गुलाब का इत्र (तेलुगु कहानी) : श्रीपाद सुब्रह्मण्य शास्त्री
Gulab Ka Itra (Telugu Story) : Sripada Subrahmanya Shastri
एक कदम आगे बढ़ने पर दीवानजी के दर्शन होंगे।
दीवानजी की कृपा के संपादन के लिए राजधानी के प्रतिष्ठित नागरिक, राजपुरुष, राजा के परिचारक और राजवंश से संबंधित बहुत से व्यक्ति वहाँ पहले से उपस्थित थे।
उपस्थित लोगों में से कुछ ने उस नवागंतुक व्यक्ति को देखा। नवागंतुक ने खड़े होकर कमरे में एक दृष्टि डाली और फिर इत्मीनान के साथ दोनों हाथ फैलाए। इसके बाद उसने बड़ी तेजी से शीशी की डाट खोली। अपना सिर पीछे हटाकर उसने शीशी का खुला मुँह हवा की ओर कर दिया। नवागंतुक का नाम शुकूरअलीखाँ था।
शुकूरअलीखाँ ने तत्काल शीशी के मुँह पर डाट लगा दी, शीशी का मुँह पल भर ही खुला रहा होगा, किंतु इसी बीच ऐसी गंध निकली कि पहरेदार झूमने लगे, जैसे खुमारी में हों।
कमरे में बैठे हुए लोग भी इस सुगंध से चौंक पड़े।
थानेदार साहब दीवानजी की बगल में कुछ पीछे खड़े हुए दीवानजी की कलम पर नजर गाड़े हुए थे, सुगंध के आते ही चकित दृष्टि से सिंहद्वार की ओर देखा और फिर अपना सिर झुका लिया। थानेदार मन-ही-मन गुनगुनाया-"आ गया।"
इसी समय दीवान ने इधर-उधर तीक्ष्ण दृष्टि दौड़ाकर खाँसते हुए गरजकर कहा, "यह दुर्गंध कैसी है?" दीवानजी के इस प्रश्न से लोगों ने अनुभव किया, जैसे शुभ्र चाँदनी में अंधकार की रेखा खिंच गई है।
गंध तीव्र अवश्य थी, किंतु इतनी मनमोहक महक को दीवानजी ने दुर्गंध बताया तो उपस्थित लोग चकित रह गए। वे अपनी आँखों में कुछ हास्य लिये हुए एक-दूसरे को देखने लगे।
"अरे रे!" थानेदार के मुँह से इतना ही निकला था कि उसने मुँह मोड़कर अपने ओठ काट लिये।
शुकूरअलीखाँ पथराई आँखों से ताकता रह गया। दीवानजी का दुर्गंध शब्द सभी को स्तब्ध कर गया था। शुकूरअलीखाँ ने अपनी पचास वर्ष की आयु में पहली बार ऐसे व्यक्ति को देखा था, जो इत्र की सुगंध को दुर्गंध बता रहा था।
दो वर्ष पूर्व शुकूरअलीखाँ लाख यत्न करके गोलकुंडा दुर्ग में प्रवेश पा सका था। डेढ़ महीने तक उसने प्रतीक्षा की थी, किंतु वजीर के दर्शन नहीं हुए थे। वह तंग आकर घर लौटने ही वाला था कि एक दिन अकस्मात् उसे वजीर के दरबार में जाने की अनुमति मिल गई। खस के साधारण इत्र से ही वजीर के दरबारी उछल पड़े थे और वजीर साहब कम प्रसन्न नहीं हुए थे।
वहाँ के नवाब ने भी कितनी प्रशंसा की थी!
यहाँ पेद्दापुरम में पहुँचते ही वजीर से मिलने का प्रबंध हो गया। दूसरे दिन ही थानेदार को पटा लिया था। तीसरे दिन वजीर के दरबार में जाने की अनुमति मिल गई, लेकिन परिणाम यह हुआ! शुकूरअलीखाँ जानता है कि मुसलमान सरदारों की भाँति हिंदुओं में लीला-विलास के साधनों का अधिक महत्त्व नहीं है। जो आदमी इत्र की सुगंध को दुर्गंध कहे, वह राज्य में राजा के पश्चात् सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पद-मंत्रिपद पर कैसे रह सकता है। बड़े लोगों के वैभव-विलास से दीवानजी निरपेक्ष तो नहीं है? हो सकता है यहाँ के महाराजा में भी विलास-सामग्रियों के प्रति अरुचि हो।
कुछ भी हो, दीवानजी का आचरण शुकूरअलीखाँ को बहुत असंगत प्रतीत हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मेरे इत्र का न जाने क्या फल निकले। इतना सब होते हुए भी वह निराश नहीं हुआ। इसी बीच थानेदार ने द्वार की ओर देखकर जोर से आवाज दी-"चपरासी!"
"श्रीमान" चपरासी ने कमरे में पहुँचकर कहा, "श्रीमान, दिल्ली से एक इत्र बेचनेवाला आया है। आपके दर्शनों का अभिलाषी है।"
थानेदार बोल उठा, "अन्नदाता, जिसके बारे में मैंने निवेदन किया था, वही आया है।"
दीवानजी ने सिर ऊपर नहीं उठाया। बोले, "वह इत्रवाला क्या इस दरबार में ही अपनी दुकान लगाना चाहता है?" दीवानजी के स्वर में कड़ाई थी।
यह उत्तर सुनकर चपरासी और थानेदार दोनों स्तब्ध रह गए। शुकूरअलीखाँ का मुँह तो सफेद पड़ गया था।
"मंत्रिप्रवर, मेरी प्रार्थना सुनिए। नवागंतुक का आशय अच्छा ही दिखाई देता है। थानेदार ने इस व्यक्ति का परिचय दिया था, किंतु उस परिचय से इस व्यक्ति के गुणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती थी। इत्र की सुगंध को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता, इसीलिए उसने एक शब्द भी न कहा। अपने इत्र की विशेषता प्रकट की है। दिल्ली निवासी के लिए यह आचरण बहुत साधारण ही कहा जाएगा। वहाँ बड़े-बड़े अमीर-उमराव रहते हैं। उन अमीर-उमरावों को इत्र बेचनेवाला साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता। उससे आपको अवश्य मिलना चाहिए।" शास्त्रीजी ने थानेदार की ओर देखते हुए दीवानजी से निवेदन किया।
दीवानजी ने न तो सिर उठाया और न इधर-उधर देखने का प्रयत्न किया। केवल लिखना रोककर कलम नीचे रख दी और सुँघनी की डिब्बी हाथ में ले ली।
"उपस्थित करो।" थानेदार ने कहा।
सुनते ही दीवानजी की भौहें तन गई। आँखों में झलक दिखाई दी, जैसे उनके मस्तिष्क में कोई गंभीर विचार चल रहा है।
एक ही छलाँग में कमरे के बीचो-बीच पहुँचकर शुकूरअलीखाँ ने झुक झुककर तीन बार अभिवादन किया। फिर बोला, "बंदा आपकी खिदमत में लाखों सलाम पेश करता है। आपके कदम ढूँढ़ता-ढूँढ़ता मैं दिल्ली से आया हूँ।"
शुकूरअलीखाँ के अभिवादनों को आँखों से स्वीकार करते हुए दीवानजी दर्प के साथ बोले,
"क्या करते हो?"
"इत्र बनाता हूँ। मैंने सूना था, दक्षिण में गोलकुंडा के बाद पेदापुरम ही देखने लायक है। इसीलिए मैं पंख लगाकर हुजूर के दरबार में हाजिर हुआ हूँ। आपकी मेहरबानी चाहिए।" शकूरअलीखाँ ने बहुत ही नम्रता के साथ निवेदन किया।
"पंख होते तो कहीं-न-कहीं उड़ जाते, इस तरह सिकुड़कर थोड़े ही बैठते।" दीवानजी ने डाँट लगाई।
शुकूरअलीखाँ डाँट को पहचान गया, किंतु प्रसंग बदलने के लिए उसने कहा, "आपने बजा फरमाया, हुजूर, पंख होने का लाभ यह है कि जहाँ रसिक हों वहीं पहुँच सकता हूँ। इसीलिए तो चार पीढ़ी पहले मेरे पूर्वज ईरान छोड़कर दिल्ली उड़ आए थे। सेना में अच्छा पद मिल रहा था, किंतु मेरे पूर्वजों ने अपना हुनर नहीं छोड़ा और इत्र बनाकर दिल्ली के शासकों का आदर पाते रहे।"
"ठीक है।" दीवानजी ने रूखा सा उत्तर दिया।
"मैं अपने पिता की आज्ञा लेकर दक्षिण के नवाबों, राजाओं और मंत्रियों की सेवा करने आया हूँ। गोलकुंडा के नवाब और वजीर दोनों हमारी मेहनत से बहुत खुश हुए।" शुकूरअलीखाँ ने कहा।
"मुझसे क्या चाहते हो?"
शुकूरअलीखाँ ने निवेदन किया, "केवल आपकी कृपा चाहिए।"
उसने एक छोटी सी पेटी खोलकर दीवानजी के सामने रख दी। पेटी का भीतरी भाग लाल रंग के सुंदर मखमल से सजा हुआ था। मखमल से ढकी एक छोटी सी शीशी थी। शीशी पर नक्काशी का काम था। देखने में सुंदर थी। आधी से अधिक शीशी को हाथ में लेकर शुकूरअलीखाँ बोला, "सरकार, यह चमेली का इत्र है। दो वसंत ऋतुओं में केवल दो तोला तैयार हुआ है।"
"ओह!" दीवानजी ने कहा।
"अपनी चीज की प्रशंसा करना अच्छी बात नहीं है, हुजूर! आप स्वयं अपना मुँह दूर रखकर इसकी डाट हटाइए।" यह सुनकर उपस्थित लोगों ने अपनी चेतना-शक्ति नासिका में केंद्रित कर ली, किंतु दीवानजी वैसे ही बने रहे। उन्होंने रूखे स्वर में कहा, "डाट खोलना ही मेरा काम रह गया है?"
शुकूरअली मन-ही-मन क्रुद्ध हो उठा। वह अच्छी तरह जानता है कि अधिकार का मद मनुष्य को अंधा बना देता है। जिस दिल्ली में अनगिनत अमीर-उमराव रहते हैं, उस दिल्ली में ही उसने पहले-पहल इस तथ्य का साक्षात्कार किया था। इस प्रकार के मदांध लोगों को ठीक-ठीक उत्तर देना उसे आता है।
यदि किसी अन्य कार्य से वह पेद्दापुरम आया होता तो ठीक-ठीक उत्तर देता भी, किंतु जिस काम से वह आया है, उसमें ठीक-ठीक उत्तर देने से बाधा पड़ती। वह किसी पुरस्कार के लिए प्रयत्नशील नहीं था। अपने इत्र का प्रचार करना चाहता था। जब तक राजा के दर्शन न हों, उसके इत्र को आदर नहीं मिल सकता था।
राजसभा में काँटे बिछे रहते हैं, वह हिंस्र-पशु के समान आचरण करनेवाले व्यक्तियों से घिरी रहती है।
ऐसी स्थिति में अपने पित्त को मारकर सहनशीलता का परिचय देना पड़ता है। व्यवहार-कुशलता ही ऐसी सभा में सहायक हो सकती है। यह बात ध्यान में रखकर शुकूरअलीखाँ ने विनय के साथ कहा, "हुजूर की इजाजत हो तो...."
थानेदार ने बीच में टोका-"दीवानजी तुम्हारी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। पहले तुम अपने आगमन के उद्देश्य से दीवानजी को परिचित कराओ।"
"जी हाँ, आपने ठीक फरमाया।" शुकूरअलीखाँ ने आँखों-ही-आँखों में थानेदार की प्रशंसा करते हुए एक दूसरी पेटी खोलकर दीवानजी के सामने रख दी। इस पेटी का भीतरी भाग हरे रंग के मखमल से मढ़ा हुआ था।
सुंदर नक्काशी के कारण इत्र की शीशी अगणित रत्नों की कांति से जगमग-जगमग कर रही थी। इस शीशी में लाल रंग का इत्र भरा हुआ था।
सभी सभासद शीशी देखकर मंत्रमुग्ध हो गए; किंतु दीवानजी ने सिर उठाकर उस शीशी की ओर देखा तक नहीं। उनके इस आचरण से सब लोग निराश हो गए। शुकूरअलीखाँ ने चेहरे पर बनावटी भोलापन लाकर कहा, "हुजूर, सब कुछ जानते हैं। पेद्दापुरम के महाराज को यह इत्र भेंट देना चाहता हूँ। गोलकुंडा के नवाब को जिस तरह खस का इत्र पसंद है, उसी तरह पेद्दापुरम के महाराज गुलाब का इत्र बहुत पसंद करते हैं। इस शीशी में केवल एक तोला इत्र है। इस इत्र के लिए कश्मीर से फूल मँगाए गए थे और इसकी तैयारी में पूरे दो साल लगे।"
दरबारी लोगों ने इस प्रकार के इत्र पर आश्चर्य प्रकट किया। दीवानजी ने धीरे से कहा, "आश्चर्य की क्या बात है? अच्छी चीज कुछ क्षणों में तैयार नहीं हो सकती।' फिर कृत्रिम दया दिखाते हुए बोले, "इस इत्र की तैयारी में जाने बेचारों का कितना खर्च हुआ होगा!"
शुकूरअलीखाँ स्तब्ध रह गया। उसकी इस स्तब्धता और दीवानजी की उपेक्षा पर सब लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ।
शुकूरअलीखाँ को अनेक राजसभाओं में जाने का अवसर मिल चुका है। बड़े-बड़े नवाबों, वजीरों और सरदारों की प्रशंसा पाकर वह फूला नहीं समाया। उसने कई लोगों से सुना था कि पेद्दापुरम के महाराज बड़े रसिक और सहृदय हैं, इसीलिए वह बड़ी-बड़ी आशाएँ लिये यहाँ आया था और महाराज से मिलने के लिए दीवानजी की सहायता माँग रहा था। उसका विचार था कि किसी तरह राजा के दर्शन हो गए तो निहाल हो जाएगा, इसीलिए उसने अपनी स्तब्धता तथा क्रोध पर काबू पाकर विनीत स्वर में कहा, "मैं यह इत्र दक्षिण देश के शासकों के शिरोमणि पेद्दापुरम के महाराज को भेंट देने के लिए लाया हूँ, उन्हीं के लिए तैयार किया गया है। मैं इसकी कीमत नहीं लेना चाहता।"
शुकूरअलीखाँ की आँखों में व्यथा झलक रही थी।
दीवानजी ने अपने भोलेपन का परिचय देते हुए कहा, "हमें इस बात का पता कैसे चले कि तुम हमारे महाराज का कितना आदर करते हो?"
"हुजूर, मैं यह नहीं मान सकता कि पेद्दापुरम की राजसभा में कोई व्यक्ति नहीं है, जो महाराज के लिए भेंट में लाई गई ऐसी वस्तु का मूल्य न आँक सके।"
"जो वस्तु हमारे स्वामी के लिए लाई गई है, उसे हम स्वामी की आज्ञा के बिना खोलकर नहीं देख सकते।"
"तब फिर हुजूर की सेवा में...!"
"तुम्हारा कहना उचित है, किंतु हम लोग अपने महाराज के सेवक मात्र हैं। हमें अपना कर्तव्य निभाना है।"
"हुजूर, मैं भी तो आप से अर्ज करता हूँ।"
"अर्ज करना और किसी वस्तु की भलाई-बुराई परखना, दो भिन्न बातें हैं। दिल्ली का वजीर गुण-दोष का विचार किए बिना ही किसी भी व्यक्ति को बादशाह की सेवा में भेंट देने की अनुमति प्रदान करता है।"
दीवानजी की बात सुनकर शुकूरअलीखाँ पानी-पानी हो गया।
थानेदार ने परिस्थिति को गंभीर होता देखकर प्रसंग बदलना चाहा।
उसने शुकूरअलीखाँ को संबोधित किया-"दीवानजी इस समय आवश्यक कार्य में व्यस्त हैं, फिर कभी दर्शन के लिए आना।"
सभी दरबारियों ने गहरी साँस ली। अपने प्रति सब दरबारियों की सहानुभूति देखकर शुकूरअलीखाँ बहुत प्रसन्न हुआ। सबको झुक-झुककर अभिवादन किया और पीछे हटता गया। जब वह द्वार पर पहुँचा तो परिचारक ने उसकी दोनों पेटियाँ लाकर सँभला दीं।
शुकूरअलीखाँ को रात भर नींद नहीं आई। उसका दिमाग परेशान था। आँखें खुली हों, चाहे बंद, दीवानजी की क्रुद्ध दृष्टि दिखाई देती रही। उसे अनुभव हुआ, जैसे किसी ने उसके हृदय में छुरी घोंपी है।
यह सत्य है कि स्वभाव सब का समान नहीं है और यह भी सत्य है कि मनुष्य अपने मन की बात साफ-साफ नहीं कह पाता।
जीवन की सफलता इस बात में है कि मनुष्य विरोधी शक्तियों पर विजय प्राप्त करे। किसी व्यक्ति में हृदय की प्रधानता होती है तो किसी में मस्तिष्क की। जिस व्यक्ति में मस्तिष्क की प्रधानता होती है, उसे अनुभूति नहीं होती। जब अनुभूति न हो तो सहानुभूति कहाँ?
जिस व्यक्ति में हृदय की प्रधानता होती है, वह कला से प्रेम करता है। वही व्यक्ति कला से आनंद प्राप्त कर सकता है। सहृदय को कला द्वारा आनंद प्रदान करने के लिए कलाकार को तपस्वी बनना पड़ता है। कला की साधना में वह अपना जीवन बिता देता है।
शुकूरअलीखाँ ऐसा ही कलाकार है, जिसने कला की साधना में जीवन बिताया है। उसका इत्र सुंदर कला का परिचायक है। यदि कोई उससे कह दे कि हमें तुम्हारा इत्र नहीं चाहिए तो वह बात को समझ सकता है। बिना किसी चिंता और दुःख के अपने घर लौट सकता है, किंतु...।
उसके इत्र का मूल्य केवल धन है तो उसे इतनी दूर आने की क्या आवश्यकता थी। दिल्ली नगर स्वयं एक देश है। वहाँ धनी लोगों, राजा-महाराजाओं तथा सरदारों की क्या कमी थी, उनमें अनेक लोग रसिक भी हैं। उसके इत्र के प्रशंसकों की संख्या कम नहीं है दिल्ली में। किंतु पेद्दापुरम के अधिपति श्री श्री श्रीवत्सवायि चतुर्भुज तिम्म जगपति महाराज की रसिकता दिल्ली में भी प्रसिद्धि पा चुकी है।
दिल्लीश्वर की रसिकता भी शुकूरअलीखाँ के हृदय को तृप्त नहीं कर सकी। इसीलिए वह दिल्ली से चल दिया। पेद्दापुरम के महाराजा के दर्शन के लिए उसका हृदय उद्विग्न हो उठा था।
वह दिल्ली से जैसे उड़कर आया हो। उसके जीवन का अधिकांश भाग कुसुमों के साथ बीता था, किंतु पेद्दापुरम में महाराजा उसके लिए आकाश-कुसुम बन गए। उसने अनुभव किया, एक अमूल्य हीरा कंकड़ों में दबा हुआ है। शुकूर ने सोचा, मैं यहाँ आकर कँटीली झाड़ियों से आवृत्त गड्ढे में गिर गया हूँ।
पेद्दापुरम के नाम ने दिल्ली में अनेक आशाओं का संचार किया था, किंतु यहाँ पहुँचकर उसने अपनी सभी आशाओं को निराशा में परिणत होते पाया। उसने अनुभव किया, दक्षिण हिंस्र पशुओं से भरा हुआ है। वह पश्चात्ताप करने लगा कि अपरिचितों में पहुँचकर उसने भारी मूर्खता की है।
किंतु महाराजा को इस बात का ज्ञान कहाँ है कि एक अच्छा कलाकार उनके सेवकों के कारण किस प्रकार क्षुब्ध हो उठा है। इस संसार में इस प्रकार की घटनाएँ घटित होती ही रहती हैं।
उदार और धर्मनिष्ठ शासकों के राज्य में भी विप्लव होता है, प्रजा में असंतोष फैलता है। अधिकारियों की असावधानी ही इस विप्लव और असंतोष का मूल कारण बनती है।
शुकूरअली खाँ रात भर सोचता रहा कि सम्मान पाना तो दूर, वह बिना अपमानित हुए यहाँ से जा पाएगा या नहीं। रात भर वह इसी तरह की उधेड़-बुन में लगा रहा।
मुरगे ने बाँग दी।
कौओं ने मुरगे की बाँग में अपना स्वर मिलाया।
दिन निकलते ही शुकूरअलीखाँ थानेदार के यहाँ पहुँचा। वह थानेदार के पाँवों में लेट गया। थानेदार अच्छी तरह जानता है कि इतना उत्तम इत्र अब तक पेद्दापुरम के महलों में नहीं पहुंचा है। थानेदार यह भी जानता है कि दीवानजी शुकूर को सम्मानित नहीं देखना चाहते। शुकूर अपना सिर दे सकता है, किंतु अपने इत्र का मूल्य नहीं बता सकता। महाराज यदि इस इत्र को देख पाए तो खरीदे बिना नहीं रहेंगे। दीवानजी के पास जो लोग बैठे थे, उन सब का यही विचार था।
थानेदार चिंता में डूब गया। कुछ देर बाद बोला, "साहस कर सकते हो?"
"जब आदर ही नहीं मिला तो प्राण किस काम के? आज्ञा दीजिए।" शकूर गिड़गिड़ाया।
"तुम किले में नहीं पहुँच सकते। किसी तरह पहुँच भी गए तो तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होगी।"
"तब कोई उपाय बताइए।" "महाराजा प्रतिदिन संध्याकाल पंचकल्याणी घोड़े पर चढ़कर पहाड़ियों की ओर सैर के लिए जाते हैं।"
"जी!"
"महाराज दुर्ग की चारदीवारी पार करें, उससे पहले ही उनके दर्शन करने होंगे। ऐसा उपाय करो कि खस का इत्र उनका ध्यान आकर्षित करे।"
"जी, आज्ञा दीजिए।"
"दीवानजी ने इस बात का भी कोई-न-कोई उपाय किया होगा, किंतु उन्होंने अब तक इस विषय में आदेशनहीं दिया है। यदि तुम भाग्यशाली हो तो दीवानजी तुम्हारी बात अवश्य भूल गए होंगे। उन्हें इत्रवाली बात याद है, तब तो दुर्ग में प्रवेश पाना तुम्हारे लिए संभव नहीं है। मैं तुम्हारी इससे अधिक सहायता नहीं कर सकता।"
शुकूरअलीखाँ ने ठंडी साँस ली।
"कल मैंने चंदन के इत्र की शीशी खोली थी। दीवानजी मुझ पर प्रसन्न नहीं हुए। अब खस के इत्र पर क्या विश्वास होगा। फिर भी आपके बताए हुए अंतिम उपाय को अवश्य काम में लाऊँगा। जीवित रहा तो आपके उपकार को भूलूंगा नहीं।"
अली ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए तीन बार झुक झुककर अभिवादन किया।
शुकूरअलीखाँ किले में घुसा ही था कि चार सिपाही ओठ काटते, चिल्लाते उसके पास आ धमके, उसे रोककर बोले, "कहाँ जाते हो?"
शुकूर का खून खौलने लगा। आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया, फिर भी उसने अपने आपको सँभालते हुए कहा, "दीवानजी के दर्शन करने जा रहा हूँ। मुझे आप लोग क्यों रोकते हैं?"
"इस समय तुम अंदर नहीं जा सकते।" सिपाहियों ने कहा। "मैं नया आदमी नहीं हूँ, कल शाम आवश्यक कार्य से मिल चुका हूँ। आज वही काम पूरा करना है।"
"तब उनकी ड्योढ़ी पर तुम्हें प्रतीक्षा करनी चाहिए।"
"अच्छा भाई, तब मुझे थानेदार की कचहरी में ले चलो।"
"वे इस समय दीवानजी के पास हैं। तुमसे नहीं मिल सकते।"
"वे जब तक लौटते हैं, मैं यहीं उनकी प्रतीक्षा करूँगा।"
सिपाहियों ने कहा, "यदि आपको दीवानजी या थानेदारजी से काम है, तो आप उनके घर जाइए। किले मेंकोई काम नहीं होता।"
इसी प्रकार जवाब-सवाल होते रहे। समय बीतता गया। थानेदार ने शुकूरअलीखाँ को परामर्श दिया था कि तुम किसी तरह किले में रुके रहे तो काम बन जाएगा। शकूर मन-ही-मन थानेदार को धन्यवाद देता रहा। दीवानजी ने सिपाहियों को आदेश दे रखा था कि शकूरअलीखाँ किले में कदम न रखने पाए।
सिपाहियों और शुकूरअलीखाँ में वाद-विवाद चल रहा था कि आसपास काम करनेवाले बहुत से लोग इकट्ठे हो गए। आने-जानेवाले लोग भी रुक गए। लोगों ने शुकूर से पूछा, "क्या बात है?"
शुकूरअलीखाँ ने स्थिति समझाकर किले में अंदर जाना चाहा, किंतु सिपाहियों ने अपनी विवशता प्रकट की। इस तरह आधा घंटा बीत गया। शुकूर को कहीं से सुनाई पड़ा-"बस पंद्रह मिनट और।"
सिपाही मन-ही-मन खुश थे कि उन लोगों ने शुकूर को अंदर जाने से रोक दिया। इसी बीच एक आदमी ने आकर सिपाहियों के कान में न जाने क्या कहा कि वे शुकूर को किले से बाहर जाने के लिए विवश करने लगे। शुकूरअलीखाँ समझ गया कि अब महाराजा महलों से निकलने ही वाले हैं। इसीलिए सिपाही मुझे बाहर खदेड़ना चाहते हैं। यदि मैंने इनकी बात न मानी तो मेरी गरदन नापेंगे।
शुकूर को इस बात का दुःख था कि उसकी इतनी मेहनत व्यर्थ जा रही थी। उसने हिम्मत करके वहाँ एकत्र प्रतिष्ठित लोगों से पूछा, "क्या पेद्दापुरम में कलाकारों का स्वागत इसी प्रकार होता है?"
उत्तर मिला-"हाँ।"
शकूरअलीखाँ का पूरा शरीर काँप गया। उसकी आँखें लाल हो गई। इस स्थिति में उसने तत्काल गुलाब का इत्र निकाला। उपस्थित लोगों की दृष्टि इत्र की शीशी पर केंद्रित हो गई।
"यह इत्र मैंने पेद्दापुरम के महाराजा के लिए खींचा है।" इतना कहकर शुकूरअलीखाँ ने पेटी तो नीचे पटक दी और शीशी अपने हाथ में उठा ली।
"मैंने रात-दिन बिना खाए-पिए पूरी शक्ति लगाकर बूंद-बूंद करके यह इत्र इकट्ठा किया है, इस आशा से कि इस इत्र को लेकर एक बार दक्षिण जाऊँगा। मैं जितनी प्रतिष्ठा दिल्ली के बादशाह की करता हूँ, उतनी ही पेद्दापुरम के महाराज की भी। खून-पसीना एक करके इसीलिए मैंने यह इत्र तैयार किया, किंतु यहाँ आकर मुझे ज्ञात हुआ कि महाराज जितने रसिक हैं, उनके अधिकारी उतने ही नीरस और शुष्क हैं। गुलाब के फूल की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है, किंतु वह खिलता है काँटों में। आज मेरा या मेरे इत्र का अपमान नहीं हुआ है। इस इत्र को महाराज तक पहुँचाने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है और इसे मैं दिल्ली वापस ले जाऊँ, यह मेरे लिए ही नहीं, मेरे वंश के लिए लज्जाजनक है। अब मुझे यही बात अच्छी लगती है कि अपने आसपास के लोगों को न पहचाननेवाले पेद्दापुरम के महाराज की शुभ्रकीर्ति दिल्ली निवासी शुकूरअलीखाँ के गुलाब के इत्र की सुगंध में सदा के लिए महकती रहे।" इतना कहकर शुकूरअलीखाँ ने लंबी साँस ली और इत्र की शीशी किले की दीवार पर जोर से दे मारी।
शीशी फूट गई।
जो लोग वहाँ जमा थे, उनके हृदय विकल हो उठे।
आसपास का भू-प्रदेश इत्र की सुगंध से महक उठा। महक से लोग खुमारी में आ गए।
कुछ क्षण पश्चात् लोग होश में आए। शुकूरअलीखाँ ने घूमकर देखा तो उसका चेहरा सफेद पड़ गया। शुकूरअलीखाँ के साथ सभी लोगों ने देखा पंचकल्याणी अश्व पर श्री श्री श्रीवत्सवायि चतुर्भुज तिम्म जगपति महाराज बैठे हैं। नेत्र अर्धनिमीलित, सुध-बुध भूले हुए। और पंचकल्याणी अश्व सिर उठाए प्रयत्नपूर्वक साँस ले रहा है।
पेद्दापुरम को देखकर लौटनेवाले लोग आज भी कहते हैं कि किले का वह क्षेत्र गुलाब के इत्र की महक से महकता रहता है।