गृहदाह (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Gridah (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

(21)

केदार बाबू की सेहत अभी पहले जैसी नहीं हो पायी थी। खा-पीकर बरामदे मे एक ईजी-चेयर पर पड़े-पड़े अखबार पढ़ते हुए, शायद जरा आँखें लग गयी थीं। दरवाजे पर खटका और गाड़ी की रूखी आवाज से उन्होंने आँख खोलकर देखा-सुरेश और उसके साथ-ही-साथ उसकी बेटी और दाई गाड़ी से उतरी। नींद उनकी काफूर हो गयी। जाने कैसी एक शंका से, उन्होंने जोर से कहा-अचला? तुम कहाँ से सुरेश? मामला क्या है? मैं तो कुछ समझ नहीं पर रहा हूँ।

अचला ने आकर पिता के चरणों की धूल ली। सुरेश ने नमस्ते करके कहा-महिम का तार नहीं मिला?

केदार बाबू ने घबराकर कहा-कहाँ, नहीं तो!.

एक कुर्सी खींचकर बैठते हुए सुरेश बोला-तो या तो वह तार लगाना भूल गया, या अभी पहुँचा नहीं है।

केदार बाबू बोले-भाड़ में जाये तार; माजरा क्या है, यह बताओ न! इन्हें तुम ले कहाँ से आये?

सुरेश बोला-कल रात महिम का घर जल गया।

घर जल गया? सर्वनाश! कहते क्या हो-घर जल गया? कैसे जला? महिम कहाँ है? तुम्हें ये कहाँ मिली?-एक साँस में इतने सवाल पूछकर, केदार बाबू धप्प से अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गये।

सुरेश ने कहा-मैं इन्हें वहीं से लेकर आ रहा हूँ। मैं वहीं था न!

केदार बाबू का मुखड़ा बड़ा अप्रसन्न और गम्भीर हो उठा। बोले-तुम वहीं थे? कब गये वहाँ? मुझे तो नहीं मालूम! मगर वह कहाँ है?

सुरेश बोला-महिम तो आ नहीं सकता, इसीलिये...

उनका गम्भीर मुखड़ा स्याह पड़ गया। सिर हिलाकर बोले-नहीं-नहीं, यह सब अच्छी बात नहीं! बड़ी बुरी बात! घोर अन्याय यह मैं हर्गिज... कहते-कहते नजर उठाकर उन्होंने बेटी की ओर देखा।

अचला अब तक एक कुर्सी का हाथ थामे खड़ी थी। पिता का यह सन्देह उसके हृदय में गड़ा। उसके यों अचानक आ जाने के हेतु वे जरा भी यकीन नहीं कर सके-यह साफ समझकर लज्जा और घृणा से उसके चेहरे पर लहू का चिद्द तक न रहा।

केदार बाबू से यहाँ भूल हो गयी। बेटी की सूरत से उनका सन्देह और मजबूत हो गया। आराम-कुर्सी पर लेटकर अखबार को चेहरे पर रखते हुए, एक निःश्वास छोड़ बोल उठे-तुम लोग जो ठीक समझो, करो! मैं कल ही घर छोड़कर और कहीं चला जाऊँगा!!

सुरेश ने अचरज-भरी नाराजगी से कहा-आप यह सब कह क्या रहे हैं केदार बाबू? आप घर छोड़कर ही क्यों जायेंगे और हुआ ही क्या है? कहकर वह कभी अचला और कभी उसके पिता की ओर ताकने लगा। लेकिन उसे किसी का मुँह दिखाई नहीं पड़ा।

केदार बाबू का कोई जवाब न पाकर सुरेश उठ खड़ा हुआ। बोला-खैर, महिम ने मुझे जो भार सौंपा था, हो गया! अब आप लोग जो अच्छा समझें, करें। मैं नहा-खा नहीं सका हूँ, घर जा रहा हूँ। कहकर वह द्वार की तरफ दो-एक कदम बढ़ा ही था, कि केदार बाबू उठकर थकी-सी आवाज में बोल पड़े-आह, जा क्यों रहे हो? बात क्या है, यह तो बताओ! आग लगी कैसे?

सुरेश ने जैसे रूठे हुए-से कहा-सो नहीं जानता।

-तुम वहाँ गये कब?

पाँच छः दिन पहले। मैंने अभी भोजन नहीं किया। अब देर नहीं कर सकता।-कहकर फिर जाने का उपक्रम करते ही केदार बाबू उठे-अहा-हा, नहाना-खाना तो देख रहा हूँ, किसी का नहीं हुआ है-मगर जंगल में तो नहीं आ-निकले; यह भी घर ही है, यहाँ भी नौकर-चाकर हैं! अचला, बैरे को आवाज दो न जरा, खड़ी क्या हो? बैठो-बैठो सुरेश, माजरा क्या है, खोलकर ही बताओ!

सुरेश पलटकर बैठ गया। जरा चुप रहा, फिर बोला-रात सो रहा था। महिम की चीख-पुकार से निकला। देखता हूँ कि सब धू-धू जल रहा है। फूस की छौनी, बुझाने का उपाय न था। वह बेकार कोशिश किसी ने की भी नहीं-सब राख हो गया!

केदार बाबू उछलकर बोल उठे-ऐं, सब जल गया? कुछ भी निकाला न जा सका? अचला के गहने?

-वे बच गये!

गनीमत!-कहकर एक लम्बा निश्वास छोड़कर वे बैठ गये। कुछ देर चुप रहकर बोले-फिर भी, आग लगी कैसे?

सुरेश ने कहा-कहा तो आपसे, इस बात का पता अभी नहीं चला है। लेकिन इतना मैं देख आया कि गाँव में उसका खास कोई हितू नहीं है!

-नहीं है?

-नहीं!

केदार बाबू और कुछ नहीं बोले। बड़ी देर तक चुप बैठे रहे। आखिर एक गहरा निश्वास छोड़ते हुए उठकर बोले-जाओ, नहा लो सुरेश, अब देर न करो! देखूँ चलकर, क्या कुछ बन-बना रहा है-और उसे साथ लेकर कमरे से बाहर चले गये।

खान-पान के बाद भी उन्होंने सुरेश को जाने नहीं दिया। एक आराम-कुर्सी पर वह अधनिंदाया पड़ा था। अचला वही जो नहाकर अपने कमरे में दाखिल हो दरवाजे को बन्द किये रही, सो उसका पता नहीं। चैन न थी सिर्फ केदार बाबू को। अब तार आने-न-आने का कोई मतलब न था, लेकिन उसी के लिये बेताबी से इधर-उधर करते हुए-शाम के समय सोना ठीक नहीं है-कहते हुए उन्होंने बेटी को बुलवाया और बोले-तुम लोगों ने तो बताया, उसने तार भेजा है, तार भेजा है। कहाँ, कुछ पता तो नहीं उसका! तुम लोग ट्रेन से चलकर आ पहुँचे, और तार की खबर अभी तक नहीं पहुँची? अच्छा ठहरो, देखता हूँ-बेटी के उत्तर का इन्तजार किये बिना ही वे चप्पल फट-फटाते हुए तेजी से नीचे उतर गये; और थोड़ी ही देर में नीचे से उनकी तेज आवाज सुनाई देने लगी। अचला की दाई से वह तरह-तरह की जिरह करने लगे, और वह बेचारी अचरज से बार-बार प्रतिवाद करने लगी-जी, अपनी आँखों देख आयी, आग लगी, घर-द्वार राख हो गया-आप क्या कह रहे हैं, नहीं जला है! सोच देखें, आग ही नहीं लगी तो घर-दरवाजा जल कर राख कैसे हो गया?

सुरेश सब सुन रहा था। नजर उठाकर उसने देखा-चौखट पकड़े खड़ी-खड़ी, उड़े हुए चेहरे से अचला एक-एक बात को पी रही है। सूखे उपहास के ढंग से कहा-तुम्हारे बाबूजी को हो क्या गया, बता सकती हो?

अचला ने चौंककर देखा। कहा-नहीं।

सुरेश बोला-मैं बेखटके कह सकता हूँ, उन्हें यकीन नहीं आया! उनका ख्याल है, आग लगने का किस्सा हमने गढ़ लिया है। जरा देर थमकर बोला-असली बात का पता आखिर एक-न-एक दिन चल ही जायेगा, लेकिन उनका सन्देह कुछ ऐसा है कि मेरा यहाँ आना असम्भव हो उठा।

अचला ने उदास होकर पूछा-आप क्या अब नहीं आयेंगे?

खडे़ होकर सुरेश ने कहा-मुमकिन नहीं लगता है! आखिर मेरा भी तो कुछ आत्म-सम्मान है। किसी आदमी से मेरा बैग मेरे यहाँ भेजवा देना।

अचला ने सिर हिलाकर कहा-अच्छा! लेकिन उसके यहाँ आने-न-आने के बारे में एक शब्द न बोली।

कल सवेरे ही भेजवा देना! बहुत-सी जरूरी चीजें हैं इसमें और केदार बाबू की राह देखे बिना ही चला गया।

लौटने पर केदार बाबू कुछ चकित जरूर हुए, लेकिन मन में नाखुश हुए हैं-ऐसा न लगा।

रात काफी देर तक बिस्तर पर करवट बदलते रहने के बाद अचला उठ बैठी। जी में आया-बरामदे पर टहलती हुई वह, बाहर के लोगों को सड़क पर आते-जाते देखकर थोड़ी अनमनी हो जाये।

कमरे के उस ओर वाले दरवाजे को खोलकर वह बरामदे पर पहुँची। देखा बैठके की रोशनी अभी जल रही थी। पहले यह जी में आया कि नौकर शायद गैस बन्द करना भूल गये; लेकिन कुछ ही दूर बढ़ने पर पिता की आवाज कानों में पड़ने से, उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वे सदा दस बजते-बजते सो जाते, मगर आज साढ़े दस बज गये। तुरन्त दाई की आवाज सुनाई पड़ी। वह कह रही थी-पति चल बसे; मृणाल दीदी अब पति का घर सम्भालेगी-मुझे तो ऐसा नहीं लगता, बाबू! मेहमान से दादा-पोती का कैसा रिश्ता है, वही जानें!

केदार बाबू-हूँ, करके रह गये।

अचला समझ गयी, इसके पहले काफी बातें हो चुकी हैं। मृणाल के बारे में, महिम के बारे में, उसके बारे में-बाकी कुछ नहीं छूटा है। लेकिन कहीं अपने बारे में अपने ही कानों निहायत कटु बातें सुननी पड़ें-इस डर से वह जैसे चुपचाप आयी थी, वैसे ही चुपचाप चल देना चाहने लगी; लेकिन जाने किस बात ने लोहे की जंजीरों से उसके पाँवों को बाँध दिया।

कुछ देर चुप रहकर केदार बाबू ने पूछा-गर्ज कि दोनों में पटी नहीं; यह कहो!

दाई बोली-रत्ती-भर नहीं, तिल-भर नहीं बाबू! एक दिन भी नहीं!! इस दाई को अचला आज तक नादान ही समझती थी-आज पता चला, अक्ल उसे किसी से भी कम नहीं।

केदार बाबू मिनट-भर चुप रहकर फिर बोले-तो कल रात किसी को खाना नसीब नहीं हुआ, क्यों? सुरेश के जाने के बाद से लगभग लड़ते-झगड़ते ही बीता?

दाई का जवाब सुना न जा सका, लेकिन पिता की बात से ही समझ में आ गया कि गर्दन हिलाकर उसने क्या राय जाहिर की क्योंकि दूसरे ही क्षण केदार बाबू एक गहरा निश्वास छोड़ कर बोले-मैं पहले ही जानता था कि एक दिन यह नौबत आयेगी! आजकल के लड़के-लड़कियाँ माँ-बाप की बातों की तो परवा करते नहीं। नहीं तो, मैं तो करीब-करीब सब राह पर ले आया था। आज उसे चिन्ता किस बात की होती? कहकर उन्होंने फिर एक निश्वास फेंका, वह भी साफ सुनाई पड़ा।

दाई ने पूरी हमदर्दी के साथ, छूटते ही कहा-आप ही कहें बाबू, नहीं तो आज चिन्ता किस बात की थी? कैसे तो एक गँवई-गाँव में माटी का घर-वह भी न रहा! और मेहमान भी तो-कहकर उसने बात को अधूरा ही रख कर, एक लम्बे निश्वास से काफी दूर तक ठेल दिया।

नसीब! कहकर केदार बाबू कुछ देर चुप रहे, फिर खड़े होकर बोले-खैर, तू जा! उसे रुखसत करके, बत्ती गुल करने के लिये वे बैरे को पुकारने लगे।

अचला पाँव दबाए धीरे-धीरे अपने कमरे में जाकर पड़ रही। पिता की उदारता, उनके सज्जनता बोध की धारणा कभी भी उसके मन की ऊँची नहीं रही थी; लेकिन वह इस हद तक नीचे हैं कि वे घर की दाई से भी अकेले में ऐसी चर्चा कर सकते हैं-अचला यह नहीं सोच सकती थी। आज उसका मन छोटा होकर जमीन पर लोट रहा था; पर उसका पति, उसका पिता, उसकी दासी, उसका मित्र-सभी जब उसकी तरह धूल में लुटे पड़े हैं, तो किसी का सहारा लेकर जो वह कभी इस गिरावट से ऊपर भी उठ सकेगी-इस भरोसे की वह कल्पना तक नहीं कर सकी।

(22)

दुनिया के और-और लोगों की तरह केदार बाबू भी दोष-गुण वाले ही आदमी थे। लड़की के ब्याह के लिये पढ़े-लिखे दामाद, सम्पन्न घर की ही उन्होंने कामना की थी। महिम लड़का भला है। एम. ए. पास है, गाँव में रहने-खाने का ठौर-ठिकाना है। लिहाजा उसके हाथों बेटी को सौंपना उन्होंने सौभाग्य ही समझा था। लेकिन एकाएक एक दिन उसका धनी दोस्त सुरेश अपनी गाड़ी पर आकर, उल्टा बताकर जब खुद ही ब्याह का उम्मीदवार बन बैठा, तो दोनों की माली हालत का लेखा लगाकर, महिम को जवाब देकर सुरेश को अपनाने में केदार बाबू को जरा भी एतराज न हुआ। प्यार के बारीक तत्वों से उन्हें कोई वास्ता न था; उनकी धारणा थी कि लड़कियाँ पति के रूप में उसी को अच्छी समझती हैं, जिसके पास गाड़ी-पालकी चढ़कर, गहना-कपड़ा पहनकर आराम से रह सकें। लिहाजा बेटी को सुखी बनाना ही अगर पिता का फर्ज है, तो ऐसे एक अपने-आप आये हुए मौके को हाथ से निकलने देना ठीक नहीं-यह तै कर लेने में उन्हें खास कुछ मगजपच्ची नहीं करनी पड़ी।

यहाँ तक कि विवाह के पहले ही, दामाद से पाँच हजार रुपया कर्ज लेना भी उन्हें अनुचित न लगा। उसे चुकाने की चिन्ता ने भी उन्हें परेशान नहीं किया, इसीलिये कि वह घर तो उसी का रहेगा!

मगर इस दईमारी लड़की ने सब कुछ गोबर कर दिया, हर्गिज राजी न हुई। लाचार, अन्त तक उन्हें महिम के हाथों ही बेटी को सौंपना पड़ा जरूर; लेकिन इस दुर्घटना से उनके क्षोभ की सीमा न रही। उसके सिवा जो बात उन्हें अपने-आप कबूल करनी पड़ी, वह यह कि रुपया अब लौटा देना चाहिए। लेकिन चूँकि कर्ज की लिखा-पढ़ी न थी और वसूल करने का उपाय भी उतना साफ-सहज न था, इसलिये उस चिन्ता को भी वे मन में उतना महत्व नहीं दे सके। सो गर्चे यह सवाल मन में उठा, लेकिन जवाब वैसा ही धुँधला रहा।

अचला ससुराल चली गयी। इसके बाद सुरेश का आना-जाना, घनिष्ठता, केदार बाबू को पसन्द न थी। घर में नहीं हैं-यह कहलाकर ज्यादातर भेंट भी नहीं करते थे। लेकिन उसे चाहते थे, इसलिये बेटी के दुव्र्यवहार से वे मन-ही-मन लज्जित हो दुःखी ही रहते थे।

ऐसे ही दिन बीत रहे थे। अचानक एक दिन वे खासे बीमार पड़ गये। सुरेश ने आकर इलाज किया; बेटे से भी ज्यादा सेवा-जतन करके उन्हें चंगा किया। कर्ज की बात उन्होंने खुद उठायी तो यह कहकर टाल गया, कि वो मैंने दोस्त को दहेज में दिया। उसी दिन से इस युवक के प्रति उनका स्नेह प्रतिदिन गाढ़ा और अकृत्रिम हो उठने लगा। यहाँ तक कि कभी-कभी बेटी के लिये मन में अभिशाप आता-हतभागिन लड़की, ऐसे रतन को न पहचान सकी, उपेक्षा से छोड़ कर चली गयी; इसका फल कभी उसे मिलेगा जरूर।

इस मामले में महिम उन्हें फूटी-आँखों नहीं सुहाता था, यह सही है; लेकिन उनकी बेटी नारी-धर्म को गँवाकर, पति को त्यागने की कलंक-कालिमा सारे बदन में पोतकर उन्हीं के यहाँ आयेगी-यह उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था। और इस महापाप में जिस आदमी ने उसे मदद दी है, वह कितना ही बड़ा क्यों न हो-पिता के मन का भाव क्या होगा, यह समझना भी कठिन नहीं।

दूसरी ओर पिता के लिये बेटी का मनोभाव चाहे जो रहा हो, जिस दिन वे सिर्फ रुपये के नाते महिम के बदले सुरेश के हाथों उसे सौंपने को तैयार हो गये थे, और कर्ज चुकाने का कोई उपाय न रहने के बावजूद उससे कर्ज लिया था, उसी दिन से आदमी के रूप में केदार बाबू अचला की निगाहों में काफी नीचे उतर गये थे। वह अश्रद्धा कल रात सौगुनी ज्यादा बढ़ गयी, जब उसने अपने कानों सुना कि बेटी के चरित्र के बारे में छिपकर नौकरानी की राय लेने में भी उन्हें हिचक नहीं हुई।

लेकिन उसके साथ-साथ अचला आज अपने को भी देख पाई। उसके रोंगटे खड़े हो गये। उसकी नजर में आया कि जभी उसने अपने मुँह से पति को यह कहा कि वह उसे प्यार नहीं करती, तभी नारी की सर्वोत्तम मर्यादा भी उसके लिये संसार से समाप्त हो गयी। इसीलिये आज वह पति के आगे छोटी हो गयी है, पिता के आगे छोटी है, दाई के आगे छोटी है, यहाँ तक कि सुरेश जैसे आदमी की नजर में भी इतनी छोटी है-कि उसे लालसा-संगिनी बनाने की कल्पना भी उसकी दुराशा नहीं। लेकिन वास्तव में क्या सही है? इतनी छोटी है वह? अभी-अभी उस दिन वह जिसके प्यार को सब पर विजयी बनाने के लिये सभी विरोधों, सभी प्रलोभनों को पार कर गयी थी-इस बीच क्या यह बात सब कोई भूल गये? उसे सुरेश के साथ भेज देने के बावजूद, पति ने उसकी कोई खोज नहीं ली! उदासीनता का गहरा अपमान और लांछना, रात-भर मानो उसे आग में झुलसाती रही।

सुबह देर से नींद टूटी। सूरज की तरुण किरणें झरोखे से आकर कमरे के फर्श पर पड़ रही थीं।

वह बिस्तर पर उठ बैठी, और सिरहाने की खिड़की खोलकर चुपचाप रास्ते की तरफ देखती रही।

कलकत्ते की सड़क पर लोगों का ताँता टूटने वाला नहीं। कोई काम से निकला था, कोई घर लौट रहा था, और कोई सुबह की धूप-हवा में यों ही घूम रहा था-यह देखते हुए अचानक याद आया-ऐसे समय अपने घर में तो कोई नहीं बैठा है। मैंने ही ऐसा कौन-सा गुनाह किया है कि मुँह नहीं दिखा सकती-खुद को कैद करके रक्खा है! गुनाह कुछ किया भी हो, तो उनसे किया है। उसकी सजा वही देंगे, किन्तु नाहक ही जो कोई दण्ड देने आये, उसे ही सिर झुकाकर क्यों उठा लूँ?

अचला तुरन्त उठ बैठी, और सारी ग्लानि को मानो बलपूर्वक झाड़-फेंककर हाथ-मुँह धोया, कपड़े बदले और बैठके में गयी।

केदार बाबू आराम-कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने एक बार नजर उठाकर देखा, और फिर अखबार पढ़ने लगे।

थोड़ी ही देर के बाद बैरा केतली में चाय का पानी और दूसरे सामान रख गया; केदार बाबू उठकर आये। अपने लिये एक प्याला चाय तैयार करके ले गये, और अखबार लेकर आराम-कुर्सी पर बैठ गये।

अचला नजर झुकाए, पिता का सारा आचरण देखती रही; परन्तु खुद जाकर चाय तैयार कर देने या कुछ पूछने की उसे हिम्मत भी न हुई, इच्छा भी नहीं। लेकिन घर में मूरत-सा इस तरह मुँह-सिए रखना भी मुश्किल! यहाँ तक कि इस तरह ज्यादा दिनों तक एक घर में उनके साथ रहना सम्भव और उचित है या नहीं, और न हो तो वह क्या करेगी-इस पेचीदे मसले पर कहीं अकेले बैठकर जरा सोचने के लिये वह उठना ही चाहती थी, कि असह्य विस्मय से उसने देखा-सुरेश आ रहा है।

उसने हाथ उठाकर केदार बाबू को नमस्ते किया। केदार बाबू ने सिर उठाकर जरा गर्दन हिलाई और फिर अखबार पढ़ने लगे।

सुरेश कुर्सी खींचकर बैठ गया। चाय का सामान ले जाने के लिये जैसे ही बैरा कमरे में आया, वह बोला-मेरा बैग कहाँ है, उसे मेरी गाड़ी पर रख आओ तो! हजामत बनाने तक का सामान उसी में है। देर मत करो, मुझे तुरन्त जाना है।

जी-कहकर उसके चले जाने के बाद सारे कमरे में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर में हठात् सुरेश पूछ बैठा-महिम की कोई खबर मिली?

केदार बाबू बोले-नहीं।

सुरेश बोला-ताज्जुब है!

उसके बाद फिर सब चुपचाप। बैरे ने आकर बताया-बैग गाड़ी पर रख दिया है।

तो मैं जा रहा हूँ। महिम की चिट्ठी आये तो मुझे जरा खबर भेज देंगे। सुरेश उठने लगा। एकाएक हाथ का अखबार नीचे फेंककर केदार बाबू बोल उठे-तुम जरा ठहर जाओ सुरेश, मैं अभी आया! और उसकी ओर ताका तक नहीं, चप्पल चट-चटाते हुए जरा तेजी से ही चले गये।

अब तक अचला नजर झुकाए ही थी। केदार बाबू के चले जाने पर सुरेश ने जैसे ही नजर उठाकर देखा-अचला की डरी, दुःखी और मालिन आँखें दिखाई दीं। पूछा-बात क्या है?

मुँह नीचे किये अचला ने सिर्फ गर्दन हिलाई।

सुरेश ने कहा-मैं कितना दुःखी हुआ हूँ, कितना लज्जित-यह कह नहीं सकता!

अचला वैसी ही चुप बैठी रही।

वह फिर बोला-तुम्हारे पिताजी मुझे इतना नीच, ऐसा मक्कार सोच सकते हैं, यह मैंने स्वप्न में भी न सोचा था!

इस शिकायत का भी अचला ने कोई जवाब नहीं दिया। वैसी ही स्थिर बैठी रही।

सुरेश ने कहा-मुझे तो ऐसा लग रहा है कि इसी वक्त महिम के पास जाकर उसे... बात पूरी न कर सका। केदार बाबू लौट आये।

उनके हाथ में छोटा-सा कागज। सुरेश के सामने मेज पर उस कागज को रखते हुए बोले-तुम्हारे उस रुपये की रसीद, आज-कल करते नहीं दी जा सकी थी। पाँच हजार का हैंडनोट ही लिख दिया, सूद शायद न दे सकूँ। लेकिन मकान तो रहा ही, इससे मूलभर तो वसूल हो ही जायेगा!

सुरेश कुछ देर हक्का-बक्का-सा खड़ा रहा, बोला-मैंने तो आपसे हैंडनोट माँगा नहीं, केदार बाबू!

केदार बाबू बोले-तुमने माँगा बेशक नहीं, मगर मुझे तो देना चाहिए! अब तक नहीं दे पाया, यही बहुत बड़ा अन्याय हो गया है सुरेश, इसे जेब में रख लो! पका आम हो रहा हूँ, अचानक कहीं चल-बसूँ तो तुम्हारे रुपये का गोलमाल हो सकता है!!

सुरेश ने आवेग के साथ जवाब दिया-महिम और चाहे जो करे केदार बाबू, रुपये का कभी गोलमाल नहीं कर सकता! तिस पर आप खुद भी जानते हैं कि मुझे ये रुपये नहीं चाहिए-यह मैंने मित्र को दहेज दिया है!!

केदार बाबू ने कहा-तो वह अपने मित्र को ही देना-मुझे नहीं! जो मैंने लिया है, वह ऋण मेरा ही है!!

सुरेश बोला-खैर, दोस्त को ही दूँगा-कहकर सुरेश ने कागज मेज पर से उठाया, और दो कदम पीछे हटकर अचला के पास जाकर खड़ा हुआ, कि केदार बाबू आग की नाईं भभककर चीख उठे-खबरदार सुरेश, कल से मैंने बहुत अपमान चुपचाप बर्दाश्त किया। लेकिन मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को तुम रुपये दे जाओ, यह मैं हर्गिज न करूँगा-कहे देता हूँ! कहकर काँपते-काँपते आराम-कुर्सी पर बैठ गये।

सुरेश पहले तो चौंककर केदार बाबू की तरफ एकटक ताकता रह गया। उनके उस तरह से बैठ जाने पर उसने उदास होकर अचला की ओर मुड़कर देखा-अचला पल-भर में मानो पत्थर हो गयी है। बड़ी कोशिश करके सुरेश ने क्या तो कहना चाहा; लेकिन उसके सूखे गले से एक बेमानी आवाज के सिवा और कुछ नहीं निकला। फिर मुड़कर देखा-केदार बाबू दोनों हथेलियों से मुँह छिपाए पड़े थे। उसने और कुछ कहने की कोशिश भी न की, कुछ क्षण काठ मारा-सा खड़ा रहकर आखिर धीरे-धीरे चला गया।

वह चला गया, लेकिन बाप-बेटी दोनों ठीक वैसे ही बैठे रहे। और दीवारघड़ी की टिक्-टिक् के सिवा, कमरे में एक बेरहम चुप्पी छा रही थी।

सुरेश की रबर टायर वाली गाड़ी फाटक पार हो गयी, यह घोड़े की टापों से ही समझ में आ गया। दूसरे ही क्षण बैरे ने अन्दर आकर आवाज दी-बाबू!

केदार बाबू ने नजर उठाकर देखा, उसके हाथ में कागज का एक टुकड़ा था। और कुछ कहना न पड़ा। वे उछल पड़े और अपना दायाँ हाथ बढ़ाकर चीत्कार कर उठे-ले हरामजादा, ले जा सामने से! निकल जा, कहता हूँ-बैरा मालिक का रवैया देखकर अवाक् रह गया और भाग खड़ा हुआ। उसके जाते ही, जलती आँखों बेटी को देखते हुए, गले की आवाज पर एक पर्दा और चढ़ाकर वे बोले-हरामजादा, हरामजादा, कमीना! फिर कभी किसी बहाने मेरे यहाँ आया, कि मैं उसे पुलिस के हवाले करूँगा-यह मैं तुमसे कहे देता हूँ अचला!

अपना नाम सुनकर, अपना निहायत पीला पड़ा चेहरा उठाकर अचला चुपचाप पीड़ित आँखों से पिता की ओर देखती रही।

वे बोले-रुपये बिखेर कर बाप की आँखों को अन्धा नहीं किया जा सकता। यह बात वह याद रक्खे!

बेटी इस पर भी चुप रही, लेकिन उसकी मलिन आँखें धीरे-धीरे तेज हो उठने लगीं। यह पिता की नजर में न आया। उन्होंने तर्जनी तानकर कहना शुरू किया-हैण्डनोट फाड़कर बाप को घूस नहीं दिया जा सकता-यह बात उसे समझा कर तब छोड़ूँगा मैं! मैं यह घर बेचकर कर्ज अदा करके, जी चाहे जहाँ चला जाऊँगा!! मुझे कोई रोक नहीं सकता, कान खोलकर सुन लो!!!

अब अचला ने बात कही। शुरू में रुकावट पड़ी, पर बाद में स्थिर अविचलित स्वर में कहा-कर्ज बिना दिये घर मेरे लिये छोड़ जायेंगे, मैं क्या यही आशा रखती हूँ? तुम न करते, तो यह काम तो मुझे ही करना होता!

केदार बाबू और भी गर्म होकर बोले-तुम लोग जो कर आये हो-मालूम है! उसी के मारे तो मैं भले समाज में मुँह दिखाने लायक नहीं रहा!!

अचला ने वैसे ही शान्त और दृढ़ स्वर में कहा-नहीं, नहीं मालूम है! मैंने ऐसा कुछ अगर किया होता, जिससे समाज में तुम मुँह नहीं दिखा पाते, तो उससे पहले तो मेरा ही मुँह तुम लोग कोई नहीं देख पाते!! वहाँ और किसी चीज का अभाव चाहे हो, डूब-मरने लायक पानी का अभाव नहीं!!! कहते-कहते रुलाई से उसक गला रुँध आया। बोली-कल से तुम मेरा जो अपमान कर रहे हो, चूँकि झूठ है इसलिये सह पा रही हूँ नहीं तो...

यहाँ पहुँचकर उसका गला बिल्कुल बन्द हो गया। मुँह पर आँचल रखकर किसी तरह रुलाई रोकती वह कमरे से बाहर भाग गयी।

केदार बाबू एकबारगी हक्का-बक्का हो गये। रंज होने, आघात करने, शोक करने, यानी कन्या के दूषित आचरण से हर तरह का गहरा दुःख उठाने की स्थिति महज उन्हीं की हुई है, यही उनकी धारणा थी; लेकिन दूसरा पक्ष भी अचानक उन्हीं के आचरण को नितान्त निन्दनीय कहते हुए, मुँह पर झिड़क कर, तीखे अभिमान से रोकर चल सकता है-इसकी सम्भावना उन्हें ख्वाब में भी न सूझी थी। सो कुछ क्षण हक्के-बक्के से खड़े, वे धीरे-धीरे बैठ गये। और सिर पर हाथ फेरते हुए बार-बार कहने लगे-यह लो, फिर दूसरा प्रसाद!

इसके बाद बाप-बेटी के आठ-दस दिन कैसे निकले, यह सिर्फ अन्तर्यामी ने ही देखा। अचला अपने कमरे से निकली ही नहीं, घर के नौकर-चाकरों के सामने भी मुँह दिखाना उसे मुहाल था। पिछले दिनों की तरह सड़क देखकर ही समय काटने के ख्याल से वह खुली खिड़की के सामने बैठी थी।

जाड़े के दिन, दोपहर के साथ-साथ धुँधली छाया मानो आसमान से धीरे-धीरे धरती पर उतर रही थी। और उस धुँधलेपन से अपने सारे जीवन का क्या तो एक अज्ञात सम्बन्ध हृदय की गहराई से अनुभव करके, उसका मन उस अल्पायु बेला की ही तरह चुपचाप अवसन्न होता जा रहा था। यह नहीं कि उसकी आँखें ठीक कुछ देख रहीं थीं; पर जैसी आदत थी-ऊपर-नीचे, अगल-बगल कुछ भी उसकी निगाह से बच नहीं पा रहा था। एकजैसी बैठी-बैठी जब बेला बीत चली, तो अचानक उसने देखा-सुरेश की गाड़ी उसके फाटक में घुस रही है। बात-की-बात में उसका चेहरा फक् हो गया, और पुलिस को देखकर चोर जैसे बेतहाशा भागता है-ठीक उसी तरह खिड़की के सामने से भागकर वह आकर बिस्तर पर सो रही।

कोई बीसेक मिनट के बाद उसके दरवाजे पर खट-खटाहट हुई, और बाहर से पिता ने स्निग्ध स्वर में पूछा-जाग रही हो बेटी?

मगर फिर भी जब जवाब न मिला; तो और भी कोमल स्वर में बोले, बेला जाती रही बेटी, उठो! सुरेश की फूफी तुम्हें लेने आयी हैं। क्या तो, महिम बहुत बीमार है! अचला ने उठकर चुपचाप दरवाजा खोल दिया, और सुरेश की फूफी अन्दर आयीं।

झुककर अचला ने उनके पैरों की धूल ली।

केदार बाबू सबसे पीछे कमरे के भीतर गये, और बिस्तर के एक किनारे बैठ कर बेटी से बोले-तुम लोगों के चले आने के बाद से ही महिम को जोरों का बुखार आ गया। मेरा ख्याल है, ठण्ड लगने से, फिक्र से यह बुखार आया है! उसके बाद सुरेश की फूफी से बोले-मैं तो सोच के मारे परेशान था। आखिर इन लोगों को भेज देने के बाद से कोई खबर क्यों नहीं भेजी उसने? सुरेश दीर्घजीवी हो, वह सोच-समझकर इन्हें न ले आया होता, तो क्या होता-भगवान ही जानें! स्नेह-भरे अनुताप से बूढ़े का गला भर आया।

अचला चुपचाप सब सुनती रही। उसने कोई सवाल नहीं किया, कोई घबराहट नहीं जाहिर की।

सुरेश की फूफी ने अचला की बाँह पर अपना दायाँ हाथ रखकर शान्त स्वर में कहा-डरने की बात नहीं बिटिया, दो ही दिन में वह ठीक हो जायेगा!

अचला ने कुछ कहा नहीं-फिर से एक बार उनको झुककर प्रणाम करके, अलगनी पर से चादर उतारकर वह जाने के लिये तैयार हो गयी।

सर्दियों की साँझ-इस ठण्ड में बिना कोई गर्म कपड़ा पहने, उसी रूप में बाहर जाने को तैयार होते देख बूढे़ पिता के जी को चोट लगी। लेकिन सुरेश की विधवा फूफी के पहनावे को देखकर उसे टोकने की उन्हें इच्छा न हुई। वे सिर्फ इतना ही बोले-चलो बिटिया, मैं भी चलता हूँ! और चप्पल पहने सबसे आगे सीढ़ियों से नीचे उतर गये।

(23)

अचला को महिम से सबसे बड़ी शिकायत यही थी-कि स्त्री होने के बावजूद उसे कभी पति के सुख-दुःख में हाथ बँटाने का मौका नहीं मिला। इसके लिये सुरेश भी अपने दोस्त से छुटपन से ही काफी झगड़ता आया, पर कोई नतीजा नहीं निकला। कंजूस के धन की तरह उस चीज को सदा सारी दुनिया से बचाकर महिम कुछ इस तरह से अगोरता रहा है, कि दुःख-दुर्दिन में किसी की मदद की बात तो दूर रहे-उसे अभाव क्या है, कहाँ उसे पीड़ा है, यही कभी कोई समझ नहीं पाता।

लिहाजा घर जब जलकर राख हो गया, तो बाप-दादों के उस राख की ढेरी में बदले हुए मकान की ओर देखकर महिम के मन में क्या चोट लगी, इसे उसके मुँह को देखकर अचला समझ नहीं सकी। मृणाल विधवा हो गयी, इससे भी उसके स्वामी के दुःख का अन्दाज करना वैसा ही असम्भव था। जिस दिन अचला ने मुँह पर कह दिया था कि वह उसे प्यार नहीं करती, महिम के लिये वह आघात कितना बड़ा था-उसके बारे में भी अचला अँधेरे में ही रही। मगर इतनी नासमझ भी वह नहीं थी, कि हर बदनसीब घड़ी में पति की निर्निवार उदासीनता को सत्य ही कबूल कर लेने में, उसके जी में कोई खटका होता ही न हो। इसलिये, उस दिन स्टेशन पर पति के दृढ़-शान्त मुखड़े को बार-बार देखकर, तमाम रास्ता सिर्फ यही सोचती आयी थी-कि सहिष्णुता के उस झूठे नकाब की ओट में उसके वास्तविक मुख का स्वरूप जाने कैसा है!

आज जब उसकी बीमारी को मामूली और स्वभाविक घटना का रूप देने के लिये केदार बाबू ने कहा कि उन्हें ताज्जुब नहीं हुआ, बल्कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद ऐसे ही कुछ की आशंका मुझे थी-तो अचला के जी में जो भाव पल के लिये उदय हुआ था, उसे उत्कण्ठा भी नहीं कहा जा सकता।

सुरेश की रबर-टायर वाली गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी। फूफी एक ओर का दरवाजा खींचकर चुप बैठी थीं, और उनके बगल में अचला पत्थर की मूर्ति-जैसी स्थिर थी। अकेले केदार बाबू किसी तरफ से कोई उत्साह न पाकर, रास्ते की ओर देखते हुए बकते चले जा रहे थे। सुरेश जैसा दयावान, बुद्धिमान, गुणवान तरुण देश में दूसरा कोई नही; महिम के एक-बग्गापन से मैं तो ऊब गया हूँ; जहाँ आदमी ढूँढ़े न मिले, डाक्टर-वैद्य का नाम नहीं, सिर्फ चोर-डकैत और गीदड़ रहते हैं-ऐसे गाँव में जा-बसने की सजा एक-न-एक दिन उसे भोगनी ही पड़ेगी;-ऐसी ही बे सिर-पैर की बातें, बिना सोचे-समझे, वे उस चुप बैठी नारी के कानों में डालते चले जा रहे थे।

इसका भी कारण था। केदार बाबू वास्तव में ऐसी हल्की प्रवृत्ति के आदमी थे, ऐसी बात नहीं। लेकिन आज उनके हृदय का गहरा आनन्द, संयम के किसी बाँध को मान ही नहीं रहा था। अपने परम मित्र सुरेश से खुलकर विवाद-इकलौती लड़की का मौन विद्रोह, और सबसे बढ़कर निहायत घिनौनी और भौड़ी आशंका का दबाव, पिछले कई दिनों से उनकी छाती पर चक्की-सा सवार था। आज फूफी के आ जाने से, वह बोझा अचानक गायब हो गया था। महिम की बीमारी को मन में उन्होंने वैसा महत्व ही नहीं दिया। उस रात की दैवी दुर्घटना में सर्दी खाकर थोड़ा बुखार ही आ गया हो, तो वैसी कोई बात नहीं। फूफी ने दो-तीन दिन में चंगा होने का दिलासा दिया है, शायद इतना भी समय न लगे, शायद हो कि कल ही ठीक हो जाये। बीमारी के बारे में उन्होंने यह सोच रक्खा था। लेकिन असली बात यह कि सुरेश खुद जाकर उसे अपने यहाँ लिवा लाया है, और किसी बहाने उसकी स्त्री को उसके पास पहुँचाने के लिये अपनी फूफी तक को भेज दिया है। बेटी-दामाद में कुछ दिनों से मन-मुटाव चल रहा था, दाई की जबानी सुनी इस बात को वे भूले न थे; इसलिये यह सारा कुछ उसी दाम्पत्य-कलह का नतीजा है-इस सत्य के जाहिर हो जाने से, इस बक-झक में भी उन्हें बड़ी आत्म-ग्लानि के साथ यह लगने लगा-कि वहाँ पहुँचकर उस निर्दोष और भले युवक की तरफ वे नजर उठाकर देखेंगे कैसे? लेकिन उनकी बेटी के सर्वांग में एक कठोर नीरवता बिराज रही थी। बीमारी खास कुछ नहीं, यह उसने भी समझा था; पर वह यह नहीं समझ पा रही थी कि आखिर सुरेश उसे पकड़ कैसे लाया! इतना तो उसने स्वामी को पहचाना था!

साँझ हो गयी थी। रास्ते की गैस-बत्तियाँ जल चुकी थीं। गाड़ी सुरेश के फाटक में घुसी और बरामदे के पास जाकर लगी। उझककर केदार बाबू ने देखा और घबराकर बोले-दो-दो गाड़ियाँ क्यों खड़ी हैं?

अचला की चकित दृष्टि तुरन्त उधर को गयी और उसने देखा-एक प्रवीण अंगे्रज को सुरेश अदब के साथ गाड़ी पर सवार करा रहा है, और साहबी पोशाक में एक बंगाली सज्जन बगल में खड़े हैं। पलक मारते ही वह समझ गयी-ये दोनों डाक्टर हैं।

वे चले गये तो यह गाड़ी, गाड़ी-बरामदे में जाकर लगी। सुरेश खड़ा था। केदार बाबू ने चिल्लाकर पूछा-महिम कैसा है सुरेश? बीमारी क्या है?

सुरेश ने कहा-ठीक है। आइए!

केदार बाबू और परेशान होकर बोले-बीमारी क्या है, सो तो कहो!

सुरेश बोला-बीमारी का नाम बताऊँ, तो आप समझ नहीं सकेंगे केदार बाबू! बुखार है। छाती में थोड़ी सर्दी जमी है। लेकिन आप उतरें तो सही, उन्हें उतर आने दें!

केदार बाबू ने उतरने की जरा कोशिश न की। बोले-थोड़ी-सी सर्दी जम गयी है, तो इसका इलाज तो तुम खुद कर सकते हो! आखिर मैं कोई नन्हा-मुन्ना नहीं हूँ सुरेश, दो-दो डॉक्टर क्यों? और फिर अँग्रेज डॉक्टर? कहते-कहते उनकी आवाज काँपने लगी।

सुरेश करीब आ गया। हाथ पकड़कर उन्हें उतारते हुए बोला-फूफी अचला को अन्दर ले जाओ। मैं आता हूँ।

अचला ने किसी से कुछ पूछा-ताछा नहीं, अँधेरे में उसकी शक्ल भी नहीं दिखाई पड़ी। उतरते समय पायदान पर उसका पाँव लड़खड़ाने लगा, यह भी किसी ने नहीं देखा-यह भी किसी को नजर न आया कि वह जैसी चुपचाप आयी थी, वैसी ही चुपचाप फूफी के पीछे-पीछे भीतर चली गयी।

दो-एक मिनट बाद जब परदे को हटाकर वह कमरे में दाखिल हुई, तो महिम शायद अपने घर के बारे में न जाने क्या कह रहा था। उस लड़खड़ाती आवाज के दो-एक शब्द कानों में पहुँचते ही यह समझना बाकी न रहा कि वह अल्ल-बल्ल बक रहा है, और रोग कितना ज्यादा बढ़ गया है; जरा देर दीवार का सहारा लेकर उसने अपने को सम्हाला।

सिरहाने बैठकर जो स्त्री माथे पर बर्फ-पट्टी रख रही थी, उसने उलटकर देखा और धीरे-से उठकर आयी, झुककर उसे प्रणाम करके सीधी खड़ी हो गयी। विधवा का वेश, बाल गर्दन तक छोटे-छोटे छँटे, चेहरे पर युग-युग की सभी विधवाओं का वैराग्य मानो गहरा होकर विराज रहा था। मद्धिम रोशनी में अचला पहले यह न पहचान सकी कि वह मृणाल है; अब जब दोनों आमने-सामने खड़ी थीं, तो दोनों ही जरा देर के लिये ठक्-सी रह गयीं। अचला का सारा शरीर जैसे हिल उठा, क्या तो कहने के लिये उसके होंठ भी काँप उठे; पर एक भी शब्द न फूटा, और दूसरे ही क्षण उसका बेहोश शरीर टूटी लता की नाईं मृणाल के कदमों पर लुढ़क पड़ा।

होश में आयी तो पाया-पिता की गोद में सिर रक्खे वह एक कोच पर पड़ी है। एक नौकरानी आँख-मुँह में गुलाबजल के छींटे दे रही है। पास खड़ा सुरेश धीमे-धीमे पंखा झल रहा है।

हो क्या गया-यह सोचने में उसे देर लगी। लेकिन याद आते ही लाज से घबराकर उसने उठने की कोशिश की। बाधा देते हुए केदार बाबू बोले-जरा आराम कर लो बिटिया, अभी उठो मत!

अचला ने धीमे से कहा-मैं अब ठीक हूँ बाबूजी। और उसने फिर उठने की कोशिश की। पिता ने जबर्दस्ती उसे रोककर कहा-उठने की अभी जरूरत नहीं, बल्कि थोड़ा सो जाने की चेष्टा करो।

अस्फुट स्वर में सुरेश ने भी शायद इसी बात का समर्थन किया। अचला ने चुपचाप एक बार उसकी ओर ताका, और उत्तर में पिता का हाथ ठेलकर सीधी खड़ी होकर बोली-सोने के लिये यहाँ नहीं आयी हूँ! मुझे कुछ नहीं हुआ है-मैं उस कमरे में जा रही हूँ। और वह बाहर चली गयी।

इस मकान के कमरों को वह भूली नहीं थी। बीमार का कमरा ढूँढ़ने में देर न लगी। अन्दर जाते ही मृणाल ने उसे देखा। बोली-सँझली दी, जरा देर तुम यहाँ बैठो, मैं नित्यकर्म कर लूँ! जरा ख्याल रखना, बर्फ की टोपी लुढ़क न जाये। मृणाल अपनी जगह पर अचला को बैठाकर चली गयी।

(24)

सख्त न्यूमोनिया; चंगा होने में देर लगेगी। लेकिन महिम धीरे-धीरे चंगा होने की तरफ ही जा रहा था, डर की कोई बात न थी-यह सभी देख रहे थे। उसका यह प्रलाप, आँखों की खोई-खोई निगाह शान्त और स्वाभाविक होती आ रही थी।

दसेक दिन बाद एक दिन, तीसरे पहर महिम शान्त-सा लेटा हुआ था। इस तमाम साल सर्दी ज्यादा पड़ी थी। तिस पर अभी-अभी बाहर एक बौछार बारिश हो गयी। रोगी की खाट से सटाकर ही एक बड़ी-सी चौकी डालकर उस पर बिस्तर बिछाया गया था; सब लोग उसी पर अच्छा तरह से कपड़े ओढ़कर बैठे थे। सबकीे आँखों में चिन्तारहित तृप्ति की झलक। केवल फूफी घर के धन्धों में कहीं जुटी थी, और केदार बाबू घर से अभी तक यहाँ पहुँच नहीं पाये थे।

सुरेश की ओर ताककर हाथ जोड़ते हुए मृणाल ने कहा-अब मुझे छुटकारे का हुक्म मिले सुरेश बाबू, मैं अपने घर जाऊँ। इस कड़ाके की सर्दी में बुढ़िया सास मेरी चल न बसी हो!

सुरेश बोला-अब भी क्या उनके जीने की जरूरत रह गयी है? उँहूँ, उनके लिये आपका जाना नहीं हो सकता!

मृणाल ने जरा देर के लिये गर्दन घुमाकर शायद एक लम्बे निश्वास को ही रोका। फिर सुरेश की तरफ देखकर मुस्कराती हुई बोली-आप ही क्यों, मैंने भी यह सवाल पहले बहुत बार पूछा है? लगता भी है कि अब उनके जाने से ही कल्याण है! लेकिन जो मरने-जीने के मालिक हैं, उनको तो ऐसा ख्याल नहीं। होता तो संसार में आदमी बहुतेरे दुःख-कष्टों से बच जाता!

अचला अब तक चुप रही थी। मृणाल की बातों पर शायद उसके पति की मौत की बात याद करके बोली-इसके मानी जो अन्तर्यामी हैं, वे जानते हैं कि हजारों तकलीफ के बावजूद आदमी मरना नहीं चाहता!

मृणाल के चेहरे पर एक छिपी वेदना की झलक झाँक गयी। सिर हिलाकर बोली-नहीं सँझली दी, ऐसी बात नहीं! ऐसा समय सचमुच में आता है, जब मनुष्य सचमुच ही मौत चाहता है!! उस दिन रात को अचानक नींद जो छूटी, तो अपनी सास को बिस्तर पर नहीं पाया। जल्दी से बाहर निकली। देखा, पूजा-घर का दरवाजा जरा-सा खुला है। चुपचाप करीब जाकर मैं खड़ी हुई। देखा-गले में आँचल डाले, हाथ जोड़कर वे देवता से मौत की भीख माँग रही हैं। कह रही हैं-हे देवता, अगर एक दिन को भी तन-मन से मैंने तुम्हारी सेवा की हो, तो आज मेरी लाज रख लो! मैं मुक्ति नहीं माँगती, स्वर्ग नहीं चाहती, सिर्फ इतना ही चाहती हूँ कि मुझे और शर्मिन्दा न करो ठाकुर-मैं अपना यह मुँह अब बहू को दिखा नही सकती हूँ। कहते-कहते मृणाल रो पड़ी।

इस प्रार्थना में माँ के हृदय की कितनी गहरी वेदना थी, यह समझने में किसी को कठिनाई न हुई। सुरेश की दोनों आँखें भर आयीं। किसी के भी मामूली दुःख पर वह डोल उठता था-आज उस पुत्रहीना जननी के मार्मिक दुःख की कथा सुनकर उसके हृदय में आँधी-सी बहने लगी। वह जरा देर स्तब्ध होकर जमीन की ओर ताकता रहा, और सिर उठाकर आवेगमय स्वर में बोल उठा-अच्छा जाओ दीदी, अपनी बूढ़ी सास की सेवा करके अपना फर्ज अदा करो, मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा! इस अभागे देश के पास आज भी अगर गर्व करने को कुछ है, तो वह है तुम जैसी नारियाँ; ऐसी चीज और कोई भी देश नहीं दिखा सकता! कहकर उसने जिज्ञासु दृष्टि से एक बार अचला की ओर देखा। लेकिन वह खिड़की से बाहर, धुमैले मेघ के एक टुकड़े पर नजर टिकाए बैठी थी, इसलिये उसकी तरफ से कोई उत्तर न आया।

लेकिन शर्माकर मृणाल ने, आलोचना को अपने पर से हटाकर दूसरी ओर मोड़ने के ख्याल से झटपट कहा-नहीं, नहीं क्यों हैं? आप सभी देश की बात जानते हैं न! अच्छा, सँभले दादा से आप बड़े हैं या छोटे?

इस अजीब सवाल पर सुरेश हँसकर बोला-क्यों भला? कहिए तो?

मृणाल ने बाधा दी-मुझे अब आप सम्बोधन न करें। मैं दीदी हूँ, पर उम्र में जब छोटी हूँ तो सँझले दादा, या छोटे दादा-कहिए जल्दी कहिए, क्या?

अबकी अचला ने आसमान की ओर से नजर हटाकर उसकी तरफ देखा। बहुत दिन पहले एक दिन उसने, इसी जल्दी और सहजता से उससे सँझली दीदी का नाता जोड़ लिया था, वह बात याद आ गयी। लेकिन चूँकि सुरेश को मृणाल के चरित्र की यह खासियत मालूम न थी, इसलिये वह उस अजीब औरत की ओर ताकते हुए कौतूहलभरी हँसी के साथ बोला-छोटे दादा! तुम्हारे सँझले दादा से मैं कोई डेढ़ साल छोटा हूँ।

मृणाल बोली-तो कृपा करके-छोटे दादा जी, एक आदमी ठीक कर दीजिए कि सुबह की गाड़ी से मुझे पहुँचा आये!

सुरेश ने यह नहीं सोचा था कि जाने की अनुमति मिल जाने से, वह कल ही जाने को तैयार हो जायेगी।

इसलिये वह जरा देर चुप रहा, और गम्भीर होकर बोला-और दो दिन भी क्या नहीं रुक सकोगी दीदी? तुम्हारे जिम्मे छोड़कर महिम की ओर से हम लोग निश्चिन्त थे। मुझे ऐसा ख्याल नहीं आता कि इस सावधानी और सहेज कर सेवा करते मैंने अस्पताल में भी किसी को देखा है! क्यों अचला?

जवाब में अचला ने सिर्फ सिर हिलाया।

सुरेश को चिन्तित-सा देखकर मृणाल बोली-आप इसके लिये तनिक भी न सोचें। जिसकी चीज है, उसी के हाथों सौंप कर जा रही हूँ; नहीं तो शायद मैं जा भी नहीं सकती। आपको तो याद है, हमें किस जल्दी में चला आना पड़ा था। कोई इन्तजाम ही करके न आ पाई। कल आप मुझे छुट्टी दें; फिर जब हुक्म होगा, चली आऊँगी!

सुरेश फिर कुछ देर चुप रहा। सहसा बोल उठा-अच्छा मृणाल, उस घोर देहात में एक बूढ़ी सास की सेवा और पूजा-आद्दिक करके तुम्हारा समय कैसे कटेगा, मैं केवल यही सोच रहा हूँ।

मृणाल के चेहरे पर फिर पीड़ा झलकी। मगर वह हँसकर बोली≤ काटने का भार मुझी पर तो नहीं है छोटे दादा, जिन्होंने समय को बनाया है, वे ही उपाय करेंगे!

सुरेश ने कहा-अच्छा, यह तो हुआ! लेकिन तुम्हारी सास तो ज्यादा दिन जिन्दा न रहेंगी, और डॉक्टर की सलाह के मुताबिक, महिम को भी कुछ दिनों के लिये पश्चिम के किसी स्वास्थ्यकर स्थान में रहना होगा फिर तुम वहाँ अकेली कैसी रहोगी?

मृणाल ऊपर की ओर देखकर सिर्फ जरा हँसी। बोली-यह वही जानें!

अनजानते ही सुरेश के एक दीर्घ श्वास छूट गया। मृणाल ने कहाँ-छोटे दादा, शायद यह सब नहीं मानते?

-क्या सब?

-वही, जैसे भगवान्...

-नहीं!

-फिर हम लोगों के लिये ही शायद आपके मुँह से उपेक्षा का श्वास छूटा?

सुरेश ने अचानक इसका कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ देर अनमना-सा उसकी ओर देखते रहकर, हठात् गर्दन हिलाकर बोला-नहीं मृणाल, वह बात नहीं। किसी अजाने भविष्य का भार, एक अजाने ईश्वर पर छोड़कर, वैसे लोग बल्कि हम लोगों से जीत के ही रास्ते पर चलते हैं, यह मैंने खूब देखा है! मगर इस तर्क को छोड़ो भी दीदी, शायद हो कि मुझसे तुम्हें नफरत हो जाये।

मृणाल ने झट झुककर सुरेश के पैरों की धूल ली। कहा-अच्छा रहे! सुरेश ने अवाक् होकर पूछा-यह फिर क्या हुआ मृणाल!

-क्या?

-कोई बात नहीं, और यों पैरों की धूल ले ली?

मृणाल बोली-बडे़ भाई के पैरों की धूल लेने के लिये दिन-तिथि देखनी पड़ती है क्या! और वह हँस पड़ी।

अजीब लड़की है!-कहकर स्नेह से हँसते हुए उसकी ओर देखकर, सुरेश अचरज से अवाक् रह गया। उसे ऐसा लगा-उसकी सारी शक्ल सावन की काली घटा वाले आसमान-सी घिर गयी है। लेकिन अचरज के इस धक्के को सम्भाल कर, इस सम्बन्ध में कुछ भी पूछने-ताछने की चेष्टा करने के पहले ही अचला, हक्का-बक्का हुए सुरेश को आकाश-पाताल की सोचने का काफी मौका दे, तेजी से मृणाल के प्रायः साथ-ही-साथ कमरे से बाहर हो गयी।

वही आहत-सा बैठा सुरेश बार-बार अपने ही आपको पूछने लगा-

फिर क्या से क्या हो गया? मृणाल के यों प्रणाम करने के साथ इसका कैसे तो कोई गहरा सम्बन्ध है, इसका वह आप ही अनुमान करने लगा-लेकिन वह सम्बन्ध है कहाँ! अचानक उसकी पद-धूलि लेकर मृणाल चली क्यों गयी, और साथ-ही-साथ यों उड़ा हुआ चेहरा लिये अचला ही क्यों बाहर हो गयी? शुरू से आखिर तक अपनी एक-एक बात को दुहराकर वह देख गया, पर खाक समझ में नहीं आया; क्योंकि उसने खूब समझा कि आस-पास ही दो-दो इतनी बड़ी घटनाएँ कुछ यों ही नहीं घटीं। हो-न-हो उसी का कोई बुरा आचरण इसकी जड़ है, यह सन्देह उसके मन में काँटे-सा चुभने लगा।

मगर मृणाल से भी इसके बारे में कुछ पूछना असम्भव था। रात तो उसने कतरा-कतराकर काटी, लेकिन सवेरे एक समय अचला को अकेली पाकर कहा-तुम्हें मेरी एक बात का जवाब देना होगा।

अचला का मुँह शर्म से लाल हो उठा-बात क्या थी, यह उसकी अजानी न थी। पिछली रात की हरकत की कैफियत देनी होगी, यह ताड़कर उसने मृदु स्वर में पूछा-कौन-सी बात का?

सुरेश ने धीमे-धीमे कहा-कल मृणाल एकाएक मेरे पैरों की धूल लेकर चली गयी, और तुम भी रंज होकर मुँह लटकाये चली गयीं, क्या इसलिये कि मैंने उसकी सास के मरने की बात कही थी!

इस अप्रत्याशित प्रश्न से एक राह मिल गयी, इससे अचला मन-ही-मन खुश हुई। बोली-यह प्रसंग छेड़ना क्या उचित था? बेचारी के पति नहीं, सास के मरने से उसके अकेलेपन की तो सोच देखो जरा!

सुरेश बहुत ही खीझकर बोला-मुझसे बड़ी गलती हो गयी! लेकिन यह तो मृणाल भी समझती है कि अब चन्द दिनों की मेहमान हैं। फिर वह असहाय ही क्यों होने लगी?

अचला ने कहा-हम लोगों ने तो यह बात उससे एक बार भी नहीं कही। तुमने ही बल्कि उसे तरह-तरह से डराया, कि गाँव में वह अकेली रहेगी कैसे?

सुरेश ने पछताकर पूछा-तो उसके जाने के पहले क्या हमें भरोसा नहीं देना चाहिए? यह कि उसे कोई डर नहीं। यह बात....

कहते-कहते करुणा से उसका गला भर आया।

अचला उसकी शक्ल देखकर हँसी। पराए दुःख से दुःखी इस युवक की दया की हजारों कहानियाँ उसे पल-भर में याद आ गयीं। बोली-नहीं, नहीं, भरोसा नहीं देना होगा, और डर दिखाने की भी जरूरत नहीं!

सुरेश ने आवेग से आत्मविस्मृत हो, अकस्मात् उसके हाथ को कसकर पकड़कर जोरों से झकझोर दिया। कहा-यह तुम्हारे लायक बात हुई! तुमसे यही तो मैं चाहता हूँ, अचला! कहते ही लेकिन अशेष लज्जा से उसका हाथ छोड़कर वह भाग गया।

उसका जो आवेग क्षणभर पहले, दूसरे की भलाई के स्वच्छ आनन्द में विजयी हुआ था, इस शर्मनाक भाग खड़े होने से पल में ही वह घिनौना और कलुषित-सा हो उठा। अचला की नसों का खून बिजली की रफ्तार से दौड़ा, और पसीने की बूँदों से कपाल भर गया; बदन बार-बार सिहर उठा। वह एक कुर्सी खींचकर निर्जीव की तरह बैठ गयी। थोड़ी देर में वह भाव तो जाता रहा, पर बीमार पति की खाट पर बैठने में, सुबह का सारा समय कैसे तो एक भय में बीतने लगा।

जाते-जाते भी मृणाल को दो-एक दिन की देर हो गयी। महिम से विदा माँगने गयी तो देखा-आज वह करवट बदलकर असमय सो गया है। जो विदा माँगने गयी थी, इस झूठी नींद का निश्चित कारण समझते हुए भी बोली-उन्हें अब जगाने की जरूरत नहीं, सँझली दीदी! है न?

जवाब में अचला के होंठ पर एक बाँकी मुस्कान खेल गयी। मृणाल मन में समझ गयी, उसके इस बहाने को एक और भी स्त्री समझ गयी है। मन-ही-मन अचला उससे ईष्र्या करती है, महिम से इसका कोई आभास न पाने के बावजूद मृणाल जानती थी। यह निरा निरर्थक द्वेष उसे काँटा-सा गड़ा करता। फिर भी अचला अपनी हीनता से उस बीमार आदमी की पाक कमजोरी का उल्टा मतलब लगाएगी, यह वह नहीं सोच पाई थी, एक क्षण के लिये उसका जी जल उठा। लेकिन अपने को जब्त करके उसने उसके कान में कहा-तुम तो सब कुछ जानती हो सँझली दीदी, मेरी ओर से उनसे क्षमा माँग लेना। कहना, चंगे होकर जब गाँव लौटेंगे, तो जिन्दा रही मैं तो भेंट होगी!

नीचे केदार बाबू बैठे थे। मृणाल ने जैसे ही उन्हें प्रणाम किया कि उनकी आँखें गीली हो गयीं। इसी छोटे-से अरसे में, औरों की तरह वे भी इस विधवा को बहुत स्नहे करने लगे थे। कुरते की आस्तीन से आँखें पोंछते हुए बोले-बेटी, तुम्हारे मंगल से ही हमने महिम को यम के जबड़े से वापस पाया है। जभी फुर्सत मिले, या घूमने की इच्छा हो तो इस बूढ़े चाचा को भूलना मत बिटिया! मेरा घर तुम्हारे लिये रात-दिन खुला रहेगा।

कुछ दूर पर अचला खड़ी थी; मृणाल ने उसे दिखाते हुए मुस्कराकर कहा-इनके होते यम के बाप की क्या मजाल कि सँझले दादा को ले जाये! मैंने जिस दिन उन्हें सँझली दीदी के जिम्मे कर दिया, मेरा काम उसी दिन चुक गया।

केदार बाबू कुछ गम्भीर-से हो गये, मगर बोले कुछ नहीं।

दो प्रौढ़-से कारिंदे और एक नौकरानी, मृणाल को उसके घर छोड़ आने को तैयार थे। उन सबको लेकर घोड़ा-गाड़ी फाटक से बाहर निकल गयी, तो केदार बाबू के अन्तर्तम् से एक दीर्घ श्वास निकला। उन्होंने आहिस्ते से इतना ही कहा-अजीब, अनोखी लड़की!

सुरेश का मन भी शायद इसी भाव से भरा था। उसने और किसी तरफ गौर न करके, हामी भरते हुए आवेग के साथ कहा-मैंने तो ऐसा कभी नहीं देखा! न तो ऐसी मीठी बात सुनी है कभी, न ऐसा कुशल काम-काज ही देखा है!! जो भी काम दीजिए, इस कुशलता से करेगी कि जी में होगा, जीवन-भर शायद वह यही करती आयी है। मगर गजब तो यह कि गाँव से बाहर कभी कदम भी नहीं रक्खा!

केदार बाबू ने सच मानते हुए भी अचरज के साथ पूछा-अच्छा?

सुरेश बोला-जी! उसे देख-देखकर मेरे जी में आता था-पूर्वजन्म के संस्कार की जो बात कही जाती है, सच न हो कहीं! कहकर वह हँसने लगा।

पूर्वजन्म के प्रसंग से केदार बाबू कुछ चिन्तित-से होकर सहसा बोल उठे-सो जो भी हो, इसे देखकर मेरी निश्चित धारणा हुई है कि स्त्रिायों में यह अनमोल रतन है! इसे आजीवन यों जीवन्मृत बनाये रखना पाप ही नहीं, महापाप है!! मेरी लड़की रही होती वह, तो मैं हर्गिज ऐसा निश्चिन्त नहीं रह सकता था!!!

सुरेश ने ताज्जुब में आकर पूछा-क्या करते आप?

बूढ़े ने ओजभरे शब्दों में कहा-मैं फिर से उसकी शादी करता! एक बुड्ढे को सौंपकर जिन लोगों ने इस उन्नीस-बीस साल की उम्र में उसे जोगन बनाया है, वे उसके हितू नहीं, कट्टर दुश्मन हैं!! और दुश्मनों के काम को मैं किसी भी हालत में वाजिब नहीं मानता!!!

वे जरा चुप रहकर फिर बोले-जरा उसके स्वामी के ही सलूक को तो देखो। दो-दो बीवी के गुजरने के बाद, जब पचास साल की उम्र में उस खूसट ने इस लड़की से गठबन्धन किया, तो अपने मौज-मजे के सिवा उसने इसके भविष्य के बारे में सोचा भी?

सुरेश को निरुत्तर देख वे और भी जोश में आ गये। बोले-मैं विधवा-विवाह के बुरे-भले का तर्क नहीं करना चाहता। लेकिन इस पर तुम्हारा सारा हिन्दु-समाज चीख-चीखकर मर ही जाये, तो भी मैं यह नहीं मानने का उस दूध-पीती बच्ची के लिये यही विधान श्रेयस्कर है! उसे ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे देखकर वह एक भी दिन गुजार सके। सारी जिन्दगी कोई खिलवाड़ है-कि ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का शोर मचाने से सारी दुनिया रातो-रात तपोवन हो जायेगी!! उस लड़की के कपड़े-लत्ते देखकर ही मेरा कलेजा टूक-टूक हो जाता था।

सुरेश ने जवाब नहीं दिया, नजर उठाकर देखा तक नहीं। लेकिन कनखियों से देखा कि अचला अब तक चौखट का सहारा लिये बुत-जैसी खड़ी थी-वहाँ अब वह नहीं है। जाने कब अन्दर चली गयी।

मृणाल के चले जाने के बाद अचला जब-जब सुरेश के चेहरे की तरफ ताकती, उसे लगता, वह अनमना हो गया है। और जाने कौन-सा शोक उसे क्रमशः नीरस किये दे रहा है।

दो दिन के बाद की बात। तीसरे पहर, निचले बरामदे के एक ओर धूप में, आराम-कुर्सी पर बैठा सुरेश जाने कौन-सी किताब पढ़ रहा था। आहट पाकर उसने उलटकर देखा-अचला खुद उसके लिये चाय लेकर आ रही है। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ, सो हैरत में आकर सुरेश ने सीधा बैठते हुए पूछा-बैरा कहाँ है? खुद ही लिये आ रही हो!

अचला ने इसका जवाब न दिया। एक छोटी-सी तिपाई पर चाय का प्याला रखते हुए, दूसरी कुर्सी खींचकर आप भी बैठ गयी।

उसके इस बिल्कुल नये आचरण से, दूसरा सवाल करने का साहस सुरेश को न हुआ। उसने चुपचाप चाय का प्याला हाथ में उठा लिया।

कुछ देर चुप बैठी रहकर अचला ने धीमे से कहा-अच्छा सुरेश बाबू, विधवा-विवाह को आप किसी भी हालत में अच्छा नहीं समझते?

चाय के प्याले में होंठ लगाए रखकर ही सुरेश ने कहा-समझता हूँ। इसलिये मेरा कुसंस्कार अभी उस हद तक पहुँचा नहीं है।

अपने को सोचने का और ज्यादा मौका न देकर अचला बोली-फिर तो मृणाल जैसी लड़की से विवाह करने में आपको रत्ती-भर भी एतराज न होना चाहिए।

चाय के प्याले को हाथ में लिये, सख्त होकर बैठते हुए सुरेश ने कहा-इसका मतलब?

अचला की शक्ल या आँखों में उत्तेजना के आसार न दिखाई दिए। वह सहज ढंग से बोली-आपके आगे मैं अंसख्य ऋणों से ऋणी हूँ। इसके सिवा मैं आपका भला चाहने वाली हूँ। आपको मैं सुखी-सहज-साँसारिक और स्वाभाविक देखना चाहती हूँ। एक दिन आप विवाह करने को तैयार थे; आज मेरा एकान्त अनुरोध है, स्वीकार कीजिए!

जैसे कण्ठस्थ हो, एक ही साँस में इतनी-इतनी बातें बोलकर अचला हाँफने लगी।

बड़ी देर तक सुरेश बुत-सा स्थिर बैठा रहा, और आखिर बोला-इससे क्या तुम सच ही खुश होगी?

अचला ने कहा-हाँ!

-वह राजी होगी?

-मैं समझती हूँ, होगी!

सुरेश जरा फीका हँसकर बोला-लेकिन मैं ऐसा नहीं समझता। तुमने किताब में पढ़ा है-कोई-कोई सती पति के साथ हँसते-हँसते जल मरती थी। मृणाल उसी कोटि की औरत है! मुँह की बात पर उसे राजी करना तो बहुत दूर की बात है, एक-एक करके उसके हाथ-पाँव काटते जाओ, तो भी दुबारा ब्याह करने के लिये उसे राजी नहीं कराया जा सकता। इस असम्भव को सम्भव करने की चेष्टा में, नाहक ही उसके सामने मेरी मिट्टी-पलीत मत करो, अचला! उसने मुझे दादा कहा है, इस सम्मान को मैं सुरक्षित रखना चाहता हूँ।

देखते-ही-देखते अचला का चेहरा गुस्से के मारे काला पड़ गया। सुरेश का कहना खत्म हुआ, कि सख्त-सी होकर बोली उठी-संसार में अकेली मृणाल ही सती नहीं है, सुरेश बाबू! ऐसी भी सतियाँ हैं, जिन्होंने मन में भी किसी को पतिरूप में चुन लिया हो, तो लाखों प्रलोभनों से भी उन्हें डिगाया नहीं जा सकता!! इनका जिक्र छापे की किताबों में न भी मिले, तो भी इसे सच जानें!!! इतना कहकर हैरान-से रहे, हक्के-बक्के-से सुरेश की तरफ नजर तक न उठाकर, वह गर्विता नारी दृढ़ कदम बढ़ाती हुई बाहर चली गयी।

(25)

किसी की उच्छ्वसित, निश्छल प्रशंसा में किसी और के लिये कितना कठोर आधात और अपमान छिपा रह सकता है-वक्त्ता और श्रोता दोनों में से कोई शायद थोड़ी देर पहले तक भी इसे नहीं जानते थे। हाथ का प्याला हाथ ही में लिये सुरेश बेबस-सा बैठा रहा; और अचला अपने कमरे में जाकर, तकिये में मुँह गाड़कर रुलाई के बेरोक वेग को रोकने लगी-बगल में ही महिम का कमरा था-कहीं उसके कानों आवाज न पहुँचे। अन्तर्यामी के सिवा वास्तव में इस रुलाई का इतिहास और कोई नहीं जान सका।

लेकिन इस गहरे दुःख से उसे एक नया तथ्य मिला। नारी-जीवन में यह सतीत्व कितनी मूल्यवान वस्तु है, इतने दिनों के बाद आज ही मानो पहले-पहल उसकी आँखों के सामने प्रकट हुआ। उस रोज सुरेश से उसके संस्पर्श पर पिता की सन्देहालु दृष्टि से वह बेहद दुःखी और नाराज हुई थी, समझा था कि यह उस पर जुल्म है; पर आज जब अचानक उसी धर्महीन, पराई स्त्री पर निगाह रखने वाले सुरेश को ही सतीत्व के चरणों पर सिर नवाकर इस तरह प्रणाम करते देखा, तो उसे यह समझना बाकी न रहा कि उसका असली स्थान क्या है।

एक बात और। उसने आज यह अनुभव किया कि स्पष्ट कहने की ताकत क्या होती है? वह शिक्षिता थी। मन से स्वामी के लिये निष्ठा ही सतीत्व है, यह बात उसकी अजानी न थी। यह वह अच्छी तरह जानती थी कि अकेला मन या अकेला तन, कोई भी पूर्ण नहीं। फिर भी मन जब उसका डाँवाडोल हुआ है, जबान से यह कहने में जब उसे हिचक नहीं हुई कि पति को वह प्यार नहीं करती-तब भी लेकिन उसे अपने-आपको छोटा नहीं लगा। पर आज जब सुरेश की जबान से निकली हुई बात ने, अजानते ही उसके नाम से असली शब्द को जोड़ देना चाहा, तो उसकी अन्तरात्मा एक हृदयभेदी वेदना के आत्र्त स्वर में चीखकर रो पड़ी।

मगर इसका यह मतलब नहीं कि मृणाल पर उसकी श्रद्धा बढ़ गयी हो। उसके सम्बन्ध में आज उसे जो चेतना मिली, उसे वह जिन्दगी में कभी नहीं भूलेगी-मन-ही-मन वह बार-बार प्रतिज्ञा करने लगी।

बाहर पिता की छड़ी की ठक्-ठक् और पीछे से सुरेश के पैरों की आहट उसने सुनी। समझ गयी कि वे लोग महिम के पास जा रहे हैं। जरा ही देर में पिता की पुकार पर, उसने आँचल से भली तरह आँख पोंछकर किवाड़ खोला और उस कमरे में पहुँची।

उसकी सूरत देखकर केदार बाबू ने पूछा-क्यों, बात क्या है? दो ही बजे शोरबा देना था, चार बज रहे हैं! अरे, यह शक्ल ऐसी क्यों? सो रही थी?

अचला जवाब न देकर जल्दी से चली गयी। जबसे मरीज को शोरबा देने को कहा गया था, यह काम मृणाल ही करती थी। नौकर चूल्हे पर चढ़ा देता था, वह समय पर अन्दाज से उतार लिया करती थी। उसके जाने के बाद यह भार अचला पर आ पड़ा था। आज उसे इसकी याद ही नहीं रही। दौड़ी-दौड़ी गयी। देखा-आग कब की ठण्डी हो गयी है, और शोरबा जलकर सूख गया है।

बड़ी देर तक सन्न-सी खड़ी होकर जब वह लौटी, तो यह सुनकर केदार बाबू ने अचला से कुछ नहीं कहा। सुरेश से बोले-मैंने तो तुमसे तभी कहा था सुरेश, कि अभी एक अच्छी नर्स न रक्खोगे, तो महिम को बचा नहीं पाओगे! मेरी लड़की को क्या तुम लोग मुझसे ज्यादा जानते हो?

सुरेश चुप बैठा रहा। लेकिन यह किसी ने नहीं देखा-कि महिम अब तक स्त्री के शर्म से फीके पड़े चेहरे की ओर देख रहा था। वह धीरे-धीरे बोला-सुरेश, नर्स के हाथों से मुझे दवा तक न रुचेगी। लेकिन मदद के लिये इन्हें कोई आदमी दो। कल-परसों, दो-दो रात इन्हें रात-रात भर जगना पड़ रहा है। दिन के वक्त थोड़ा-सा आराम न करने दो, तो कल-पुर्जे के आदमी से भी काम नहीं ले सकते!

बात अक्षरशः सत्य न हो, झूठ न थी। सुरेश खुश हो गया; लेकिन केदार बाबू अपनी रूखी बात पर लज्जित हो कुछ कहने ही जा रहे थे, कि अचला कमरे से बाहर चली गयी।

रात में बहुत बार उसके जी में आया कि बीमार पति से, रो-रोकर अपने अनेक अपराधों के लिये क्षमा माँगकर पूछे-कि उसकी जैसी पापिनी को फजीहत से बचाने की उन्हें क्या पड़ी थी? लेकिन चरम लज्जा से यह सवाल किसी भी प्रकार से उसके मुँह से न निकला।

सुरेश का एक नियमित काम था, वह रोज रात को महिम के कमरे में जाकर, सारी जरूरी चीजों का इन्तजाम करके तब सोने जाता था। मृणाल जब थी, तो वह लगभग रात-भर आता-जाता रहता था। जरूरत भी थी। लेकिन इधर कई दिन से देखा गया-सहज ही वह कमरे में नहीं जाता। जरूरत होती तो वह दाई को भेजकर खोज लेता; केवल साँझ से पहले एक बार, जरा देर के लिये खुद आकर खोज-पूछ करता। उसके इस रवैये ने सबसे पहले अचला का ही ध्यान खींचा था। लेकिन इस पर कुछ कहना उसके लिये सम्भव नहीं था। इसीलिये वह चुप रही थी। पर जिस दिन महिम ने खुद ही इसका जिक्र किया, तो उसे कहना ही पड़ा कि आज-कल वह ज्यादातर घर में भी नहीं रहते। इसकी वजह भी वह नहीं जानती। महिम ने चुपचाप सुना, अपनी कोई राय न दी।

दूसरे दिन सवेरे अचला नीचे उतर रही थी, और सुरेश भी किसी काम से ऊपर जा रहा था; अचला को देखते ही वह दूसरी तरफ हट गया। उसे सन्देह न रहा, कि सुरेश उसी से कतराता चलता है और एक दिन हृदय से उसने जिसकी कामना की थी, सुरेश की हरकत से उसका वही हृदय व्यथा से पीड़ित हो उठा।

(26)

सभी काम-काज, उठने-बैठने तक में, अचला के मन के एकान्त कोने में जो बात हर पल सुलगती रही, वह यह कि सुरेश के मन में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन काम कर रहा है, जिससे उसका कोई ताल्लुक नहीं। जो उद्दाम प्रेम कभी उसमें पैदा होकर बढ़ा, वह मानो टूटे-फूटे घर-सा उसे छोड़कर और कहीं चला गया। वह अपने-आपको हजारों तरह से झिड़कने-धिक्कारने लगी। लेकिन विदाई की वेदना को वह हर्गिज मन से दूर न हटा सकी। यहाँ तक कि बीच-बीच में, भयानक डर से उसके सर्वांग के रोएँ खड़ा करते हुए यह सन्देह उसके मन में झाँक-झाँक कर उठने लगा कि अपने अनजानते उसने कभी सुरेश को चुपचाप प्यार किया है या नहीं। हर बार इस आशंका को वह असगंत, अमूलक कहकर टालने लगी; अपने-आप पर व्यंग करके कहने लगी-इस असम्भव के सम्भव होने से पहले वह डूब मरेगी-तो भी यह बात छाया-सी उसके पीछे ही लगी रही; घूमते-फिरते वह इसे अपनी आँखों से देखने लगी, और शायद इसीलिये इस विभीषिका से पिण्ड छुड़ाने की नीयत से, नहाने-खाने भर के समय को छोड़कर, रात-दिन में थोड़ा भी समय पति से अलग रहने का साहस न कर सकी। बगल का जो कमरा उसके लिये था, इन कई दिनों में उसमें जाने की भी उसकी इच्छा न हुई। ऐसे ही कुछ दिन बीत गये।

महिम लगभग चंगा हो गया। आबोहवा बदलने के लिये जल्द ही जबलपुर जाने की बात चल रही थी। उस दिन अचला नीचे बैठकर स्टोव पर पति के लिये दूध गरम कर रही थी। दूध बार-बार उफन रहा था; उसे किसी तरफ ताकने की फुर्सत न थी-वह जानती न थी कि महिम अब तक उसी की ओर ताक रहा था-अचानक पति की लम्बी उसाँस की आवाज सुनकर उसने सिर उठाकर एक बार देख-भर लिया, और फिर अपने काम में लग गयी।

महिम कभी भी ज्यादा नहीं बोलता, मगर आज एकाएक निःश्वास फेंककर बोल उठा-सच अचला, बहुत बडे़ दुःख के बिना कभी कोई बड़ी चीज नहीं पाई जा सकती! मेरा घर भी फिर बनेगा, और यह बीमारी भी जाती रहेगी-लेकिन इससे भी जो अनमोल चीज मैंने पाई, वह तुम हो! आज मुझे लगता है-तुम्हारे बिना मेरा एक क्षण भी नहीं कट सकेगा!!

अचला चुपचाप कटोरे के गरम दूध को ठण्डा करती रही, बोली नहीं। कुछ देर रुककर महिम ने फिर कहा-मृणाल, सुरेश-इन लोगों ने भी कुछ कम सेवा नहीं की मेरी; लेकिन न जाने क्यों, जभी मुझे होश आता, मैं घुटन महसूस करता। बार-बार जी में आता-इन्हें इतनी तकलीफ, इतनी असुविधा हो रही है, इनके इस एहसान का बदला जीवन में कैसे चुकाऊँगा! लेकिन ईश्वर के हाथों का बाँधा यह ऐसा सम्बन्ध है कि तुम्हारे बारे में यह फिक्र ही नहीं होती कि यह ऋण कभी मुझे चुकाना ही पड़ेगा। मुझे बचाना मानो तुम्हारी ही गर्ज है-कहकर महिम जरा हँसा।

अचला गर्दन झुकाए दूध को चलाती ही गयी, बोली कुछ नहीं।

महिम ने कहा-और कितना ठण्डा करोगी, लाओ!

अचला ने तो भी कुछ नहीं कहा। नजर झुकाए उसी तरह बैठी ही रही। पहले तो महिम को हैरानी-सी हुई लेकिन वह तुरन्त समझ गया कि मुझ से अपने आँसू छिपाने के लिये ही वह उस तरह सिर-गाड़े बैठी है।

सुरेश क्यों नहीं आता है, इसका वास्तविक कारण न समझते हुए भी, महिम ने कुछ अनुमान नहीं किया था, सो नहीं। इसके लिये उसके मन में क्षोभ मिली हुई एक खुशी ही थी। क्योंकि अचला सतर्क हो गयी है, अकेले में अचानक भेंट हो सकती है, इस खतरे से वह सहज ही कमरे से बाहर नहीं निकलती, महिम ने यह अनुभव किया। इसलिये आज उसका मन मानो वसन्त की हवा में उड़ता रहा। उसकी खाट के करीब ही एक चौकी पड़ी थी। उस दिन काफी रात तक अचला उसी पर बैठी कोई किताब पढ़ रही थी, और थककर बाकी रात वहीं सो रही। सवेरे महिम के जगाए वह हड़बड़ में जगी। खिड़की खोलकर देखा-वेला हो आयी है।

महिम किसी काम के लिये उसे कहते-कहते रुक गया, और सिर से पाँव तक स्त्री को बार-बार गौर करके अचरज से पूछा-तुम्हारी अपनी चादर क्या हो गयी? उससे भी ज्यादा हैरत में आकर अचला ने देखा-अभी-अभी जगने के बाद जो चादर वह लपेट कर आयी है, वह सुरेश की है। पति के इस सवाल ने मानो उसे कोड़ा लगाया। लाज और दुःख से सारा चेहरा बदरंग हो गया। मगर यह हुआ कैसे-वह सोच ही न पाई। याद आया, रात जब वे सो गये थे, तो वह अपनी चादर चपोतकर उनके पैरों पर रख कर, खुद अँचरा ओढ़े ही पढ़ने बैठ गयी थी। इतना ही सिर्फ याद आया, कि नींद में उसे सर्दी-सी लगी थी, और अब जगकर यही देख रही है। स्त्री के शर्माए चेहरे को देखकर महिम स्नेह से, कौतुकपूर्ण हँसी हँसा।

बोला-इसमें इतने शर्माने की क्या बात है अचला? हो सकता है, नौकर ने ही उलटा-पुलटा कर दिया हो, तुम्हारी चादर वहाँ और उसकी यहाँ रख दी हो। या सुरेश खुद ही कल शाम को यहाँ छोड़ गया हो, और तुमने बदन पर रख ली। बैरे से कह दो, बदल देगा!

कहती हूँ-कहकर अचला चादर लिये बाहर आयी, और जब अपने कमरे में विमूढ़-सी बैठ गयी, तो कुछ भी समझना बाकी न रहा। काफी रात बीतने पर सुरेश चुपचाप कमरे में आया होगा, और उसे जड़ाते देख, स्नेह-जतन से अपनी चादर उढ़ाकर चला गया होगा। इस बात में उसे जरा भी सन्देह न रहा। आँखें मूँद कर उसकी वह झुकी और प्यास-भरी निगाह वह स्पष्ट देख पाई, और उसके रोंगटे खड़े हो गये। उसे ऐसा लगा कि सुरेश उसी को देखने, और अच्छी तरह से देखने के लिये आया होगा; और शायद रोज ही आता है, किसी को मालूम भी नहीं हो सकता।

इस आचरण से उसकी लज्जा की सीमा न रही। इसे घिनौना, निन्दनीय, असभ्य कहकर वह हजार तरह से लथेड़ने लगी; मेहमान के प्रति मकान-मालिक का चोरी-चोरी ऐसा कर्म, अपने जीवन में कभी न क्षमा करने की बार-बार प्रतिज्ञा की। फिर भी उसका मन इस अभियोग के लिये खुलकर हामी नहीं भर रहा है, यह भी उसने समझा। लेकिन साथ ही उसके आगे यह भी स्पष्ट हो गया, कि आज तक क्या और कहाँ चुभता रहा उसे।

केदार बाबू के कोई बचपन के साथी जबलपुर में रहते थे। उनके यहाँ से जवाब आया-जलवायु और कुदरती नज्जारों के लिये यह जगह बड़ी ही अच्छी है। मेरा घर भी काफी बड़ा है। महिम आये तो बड़े मजे में यहीं रह सकता है।

एक दिन सवेरे केदार बाबू ने आकर यह बताया। कहा-माघ महीना बीत चला। और राह की थोड़ी-बहुत तरद्दुद झेलने लायक भी हो ही गये तो अब देर काहे की? चल ही देना चाहिए! जवानी में एक बार वे जबलपुर गये थे। उसकी स्मृतियाँ मन में थीं, उन्हीं का बड़े उमंग से वर्णन करते हुए बोले-जगदीश की स्त्री अभी जीवित है, वे माँ के समान महिम की सेवा-जतन करेंगी, और इसी बहाने मेरा भी फिर एक बार जबलपुर जाना हो जायेगा। महिम चुपचाप सब सुनता रहा, पर कोई उत्साह नहीं दिखाया। उसकी यह उदासी सिर्फ अचला ने ही देखी। पिता जब वहाँ से चले गये, तो उसने धीमे-धीमे पूछा-क्यों, जबलपुर तो अच्छी जगह है, नहीं जाना चाहते हो?

महिम ने कहा-तुम लोग मुझे जितना तन्दुरुस्त और सबल समझ रही हो, हकीकत में उतना मैं अभी हुआ नहीं-कभी हूँगा या नहीं, मैं इसकी भी आशा नहीं करता!

अचला ने कहा-जभी तो डाक्टर ने जलवायु-परिवर्तन करने की सलाह दी है घूम आओ, सब ठीक हो जायेगा!

महिम ने धीरे-धीरे गर्दन हिलाई और जरा देर चुप रहा। बोला-क्या जानें। लेकिन ऐसी हालत में, अपने या और किसी के भरोसे मुझे स्वर्ग जाने का भी भरोसा नहीं होता! अन्दर से मैं बहुत अस्वस्थ, बहुत कमजोर हूँ अचला! तुम पास न रहो, तो शायद ज्यादा दिन न बचूँगा!! कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा गयी।

वह जबान खोलकर कभी कुछ माँगता नहीं, कभी कोई कमी और दुःख नहीं जाहिर करता। सो उसके मुँह की इस व्याकुल याचना ने मानो कील चुभोकर, अचला के हृदय में अब तक के सारे रुँधे स्नेह, करुणा और माधुर्य का मुँह खोल दिया। वह अपने-आपको और सम्हाल न सकी और कहीं कुछ कर न बैठे इस डर से आँसू दबाती हुई दौड़कर वहाँ से भाग गयी। महिम बड़ी देर तक अचरज और दुःख से खुले दरवाजे की तरफ देखता रहा; फिर धीरे-धीरे लेट गया।

फिर जब दोनों की भेंट हुई, तो दो में से किसी ने भी इसके बारे में कोई बात न की। दूसरे दिन सवेरे वह हाथ में एक तार लिये आयी और मुस्करा कर बोली-जगदीश बाबू ने तार का जवाब दिया है; उन्होंने अपने मकान के पास ही हम लोगों के लिये एक छोटा-सा मकान ठीक किया है।

महिम ठीक न समझ पाकर बोला-मतलब इसका?

अचला बोली-वे पिताजी के मित्र हैं, इस नाते उन्होंने आपको जगह दी-माना; मगर दो-दो आदमी तो उनके कन्धे पर जाकर नहीं लद जा सकते! इसलिये मैंने कल ही पिताजी को लिख भेजा था कि एक दूसरा मकान ठीक करने के लिये उन्हें तार दे दें। उसी का जवाब है। यह कहकर उसने पीला-सा लिफाफा पति के बिछावन पर फेंक दिया।

महिम ने उसे उठाकर शुरू से अन्त तक पढ़कर सिर्फ अच्छा कहा। वह समझ गया कि अचला स्वेच्छा के साथ जाना चाहती है। लेकिन कल वाले आचरण को याद करके-जो आज भी उसके लिये ऐसा ही दुर्बोध, वैसा ही दुर्जेय है, किसी तरह की चंचलता दिखाने की उसे इच्छा न हुई। किन्तु अचला की ओर से सफर की पूरी तैयारी होने लगी। उस दिन दोपहर को इस कमरे में आकर वह अपने सरो-सामान ठीक कर रही थी। केदार बाबू दरवाजे के पास कुछ देर तक खड़े-खडे़ देखते रहकर बोले-तुम न जाओ, तो कोई हर्ज है बेटी?

अचला ने चौंककर देखते हुए पूछा-क्यों पिताजी?

सेहत और इलाज के लिहाज से उसका साथ रहना ठीक नहीं है-पिता होकर बेटी से यह कहने में उन्हें शर्म नहीं आयी। इसलिये महिम की मौजूदा आर्थिक स्थिति का इशारा करते हुए बोले-कौन ज्यादा दिन की बात है! फिर जगदीश के यहाँ उसे कोई तकलीफ ही नहीं होगी!! कुछ दिनों के लिये नाहक ही ज्यादा खर्च करके...

असली बात अचला ने नहीं समझी। उसने पिता की ओर नजर उठाकर पूछा-शायद उन्होंने कहा था!

-नहीं-नहीं, महिम ने कुछ नहीं कहा-मैं ही ऐसा सोच रहा हूँ...

तुम कुछ न सोचो-मैं सब ठीक कर लूँगी-कहकर उसने अपने सामान से ध्यान लगाया। दूसरे ही दिन अपने दो जेवर बेचकर उसने नकद रुपये मँगवाकर रक्खे।

फागुन के बीचो-बीच जाने का विचार था, पर सुरेश की फूफी ने पण्डित से पत्री दिखवाकर, पहले ही हफ्ते में यात्रा का दिन तै कर दिया। सबको वही राय माननी पड़ी।

जाने के दो दिन पहले से ही अचला का मन हवा में तैरता-फिरने लगा। कलकत्ता से बाहर कुछ दिनों के लिये ससुराल में रहने के सिवा वह कभी बाहर नहीं गयी; पश्चिम की तो उसने कभी शक्ल ही नहीं देखी। वहाँ कितने स्मारक हैं, कितने वन-जंगल, पहाड़-पर्वत, नद-नदी, जल-प्रपात-कितना कुछ है, जिनके बारे में लोगों की जबानी सुनने के सिवा, आँखों देखने की कल्पना कभी उसके मन में भी नहीं आयी। वही सारे आश्चर्य अब वह अपनी आँखों देखने जा रही है। इसके सिवा वहाँ उसके पति को सेहत मिलेगी, वहाँ अकेली वही पति की घरनी, गृहिणी सभी कामों में हाथ बँटाने वाली रहेगी। तन्दुरुस्ती के लिये वहाँ की आबोहवा अच्छी है, जीवन-यात्रा का पथ सहज-सुगम है; ये अच्छे हो गये तो वहीं कहीं अपनी दुनिया बसाएगी, और निकट भविष्य में जो अनचाहे अतिथि एक-एक करके आकर उनकी गिरस्ती को भरी-पूरी कर देंगे, उनके कोमल मुखड़े निहायत परिचित से ही मानो उसकी निगाहों पर नाचने लगे। सुख के ऐसे जाने कितने सपने उसके दिमाग में रात-दिन चक्कर काटने लगे। पति उसे छोड़कर अकेले अब स्वर्ग जाने का भी भरोसा नहीं करते, इस बात ने तो सारी चिन्ता को मधुमय कर दिया। अब उसे किसी के लिये न तो शिकवा रहा, न शिकायत; हृदय की सारी ग्लानि धुल गयी और मन गंगाजल-सा निर्मल तथा पवित्र हो गया। उसे इस बात की बड़ी इच्छा होने लगी कि जाने के पहले एक बार मृणाल से भेंट हो जाये, उसे अपनी छाती से लगाकर, जाने-अनजाने अपने सभी अपराधों के लिये क्षमा माँग ले। आज सुरेश के लिये भी उसका मन रोने लगा। परम बन्धु होने के बाद भी जो वह आज लाज और संकोच के उन लोगों के सामने नहीं आता-उसकी बदनसीबी की इस वेदना का उसने आज जैसा अनुभव किया, और कभी नहीं किया था। उससे भी हृदय से क्षमा माँगनी है। लेकिन खोज करने पर पता चला-वे कल से ही घर पर नहीं हैं।

जाने के दिन सुबह से ही बदली घिर आयी। बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी। सामान बाँधे जा चुके थे, कुछ-कुछ स्टेशन भी भेज दिये गये थे, टिकट तक कटा लिया गया था। अचला के लिये भी दूसरे दर्जे का टिकट लेने की बात चली थी लेकिन उसने एतराज किया। कहा-रुपया फूँकने का ही शौक हो, तो कटाओ! मैं स्वस्थ हूँ, सबल हूँ और कितने बड़े-बड़े घर की स्त्रिायाँ ड्योढ़े दर्जे के जनाना-डिब्बे में सफर करती हैं; मैं नहीं कर सकती? ड्योढ़े से ऊपर मैं हर्गिज नहीं जाऊँगी!

आखिर वैसा ही किया गया।

पूरे दो दिन सुरेश के दर्शन नहीं हुए थे। लेकिन आज दिन अच्छा न था-चाहे इसलिये या और किसी कारण से, वह अपने पढ़ने वाले कमरे में ही था। उस आनन्दविहीन कमरे में अचला ने वसन्त के एक झोंके-सा प्रवेश किया। उसकी आवाज में खुशी झलकी पड़ रही थी। बोली-इस जन्म में अब हम लोगों की आप शक्ल ही न देखेंगे क्या? ऐसा क्या अपराध किया है, कहिए तो?

सुरेश चिट्ठी लिख रहा था। नजर उठाकर उसने देखा। अपना घर जल जाने के बाद उसके आस-पास के पेड़-पौधों की जो सूरत अचला देख आयी थी, सुरेश के इस चेहरे ने उसकी ऐसी याद दिला दी-कि वह मन-ही-मन सिहर उठी। वसन्त की हवा निकल गयी-वह भूल गयी कि क्या कहने आयी थी, पास जाकर उद्विग्न होकर पूछा-तबीयत खराब है सुरेश बाबू? मुझसे नहीं कहा?

सुरेश ने क्षण-भर को नजर उठायी थी। तुरन्त झुकाकर बोला-नहीं, तबीयत मेरी खराब नहीं है, मैं ठीक हूँ! उसके बाद किताब के पन्ने पलटता हुआ बोला-आज ही तो जा रही हो-सब ठीक हो गया? न जाने अब कब तक भेंट न होगी!

लेकिन दो-एक मिनट तक दूसरी तरफ से कोई जवाब न पाकर, अचरज से उसने सिर उठाकर ताका। अचला की दोनों आँखें लबालब भर गयी थीं; आँख मिलते ही आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपाटप चू पड़ीं।

सुरेश की नसों में गरम खून खौल उठा, लेकिन आज सारी शक्ति लगाकर अपने को जब्त करके उसने सिर झुका लिया।

आँचल से आँसू पोंछकर अचला ने गाढ़े स्वर में कहा-तुम्हारी तबीयत हर्गिज अच्छी नहीं है! तुम भी हम लोगों के साथ चलो!!

सुरेश ने सिर हिलाकर कहा-नहीं।

-नहीं क्यों? तुम्हारे लिये... बात पूरी न हो सकी। बाहर से बैरे ने आवाज दी-बाबूजी, चाय-और पर्दा हटाकर वह अन्दर आया, साथ-ही-साथ मुँह फेरकर अचला बाहर चली गयी।

घण्टे-भर बाद जब वह कमरे में गयी, तो महिम ने पूछा-सुरेश दो दिनों से गया कहाँ है, जानती हो? फूफी से भी कुछ नहीं बताया है। वह आज मुझसे भेंट नहीं करेगा क्या?

अचला ने धीरे-धीरे कहा-आज तो वे घर ही में हैं। महिम ने कहा, नहीं! अभी-अभी नौकरानी कह गयी-वह सवेरे ही निकल गया है!

अचला चुप रही। थोड़ी देर पहले उससे भेंट हुई है, वह बीमार है, छुटपन की तरह इस बार भी उसने तुम्हारी जान बचाई है-केवल इसी एहसान से उसको एक बार बुलाना तुम्हारे लिये उचित है-उससे अब खतरा नहीं-शर्म से भरी हुई शंका की निगाह से देखकर उसे और मत लजाओ-उसके मन की इन बातों में से एक भी आवाज जीभ से बाहर नहीं निकली। वह पति की ओर ठीक से ताक भी न सकी। चुपचाप किसी काम में लग गयी।

धीरे-धीरे स्टेशन जाने का समय करीब आ गया। नीचे केदार बाबू की चीख-पुकार सुनाई पड़ी, और फूफी भरा घट लिये व्यस्त हो पड़ीं। नौकरों ने गाड़ी पर सारा सामान लाद दिया; लेकिन जो मकान-मालिक थे, उन्हीं का कोई पता नहीं चला। फिर भी इस पर खुलकर आलोचना करने की किसी को हिम्मत न हुई। अन्दर-अन्दर मामला कुछ ऐसा था कि उसने मानो सबको कुण्ठित कर दिया था।

अकेले में पाकर बेटी के माथे पर हाथ रखकर केदार बाबू ने स्नेह-सने स्वर में कहा-सती हो बिटिया, माँ-सी होओ! बुढ़ापे के कारण बहुत बुरा-भला कहा है-रंज मत होना। कहकर वे झटपट वहाँ से खिसक गये।

गाड़ी पर सवार होकर, अकेले में महिम ने दुःखी होकर अचला से कहा-आखिर उसने हमसे भेंट नहीं की! उससे एक बात कहने के लिये मैं दो दिनों तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा।

पिता की बात से उस समय अचला की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने केवल गर्दन हिलाकर कहा-नहीं।

ओट में फूफी खड़ी थी। भक्ति से उन्हें प्रणाम करके अचला ने उनके चरणों की धूल जो ली तो गद्गद होकर असंख्य आशीर्वाद देती हुई वे बोल उठीं-तुम्हारा सुहाग अक्षय हो बिटिया, पति को नीरोग करके जल्द लौट आओ, ईश्वर से यही प्रार्थना है!

मेरे लिये यही सबसे बड़ा आशीर्वाद है फूफी?-आँखें पोंछती हुई वह गाड़ी पर जा बैठी। बात केदार बाबू के भी कानों में गयी। अक्षम्य लज्जा से मानो मर-से गये।

(27)

हावड़ा से गाड़ी छूटने में दसेक मिनट की देर थी। बाहर बादलों से भरा आसमान। बूँदा-बाँदी का विराम नहीं। लोगों के चलने से सारा प्लेटफार्म कीचड़ से भर गया था, लोग गठरी-मोटरी लिये, किसी तरह सम्भल-सम्भलकर जगह ढूँढ़ते फिर रहे थे। ऐसे में अचला ने देखा-हाथ में एक बड़ा-सा बैग लिये सुरेश आ रहा है। अचरज और दुश्चिन्ता से केदार बाबू का चेहरा स्याह हो उठा; उसके पास आते न आते वे चीख उठे-अरे, माजरा क्या है सुरेश? तुम कहाँ चले?

जवाब सुरेश ने अचला को दिया। उसी की ओर देखकर सूखी हँसी हँसते हुए कहा-न; मैंने देखा, तुम्हारा उपदेश, तुम्हारा आमंत्रण, किसी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आज सवेरे आँख में उँगली गड़ाकर तुमने बता न दिया होता तो मैं समझ ही न पाता कि सेहत मेरी भी कितनी खराब हो गयी है। चलो, कुछ दिन तुम्हारा ही मेहमान होकर रहूँ, देखूँ ठीक हो सकता हूँ कि नहीं! सच कह रहा हूँ न...

ठीक तो है, ठीक तो! उसके अलावा, नई जगह में हमें काफी मदद भी मिल जायेगी-कहकर महिम ने अचला की ओर देखा। उसकी उस मौन और दुःखी निगाह ने मानो शोर करके सबको सुनाते हुए अचला से कहा-मुझसे क्यों नहीं कहा? जिसकी सेहत के लिये इतनी उत्कण्ठा रही, आज सुबह तक तुम दोनों ने जिस बात की चर्चा की-उसकी तनिक भी खबर मुझे क्यों नहीं होने दी? इस चुप-चुप की क्या जरूरत थी, अचला?

लेकिन अचला उधर को मुँह फेरे रही, और सुरेश कुछ समय तक विमूढ़-सा रहकर, अचानक अन्दर की उत्तेजना को बाहर ढकेलकर नाहक ही परेशान-सा बोल उठा-लेकिन अब समय तो है नहीं! चलो, गाड़ी पर ही बातें होंगी। चलिये केदार बाबू-कहकर केवल सामने की ओर ही नजर किये, मानो सबको ठेलता ही ले चला।

बड़ी देर तक केदार बाबू कुछ नहीं बोले। महिम को उसकी जगह पर बैठाकर अचला को उन्होंने औरतों वाले डिब्बे में चढ़ा दिया। केवल उस समय, जब गाड़ी छूटने लगी और झुककर उन्हें प्रणाम करके सुरेश महिम की बगल में जा बैठा, तो उन्होंने कहा-तुम्हीं साथ हो तो आशा है, रास्ते में कोई तकलीफ न होगी! औरतों वाला डिब्बा जरा दूर है, बीच-बीच में जरा खोज-खबर लेते रहना सुरेश! महिम से कहा-पहुँचते ही समाचार भेजना न भूलना। ख्याल रहे! मैं बेताब रहूँगा-कहकर उन्होंने आँसू रोकते हुए प्रस्थान किया। उनका वह उदास चेहरा और स्नेहगीला स्वर बड़ी देर तक दोनों मित्रों के कानों में गूँजता रहा।

गाड़ी छूटी, और सर्दी लगने के डर से महिम झट कम्बल लपेटकर लेट गया; लेकिन सुरेश वहीं उसी तरह बैठा रहा। वहाँ उसकी शक्ल की तरफ गौर करने वाला कोई नहीं था, अगर होता तो कोई भी देखकर कह सकता कि आज उन दो आँखों की निगाह हर्गिज स्वाभाविक न थी-भीतर बहुत बड़ी कोई अगलग्गी न होते रहने से, किसी की आँख से ऐसी तीखी रोशनी छिटक ही नहीं सकती। पैसेंजर गाड़ी हर स्टेशन पर रुकती-रुकती, धीमी-धीमी चाल से बढ़ने लगी; और बाहर बारिश होती रही। किसी बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकने को हुई, तो चादर में लिपटा मुँह बाहर निकालकर महिम ने कहा-भीड़ तो थी नहीं, थोड़ा सो क्यों नहीं लिया, सुरेश? ऐसी सुविधा तो हर वक्त नहीं मिल सकती!

सुरेश ने चौंककर कहा-हाँ, सो रहा हूँ।

उसका यह चौंकना ऐसा बेतुका और अहैतुक लगा कि महिम आश्चर्य से अवाक् हो गया। मानो वह उससे छिपाकर कोई गुनाह कर रहा था, पकड़ जाने के खौफ से डर गया है। इस आशंका को महिम देर तक मन से निकाल नहीं सका। गाड़ी रुक गयी।

अपनी स्थिति समझकर, हँसी के आभास से मुखड़े को कुछ सरस बनाकर सुरेश ने कहा-मैंने सोचा था, तुम सो रहे हो, सो चौंक उठा...

महिम ने केवल-‘हूँ’ कहा-बिना जरूरत की यह सफाई भी उसे अच्छी नहीं लगी।

सुरेश बोला-उन्हें किसी चीज की जरूरत है कि नहीं, पूछना...

-लेकिन पानी नहीं पड़ रहा है?

-खास नहीं! मैं झपटकर देख आता हूँ-और सुरेश दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया। औरतों वाले डिब्बे के पास जाकर देखा-अचला को एक हमउम्र साथिन मिल गयी है। वह उसी से गप-शप कर रही है। उसी लड़की ने पहले सुरेश को देखा, और अचला को छूकर इशारा करके मुँह फेरकर बैठ गयी। अचला ने पलटकर देखा। सुरेश ने-कुछ चाहिए या नहीं यह पूछा-अचला ने सिर हिलाकर नाहीं की। कहा-तुम्हें पानी में नहीं भीगना है, चल दो! कहकर वह खिड़की के पास आ गयी। धीमे से कहा-मेरी फिक्र की जरूरत नहीं; जिनकी फिक्र है उनका जरा ख्याल रखना!

सुरेश ने कहा-उसका ख्याल है! लेकिन तुम्हें खाने को कुछ, पानी... अचला ने मुस्कराकर कहा-नहीं-नहीं, कुछ भी नहीं चाहिए! तुम भीग-भीगकर बीमार पड़ना चाहते हो क्या?

सुरेश ने एक नजर अचला को देखा और निगाह नीची कर ली। कहा, चाहता तो जमाने से हूँ, मगर अभागे के पास बीमारी भी तो फटकना नहीं चाहती! सुनकर अचला की कनपटी तक शर्म से लाल हो उठी-लेकिन नजर उठाते ही सुरेश कहीं देख न ले, इस आशंका से उसने किसी कदर इसे दिल्लगी की शक्ल देने की कोशिश करते हुए हँसकर कहा-अच्छा तुम चलो तो सही! वह काम कराऊँगी तुमसे कि...

लेकिन बात को वह पूरी नहीं कर सकी। उसकी छिपी लज्जा ने, इस बनावटी दिल्लगी के बाहरी प्रकाश को बीच में ही झिड़कते हुए रोक दिया।

गाड़ी छूटने की घण्टी बजी। कुछ कहना चाहते हुए भी सुरेश बिना कहे चला जा रहा था, कि बाधा पाकर उसने उलटकर देखा-उसकी चादर का एक छोर अचला की मुट्ठी में है। वह फुसफुसाकर गरज-सी उठी, मैंने तुम्हें साथ चलने को कहा था, यह बात तुमने सबके सामने क्यों कह दी? मुझे इस तरह से अप्रतिभ क्यों बनाया? ठीक इसी बात के लिये तब से सुरेश के अन्दर उथल-पुथल मची थी, और वह पश्चात्ताप से जल रहा था। इसलिये वह करुण स्वर में बोला-अनजानते मुझसे अपराध हो गया, अचला!

अचला जरा भी नर्म न पड़ी। वैसी ही गरम होकर कहा-अनजानते? सबके सामने मेरी हेठी कराने के लिये, जानकर ही कहा तुमने?

गाड़ी चल पड़ी। सुरेश को और कुछ कहने का मौका न मिला। अचला ने उसकी चादर छोड़ दी, और वह धड़कता दिल लिये तेजी से चला गया। वह बेशक किसी तरफ निगाह किये बिना चल पड़ा, लेकिन नजरों से उसका पीछा करते हुए, और एक जने की धड़कन थम जाने को हुई। अचला ने देखा-अपने डिब्बे में खिड़की से बाहर सिर निकालकर महिम उन्हीं लोगों को देख रहा है। अचला जब अपनी जगह पर आ बैठी, तो उस लड़की ने पूछा-यही हैं आपके बाबू?

अनमनी अचला केवल हूँ करके, सूनी आँखों बाहर खेत-खलिहान, पेड़-पौधों को देखती रही। जिस गप को अधूरा छोड़कर वह सुरेश के पास गयी थी, उसे फिर से पूरा करने की उसे इच्छा न हुई।

फिर गाँव और गाँव, शहर और शहर पार होने लगा। उसके मन की कुढ़न फिर जाती रही, तथा चेहरा निर्मल और प्रशान्त हो गया। फिर से वह अपनी हमसफर से खुशी-खुशी बात करने लगी; जिस शर्म ने घण्टाभर पहले उसे मायूस कर दिया था, वह याद भी न रही।

किसी बड़े स्टेशन पर, सुरेश खानसामा के हाथों चाय और खाने की चीजें लेकर हाजिर हुआ। अचला ने सब कुछ रखवाकर शिकायत करते हुए कहा-इन झंझटों के लिये तुमसे किसने कहा? तुम्हारे मित्ररत्न ने शायद?

अचला खूब जानती थी कि इन बातों में सुरेश किसी के कहने की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी अनमाँगे इस जतन के लिये इतनी-सी चिकोटी काटे बिना वह न रह सकी।

सुरेश होंठ दबाकर हँसते हुए चला जा रहा था; अचला ने आवाज दी-उसके होंठ पर हँसी का वह आभास अभी था ही। उसे देखते ही अचला सहसा फिक् करके हँस पड़ी, और लाज से लाल हो उठी। उस लाल आभा को सुरेश ने दोनों आँखों मानो जी-भरकर पी लिया।

अचला ने दरअसल पति के बारे में जानने के लिये ही सुरेश को फिर से पुकारा था कि उन्हें कोई तकलीफ या असुविधा तो नहीं है या कि कोई जरूरत तो नहीं-एक बार आ सकेंगे क्या-एक-एक कर ये ही बातें जानने की इच्छा थी; मगर अब एक भी बात पूछने की उसमें शक्ति न रही। उसने बेतुकी गम्भीरता से सिर्फ इतना पूछा-हमें इलाहाबाद में गाड़ी बदलनी होगी? कितनी रात को गाड़ी वहाँ पहुँचेगी, मालूम है आपको? पता करके कह जायेंगे मुझे!

अच्छा!-इतना कहकर सुरेश कुछ चकित-सा हो चला गया।

लौटकर अचला ने देखा-वह लड़की अपनी जगह से दूर हटकर बैठी है। जी की खीझ को सम्भाल न पाकर अचला ने पूछा-आपके यहाँ लोग चाय-डबल रोटी नहीं खाते?

वह नम्रता के साथ हँसकर बोली-भला पूछती हैं, इस बला से भी कोई घर बचा है? सभी खाते हैं!

अचला ने कहा-फिर घृणा से दूर क्यों खिसक गयीं?

उसने शर्माकर कहा-नहीं बहन, घृणा से नहीं; मर्द तो सभी खाते हैं, लेकिन मेरे ससुर यह सब पसन्द नहीं करते। और हम औरतों को...

ऐसे ही खाने-छूने के मामले में मृणाल से उसकी जुदाई हुई थी। उस दिन भी जिस कारण से अपने को रोक नहीं सकी थी, आज भी वैसी ही एक जलन से वह अपने को भूल बैठी, और रुखाई के साथ उससे बोली-मैं आपको तंग नहीं करना चाहती, आप मजे में अपनी जगह पर आकर बैठ सकती हैं-और पलक मारने-भर की देर में अचला ने चाय-रोटी खिड़की के बाहर फेंक दी। वह लड़की बड़ी देर तक काठ मारी-सी रही, उसके बाद मुँह फेरकर आँचल से आँसू पोंछने लगी। शायद उसने यही सोचा-इतनी देर के परिचय और बातचीत की जिसने कोई मर्यादा नहीं रक्खी, आँसू देखकर न जाने वह क्या कर बैठे?

थोड़ी देर के लिये बारिश थम जरूर गयी थी, मगर आसमान में बादल जमते ही चले जा रहे थे। तीसरे पहर के करीब फिर बारिश जम गयी। वह लड़की इसी पानी में उतर जायेगी-तैयार होने लगी।

अचला से और रहा न गया, वह उसके पास जा बैठी। उसकी हथेली अपनी मुट्ठी में लेकर स्निग्ध स्वर में कहा-अपने व्यवहार पर मैं बेहद शर्मिन्दा हूँ। आप मुझे माफ करें!

वह हँसी, लेकिन तुरन्त उत्तर न दे सकी। अचला ने फिर कहा-मेरा मन ठीक नहीं रहने पर मैं क्या कर बैठती हूँ, कोई ठिकाना नहीं! पति बीमार हैं, उन्हें लेकर जलवायु-परिवर्तन के लिये बाहर जा रही हूँ-अच्छे हो गये तो ठीक ही हैं; नहीं तो इस परदेश में क्या बीतेगी, भगवान् ही जानते हैं! कहते-कहते उसका गला भर आया।

उस लड़की ने आश्चर्य से कहा-मगर आपके पति को देखकर तो यह नहीं लगता कि बीमार हैं!

अचला ने कहा-मेरे पति इसी गाड़ी में हैं, आपने उन्हें नहीं देखा है। ये मेरे पति के मित्र हैं।

वह लड़की और भी हैरान होकर चुप रही।

उस समय जब उसने पूछा था-यह क्या आपके बाबू हैं, तो अनमनी अचला ने हूँ कर दिया था, यह अचला को याद न था; लेकिन वह न भूली थी। सो उसके चकित होने को अचला ने अनुभव से ग्रहण किया। सुरेश से उसकी बातचीत का ढंग उसे कैसा बुरा लगा, मन-ही-मन इसकी कल्पना करके वह लाज से मर गयी। और निहायत बेमानी और भद्दा-सा जवाब दे बैठी-हम लोग हिन्दू नहीं हैं, ब्राह्म हैं!

उसने फिर भी जब कोई जवाब नहीं दिया, तो अचला ने उसका हाथ छोड़ दिया। कहा-आप चूँकि हमारा व्यवहार ठीक-ठीक समझ नहीं सकतीं, इसलिये हमें अजीबो-गरीब न समझें!

अबकी वह लड़की हँसी। बोली-हम तो ऐसा नहीं सोचती, आप ही लोग बल्कि जिस कारण से भी हो, हमसे दूर रहना चाहते हैं! यह मैंने कैसे जाना कि हमारे दो-एक अपने लोग आपके समाज के हैं। उन्हीं से मैंने जाना! कहकर वह हँसने लगी।

अचला ने पूछा-वह कारण क्या है?

वह बोली-वह आप जरूर जानती होंगी। नहीं जानती हों, तो समाज के किसी से पूछ देखें। इसके बाद हँसकर इस प्रसंग को दबाते हुए बोली-अच्छा, अपने पति को लेकर इतनी दूर न जाकर हमारे यहाँ क्यों नहीं चलतीं?

-कहाँ, आरा?

राम कहिए! वहाँ भी आदमी रहता है? मेरे पति ठेकेदारी करते हैं इसलिये मुझे कभी-कभी वहाँ जाकर रहना पड़ता है। मैं डिहरी की बात कह रही हूँ। सोन नदी के किनारे अपना छोटा-सा घर है। वहाँ दो दिन रहने से आपके पति चंगे हो जायेंगे। चलेंगी?-अचला के दोनों हाथ अपनी गोदी में लेकर वह उसकी ओर ताकने लगी।

इस अपरिचित स्त्री की उत्सुकता और हार्दिक आग्रह देखकर अचला मुग्ध हो गयी। बोली-लेकिन इसके लिये आपके पति की अनुमति होनी चाहिए। उनके कहे बिना कैसे जा सकती हूँ?

उसने सिर हिलाकर कहा-ऐसा भी क्या! हम सेवा करने की लिये दासी हैं, इससे क्या सब बात में दासी? ऐसा सोचें भी मत; हुक्म देने में तो हम ही मालिक हैं! वह जगह आपको पसन्द न आये, तो आप सीधे डिहरी चली आयें-बिल्कुल न सोचें, मैं कह रही हूँ! अनुमति लेनी हो तो मैं लूँगी, आपको क्या गर्ज पड़ी है? यह कहकर उस सुहागिन लड़की ने अपनी खुशी की अधिकता से मानो अचला को आच्छन्न कर दिया।

गाड़ी की धीमी चाल से समझ में आया कि आरा स्टेशन करीब आ रहा है। उसने फिर अचला के दोनों साथ अपनी गोद में लेकर कहा-मेरा स्टेशन आ रहा है, मैं अब उतरूँगी। लेकिन आप सोच-सोचकर जी न खराब करें, कहे जाती हूँ! कोई डर नहीं, आपके पति अच्छे हो जायेंगे!! परन्तु वचन दीजिए, लौटती बेर एक बार मेरे घर में पैरों की धूल देंगी?

अचला ने आँसू रोकते हुए कहा-वह सुअवसर मिला, तो आपसे जरूर मिलती जाऊँगी!

उसने कहा-क्यों नहीं, सुअवसर जरूर मिलेगा! आपको मैंने पहचान लिया।

मैं कहे जाती हूँ, आपकी ऐसी भक्ति और प्यार की ईश्वर कभी उपेक्षा नहीं कर सकते; ऐसा हो ही नहीं सकता!

अचला जवाब न दे सकी। मुँह फेरकर उसने उमडे़ आँसू को रोका।

बारिश में गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी। उसका देवर वहीं खड़ा था। उसने आकर दरवाजा खोल दिया। उसके कान के पास मुँह ले जाकर अचला ने चुपचाप कहा-अपने पति का नाम तो नहीं लेंगी आप, जानती हूँ; मगर अपना नाम तो बताइये! अगर कभी आऊँ, तो आपको ढूँढूँगी कैसे?

उसने जरा हँसकर कहा-मेरा नाम राक्षसी है! डिहरी में जिस बंगाली लड़की से भी पूछेंगी, मेरा ठिकाना बता देगी!! मगर दोनों जने एक बार आइए, मेरे सिर की कसम, मैं राह देखती रहूँगी!!! सोन के किनारे पर ही मेरा घर है। इसके बाद उसने दोनों हाथ जोड़कर अचला को नमस्कार किया, और भीगती हुई चली गयी।

भाप की गाड़ी फिर धीरे-धीरे चल पड़ी। अभी-अभी साँझ हुई थी, किन्तु वर्षा के साथ हवा के झोंकों ने दुर्योग की इस रात को और भी भयंकर कर दिया था। खिड़की के काँच के बाहर देखते-देखते उसकी आँखें खुल गयीं-उसे यही लगने लगा कि इस हाथ को हाथ न सूझने देने वाले अँधेरे ने उसके आदि-अन्त को लील लिया है। जोत का, आनन्द का मुखड़ा अब कभी नहीं देख सकेगी-जीवन में अब इससे छुटकारा नहीं। साथीहीन सूने कमरे के एक कोने में जाकर, चादर लपेटकर आँखें बन्द किये वह लेट गयी। अब उसकी दोनों आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। यह आँसू आखिर क्यों, उसका यह दुःख ही आखिर क्या है-यह भी नहीं सोच सकी वह, परन्तु रुलाई भी किसी तरह नहीं रोक सकी-अबाध लहरों-सी वह उसके कलेजे को चूर-चूर करती हुई गरजती फिरने लगी। पिता की याद आयी, छुटपन की सहेलियों की याद आयी, फूफी की भी याद आयी, मृणाल की याद आयी, अभी-अभी जो लड़की राक्षसी के नाम से अपना परिचय दे गयी, उसकी याद आयी-यहाँ तक कि नौकर जद्दू भी मानो उसकी नजर में आने-जाने लगा। उनके मन में ऐसी ही पीड़ा होने लगी, मानो वह जिन्दगीभर के लिये सबसे विदाई लेकर, निरुद्देश्य यात्रा में निकली हो।

लगातार यों रोते-रोते, अगले स्टेशन तक में उसका वेदना-विकल हृदय कुछ शान्त हो आया। वह उठकर आकुल-सी देखने लगी, कि शायद कोई स्त्री मुसाफिर इस आफत की रात में उसके डिब्बे में आ जाये। भीगते-भीगते कोई-कोई उतरे, कोई-कोई सवार भी हुए; पर उसके डिब्बे के पास कोई भी नहीं फटकी।

गाड़ी छूट जाने के बाद एक लम्बी उसाँस भरकर वह अपनी जगह पर लौट आयी, और सिर से पाँव तक चादर लपेट कर पड़ रहते ही, अबकी किसी अचिन्तनीय कारण से, उसका भूखा हृदय सहसा सुख की कल्पना से भर उठा-लेकिन यह कोई नई बात न थी; जिस दिन जलवायु-परिवर्तन का प्रस्ताव हुआ था, उस दिन भी उसने ऐसा ही स्वप्न देखा था। आज भी वह उसी प्रकार अपने बीमार पति को याद करके, उनके स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करके एक अजानी जगह में आनन्द और सुख-शान्ति का जाल बुनते-बुनते विभोर हो गयी।

वह कब सो गयी थी और कितनी देर सोई, पता नहीं। एकाएक अपना नाम सुनकर चौंक कर उठ बैठी। देखा-दरवाजे के पास सुरेश खड़ा है, और खुले दरवाजे से हवा के झोंके के साथ पानी ने आकर, अन्दर प्लावन-सा कर रक्खा है।

सुरेश ने चिल्लाकर कहा-जल्द उतरो; गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी है। तुम्हारा बैग कहाँ है?

अचला की आँखें तब भी निंदाई थीं; लेकिन उसे याद आया-जबलपुर के लिये इलाहाबाद में गाड़ी बदलनी है। अपना बैग उसे दिखाती हुई वह हड़बड़ा कर उतर पड़ी। बोली-इस पानी में उन्हें कैसे उतारिएगा? यहाँ पालकी-वालकी कुछ नहीं मिलती? ऐसे तो बीमारी बढ़ जायेगी, सुरेश बाबू!

सुरेश ने क्या जवाब दिया, बारिश में समझ में नहीं आया। एक हाथ से बैग और दूसरे से अचला का हाथ कसकर पकड़े हुए वह उधर वाले प्लेटफार्म की ओर लपका। वह गाड़ी खुलने-खुलने को थी। पहले दर्जे के एक सूने डिब्बे में अचला को ढकेलते हुए बोला-तुम स्थिर होकर बैठो, मैं उसे ले आऊँ।

तो मेरी यह मोटी चादर लेते जाइए, उन्हें अच्छी तरह से ओढ़ा कर लाइए!-अचला ने अपनी चादर सुरेश के बदन पर फेंक दी। वह तेजी से चला गया।

जहाँ तक नजर जा सकी, अचला सामने देखती रही। दूर-दूर खम्भों पर स्टेशन की रोशनी जल रही थी, पर इस घोर बारिश में रोशनी इतनी नाकाफी-सी थी कि लगभग कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मुसाफिर पानी में दौड़ रहे हैं, सिर पर बोझा लिये कुली आ-जा रहे हैं, रेल कर्मचारी परेशान-से-यह सब बस धुँधली छाया-सा दीख रहा था। धीरे-धीरे वह भी न दीखने लगा, स्टेशन की घण्टी जोरों से बज उठी, और जिस गाड़ी से अचला अभी-अभी उतरकर आयी थी, खौफनाक अजगर की नाइ फोंस्-फोंस् की आवाज से आकाश-पाताल कँपाती हुई वह प्लेटफार्म से बाहर निकल गयी-अँधेरे के सिवा सामने और कोई ओट न रही।

फिर घण्टी बजी-अचला ने समझा कि यह घण्टी इस गाड़ी के छूटने की है-लेकिन वे लोग चढ़ गये कि नहीं, कहाँ चढ़ गये, सामान सब लदा या नहीं-कुछ भी न जान पाकर अचला चिन्तित हो गयी।

कम्बल ओढ़े, हाथ में नीली लालटेन लिये एक प्यादा तेजी से जा रहा था। उसे सामने से गुजरते देख अचला ने पुकारकर कहा-सारे मुसाफिर चढ़ गये या नहीं? पहले दर्जे का डिब्बा देखकर वह ठिठक गया। बोला-जी मेम साहब!

अचला कुछ निश्चिन्त-सी हुई। समय पूछा, उसने बताया-नौ बज के...

नौ बज के? अचला चौंक उठी-लेकिन इलाहाबाद पहुँचने में तो रात लगभग बीत जाती। अकुलाकर पूछा-इलाहाबाद...

लेकिन वह आदमी और खड़ा नहीं रह पा रहा था। ऊपर शेड नहीं था, फिर गाड़ी की छत से छींटे उड़कर उसके नाक-मुँह में सुई-से चुभ रहे थे। हाथ की रोशनी को तेजी से हिलाते हुए मुगलसराय-मुगलसराय!-कहता हुआ वह चला गया।

सीटी बजाकर गाड़ी खुल गयी। इतने में उसके सामने से दौड़ते हुए सुरेश कहता गया-डरो मत, मैं बगल के ही कमरे में हूँ!

(28)

सुरेश बगल के डिब्बे में चढ़ गया, ठीक है; मगर वे? तब से वह बाहर ही तो आँखें बिछाए है-जितना धुँधला चाहे हो, उनकी शक्ल क्या बिल्कुल नजर ही नहीं आती? फिर इलाहाबाद के बजाय जाने किस नये स्टेशन में आखिर गाड़ी क्यों बदली गयी? पानी के छींटे से उसके बाल, उसका ब्लाउज भीगने लगा, फिर भी खिड़की से मुँह बाहर किये कभी सामने, कभी पीछे, अँधेरे में वह क्या देख रही थी, वही जाने। लेकिन उसका मन किसी भी प्रकार से यह मानने को राजी न हुआ, कि इस गाड़ी में उसके पति नहीं हैं-वह सुरेश के साथ निरी अकेली, किसी दिशाहीन उद्देश्यहीन यात्रा में जा रही है। ऐसा नहीं हो सकता! कहीं-न-कहीं वे इसी गाड़ी में जरूर हैं!

सुरेश आदमी चाहे जैसा हो, जो भी करे; मगर एक बेकसूर स्त्री को उसके समाज, धर्म, नारी के सारे गौरव से हटाकर अनिवार्य मृत्यु में ढकेल देगा-ऐसा पागल वह नहीं है। खासकर के इससे उसे लाभ क्या है? अचला के जिस शरीर के प्रति उसे इतना मोह है, उसे एक वेश्या के शरीर में बदलने को वह जीवित नहीं रह सकती-यह सीधी-सी बात अगर उसने नहीं समझी, तो प्रेम शब्द को जबान पर लाया ही क्यों था? नहीं-नहीं ऐसा हर्गिज नहीं हो सकता! वे कहीं इंजन के आस-पास ही सवार हो गये, वह देख न पाई शायद।

अचानक एक झोंका आ-लगते ही सिमटकर वह एक कोने में चली गयी, और अपने को देखा-सारे बदन का कपड़ा कहीं भी जरा-सा सूखा नहीं रह गया था। बारिश में वह इस कदर भीग गयी थी कि आँचल से लेकर ब्लाउज की आस्तीन तक से टपाटप पानी चू रहा था। बिना जाने वह जो झेलती रही, जानकर उससे अब वह न झेला गया; कपड़े बदलने की गरज से उसने अपने बैग को अपनी ओर खींचकर खोलना चाहा कि इतने में गाड़ी की चाल धीमी पड़ गयी। जरा ही देर में गाड़ी स्टेशन पर जाकर रुकी। पानी जोरों से पड़ ही रहा था, यह जानने की कोई तरकीब न थी कि कौन-सा स्टेशन है; फिर भी बैग खुला ही पड़ा रहा, अन्दर के अदम्य आवेग से नीचे उतरकर, अँधेरे में अन्दाज से झपटकर वह सुरेश वाले डिब्बे की खिड़की के सामने जा खड़ी हुई।

जोर से आवाज दी-सुरेश बाबू!

उस डिब्बे में दो-एक बंगाली और एक अँग्रेज सज्जन थे। सुरेश एक कोने में सिमटकर आँखें बन्द किये बैठा था। अचला को आशंका थी-उसके गले से शायद आवाज न निकले; इसीलिये कोशिश से निकाली गयी चीख ने, ठीक मानो घायल जानवर के ऊँचे चीत्कार की तरह न केवल सुरेश को, बल्कि वहाँ मौजूद सबको चौंका दिया। हक्के-बक्के सुरेश ने आँख खोलकर देखा-दरवाजे पर खड़ी अचला के चेहरे पर पानी की धारा और आलोक-किरण ने एक साथ ही पड़कर रूप के एक ऐसे इन्द्रजाल की रचना की थी कि सबकी मुग्ध दृष्टि विस्मय से एकबारगी अवाक् थी! सुरेश दौड़कर उसके समीप पहुँचा, कि उसने पूछा-उन्हें नहीं देख रही हूँ-कहाँ हैं वे? कौन-से डिब्बे में चढ़ाया उन्हें?

-चलो, ले चलूँ तुम्हें-कहकर सुरेश बारिश में ही उतर पड़ा, और अचला का हाथ पकड़कर उसी तरफ खींचता ले चला, जिधर से वह आयी थी।

दोनों बंगाली एक-दूसरे को देखकर जरा मुस्कराये। अँग्रेज बेचारा कुछ न समझ सका; लेकिन एक स्त्री की करुण पुकार उसके जी को छू गयी थी-जमीन पर गिरे कम्बल को अपने पाँव पर खींचकर उसने एक लम्बी साँस ली, और चुपचाप अँधेरे में बाहर देखता रहा।

अचला के डिब्बे के पास जाकर सुरेश ठिठक गया, अन्दर देखकर घबराते हुए पूछा-तुम्हारा बैग खुला कैसे है? उसने अचला के जवाब का इन्तजार नहीं किया-जोर से खींचकर अचला को अन्दर ले जाकर दरवाजा बन्द कर दिया।

उँगली से दिखाते हुए पूछा-इसे खोला किसने?

अचला ने कहा-मैंने! मगर छोड़ो उसे; वे कहाँ हैं-मुझे दिखा दो, या सिर्फ बता दो किधर हैं, मैं खुद ढूँढ़ लूँगी। कहते-कहते उसने दरवाजे की तरह कदम बढ़ाया। सुरेश ने झट से उसका हाथ थाम लिया। कहा-इतनी घबरा क्यों रही हो, देखती नहीं, गाड़ी खुल गयी?

बाहर अँधेरे की ओर देखकर ही अचला समझ गयी कि बात ठीक ही है। गाड़ी चलने लगी थी। उसकी दोनों आँखों में निराशा मानो साकार दिखाई दी। उसने मुड़कर सिर्फ पल-भर के लिये सुरेश के पीले और श्रीहीन चेहरे को देखा, और कटे पेड़ की नाईं गिरकर, दोनों हाथों से सुरेश के पैर को जकड़ती हुई रो पड़ी-कहाँ हैं वे? उन्हें क्या आपने सोते में गाड़ी से ढकेल दिया? बीमार आदमी का खून करके तुम्हें...

ऐसी खौफनाक तोहमत का तब भी लेकिन अन्त न हो सका। एकाएक उसका हृदय-विदारक रोना-चौचीर हो फैलाकर सुरेश को एकबारगी पत्थर बनाता हुआ चारों तरफ फैला, और वैसी ही खौफनाक रात के अन्दर जाकर खो गया; और वहीं, उसी गद्दी वाली बेंच पर टिककर सुरेश असह्य आश्चर्य से काठ मारा-सा बैठा रहा। उसके पैरों के नीचे क्या हो रहा था, बड़ी देर तक मानो वह कुछ समझ ही न पाया। बड़ी देर के बाद अपना पाँव खींचकर वह बोला-मैं ऐसा काम कर सकता हूँ, तुमको यकीन आता है?

अचला उसी तरह रोते-रोते बोली-तुम सब कुछ कर सकते हो! हमारे घर में आग लगाकर तुमने उन्हें जलाकर मार डालना चाहा था। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, बताओ-कहाँ पर क्या किया है तुमने? कहकर वह फिर उसका पैर पकड़ कर उसी पर सिर कूटने लगी। लेकिन जिसके पैर थे, वह एकबारगी अचेतन-सा टुकुर-टुकुर ताकता रहा।

बाहर पगली रात वैसी ही दमकती रही, बिजली बार-बार अँधेरे को वैसे ही चीर देने लगी, बरसाती झोंके उसी तरह सारी दुनिया को तोड़ते-मरोड़ते रहे; मगर इन अभिशप्त नर-नारियों के अन्धे हृदय में जो प्रलय उमड़-घुमड़ रहा था, उसके मुकाबले यह सब तुच्छ था, कुछ भी नहीं!

एकाएक अचला तीर की गति से उठ खड़ी हुई, तब सुरेश का सपना टूट गया। उसने अनुभव किया-अगला स्टेशन करीब आ गया है, इसीलिये गाड़ी की चाल धीमी हो गयी है! उसे समझते देर न लगी कि अचला आखिर इस तरह खड़ी क्यों हो गयी! बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाल कर, दायें हाथ से उसे रोकते हुए सुरेश ने कहा-बैठो! महिम इस गाड़ी में नहीं है।

नहीं हैं? तो हैं कहाँ? कहते-कहते वह धप्प से सामने की बेंच पर बैठ गयी।

सुरेश ने गौर किया-उसके चेहरे पर से लहू की आखिरी निशानी तक गायब हो गयी। शायद अब तक के इतने रोने-धोने, इतने सिर पीटने के बावजूद उसके हृदय में, सारी विरोधी दलीलों के बाद भी एक अव्यक्त आश छिपी थी-हो सकता है ये सारी आशंकाएँ निर्मूल हों; हो सकता है, भयंकर दुःस्वप्न की असह वेदना-नींद टूटते ही, एक लम्बी साँस के साथ ही खत्म हो जाये। ऐसी एक अकथनीय धारणा ने उस समय तक भी उसके हृदय को उजाड़ नहीं दिया था। क्योंकि अभी-अभी तो संसार में उसकी कामनाओं का सर्बस मौजूद था, और एक रात भी न बीती-उसका कुछ नहीं रहा, कुछ भी नहीं? पलक-मारते जिन्दगी बदनसीबी की आखिरी हद को पार कर गयी। परिणामहीन इतनी बड़ी विपत्ति में शायद अपने जीवित रहने पर ही उसे विश्वास नहीं हो रहा था। दोनों बुत-से बैठे रहे। गाड़ी एक अजाने स्टेशन पर आकर लगी, और खुल गयी।

सुरेश ने एक बार क्या तो कहना चाहा, फिर चुप ही रहा; फिर उठ खड़ा हुआ। खिड़की का काँच उठाकर एक-दो बार उसने चहल-कदमी की और फिर अचला के सामने जाकर खड़ा हुआ। बोला-महिम सकुशल है। अब वह इलाहाबाद पहुँचा होगा। जरा रुककर फिर बोला-वहाँ से वह जबलपुर भी जा सकता है। कलकत्ता भी वापस हो सकता है।

अचला ने सिर उठाकर पूछा-और हम कहाँ जा रहे हैं?

उस आँसू-मलिन मुँह पर दुःख और निराशा की चरम प्रतिमूर्ति फिर एक बार सुरेश को दिखाई दे गयी। उससे कितनी बड़ी भूल हो गयी-यह उसे मालूम न था। और इसके लिये आज वह अपनी हत्या भी कर सकता था। लेकिन जिसकी छलना ने उसकी सत्य-दृष्टि को इस तरह से ठगकर इस भूल में ही बार-बार उँगली का इशारा किया है, उस छलनामयी के लिये भी उसका हृदय विषाक्त हो उठा। इसीलिये अचला के प्रश्न का उसने बड़ी रुखाई से जवाब दिया-हम शायद सदेह नरक में ही जा रहे हैं! जिस पतन के रास्ते पर राह दिखाते हुए इतनी दूर खींच लाई हो, उसके बीच में ही, चाहने से रुकने की जगह तो मिल नहीं सकती! अब तो अन्त तक चलना ही पड़ेगा!!

जवाब सुनकर अचला एड़ी से चोटी तक एक बार काँप उठी, उसके बाद सिर झुकाकर वह चुप ही रही। जो झूठा-मक्कार पराई स्त्री को गलत रास्ते ले जाकर भी बेझिझक ऐसी बात जबान पर ला सकता है, उससे कोई क्या कहे!

सुरेश फिर पायचारी करने लगा। उस पाषाण-प्रतिमा के सामने बोलने की शक्ति शायद उसे नहीं थी। कहने लगा-तुम तो कुछ ऐसा जता रही हो, जैसे सर्वनाश अकेले तुम्हारा ही हुआ! लेकिन सर्वनाश का जो मतलब है, वह मेरे हक में किस हद से गुजरा, पता है? मैं तुम लोगों की तरह ब्रह्मज्ञानी नहीं हूँ। मैं नास्तिक हूँ! मैं पाप-पुण्य का स्वाँग नहीं किया करता, वास्तविक सर्वनाश की ही सोचता हूँ!! तुम्हारे पास रूप है, आँसू हैं; एक औरत के जो हथियार हैं, तुम्हारे तरकस में सभी हैं-तुम्हें किसी भी रास्ते में रुकावट नहीं आयेगी। लेकिन मेरा अंजाम सोच सकती हो? मैं मर्द हूँ, लिहाजा जेल से बचने के लिये मुझे अपने हाथों यहाँ गोली खानी पड़ेगी! कहकर सुरेश ने खड़े होकर छाती के बीच में हाथ रखकर दिखाया।

जाने क्या कहने को मुँह उठाकर भी अचला ने मुँह फेर लिया। लेकिन उसकी आँखों से घृणा छलकी पड़ती थी। यह देख सुरेश आग-बबूला हो बोल उठा-मोर का पखना लगाकर कौआ कभी मोर नहीं होता, अचला! इस निगाह को मैं पहचानता हूँ। मगर वह तुम्हें नहीं सोहती। जिसे सोह सकती है वह मृणाल है, तुम नहीं! तुम असूर्यपश्या हिन्दू-नारी नहीं, इतने से तुम्हारी जात नहीं जायेगी। उतर कर तुम जी चाहे जहाँ चली जाओ। मैं चिट्ठी लिखे देता हूँ, महिम को दिखाना वह तुम्हें अपना लेगा! खाने के लोभ में जंगली जानवर जैसे फन्दे में घिरकर, गुस्से में जो जी में आता है, उसी को करता रहता है-ठीक वैसे ही सुरेश अचला की चित्थी-चित्थी उड़ा देना चाहने लगा। बीच ही में सहसा थमकर बोला-आखिर यह ऐसा कौन-सा अपराध है? तुमने तो पति के घर में ही, उनके मुँह पर कहा था-तुम किसी और को प्यार करती हो-याद हैं? जिस आदमी ने घर फूँक कर तुम्हारे पति को जला डालना चाहा था-ऐसा तुम्हारा विश्वास है, उसी के साथ चल देना चाहा था-चली भी आयी थीं-याद आता है? उसी के घर, उसी के आश्रय में रहकर, छिप कर रोते हुए उसे साथ आने का आग्रह किया था-ख्याल आता है? यह क्या उससे भी बड़ा गुनाह है? रोज-रोज की और भी जाने कितनी हरकतें! जभी मुझे यह हिम्मत पड़ी। असल में तुम एक गणिका हो, इसलिये तुम्हें भगा लाया। इससे ज्यादा की तुमसे उम्मीद नहीं की। मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ, तुम सती-सावित्री नहीं हो! वह तेज, वह गरूर तुम्हें शोभा नहीं देता, नहीं फबता-यह निहायत अनधिकार चर्चा है तुम्हारे लिये!! कहकर सुरेश रुँधी साँस की वजह से ज्योंही थमा, अचला सिर उठाकर टूटे स्वर में चीख उठी-रुकें नहीं आप, रुकें नहीं सुरेश बाबू, और कहिए! दोनों पैरों से मुझे रौंदकर, संसार में जितनी भी कड़वी बात है, घिनौना व्यंग्य है, जितना भी अपमान है-सब कीजिए-वह जमीन पर औंधी पड़ गयी और रुँधी रुलाई की फटी आवाज में बोली-यही चाहती हूँ मैं, इसी की मुझे जरूरत है! हमारा यही वास्तविक सम्बन्ध है। संसार से, ईश्वर से, आपसे केवल यही मेरी भावना है!!

सुरेश गाड़ी की दीवार से टिककर काठ-सा खड़ा रहा। अचला के खुले-बिखरे बाल जमीन पर लोटने लगे, उसके भीगे कपड़े धूल में सनकर लथपथ हो गये। लेकिन सुरेश उधर कदम नहीं बढ़ा सका। नया शिकारी पहले निशाने में गिरी हुई चिड़िया की मृत्यु-यंत्रणा को जैसे अवाक् होकर देखता है, वैसे ही दो मुग्ध-अपलक आँखों की निगाह से वह मानो किसी मरणासन्न स्त्री की अन्तिम घड़ी की गवाही के लिये खड़ा हो।

गाड़ी की गति फिर धीमी हुई, और धीमी होते-होते स्टेशन पर आकर रुकी। सुरेश ने सीधा खड़े होकर सहज-शान्त स्वर में कहा-तुम्हें इस हालत में देखकर लोग चकित रह जायेंगे। तुम उठकर बैठो, मैं अपने डिब्बे में जाता हूँ! सुबह होने पर तुम जहाँ उतरना चाहोगी, जहाँ जाना चाहोगी-मैं तुम्हें भेजवा दूँगा। इस बीच में कुछ खौफनाक, कुछ कर बैठने की कोशिश मत करना। उसका कोई नतीजा न होगा! सुरेश दरवाजा खोलकर नीचे उतर गया। सावधानी से दरवाजे को बन्द करके, जाने क्या सोचकर जरा देर चुपचाप खड़ा रहा। उसके बाद मुँह बढ़ाकर बोला-मेरी बात तुम समझोगी नहीं। लेकिन इतना सुन लो-इस मसले का हल मेरे जिम्मे रहा! तुम्हारी कोई बुराई मैं न होने दूँगा। यह कर्ज मैं पाई-पाई चुकाकर जाऊँगा-कहकर वह धीरे-धीरे अपने डिब्बे की ओर चला गया।

गाड़ी की खिंची और लगातार आवाज के बन्द होने के साथ-साथ हर बार ही सुरेश का स्वप्न टूट जाता था, लेकिन पलकों का भार ठेलकर देखने की शक्ति मानो उसमें न रह गयी थी। भीगे कपड़ों में बेहद सर्दी लग रही थी। वास्तव में वह बीमार पड़ सकती है, और मौजूदा हालत में यह बात कितनी खतरनाक है-अन्दर-ही-अन्दर इस महसूस भी कर रही थी; लेकिन बैग को खोलकर कपड़े बदलने की कोशिश, एक असम्भव इच्छा-सी ही उसके मन में बेबस पड़ी थी। ठीक ऐसे ही समय एक सुपरिचित कण्ठ का स्वर उसके कानों पड़ा-कुली! कुली! अधजगी-सी आँखें खोलकर उसने देखा-गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी है, और जाने कब अँधेरा मिटकर, बारिश थमे धुमैले मेघों से छनकर, एक तरह की मटमैली रोशनी में सब झलक उठा है। उसने देखा-बहुत-से लोग उतर रहे हैं, बहुतेरे चढ़ रहे हैं, और उन्हीं में खड़ी शोक-मग्न एक नारी-मूर्ति किसी के इन्तजार में खड़ी है! यह अचला थी। चमड़े का एक बहुत बड़ा बैग माथे पर लिये एक कुली से उतरते ही उसने कुछ पूछा, और धीरे-धीरे गेट की तरफ बढ़ी।

अब तक सुरेश बेबस-सा सिर्फ देख ही रहा था। शायद उसका यह आँखों का देखना, अन्दर दाखिल होने की राह नहीं पा रहा था; पर जैसे ही गाड़ी खुलने की सीटी प्लेटफार्म के किसी छोर से गूँज उठी, कि जैसे बिजली छू गयी हो, उसके भीतर-बाहर की जड़ता जाती रही। तुरन्त उसने अपना बैग खींच लिया और उतर पड़ा।

टिकट की बात अचला को याद ही नहीं थी। गेट पर टिकट-बाबू के सामने जाते ही अचला ठिठक गयी, कि इतने में पीछे से सुरेश ने स्निग्ध स्वर में कहा-रुको मत, बढ़ो! मैं टिकट दे रहा हूँ।

अचला को उसके आने की खबर न थी। पल-भर के लिये भय और झिझक से उसके पाँव नहीं उठे; मगर यह हिचक औरों के देख सकने के पहले ही वह धीरे-धीरे बाहर हो गयी।

बाहर जाकर दोनों की बातें हुईं-

सुरेश ने कहा-मैंने सोचा था, तुम सीधे कलकत्ते ही लौट जाना चाहोगी; लेकिन यक-बयक डिहरी में क्यों उतर पड़ीं? यहाँ जाना-पहचाना कोई है क्या?

अचला दूसरी तरफ नजर किये थी। उसी तरफ नजर किये बोली-कलकत्ते में किसके पास जाऊँगी?

-लेकिन यहाँ?

अचला चुप रही। सुरेश खुद भी कुछ देर तक चुप रहकर बोला-शायद मेरी किसी बात का अब तुम एतबार न कर सकोगी, उसके लिये मुझे कोई शिकायत भी नहीं, अन्तिम समय में मैं केवल भीख चाहता हूँ!

अचला वैसी ही चुप खड़ी रही।

सुरेश ने कहा-मेरी बात किसी को समझाने की भी नहीं, और मैं समझाना भी नहीं चाहता! मेरी चीज मेरे ही साथ जाये! जहाँ जाने से यहाँ की आग जला नहीं सकेगी, मैं आज उसी देश की राह ले रहा हूँ; पर मेरा आखिरी सहारा मुझे दो-मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ!

तो भी अचला के मुँह से एक भी शब्द न निकला; सुरेश कहने लगा-मैंने तुम्हें बहुत कड़वी बातें कही हैं, बहुत दुःख दिया है; लेकिन बाद में अच्छे रहने के घमण्ड में, ऊपर बैठकर तुम्हारे माथे कलंक की कालिमा पोतूँ-यह मैं मरकर भी बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा! मेरे लिये तुम्हें तकलीफ न उठानी पड़े, विदा होने के पहले मुझे इस सुयोग की भीख देती जाओ, अचला!

उसकी आवाज में क्या था, अन्तर्यामी ही जानें। गरम आँसू में अचानक अचला की दोनों आँखें डूब गयीं। फिर भी जी-जान से अपने कण्ठ को सम्हाल कर उसने धीरे-धीरे पूछा-मुझे क्या करना होगा, कहिए?

सुरेश ने जेब से टाइम-टेबल निकालकर, गाड़ी का समय देखकर कहा-तुम्हें कुछ नहीं करना होगा! साँझ से पहले अब किसी भी तरफ जाने की कोई गुंजाइश नहीं, इसलिये इतनी देर के लिये मुझ पर अविश्वास न करो-बस इतना ही चाहता हूँ! मुझसे अब तुम्हारा कोई अमंगल न होगा, तुम्हारा ही नाम लेकर मैं कसम खाता हूँ!!

लोगों की कौतूहल-भरी दृष्टि से बचने के लिये, स्टेशन के छोटे-से वेटिंग-रूम में जाकर रुकने की इच्छा उन दोनों में से किसी की न हुई। पूछताछ करने पर पता चला-बड़ी सड़क पर सम्राट शेरशाह के नाम पर कायम सराय की बुनियाद आज भी बिल्कुल मिट नहीं गयी है। शहर के छोर पर की उसी सराय में जाने के लिये उन्होंने किराये की एक बैलगाड़ी तय की।

रास्ते में से किसी ने किसी से बात नहीं की, किसी ने किसी का मुँह नहीं देखा। सिर्फ उस समय, जब बैलगाड़ी सराय में जाकर रुकी-तो एक झलक सुरेश की शक्ल देखकर अचला न केवल हैरान हुई, बल्कि बेचैन-सी हुई। उसकी दोनों आँखें बेहिसाब लाल थीं, और चेहरे पर मानो किसी ने स्याही पोत दी हो! संसार के बड़े-से-बडे़ अन्धड़-तूफान में उसे देखा था उसने किन्तु उसकी यह शक्ल कभी देखी हो-ऐसा याद नहीं आया।

गाड़ीवान को किराया चुकाकर सुरेश ने मनीबैग को वहीं रख दिया। कहा-तब तक यह तुम्हारे ही पास रहा, जरूरत हो तो लेने में संकोच मत करना!

अचला के जी में आया, पूछे कि इसका मतलब क्या? मगर न पूछ सकी। सुरेश ने कहा-यह सामने वाला ही कमरा कुछ अच्छा है, शायद; तुम जरा सुस्ताओ, बगल के कमरे में इन कपड़ों को जरा बदल डालूँ। पता नहीं, इन्हीं सबके चलते ऐसा भद्दा लग रहा है-कहकर अचला की सुविधा-असुविधा का कोई ख्याल न करते हुए ही वह अपना बैग उठाकर, नशेबाज जैसा डगमगाता हुआ, बरामदे को पार करके कोने वाले कमरे में चला गया।

उसके चले जाने के बाद अचला अकेली-रास्ते पर खड़ी न रह सकी। सो अपने वजनी बक्से को किसी तरह ठेल-ठूलकर कमरे में ले आयी, और उसी पर ठक्-से बैठी, राह से आने-जाने वालों को देखने लगी।

(29)

उसी कमरे के सामने बक्स पर बैठे-बैठे-आशा और भरोसा का स्वप्न देखते हुए कैसे अचला के दो घण्टे निकल गये, वह सोच न सकी। थोड़ी ही देर हुई कि सूर्योदय हुआ। सर्दियों के धूल-भरे पेड़-पौधों, कल की बारिश से धुल-निखर कर सुबह के सूरज की किरणों से झलमला रहे थे। भीगे कोमल पथ पर थकावट-मिटे राही हँसते हुए चलने लगे थे, इक्के-दुक्के इक्के भी छोटी घण्टियों की आवाज गुँजाते दौड़ रहे थे। बीच-बीच में चरवाहे बालक गाय-भैंस के झुण्ड लिये-उनसे अजीबो-गरीब रिश्ता कायम करते हुए जाने किस गाँव की ओर चल पड़े थे। पास ही के किसी एक झोंपड़े से किसी गृहस्थ वधू के गाने के साथ जँतसार की अथक-अजानी लय तिरती आ रही थी। कुल मिलाकर नये दिन का यह कर्म-स्रोत उसकी चेतना में गतिशील हो रहा था; उसी के अनोखे प्रवाह में उसका दुःख, उसका दुर्भाग्य, उसकी चिन्ता कुछ देर के लिये कहीं बह गयी थी मानो। उसे याद ही न थी कि वह ठीक किसलिये-क्यों यहाँ बैठी है। अचानक दो गँवई बालकों की हैरान-सी निगाहें याद आईं! वे अँगना के एक ओर से, आँखें फाड़-फाड़कर ताक रहे थे। इस टूटी-फूटी पुरानी सराय के बीते दिनों का गौरव-इतिहास उन बच्चों को मालूम न था। लेकिन उनके होश सम्हालने के वक्त से ऐसे यात्री इसमें कभी नहीं आये, उसकी मौन आँखों की निगाह ने अचला को यह साफ बता दिया। जगने के बाद वे रोज की तरह खेलने आये, कि यह ताज्जुब उन्हें दिखाई पड़ गया।

अचला ने चौंककर खड़ी हो उनसे कुछ पूछना चाहा था, लेकिन वे लड़के तुरन्त चम्पत हो गये। उसी क्षण उसे याद आया-कोई दो घण्टे पहले, कपड़े बदलने की कहकर सुरेश जो गया है, सो गया ही है! आखिर इतनी देर से अकेला वह कर क्या रहा है-यह जानने के लिये वह धीरे-धीरे उस कमरे के सामने पहुँची, और बन्द किवाड़ के अन्दर से कोई आहट न पाकर दो-एक मिनट चुप खड़ी रही; फिर धीरे-धीरे किवाड़ के पल्ले हटाकर सामने ही जो कुछ देखा, उससे एक साथ ही मुक्ति की तीखी घबराहट और भय से, जरा देर के लिये उसका सारा शरीर मानो पत्थर हो गया। कमरे में अँधेरा था, सिर्फ उधर के एक टूटे झरोखे से छनकर थोड़ी-सी रोशनी फर्श पर पड़ रही थी। वहाँ अँधेरे-उजाले में, निहायत गन्दी जमीन पर सुरेश चित् पड़ा हुआ था। उसके बदन पर कपड़े वे ही थे, बैग केवल खुला-पड़ा था, और उसमें की कुछ चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं।

पलक मारने की देर में अचला को उसकी आखिरी बातों की याद आ गयी-सुरेश डॉक्टर है, वह मनुष्य की जिन्दगी को बचाना ही नहीं जानता, उसकी जान को चुपचाप निकाल-बाहर करने का भी हुनर उसे आता है। इस भयंकर भूल के लिये सुरेश की उत्कट आत्मग्लानि की याद आयी; याद आयी उसकी विदा-याचना, उसका भरोसा देना-सबसे ज्यादा बारम्बार प्रायश्चित करने का कठोर इशारा-एक साथ एक ही साँस में, सबने मानो उस लोटती हुई देह के एक ही परिणाम की बात उसके कानों कही। वह द्वार थामकर वहीं बैठ गयी, यह हिम्मत न पड़ी कि अन्दर जाये।

लेकिन अब उस लोटते हुए शरीर को देखकर, उसकी आँखें मानो फटकर आँसू बहाने लगीं। जो उसी के लिये कलंक का इतना बड़ा बोझा माथे पर रखकर, हताश के मारे सदा के लिये इस दुनिया को छोड़ चला-उसका गुनाह कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसे क्षमा नहीं कर सके-ऐसा वज्र-हृदय संसार में शायद हो-और आज पहली बार अपने सामने उसका अपना अपराध भी स्पष्ट हो उठा।

सुरेश से पहचान होने के उस पहले दिन से आज तक, जितनी इच्छा-आकांक्षा, जितनी भूल-चूक, जितना मोह, जितना छल, जितना आग्रह-आवेग दोनों के बीच से गुजरा-एक-एक कर सब फिर से दिखाई देने लगा। उसका अपना आचरण, पिता का आचरण-अचानक उसका सारा बदन सिहर उठा! लगा-अपना ही नहीं, बहुतों के बहुत-बहुत पातकों का भारी बोझ उठाकर सुरेश जिस विचारक के चरणों में जा-पहुँचा है, वहाँ वह मुँह बन्द किये चुपचाप सभी सजा कबूल कर लेगा; या एक-एक करके सारा दुःख, सारा अभियोग बताकर उनसे क्षमा की भीख माँगेगा।

जीवन के उपभोग के बहुत से सामान, बहुत से उपकरण उसके पास थे, तो भी जो वह चुपचाप, बिना किसी आडम्बर के सब-कुछ छोड़कर चला गया-इसकी गहरी पीड़ा अचला को आज रह-रहकर बेधने लगी। उसने क्या सचमुच ही प्रेम किया था-इस बात को उस मौत के सामने खड़े होकर पूछने, अविश्वास करने की गुंजाइश न रही।

फिर उसके गालों पर से आँसू की धारा बहने लगी। पिछली रात गाड़ी पर दोनों में धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय पर काफी तर्क हो गया था। लेकिन वह सब कितनी थोथी बकवास है-अचला पहले यह क्या जानती थी? प्यार की जात नहीं होती, धर्म नहीं होता; जो इस तरह से मर सकता है, वह समाज के गढ़े हुए कायदे-कानूनों से बहुत ऊपर है-ऐसे विधि-निषेध उसे छू नहीं सकते-इस मृत्यु के सामने खड़ी होकर इस बात पर आज वह इंकार कैसे कर सकती है?

अचला आँचल से आँसू पोंछ रही थी। अचानक उसका कलेजा छन्-से हो रहा-लगा, लाश मानो हिल उठी और दूसरे ही दम एक अस्फुट-कातर स्वर के साथ सुरेश ने करवट बदली। वह मरा नहीं है-जिन्दा है! आवेग के एक प्रचण्ड वेग से अचला उसके पास गयी, और टूटे स्वर में पुकारा-सुरेश बाबू!

पुकार सुनकर सुरेश ने अपनी लाल-लाल आँखें खोलकर देखा, मगर कुछ बोला नहीं।

अचला भी कुछ बोल नहीं सकी, केवल एक अदम्य उसाँस उसके गले को बन्द करती हुई, आँसू के रूप में दोनों गालों पर से झरने लगी। लेकिन पलभर पहले के आँसू से कितना फर्क था इसका!

फिर भी सबसे ज्यादा जो चिन्ता भीतर-भीतर उसे दुखा रही थी, वह था इसका वास्वविक पहलू। इस अनजान-अपरिचित जगह में सुरेश के शव को लेकर वह क्या उपाय करेगी, किसे बुलाएगी, किसे कहेगी-हो सकता है बहुत अप्रिय आलोचना हो, बहुत-बहुत घिनौनी बातें उठें-उनका वह किसे-क्या जवाब देगी; शायद हो कि पुलिस वाले खोद-खोदकर सब भेद निकालें, ऐसी बेहयाई की शर्मिन्दगी से उसका सारा देह-मन भीतर-भीतर कैसा पीड़ित, कैसा दुःखी हो रहा था-उसका वह खुद भी पूर्णतया विचार नहीं कर सकती थी। इस बेअन्दाज मुसीबत के चंगुल से अचानक छुटकारा पाकर, अब उसके आँसू रोके नहीं रुकने लगे। और वह मरा नहीं है, सिर्फ इसी बात पर अचला का हृदय उसके प्रति कृतज्ञता से भरपूर हो उठा।

कुछ क्षण इसी तरह बीत जाने पर, सुरेश ने धीरे-धीरे पूछा-क्यों रो रही हो अचला?

अचला ने भर्राई आवाज में कहा-तुम इस तरह से सोये क्यों रहे? गये क्यों नहीं? मुझे इतना डराया क्यों?

उसकी आवाज में जो स्नेह उमड़ा-वह ऐसा करुण, इतना मधुर था कि न केवल सुरेश के, बल्कि अचला के भी मन में एक प्रकार के मोह का संचार हुआ। वह बोली-तुम्हें इतनी ही नींद लगी थी, तो मुझसे कहा क्यों नहीं? मैं उधर वाले कमरे को झाड़-पोंछकर तुम्हारे लिये कुछ बिछा देती! गाड़ी आने में तो काफी देर थी!!

सुरेश ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ विगलित स्नेह से उसकी तरफ ताकते हुए, उसका दायाँ हाथ उठाकर अपने तपे कपोल पर रक्खा, और एक लम्बा निःश्वास फेंका।

अचला ने चौंककर कहा-यह तो तप रहा है! बुखार हो गया क्या?

सुरेश ने कहा-हूँ, और यह बुखार सहज ही जाने वाला भी नहीं! शायद...

अचला ने धीरे-धीरे हाथ खींच लिया। जवाब में उसके मुँह से भी इस बार सिर्फ दीर्घ निःश्वास ही निकला। उसकी सारी स्नेह-ममता एक क्षण में जमकर पत्थर हो गयी। सहने की, धीरज धरने की उसे जितनी भी शक्ति थी, सबको इकट्ठा करके गाड़ी के वक्त तक स्थिर रहने की मन में ठान रक्खी थी; लेकिन इस अकल्पनीय विपत्ति के आ पड़ने से जब उसकी आशा की पतली किरण भी पल में छिप गयी, तो मौत की कामना के सिवा दुनिया में माँगने की उसे कोई दूसरी चीज न रही।

वह इस हालत में उसे यहाँ अकेला छोड़ जाने की कल्पना भी न कर सकी; मगर जिसकी सेवा का सारा उत्तरदायित्व, सारा भार उसके माथे पर पड़ा, उसे लेकर इस परदेश में वह करेगी क्या; किससे कहाँ जाकर मदद माँगेगी, क्या परिचय देकर लोगों की सहानुभूति की अधिकारिणी होगी-बिजली की तरह एक साथ इन चिन्ताओं के दिमाग में दौड़ते ही, वह सोचकर कोई किनारा न पा सकी कि वह भाग जाये, कि फुक्का फाड़ कर रो पड़े-या जोर से सिर पीट-पीटकर, अपने ही हाथों अपने जीवन का लगे हाथ अन्त कर दे!

(30)

उस दिन स्टेशन से भीगते हुए जो लौटे, सो गाँठ के दर्द और सर्दी-बुखार से केदार बाबू सात-आठ दिन बीमार रहे। बेटी-दामाद का कोई कुशल-पत्र नहीं मिला, इसलिये बेहद फिक्रमन्द होने के बावजूद अपने मित्र को जबलपुर एक चिट्ठी डालने के सिवा और कोई जतन नहीं कर सके। आज उसका जवाब आया। खत में यही लिखा था कि वहाँ कोई नहीं पहुँचे, न ही उन्हें किसी को कोई खबर है। ये चन्द पक्तियाँ पढ़कर, उड़े हुए चेहरे से, सूनी आँखों केदार बाबू उनकी ओर देखते और बार-बार चश्मे के काँच को पोंछते रहे। आखिर उन लोगों का हुआ क्या, कहाँ गये वे-किसे लिखें, किससे पूछें? कुछ भी न सोच सके। उनकी आफत-मुसीबत में जो आदमी तन-मन से उसके काम आता था, वह सुरेश भी नहीं, वह भी उन्हीं के साथ है।

ठीक इसी समय बैरा ने और एक चिट्ठी लाकर उनके सामने रख दी। केदार बाबू ने किसी कदर नाक पर चश्मा रखकर, जल्दी से चिट्ठी को उठाकर देखा, वह अचला के नाम थी। यह चिट्ठी कहाँ से आयी, किसने लिखी-यह जानने की अकुलाहट में, दूसरे का पत्र खोलना चाहिए कि नहीं-यह सवाल भी उनके मन में न उठा। उन्होंने झटपट लिफाफे को फाड़ डाला। देखा-लिखने वाली मृणाल थी। उसके बाद शुरू से आखिर तक पत्र को पढ़ गये, और सूनी निगाहों से बाहर की ओर देखते हुए चश्मा पोंछने के काम में जुट गये। उनके जी में क्या होने लगा, ईश्वर ही जानें! बड़ी देर के बाद चश्मा पोंछना बन्द करके, उसे नाक पर रखकर फिर से एक बार चिट्ठी को पढ़ने लगे। मृणाल ने स्त्री की सहिष्णुता, धीरज, क्षमा आदि के तीखे उपदेश देकर अन्त में लिखा था-

यह जरूर है कि सँझले दादा तुम्हारें बारे में कुछ नहीं कहते, पूछने पर भी बड़े गम्भीर हो उठते हैं; मगर मैं तो औरत हूँ, समझ सकती हूँ! अच्छा तो यह कहो सँझली दीदी, झगड़ा-झंझट किसके नहीं होती बहन? लेकिन इसी के लिये ऐसा रूठना? शरीर और मन को ऐसी हालत में न समझकर तुम्हारे पति नाराज भी हो सकते हैं, घबराकर, ऊबकर चले भी जा सकते हैं; मगर तुम तो अभी पागल नहीं हो गयी हो कि उन्होंने कहा और तुमने हाँ कर दी-जाओ वापस! जभी मैं सोचा करती हूँ सँझली दी, कि कैसे साहस करके तुमने अपने मरणासन्न पति को इस जंगल में भेज दिया-और निश्चिन्त होकर सात-आठ दिन-सात-आठ दिन क्यों कहें, सात-आठ साल से बाप के घर में मजे में पड़ी हो! यकीन मानो, उस दिन जब वे सरो-सामान के साथ घर आये, मैं उन्हें पहचान नहीं सकी! किस बात में तुम लोगों की लड़ाई हो गयी, कब हो गयी, क्यों इन्होंने जबलपुर जाना मुल्तवी करके यहाँ आने का तै किया-मैं कुछ भी नहीं जानती और जानना भी नहीं चाहती। जानती तो हो, सास को छोड़कर मुझे कहीं जाने का उपाय नहीं! मेरे सिर की कसम, पत्र पाते ही तुम चली आना! जा पाती तो मैं जाकर तुम्हारे पैर खींचकर फिर भी ले आती-अगर सँझले दादा इतता ज्यादा बीमार न हो गये होते। तुम एक बार आओ, आकर आँखों से देखो, तब समझोगी कि नाहक मान करके तुमने कितना बड़ा अन्याय किया है! यह घर भी तुम्हारा है, मैं भी तुम्हारी हूँ-इसलिये यहाँ आने में हिचक न करना। तुम्हारी राह देखती रही, चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम! एक बात और, मेरे पत्र की बात सँझले दादा न जानें, मैंने छिपाकर लिखा है।

इति-मृणाल!

पत्र समाप्त करके पुनश्च मृणाल ने छोटी-सी कैफियत दी थी-मैं जानती हूँ कि पति की गैरहाजिरी में तुम घड़ी-भर को भी सुरेश बाबू के यहाँ नहीं रह सकतीं, इसलिये मैके के पते पर ही पत्र दे रही हूँ। आशा है, मिलने में देर न होगी!

केदार बाबू के हाथ से चिट्ठी छूटकर गिर गयी। वे फिर से आसमान की तरफ नजर किये अपना चश्मा पोंछने के काम में लग गये। इतना समझ में आ गया कि महिम जबलपुर के बजाय अपने घर पर है, और अचला वहाँ नहीं है। वह कहाँ है, उसका क्या हुआ-यह सब या तो महिम जानता नहीं, या जानकर भी बताना नहीं चाहता।

अचानक ख्याल आया, सुरेश आखिर कहाँ है? वह तो उन्हीं का मेहमान रहने के ख्याल से साथ हो गया था। बेशक वह अपने घर नहीं लौटा, नहीं तो एक बार जरूर मिल जाता!! उसके बाद जो आशंका उनके मन में शूल-सी चुभी, उसकी चोट से वे सीधे नहीं रह सके, आराम-कुर्सी पर लेट गये, आँखें मूँद लीं।

दोपहर को नौकरानी सुरेश के घर जाकर पूछ आयी-फूफी को कुछ भी मालूम नहीं। कोई पत्र नहीं आया है, इससे वे भी चिन्तित हैं!

रात को सोने वाले कमरे में, केदार बाबू फिर मृणाल के पत्र को लेकर रोशनी में बैठे। उसके हरूफ-हरूफ को गौर से देखकर खोजने लगे, कहीं अगर टिकने की जगह मिले। न भी हो तो कहाँ जाकर, किस तरह मुँह छिपायेंगे-नहीं जानते। पुश्तों से कलकत्ते रहे, कलकत्ते के बाहर भी कोई भला आदमी जिन्दा रह सकता है, यह वह सोच भी नहीं सकते। इस जन्म के चीन्हे-जाने स्थान, समाज, सदा के बन्धु-बान्धव से बिछुड़ कर कहीं अज्ञातवास में जीवन के बाकी-दिन बिताने ही पड़े-तो वे दुस्सह दिन कैसे कटेंगे, यह उनकी कल्पना से परे था; और बेटी होकर जिस हतभागन ने बीमार बाप के कमजोर कन्धों पर यह बोझा लाद दिया-उसे वे क्या कहकर अभिशाप दें, यह भी उनकी कल्पना के बाहर था।

रातभर में वे एक बार भी झपकी न ले सके। सुबह होते-होते उनकी बदहजमी वाली बीमारी फिर दिखाई दी। लेकिन आज चूँकि उनकी ओर देखने वाला भी कोई न दिखाई दिया, तो बेबस-से बिस्तर पर पड़े रहने में भी उन्हें घृणा महसूस हुई। इतनी बड़ी पीड़ा को भी शान्त भाव से छिपाए, और दिन की तरह वे बाहर निकले और स्टेशन के लिये गाड़ी लाने के लिये बैरा को कहकर, आप जल्दी-जल्दी कपड़ा-लत्ता सहेजने लगे।

(31)

जाड़े का सूरज तीसरे पहर ढलने को था, और उसकी कुछ-कुछ गर्म किरणों से सोन नदी का दूर तक फैला हुआ चौर धू-धू कर रहा था। ऐसे समय एक बंगाली के मकान में, बरामदे की रेलिंग पकड़ कर उधर को देखती हुई अचला चुप खड़ी थी। उनकी अपनी जिन्दगी से उस मरुखण्ड का कोई सम्बन्ध था या नहीं, यह और बात है; लेकिन उन दो अपलक आँखों की निगाह को एक नजर देखते ही यह समझ में आ सकता था-कि उस तरह से देखने पर देखा कुछ नहीं जा सकता, सिर्फ सारा संसार एक अजीब और बहुत बड़े जादू के करिश्मे-सा लगता।

-दीदी?

चौंककर अचला ने पीछे देखा। जो लड़की एक दिन अपने को राक्षसी बताकर आरा-स्टेशन में उतर गयी थी, यह वही थी। समीप आकर अचला के उद्भ्रान्त और बहुत ही श्रीहीन मुखड़े की ओर एक नजर रखकर, मान करती हुई-सी बोली-अच्छा दीदी, हर कोई तो यह देख रहे हैं कि सुरेश बाबू चंगे हो गये हैं; डॉक्टर कह रहे हैं कि अब जरा भी डर नहीं, फिर भी रात-दिन तुम्हारी यह मायूसी नहीं जाती-यह क्या तुम्हारी ज्यादती नहीं? पति हमारे भी हैं, उन्हें कुछ होता-हवाता है तो हम भी फिक्र के मारे मर-सी जाती हैं; मगर कसम ले लो, तुमसे उसकी तुलना ही नहीं हो सकती! मुँह फेरकर अचला ने साँस ली, कोई जवाब नहीं दिया।

वह रूठकर बोली-इष्? एक उसाँस ले ली, बस!! कहकर भी देर तक जब अचला का कोई जवाब नहीं मिला, तो उसका एक हाथ अपनी मुट्ठी में लेकर बड़े ही करुण ढंग से पूछा-अच्छा, सुरमा दीदी, सच बताना, हमारे घर तुम्हारा घड़ीभर भी मन नहीं टिक रहा है, है न? खूब तकलीफ हो रही है, असुविधा है न?

अचला जैसे नदी की ओर देख रही थी-देखती रही, लेकिन अबकी जवाब दिया; कहा-तुम्हारे ससुर ने मेरी जो भलाई की है, वह क्या मैं जन्म-भर भूलूँगी बहन? वह हँसी। बोली-मैं जैसे भूलने के लिये ही तुम्हारे पीछे पड़ी हूँ! और दूसरे ही क्षण मीठे उलाहने के तौर पर बोलीं-शायद इसीलिये उस समय बाबूजी के उतना पुकारने पर भी जवाब नहीं दिया? तुमने सोचा-बुड्ढा जब-तब...

अचला ने बड़े अचरज से पलट कर कहा-नहीं, हर्गिज नहीं-!

राक्षसी ने जवाब दिया-हूँ, हर्गिज नहीं! वह भी मैं अगर खुद गवाह न होती! मैं ठाकुर-घर में थी। मैंने सुना सुरमा, सुरमा, अरी ओ बिटिया सुरमा! चार-पाँच बार उन्होंने पुकारा तुम्हें। मैं पूजा की तैयारी कर रही थी, छोड़कर लपकी। मैंने देखा, वे सीढ़ी से नीचे उतर रहे हैं। कसम, सच कह रही हूँ!

इसे केवल अचला ने ही समझा, कि बूढ़े की पुकार को उसके अनमने मन का दरवाजा ढूँढ़े क्यों न मिला? फिर भी लाज-भरे पछतावे से वह चंचल हो उठी। बोली-शायद कमरे में...

राक्षसी ने कहा-कहाँ का कमरा! जिनके लिये कमरा है, वे तो उस समय बाहर टहलने गये थे! मैंने आँगन से साफ देखा, ठीक इसी तरह रेलिंग पकड़े खड़ी। कहकर वह जरा थमी और हँसकर बोली-लेकिन तुम तो अपने में थीं नहीं बहन, कि बूढ़े-टेढ़े की पुकार सुन पातीं! जो सोच रही थी वह कहूँ तो...

अचला चुपचाप फिर नदी के उस पार देखने लगी-इन तानों का जवाब देने की कोशिश तक नहीं की। लेकिन यहाँ यह समझ रखना जरूरी है, कि राक्षसी नाम से उसकी जरा भी समानता न थी-और नाम भी उसका राक्षसी नहीं, वीणापाणि था। पैदा होते ही माँ मर गयी थी, इसीलिये दादी ने यह नाम धर दिया था-जिसे वह सास-ससुर, पड़ौसी से छिपा नहीं सकी थी।

अचला को एकाएक मुँह फेरकर चुप हो जाते देखकर वह मन-ही-मन शर्मिन्दा हुई। अनुतप्त होकर बोली-अच्छा बहन, तुमसे जरा दिल्लगी करना भी मुहाल! मैं क्या जानती नहीं हूँ कि बाबूजी की तुम कितनी श्रद्धा-भक्ति करती हो। उनसे ही तो मैंने सब-कुछ सुना। टहल कर वे सवेरे लौट रहे थे, और तुम रोती हुई डॉक्टर की तलाश में निकली थीं। उसके बाद वे तुम्हारे साथ गये, और सराय से तुम्हारे पति को लिवा लाए। यह सब भगवान् की कृपा है दीदी, वरना तुम लोगों के चरणों की धूल भी कभी इस कुटिया पर पडे़गी-उस दिन गाड़ी में यह किसने सोचा था? लेकिन मेरे सवाल का तो जवाब नहीं मिला! मैं पूछ रही थी कि यहाँ तुम्हें एक घड़ी भी अच्छा नहीं लग रहा है, यह मैं समझ गयी हूँ। लेकिन क्यों? यहाँ तुम्हें कौन-सा कष्ट, कौन-सी असुविधा हो रही है? मैं सिर्फ यही जानना चाहती हूँ-कहकर पहले की ही तरह अबकी भी जरा देर इन्तजार करके उसे लगा-जवाब का वह बेकार ही इन्तजार कर रही है। सो जिसे उसके ससुर ने जगह दी थी, सुरमा दीदी कहकर उसने भी स्नेह किया था-उसका चेहरा अपनी ओर खींचते ही उसने देखा, उसकी आँखों के कोने से चुपचाप आँसू बह रहे हैं। वीणापाणि स्तब्ध खड़ी रही, और आँचल से आँसू पोंछकर उसने अपनी सूनी निगाह दूसरी ओर फेर दी।

दूसरे दिन तीसरे पहर, एक नये मासिक पत्र की कोई कहानी पढ़कर वीणापाणि अचला को सुना रही थी। बेंत की कुर्सी पर अधलेटी अचला कुछ तो सुन रही थी, और कुछ उसके कानों में कतई पहुँच ही नहीं रहा था-ऐसे समय वीणापाणि के ससुर रामचरण लाहिड़ी-‘बिटिया राक्षसी’-कहते ऊपर आये। दोनों जनी झट उठकर खड़ी हो गयीं। वीणापाणि ने बूढ़े के सामने एक कुर्सी खींचकर पूछा-क्या है बाबूजी?

ये बूढ़े बड़े ही निष्ठावान हिन्दू थे। उन्होंने धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठते हुए, स्नेह से अचला की ओर देखते हुए कहा-एक बात कहनी है बिटिया! अभी-अभी पुजारीजी आये थे। वे तुम पति-पत्नी के नाम से संकल्प करके भगवान् को तुलसी चढ़ा रहे थे, वह कल समाप्त होगा। सो कल तुमको कष्ट करके-जरा देर तक बिना खाए रहना पड़ेगा! वे हमारे घर ही ठाकुर लेते आयेंगे, तुम्हें कहीं जाना न पड़ेगा!! सुनकर अचला का सारा चेहरा स्याह हो उठा-धुँधले प्रकाश में यह बूढ़े को न दिखा, मगर वीणापाणि की नजर पड़ी। वह हिन्दू नारी थी, जन्म से उसी संस्कार में पली। और बीमार पति के कल्याण के लिये यह कितने उत्साह और आनन्द की बात है, इसे वह संस्कार जैसा ही समझती थी, लेकिन अचला की शक्ल का ऐसा अजीब परिवर्तन देख उसके अचरज की सीमा न रही। फिर भी सखी के नाते पूछा-अच्छा बाबूजी, तुलसी तो आपने सुरेश बाबू के लिये चढ़वाई, तो फिर उन्हें उपवास न करा कर आप दीदी को क्यों कह रहे हैं?

बूढ़े ने हँसकर कहा-वे और तुम्हारी दीदी क्या दो हैं बिटिया? सुरेश बाबू तो इस दशा में उपवास कर नहीं सकेंगे, सो तुम्हारी सुरमा दीदी को ही करना पड़ेगा! शास्त्र में ऐसा नियम है, सोचने की बात नहीं!!

इसके जवाब में भी जब अचला हाँ-ना कुछ न बोली-तो उसकी वह निश्चेष्ट-नीरवता शुभाकांक्षी बूढे़ के भी नजर में आयी। उन्होंने सीधे अचला की ओर देखते हुए पूछा-इसमें तुम्हें कोई आपत्ति है, बेटी? कहकर उसके प्रतिवाद की आशा में देखते रहे।

अचला से अचानक इसका भी कोई जवाब देते न बना। जरा देर चुप रहकर बोली-उन्हें कहने से खुद वे ही करें शायद! उसके बाद सभी चुप हो गये। यह बात कैसी अजीब-सी, कितनी रूखी और सख्त सुनाई पड़ी-इसे कहने वाले के सिवा शायद और किसी ने नहीं अनुभव किया। अन्तर्यामी के सिवा और कोई उसे नहीं जान सका।

बूढ़े ने खड़े होकर कहा-तो वही होगा! और धीरे-धीरे नीचे उतर गये। नौकर बत्ती दे गया, पर दोनों वैसे ही सिमटी और झिझकी रहीं। मासिक पत्रिका की वैसी जानदार-जोशीली कहानी का बचा हिस्सा पढ़ने का उत्साह भी किसी में न रहा। बाहर अँधेरा गाढ़ा होने लगा, और उसी को चीरकर उस पार की बालुका-भूमि एक से दूसरे छोर तक, इन दो क्षुब्ध, मौन और लज्जित नारियों की आँखों पर सपने-सी तैरने लगी।

इस तरह भी काफी समय कट जाता, लेकिन जाने क्या सोचकर वीणापाणि एकाएक कुर्सी अचला के पास खींचकर लाई, और अपना दायाँ हाथ सखी की गोद में रखकर धीरे-धीरे बोली-उस पार के चौर को देखकर मेरे जी में क्या आ रहा था, जानती हो दीदी? लग रहा था, ठीक जैसे तुम हो! जैसे ठीक उसी तरह थोडे़-से अँधेरे में लिपटी-अरे, ऐसे सिहर क्यों उठीं?

अचला कुछ क्षण चुप रहकर बोली-एकाएक सर्दी-सी लग आयी! वीणापाणि अन्दर गयी। एक ऊनी चादर ले आयी। भली तरह अचला के बदन को उससे ढककर, अपनी जगह बैठकर बोली-तुमसे एक बात पूछने को बड़ा जी चाहता है दीदी, लेकिन कैसी तो शर्म आती है! नाराज न हो तो...

अजानी आशंका से अचला का कलेजा काँप उठा-ज्यादा बोलने में गला न काँप उठे, इस भय से मुख्तसर में सिर्फ ‘ना’ कहा-और स्थिर बैठी रही।

दुलार से उसकी हथेली को थोड़ा दबाकर वीणापाणि कहने लगी-अभी तो तुम मेरी दीदी हो, मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ; मगर उस दिन गाड़ी में तो मैं कोई नहीं होती थी-फिर तुमने अपना सही परिचय मुझसे छिपाना क्यों चाहा था? जो तुम्हारे पति थे, उनके लिये कहा कोई नहीं हैं; कहा-बीमार पति दूसरे डिब्बे में हैं, उन्हें लेकर जबलपुर जा रही हैं-लेकिन मुझे तुम ठग नहीं सकीं! मैं ठीक पहचानती थी कि वे तुम्हारे कौन हैं!! फिर तुमने बताया कि तुम ब्राह्म हो। इसके बाद वह जरा हँस कर बोली-पर जब देखती हूँ, तुम्हारे देवता का जनेऊ देखकर विष्णुपुर के पाठक-ठाकुर लोग भी शरमा सकते हैं!!! इतना झूठ क्यों बताया था भला?

जबर्दस्ती जरा सूखी हँसी हँसकर अचला बोली-यदि न बताऊँ? वीणापाणि बोली-तो मैं ही बताऊँगी! मगर पहले यह कहो कि ठीक बता दूँ, तो क्या दोगी? अचला के कलेजे में लहू की रफ्तार बन्द होने की नौबत आ गयी। उसके चेहरे पर मौत का जो पीलापन छा गया, बत्ती की मद्धिम रोशनी में वह अचला को नजर आया या नहीं, कहना कठिन है; लेकिन होंठ दबाकर फिर जरा हँसती हुई वह बोली-अच्छा, कुछ दो या न दो, मैं अगर सच बता दूँ तो मुझे क्या खिलाओगी, अचला दीदी?

अचला का अपना नाम उसके कानों में आग की लपट-सा समाया, और उसके बाद से ही वह-आधी होश में आधी बेहोश-सी, सख्त होकर बैठी रही।

वीणापाणि कहने लगी-हम दोनों बहनों का लेकिन उतना कसूर नहीं है, कसूर जो कुछ है, हमारे पति-देवताओं का! एक ने बुखार की बदहोशी में तुम्हारा असली नाम कह दिया, और दूसरे ने सोचकर तुम्हारा सही परिचय ढूँढ़ निकाला!!

अचला ने जी-जान से अपने धड़कते कलेजे को संयत करके कहा-क्या है सही परिचय, सुनूँ जरा?

वीणापाणि बोली-सच हो या नहीं-उन्हें अक्ल है; यह तुम्हें मानना ही पड़ेगा! एक रात आकर अचानक वे बोल उठे-अपनी अचला दीदी का रवैया मालूम है तुम्हें? वे घर से भाग आयी हैं। मैंने रंज होकर कहा-रक्खो भी चालाकी अपनी! दीदी कहीं सुन लें तो जिन्दगी भर तुम्हारी शक्ल नहीं देखेंगी!!

अचला कुर्सी को मुट्ठियों से कसकर पकड़े बैठी रही।

वीणापाणि कहने लगी-वे बोले-मेरी शक्ल चाहे वे देखें, चाहे न देखें, मगर मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि बात यह सच है! ननद-देवरानी से झगड़कर हो या सास-ससुर से न पटने के कारण ही हो, पति के साथ वे निकल पड़ी है। सुरेश बाबू का हाल देखकर तो लगता है, तुम्हारी दीदी उन्हें समुद्र में डूब मरने को कह दें, तो वे ना नहीं कर सकते। खैर, जहाँ भी हों, छिपकर दोनों जने रहेंगे, जब तक कि खोज-ढूँढ़कर, रो-पीटकर, मना-मनूकर सास-ससुर-बेटे पतोहू को न ले जायें! यह ही असली घटना न हो तो तुम मुझे...

मैंने कहा-अच्छा, वही सही, मगर गाड़ी में मुझ-जैसी एक मूर्ख अपरिचित स्त्री से झूठ बोलने की दीदी को क्या गरज पड़ी थी? इस पर उन्होंने हँसकर जवाब दिया-तुम्हारी दीदी अगर तुम्हारी-जैसी अक्लमन्द होती, तो कोई गर्ज न होती! लेकिन अक्लमन्द वे बिल्कुल नहीं हैं!! उन्होंने जैसे ही सुना कि तुम्हारा घर डिहरी में है, दो दिन के बाद तुम वहीं जाओगी, वैसी ही वे डिहरी के बदले जबलपुर-यात्री, अचला के बदले सुरमा, और हिन्दू के बदले ब्राह्म बन गयी। तुम्हारे दिमाग को यह नहीं सूझा राक्षसी, कि जो टिकट कटाकर जबलपुर जा रहे थे, एकाएक गाड़ी बदलकर वे डिहरी क्यों जाने लगे; और अपने बीमार पति को लेकर किसी बंगाली के यहाँ न उतरकर, इतनी दूर एक सराय में क्यों ठहरते? कहते-कहते बगल में झुककर वीणापाणि ने उसका गला लपेट लिया, और स्नेह-पे्रम से गद्गद् हो उसके कान के पास मुँह ले जाकर अस्फुट-स्वर में कहा-बताओ न दीदी, हुआ क्या था? मैं कभी-किसी को कोई बात न बताऊँगी-तुम्हारा बदन छूकर कसम खाती हूँ!

वीणापाणि की जबानी अपने बारे में सत्य-आविष्कार का गलत इतिहास सुनकर, अचला की देह मानो निर्जीव पत्थर के एक टुकड़े-सी, सखी के आलिंगन में लुढ़क पड़ी। जीवन की आखिरी शर्मिन्दगी एक-एक कदम बढ़ाकर कहाँ आ पहुँची, वह यही देख रही थी; लेकिन वह जब एकाएक अजीब ढंग से मुँह फेरकर दूसरी ओर चली गयी, उसे छुआ तक नहीं-तो इस इतने बड़े सौभाग्य को ढो सकने की भी शक्ति उसे नहीं रही। आँसू के अटूट प्रवाह के सिवा, बड़ी देर तक उसमें जीवन का और कोई लक्षण नहीं दिखा।

ऐसे कुछ समय कटा। वीणापाणि अपने दामन से रह-रहकर उसके आँसू पोंछकर, स्नेह-सने स्वर में बोली-सुरमा दीदी, उम्र में बड़ी होते हुए भी, तुम छोटी बहन का कहना मानो, दीदी-अब घर लौट जाओ! कहा मानो, यह यात्रा तुम्हारी शुभ यात्रा नहीं!! इतने-इतने कष्ट से सुहाग का सिन्दूर जब बच गया, तो मना करके गुरुजनों को अब दुःख मत दो, उन्हें न रुलाओ! झुककर ससुराल लौट जाने में कोई शर्म, कोई हेठी नहीं बहन!

कुछ देर मौन रहकर वह फिर बोली-चुप हो? नहीं जाओगी? माँ-बाप से नाराज होकर घर से बाहर सुरेश बाबू ठीक नहीं रह सकते। तुम्हारे मुँह से जाने की बात सुनकर वे खुश ही होंगे, यह मैं निश्चित कहती हूँ!

आँख पोंछकर अचला अब सीधी बैठी। देखा-वीणापाणि उसी उत्सुकता से उसकी ओर देख रही है। पहले तो जवाब देने में उसे बड़ी शर्म आने लगी, लेकिन चुप रह जाने से ही उससे पिण्ड नहीं छूट सकता-जब इस बात में कोई सन्देह नहीं रहा, तो जबर्दस्ती सब संकोच हटाकर वह बोली-हमारे घर लौटने का कोई उपाय नहीं है वीणा!

वीणापाणि विश्वास न कर सकी। बोली-कोई उपाय नहीं? तुम्हें मैं ज्यादा दिनों से जरूर नहीं जानती, परन्तु जितना जानती हूँ-उससे समूची दुनिया के सामने खड़ी होकर कसम खाकर कह सकती हूँ-कि तुम ऐसा कोई काम हरगिज नहीं कर सकती दीदी, जिससे कोई तुम्हारा किसी तरफ का रास्ता बन्द कर सके! अच्छा तुम अपनी ससुराल का पता बता दो, परसों तो हम लोग घर जा ही रहे हैं, बाबूजी को साथ लेकर तुम्हारे यहाँ जाऊँगी, देखती हूँ-वे मुझे क्या जवाब देते हैं! तुम्हारे सास-ससुर मेरे भी वही हुए, उनके सामने खड़ी होने में मुझे कोई शर्म नहीं!

अचला ने चौंककर पूछा-परसों तुम लोग घर जा रहे हो? सुना तो नहीं! यहाँ कौन-कौन रहेंगे?

कोई नहीं! सिर्फ नौकर-दरबान घर की रखवाली करेंगे। मेरी जेठ-सास बहुत दिनों से बीमार हैं, अब उनके जीने की आशा नहीं-उन्होंने सबसे मिलने की इच्छा जाहिर की है।

अचला ने पूछा-तुम्हारी ससुराल है कहाँ?

वीणापाणि ने कहा-कलकत्ते में पटलडाँगा!

पटलडाँगा का नाम सुनकर अचला का मुँह सूख गया। जरा देर चुप रहकर धीरे-धीरे बोली-तब तो हमें भी कल ही यह घर छोड़कर जाना पड़ेगा। यहाँ रहना तो न होगा अब!

वीणापाणि हँस उठी-इसीलिये तुम्हें घर जाने को कह रही थी, क्यों? इतनी देर में मेरी बात का यह मतलब निकाला तुमने! नहीं-नहीं, मुझसे कसूर हो गया, तुम्हें अब कभी कहीं जाने को न कहूँगी!! जब तक जी चाहे, इस झोंपड़े में रहो, हममें से किसी को कोई एतराज नहीं!!!

मगर इस समय निमंत्रण का अचला कोई जवाब नहीं दे सकी। कुछ देर चुप रहकर बोली-सच ही क्या तुम लोगों का जाना तय हो गया है?

वीणापाणि बोली-हाँ! गाड़ी में जगह तक रिजर्व हो गयी!! बाबूजी के कमरे में झाँककर देखो जरा, देखोगी-प्रायः पन्द्रह आना सामान भी बँध चुका है!!!

नौकरानी दरवाजे के पास आकर बोली-बहूजी, माँ जी रसोई में बुला रही हैं जरा!

आयी-कहकर जरा हँसते हुए, उसने फिर एक बार दोनों बाँहों से अचला का गला लपेटकर कानों में कहा-इतने दिन भीड़-भाड़ में, बड़े कष्ट में ही तुम लोगों के दिन बीते हैं। अब पूरा घर खाली-कोई-कहीं नहीं, मैं बला भी टाल रही हूँ-समझ गयी न दीदी? और सखी के गाल पर दो उँगली का दबाव देकर दाई के पीछे तेजी से निकल गयी।

खुशी का एक टुकड़ा-दक्खिनी बयार-सी वह सौभाग्यवती स्त्री धीरे-धीरे नजरों से ओझल हो गयी; लेकिन कानों में कहीं उसकी दो बातों को दोनों कानों में डाले, अचला वहीं बुत-सी बैठी रही। आज की रात और कल का दिन-भर बाकी। उसके बाद कोई रोक-रुकावट नहीं, इस सूनी नगरी में-पास और दूर, जहाँ तक उसकी दृष्टि जाती-भविष्य के बीच आँख खोलकर देखा-अकेली वह, और केवल सुरेश के सिवा उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा!

(32)

इस सूने घर में अकेले सुरेश को लेकर दिन बिताना पड़ेगा, और वह बुरी साइत हर पल करीब ही होती आ रही थी। बाधा नहीं, रोक नहीं, लाज नहीं, जाग नहीं-कल का कोई बहाना करने तक का मौका नहीं मिलेगा।

वीणापाणि ने कहा था-सुरमा दीदी, ससुराल अपना घर है, औरतों को वहाँ झुककर जाने में कोई शर्म नहीं!

हाय रे हाय! उसके कौन है और क्या नहीं है, इसका लेखा अन्तर्यामी के सिवा और किसने रक्खा है! फिर भी उसके पति आज भी हैं, और अपना कहने को वह जला हुआ घर अभी धरती की गोद में मटियामेट नहीं हुआ है। आज भी वह पल-भर के लिये उसमें जाकर खड़ी हो सकती है!

बँधे जानवर की आँखों पर से जब तक बाहर का यह फाँक एकबारगी ढँक नहीं जाता, तब तक जैसे वह एक ही जगह में सिर पीट-पीटकर मरता रहता है-वैसे ही उसके बेरोक मन की उदग्र कामना उसके कलेजे में हा-हा करती हुई, निकल बाहर होने की राह ढूँढ़ती हुई घुटने लगी। पास के कमरे में सुरेश निश्चिन्त सो रहा था। बीच का दरवाजा थोड़ा-सा खुला, और उसी के इस तरफ फर्श पर चटाई डाल कर, ऐड़ी से चोटी तक कम्बल ओढ़े नौकरानी सो रही थी। घर-भर में किसी के भी जगने का कोई आभास नहीं-केवल वही मानो आग की सेज पर दहकती रही। दिनों तक इसी पलंग पर उसके बगल में वीणापाणि सोती रही, पर आज उसके पति यहीं थे, वह अपने कमरे में सोने गयी थी-और कहीं इसी चिन्ता का छोर पकड़ कर अपना दुखी और उद्भ्रान्त मन सहसा उन्हीं के कमरे के पर्यंक के प्रति हिंसा, अपमान, लज्जा के अणु-परमाणु में चूर-चूर हो दम तोड़े-इस डर से उसने अपने-आपको जोर-जबर्दस्ती खींचकर लौटाया, लेकिन तुरन्त उसका सारा शरीर बिजली छू जाने जैसा थर-थर काँपने लगा।

बगल के किसी कमरे की घड़ी में दो बजे। बदन पर की ऊनी चादर को हटाते ही उसने अनुभव किया-इस जाड़े की रात में भी उसके कपाल पर, मुँह पर बूँद-बूँद पसीना जमा है। सो उसने सिरहाने की खिड़की खोल दी। देखा-अँधियारे पाख की आठवीं का चाँद ठीक सामने ही उगा है, और उसी की कोमल किरणों से सोन नदी का नीला पानी बड़ी दूर तक चमक उठा है। गहरी रात की ठण्डी हवा ने उसके गर्म ललाट को सहला दिया, और वह वहीं उस खिड़की के सामने, अपने भाग्य की अन्तिम समस्या को लेकर बैठ गयी।

अचला की निश्चित धारणा हो गयी थी कि उसके शापित अभागे जीवन का जो कुछ सत्य है, लोगों को सारा-का-सारा एक अद्भुत उपन्यास-सा लगेगा। जिस रोज से इस कहानी की शुरुआत हुई, तबसे जीवन में जिनसे झूठ ने सत्य का नकाब डालकर झलक दिखाई है-उनमें से एक-एक को याद करके क्रोध, क्षोभ और मान से भाग्य-विधाता ने उसकी जवानी के पहले आनन्द को मिथ्या से ऐसा बिगाड़कर, ऐसे मजाक की चीज बनाकर संसार के सामने उधर देने में कोई हिचक नहीं दिखाई-उस बेरहम-बेदर्द को बचपन से अगर भगवान कहने की उसने शिक्षा पाई है, तो वह शिक्षा उसकी बेकार गयी, बिल्कुल बेमानी हुई। वह आँखें पोंछते हुए बारम्बार कहने लगी-हे ईश्वर, तुम्हारे इतने बड़े विश्व-ब्रह्माण्ड में इस अभागिनी के जीवन को छोड़कर कौतुक करने को और क्या खाक कुछ नहीं मिला?

मन-ही-मन बोली-कहाँ थी मैं और कहाँ था सुरेश! ब्राह्म की छाया छूने में भी जिसकी घृणा और द्वेष का अन्त नहीं था, किस्मत के खेल से आज उसी की आसक्ति का आदि-अन्त नहीं रहा। जिसे उसने कभी प्यार नहीं किया-वही उसका प्राणोपम है, सिर्फ इसी झूठ को लोगों ने जाना? और जो सत्य है, उसे कहीं-किसी के पास जगह न मिली? और इस झूठ को उसी के मुँह से प्रचार कराने की जरूरत थी? अदृष्ट की इतनी बड़ी विडम्बना कब-किसके नसीब में घटी? पति को उसने बड़े दुःख से पाया था, मगर वह बर्दाश्त न हुआ-उसके चरम दुर्भाग्य की गठरी लिये सुरेश, अभिशाप की नाईं उसके गाँव में जाकर हाजिर हुआ। उसके सुख का बसेरा जलकर खाक हो गया, और उसी के साथ उसकी तकदीर भी जलकर भस्म हो गयी-इस बात में जब कोई शुबहा ही न रहा, तो फिर उसके बीमार पति को उसी की गोद में डाल दिया गया-जिसे वह एकबारगी खोने को थी। सेवा से पूर्णतया उसे लौटा देने का ही संकल्प अगर विधाता का था, तो फिर उसकी दुःख-दुर्दशा, ग्लानि-अपमान का अन्त क्यों नहीं?

दोनों हाथ जोड़कर अचला रुँधे स्वर में कहने लगी-जगदीश्वर, रोगमुक्त पति के आशीर्वाद से सभी अपराधों का प्रायश्चित हो चुका, अगर मुझे यही विश्वास करने दिया था-तो फिर इस इतनी बड़ी दुर्गत में क्यों ढकेल दिया? उसने संकोच नहीं माना, इतनी-इतनी हरकतों के बाद भी उसने सुरेश को साथ आने को आमंत्रित किया, दुनिया में इस कसूर के मिटने का उपाय नहीं, कलंक की यह कालिमा नहीं मिटने की-मगर मेरे अन्तर्यामी, मेरे भाग्य से तुमने भी क्या भूल समझा? मेरे कलेजे के अन्दर क्या है, वह क्या दिखाई ही नहीं दिया तुम्हें?

पिता की चिन्ता, पति की चिन्ता को वह जी-जान से मानो ठेलकर हटा दिया करती थी, आज भी चिन्ता को उसने पास नहीं फटकने दिया; किन्तु उसे मृणाल की बात याद आयी, फूफी की याद आयी, याद आया आने के वक्त सतीसाध्वी कहकर उनका आशीर्वाद देना। उसके सम्बन्ध में उनके मनोभाव की कल्पना करते हुए अकस्मात् मार्मिक आघात खाकर, देर के लिये उसका ज्ञान मानो खो गया, और देहमन की उस अवश-बेबश दशा में खिड़की पर माथा रक्खे, अनजाने ही उसकी आँखों से आँसू बह रहा था। ऐसे वक्त पीछे पैरों की हल्की आहट हुई। अचला ने मुड़कर देखा-खाली बदन, नंगे पाँव सुरेश आकर खड़ा है। आकस्मिक उत्तेजना से वह कुछ कहने जा रही थी, लेकिन गला रुँध गया। उसे दमन करने की उसकी इच्छा न हुई, और मुँह फेरकर तुरन्त उसने फिर उसी तरह खिड़की पर सिर रख लिया; लेकिन जो आँसू अब तक बूँद-बूँद टपक रहा था, उसका बाँध मानो टूट गया-और एक पगली धारा-सी फूट निकली।

कहीं कोई शब्द नहीं। घर के भीतर-बाहर रात की गहरी नीरवता छा रही थी। पीछे पत्थर की मूरत-सा चुप खड़ा सुरेश, सहसा उसका शरीर पत्ते की तरह काँपने लगा-और लमहें में उसने दोनों हाथ बढ़ाकर अचला का माथा अपनी छाती में खींच लिया।

अपने को उससे छुड़ाकर अचला ने आँखें पोंछीं, लेकिन सबसे बड़े अचरज की बात यह कि जो आदमी उसकी इतनी बड़ी दुर्गत की जड़ था, उसके इस व्यवहार से अचला को तीखी नफरत न हुई, बल्कि धीमे से कहा-तुम इस कमरे में क्यों आये?

सुरेश चुप रहा। शायद उसकी आवाज ही न निकली। अचला ने धीरे-धीरे खिड़की बन्द कर दी। बोली-सर्दी से तुम्हारा हाथ काँप रहा है। नंगे खड़े मत रहो-अन्दर जाकर सो रहो!

सुरेश की आँखें जल उठीं, लेकिन उसकी आवाज काँपने लगी-अचला का हाथ अपने हाथ में खींचकर अस्फुट स्वर में बोला-तो तुम भी मेरे कमरे में चलो!

अचला जरा देर अवाक्-विस्मय से उसके मुँह की ओर ताकती रहकर सिर्फ बोली-नहीं, आज नहीं! और धीरे-धीरे उसने अपना हाथ छुड़ा लिया।

इस शान्त और संयत ठुकराहट में क्या था-ठीक-ठीक समझ न पाने के कारण सुरेश चुपचाप खड़ा रहा। अचला उसकी ओर देखे बिना ही बोली-क्या तुम यह जानकर इस कमरे में आये कि मैं जाग रही हूँ?

सुरेश ने चोट-खाए हुए की तरह कहा-और क्या तुम्हें सोई समझकर आया हूँ, यह ख्याल है तुम्हारा?

ख्याल?-अचला मुँह फेरकर जरा हँसी। यह तीखी और सख्त हँसी, धुँधली जोत में भी सुरेश की नजर से न बच सकी। उस हँसी ने मानो साफ शब्दों में उससे कहा-अरे कायर! सोई स्त्री के कमरे में चोर-सरीखा घुसना नहीं चाहिए, पुरुष के इस महत्व का तुम आज भी दावा करते हो? लेकिन वह बोली कुछ नहीं। थोड़ी देर में झरोखे से हटकर खड़ी होती हुई धीरे-धीरे बोली-तुम्हारी तबियत ठीक नहीं, ज्यादा जगो मत, सो जाओ जाकर! कहकर वह अपने बिस्तर पर जाकर, सिर से पाँव तक कम्बल ओढ़कर सो गयी।

सुरेश कुछ देर तक पंगु-सा वहीं खड़ा रहा, और फिर धीरे-धीरे अपने कमरे में चला गया।

  • गृहदाह अध्याय (33-44) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
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