गुड़िया बोली : कर्नाटक की लोक-कथा
Gudiya Boli : Lok-Katha (Karnataka)
वेद्राजपुर एक गाँव का, शहर का नाम था। उस शहर में ‘देवण्णा’ नामक एक सुनार था। उसके चार बेटे थे। बड़े बेटे का नाम भुजंगाचारी था। दूसरे का नाम था ईश्वराचारी, तीसरे का नाम आचार्यचारी था। सबसे छोटे का नाम देशिवंताचारी था। वे चारों शिल्पी थे।
तीन भगवान् का शिल्प रचते थे, मगर चौथा इन लोगों के बने शिल्प को देखकर समय बिताता था। रोज वह देखता ही रहता था। तीनों भाइयों को जब यह बात पक्की हो गई कि यह लड़का बेकार है, कोई काम नहीं करता, वे गुस्से में आकर उसे घर से बाहर निकाल देते हैं। तब वह अपना गाँव छोड़कर अमृतपुर नामक एक दूसरे गाँव में जाता है। वहाँ पर एक शिल्पी रहता था, वह उसके घर जाता है। वह शिल्पी उसका अता-पता पूछता है, पूछता है कि तुम कौन हो, तुम्हारा कौन सा गाँव है, जात कौन सी है, क्या काम करते हो?
जवाब में वह अपना नाम देशवंताचारी कहकर, मैं एक शिल्पी हूँ, मेरा गाँव वेद्राजपुर है। हम चार भाई लोग हैं। सभी का यही पेशा है, कहता है।
अमृतपुर के शिल्पी की एक बेटी और चार बेटे होते हैं। सभी उसके भाइयों जैसे ही शिल्प का काम करते हैं। उन लोगों ने यह सोचकर कि अपनी बहन इसके साथ सुखी रहेगी, उसकी शादी रचा देते हैं। देशवंताचारी इसके बाद भी कोई काम नहीं करता, आवाराग घूमकर समय बिताता रहता है। वे लोग भी उसके आलस्य को देख ऊब जाते हैं। फिर वे उसे डाँटकर कहते हैं कि तुम इस तरह आलसी बनकर समय बिताते हो, तो अपने परिवार की क्या देखभाल करोगे? अभी या तो कुछ काम करो, नहीं तो अपनी घरवाली को लेकर यहाँ से निकल जाओ।
देशवंताचारी इस बात पर अपने सालों से चिढ़ जाता है, एक अलग मकान किराए पर लेकर पत्नी के साथ रहना शुरू करता है। बीवी अपने भाइयों के यहाँ से दाल-अनाज लेकर आती है, उसे पकाकर खिलाती रहती है। यह तरीका भी कितने दिन चल सकता था? फिर वह भी इसके इस व्यवहार को देख थक जाती है, कहती है, ‘तुम अपने को शिल्पी कहते हो। कुछ काम नहीं करते, मेरे भाइयों के साथ मिलकर कोई काम क्यों नहीं करते हो?’
घरवाली की यह बात सुन देशवंताचारी अपने को अपमानित महसूस करता है।
अपने सालों के साथ लकड़ी लाने जंगल में जाता है, वे लोग पेड़ की बड़ी-बड़ी शाखाओं को काट लाते हैं तो वह छोटी-छोटी डालियों को काट लाता है। उसकी पत्नी उससे पूछती है कि मेरे भाई लोग तो बड़ी शाखाएँ ले आए हैं, फिर तुम क्यों इतनी छोटी डालियों को काट लाए हो?
देशवंताचारी अगली सुबह देवरत्न नामक एक पलंग बनाता है। पलंग के चारों पाँवों पर चार गुड़िया बनाकर उन्हें उपदेश देता है, फिर उन सबको खोलकर लकड़ी के गट्ठे जैसे बनाकर चार कोनों पर उन्हें टिका देता है। लकड़ी का गट्ठा देखकर वह हँसकर कहती है, तो रात भर तुमने यही काम किया? कोई बात नहीं, एक काम करना, किसी से मत कहो, मैं इसे ले जाकर बाजार में बेच आती हूँ। फिर देशवंताचारी अपनी पत्नी की असमर्थता को देखकर खुद ही वहाँ से लकड़ी को बेचने निकल जाता है।
वह यह बोझ उठाकर राजमहल के रास्ते से जा रहा था। वहाँ एक महिला लकड़ी का गट्ठा देखकर उससे उसका भाव पूछती है, इस पर देशवंताचारी उससे कहता है, “तुम यह नहीं खरीद सकती, तुम्हारे राजा अगर आकर खरीदना चाहें तो ठीक होगा।” वह महाराजा के पास जाकर लकड़ी की बात कहती है। महाराजा फिर उसका अता-पता पूछकर भाव पूछता है। देशवंताचारी यह कहकर कि अभी मैं भाव नहीं बताऊँगा, इस गट्ठे को खोलकर लकड़ी को सँजोइए। चार दिशाओं में चार अमरदीप जलाकर इस पलंग की पूजा कीजिए। फिर हाथ में एक कलम-पुस्तक लेकर इस पर लेट जाइएगा।” उन्हें लकड़ी का गट्ठा सौंपता है।
राजा उसी बात मानकर चारों दिशाओं में चार दीप जलाकर कलम-पुस्तक हाथ में लेकर लेटता है। उस चार कोनों पर रखे पलंग के पाँवों पर रखी गुड़ियों में से एक गुड़िया इस तरह बोलती है, “बहन सुनो, मैं बाजार जाकर घूमकर लौटने तक तुम जरा मेरी जगह पर अपना सहारा दे देना।” गुड़िया ने वैसा ही किया। यह गुड़िया बाजार में घूमकर लौटी तो तीनों गुड़ियाँ उससे बाजार की खबर के बारे में पूछती हैं। यह गुड़िया जवाब देती है कि वहाँ गोशाला में एक गाय थी, उसका बछड़ा गौशाला के दूसरे दरवाजे पर था, गाय उससे कहती थी कि यहीं पास में एक बाँबी है। तुम वहाँ जाकर सो जाओगे तो तुम्हारी भूख शांत होगी।” यह बात सुनकर राजा सब लिख लेता है।
दूसरी गुड़िया अब कहती है, “मैं अभी आ जाऊँगी, मेरे कोने पर तुम सहारा देते रहना।” तब वह गुड़िया पूरे शहर में घूम आती है। उसे आगे हनुमान मंदिर दिख जाता है। वह वहीं जाती है। मंदिर के आगे तीन हाँड़ी सोना रखा होता है, उसे गुड़िया देखती है, फिर वह राजमहल लौट आती है। तीनों गुड़ियाँ उससे पूछती हैं कि तुमने क्या-क्या देखा? वह जो-जो जवाब देती है, राजा वह सब लिख लेता है।
अब तीसरी गुड़िया की बारी आती है। वह भी उसी तरह सहारे की माँग कर शहर में घूमने जाती है। महाराज के महल के पीछे एक बड़ा घड़ा होता है। उस घड़े में विक्रमादित्य के दरबार की एक कुरसी दिखाई देती है, वह देखकर वह महल लौट आती है। आते ही तीनों एक साथ पूछती हैं कि बता, तुम क्या देखकर आई हो? उसने जो-जो देखता था, वह सब तीनों गुड़ियों को कहती है। राजा वह सब लिख लेता है।
अब चौथी गुड़िया की बारी थी। वह भी इसी तरह कहकर निकल जाती है, शहर घूम आती है। उसके लौटने पर बाकी गुड़ियाँ उससे भी पहले जैसा ही प्रश्न करती हैं। गुड़िया ने जो-जो देखा था, वह सुनाती है; शहर के पूरब में एक देवता है। वह सौ फीट के भीतर है। उस देवता के आगे एक घड़ा भर दीनार हैं। वह चाहती है कि वहाँ एक मंदिर बनवाया जाए। यही बस, मैंने देखा और यह सब सुनकर आई।
महाराज ने वह सब लिख लिया।
अगली सुबह महाराज कामगारों को ले जाकर घड़े को खुदवाता है। वहाँ अलमोल मोती उसे मिलते हैं। वहाँ से हनुमानजी के मंदिर जाता है। तीन हाँड़ी सोना उसे वहाँ पर मिलता है। फिर राजमहल के पिछवाड़े जाकर सोने का सिंहासन निकलवाता है। फिर शहर जाकर गोशाला की बाँबी के पास जाकर रत्नों को निकलवाता है। राजा अब देशवंताचारी को याद कर उसे बुलाकर मोती-माणिक देकर सम्मान करता है।
बारह घड़ों में जो सोने के सिक्के मिले, उनसे वहाँ पर एक मंदिर बनवाकर देशावंताचारी को पुजारी बनाता है। यह खबर उसकी पत्नी को भी मिलती है। वह भी आती है। खबर सुनकर उसके सभी भाई उसके पास आते हैं। उसका ऐश्वर्य देखकर मूर्च्छित हो जाते हैं। वह उन्हें भी सोना-संपदा देकर घर भेजता है।
पति-पत्नी सुख से जीवन जीते हैं।
(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)