ठोंककर देखा, कहीं से पोली होने की आवाज़ न आई, कहीं रंध्र नहीं। इसमें संदेह न रहा कि वह रास्ता यहीं समाप्त हो गया था।

फिर वही काग़ज़ खोला। सिर पर हाथ धरकर बैठे सोचने लगे। वह रात इसी तरह कट गई।

दूसरे दिन गणना पूरी करके फिर सुरंग में प्रवेश किया। उस दिन गुप्त संकेत का अनुसरण करते हुए एक स्थान विशेष से पत्थर सरकाकर दूसरे रास्ते की खोज की। उस रास्ते पर चलते-चलते फिर एक जगह रास्ता बंद हो गया।

अंत में पाँचवीं रात सुरंग में प्रवेश करके संन्यासी बोल उठे, “आज मुझे रास्ता मिल गया है, अब आज मुझसे कोई भूल न होगी।”

रास्ता अत्यंत जटिल था; उसकी शाखा-प्रशाखाओं का अंत न था‒कहीं ऐसा सँकरा कि घुटनों के बल चलना पड़ता। बड़ी सावधानी से मशाल लिए चलते-चलते संन्यासी गोलाकार कमरे-जैसी एक जगह में जा पहुँचे। कमरे के बीच में एक बड़ा-सा कुआँ था। मशाल की रोशनी में संन्यासी उसका तला न देख सके। कमरे की छत से लोहे की एक विशाल मोटी ज़ंजीर कुएँ में लटक रही थी। संन्यासी के प्राणपण से बलपूर्वक ठेलते ही इस जंज़ीर के थोड़ा-सा हिलने-मात्र से ठन् करके एक शब्द कुएँ के गह्वर से उठा और कमरा प्रतिध्वनित होने लगा। संन्यासी उच्च स्वर से चीख़ उठे ‘मिल गया।’

उनके चीख़ने के साथ ही कमरे की टूटी हुई दीवार से एक पत्थर खिसककर गिरा और उसी के साथ-साथ एक और कोई जीवित पदार्थ धम्म से गिरकर चीख उठा। संन्यासी इस आकस्मिक आवाज़ से चौंक पड़े और उनके हाथ से मशाल गिरकर बुझ गई।

संन्यासी ने पूछा, “तुम कौन हो?” कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर अँधेरे में टटोलकर देखने से उनका हाथ एक आदमी की देह से टकराया। उसको हिलाकर पूछा, “तुम कौन?”

कोई उत्तर नहीं मिला। आदमी मूर्च्छित हो गया था।

तब चकमक रगड़-रगड़कर संन्यासी ने बड़ी मुश्किल से मशाल जलाई। इस बीच वह आदमी भी सचेत हो गया था और उठने का प्रयत्न करते हुए पीड़ा से आर्त्तनाद कर उठा।

संन्यासी ने कहा, “अरे यह तो मृत्युंजय है। तुम्हारी ऐसी मति क्यों हुई।”

मृत्युंजय बोला, “बाबा, माफ़ करो! भगवान् ने मुझे दंड दिया है। पत्थर फेंककर तुम्हें मारने जा रहा था, सँभल नहीं सका‒फिसलकर पत्थर-सहित मैं गिर पड़ा, पैर अवश्य ही टूट गया होगा।”

संन्यासी ने कहा, “मुझे मारने से तुम्हें क्या लाभ होता।”

मृत्युंजय ने कहा, “तुम लाभ की बात पूछ रहे हो। तुम लोभ के मारे मेरे पूजा-घर से लेख चुराकर इस सुरंग में घूमते फिर रहे हो। तुम चोर हो, तुम पाखंडी हो! मेरे पितामह को जिन संन्यासी ने यह लेख दिया था, उन्होंने कहा था कि हमारे ही वंश का कोई इस लेख के संकेत को समझ पाएगा। यह गुप्त ऐश्वर्य हमारे ही वंश का प्राप्य है। इसलिए मैं कई दिन से, बिना खाए, बिना सोए छाया के समान तुम्हारे पीछे घूमता रहा। आज जिस समय तुम चिल्लाए ‘मिल गया’ तो मुझसे और नहीं रहा गया। मैं तुम्हारे पीछे आकर इसे गड्ढे में छिपा बैठा था। वहाँ से एक पत्थर सरकाकर तुमको मारने चला था, किन्तु शरीर दुर्बल था, जगह बहुत रपटीली थी‒इसी से गिर पड़ा‒इस समय तुम मुझे मार डालो तो वह भी अच्छा है‒मैं यक्ष होकर इस धन की रक्षा करूँगा‒किन्तु तुम इसे ले नहीं पाओगे‒किसी भी प्रकार नहीं। यदि लेने का यत्न करोगे, तो मैं ब्राह्मण हूँ, तुम्हें अभिशाप देकर इस कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर लूँगा। यह धन तुम्हारे लिए ब्राह्मण, गौ के रक्त के समान होगा‒इस धन का तुम कभी भी सुख से भोग न कर सकोगे। हमारे पिता-पितामह इस धन पर पूर्ण ममता रखकर मरे हैं‒इस धन का ध्यान करते-करते हम दरिद्र हो गए हैं‒इस धन की खोज में मैं घर में अनाथा स्त्री और छोटे बच्चे छोड़कर, आहार-निद्रा त्यागकर अभागे पागल के समान घट-मैदानों में घूमता फिर रहा हूँ‒इस धन को तुम मेरे देखते कभी नहीं ले सकोगे।”

संन्यासी बोले, “मृत्युंजय, तो फिर सुनो? तुम्हें सारी बात सुनाता हूँ। तुम जानते हो, तुम्हारे पितामह का एक छोटा सहोदर भाई था, उसका नाम था शंकर।”

मृत्युंजय ने कहा, “हाँ, वे घर से लापता हो गए थे।”

संन्यासी ने कहा, “मैं वही शंकर हूँ।” मृत्युंजय ने हताश होकर दीर्घ निश्वास छोड़ी, इतने दिन तक वह यह निश्चय किए बैठा था कि इस गुप्त धन पर एकमात्र उसी का अधिकार है, उसी के वंश के आत्मीय ने आकर यह अधिकार नष्ट कर दिया।

शंकर ने कहा, “संन्यासी से लेख पाने के बाद भैया ने उसे मुझसे छिपाने का पूरा यत्न किया था। किन्तु वे जितना ही छिपाने लगे, मेरी उत्सुकता उतनी ही बढ़ने लगी। उन्होंने इस लेख को देवी के आसन के नीचे बक्स में छिपाकर रखा था, मुझे इसका पता लग गया; और दूसरी चाबी बनवाकर प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके लेख की प्रतिलिपि करने लगा। जिस दिन नक़ल समाप्त कर ली, उसी दिन मैं इस धन की खोज में घर छोड़कर बाहर निकल पड़ा। मेरे भी घर में अनाथा स्त्री और एक बच्चा था। आज उनमें से कोई नहीं बचा है।

“कितने देश-देशांतरों में भ्रमण किया है इसका विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। संन्यासी के दिए हुए इस लेख को कोई संन्यासी मुझे अवश्य समझा देगा, यह समझकर मैंने अनेक संन्यासियों की सेवा की। अनेक पाखंडी संन्यासियों ने मेरे इस काग़ज़ का पता लगाकर इसे चुराने की भी कोशिश की। इस प्रकार एक के बाद एक कितने ही वर्ष बीत गए, मेरे मन को क्षण-भर के लिए भी सुख नहीं मिला, शांति नहीं मिली।

“अंत में पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के प्रभाव से कुमायूँ-पर्वतों में बाबा स्वरूपानंद स्वामी का संग मिला। उन्होंने मुझसे कहा, “बैठो, तृष्णा दूर करो, तभी विश्वव्यापी अक्षय संपदा अपने-आप तुम्हें प्राप्त होगी।’

“अंत में पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य के प्रभाव से कुमायूँ-पर्वतों में बाबा स्वरूपानंद स्वामी का संग मिला। उन्होंने मुझसे कहा, “बैठो, तृष्णा दूर करो, तभी विश्वव्यापी अक्षय संपदा अपने-आप तुम्हें प्राप्त होगी।’

“उन्होंने मेरे मन के ताप को शीतल कर दिया। उनकी कृपा से आकांक्षा का आलोक और धरती की श्यामलता मेरे लिए राज-संपदा हो गई। एक दिन पर्वत की शिला के नीचे शीतकाल की संध्या के दिन परमहंस बाबा की धूनी में आग जल रही थी‒उसी आग को अपना काग़ज समर्पित कर दिया। बाबा थोड़ा मुस्कुराए। उस हँसी का अर्थ उस समय नहीं समझा था, आज समझा हूँ। उन्होंने अवश्य मन-ही-मन कहा हो कि काग़ज़ को राख कर डालना आसान है, किन्तु वासना इतनी जल्दी भस्मसात् नहीं होती।

“काग़ज़ का जब कोई चिह्न शेष न रहा, तब जैसे मेरे मन के चारों ओर से एक नागपाश-बंधन पूर्ण रूप से खुल गया हो। मुक्ति के अपूर्व आनंद से मेरा चित्त परिपूर्ण हो उठा। मैंने सोचा ‘अब मुझे कोई भय नहीं‒जगत् में मैं और कुछ नहीं चाहता।’

“उसके कुछ समय बाद परमहंस बाबा का हाथ छूट गया। उनको बहुत ढूँढ़ा, कहीं भी उन्हें न देख सका।

“अब मैं संन्यासी होकर निरासक्त मन से विचरने लगा। अनेक वर्ष बीत गए‒उस लेख की बात प्रायः भूल ही गया था।

“इस बीच एक दिन धारागोल के इस जंगल में प्रवेश करके एक टूटे मंदिर में आश्रय ग्रहण किया। दो-एक दिन रहते-रहते देखा, मंदिर की भीत पर स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार के चिह्न बने हुए हैं। ये चिह्न मेरे पूर्व परिचित थे।

“कभी बहुत दिनों तक जिसकी खोज में फिरा था, उसका सुराग मिल गया, इसमें मुझे संदेह न रहा। मैंने कहा, ‘यहाँ अब रहना नहीं होगा, यह वन छोड़ चलूँ।’

“किन्तु छोड़कर जाना संभव नहीं हुआ। सोचा, ‘देख ही क्यों न लिया जाए, क्या है‒कौतूहल को बिलकुल शांत कर देना ही अच्छा है।’ चिह्नों को लेकर काफ़ी विचार किया; कोई फल न निकला। बार-बार लगने लगा कि वह काग़ज़ क्यों जला डाला‒उसको रखे रहने में ही क्या क्षति थी?

“तब मैं फिर अपने जन्म-स्थान गया। अपने पैतृक घर की अत्यंत दुर्व्यवस्था देखकर सोचा, ‘संन्यासी हूँ, मुझे धन-रत्नों से क्या प्रयोजन, किन्तु ये ग़रीब लोग तो गृहस्थ हैं, उस गुप्त संपत्ति का इनके लिए उद्धार करने में कोई दोष नहीं है।’

“मुझे पता था कि वह लेख कहाँ है, उसे प्राप्त करना मेरे लिए तनिक भी कठिन नहीं हुआ।

“उसके बाद एक वर्ष से यह काग़ज़ लिए मैंने इस निर्जन वन में गणना की है और खोज की है। मन में और कोई चिन्ता न थी। बार-बार जितनी बाधाएँ आती थीं, उत्तरोत्तर उतना ही आग्रह बढ़ता जाता था‒उन्मत्त की भाँति रात-दिन इसी एक अध्यवसाय में रत रहा।

“इस बीच कब तुमने मेरा पीछा किया, मैं न जान सका। मैं अपनी सहज अवस्था में रहता तो तुम कभी अपने को मुझसे छिपाकर न रख पाते, किन्तु मैं तन्मय था, बाहर की घटनाएँ मेरी दृष्टि आकर्षित नहीं करती थीं।

“उसके बाद, जो खोज रहा था, वह आज अभी मिला है। यहाँ जितना है, पृथ्वी पर किसी राजराजेश्वर के भंडार में भी उतना धन नहीं है। बस केवल एक संकेत का रहस्य समझते ही वह धन मिल जाएगा।

“यह संकेत ही सबसे कठिन है। किन्तु वह संकेत भी मैंने मन-ही-मन जान लिया है। इसलिए ‘मिल गया’ कहकर मन के उल्लास में चीख़ उठा। यदि चाहूँ तो क्षण-भर में उस सोने और माणिकों के भंडार के बीच खड़ा हो सकता हूँ।”

मृत्युंजय ने शंकर के पैर पकड़कर कहा, “तुम संन्यासी हो, तुम्हें धन की कोई ज़रूरत नहीं है‒मुझे उस भंडार में ले चलो। मुझे वंचित मत करो!”

शंकर ने कहा, “आज मेरा अंतिम बंधन खुल गया है। तुम जो पत्थर फेंककर मुझे मारने के लिए तैयार हुए थे, उसकी चोट तो मेरे शरीर में नहीं लगी, किन्तु उसने मेरे मोहावरण को भेद डाला है। आज मैंने तृष्णा की कराल मूर्ति देख ली। मेरे गुरु परमहंसदेव की गूढ़ प्रशांत हँसी ने इतने दिनों के बाद मेरे हृदय में कल्याण-दीप की सदा जलनेवाली आलोक-शिखा जला दी है।”

मृत्युंजय ने शंकर के पैर पकड़कर फिर कातर स्वर में कहा, “तुम मुक्त पुरुष हो, मैं मुक्त नहीं, मैं मुक्ति नहीं चाहता, मुझे इस ऐश्वर्य से वंचित नहीं कर पाओगे।”

संन्यासी ने कहा, “वत्स, तब तुम अपना यह लेख लो। यदि न धन ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ लो!”

इतना कहकर अपना डंडा और लेख मृत्युंजय के पास रखकर संन्यासी चले गए। मृत्युंजय ने कहा, “मुझ पर दया करो, मुझे छोड़कर मत जाओ‒मुझे दिखा दो!”

कोई उत्तर नहीं मिला।

तब मृत्युंजय ने लाठी का सहारा लेकर हाथ से टटोलते हुए सुरंग से बाहर निकलने की चेष्टा की। किन्तु रास्ता अत्यंत जटिल था, गोरखधंधे के समान बार-बार रुकावटें आने लगीं। अंत में घूमते-घूमते थककर एक जगह लेट गया और नींद आते देर नहीं हुई। नींद से जब जगा, तब रात थी या दिन; या कितना समय था, यह जानने का कोई उपाय न था। ख़ूब भूख लगने पर मृत्युंजय ने चादर के कोने में बँधा चिवड़ा खोलकर खा लिया। उसके बाद फिर एक बार हाथ से टटोलकर सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगा। अनेक जगह रुकावट मिलने के कारण बैठ गया। तब चिल्लाकर पुकारा, “हे संन्यासी! तुम कहाँ हो।”

उसकी वह पुकार सुरंग की समस्त शाखा-प्रशाखाओं से बार-बार प्रतिध्वनित होने लगी। थोड़ी दूर से उत्तर आया, “मैं तुम्हारे पास ही हूँ‒क्या चाहते हो, बोलो!”

मृत्युंजय ने दीन स्वर में कहा, “धन कहाँ है, दया करके मुझे दिखा दो!”

फिर कोई उत्तर नहीं मिला। मृत्युंजय ने बारंबार पुकारा। कोई उत्तर नहीं मिला। दंड प्रहरों द्वारा अविभक्त पृथ्वी की इस चिररात्रि में मृत्युंजय और एक बार सो लिया। नींद से फिर उसी अंधकार में वह जागा। चिल्लाकर पुकारा “अजी हो क्या!”

पास से ही उत्तर मिला, “यहीं हूँ। क्या चाहते हो?”

मृत्युंजय ने कहा, “मैं और कुछ नहीं चाहता‒इस सुरंग से मेरा उद्धार करके ले चलो!”

संन्यासी ने प्रश्न किया, “तुम धन नहीं चाहते?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, नहीं चाहता।”

तभी चक़मक़ रगड़ने का शब्द हुआ और कुछ देर बाद बत्ती जल गई। संन्यासी ने कहा, “तो फिर आओ मृत्युंजय, इस सुरंग से बाहर चलें।”

मृत्युंजय ने दयनीय स्वर में कहा, “बाबा, क्या सब-कुछ बिलकुल व्यर्थ जाएगा। इतने कष्ट के बाद भी क्या धन नहीं मिलेगा।”

उसी क्षण बत्ती बुझ गई। मृत्युंजय बोला, “तुम कितने निष्ठुर हो!” और यह कहकर वहीं बैठकर सोने लगा। समय का कोई हिसाब न था, अंधकार का कोई अंत न था। मृत्युंजय को इच्छा हुई कि अपने तन-मन के सारे बल से इस अंधकार को फोड़कर चूर्ण कर डाले। प्रकाश आकाश और विश्व-सौन्दर्य की विचित्रता के लिए उसके प्राण व्याकुल हो उठे, बोला, “हे संन्यासी! निष्ठुर संन्यासी! मैं धन नहीं चाहता, मेरा उद्धार करो!”

संन्यासी ने कहा, “धन नहीं चाहते? तो फिर मेरा हाथ पकड़ो। मेरे साथ चला!”

इस बार बत्ती नहीं जली। एक हाथ में लाठी और एक हाथ में संन्यासी का उत्तरीय पकड़कर मृत्युंजय धीरे-धीरे चलने लगा। बहुत देर तक कई टेढ़े-मेढ़े रास्तों में ख़ूब घूम-फिरकर एक जगह आकर संन्यासी ने कहा, “खड़े रहो!”

मृत्युंजय खड़ा रहा। उसके पश्चात् मोरचा लगे लोहे के एक दरवाज़े के खुलने का भयंकर शब्द सुनाई दिया। संन्यासी ने मृत्युंजय का हाथ पकड़कर कहा, “आओ!”

मृत्युंजय ने आगे बढ़कर जैसे किसी कमरे में प्रवेश किया। तब फिर चक़मक़ रगड़ने का शब्द सुनाई दिया। कुछ देर बाद जब मशाल जल गई, तब यह कैसा अद्भुत दृश्य! चारों ओर दीवारों पर पृथ्वी के गर्भ में रुद्ध प्रखर सूर्यालोक-पुंज के समान तह पर तह सोने का मोटा-मोटा पत्तर मढ़ा हुआ था। मृत्युंजय की आँखें चमकने लगीं। वह पागल की भाँति बोल उठा, “यह सोना मेरा है‒इसे मैं किसी भी प्रकार छोड़कर नहीं जा सकता।”

संन्यासी ने कहा, “अच्छा छोड़कर मत जाना, यह मशाल रही‒और वह सत्तू चिवड़ा और एक बड़े लोटे में जल रखे जाता हूँ।”

देखते-देखते संन्यासी बाहर चले गए और उस स्वर्ण-भंडार के लोहे के दरवाज़े के किवाड़ बंद हो गए।

मृत्युंजय बार-बार इस स्वर्ण-पुंज का स्पर्श करता हुआ सारे कमरे में चक्कर लगाने लगा। सोने के छोटे-छोटे टुकड़े तोड़कर ज़मीन के ऊपर फेंकने लगा, गोद में बटोरने लगा, एक से दूसरे को टकराकर शब्द करने लगा और सारे शरीर पर फेरकर उसका स्पर्श लेने लगा। अंत में थककर सोने का पत्तर बिछाकर उसके ऊपर लेटकर सो गया।

जगकर देखा, चारों ओर सोना झिलमिला रहा था। सोने के अलावा और कुछ न था। मृत्युंजय सोचने लगा, “धरती पर शायद अब तक प्रभात हो गया होगा, समस्त जीव-जंतु आनंद से जाग उठे होंगे।’ उसके घर में तालाब के किनारे के बाग़ से प्रातःकाल जो स्निग्ध सुगंध आती थी, वहीं मानो उनकी कल्पना में उसकी नाक में प्रवेश करने लगी। उसे मानो स्पष्ट दिखाई दिया कि छोटी-छोटी बत्तख़ें झूमती-झूमती कलरव करती हुईं प्रातःकाल आकर तालाब में तैर रही हों और घर की नौकरानी बामा कमर में आँचल लपेटे ऊपर उठे दाहिने हाथ में पीतल-काँसे की थाली कटोरियों का ढेर लिये घाट पर जमा कर रही है।

दरवाज़ा पीटकर मृत्युंजय पुकारने लगा, “ओ संन्यासी महाराज, हो क्या?”

द्वार खुल गया। संन्यासी ने कहा, “क्या चाहते हो?”

मृत्युंजय बोला, “मैं बाहर जाना चाहता हूँ‒किन्तु क्या सोने के दो-एक पत्तर भी साथ नहीं ले जा सकूँगा।”

उसका कोई उत्तर दिए बिना संन्यासी ने फिर मशाल जलाई‒एक भर हुआ कमंडल रख दिया और उत्तरीय से कई मुट्ठी चिवड़ा ज़मीन पर रखकर बाहर चले गए। द्वार बंद हो गया।

मृत्युंजय ने सोने का एक पतला पत्तर लेकर उसे मोड़कर टुकड़े-टुकड़े करके तोड़ डाला। उस टूटे हुए सोने को लेकर कमरे के चारों ओर मिट्टी के ढेले के समान बिखेरने लगा। कभी दाँतों से काटकर सोने के पत्तर में दाग़ करता। कभी सोने के किसी पत्तर को ज़मीन पर फेंककर उसके ऊपर बार-बार पदाघात करता। मन-ही-मन कह उठता, ‘पृथ्वी पर ऐसे सम्राट कितने हैं, जो सोने को इस प्रकार इधर-उधर बिखेर सकते हैं।’ मृत्युंजय पर मानो एक प्रलय की सनक सवार हो गई। उसकी इच्छा होने लगी कि वह उस स्वर्ण-राशि को चूर्ण करके धूल के समान फाँक-फाँककर उड़ा दे‒और इस प्रकार से पृथ्वी के सारे स्वर्ण-लुब्ध राजा-महाराजाओं का तिरस्कार करे।

इस तरह जितनी देर हो सका, मृत्युंजय ने सोने को लेकर खींच-तान की और फिर थककर सो गया। नींद खुलने पर वह अपने चारों ओर फिर वही स्पर्श-राशि देखने लगा। तब दरवाज़े को पीटकर वह चिल्लाकर बोल उठा, “ओ संन्यासी, मैं यह सोना नहीं चाहता‒सोना नहीं चाहता!”

किन्तु, द्वार नहीं खुला। चिल्लाते-चिल्लाते मृत्युंजय का नशा बैठ गया, किन्तु द्वार नहीं खुला। सोने के एक-एक पिण्ड को लेकर वह फेंककर दरवाज़े पर मारने लगा, किन्तु कोई परिणाम न निकला। मृत्युंजय का हृदय बैठने लगा, ‘तब क्या संन्यासी नहीं आएँगे। इस स्वर्ण-कारागार में तिल-तिल पल-पल करके सूखकर मर जाना होगा!’

तब सोना देखकर उसे डर लगने लगा। विभीषिका के मौन कठोर हास्य के समान सोने का वह स्तूप चारों ओर स्थिर होकर खड़ा था‒उसमें स्पंदन नहीं था, परिवर्तन नहीं‒मृत्युंजय का हृदय अब काँपने लगा, व्याकुल होने लगा, उसके साथ उनका कोई संपर्क नहीं था, वेदना का कोई संबंध न था। सोने के ये पिण्ड न प्रकाश चाहते थे, न आकाश, न वायु, न प्राण, न मुक्ति, ये इस चिर अंधकार में चिरकाल से उज्जवल रहकर, कठोर होकर, स्थिर होकर पड़े थे।

पृथ्वी पर अब गोधूलि वेला होगी! अहा! गोधूलि का वह सुनहलापन क्षण-भर के लिए आँखों को शीतल करके अंधकार-प्रांत में रोकर विदा लेता है। उसके पश्चात् कुटिया के आँगन में संध्या-तारा निर्निमेष दृष्टि से देखने लगता है। गौशाला में दीपक जलाकर बहू घर के कोने में संध्या-दीप रखती है। मंदिर की आरती का घंटा बजने लगता है।

गाँव की, घर की अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ बातें आज मृत्युंजय की कल्पना-दृष्टि के आगे उज्ज्वल हो गईं। उनका वह भोला कुत्ता पूँछ-सिर एक करके आँगन के कोने में संध्या के बाद सोता रहता, वह कल्पना भी जैसे उसको व्यथित करने लगी। धारागोल गाँव में कई दिन जिस मोदी की दुकान में उसने आश्रय लिया था, वह इस समय रात में दीपक बुझाकर, दुकान बंद करके धीरे-धीरे गाँव में घर की ओर भोजन करने जा रहा होगा, यह बात स्मरण करके उसको लगने लगा, मोदी कितना सुखी है! आज कौन दिन है क्या पता! यदि रविवार होगा तो अब तक हाट से आदमी अपने-अपने घर लौट रहे होंगे, बिछुड़े हुए साथी को ऊँचे स्वर में बुला रहे होंगे, दल बनाकर पार जानेवाली नावों द्वारा पार हो रहे होंगे, मैदान के रास्ते, अनाज के खेतों की मेंड़ पार करके, गाँव के सूखे बाँसों के पत्तों से ढके आँगन की बग़ल से होकर किसान लोग हाथ में दो-एक मछली लटकाए सिर पर टोकरी लिये अँधेरे में तारों भरे आकाश के क्षीण प्रकाश में एक गाँव से दूसरे गाँव चले जा रहे होंगे।

पृथ्वी के ऊपरी तल की इस विचित्र वृहत् चिर-चंचल जीवन-यात्रा में तुच्छतम, दीनतम होकर अपना जीवन मिला देने के लिए मिट्टी के सैकड़ों स्तर भेजता हुआ जगत् का आह्वान उसके पास पहुँचने लगा। वह जीवन, वह आकाश, पृथ्वी के संपूर्ण मणि-माणिक्यों से उसे अधिक मूल्यवान प्रतीत होने लगा। उसको लगने लगा, ‘केवल क्षण-माणिक्यों से उसे अधिक मूल्यवान प्रतीत होने लगा। उसको लगने लगा, ‘केवल क्षण-भर के लिए एक बार यदि अपनी उस श्यामा जनी धारित्री की धूलि-भरी गोद में, उस उन्मुक्त आलोकित नील गगन के नीचे घास-पात की गंध से बसी उस वायु से हृदय भरकर एक बार अंतिम निश्वास लेकर मर सकता तो जीवन सार्थक हो जाता।’

इसी समय द्वार खुल गया। कमरे में प्रवेश करके संन्यासी ने कहा, “मृत्युंजय, क्या चाहते हो!”

वह बोल उठा, “मैं और कुछ नहीं चाहता‒मैं इस सुरंग से, अंधकार से, गोरख-धंधे से, इस सोने के कारागार से बाहर निकलना चाहता हूँ। मैं प्रकाश चाहता हूँ, आकाश चाहता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ।”

संन्यासी ने कहा, “इस सोने के भंडार से भी अधिक मूल्यवान रत्नभंडार कहाँ है। एक बार वहाँ नहीं चलोगे?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, नहीं जाऊँगा।”

संन्यासी ने कहा, “एक बार देख आने की भी उत्सुकता नहीं है?”

मृत्युंजय ने कहा, “नहीं, मैं देखना भी नहीं चाहता। मुझे यदि कौपीन पहनकर भिक्षा माँगते घूमना पड़े तो भी मैं यहाँ क्षण-भर भी नहीं काटना चाहता।”

संन्यासी ने कहा, “अच्छा, तो फिर आओ।”

मृत्युंजय का हाथ पकड़कर संन्यासी उसे उस गहरे कुएँ के पास ले गए। उसके हाथ में वह लेख-पत्र देकर कहा, “इसे लेकर तुम क्या करोगे?”

मृत्युंजय ने उस पत्र को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके कुएँ में फेंक दिया।

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