गोलू भागा घर से (उपन्यास) : प्रकाश मनु

Golu Bhaga Ghar Se (Hindi Novel) : Prakash Manu

1

मक्खनपुर से दिल्ली रेलवे स्टेशन तक

आखिर जिस बात की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी, वही हुई। गोलू घर से भाग गया।

गोलू के मम्मी-पापा, बड़ा भाई आशीष और दोनों दीदियाँ ढूँढ़-ढूँढ़कर हैरान हो गईं। रोते-रोते उसकी मम्मी का बुरा हाल हो गया। और वे बार-बार आँसू बहाते हुए कहती हैं, “मेरा गोलू ऐसा तो न था। जरूर यह किसी की शरात है, किसी ने उसे उलटी पट्टी पढ़ाई है। वरना...”

“वरना वह तो घर से स्कूल और स्कूल से घर के सिवा कोई और रास्ता जानता ही न था। घर पर बैठे-बैठे या तो किताब पढ़ता रहता था या फिर छत पर टहलता। थोड़ा-बहुत आसपास के दोस्तों के साथ खेल-कूद। गपशप। ज्यादा मेलजोल तो उसका किसी से था नहीं। लेकिन...पता नहीं, क्या उसके जी में आया, पता नहीं!” कुसुम दीदी कहतीं और देखते ही देखते मम्मी, कुसुम दीदी और सुजाता दीदी की आँखें एक साथ भीगने लगतीं। आस-पड़ोस के लोग जो दिलासा देने आए होते, वे भी टप-टप आँसू बहाने लगते।

गोलू था ही ऐसा प्यारा। शायद ही मोहल्ले में कोई बच्चा ऐसा हो जिससे उसका झगड़ा हुआ हो। मारपीट तो जैसे जानता ही नहीं था। कभी किसी ने आज तक उसकी शिकायत नहीं की थी। लेकिन आज...? कुछ ऐसा कर गया वह कि घर के ही नहीं, बाहर के लोग भी एकदम हक्के-बक्के से हैं।

शहर का कोई भी कोना-कुचोना न था जो उसके पापा ने न ढूँढ़ा हो। आशीष भैया ने दौड़कर शहर के मुख्य अखबार ‘प्रभात खबर’ और ‘साध्य समाचार’ में भी फोटो और सूचना छपा दी थी। उसमें सब लोगों से ‘प्रार्थना’ की गई थी कि अगर उन्हें गोलू कहीं मिले, तो उसे समझा-बुझाकर घर ले आएँ। उन्हें आने-जाने का खर्चा और इनाम भी दिया जाएगा।

इस बात को भी कोई हफ्ता भर तो हो ही गया, लेकिन गोलू का कुछ पता नहीं चला। थक-हारकर आशीष भैया इलाहाबाद चले गए, जहाँ मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई का उनका आखिरी साल था।

कुसुम दीदी रो-धोकर ससुराल चली गईं। आखिर वहाँ ढेरों काम-धाम छोड़कर वे आई थीं। फिर रोजाना स्कूल में पढ़ाने भी जाती थीं। भला कब तक छुट्टी लेकर बैठी रहें।

अलबत्ता मम्मी-पापा छाती पर पहाड़ जैसा बोझ लिए बैठे रहे। या फिर सुजाता दीदी जो एम.ए. करने के बाद अब रिसर्च कर रही थीं। लेकिन इन दिनों रिसर्च-विसर्च सब भूलकर या तो गोलू के दुख में कलपती रहतीं या फिर दुखी मम्मी-पापा को सहारा देतीं, जो बैठे-बैठे चुपचाप आँसू ही बहाते रहते थे। और फिर एकाएक फूट-फूटकर रो पड़ते, “गोलू, गोलू, गोलू...!” उनके रुदन से घर की दीवारें भी काँपने लगतीं।

तब सुजाता दीदी बड़ी मुश्किल से खुद को सँभालतीं। मम्मी-पापा को धीरज बँधातीं कि, “कहाँ जाएगा वो, आ जाएगा दो-चार दिन में! आप इतने क्यों परेशान हैं!...” और साथ ही घर के सारे काम-काज में जुटी रहतीं, क्योंकि मम्मी तो देखते ही देखते एकदम लाचार हो गई थीं।

“गोलू, मेरे लाल! क्या हुआ तुम्हें? किसी की याद नहीं आई, मेरी भी...? तुझे तो कितना लाड़ करती थी मैं। सब भूल गया? पता है, तेरे पीछे घर की क्या हालत है! आस-पड़ोस के लोग भी मजाक उड़ाते हैं!” कहकर मम्मी जोर से विलाप करने लगतीं। और कभी एकदम सख्त चेहरा बनाकर कहतीं, “चल-चल सुजाता, मरने दे। मुझे कौन-सी परवाह है उसकी! जब उसे नहीं, तो हमें क्या?” कहते-कहते फिर जोरों से रो पड़तीं।

सुजाता दीदी समझ जाती हैं कि मम्मी का गुस्सा असली नहीं, झूठा है। वे अंदर से व्याकुल, बहुत-बहुत व्याकुल हैं, जैसे छाती फटी जा रही हो।...लेकिन करें क्या? उनकी समझ में आ नहीं रहा।

गुस्से में मम्मी कई बार पापा से झगड़ चुकी थीं। बार-बार एक ही बात कहतीं, “मेरा नाजुक फूल-सा बेटा था, तुमने क्यों चाँटा मारा उसे? क्यों? तुम्हें अच्छी तरह मालूम है, न वो कोई गलत काम करता था, न बर्दाश्त करता था। फिर क्यों चाँटा मारा तुमने उसे? तुम्हीं उसे घर से बाहर निकालने के कसूरवार हो। तुम्हीं!”

सुनकर पापा का सिर लटक जाता और पूरा चेहरा काला पड़ जाता। रह-रहकर वे खुद ही पछता रहे थे। लेकिन मम्मी जब कहतीं, तो उनका दिल जैसे टुकड़े-टुकड़े होने लगता। मन होता, जैसे अपने गालों पर ही एक के बाद एक चाँटें जड़ दें।

तब सुजाता को बीच में दखल देना पड़ता। वह कहती, “रहने दो मम्मी, रहने दो! पापा वैसे ही दुखी हैं। फिर पापा ने एक चाँटा ही तो मारा था, इसमें ऐसी कौन-सी आफत आ गई। ठीक है, पापा को कुछ ज्यादा ही गुस्सा आ गया। पर माँ-बाप कभी-कभी मार भी देते हैं अपने बच्चों को उनके भले के लिए। इसका मतलब यह तो नहीं कि...”

इस पर मम्मी-पापा दोनों एक साथ सुजाता दीदी का चेहरा देखता रहते और फिर न जाने कब दोनों की एक साथ सिसकियाँ शुरू हो जातीं।

2

देखिए, मैं तो यहीं हूँ!

गोलू क्यों भागा घर से?...गोलू घर से क्यों भागा?

एक यही सवाल है जो मुझे इन दिनों लगातार तंग कर रहा है—रात-दिन, दिन-रात! ‘गोलू, गोलू, गोलू...।’ मैं गोलू की यादों के चक्कर से बच क्यों नहीं पा रहा हूँ? अचानक जब-तब उसका भोला-सा प्यारा चेहरा आँख के आगे आकर ठहर जाता है जैसे कह रहा हो कि ‘मन्नू अंकल, मैं तो कहीं गया ही नहीं। मैं तो यहीं हूँ। देखिए, ऐन आपकी आँख के आगे...!’

और मैं हाथ बढ़ाकर जैसे ही छूने की कोशिश करता हूँ कि गायब, एकदम गायब...उसी तरह हँसते-हँसते। चारों तरफ हँसी की चमक बिखेरकर गायब हो जाता है गोलू और मुझे पुराने दिन याद आने लगते हैं।

वे दिन जब गोलू अकसर मुझसे पढ़ने के लिए किताबों और पत्रिकाएँ ले जाता था। खासकर बच्चों की छोटी-छोटी कहानियाँ पढ़ना उसे पसंद था। और गरमी की छुट्टियों में तो हालत यह होती कि वह हर दिन एक किताब पूरी करके अगले दिन फिर मेरी स्टडी में टहल रहा होता कोई नई किताब माँगकर ले जाने के लिए। मेरे पास किताबों—किस्से-कहानी की किताबों का अकूत खजाना था। मगर गोलू भी कोई कम पढ़ाकू थोड़े ही था। एक-एक कर उसने ढेरों  किताबें पढ़ डालीं और सभी किताबें बिल्कुल ठीक-ठाक हालत में वापस भी कर गया।

कहानियों के बाद उसे महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने का शौक लगा और सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, महात्मा गाँधी, रानी लक्ष्मीबाई, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की जीवनियाँ मुझसे माँग-माँगकर ले जाने लगा। इन जीवनियों को पढ़कर आता तो मुझसे ढेरों सवाल करता, अंकल ऐसा क्यों हुआ, वैसा क्यों हुआ?...ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए था? वगैरह-वगैरह। क्रांतिकारियों की जीवनियाँ उसे खासतौर से अच्छी लगने लगी थीं और वह कहता था, “अंकल, अब मैं समझ गया हूँ कि एक आदमी चाहे तो पूरी दुनिया बदल सकता है।”

फिर उसे प्रेमचंद की कहानियों का चस्का लगा और प्रेमचंद की ‘गुल्ली डंडा’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पंच परमेश्वर’ जैसी कहानियाँ पढ़कर वह खूब तरंगिता होता और मुझसे आकर कहा करता था, “अंकल, क्या मैं चाहूँ तो मैं भी बन सकता हूँ लेखक। आखिर कैसे होते हैं लेखक?”

इस पर मैं हँसकर उसकी पीठ थपथपा दिया करता, “हाँ भई, क्यों नहीं! अगर तुम लेखक बनना ही चाहते हो तो भला तुम्हें कौन रोक सकता है? पर लेखक बनने के लिए भी पहले लिखाई-पढ़ाई तो जरूरी है न? पढ़ोगे-लिखोगे नहीं, तो अपनी बात अच्छे ढंग से कहना कैसे सीखोगे?...अच्छा लेखक तो वही होता है न जो अपनी बात अच्छी ढंग से कह पाए! तो उसके लिए पहले सीरियसली पढ़ाई करो।”

“हाँ अंकल, वह तो है...बिल्कुल!” बुदबुदाता हुआ गोलू अकसर चला जाता था। पर उसके चेहरे पर एक जाला अकसर मुझे साफ दिखाई पड़ता था, चिंता का जाला। कई बार मेरा मन होता था, उस जाले को हटाकर उससे मिलूँ और कहूँ कि, “ओ गोलू, बता तो, तेरी मुश्किल क्या है! क्या कुछ है जो तेरे अंदर चल रहा है। कौन-सा अंधड़...?”

पर मैं सोचता, सिर्फ सोचता ही रहा और वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। गोलू घर से भाग गया।

हाँ, तो फिर वही सवाल—गोलू घर से क्यों भागा? गोलू क्यों भागा घर से?

इसका एक जवाब तो शायद यह हो सकता है कि कुछ पढ़ाई-वढ़ाई का चक्कर रहा होगा। गोलू खासा पढ़ाकू था और जैसा मैंने पहले कहा था, मेरे घरेलू पुस्तकालय की करीब आधी किताबें वह चट कर गया था। मगर फिर भी स्कूली पढ़ाई का जो एक खास तरह का चौखटा था, उससे वह घबराता था और उसे चक्कर आने लगते थे।

फिर एक मुश्किल और थी, जो सब मुश्किलों से बड़ी थी और अब तो गोलू को किसी दावन जैसी लगने लगी थी—मैथ्स। यानी गणित की पढ़ाई। अब यह तो सबको पता था...खुद गोलू ने मुझे भी कई दफे परेशान होकर बताया था कि उसका गणित जरा कमजोर है और गणित के मैथ्यू सर से उसे थोड़ा-थोड़ा डर लगने लगा है।

इस पर मैं तो उसे ढाढ़स ही बँधा सकता था और वही मैंने किया भी। मैंने कहा कि, “देखो भाई, यह सारा चक्कर तो हाई स्कूल तक ही है। दसवीं तक जैसे भी हो, सजा समझकर इसे झेल लो, फिर आगे मैथ्स नहीं चलता, तो छोड़ो। और बहुत-सी चीजें हैं पढ़ने को!...और तुम तो गोलू, जरूर जीवन में आगे निकलोगे। लाओ, मैं आज ही तुम्हारी डायरी पर यह बात लिखता हूँ। बाद में तुम खुद चलकर देखना!”

इस पर गोलू एक फीकी सी हँसी हँस दिया था। और मैं भी कुछ-कुछ चिंतामुक्त हो गया था।

लेकिन...तब कहाँ पता थी पूरी बात। गोलू जो झेल रहा था, वह तो शायद गोलू ही झेल रहा था। गणित की वजह से शायद वह कक्षा में कई बार अपमानित भी हुआ था और इस बात से हर समय दुखी भी रहता था। उसके गणित के मास्टर मैथ्यू सर उसे जब-तब बेंच पर खड़ा कर देते और हर बार फूले हुए मुँह से फूत्कार कर कहते थे, “तुम्हें यह भी नहीं आता...मूर्ख कहीं के, ईडियट!”

अकसर गणित के होमवर्क में गोलू का सिर चक्कर खाने लगता था। फिर जब कुछ भी नहीं सूझता था तेा गलत-सलत कुछ भी करके ले जाता और डाँट खाता था।...और मन ही मन रात-दिन डरा रहता था। अकसर सपने में वह चौंक जाता, जैसे एक सींग वाला कोई जानवर लगातार उसके पीछे दौड़ रहा है और वह लगातार अपनी जान बचाने के लिए हाँफता-हाँफता भागा चला जा रहा है।...या ठोकर खाकर किसी गड्ढे में गिर गया है और वह एक सींग वाला विकराल जानवर उसकी जान के लिए उसके पास खिसक आया है।

ऐसे में कई बार वह सोते-सोते चीख पड़ता था। मगर असली बात किसी से कहते हुए उसे शर्म आती थी। कभी-कभी बहुत परेशान होने पर वह मम्मी से सिर्फ इतना ही कहता था कि, “मम्मी, मैंने एक डरावना सपना देखा है। बहुत डरावना!”

लेकिन एक सींग वाला वह डरावना पशु असल में गणित की उसकी मुसीबत है, इस बात को शायद उसने किसी को नहीं बताया था। हाँ, एक किताब के पिछले पन्ने पर उसने ऐसी कोई बात लिखी थी, जिसे पढ़कर उसके भय का थोड़ा-थोड़ा अंदाजा मैं लगा पाया था।

ठीक है, गणित गोलू के लिए मुसीबत था, लेकिन उससे दूर भागते-भागते उसने उसे खुद ही दानव बना लिया था। यह बात कभी मैं उसे समझाना चाहता था, पर इसका मौका ही नहीं मिल सका।

घर पर हमेशा गोलू को ‘पढ़ो-पढ़ो’ का नसीहत भरा शोर ही सुनाई पड़ता था। फिर चाहे मम्मी-पापा हों या सुजाता दीदी या आशीष भैया—किसी के व्यवहारा में कोई फर्क नहीं था। मगर कैसे पढ़े गोलू, यह कोई नहीं सोचता था।...यों भी आखिर कौन उसकी मुश्किलों को हल कर सकता था! मम्मी को तो ज्यादा मैथ्स आता नहीं था। पापा को आता था। मगर वे दुकान के काम से ही इतना लदे रहते थे कि घर पर भी दुकान के हिसाब-किताब की कॉपियाँ ले आते थे। सुजाता दीदी को अपने रिसर्च के काम से फुर्सत नहीं थी। फिर गणित कभी भी उनका प्रिय विषय नहीं रहा। हाँ, आशीष भैया जरूर उसकी मुश्किलें हल कर सकते थे।...पर वे यहाँ थे कहाँ? वे तो इलाहाबाद में थे और गाहे-बगाहे यहाँ आया करते थे।

तो अगर गोलू की यह हालत हुई है, तो क्या उसके लिए वही अकेला जिम्मेदार है, कोई और नहीं?

मजे की बात यह है कि गणित के सिवा गोलू के बाकी सब विषय खूब अच्छे थे। इनमें भी हिंदी, अंग्रेजी तो खूब अच्छे थे और उसका दिल करता था, वह सारे-सारे दिन इन्हीं को पढ़ता रहे। इतिहास और विज्ञान भी उसे प्रिय थे।...लेकिन गणित? उफ, यही मुसीबत है। क्या गणित पढ़ना इतना जरूरी है? क्या गणित के बगैर दुनिया का काम नहीं चलता। उफ, किसने यह मुसीबत पैदा की? क्यों की?

गोलू मन ही मन सोचा करता था।

कभी-कभी वह सोचता कि ‘अगर गणित जरूरी है तो क्या वह इस तरह से नहीं पढ़ाया जा सकता कि सबको खूब दिलचस्प लगे। हमारे सिर पर एक भारी सी सिल की तरह न पड़ा रहे!’

गोलू को याद है, गणित के शाक्य मास्टर जी थे। शायद राजाराम शाक्य उनका पूरा नाम था। वे जब गणित पढ़ाया करते थे, तो गणित गोलू को दुनिया की सबसे प्यारी चीजों में से एक लगता था। सबसे बड़ी बात थी शाक्य सर की मुसकान। पढ़ाते वक्त लगातार एक मुसकान खेलती रहती थी उनके होंठों पर। बस, तभी कुछ समय के लिए मैथ्स के प्रति प्यार पैदा हुआ था गोलू के मन में। पर वे मुश्किल से एक-डेढ़ महीने ही रहे थे, फिर वे चले गए। और उनके साथ गोलू का सुख-चैन भी!

3

गोलू के आशीष भैया

यह बात आपको बड़ी अटपटी लगेगी, पर सही है कि गोलू के घर से भागने का एक कारण और था—उसके आशीष भैया!

सुनने में यह बात बड़ी अजीब लगेगी और गोलू तो अपने मुँह से कभी कहेगा नहीं। क्योंकि आशीष भैया तो इतने अच्छे हैं कि कभी किसी ने उन्हें कड़वा बोलते नहीं सुना। सब उनकी टोकरा भर-भरकर तारीफ करते हैं। सभी बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि आशीष सचमुच लायक है, कुछ बनकर दिखाएगा!...गोलू के सब दोस्त भी आशीष भैया की जमकर तारीफ करते हैं। पर सचमुच आशीष भैया का यह अच्छा होना ही उसके लिए मुसीबत बन गया जाएगा, यह कौन जानता था?

“देख गोलू, तेरे आशीष भैया कितना पढ़ते थे। तू तो कुछ भी नहीं है उनके आगे...!” सुजाता दीदी, मम्मी-पापा और अड़ास-पड़ोस वालों का यह डंडा उसके सिर पर जब-तब बजता ही रहता था।

“देख गोलू, तेरे आशीष भैया कितने इंटलीजेंट हैं। हाई स्कूल के पूरे बोर्ड में सातवाँ नंबर आया था उनका। और एक तू है, तू...निरा गावदू!”

“तेरे आशीष भैया तो साल भर में इंजीनियर बनकर आ जाएँगे गोलू, और तू...? सड़क पर झाड़ू देता नजर आएगा!”

ये बातें जब-जब गोलू के कानों में पड़तीं, उसे लगता, किसी ने उसके कान में गरम, उबलता तेल डाल दिया है।

पर न मम्मी ये बातें कहते हुए कभी सोचतीं, न पापा और न सुजाता दीदी। और कभी-कभी तो ये बातें आशीष भैया के सामने भी कही जाती थीं। तब आशीष भैया के चेहरे पर अपूर्व सुख-शांति छा जाती। अपनी प्रशंसा सुनकर चेहरा खुशी के मारे लाल हो जाता। गोलू के दिन में क्या बीत रही होगी, इसका उन्होंने कभी ही नहीं किया। कभी आगे बढ़कर नहीं कहा कि ऐसी बात मत कहो, इससे गोलू के दिल पर चोट पहुँचेगी!

गोलू ऐसे क्षणों में एकदम चुप्पी साधकर बैठ जाता। जैसे उसे कुछ सुनाई न दे रहा हो। तो भी ‘आशीष भैया...आशीष भैया!’ का यह जो राग था, यह हर क्षण बढ़ता हुआ, चारों ओर से भूचाल की तरह उसे लपेट लेता।

और ऐसे भी क्षणों में एक बार वह जोर से चिल्ला पड़ा था, “मम्मी, बंद करो यह राग। आशीष भैया जो हैं सो रहें। पर मुझे आशीष भैया जैसा नहीं बनना, नहीं बनना...नहीं बनना।”

सुनकर मम्मी का चेहरा फक पड़ गया था। और सुजाता दीदी चौंककर गोलू की ओर ऐसे देखने लगी थीं, मानो उसे कोई दौरा पड़ गया है।

*

जिस दिन गोलू घर से भागा था, उस दिन यों तो कोई खास घटना नहीं घटी थी। बस, पापा ने उसे एक चाँटा मारा था और गुस्से से कहा था, “देख गोलू, तेरी वजह से मेरी कितनी किरकिरी हो रही है। अब मुझे तेरे गणित के मैथ्यू सर से मिलने जाना पड़ेगा। इतना नालायक तू कहाँ से आ गया हमारे घर में? मुझे तो शर्म आ रही है। एक तेरा आशीष भैया है कि सारे टीचर उसे प्यार से याद करते हैं और एक तू है, तू...नालायक कहीं का!” उनका चेहरा हिकारत से भरा हुआ था।

हुआ यह था कि उसी दिन गोलू को छमाही इम्तिहान की रिपोर्ट मिली थी। रिपोर्ट कार्ड में गणित के उसके नंबरों पर बड़ा-सा लाल गोला लगा हुआ था। नंबर थे भी बहुत कम...सौ में से केवल इकत्तीस। मैथ्यू सर सिर्फ मैथ्स के ही टीचर नहीं थे, गोलू के तो क्लास टीचर भी थे। गुस्से में कड़कते हुए बोले थे, “कल अपने पापा को बुलाकर लाओ। नहीं तो मैं क्लास में दिन भर बेंच पर खड़ा रखूँगा!”

गोलू की हालत यह कि काटो तो खून नहीं। किसी तरह डरते-डरते घर आया। मम्मी को सारी बात बताई। रात में डरते-डरते पापा के आगे रिपोर्ट कार्ड रखा। सोचा था कि पापा कुछ कहेंगे तो उनसे ‘प्रॉमिस’ करूँगा कि आगे से गणित में ज्यादा मेहनत करके, बढ़िया नंबर लाकर दिखा दूँगा।

पापा यों तो सब समझते हैं, गोलू को प्यार भी करते हैं, पर उस दिन जाने क्या हुआ कि वे बिना कुछ सुने बरस पड़े, “ईडियट...नालायक कहीं का! एक तू है और एक तेरे आशीष भैया। उसने कितना मेरा सिर ऊँचा किया और तूने...डुबा दिया! घोर नालायक, कहाँ से आ गया तू हमारे घर में!”

पापा के चाँटे से ज्यादा पापा के इन शब्दों की मार ने गोलू को बौखला दिया। चेहरा लाल सुर्ख हो गया गोलू का।

यों तो गोलू का गुस्सा अधिक देर तक नहीं रहता था, पर आज...! जाने क्या बात थी, गोलू खुद पर काबू ही नहीं कर पा रहा था। जैसे अंदर-ही-अंदर किसी ने उसे छील दिया हो।

वह गुमसुम हो गया।

चुपचाप उठा और गणित की किताब खोलकर बैठ गया! पर किताब में आज पहली बार उसे शब्द और अक्षर नहीं दिखाई पड़ रहे थे। वे मानो कीड़े-मकोड़े और जहरीले साँपों में बदल गए थे और उसे डसने लगे थे। हर शब्द, हर अक्षर के पीछे बस एक ही आवाज सुनाई देती थी,

“गोलू...गोलू...भाग...भाग...!!”

कभी-कभी वह आवाज चेहरा बदलकर किसी दोस्त की तरह उसके कँधों पर हाथ रखकर कहती, “गोलू, ये दुनिया लिए नहीं है। तू इससे दूर चला जा। यह दुनिया तो आशीष भैया की है। सुजाता दीदी की है, मम्मी-पापा की है! अपने लिए दुनिया तुझे खुद बनानी है गोलू, इसलिए भाग...भाग...भाग!!”

लेकिन भागकर वह जाएगा कहाँ? करेगा क्या...? गोलू को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह चाहकर भी कुछ सोच नहीं पा रहा था। उसे तो बस इतना ही पता था कि उसे जल्दी-से-जल्दी घर से भाग जाना है! भागकर ऐसी दुनिया में चले जाना है, जहाँ गणित का डर न हो!

उफ, एक सींग वाले दानव ने जिस तरह कई रातों तक सपने में उसका पीछा किया, गोलू का एकाएक उसकी याद हो आई और वह बुरी तरह सिहर उठा।

उसे लग रहा था, वह एक सींग वाला जानवर तो अब भी उसके पीछे दौड़ रहा है, दौड़ रहा है...दौड़ रहा है! और उससे बचने के लिए एक ही रास्ता उसके पास है कि वह घर से भाग जाए।

पर वह भागेगा कैसे?

घर वालों को मालूम पड़ गया तो? उसकी सारी योजना बीच में लटक जाएगी। और यह कहीं अधिक शर्म और परेशानी वाली होगा।

गोलू ने तय किया कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगा। कल ठीक समय स्कूल के लिए निकलेगा। फिर स्कूल न जाकर अपने अलग रास्ते पर चल देगा। वह रास्ता जो उसे घर से दूर, बहुत दूर ले जाएगा! और वह घर में तभी लौटेगा, जब कुछ बन जाएगा।

लेकिन बस्ता...! बस्ते का क्या करेगा गोलू? और फिर बस्ता देखकर किसी ने झट पहचान लिया तो? यह तो कोई भी कहेगा कि बेटा, कहीं तुम स्कूल से भागकर तो नहीं आए?...बस्ता होगा तो सौ मुसीबतें होंगी। इसलिए बस्ते को कहीं छोड़ा जाए!...

हाँ, यह तो ठीक है! गोलू ने मन ही मन अपने आपसे कहा।

तो?...तो फिर एक तरीका यही बच रहता है कि गोलू बस्ता लेकर घर से निकले और बस्ता स्कूल में ही छोड़ दे। इंटरवल के समय स्कूल से निकलकर बाहर आए...और फिर लौटकर अंदर न जाए।

“यों अब इस स्कूल को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा। अब यहाँ लौटकर नहीं आऊँगा। नहीं, कभी नहीं...!”

खुद से बातें करते-करते गोलू के चेहरे पर एक चमक आ गई। खुद को ही जैसे शाबाशी देता हुआ बोला, “हाँ ठीक है, यही ठीक है...बिल्कुल ठीक!”

और फिर कहानी आगे चल पड़ी। चली तो चलती ही गई और चलते-चलते वहाँ पहुँची कि जहाँ...? लेकिन ठहरो, कुछ छूट गया है। पहले उसकी बात करें।

4

मगर गोलू है कौन

असल में हमने गोलू के मन की उथल-पुथल और एक सींग वाले पशु को लेकर उसके डर के बारे में इतना सब तो बता दिया, पर...बीच में कहीं कुछ छूट रहा है।

गोलू है कौन...? कहाँ रहता है? उसके मम्मी-पापा, आशीष भैया और सुजाता दीदी कैसी हैं? थोड़ा उसके घर-परिवार का हालचाल भी तो हमें लिखना चाहिए था। पर याद ही नहीं रहा।

तो भई, अब यहाँ लिख देते हैं। गोलू का जन्म एक छोटे से कस्बे मक्खनपुर में हुआ था। वह पैदा हुआ था 1 मई, सन् 1988 को। यानी जब वह भागा, तो उसकी उम्र कोई चौदह साल की थी।...लेकिन भई, वह मक्खनपुर कहाँ है जहाँ गोलू का जन्म हुआ था? तो इसके बारे में इतना बताए देते हें कि यह वही मक्खनपुर है, जो फिरोजाबाद का नजदीकी कस्बा है, फिरोजाबाद और शिकोहाबाद के बीच स्थित है।

गोलू का मकान जिसे गोलू के पापा ने उसके जन्म से भी कोई बीस बरस पहले बनवाया था, मक्खनपुर की रहट गली में है। पहले तो यह गली कच्ची ही थी, पर अभी दस-बारह बर्षों से इस पर देखते ही देखते ईंटों का खड़ंजा पड़ गया है। आसपास की सड़क भी कुछ ठीक-ठाक हो गई है जिस पर रोज शाम को बेनागा गोलू की साइकिल खूब मजे में दौड़ती है।

अब गोलू के स्कूल की बात करें। गोलू मक्खनपुर के प्रसिद्ध अंग्रेजी स्कूल लखमादेई मॉडल स्कूल में कक्षा नौ का छात्र है। गोलू का स्कूल उसके घर से कोई डेढ़-दो किलोमीटर दूर पड़ता है और अब तो स्कूल के रिक्शे भी चलने लगे हैं। पर गोलू को पैदल स्कूल जाना ही पसंद है। पैदल चलते हुए मजे में आसपास की चीजें देखते हुए, गोलू लगातार कुछ-न-कुछ सोचता जाता है। ओर कुछ नहीं तो अपनी पढ़ी हुई किताबों के बारे में ही सही। यह मजा भला रिक्शा या बस से स्कूल जाने में कहाँ!

अब मक्खनपुर के बहुत से लड़के फिरोजाबाद जाकर पढ़ने लगे हैं। फिरोजाबाद ज्यादा दूर भी नहीं है और स्कूल की बसें मक्खनपुर तक आ जाती हैं, लेकिन गोलू के पापा देवकीनंदन जी को यह पसंद नहीं है। देवकीनंदन मक्खनपुर के मशहूर गल्ला व्यापारी हैं और उनकी गिनती ऐसे व्यापारियों में होती हे जो पुरानी लीक पर चलते हैं और ईमानदारी से व्यापार करते हैं। पैसा उनके पास है, लेकिन फिजूलखर्ची के लिए बिल्कुल नहीं। जब गोलू के फिरोजाबाद जाकर पढ़ने की बात आई थी, तो उन्होंने साफ कहा कि, “अरे भई, यह तो समय और पैसे की बरबादी है!...और फिर हमारा बेटा आशीष यहीं मक्खनपुर में पढ़कर इंजीनियरी की लाइन में जा सकता है, तो गोलू डॉक्टर क्यों नहीं बन सकता!”

खुद गोलू को लखमादेई मॉडल स्कूल कुछ बुरा नहीं लगता। पर ये जो गणित के मैथ्यू सर हैं न, थोड़े खुर्राट हैं...सैल्फिश भी! ट्यूशन की कुछ ऐसी सनक है कि बच्चे चाहे परेशान हों, उनकी जिंदगी और कैरियर बरबाद हो, लेकिन मैथ्यू सर को हल हाल में ट्यूशन मिलने चाहिए। इसी चीज के लिए इतने बखेड़े वे करते हैं कि राम बचाए!

अभी उस दिन पिंटू ही बोल रहा था कि अपने टट्यूशन वाले बच्चों से मैथ्यू सर कह रहे थे, “यहाँ अच्छी तरह समझ लो, स्कूल में तो मैं यह सब बताने से रहा। वहाँ तो मैं गाड़ी ऐसे तेज भगाऊँगा कि...”

सुनकर गोलू को इतना भारी दुख हुआ था कि कुछ न पूछो। उसे लगा था, ये मैथ्यू सर जैसे मास्टर भी क्या अध्यापक कहलाने लायक हैं? ये तो व्यापारियों से भी गए बीते हैं—एकदम बेईमान।...पैसे के लालची!

गोलू काफी देर तक सोचता रहा था। क्या वह घर पर कहे? अगर उसके पापा स्कूल के प्रिंसिपल के पास जाकर यह बात कह दें, तो जरूर उनकी अक्ल ठिकान आ जाएगी।

पर क्या पापा कहेंगे यह बात? वे तो झट गोलू से ही कह देंगे कि देख गोलू, जब आशीष बगैर ट्यूशन के ही पढ़कर फर्स्ट आ सकता है और इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में उसका दाखिला हो सकता है, तो तू क्यों नहीं आप-से-आप पढ़ सकता? मैथ्यू सर नहीं पढ़ाते तो छोड़ उन्हें। गणित की किताब तो तेरे पास है, खुद ही समझ-समझकर हल कर ले सवाल!

सोचकर गोलू निराश हो जाता। क्या सचमुच कोई नहीं है जो उसकी समस्या को समझ सके?...कोई नहीं! कोई भी नहीं?

*

ओह! फिर जरा-सी गड़बड़ हो गई। हम तो गोलू का पारिवारिक परिचय देने जा रहे थे, मगर भटके तो भटकते चले गए।

चलिए, अब सीधे-सीधे ही बता देते हैं। गोलू के पापा देवकीनंदन आर्य हैं, जिनका कई पीढ़ियों से मक्खनपुर में ही अनाज का पुश्तैनी कारोबार चला आता है। गोलू की माँ कमला देवी हाईस्कूल तक पढ़ी हैं लेकिन बड़ी समझदार, सुरुचिसंपन्न महिला हैं और गोलू को बहुत प्यार करती हैं। गोलू की बड़ी दीदी कुसुम की शादी आगरा के रावतपाड़ा मोहल्ले में हुई है। जब शादी हुई थी तो गोलू छह-सात बरस का था, इसलिए इस शादी की उसे बड़ी अच्छी तरह याद है। गोलू के जीजा जी नवीनचंद्र का रावतपाड़े में ही स्टेशनरी का काम है। गोलू की छोटी दीदी सुजाता ने हिंदी में एम.ए. किया है और अब आगरा यूनिवर्सिटी से रिसर्च कर रही है। गोलू के आशीष भैया की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बारे में तो हम बता ही चुके हैं। इतना और बताना बाकी है कि ये सुजाता से एक-डेढ़ साल छोटे हैं और गोलू से कोई छह-सात साल बड़े हैं।

यों तो घर में सभी गोलू से प्यार करते हैं और उसे किसी चीज की कोई कमी नहीं। पर गोलू आशीष भैया की तरह नहीं है। यही शायद उसका सबसे बड़ा कसूर है।

पर ऐसा तो नहीं कि गोलू में कोई खासियत है ही नहीं। आखिर हर आदमी में अपनी कोई न कोई खासियत तो होती ही है, उसी को देखना चाहिए। भला कोई आदमी किसी दूसरे का पिछलग्गू या नकलची क्यों बने? ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। अब गोलू को ही लो। उसे इसी साल जिले के सभी स्कूलों की कहानी प्रतियोगिता में दूसरा इनाम मिला। वाद-विवाद और कविता प्रतियोगिता में तो हर साल दो-तीन इनाम लेकर आता ही है। मन्नू अंकल जब भी मिलते हैं, कहते हैं, “गोलू, तेरा कविता सुनाने का ढंग नायाब है!” क्या ये सब बेकार चीजें हैं? क्या जरूरी है कि हर आदमी खाली किताबी कीड़ा ही हो? आखिर हर आदमी एक जैसा तो नहीं हो सकता न!

कोई जरूरी तो नहीं कि आशीष भैया भी वैसी कहानी बना लें, जैसी गोलू ने भीख माँगने वाले बसई बाबा पर लिखी थी। जाने कब बसई बाबा ने खुद आँख में आँसू भरकर उसे अपनी पूरी कहानी सुनाई थी। सुनकर गोलू रो दिया था। उसने बसई बाबा की जितनी मदद हो सकी, की। फिर कहा, “बाबा, मैं तुम पर एक कहानी लिखूँगा।” गोलू ने वह कहानी लिखी। बड़ी मार्मिक कहानी। जो भी सुनता, उसकी आँख में आँसू आ जाते। उसी कहानी को तो जिले के सभी स्कूलों में दूसरा इनाम मिला। क्या यह मजाक है!...कोई और तो लिखकर दिखाए। मन्नू अंकल ने इस कहानी की इतनी तारीफ की थी, इतनी कि मारे खुशी के गोलू की आँखों में आँसू छलछला आए।

‘कुछ और नहीं, तो मैं बड़ा होकर लेखक या पत्रकार ही बन जाऊँगा।’ गोलू सोचता, ‘कोई जरूरी तो नहीं कि हर किसी को साइंस या गणित ही आए। क्या दुनिया का मतलब सिर्फ गणित ही है. कुछ और नहीं...?’

तो यह था सारा चक्कर, जो गोलू के सिर के चारों ओर गोल-गोल घूम रहा था। उसका मन होता था, वह सारा दिन चित्र बनाए। उसका मन होता था, वह सारा दिन अच्छी-अच्छी कहानियों की किताबें पढ़ता रहे। उसका मन होता था कि वह लीक से हटब्कर कोई काम करे और सिर्फ कोर्स की किताबें न पढ़े। वह सपनों की दुनिया में दूर तक घूमकर आना चाहता था!

मगर वह रोज-रोज देखता था कि उसकी इच्छाओं का तो कोई मतलब ही नहीं। उसे तो वही करना है, जो सब करते हैं। तब दुख के मारे उसकी आँख में आँसू आ जाते।

यही चक्कर पर चक्कर आखिर इतना बड़ा घनचक्कर हो गया कि गोलू एक चक्रव्यूह में घिर गया। उसने इस चक्रव्यूह से लड़ने की लाख कोशिशें कीं, नहीं लड़ पाया। तो आखिर वह सब कुछ छोड़-छाड़कर भाग गया।

नहीं, भागा नहीं, अभी भागने की तैयारी में है।

5

एक छोटी-सी चिट्ठी

बहरहाल, अगला दिन। एक दुखभरे निर्णय का दिन।

गोलू ने बस्ते में अपनी रखीं तो उसमें कॉपी के पन्ने पर लिखी एक छोटी-सी चिट्ठी भी सरका दी। वह चिट्ठी उसने आज सुबह ही लिखी थी। उस चिट्ठी में लिखा था :

‘आदरणीय मम्मी-पापा,

चरण स्पर्श।

मैं जा रहा हूँ। कहाँ? खुद मुझे पता नहीं। कुछ बनकर लौटूँगा, ताकि आपको इस नालायक बेटे पर शर्म न आए। दोनों बड़ी दीदियों और आशीष भैया को नमस्ते।

—आपका गोलू’

कॉपी के ही एक पन्ने को फाड़कर उसने जल्दी-जल्दी में ये दो-चार सतरें लिख ली थीं। उस चिट्ठी को बस्ते में डालने से पहले उसने एक बार फिर नजर डाली। उसका मन भारी-भारी सा हो गया था, जैसे रुलाई फूटने को हो। चेहरा लाल, एकदम लाल हो गया। उसने मुश्किल से अपने आप पर काबू पाया और चिट्ठी को बैग के अंदर वाले पॉकेट में सरका दिया।

स्कूल जाते समय गोलू का चेहरा इतना उदास था कि जैसे महीनों से बीमार हो। बार-बार उसके मन में एक ही बात आ रही थी। अब यह घर छूटने को है। मम्मी-पापा छूटने को हैं...कुसुम दीदी, सुजाता दीदी, आशीष भैया, सभी! हो सकता है कि अब लौटकर कभी किसी से मिलना न हो। पता नहीं, मेरा क्या बनेगा? पता नहीं, जिऊँगा भी या नहीं?

एक बार तो उसके मन में यह भी आया कि वह बस्ते से निकालकर उस चिट्ठी को फाड़ दे। बस उस चिट्ठी को फाड़ते ही उसकी सारी समस्या हल हो जाएगी। जहाँ तक गणित की बात है, वह सब कुछ छोड़-छाड़कर दो महीने भी कसकर पढ़ाई कर लेगा, तो सारी समस्या सुलझ जाएगी। लेकिन...जो कदम आगे बढ़ चुके हैं, वे अब पीछे कैसे लौटें?

अब तो कुछ बनना ही है। बनकर दिखाना है, जिऊँ चाहे मरूँ! गोलू मन ही मन अपने आपको समझा रहा था।

“गोलू, क्या बात है? आज तू कुछ चुप-चुप सा है!” गोलू के बैग में लंच रखते हुए मम्मी ने एकाएक पूछ लिया।

“नहीं, मम्मी!” कहते-कहते गोलू ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। उसकी आँखें गीली थीं। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पाया था।

स्कूल जाकर अपनी बेंच पर बैठा गोलू। तो भी उसकी अजीब-सी हालत थी। आज उसे सब कुछ नया और अजीब-सा लग रहा था। साथ पढ़ने वाले लड़कों के चेहरे भी।

गोलू का मन कह रहा था, ‘आसपास जो कुछ है, उसे अच्छी तरह देख ले गोलू। कल तो यह सब कुछ छूट जाने वाला है।’

*

आधी छुट्टी की घंटी बजी और इसके साथ ही पूरे स्कूल में चहल-पहल छा गई। हर कोई इधर से उधर दौड़ रहा है। जल्दी-जल्दी खाना खत्म करके सबको खेलने के लिए मैदान में जाने की पड़ी है।

एक-दो लड़के क्लास में बैठकर होमवर्क भी निबटा रहे हैं या फिर किसी और की कॉपी से नकल टीपी जा रही है।

गोलू ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। उसके भीतर धुक-धुक, धुक-धुक बढ़ती जा रही है।

उसे याद आया, बैग में मम्मी का रखा हुआ लंच है। क्या मैं इसे खा लूँ या नहीं? उसने जैसे अपने आपसे ही सवाल किया।

‘नहीं, यह लंच मुझसे न खाया जाएगा। जब सब कुछ छूट रहा है तो यह भी सही!’ गोलू के भीतर से जैसे किसी जिद्दी बच्चे ने कहा।

गोलू की जिद अब बढ़ती जा रही है और धुकधुकी भी। स्कूल से बाहर आकर उसने रिक्शा लिया और बस अड्डे की तरफ चल दिया।

बस अड्डे पहुँचकर वह थोड़ी देर इधर-उधर खड़ा ताड़ता रहा और जैसे ही एक बस चलने को हुई। वह चुपके से उस पर सवार हो गया।

जैसे ही वह बस में चढ़ा और सीट ढूँढ़ने के लिए पीछे निगाहें घुमाईं, उसे सामने गोवर्धन चाचा दिखाई दिए। गोलू के पापा के पक्के दोस्त। गोवर्धन चाचा फिरोजाबाद में नौकरी करते थे और कभी-कभी छुट्टी के दिन घर भी आ जाया करते थे।

“क्यों गोलू, कहाँ...?” गोवर्धन चाचा की हैरान आँखें पूछ रही थीं।

“चाचा जी, फिरोजाबाद से साइंस की किताब लानी है।” गोलू ने जवाब दिया।

“अकेले...?”

“हाँ।”

“मुझसे कह दिया होता बेटा!” गोवर्धन चाचा ने लाड़ से कहा।

“कोई बात नहीं चाचा जी। अभी लेकर आ जाऊँगा, जैन बुक डिपो से।”

फिर गोवर्धन चाचा ने कुछ और नहीं कहा। पर लगता था, उन्हें गोलू की बात कुछ अटपटी लगी है।

गोवर्धन चाचा ने गोलू से दो-एक बातें और पूछीं। उसने संक्षिप्त-से जवाब दे दिए और फिरोजाबाद आने से पहले ही बस के गेट के पास आकर खड़ा हो गया।

6

दिल्ली की तरफ कौन-सी गाड़ी जाएगी अंकल?

फिरोजाबाद बस अड्डे पर उतरते ही गोलू को पहला जरूरी काम लगा, गोवर्धन चाचा की नजरों से बचना। ताकि वे यह न पूछ लें कि ‘गोलू बेटे किधर जाना है, कौन-सी किताब लानी है? आओ, मैं खुद चलकर दिलवा दूँ, तुम्हें तो ठग लेगा!’

गोलू तेजी से पानी पीने के बहाने प्याऊ की ओर चला गया और उसके बाद एक बस के पीछे खड़ा हो गया। तभी उसका पैर पानी से भरे एक गड्ढे में पड़ा। छपाक...! सारी पैंट गीली हो गई। जल्दबाजी में उसका ध्यान इस गड्ढे पर गया ही नहीं था। यह तो अच्छा हुआ कि मोच नहीं आई, वरना आफत हो जाती।

वह एक हाथ से उठाकर पैंट को हलके से झाड़ने लगा। जब उसे पूरा यकीन हो गया कि गोवर्धन चाचा बस अड्डे से बाहर चले गए हैं, तो वह चुपके से बाहर आया और पैदल ही रेलवे स्टेशन की राह पर चल पड़ा।

स्टेशन पर आकर उसने एक कोने में खड़े होकर जेब में पड़े पैसे निकालकर गिने। कोई डेढ़-सौ रुपए। उसकी गुल्लक में कुल इतने ही पैसे थे। पिछले कई महीनों के जेब खर्च की बचत।

“क्या मैं जाकर दिल्ली का टिकट ले लूँ?” गोलू ने सोचा।

फिर उसके मन में आया, टिकट लिया तो सारे पैसे उसी में खर्च हो जाएँगे। फिर खाऊँगा क्या? दिल्ली में काम मिलने में कुछ समय लग सकता है, तब...?

‘ठीक है, बिना टिकट यात्रा ही सही।’

‘लेकिन...अगर टिकट चेकर आ गया तो?’  गोलू के भीतर खुदर-बुदर थी।

‘देखा जाएगा...!’

गोलू ने किसी तरह मन को समझाया और तेजी से चलकर रेलवे प्लेटफार्म पर आ गया। वहाँ उसने एक यात्री से पूछा, “दिल्ली की तरफ कौन सी गाड़ी जाएगी, अंकल?”

उसने कहा, “अरे, यह सामने खड़ी तो है। इसमें बैठ जाओ।”

गोलू को भीतर एक कँपकँपी-सी महसूस हुई। वह डरते-डरते गाड़ी में चढ़ा और किनारे वाली सीट पर बैठ गया—खिड़की के एकदम पास। दिल तेज से धुक-धुक कर रहा था।

उस सीट पर किसी और आदमी का सामान रखा था, पर उसने हड़बड़ी में यह देखा ही नहीं।

“अरे, अरे...तुम!” चौड़े चेहरे वाले उस नाटे आदमी ने दूर से घूरकर कहा, “मेरी सीट पर तुम कैसे?”

गोलू डरकर एक ओर खिसक गया।

थोड़ी देर में गाड़ी चल दी, तो गोलू को चैन पड़ा। नहीं तो उसे लग रहा था, अभी-अभी कोई गाड़ी में चढ़ेगा और टिकट पूछता हुआ हाथ पकड़कर उसे गाड़ी से नीचे उतार देगा।

पर नहीं, अब तो गाड़ी चल दी है।

और अब पेड़...! कतार-दर-कतार पेड़ तेजी से भागने लगे थे, जैसे वे गाड़ी पर चलने पर हमेशा खुश हो-होकर छुआछाई खेलते हुए भागते हैं। और साथ ही गोलू का मन भी उछल रहा था। एक साथ भय, सिहरन, आनंद...! गोलू के मन की अजीब हालत थी।

फिर इस सबको काटती हुई दुख की एक तेज लहर उठी और गोलू अंदर ही अंदर विकल हो उठा। आज पहला दिन होगा, जब अँधेरा घिरने पर वह घर में नहीं होगा। वरना तो वह कहीं भी हो, अँधेरा घिरते ही घर पहुँचने के लिए व्याकुल हो उठता था।

ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँककर गोलू ने देखा। आसपास हलके अँधेरे की एक चादर-सी नजर आने लगी थी।

उसने चोर निगाहों से पास बैठे आदमी की घड़ी की ओर देखा।...साढ़े छह। ‘अरे, साढ़े छह बजते ही बिल्कुल रात जैसा दृश्य लगने लगा।’ गोलू ने सोचा।

अक्तूबर का महीना। सर्दियों की शुरुआत हो चुकी थी। कुछ देर बाद गोलू को हवा की हलकी ठंडक से कुछ कँपकँपी-सी महसूस होने लगी।...

गोलू को लगा, कुछ गलती हो गई। वरना एकाध मोटा कपड़ा तो साथ ले ही लेना चाहिए था। और उसके पास तो बदलने के लिए कपड़े तक नहीं थे। एक चादर या छोटा-मोटा तौलिया तक नहीं। कैसे काम चलेगा?

खैर, देखा जाएगा। जब घर से निकल ही आया हूँ तो इन छोटी-छोटी चीजों की क्या चिंता? उसने जैसे अपने आप से कहा।

7

कहाँ जाओगे बेटा?

साथ वाली सीट पर एक परिवार था। खुशमिजाज से दिखते पति-पत्नी। सात-आठ बरस का एक छोटा बेटा। एक छोटी सी चंचल बेटी, कोई तीन-साढ़े तीन बरस की। दोनों बच्चे खूब मगन मन बातें करते जा रहे थे। कभी-कभी आपस में झगड़ भी पड़ते, फिर खिल-खिल हँस पड़ते। उनके मम्मी-पापा भी उनकीह बातें सुन-सुनकर खुश हो रहे थे।

खुश तो गोलू भी बहुत हो रहा था, पर अंदर एक टीस, एक दर्द की लकीर सी उठती। उसे अपने मम्मी-पापा की बहुत-बहुत याद आ रही थी। बार-बार एक भय उसे सिहरा देता—पता नहीं, अब मम्मी-पापा से फिर कभी मिलना हो या नहीं?

अँधेरा घिरते ही उन लोगों ने खाने का डिब्बा खोल लिया था। आलू की सब्जी, पूरियाँ और आम का अचार।...उन बच्चों की मम्मी ने पहले अखबार के टुकड़ों पर रखकर चार-चार पूरियाँ और सब्जी बच्चों को दीं। फिर गोलू से कहा, “तुम भी खा लो बेटा!”

“नहीं आंटी, भूख नहीं है।” गोलू के मुँह से निकला। पर उन लोगों को खाना खाते देख, उसकी भूख एकाएक चमक गई थी।

अब पता नहीं, घर का खाना कब नसीब होगा? सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आई थीं।

‘यह क्या हो रहा है मुझे? बार-बार आँसू क्यों उमड़ आते हैं आँखों में?’ गोलू अपने आप से पूछ रहा था।

आज इस समय घर होता तो मम्मी कितने प्यार से उसे गरम-गरम रोटियाँ बनाकर खिला रही होतीं!

मम्मी तो बहुत प्यार करती हैं उसे—बहुत! उसका जरा भी दुख नहीं देख सकतीं। अभी कुछ दिन पहले उसे बुखार आया था, तो मम्मी रात हो या दिन उसके पास से हिलती तक नहीं थीं। कभी उसे मौसम्मी का जूस पिला रही हैं, मनुहार कर-करके अंगूर या अनार खिला रही हैं, तो कभी सिर दबाने लग जातीं।...या फिर बातें कर करके उसका जी बहलातीं। बार-बार उसकी बलैया लेतीं, “अरे बेटा, तेरा तो चेहरा चार दिनों में कुम्हला गया है, आँखें बुझी-बुझी लगती हैं। अब जल्दी से ठीक हो, तो खिला-पिला करके पहले जैसा तगड़ा बना दूँगी!”

उफ, मम्मी पर न जाने क्या बीत रही होगी? क्यों मैंने यह बेवकूफी भरा कदम उठा लिया?...अब पता नहीं क्या होगा, क्या नहीं? गोलू रह-रहकर पछता रहा था।

“लो बेटा, ले लो...!” सामने वाली स्त्री ने अब जिद करके उसके हाथ में भी चार पूड़ियाँ रख दी हैं। साथ में आलू की सब्जी और आम का अचार। गोलू का प्रिय नाश्ता।

गोलू को लगा, मम्मी ने ही चुपचाप इस स्त्री को उसकी मदद करने भेजा है, ताकि उसका बेटा भूखा न रहे।

वह इस बार इनकार नहीं कर पाया। सच तो यह है कि उसवे बहुत जोरों की भूख लग रही थी। चुपचाप सिर झुकाकर वह खाने लगता है।

“कहाँ जाओगे बेटा?” अब इस दयालु स्त्री ने पूछा।

“दिल्ली...!”

“वहाँ कोई रिश्तेदार है क्या बेटा?”

“हाँ आंटी, मेरी मौसी हैं।” गोलू ने झूठ बोला। वह नहीं चाहता था कि किसी को उस पर खामखा शक हो।

“दिल्ली में कहाँ रहती हैं तुम्हारी मौसी, बेटा...?”

“जनकपुरी।” गोलू ने साफ झूठ बोला और डर गया।

अगर इन्हें पता चल गया कि वह झूठ बोल रहा है, तो कैसा लगेगा? और अगर आगे काई और सवाल पूछा तो झूठ यकीनन खुल जाएगा। कुछ और नहीं, अगर इतना ही पूछ लिया कि जनकपुरी में तुम्हें कहाँ जाना है बेटा, हम भी उधर ही जा रहे हैं!...तब?

गोलू का चेहरा देखते ही देखते पीला पड़ गया था। बड़ी मुश्किल से अपने अंदर के भय पर वह काबू पा सका था।

“मौसी के घर अकेले ही जा रहे हो बेटा?” अब उस स्त्री ने पूछा है। यों ही। स्नेहवश।

“हाँ, आंटी। मैं तो अकसर चला जाता हूँ। मुझे डर नहीं लगता।” गोलू बोला।

एक क्षण के लिए वह स्त्री चुप रही। फिर कुछ सोचती हुई बोली, “हमें मोतीनगर जाना है। अगर कहो तो तुम्हें जनकपुरी पहुँचा देंगे। या चाहो तो रात हमारे ही घर रुक लेना। सुबह चले जाना। ये किसी आदमी को भेज देंगे तुम्हारे साथ...!”

“नहीं आंटी, आप परेशान न हों, मैं चला जाऊँगा।” गोलू ने अटकते हुए स्वर में कहा।

अंदर-अंदर गोलू को उस स्त्री की ममता देखकर अच्छा लग रहा था। पर बाहर से वह अपने को सख्त बनाए हुए था।

“क्या कोई जनकपुरी से तुम्हें लेने आएगा बेटा?” उस स्त्री की चिंता छिप नहीं पा रही थी।

“नहीं आंटी, मुझे पता है। ऑटो में बैठकर आराम से पहुँच जाऊँगा।” गोलू ने उन्हें दिलासा दिया, तब उन्हें कुछ शांति पड़ी।

इधर गोलू सोच रहा था, ‘ये आंटी हैं तो बहुत दयालु! क्या मैं इन्हें सब कुछ सच-सच बता दूँ? ये जरूर मेरी कुछ मदद कर देंगी!’

फिर लगा, यह सब बताकर कहीं फंदे में न फँस जाऊँ? तब तो ये जरूर मेरे मम्मी-पापा को यहीं बुला लेंगी और मुझे वापस घर लौटना पड़ेगा।

‘चलो, ठीक है! वैसे जनकपुरी वाला किस्सा भी ठीक रहा!’

‘और मोतीनगर लगता है, जनकपुरी के पास ही है। तभी तो ये आंटी कह रही थीं कि...’

‘उफ, बड़ी गलती हो गई! दिल्ली के लिए चले तो गोलू यार, दिल्ली का एक नक्शा तो साथ रखना ही चाहिए था न!’

‘पर इतना होश ही कहाँ था? कल तक क्या पता था कि दिल्ली आना पड़ेगा। सो भी यों भागकर...सभी से मुँह छिपाकर!’ सोचकर गोलू फिर उदास हो गया।

उसने चुपके से फिर साथ वाले यात्री की घड़ी पर निगाह डाली। रात के आठ बजे थे।

‘अब तो घर के सब लोग खूब ढुँढ़ाई करके वापस आ गए होंगे!’ गोलू ने सोचा।

‘क्या कह रहे होंगे वे मेरे बारे में...?’ गोलू ने अंदाजा लगाने की कोशिश की।

‘जरूर सबके सब मिलकर मेरी बुराई कर रहे होंगे। कह रहे होंगे, नालायक लड़का था, उससे हमें यही उम्मीद थी। बस, एक माँ रो रही होंगी। या फिर सुजाता दीदी...!’

हो सकता है, मन्नू अंकल को भी अब तक पता चल गया हो। उन्हें कितना धक्का पहुँचेगा! उन्हें कितनी ज्यादा उम्मीदें थीं मुझसे। पीठ थपथपाकर कहा करते थे, ‘गोलू उर्फ गौरवकुमार! तुम मुझसे लिखवाकर ले लो, एक दिन तुम जरूर बड़े आदमी बनोगे!’ उफ! मैंने कुछ और नहीं, तो मन्नू अंकल की उस भावना का ही खयाल किया होता!

और माँ, दीदी और मन्नू अंकल को याद करके फिर उसकी आँखें छलछला आईं।

*

दिल्ली...आने वाला है, दिल्ली रेलवे स्टेशन!

पुरानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन...

पूरे डिब्बे में हलचल है। हर कोई अपना सामान ठीक से पैक कर रहा है। जो थोड़ी देर पहले ऊँघ रहे थे, वे भी अब चेत गए हैं। सरककर इधर-उधर चले गए जूते, चप्पल ढूँढ़े जा रहे हैं। ऊपर से अटैचियाँ, बैग उतारकर सँभाले जा रहे हैं...धप-धप धम्म!...धप-धप धम्म!

अब सब सरककर गेट की ओर बढ़ रहे हैं।

गोलू के पास तो कोई सामान है नहीं। उसे कुछ भी नहीं सँभालना।

वह भी चुपचाप उतरने वाले यात्रियों की भीड़ में खड़ा हो गया। और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आते ही, भीड़ के साथ, भीड़ का हिस्सा बना, वह भी एक हलचल भरे विशालकाय रेलवे प्लेटफार्म पर उतर पड़ा।

सचमुच...विशालकाय प्लेटफॉर्म!

यहाँ सब ओर इतना शोर, इतनी हलचल, इतनी बत्तियों की जगर-मगर और इतनी ठसाठस भीड़ थी कि बहुत देर तक गोलू की समझ में ही नहीं आया कि वह आ  कहाँ गया है? और अगर आ ही गया है तो वह जाए कहाँ? करे क्या?

8

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं। गोलू कुछ-कुछ हक्का-बक्का सा, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाता-सा घूम रहा है।

उसका दिमाग जैसे ठीक-ठीक काम नहीं कर रहा।

इतना बड़ा स्टेशन। इतनी बत्तियाँ...इतनी जगर-मगर। इतनी भीड़-भाड़। देखकर गोलू भौचक्का सा सोच रहा है—यहाँ भला सोने की जगह कहाँ मिलेगी?...और सोऊँगा नहीं, तो कल काम ढूँढ़ने कैसे निकल पाऊँगा?

लेकिन धीरे-धीरे लोग कम होने लगे, तो एक बेंच पर उसे बैठने की जगह मिल गई। वह बैठे-बैठे ऊँघने लगा।

थोड़ी देर बाद बेंच खाली हो गई तो वह पैर फैलाकर लेट गया। उसे खासी ठंड लग रही थी। टाँगें कुछ-कुछ काँपने लगी थीं। एक चादर भी होती तो काम चल जाता। पर अब क्या करे गोलू?

अगर कोई यही पूछ ले कि मक्खनपुर से वह अकेला यहाँ क्यों चला आया है? उसके मम्मी-पापा कहाँ हैं? तब...? और अगर कोई आकर टिकट चेक करने लगे, तब तो आफत ही हो जाएगी न!

डर के मारे गोलू के भीतर एक सिहरन-सी पैदा हो गई थी। और इन्हीं ख्यालों में भटकते-भटकते न जाने कब, वह गहरी नींद सो गया।

बीच-बीच में सर्दी के मारे उसका पूरा शरीर काँप उठता था। तब वह नींद में ही और ज्यादा सिकुड़कर, एकदम गठरी बना-सा, खुद को ठंड से बचाने की जुगत में लग गया।

पहले पता होता तो घर से एक चादर ही ले आता। कुछ तो बचाव होता। थैले में एक-आध जरूरी सामान डालकर भी लाया जा सकता था। एक गिलास, अँगोछा या तौलिया...अगर कहीं नहाना हो, तो क्या करेगा वह?

रात भर गाड़ियों के आने-जाने की घोषणा होती रही।

सोते-सोते भी गोलू को सब सुनाई पड़ता रहा। और गाड़ियों के जो-जो नाम उसने सुने, उसे वह अपने चिर-परिचित भूगोल के ज्ञान में फिट करता रहा...कि अच्छा यह गाड़ी तमिलनाडु से आ रही है, यह कर्नाटक से, यह केरल से...!

और मजे की बात यह कि ये सारी की सारी गाड़ियों के नाम कुछ चमकदार टुकड़ों की तरह उसके सपनामें में आकर अजब-अजब तरह का खेल रचते रहे। कालिंदी...जनता...! अमृतसर...हावड़ा...! दादर...बरौनी...! देखते ही देखते ये चंचल, नटखट बच्चों में बदल गए और शुरू हो गई मजेदार आँख-मिचौनी! गोलू यह तक भूल गया कि वह जाग रहा है, या सपने में है...!

रात के बाद दिन। दिन के बाद रात...!

फिर दिन...फिर रात...फिर...?

हर दिन गोलू का एक ही काम था, टिकट खिड़की पर जाकर प्लेटफार्म टिकट खरीद लेना और सारे दिन यहाँ से वहाँ घूमते रहना। शाम होते ही किसी बेंच पर कब्जा कर लेता और रात होते-होते वहीं लुढ़क जाता। इस बीच उसने सिर्फ डबलरोटी से काम चलाया था और चाय पी थी। वह ज्यादा से ज्यादा पैसे बचाकर रखना चाहता था बुरे दिनों के लिए। एक उम्मीद भी थी, कोई न कोई भला यात्री उसे देखकर जरूर उसके मन की हालत समझ जाएगा और थोड़ा सहारा देगा। पर अभी तक उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं दी थी।

और तीसरे दिन तो सचमुच गोलू की हिम्मत टूट गई। अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा। दिन तो किसी न किसी तरह कट जाता, पर रात की सर्दी।...बाप रे बाप! ऐसे तो जान निकल जाएगी। जैसे भी हो, एक चादर तो खरीदनी ही पड़ेगी। पर उसके लिए पैसे कहाँ से लाए? कहाँ ढूँढ़े काम?

एक दिन चलते-चलते वह एक होटल के पास से निकला। मन में आया, कुछ और नहीं तो वह होटल में काम करके ही गुजारा चला सकता है।

वह छोटा-सा ढाबा-कम-होटल था। बाहर बोर्ड लगा था—कीमतीलाल का होटल। उसने एक बैरा-टाइप लड़के से पूछा, “क्यों भाई, मुझे यहाँ कुछ काम मिल सकता है?”

वह लड़का गौर से उसे ऊपर से नीचे तक देखता रहा। अजीब निगाहों से। फिर मालिक की ओर इशारा करके बोला, “इनसे बात कर लो।”

मालिक एक मोटा, काला आदमी था। बड़ी-बड़ी मूँछों वाला। दोनों हाथों में चाँदी के कड़े, अँगूठियाँ। उसने सफेद कुरता-पाजामा पहन रखा था। चेहरा जरूरत से ज्यादा बड़ा, नाक मोटी।

गोलू ने समझ लिया, यहीं आदमी कीमतीलाल होगा। उससे बात करते हुए जाने क्यों उसे कुछ झिझक भी हुई। कुछ हकलाते हुए सा बोला, “क्या मेरे लिए कुछ काम होगा आपके यहाँ?”

“क्या काम कर सकते हो तुम?” कीमतीलाल ने उसे घूरकर देखा।

“कोई भी, कुछ भी...!” गोलू की दीनता उसके स्वर में आ गई थी।

“जूठे बर्तन साफ कर सकते हो?” कीमतीलाल ने पूछा।

“हाँ।” कहते-कहते गोलू का स्वर रुआँसा हो गया।

“कितना पढ़े हो?”

“आठवीं तक।”

“ठीक है।...अभी तो काम नहीं है हमारे पास। बाद में आकर पूछ जाना।” कीमतीलाल ने कहा।

“कितने दिन बाद?” गोलू ने पूछा।

“कोई हफ्ते, दस दिन बाद।” कहकर कीमतीलाल कागजों पर हिसाब-किताब लगाने में डूब गया।

गोलू को ऐसा लगा कि जान-बूझकर ही उसे ‘न’ कहा गया है। आखिर ऐसा क्या है उसमें?

‘क्या देखने में मैं कोई खराब-सा लड़का लगता हूँ?’ गोलू ने सोचा। उसे ठीक-ठीक कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।

‘या फिर हो सकता है, इस आदमी ने सोचा हो, कहीं यह लड़का घर से भागकर तो नहीं आया? कहीं बैठे-बिठाए कोई मुसीबत गले न पड़ जाए।’

इस बीच गोलू का ध्यान अपने कपड़ों की ओर गया। कपड़े वाकई काफी मैले हो गए थे। पैंट सलेटी रंग की थी, इसलिए ज्यादा मैल उसमें पता नहीं चलती थी। पर सफेद शर्ट का तो बुरा हाल था। उसमें सफेदी नाम मात्र को भी नहीं बची थी। गोलू को खुद ही अपने आप पर शर्म आ रही थी। उसकी मम्मी तो उसे एक दिन भी इस हालत में न रहने देती, पर...

अब पुरानी चीजों को याद करने से क्या फायदा?

9

दुखी गोलू

कीमतीलाल होटल वाले के इनकार ने सचमुच गोलू का मन बहुत दुखी कर दिया था। क्या अब वह किसी लायक नहीं? जूठे बर्तन माँजने लायक भी नहीं?

उसके मन की आखिरी उम्मीद भी अब टूटने लगी थी। ऐसे भला कब तक जिंदा रहेगा वह? घर से कोई डेढ़ सौ रुपए लेकर चला था, जिनमें पचास रुपए तो पिछले तीन-चार दिनों में खर्च ही हो गए। ऐसे तो धीरे-धीरे कुछ नहीं रहेगा उसके पास और उसे वापस घर की ओर रुख करना पड़ेगा। इस हालत में घर लौटना कितना खराब लगेगा। सोचकर गोलू की आँखें गीली हो आईं। उसका स्वाभिमान बार-बार कह रहा था, ‘कुछ भी हो, दिल्ली में काम तो खोजना ही है। टिकना यहीं है।’

इस हालत में घर लौटने का मतलब तो है सबकी उपेक्षा, उपहास और व्यंग्यभरी नजरों का सामना करना। क्या वह कर सकेगा ऐसा? सोचकर उसके मन में सिहरन-सी होने लगी।

नहीं, नहीं, नहीं...! वह कोई भी, किसी भी तरह का छोटा-मोटा काम कर लेगा, पर...वापस नहीं लौटेगा। वापस हरगिज नहीं लौटेगा।

तो फिर कुलीगीरी ही क्या बुरी है गोलू!

कुली...? कहते-कहते जैसे वह खुद ही चौंका।

हाँ, क्या बुरा है? कोई भी काम आखिर तो काम है! लेकिन...फिर घर के हालात, घर की इज्जत और प्रतिष्ठा की बात उसे याद आ आई। उसके पापा को यह पता चलेगा कि गोलू अब दिल्ली में कुलीगीरी कर रहा है, तो उन पर क्या बीतेगी?

10

आपका सामान मैं पहुँचा देता हूँ!

रात कोई आठ-नौ बजे का समय। गाड़ी आई तो स्टेशन पर खूब चहल-पहल और भागम-भाग नजर आने लगी।

गोलू ने देखा, प्लेटफार्म पर खादी का कत्थई कुरता, सफेद पाजामा पहने एक अधेड़ आदमी अपने परिवार के साथ कुछ परेशान सा खड़ा था। साथ में दो अटैचियाँ, एक थैला। शायद उसे कुली का इंतजार था।

प्लेटफार्म पर यों तो कुली थे, पर वे दूसरे यात्रियों का सामान उठा रहे थे। इस कोने पर कोई कुली नजर नहीं आ रहा था।

गोलू के भीतर अचानक जैसे हलचल-सी हुई। वह लपककर भद्र लगने वाले उस अधेड़ आदमी के पास गया।

“आपका सामान मैं पहुँचा दूँ अंकल?”

वह आदमी कुछ कहता, इससे पहले ही साथ खड़ी पीली साड़ी वाली औरत ने, जो उसकी पत्नी लग रही थी, चिड़चिड़ी आवाज में पूछा, “पैसे कितने लेगा?”

“कुछ भी दे दीजिएगा।” कहकर गोलू सामान उठाने लगा।

“ना भाई, अभी बोल दे। बाद में झगड़ा होने से पहले बात साफ करना अच्छा है। और सुन, स्टेशन के बाहर थ्री व्हीलर में सामान रखवाना पड़ेगा।” आदमी ने कहा। पर उसकी आवाज में चिड़चिड़ाहट नहीं, मृदुता थी।

“पाँच रुपए...!” काँपती हुई आवाज में गोलू ने कहा।

“चल ठीक है, उठा अब!” और ने फिर चिड़चिड़ी आवाज में कहा।

गोलू ने एक-एक कर दोनों अटैचियों को सिर पर रखा। हाथ में भारी थैले का बोझ।...इतना भार उठाने की उसे आदत तो थी नहीं। इसलिए पैर इधर-उधर पड़ते थे। बीच में दो-एक जगह सहारा लेने के लिए रुका, ठिठका भी।

यह तो भला हो उस आदमी का, जिसने गोलू के मन की हालत समझ ली। खुद आगे आकर थैला उसके हाथ से ले लिया, “ला, इधर दे!”

और जब गोलू ने सारा सामान ठीक-ठाक थ्री-व्हीलर पर रखवा दिया, तो उस आदमी ने दस का नोट गोलू की ओर बढ़ाया।

“टूटे पैसे दे दीजिए!” गोलू ने आग्रह किया।

“रख ले।” उस आदमी की आवाज में नरमी थी।

गोलू ने आँखें उठाकर देखा और चुपचाप अपनी कृतज्ञता प्रकट कर दी।

लेकिन तभी गोलू के भीतर से एक दूसरा गोलू निकला। उस पर व्यंग्य कसता हुआ बोला, ‘वाह गोलू, वाह...! इसीलिए आया था न तू दिल्ली में? तेरा भाई अभी कुछ समय में इंजीनियर बनकर आ जाएगा और तू ऐसे ही पाँच-पाँच रुपए की कमाई करके पक्का कुली हो जाएगा।...वाह-वाह!’

गोलू जैसे अंदर ही अंदर छटपटा उठा।

“कहाँ रहता है तू?...घर कहाँ है तेरा?” वह भला-भला सा आदमी अब पूछ रहा है।

अब तो वाकई रोना निकल आएगा, अगर खुद को रोका नहीं तो! गोलू ने किसी तरह होंठ भींचकर खुद को सँभाला।

“कहीं नहीं...कहीं नहीं है घर! अब तो यह स्टेशन ही मेरा घर है!” गोलू ने बताया।

“क्या तेरे माँ-बाप नहीं हैं?” अब के उस औरत ने पूछा। उसकी आवाज की सख्ती जाने कहाँ लोप हो गई। अब वह नरमी से पूछ रही है।

“नहीं, माता-पिता नहीं हैं।” उसने झटके से गरदन हिला दी है, “मर गए!”

“ओह!” आदमी ने जैसे दुख जताया। फिर कहा, “हमारे घर चलेगा?...घर का काम कर पाएगा?”

“वहाँ काम करना। पढ़ने का मन हो तो पढ़ना।” उस अधेड़ आदमी की ममता अब छलक रही है।

“ठीक है बाबू जी!” गोलू के मुँह से निकला। उसने मन ही मन जैसे ईश्वर को धन्यवाद दिया है।

इसी क्षण आदमी ने औरत की ओर देखा है, औरत ने आदमी की ओर—एक खास मतलब से। जैसे मौन में ही दोनों ने बात कर ली हो। वह बात ‘हाँ’ पर खत्म हुई। फिर गोलू भी सामान के साथ उस थ्री-व्हीलर में समा गया।

रास्ते में वह सोचने लगा—भला क्या काम करना पड़ेगा उसे? परिवार में कौन-कौन होगा?

अगर सिर्फ यही लोग हैं, तब तो काम कुछ ज्यादा न होगा।...उसने फिर से उस परिवार पर गौर किया। वह भद्र आदमी, कुछ भली, कुछ चिड़चिड़ी औरत और दो छोटी बेटियाँ। एक तीन-चार साल की, दूसरी साल-डेढ़ साल की।...

रास्ते में वह औरत गोलू से लगातार उसके बारे में पूछती जा रही थी और गोलू अपने बारे में एक कल्पित कहानी गढ़कर सुनाए जा रहा था। उसे खुद यह अच्छा नहीं लग रहा था, पर वह यह भी जानता था कि अगर इन लोगों को पता चला कि वह घर से भागकर आया है, तो तत्काल काम से छुट्टी!

पता नहीं, क्या-क्या काम करना होगा? वह रास्ते भर यही सोचता आ रहा था। शायद झाड़ू-पोंछा, सफाई वगैरह भी।

‘जो भी हो, कर लूँगा। अगर जीना है तो कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा।’

लेकिन क्या यही काम करने के लिए वह दिल्ली आया है? ऐसे ही पूरा होगा बड़ा आदमी होने का उसका सपना? मम्मी-पापा को अगर उसकी इस हालत का पता चलेगा कि उनका लाड़ला दिल्ली में एक घरेलू नौकर...एक अदद ‘छोटू’ बनकर गुजारा कर रहा है, तो उन पर क्या बीतेगी?...

गोलू ने सोचा तो उसे लगा, उसका सिर भारी होता जा रहा है।

11

नए जीवन की खुलीं खिड़कियाँ

वह अधेड़ सज्जन थे गिरीशमोहन शर्मा। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल के अध्यापक थे। साइंस पढ़ाते थे। उनकी पत्नी भी अध्यापिका थीं। पास के एक मॉडल स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती थीं...

थोड़े दिनों में ही गोलू ने जान लिया कि यह परिवार सचमुच अच्छा है। मालकिन यानी सरिता शर्मा थोड़े सख्त स्वभाव की थीं, पर दिल की बुरी नहीं थीं। गोलू जल्दी ही उनके स्वभाव से परच गया। वह जान गया कि मास्टर जी तो भले हैं। उनसे कोई मुश्किल नहीं आएगी, पर अगर यहाँ टिकना है तो मास्टरनी जी का दिल जीतना होगा।

गोलू ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं खूब मन लगाकर काम करूँगा तो इनका दिल भी जीत लूँगा। यह कौन-सा मुश्किल काम है। कहीं न कहीं उसके दिल में उम्मीद थी कि शायद यहीं से निकले कोई राह और फिर वह अपने रास्ते पर बढ़ता ही चला जाए। दोनों बेटियाँ शोभिता और मेघना से भी वह जल्दी ही हिल-मिल गया। छोटी बेटी मेघना को दूध पिलाने और खिलाने का जिम्मा गोलू का ही था। बड़ी बेटी शोभिता को होमवर्क कराने से लेकर बाकी घर-परिवार के सारे काम भी वही करता था।

गोलू के जिम्मे मुख्य काम था घर की साफ-सफाई का। चाय वगैरह भी अकसर वही बनाता। फिर दोनों बच्चियों को सँभालना और उनके लिए बाजार से चीजें और दूसरा सामान लाना भी उसी की जिम्मेदारी थी।

कभी-कभी सब्जी, फल वगैरह भी वही लेकर आता और खाना बनाने में सरिता जी की मदद भी करता था। मैडम कभी खुश होतीं तो गोलू को खाना और तरह-तरह के व्यंजन बनाना सिखातीं। गोलू बड़े मजे में सीखता। कभी खुद भी तरह-तरह की डिश बना लिया करता था। इस पर मास्टर जी पीठ थपथपकर उसे शाबाशी देते। सरिता जी भी हँसकर कहतीं, “देखना, इस घर में तू कुछ साल रह गया, तो बंदा बनकर निकलेगा। बंदा!”

दोनों पति-पत्नी सुबह-सुबह काम पर निकल जाते। बड़ी बेटी शोभित भी पढ़ने चली जाती। पीछे से गोलू का काम होता छोटी बेटी मेघना की सँभाल करना। उसे समय पर दूध पिलाना। रोए तो थोड़ा खिलाकर या इधर-उधर घुमाकर उसे चुप कराना। साथ ही झाड़ू-पोंछा और घर की साफ-सफाई तो उसे करनी ही होती थी।

धीरे-धीरे गोलू बड़ी होशियारी से सारे काम करने लगा। उसे लगता था, एक घर छूटा तो क्या, मुझे अब नया घर मिल गया है।

हालाँकि वह घर उसका अपना घर था और इस घर में चाहे वह जो भी कर दे, यह घर उसका नहीं हो सकता था। उसे कभी भी यहाँ से निकलने के लिए कहा जा सकता था। यह फर्क वह जानता था।

इस घर के लिए वह कितना ही काम करे, पर यहाँ उसकी हैसियत एक अदने घरेलू नौकर की है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। यह फर्क भी वह बहुत अच्छी तरह जानता था।

कभी-कभी अपनी हालत देखकर उसे रुलाई आ जाती। पर वह बड़ी सख्ती से अपने आपको बरज देता, “गोलू जो बीता, वह बीत गया। अब उसे भूल जा।...अब यही तेरा घर है, अब यही तेरा जीवन है।”

*

जल्दी ही गोलू घर में अच्छी तरह हिल-मिल गया। गिरीश जी ही नहीं, सरिता मैडम भी उसके काम से खुश लगती थीं और कभी-कभी जी खोलकर तारीफ करती थीं। दोनों बच्चियाँ शोभिता और मेघना तो एक क्षण के लिए भी उसके पास से हटने को तैयार नहीं होती थीं। वे दोनों बड़े प्यार से खुश होकर उसे ‘गोलू भैया’ कहकर बुलाती थीं, तो गोलू खुशी से झूम उठता था। बस, एक ही कसक उसके मन में रह जाती थी...कि पता नहीं, उसकी अपनी सुजाता दीदी कैसी होंगी? उसे याद कर-करके उनकी कितनी बुरी हालत हो गई होगी!

फिर मम्मी-पापा के उदास चेहरे आँखों के सामने आ जाते और उसके मन में भूचाल-सा आ जाता। आशीष भैया और कुसुम दीदी की शक्लें भी दिखाई पड़तीं, मानो वे शिकायत कर रहे हों, “गोलू, तुझसे तो यह उम्मीद नहीं थी। तू ऐसा कैसे हो गया। हमारे प्यार का कोई मोल नहीं?”

गोलू की आँखें भर आतीं। उसे लगता, आँखों पर हाथ रखकर वह भागे और भागता चला जाए। और किसी ऐसी जगह पहुँच जाए, जहाँ यह दुख और परेशानियाँ न हों।...जहाँ वह सचमुच एक नई जिंदगी शुरू कर सके।

जल्दी ही गोलू अपने आप पर काबू पाकर सख्ती से पिछला सब कुछ भुलाने की कोशिश करता, ‘अब तो यही मेरा घर है—यही...यही-यही...!’ गिरीशमोहन शर्मा कभी-कभी खुश होते, तो गोलू को साइंस और गणित पढ़ाया करते थे। जाने क्या बात थी, गोलू को यह विषय अब मुश्किल नहीं लगते थे। जो सवाल पहले घंटों में नहीं निकलते थे, अब वे झटपट निकल आते। समय कम था, लेकिन सीखने की ललक बहुत बढ़ गई थी। गिरीशमोहन शर्मा खुश होकर कहते, “शाबाश गोलू, दो साल बाद तू हाई स्कूल का इम्तिहान देना। मैं तेरी अच्छी तैयारी करा दूँगा, चिंता न कर।”

गोलू को पढ़ता देख गिरीशमोहन शर्मा इतने खुश होते, मानो गोलू कोई और नहीं, उन्हीं का बेटा है। कहते, “गोलू, पढ़ाई जारी रखना। तू इंटेलीजेंट लड़का है। देखना, फर्स्ट आएगा, फर्स्ट!”

हालाँकि गिरीशमोहन शर्मा उसे पढ़ता देख, जितना खुश होते, सरिता मैडम उतना ही चिढ़ती थीं। कभी-कभी खीजकर वे पति से कहतीं, “आप इसे पढ़ाने के लिए लाए हैं या घर का काम कराने के लिए?...पढ़ाना चाहते हैं तो खूब पढ़ाइए। पर फिर मुझे घर का काम करने के लिए कोई दूसरा लड़का ला दीजिए।”

मास्टर गिरीशमोहन जी बार-बार उसे समझाते कि अगर यह लड़का पढ़-लिख जाएगा, कुछ बन जाएगा, तो हमें कितना पुण्य मिलेगा, यह तो सोचो! विद्या-दान से बड़ा कोई दान है इस दुनिया में?...इस पर सरिता मैडम का सपाट, इकहरा स्वर सुनाई देता, “देखिए जी, इस मामले में मैं आपकी तरह भावुक नहीं हूँ। आदमी को थोड़ा प्रैक्टिकल भी होना चाहिए। यह लड़का घर में खाता-पीता है, रहता है। एक आदमी का खर्च कोई मामूली नहीं होता। रहने के साथ-साथ अगर यह काम करेगा, तभी हमें पुसेगा। वरना मैं तो इसे घर में नहीं रखने की! ऐसे कौन से हमारे घर में लाखों रुपए पड़े हैं हंडिया में, जो अब दानखाता शुरू कर दें!”

कभी-कभी यह तर्क-वितर्क बढ़कर आपस की गरमागरमी तक पहुँच जाता। मास्टर जी और सरिता मैडम के जोर-जोर से बोलने की आवाजें आने लगतीं। सुनकर गोलू सिहर उठता। मास्टर जी का जोर का स्वर उसे सुनाई देता, “तुम तो लालची हो, परले दर्जे की लालची। किसी का जरा-सा सुख तुमसे बर्दायत नहीं होता।”

इस पर मैडम की और भी ऊँची, पाटदार आवाज सुनाई देती, “कुछ भी कहो, मैं अपना घर नहीं लुटवा सकती। मैंने कोई दानखाता नहीं खोल रखा। कल ही ले जाओ इस लड़के को और जाकर अनाथालय में दाखिल करवा आओ।”

गोलू सुनता तो उसका कलेजा फटने लगता। सोचता, ‘आह, मेरा भाग्य ही खराब है। तभी तो दुर्भाग्य की छाया यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही। लगता है कि यह डेरा भी छूटेगा!’

12

कहीं तू बदमाशी तो नहीं कर रहा?

फिर एक दिन सरिता शर्मा की सहेली मालती सक्सेना आईं। वह भी शायद सरिता मैडम के स्कूल में ही पढ़ाती हैं। बड़ी ही खुर्राट महिला हैं।

गोलू उनके लिए चाय बनाकर ले गया तो मालती सक्सेना ने अजीब-सी निगाहों से उसे ऊपर से नीचे तक देखा। ऐसे, जैसे किसी चोर को देखा जाता है। और फिर अजीब-अजीब-से सवाल पूछने लगीं, बड़ी खराब, अपमानपूर्ण भाषा में।

गोलू उन पर एक नजर डालते ही समझ गया कि यह बड़ी चालाक और खुर्राट किस्म की महिला हैं। लेकिन वे इतनी क्रूर भी होंगी, यह उसे पता न था। मालती सक्सेना न सिर्फ गोलू से अजीब-अजीब सवाल पूछ रही थीं, बल्कि उसके हर सवाल को संदेह की तराजू पर भी तोल रही थीं।

जब गोलू ने कहा कि उसके माता-पिता नहीं हैं तो मालती सक्सेना ने मुँह टेढ़ा करके कहा, “क्या सबूत है कि तेरे माँ-बाप मर गए हैं? कहीं तू बदमाशी तो नहीं कर रहा?”

गोलू ने कुछ कहा नहीं। चुपचाप वहाँ से उठकर दूर चला गया। तब भी सरिता मैडम और मालती सक्सेना की मिली-जुली आवाजें सुनाई देती रहीं।

“ये नौकर भी ऐसे ही होते हैं—बेईमान, चोर, बदमाश किस्म के...लफंगे! तू कहाँ फँस गई सरिता?” मालती सक्सेना की फटी हुई, कर्कश आवाज गोलू को साफ सुनाई दे रही थी।

इस पर सरिता मैडम ने क्या कहा, यह तो नहीं सुनाई पड़ा। पर दोबारा मालती सक्सेना की आवाज जरूर सुनाई पड़ी, “साफ लग रहा है, यह बदमाश लड़का है। हो सकता है, किसी गैंग से भी इसका संबंध हो! इसकी आँखें बता रही हैं कि यह झूठा और बदमाश है।...इन लोगों के लिए तो सरिता, किसी को मारना खेल है, खेल!”

इस पर सरिता शर्मा की आवाज सुनाई दी, “अच्छा, अब तो मैं भी खयाल रखूँगी। वैसे देखने में तो यह शरीफ लगता है।”

“अरे! ये सब शरीफ ही लगते हैं देखने में, पर किसी को मारने में इन्हें एक पल भी नहीं लगता।” मालती सक्सेना कह रही थी, “ये सारे नौकर आपस में मिले होते हैं। न जाने कहाँ से बड़ा वाला चाकू या छुरी ले आते हैं और मिनटों में काम खत्म। अब आप देखिए, क्या हुआ हमारे पड़ोस में...!”

और मालती सक्सेना सुनाने लगीं कि उनके पड़ोस में एक सोलह-सत्रह  बरस का नेपाली नौकर कैसे मकान मालकिन को अकेली पाकर उसे जान से मारकर भाग गया। साथ ही घर में जितने भी गहने और नकदी थी, वे भी गायब!

सुनकर सरिता शर्मा मानो दहल गईं। डरी हुई आवाज में बोलीं, “मैं कल ही इनसे कहूँगी। तुमने तो मालती, मेरी आँखें खोल दीं।”

इसके बाद फिर सरिता शर्मा की दबी-दबी-सी आवाज सुनाई दी, “हम दोनों तो सुबह ही चले जाते हैं। अब पीछे से तो घर में यही बच रहता है, मुस्टंडा! जो मर्जी करे। बच्चियाँ तो आपको पता है, दोनों छोटी हैं। पता नहीं, कब क्या इसके मन में आ जाए!”

“इसीलिए तो मैं कहता हूँ सरिता, इसे घर से निकाल बाहर कर। दो-दो छोटी बच्चियाँ घर में हैं। ऐसे में इस लड़के का होना तो बिल्कुल ठीक नहीं।...झाड़ू मारकर निकाल दे कल सुबह ही!”

*

और उस दिन के बाद मैडम सरिता शर्मा का व्यवहार इतना रूखा-रूखा और क्रूरता भरा हो गया, जैसे वह सचमुच कोई चोर या हत्यारा हो। जब देखो, तब वे मास्टर जी के पीछे पड़ जातीं, “मेरी मानो, तो इसे छोड़कर आओ कहीं...या फिर बोल दो कि चला जाए, जहाँ जाना चाहे!”

“कहाँ?” मास्टर गिरीशमोहन अचकचाकर पूछते।

“यह तो मैं भी नहीं जानती। पर चाहे जहाँ छोड़कर आओ।...यह इस घर में नहीं रहेगा।”

“पर इसने ऐसा किया क्या है, जो तुम इतनी नाराज हो?” मास्टर गिरीशमोहन के माथे पर बल पड़ जाते।

“यह मैं कुछ नहीं जानती। बस यह इस घर में नहीं रहेगा।” मैडम सरिता शर्मा का गुस्सैल स्वर।

इस पर गिरीशमोहन थोड़ा करुणा उभारने की कोशिश करते, “तुम इतना भी नहीं देखतीं, कितनी सर्दी पड़ रही है। यह बेचारा बगैर माँ-बाप का लड़का! इसके पास तो एक चादर तक नहीं है ढकने को! ढंग का कोई स्वेटर तक नहीं! सर्दी में कुछ हो गया तो क्या हम अपने आप को माफ कर पाएँगे?”

“हमें इससे कुछ मतलब नहीं। यह जिए या मरे, मगर यह इस घर में नहीं रहेगा।” सरिता मैडम की वही तान।

“लेकिन मुझे तो मतलब है।” गिरीशमोहन जिद ठान लेते। “यह जो पढ़ाई-लिखाई में इतना होशियार है, आगे चलकर कुछ बन सकता है। सोचो, कितना अच्छा होगा अगर एक अनाथ लड़के का जीवन हम सँवार दें। जरा सोचो!”

‘अनाथ लड़का, अनाथ लड़का...अनाथ!’

‘बेचारा...!!’

ये आवाजें गोलू के कान में पड़तीं तो वह मन ही मन आँसू घोंटता रहता। उसे लगता, ये शब्द नहीं, उसकी छाती को छलनी-छलनी कर देने वाली गोलियाँ हैं। इससे तो अच्छा था, वह घर से बाहर निकलता ही नहीं।

क्या वह घर से भागकर इसीलिए आया था कि एक अनाथ लड़के के रूप में दया बटोरकर घरेलू नौकर हो जाए। और वहाँ चोर या हत्यारा समझा जाए! रात को एक कोने में फटा हुआ मैला गद्दा बिछाकर सो जाए? ऊपर से फटा-पुराना कंबल? और फिर रात-दिन कानों में पड़ने वाले अपमान भरे जहरीले तीर!...अपने घर में कम से कम इतना दुख, इतना अपमान तो नहीं था!

‘तो क्या अब लौट चलूँ?’ गोलू अपने आपको ठकठकाकर कहता।

‘नहीं-नहीं, नहीं...!’ उसके भीतर आवाजें सुनाई देतीं। ‘गोलू देखता रह...सहता रह, शायद यहीं से आगे के लिए कोई रास्ता...!’

आवाजें...आवाजें और आवाजों का जंगल!

गोलू बुरी तरह घिर गया था। वह कई बार दोनों कानों पर हाथ रख लेता, तो भी आवाजें सुनाई पड़ती रहतीं।

*

मालिक-मालकिन की आपसी नोंक-झोंक को अनसुना करता गोलू घर के सारे काम बदस्तूर करता रहा। सुबह छह बजे उठकर सबके लिए चाय बनाता। तब उसे भी एक कप चाय पीने को मिल जाती। फिर वह रात के थोड़े-बहुत बर्तनों को साफ करके पूरे घर की झाड़ू-बुहारी और साफ-सफाई में जुट जाता। बीच में ही नन्ही मेघना को सँभालना, दूध पिलाना और इधर-उधर टहलाकर बहलाना, खिलाना। साथ ही रोज सुबह बड़ी बेटी शोभिता, गिरीशमोहन और सरिता मैडम के जूते-सैंडिल पॉलिश करना।

मालिक, मालकिन और शोभिता के चले जाने पर थोड़ी राहत मिलती। तब वह मेघना से प्यारी-प्यारी बातें करता। उसे छोटी-छोटी कहानियाँ बनाकर सुनाता। तितली की, खरगोश की, नटखट चूहे और ऊधमी बंदर की कहानियाँ। कुछ देर बाद फिर दूध गरम करके पिलाता और इसी बीच बातों-बातों में ए-बी-सी-डी और कुछ नर्सरी राइम भी याद करा देता।

गोलू अपने भीतर अजब-सा परिवर्तन महसूस कर रहा था। कहाँ तो हालत यह थी कि वह एक भी चुभती हुई बात बर्दाश्त नहीं कर पाता था, और कहाँ अब यह हालत थी कि वह रात-दिन हिकारत सहता रहता और उसके बाद भी खुशी-खुशी अपने काम करता रहता।

उसे इस बात की खुशी थी कि मैडम कुछ भी कहें, लेकिन मास्टर गिरीशमोहन शर्मा बुरे नहीं थे। वे उसे अपने बेटे की तरह ही खूब प्यार करते थे। दुनिया के बारे में ढेरों ज्ञान और समझदारी की बातें बताते थे। कभी-कभी उसकी किसी बात से खूब खुश होकर जोर से पीठ ठोंकते थे। तब यह फर्क गायब हो जाता था कि वे मालिक हैं और गोलू नौकर।

दोनों बच्चियाँ भी अब खूब अच्छी तरह गोलू से हिल-मिल गई थीं और उन्हें लगता था वह सच में उनका बड़ा भाई है। बड़ी शोभिता भी जब-जब मुश्किल आती, उससे साइंस, मैथ्स और इंगलिश के सवाल पूछ लिया करती थी। बाद में वह मम्मी से कहती, “मम्मी...मम्मी, मुझे होमवर्क में बड़ी मुश्किल आ रही थी। लेकिन गोलू भैया ने सब ठीक-ठीक बता दिया। वे तो बड़े ही समझदार हैं मम्मी। फिर उनसे तुम नौकर का काम क्यों लेती हो?”

“जा...जा, सिर न खा। बड़ी आई दादी कहीं की!” सरिता शर्मा रूखे ढंग से उसे झिड़क देतीं।

ये आवाजें गोलू के कानों में भी पड़तीं। उसे लगता, कहाँ आ गया मैं? यहाँ तो मेरी किसी चीज का कोई मोल ही नहीं।

13

क्या कह रहे हो बेटा?

एक-एक दिन करके कोई महीना भर बीता। गोलू का मन कुछ उखड़ा हुआ था। उसने मास्टर जी के पास जाकर कहा, “मास्टर जी, आप मेरी महीने भर की तनखा दे दीजिए। मैं चला जाऊँगा।”

सुनकर मास्टर गिरीशमोहन शर्मा हक्के-बक्के रह गए। भीगी हुई आवाज में बोले, “यह क्या कह रहे हो बेटा?...मैंने तो तुम्हें अपने बेटे जैसा ही समझा है।”

इस पर गोलू ने साफ-साफ कहा, “मैडम को शायद मैं अच्छा नहीं लगता। वे मुझे चोर समझती हैं। ऐसे में मेरा यहाँ रहना ठीक नहीं है।” फिर गोलू ने पूरा किस्सा भी सुना दिया कि मालती मैडम के आने पर क्या-क्या बातें हुई थीं और दोनों उसे बार-बार चोर कह रही थीं।

सुनकर मास्टर जी चुप—एकदम चुप। फिर उन्होंने धीरे से कहा, “तेरी मालकिन दिल की बुरी नहीं हैं, गोलू। थोड़ी सेवा करके उनको खुश कर ले, फिर वे यह बात नहीं सोचेंगी।”

इसके बाद गोलू ने कुछ नहीं कहा। आँखें नीची करके खड़ा हो गया।

मास्टर जी ने पास आकर गोलू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “गोलू, मेरी एक बात याद रखना। जीवन में बहुत मुश्किलें आती हैं और जिस हालत में तू है, उसमें तो और भी ज्यादा मुश्किलें आएँगी। लेकिन बहादुर आदमी वही है, जो हिम्मत से उनका सामना करे।...याद रख गोलू, मुश्किलों का सामना करके तुझे उन्हें खत्म करना है, वरना मुश्किलें तुझे खत्म कर देंगी।”

गोलू क्या कहता, चुपचाप सिर झुकाए खड़ा था। पर मास्टर जी के शब्द जैसे उसके अंदर ताकत भर रहे थे।

मास्टर जी ने फिर बड़े कोमल हाथों से उसके चेहरे को ऊपर उठाकर कहा, “मैं तो चाहता हूँ गोलू, तू इस घर में रहे। मेरा बेटा बनकर रहे। तू यहीं पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनना। फिर हम तेरी शादी करेंगे, यहीं इसी घर में। तुझे अपना बेटा बनाकर मैं करूँगा शादी। एक इज्जत की जिंदगी होगी तेरी। तुझे और किताबें मैं ला दूँगा। प्राइवेट इम्तिहान दे लेना। तू चाहे तो ऐसे ही पढ़कर एम.ए. तक कर सकता है।...तुझे कोई मुश्किल आए तो मुझसे पूछ। पर ऐसे घबराकर भागना तो ठीक नहीं।”

सुनकर गोलू की आँखें भर आईं। उसे लगा मास्टर जी तो सचमुच उसके पापा जैसे हैं, बल्कि उनसे भी बढ़कर। उनसे कहीं ज्यादा उदार।

वह सोचने लगा—अगर उसके पापा भी ऐसे होते, तो भला घर से भागने की जरूरत ही क्यों पड़ती?

*

लेकिन नहीं, मैडम सरिता शर्मा के मन में संदेह का जो कीड़ा पैदा हो गया था, वह रात-दिन बढ़ता ही जा रहा था। गोलू को उनकी निगाहें हमेशा कोड़े फटकारती हुई लगतीं, ‘चोर, चोर...चोर...!’

उसे लगता, उसके पूरे शरीर पर ‘चोर...चोर...चोर’ शब्द छप गए हैं। वह चाहे भी तो खुरचकर इन्हें हटा नहीं सकता।

कभी-कभी गोलू मीठी बातें कहकर सरिता मैडम को खुश करने की कोशिश करता। इस पर वे और भी अधिक उखड़ जातीं। कहतीं, “हाँ-हाँ, मैं जानती हूँ तेरी चालाकी! मीठा ठग है तू! तेरे जैसे नौकर तो मालिक को मार-काटकर उसका सब कुछ लूट ले जाते हैं। तू क्या जाने, परिवार की ममता क्या होती है? तेरे अपने माँ-बाप, भाई-बहन होते, तब तू समझता!”

एक बार तो वह कहने को हुआ भी था, “मेरा भी परिवार है मैडम! मैं एक इज्जतदार परिवार का लड़का हूँ। मेरे पापा, मम्मी...!” पर तुरंत उसे खयाल आ गया कि ऐसा कहते ही, वह झूठा साबित हो जाएगा।

गोलू को लगता, अपना घर छोड़ने के बाद उसे एक अच्छा-सा, प्यारा-सा घर मिला था। पर मालती सक्सेना की खुर्राट बातें और खुस-फुस उसमें जहर घोलकर चली गई।

पर अब...? आगे का रास्ता?

14

एक दुनिया रंजीत की

रंजीत!...तभी गोलू की रंजीत से थोड़ी जान-पहचान हुई।

कौन रंजीत? ठीक-ठीक तो गोलू को भी उसके बारे में कुछ पता नहीं है। पर हाँ, इधर रंजीत से उसकी छिटपुट मुलाकातें जरूर होने लगी हैं।

गोलू शोभिता को उसकी स्कूल बस के स्टाप तक छोड़ने जाता है, तो लौटते समय रास्ते में रंजीत उसे अकसर मिल जाता है। वह भी शायद पास वाली किसी कोठी में एक कमरा किराए पर लेकर रहता है। सुबह-सुबह अकसर मदर डेरी से अपने लिए दूध लेने जा रहा होता है।

पता चला कि रंजीत रेडीमेड कपड़ों की एक फैक्टरी में फैशन डिजाइनर का काम करता है। वहाँ इतनी तनखा मिलती है कि आराम से गुजारा हो जाता है और अब उसे किसी की ‘दया’ की जरूरत नहीं है!

“चल, तेरी भी बात करा दूँ अपने फैक्टरी मालिक से!...बहुत बढ़िया आदमी हैं। उन्हें लायक बंदे चाहिए!” रंजीत ने कहा।

“पर मुझे तो यह काम आता नहीं!” गोलू ने बेचारगी से कहा, “मैं वहाँ क्या करूँगा?”

“अरे, नहीं आता तो क्या हुआ! सीख भी नहीं सकता?...चल, मैं सिखा दूँगा। मुझे भी तो किसी ने सिखाया था। लगन से काम करेगा तो हफ्ते, दो हफ्ते में सीख जाएगा।” रंजीत ने भरोसा दिलाया।

“ठीक है, सोचूँगा।...सोचकर बताऊँगा।” गोलू ने कहा, “अभी तो मालिक-मालकिन दोनों को काम पर जाना है। मेरा इंतजार ही कर रहे होंगे!”

गोलू कुछ आगे बढ़ा, तो रंजीत ने फिर पुकार लिया! बोला, “जल्दी सोचकर बताना। अगर जीवन में कुछ बनना है, तो निर्णय लेना सीखो!” फिर स्वर को थोड़ा धीमा करके बोला, “मास्टर जी के घर तुम घरेलू नौकर का काम करते हो न! पर कब तक करोगे और तुम्हें बदले में मिलेगा क्या? तुम तो मुझे ठीक-ठाक घर के लगते हो, क्यों?”

गोलू क्या कहता। वह चुपचाप नजरें बचाता खड़ा रहा।

“तुम घर से भागकर आए हो न!” रंजीत की आँखें गोलू के भीतर कुछ टटोल रही थीं, “क्यों ठीक कह रहा हूँ न मैं? मैं भी कभी घर से भागकर आया था, आज से कुछ साल पहले! बहुत धक्के खाए थे मैंने, बहुत...! फिर अपना रास्ता खोजा! वरना मैं तो लोगों के धक्के खाते और गालियाँ सुनते-सुनते मर जाता।”

गोलू कुछ कहना चाहता था, पर कुछ भी नहीं कह पाया। उसे लगा, आज बहुत दिनों के बाद किसी ने उसका दुख समझा है, उसके दिल के तारों को छेड़ा है। लेकिन उसे हैरानी हुई, रंजीत आखिर यह बात समझ कैसे गया? उसने तो अपने बारे में किसी को कुछ नहीं बताया।

“तूने इतने दिनों में दिल्ली देखी है...या फिर घर में ही घुसा रहा?” रंजीत हँसकर पूछ रहा है।

जवाब में गोलू के कुछ न कहने पर बोला, “कल शनिवार और परसों इतवार की मेरी छुट्टी है। चल, दोनों मिलकर दिल्ली देखेंगे। मैं तुझे पूरी दिल्ली घुमा दूँगा।”

“पर मास्टर जी और मैडम...? मुझे तो छुट्टी नहीं मिलेगी!” गोलू ने सकुचाते हुए कहा।

“तुझे तो कभी छुट्टी नहीं मिलेगी। इनके पास रहेगा तो पिंजरे में चूहे की तरह छटपटाता रहेगा। कभी बाहर नहीं निकल पाएगा।” रंजीत के शब्द पत्थर की तरह गोलू के सिर पर पड़ रहे थे। पर उनमें उसे सच्चाई जान पड़ी।

फिर भी गोलू ने झिझकते हुए कहा, “दो दिन घर में नहीं रहूँगा, तो मेरी नौकरी चली जाएगी।”

“अरे यार, छोड़ नौकरी! दिल्ली में ऐसी नौकरियाँ लाखों हैं। आदमी काम करने वाला होना चाहिए।” रंजीत बेफिक्री से बोला।

“पर...!” गोलू में अभी भी झिझक बाकी थी, “मालिक बहुत अच्छे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि...”

“कोई अच्छे-वच्छे नहीं हैं! तू कहा कर, मालिक ठीक है। यह भी इनकी नाटकबाजी है। अरे भोलाबख्श, यह इन लोगों की मिलीभगत होती है। दोनों में से एक डाँटता है, दूसरा प्यार करता है, ताकि दबा भी रहे और भागे भी नहीं!”

“ठीक है, बताऊँगा सोचकर।” कहकर गोलू चलने लगा।

पर रंजीत पर तो जैसे जिद सवार थी। बोला, “जल्दी बोल, दिल्ली देखनी है कि नहीं?”

“देखनी तो है...!” गोलू ने सकुचाते हुए कहा।

“तो फिर छोड़ नौकरी!”

“मालिक से कहकर छुट्टी ले लूँ दो दिन की...?” गोलू ने सकुचाते हुए कहा।

“कभी नहीं मिलेगी, तू कहकर देख ले! और सुन, यह ‘मालिक...मालिक’ कहना बंद कर! वरना तो तू पूरा, पक्का नौकर ही हो जाएगा। यह भी भूल जाएगा कि तेरा नाम गोलू है।”

“और दो दिन घूमने के बाद...फिर क्या करूँगा? रहूँगा कहाँ?” गोलू ने असमंजस में पड़कर कहा।

“मैं देखूँगा। तू चिंता क्यों करता है इस बात की?” रंजीत ने उसके कंधे पर हाथ रखकर प्यार से दबा दिया।

और गोलू ने फैसला कर लिया कि वह दिल्ली देखेगा। नौकरी छूटती है तो छूटे! आज ही जाकर मास्टर जी से बात करनी होगी। वे तनखा के पैसे दे दें तो ठीक, वरना...देखेंगे!

गोलू ने उस रात मास्टर जी से बात की तो उन्हें जैसे यकीन ही नहीं आया। पर गोलू ने बताया कि उसे एक फैक्टरी में कपड़े सीने का काम मिल रहा है। पूरा आश्वासन मिला है, तो उन्होंने चुपके से उसकी हथेली पर पाँच सौ रुपए रख दिए।

मास्टर जी तो कुछ उदास थे, पर सरिता मैडम खुश थीं। और इस खुशी में उन्होंने अपनी तरफ से थैले में गोलू को एक चादर और छोटा-मोटा सामान डालकर दे दिया था।

जाने से पहले गोलू ने शोभिता और मेघना को खूब प्यार किया। बोला, “गोलू भैया आज जा रहा है, पर जल्दी ही मिलने आएगा।” फिर मास्टर जी और मैडम के पैर छूकर वह बाहर निकल पड़ा।

15

गोलू ने देखी दिल्ली

दो दिन। खूब चहल-पहल, गहमागहमी और चुस्ती-फुर्ती वाले दो दिन। घुमक्कड़ी के आनंद से भरे दो दिन।

दिल्ली की सुंदरता को नजदीक से देखने-जानने के दो दिन।

ये दो दिन दिल्ली आने के बाद गोलू के सबसे अच्छे दिन थे। सारी चिंताएँ, सारी फिक्र भूलकर वह घूम रहा था। सिर्फ घूम रहा था। लालकिला, कुतुबमीनार, राजघाट, शांतिवन, तीनमूर्ति, गाँधी स्मृति, गुड़ियाघर, अप्पूघर, चिड़ियाघर...कनॉट प्लेस, चाँदनी चौक!...कोई ऐसी मशहूर जगह न थी, जो इन दो दिनों में गोलू ने न देखी हो।

और वह इन सबसे अछूता ही रह जाता, अगर रंजीत साथ न होता। एक तरह से तो रंजीत ने ही उसे यह सब देखने-जानने के लिए भीतर से तैयार किया था, बल्कि उकसाया था। वरना वह दिल्ली से लौटता तो कोरा ही लौटता। दिल्ली में रहने का क्या फायदा, अगर कोई लालकिला, कुतुबमीनार जैसी दर्शनीय चीजें भी न देखे?

सबसे बड़ी बात यह थी कि रंजीत को इन सारी जगहों के बारे में बड़ी जानकारी थी। दर्जनों बार वह यहाँ आकर घूम चुका था। और खूब पास से उसने सब कुछ देखा था। कहाँ जाने के लिए कौन-सी बस पकड़नी चाहिए, इसकी भी उसे पूरी जानकारी थी। रंजीत ने दिल्ली को इतनी बार घूम-घूमकर देखा था कि जब वह उसके किस्से सुनाने लगता, तो गोलू भौचक्का सा उसकी ओर देखता ही रह जाता।

रंजीत कह रहा था, “मैं तो भई, हर संडे को घर से निकल जाता हूँ। जब छुट्टी है तो उसे घर में बिताने से क्या फायदा? ऐसे ही सेकेंड सैटरडे और महीने के आखिरी शनिवार की छुट्टी होती है, तो ये दोनों दिन भी सुबह से रात तक घूमने के लिए निकल जाते हैं। देर रात को घर लौटना होता है...!”

गोलू रंजीत के साथ लालकिला, कुतुबमीनार, राजघाट, शांतिवन समेत ढेरों जगहों पर घूमता हुआ, मन ही मन सोच रहा था कि, ‘मेरी देखी हुई दिल्ली से यह दिल्ली कितनी अलग है। काश! मैंने पहले ही इसे देखा होता। लेकिन मुझे दिखाता कौन? न मास्टर जी और सरिता मैडम और न कोई और। यह तो रंजीत ही है जो मुझे हाथ पकड़कर पतली, ऊबड़-खाबड़ गलियों से निकालकर इतिहास के गलियारों तक ले आया है...!’

लालकिले में तो गोलू को इतना अच्छा लग रहा था कि उसका मन होता कि दौड़-दौड़कर यहाँ की सब दीवारों और खंभों को छू ले। गोलू की यह बेकली देखकर रंजीत जोरों से हँसता रहा, हँसता रहा।

कुतुबमीनार में दोनों दोस्त खट-खट सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे और वहाँ से बड़ी हैरानी हैरानी से देखा कि ऊपर खड़े होकर नीचे की दुनिया कैसी लगती है! रंजीत ने कहा, “तू इस बुरी तरह काँप क्यों रहा है गोलू? जरूर तूने भी किसी बुरे क्षण में यह सोचा होगा, मैं समझ गया हूँ।”

इस पर गोलू की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। बोला, “हाँ, सोचा था। शुरू-शुरू में। जब बहुत परेशान हो गया था और भूखा था कई दिनों से, तब...।”

“तू बहुत सीधा है!” कहकर रंजीत ने प्यार से उसके आँसू पोंछ दिए।

ऐसे ही राजघाट, शांतिवन और गाँधी स्मृति देखते हुए रंजीत गाँधी जी और बच्चों से प्यार करने वाले चाचा नेहरू के बारे में बहुत-सी बातें बताता रहा। गोलू यह सब किताबें में पढ़ चुका था। पर उसे हैरानी हुई, रंजीत तो ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। फिर वह इतनी सारी चीजें कैसे जानता है।

पर रंजीत यही नहीं, और भी बहुत कुछ जानता था। यह चिड़ियाघर और गुड़ियाघर जाकर पता लगा। चिड़ियाघर में उसने बाघ, हाथी, गैंडा, हिरन, बारहसिंगा, ऊदबिलाव, जेबरा, हिप्पो आदि के बारे में ऐसी-ऐसी कमाल की बातें बताईं कि गोलू हैरानी से सुनता रह गया। बीच-बीच में कभी हँसकर पूछ लेता, “रंजीत, क्या तुम बचपन से इन जानवरों के बीच ही रहे हो?” इस पर रंजीत बड़ी बेफिक्र हँसी हँस देता।

ऐसे ही गुड़ियाघर में अलग-अलग देशों के गुड्डे-गुड़ियों के बारे में रंजीत ने ऐसी मजेदार बातें बताईं कि गोलू दिल खोलकर हँसता रहा। चीनी और जापानी गुड़िया की क्या पहचान है। इंगलैंड और फ्रांस की गुड़ियाँ कैसी नखरीली होती हैं। हंगरी की गुड़ियों की शक्ल और रंग-ढंग कैसा होता है—ऐसा होता है, वैसा होता है। कनाडा की गुड़ियाँ कैसी होती हैं, रंजीत ने इसके बारे में इतने विस्तार से बताया कि गोलू बोला, “तुम गुड्डा-गुड़िया एक्सपर्ट तो नहीं हो रंजीत?”

तो ये दो दिन ऐसे बीते कि कुछ पता ही नहीं चला। गोलू को लगा, जैसे उसका बचपन लौट आया हो, जिसे किसी ने पत्थर मार-मारकर भगा दिया था। इन दो दिनों में वह इतना हँसा, इतना हँसा जितना पिछले कई बरसों में भी मिलकर नहीं हँसा था।

पर उसके भीतर एक सूखापन भी था, जो हरियाली के बीच बार-बार किसी उजाड़ की तरह शक्ल दिखाने लगता। ऐसे में रंजीत की बातें उसे तसल्ली देतीं।...बातें-बातें, ढेरों बातें।

रंजीत को वह पहले भी जानता था, पर इन दो दिनों में जितना जाना, उससे तो वह और भी प्यारा लगने लगा था।

शुरू में वह थोड़ा रूखा भी लगता था, पर फिर जैसे गोलू ने उसे समझना शुरू किया, वह और प्यारा लगने लगा। गोलू को हैरानी होती, ‘भला इस छोटी-सी उम्र में कितनी जिंदगी देखी है इसने?’

उसे कई बार हैरानी होती कि इतनी छोटी उम्र में इतना समझदार कैसे हो गया रंजीत। और तब रंजीत की पूरी कहानी उसकी आँखों के सामने फैलकर छा जाती। गोलू ने इन दो दिनों में ही टुकड़ों-टुकड़ों में इसे पूरा जाना था।

*

रंजीत भी गोलू की तरह कभी घर से भागकर आया था। और घर से उसके भागने का कारण था उसकी सौतेली माँ, जिन्हें वह ‘नई माँ’ कहता था। नई माँ जितनी सुंदर थीं, उतनी ही कठोर भी। पिता के सामने उनका बर्ताव कुछ और होता और पिता के पीछे कुछ और।

रंजीत ने कई बार सोचा कि वह अपने अच्छे बाबू जी को इस बारे में कुछ बताए। पर धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि पिता उसकी बात सुनेंगे ही नहीं। वे इस कदर नई माँ के जादू की लपेट में हैं। और फिर रंजीत घर छोड़कर निकला, उसके बाद उसने पीछे मुड़कर देखा ही नहीं।

रंजीत को कभी-कभी याद आता है, कितना खुश था वह नई माँ को देखकर। माँ के न होने की उदासी काफी कुछ छंट गई थी। नई माँ ने शुरू में बहुत लाड़ भी जताया, पर जब उनका अपना बेटा हो गया, तो उन्होंने एकाएक ऐसा रंग बदला कि रंजीत हक्का-बक्का रह गया। और अंत में उसे घर छोड़कर तो जाना ही था।

हालत यह थी कि उस नन्हे बालक को गोदी में उठाते समय रंजीत के हाथ काँपते थे। नई माँ उसे जहर बुझे तीरों से छेदने लगतीं, “रहने दे रंजीत, रहने दे, नजर लग जाएगी। तू गिरा देगा इसे! वैसे भी तू कौन कम अभागा है, पहले अपनी माँ को खा गया और अब...!”

शुरू में तो नई माँ पिता के पीछे ही ऐसा करती थीं। कम से कम पिता के सामने तो प्रेम का दिखावा ही करती थीं। पर जब पिता के सामने ही उन्होंने झिड़कना शुरु कर दिया और जब पिता ने चुपचाप अनसुना करना शुरू कर दिया, तो रंजीत समझ गया, अब यह घर उसके लिए घर नहीं रह गया है।

एकाध बार रंजीत के पिता ने समझाने की भी कोशिश की, पर नई माँ तो अब तक रणचंडी बन गई थीं। उन्हें डाँटकर बोलीं, “तुम चुप रहो जी! तुम्हें कुछ पता भी है? सहना तो मुझे पड़ता है। एकदम आवारा, निठल्ला है। रोटियाँ तोड़ने के सिवा कुछ काम नहीं है।”

रंजीत को लगा, बस अब दीवार खिंच गई। अब यह घर उसका घर नहीं रह गया। और एक दिन वह घर छोड़कर निकला और गोलू की तरह ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर...

रंजीत को आज भी वे बातें खूब अच्छी तरह याद हैं। और बताते समय उसकी जबान में अजब-सी कड़वाहट घुल जाती है। आँखें जलने लगती हैं!

16

कथा पागलदास की!

“अच्छा...! दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर आए, फिर क्या किया?...क्या खाने वगैरह के लिए, गुजारा करने लायक पैसे थे तुम्हारे पास?” गोलू ने उत्सुकता से पूछा। उसकी निगाहें बराबर रंजीत के चेहरे पर जमी हुई थीं।

“कुछ अजब ही मामला हुआ मेरे साथ तो।” रंजीत बोला। और फिर उसने अपनी पूरी कहानी सुनाई :

“पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा था बिना टिकट। भीड़ के रेले के साथ बाहर आ गया। सोच रहा था कि किधर जाऊँ? इतने में देखा, एक जगह पर खासी भीड़ लगी हुई है। मैं भी चलकर वहीं खड़ा हो गया। देखा, एक दाढ़ी वाला आर्टिस्ट है। बड़े ही कमजोर बदन का, दुबला-पतला। लेकिन आँखें बड़ी-बड़ी...भावपूर्ण। चमकदार। वह एक सड़क के किनारे रंगों से हनुमान जी का चित्र बना रहा है। उसके हाथों में बड़ी कला है, हुनर है, जिसे देख-देखकर सब मुग्ध हो रहे हें। लोग उस पर पैसे चढ़ा रहे हैं, लेकिन आर्टिस्ट बगैर परवाह किए अपना चित्र पूरा करने में लगा है।...जैसे समाधि लग गई हो।

“मैं देखता रहा, देखता रहा और सोचता रहा कि ऐसे चित्र तो मैं भी बना सकता हूँ। बाद में सब चले गए। अकेला मैं ही खड़ा रहा। आर्टिस्ट ने सब पैसे एक थैली में इकट्ठे किए। फिर हनुमान जी को प्रणाम करके कुछ बुदबुदाया और चलने को हुआ। तभी अचानक उसकी निगाह मुझ पर पड़ी। मुझे गौर से देखता हुआ पाकर बोला, ‘सीखेगा?’ मैंने कुछ नहीं कहा। चुपचाप गरदन नीचे कर ली। बोला, ‘लगता है, तू भी मेरी तर दुर्दिन का मारा है। आ चल, मेरे साथ रह।’

“फिर मैं उसी के साथ रहने लगा। कोई दो-तीन साल तक रहा। वह ऐसा बेहतरीन कलाकार था गोलू, कि कुछ न पूछो। नाम न जाने उसका क्या था, मगर वह खुद को पागलदास कहता था। अगर उसकी कला का सम्मान होता तो वह न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचता।...लेकिन जिंदगी में कदम-कदम पर मिलने वाले दुख और अपमानों ने उसे तोड़ डाला। वह इतनी शराब पीता, इतनी कि समझो दिन भर पीता ही रहता। अंदर ही अंदर वह घुल रहा था। लेकिन उसकी चित्रकला में कोई कमी नहीं आई। हफ्ते में सिर्फ एक या दो बार वह चित्र बनाया करता था। कभी हनुमान का, कभी राम का, कृष्ण का, कभी भारत माता का, कभी चंद्रशेखर आजाद और कभी भगत सिंह। जिस दिन पागलदास चित्र बनाता, उस दिन शराब की एक बूँद तक नहीं पीता था और सारे दिन ख्यालों में खोया रहता। हाँ, चित्र बनाने के बाद जो पैसे मिलते, उससे बस शराब खरीदता और पीता।

“मैं साथ रहने लगा तो उसने क्रम थोड़ सा बदला। शराब थोड़ी कम की। मैं गरम रोटी बनाता तो मेरे साथ वह भी खा लेता। पर वह अंदर ही अंदर कुछ इस कदर घुल रहा था...कि मैं कुछ भी न कर सका। टुकड़ों-टुकड़ों में उसने अपनी कहानी सुनाई थी। उसे सुनकर मैं भी रोया, वह भी। और एक दिन...एक दिन...वह चला गया हमेशा-हमेशा के लिए और मैं फिर अकेला हो गया। उस दिन मुझे लगा, मेरा पिता आज मर गया...!”

कहते-कहते रंजीत की आँखों में आँसू झलमला आए। बोला, “मेरे लिए तो वह पागलदास सब कुछ था, मेरे बाप से भी बढ़कर। उसने दिल्ली में आते ही मुझे सहारा दिया। अपनी बाँहों में बाँध लिया। वरना तो...वरना तो आज मेरा न जाने क्या होता।”

यह कहानी सुनाते हुए रंजीत लगभग रोने ही हो आया। सुनकर गोलू भी उदास हो गया। देर तक दोनों में से कोई भी नहीं बोल सका।

“फिर...? उस आर्टिस्ट पागलदास के मरने के बाद?” गोलू ने पूछा।

“हाँ, मेरा रोना सुनकर आसपास के लोग दौड़े आए। बोले, ‘क्या हुआ रंजीत? क्या हुआ?’ मैंने कहा, ‘मेरा बाप मर गया।’ दुखी होकर लोगों ने पैसा इकट्ठा किया, जिससे पागलदास का दाह-संस्कार हुआ। कुछ रोज बाद जो उसका काम था, वही मैं करने लगा। जैसे चित्र वह बनाता था, मैं भी बनाने लगा। किसी तरह रोटी की जुगाड़ हो जाती।

“फिर एक फैक्टरी वाले बाबू ने एक दिन मुझे चौराहे पर महात्मा गाँधी का चित्र बनाते देखा, तो पास आकर बोला, ‘अरे, तू तो अच्छा चित्रकार लगता है। मेरे साथ चलेगा?’

“मुझे भला क्या आपत्ति थी? कोई ढंग का ठौर-ठिकाना तो मुझे भई चाहिए था। उस आदमी की फैक्टरी में कपड़े के नए-नए डिजाइन बनाकर रँगने का काम था। मैंने वहाँ काम किया भी, सीखा भी। और अब तो इतने पैसे कमा रहा हूँ कि मुझे किसी की परवाह नहीं है।” रंजीत ने अपनी बात पूरी की।

*

गोलू मंत्रमुग्ध-सा रंजीत की कहानी सुन रहा था। सुनते-सुनते वह न जाने कब फफकने लगा। रंजीत ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “क्यों, क्या हुआ गोलू?”

“कुछ नहीं रंजीत भैया!” गोलू ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा, “मैं तो समझता था, मैंने ही कष्ट झेले हैं पर तुमने जो कुछ झेला है, उसके आगे तो मेरे दुख-तकलीफें कहीं नहीं ठहरतीं।...तुममें सचमुच बड़ी हिम्मत है!”

रंजीत बोला, “गोलू, तुम या मैं अलग-अलग नहीं हैं...और न हमारे दुख अलग-अलग हैं। देखा जाए तो सब भागे हुए बच्चों की एक ही कहानी है। उन्हें अपने घर में ठीक से समझा नहीं गया, ठीक से प्यार-दुलार नहीं मिला। वरना अपना घर छोड़कर भला कौन भागकर बाहर सड़क पर आ जाता, जहाँ कल की रोटी तक का तो ठिकाना नहीं है! तुम बता रहे हो कि तुम भागकर आए थे, तो तुम्हारे पास बदलने के लिए दूसरी जोड़ी कपड़े तक नहीं थे। नहाने के लिए एक गिलास या तौलिया तक नहीं था। ठंड से बचने के लिए एक चादर तक नहीं थी।...बस, वही हालत मेरी भी थी। और मेरी ही क्यों, घर से भागकर आने वाले हर बच्चे ही यही हालत होती है।”

गोलू कुछ देर चुप रहा, जैसे मन ही मन रंजीत की बातों को गुन रहा हो। फिर बोला, “रंजीत भैया, तो क्या अब उन्हीं साहब की फैक्टरी में काम कर रहे हो, जो तुम्हें सड़क से उठाकर लाए थे?...तुम्हारी चित्रकला देखकर प्रभावित हुए थे!”

रंजीत मुसकराकर बोला, “नहीं, भाई, नहीं। वह सज्जन तो इतने भले और दयालु थे कि मैं जन्म-जन्मांतर तक उनके यहाँ काम कर सकता था। वैसा कोई दूसरा आदमी तो मैंने अपने जीवन में देखा ही नहीं। ‘लक्खा बादशाह!’ सब उन्हें इसी नाम से पुकारते हें। पर वे जितने भले हैं, उनके भाई उतने ही चंट, खुर्राट हें। सबका साझा काम है। जब उन लोगों ने देखा कि यह आदमी लक्खा बादशाह के बहुत नजदीक है, तो बस चाल चलकर सबने मिलकर मुझे बाहर निकाल दिया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैंने फैक्टरी में चोरी की है। और फिर लक्खा के भाइयों ने जबरदस्ती इस्तीफा लिखवा लिया। जबकि चोर वे खुद थे और लक्खा बादशाह के सीधेपन का फआयदा उठा रहे थे...!”

रंजीत एक क्षण के लिए रुका। उसका चेहरा गुस्से से दहकने लगा था। फिर अपने पर काबू पाकर बोला, “मुझे तो बड़ी देर तक यह समझ में ही नहीं आया कि यह क्या चक्कर है और क्या गड़बड़झाला हो गया मेरे साथ! फिर एक एक करके चीजें साफ होती गईं। तब मालूम पड़ी पूरी असलियत कि यह मेरे खिलाफ ही मामला नहीं है। ये लोग तो लक्खा बादशाह की की भी आँख में धूल झोंक रहे हैं।...तो एक बार तो मेरे मन में आया भी कि लक्खा बादशाह को कहकर सारी बात साफ कर दूँ। पर फिर सोचा, इससे उन भाइयों का आपस का झगड़ा बढ़ेगा, रहने ही दूँ। यों भी मेरे ऊपर लक्खा बादशाह का यह अहसान ही कौन कम है कि उन्होंने मुझे सड़क से उठाकर एक ऐसी दुनिया में पहुँचा दिया, जहाँ मेरे काम की इज्जत है, पैसा है, और कम से कम भूखा मैं नहीं मर सकता!”

“तो अब किस फैक्टरी में काम कर रहे हो रंजीत भैया?” गोलू ने जानना चाहा।

“एक दूसरी फैक्टरी है कपड़ों के डिजाइनिंग की। उसमें मैं एक डिजाइनर हूँ। खूब पैसा है, इज्जत है, किसी चीज की कमी नहीं है।” रंजीत ने कहा, “आदमी योग्य हो तो काम की यहाँ कोई कमी नहीं है। बस उसमें सीखने की लगन होनी चाहिए।”

कुछ देर बाद रंजीत ने पूछा, “गोलू, तू सीखेगा यह काम?”

“हाँ।” गोलू ने कहा, “पर पता नहीं, मैं सीख पाऊँगा कि नहीं। मुझे तो तुम्हारी तरह चित्रकला आती नहीं है।”

“तो ठीक है, छोटा-मोटा जो काम मिलता है, पहले वह कर। बाद में बदल लेना।” रंजीत ने समझाया।

गोलू क्या कहता? उसके लिए तो यह बिल्कुल नई दुनिया थी, जिसका क-ख-ग भी उसे पता नहीं था।

बहरहाल तय यह हुआ कि रंजीत गोलू के लिए कोई छोटा-मोटा काम तत्काल ढूँढ़ेगा और गोलू रंजीत के साथ ही रहेगा। रंजीत ने यह भी तय किया कि वह अपना घर बदल लेगा, क्योंकि यहाँ मास्टर गिरीशमोहन शर्मा का घर पास ही पड़ता था। गोलू उन्हें देखेगा, तो बेकार मन में कचोट पैदा होगी।

अगले ही रोज रंजीत ने शाहदरा में एक ठीक-ठाक कमरा किराए पर ढूँढ़ लिया। उसमें गोलू और रंजीत मिलकर रहने लगे। घर की सारी जरूरी चीजें, चारपाई, बिस्तर, चद्दर और जरूरी बर्तन भी खरीद लिए गए।

जल्दी ही रंजीत की कोशिशों से गोलू को गाँधी नगर की ‘जयंती गारमेंट फैक्टरी’ नाम की एक फैक्टरी में काम मिल गया। यह रेडीमेड गारमेंट्स की फैक्टरी थी और गोलू का काम था कपड़ों की कटाई-सिलाई का। शुरू में पंद्रह दिन उसे ट्रेनिंग दी गई। फिर तो अपने काम में वह इतना परफेक्ट हो गया कि उसके साथ के लोग ही नहीं, बल्कि मालिक भी उसके काम की खुलकर तारीफ करने लगे।

यों समय धीरे-धीरे कट रहा था। गोलू को लगा, चलो, एक रास्ता तो मिला। दिल्ली आना एकदम बेकार नहीं गया। यहाँ वह कम से कम किसी पर निर्भर तो नहीं है। खुद अपनी कमाई से अपना पेट तो भर सकता है। फिर रंजीत जैसा भला दोस्त उसे मिल गया था, जो उसका बहुत खयाल रखता था।

रंजीत ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, पर जीवन की पाठशाला में उसने कामगार शिक्षा प्राप्त की थी, इसलिए वह हर काम में परफेक्ट था। उसके साथ होने से गोलू को बड़ा सहारा मिलता। साथ ही साथ रंजीत खाना बनाने में भी उस्ताद था। जल्दी ही उसने गोलू को भी खाना बनाना सिखा दिया। अब तो दोनों मिलकर बातें करते-करते चटपट खाना बना लेते ओर मजे में टहलते हुए अपने काम पर निकल जाते।

रात को आकर खाना बनाने के बाद घंटे-दो घंटे के लिए टहलना और बातें करना उनका शौक था। रंजीत के पास रहकर गोलू को इतनी बातें पता चल रही थीं कि उसे लग रहा था, वह तो अभी तक कुछ जानता ही नहीं था। उसका जीवन तो अब शुरू हुआ है।

लेकिन रंजीत में बस एक ही कमी थी। अगर उसका कहना न मानो, तो वह बिगड़ जाता था। और ज्यादा गुस्से में हो तो गालियाँ भी देने लगता था। फिर फिल्में देखने और घूमने का वह इतना शौकीन था कि गोलू कई बार उकता जाता। कभी-कभी गोलू इसरार करता हुआ कहता, “रंजीत भैया, क्या जरूरत है नौ से ग्यारह पिक्चर देखने की? आज हम कमरे में बैठकर ही गपबाजी करते हैं!”

पर रंजीत पर तो फिल्में देखने और घूमने का जुनून ही सवार था। वह गोलू को लताड़ते हुए कहता, “अरे गोलू, तू तो घरघुसरा है, डरपोक है। बाहर निकलकर देख, वरना तो पिंजरे का चूहा बनकर रह जाएगा।...फिर कैसे दिल्ली में जीना सीखेगा?”

कई बार अजब नाटक हुआ। रात को बारह-साढ़े बारह बजे वे पिक्चर देखकर व मस्ती से बतियाते हुए वापस आ रहे होते तो रास्ते में कोई पुलिस का सिपाही डंडा घुमाते हुए आगे आ जाता। और पूछता, “कौन हो? कहाँ से आ रहे हो?”

ऐसे हालात में मामला सुलझाने की पूरी जिम्मेदारी रंजीत पर ही होती। पर गोलू ने देखा, वह पुलिस को देखकर जरा भी नहीं डरता था। खूब अकड़कर कहता, “पिक्चर देखकर आ रहे हैं। कहिए तो हवलदार साहब, उसकी पूरी स्टोरी सुना दें।” इस पर पुलिस का सिपाही खीजकर एक ओर निकल जाता।

गोलू को रंजीत का यह आत्मविश्वास अच्छा लगता, पर उसे लगता, रंजीत जैसा वह शायद कभी नहीं बन पाएगा। दोनों एक होकर भी कहीं न कहीं अलग-अलग थे।

फिर रंजीत को नए-नए लोगों से मिलने और उनसे दोस्ती करने का एक जुनून-सा था। वह एक जगह काम करते-करते उकता जाता और उसे छोड़कर झट दूसरी जगह की तलाश में निकल जाता। रंजीत गोलू को भी समझाया करता था, “एक जगह कभी भी ज्यादा टिककर मत बैठो। नहीं तो जिंदगी भर बैठे ही रहोगे और डरपोक बन जाओगे। जल्दी से एक काम को छोड़कर दूसरा पकड़ो, दूसरे को छोड़कर तीसरा।...तब तुम्हें दुनिया का पता चलेगा। जल्दी-जल्दी तरक्की भी करोगे।”

17

रंजीत मुंबई की राह पर

फिर एक दिन गोलू को पता चला, रंजीत ने अपना अच्छा खासा फैशन डिजाइनर का काम छोड़ दिया।

“क्यों?” गोलू ने हैरान होकर उससे पूछा।

“अब तो मुंबई जाएँगे, दिल्ली से मन भर गया।” रंजीत का सीधा-सपाट जवाब था।

“क्यों?...मुंबई क्यों? दिल्ली में क्या परेशानी है?” गोलू ने डरते-डरते पूछा।

“अरे, वहाँ मुंबई में बहुत काम है।” रंजीत ने हाथ लहराते हुए कहा, “फिर वहाँ तस्करी का धंधा कितने जोरों पर है, तुझे पता नहीं! आदमी चाहे तो रातोंरात लखपति बन जाए।...जितना दिल में जोश हो, उतना कमाओ। यहाँ जैसे नहीं कि रात-दिन बस, छप-छपाछप करते रहो। यहाँ तो बस हम जिंदगी भर छप-छपाछप करते हुए ही मर जाएँगे। फिर बड़े आदमी कैसे बनोगे? कब बनोगे?”

“और अगर पुलिस के हाथ पड़ गए तो?” गोलू ने पूछा।

“अरे! तू तो वही रहा डरपोक का डरपोक। पुलिस के हाथ पड़ गए तो चाँदी का जूता किसलिए है? चाँदी का जूता!...सब बड़े आदमी ही करते हैं। इसके बिना कोई बड़ा आदमी बन ही नहीं सकता।” रंजीत हँसा, “मैंने तो अपने छोटे-से जीवन में यही सीखा है कि जहाँ भी रास्ता बंद हो, एक चाँदी का जूता मारो। फट से रास्ता निकल आएगा।”

सुनकर गोलू सिहर उठा। बोला, “नहीं रंजीत भैया, यह गलत है, गलत! इस तरह बड़े आदमी बनने से तो जो हम हैं, वही क्या बुरा है? कम से कम चैन की रोटी तो खा रहे हैं।”

“अरे गोलू!” रंजीत ने हिकारत से कहा, “तू रहा वही बावला का बावला! सही-गलत क्या हम गरीब लोगों के लिए ही है। अमीरों के लिए सही-गलत क्या कुछ नहीं? इतने बड़े-बड़े महल क्या ईमानदारी की कमाई से ही बने हैं? सब झूठ की कमाई पर टिके हैं! तो हमीं क्यों बँधे रहें ईमानदारी की कमाई से?...ऐसे तो हमारी जिंदगी एक ही जगह पड़े-पड़े सड़ जाएगी।”

गोलू रंजीत की बातों का कोई जवाब नहीं दे पाता था। हारकार इसरार करते हुए वह बस इतना ही कहता था, “पर यह गलत है रंजीत भैया। मेरा मन कहता है, यह गलत है।...जो गलत है, सो गलत ही कहा जाएगा।” कहकर वह चुपचाप उसकी आँखों में देखने लगा।

थोड़ी देर बाद गोलू धीरे से कहता, “रंजीत भैया, यहीं दिल्ली में दूसरी नौकरी क्यों नहीं ढूँढ़ते? तुम्हारी तो इतनी जान-पहचान है। ढेरों नौकरियाँ मिल जाएँगीं।”

“नहीं, बस दिल्ली से मन उखड़ गया गोलू।” रंजीत तुनककर कहता, “अब तो मुंबई ही जाना है।”

“कब जाने का सोचा है?” गोलू ने एकाध बार डरते-डरते पूछ लिया।

“अरे, जल्दी क्या है! जिंदगी भर नौकरी ही की है न। बहुत पैसा है मेरे पास। दो-चार महीने आराम से खाएँगे, फिर देखेंगे।” कहकर रंजीत हँस पड़ा।

गोलू की तो इतवार को ही छुट्टी होती थी, उसी दिन घूमने जा सकता था। लेकिन रंजीत तो अब सब दिन खाली था। सारे-सारे दिन यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ घूमता, भटकता रहता। तरह-तरह के लोगों से मिलता रहता और शायद उसने शराब पीनी भी शुरू कर दी थी।

अजीब-अजीब तरह के लोग अब कमरे पर आने लगे थे। गोलू को उनमें से कुछ तो बहुत ही खराब लगते। उनकी आँखों का कांइयांपन देखकर ही वह समझ जाता कि ये अच्छे नहीं, बदमाश लोग हैं।

गोलू ने एक-दो बार इशारों-इशारों में रजीत को भी बताना चाहा, पर वह तो जैसे नशे में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था।

कभी-कभी गोलू के टोकने पर कहता, “तुझे पता नहीं गोलू, इन्हीं लोगों के बलबूते पर मैं एक दिन बहुत बड़ा धन्ना सेठ बन जाऊँगा, बहुत बड़ा! दाउद का नाम सुना है? अरे भोंदूमल, वह भी तो एक दिन मेरे ही जैसा था। फिर वह देखते ही देखते कितना बड़ा आदमी बना। बड़े-बड़े सेठ उसके आगे पानी भरते हैं, उसका नाम सुनकर काँपते हैं।...आज से आठ-दस साल बाद कभी रंजीत सेठ का नाम सुनो, तो समझ लेना वह मैं ही हूँ—मैं। बेधड़क मुझसे मिलने चले आना। मैं तुझे बढ़िया से बढ़िया काम दूँगा। मालामाल कर दूँगा।” कहकर रंजीत छतफाड़ ठहाका लगाने लगता।

फिर कुछ समय बाद गोलू की नौकरी भी छूट गई। वह जयंती गारमेंट फैक्टरी में जिस कारीगर की जगह काम कर रहा था, उसे चोट लग गई थी। पर अब वह ठीक-ठाक होकर वापस काम पर आ गया था।

पुराने कारीगर के वापस आते ही मालिक ने झट गोलू का हिसाब साफ कर दिया। बोला, “ये लो, सात सौ सत्ताईस रुपए तुम्हारे बनते हैं। तुम आदमी शरीफ हो। काम भी ठीक-ठाक जानते हो। बीच-बीच में आकर पूछ जाना। आगे काम होगा तो बुला लेंगे।...या अपने घर का पता दे दो, वहाँ संदेश भिजवा देंगे।”

सुनकर गोलू को धक्का तो लगा, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। सोचा, ‘चलते-चलते यहाँ तक चला अया तो आगे भी कोइ न कोई रास्ता तो मिलेगा ही।’

जयंती गारमेंट फैक्टरी में साथ-साथ काम करने वाले भी गोलू को प्यार करने लगे थे। उन लोगों ने कहा, “गोलू, जैसे ही कहीं कोई काम पता चलेगा, हम तुझे झट बुला लेंगे।...तू बिल्कुल चिंता न कर।”

गोलू ने घर आकर रंजीत को भी बताया। यह सोचकर कि रंजीत की इतनी जान-पहचान है, वह किसी से कह देगा तो काम मिलने में मुश्किल नहीं आएगी। लेकिन रंजीत तो हवा में उड़ रहा था। वह मानो दूसरी ही दुनिया में था। उसने रट लगा ली, “गोलू, अब तो तू खाली है।...तो अब चल मेरे साथ। छोड़ सारा तंबूरा, अब दिल्ली में कुछ नहीं रखा। मुंबई में हम अपनी दुनिया बसाएँगे।”

“नहीं रंजीत भैया, यह गलत है।” गोलू धीरे से कहता।

“क्या गलत है? क्या...?” रंजीत चिढ़कर फुफकारने लगता।

“यही कि...तस्करी...!” गोलू शांत स्वर में जवाब देता।

“किसने कहा कि मैं मुंबई में तस्करी करने जा रहा हूँ?” रंजीत चीखने लगता।

“तुम्हीं कह रहे थे रंजीत भैया।” गोलू धीरे से कहता, “फिर मुझे मुंबई नहीं, दिल्ली में ही रहना है, दिल्ली में ही।”

“तो मर यहीं!” रंजीत तुनककर कहता, “यहीं मर। तुझे किसी ने रोका है?”

फिर कुछ ठंडा पड़कर रंजीत ने समझाया, “देख गोलू, मैं तो अगले हफ्ते मुंबई जा रहा हूँ। कल ही रिजर्वेशन कराने जा रहा हूँ। अपने रहने का अलग इंतजाम कर ले या फिर इस कमरे का पूरा किराया अब तुझी को देना पड़ेगा।...सात सौ रुपए महीना! दे पाएगा?”

गोलू ने उसी दिन भाग-दौड़कर अपने लिए तीन सौ रुपए महीने पर एक छोटा-सा कमरा किराए पर ले लिया। पेशगी पैसे दे आया और कुछ सामान भी रख दिया।

यह कमरा पहले वाले कमरे के पास ही था। इसलिए कोई मुश्किल नहीं आई। फिर वह भी नौकरी की तलाश में लग गया।

तीसरे ही दिन जयंती गारमेंट फैक्टरी में उसके साथ काम करने वाले एक नेक सज्जन रामउजागर चचा उसे ढूँढ़ते हुए आए। बोले, “मालिक ने बुलाया है। काफी सारा अर्जेंट काम आ गया है। चल गोलू, अभी मेरे साथ।”

गोलू उसी समय रामउजागर चचा के साथ चल दिया। फैक्टरी मालिक उसके काम से खुश था। फौरन बात पक्की हो गई। उसने गोलू को कल से काम पर आने के लिए कहा। बोला, “अब तुम्हारी नौकरी पक्की!” गोलू खुश था। आज पहली बार दिल्ली में उसे कुछ ठीक-ठाक ठिकाना मिला। पैर रखने की जगह मिली। इसी तरह चलता रहा, तो अपनी मेहनत से आज नहीं तो कल, कुछ न कुछ जगह तो बना ही लेगा।...उसने पहली बार दिल्ली में सुकून भरी साँस ली।

18

अलविदा रंजीत

जिस दिन रंजीत को मुंबई की गाड़ी पकड़नी थी, गोलू उसे रेलवे स्टेशन पर छोड़ने गया। रंजीत का रास्ता उसे भले ही पसंद न हो, पर रंजीत के अहसान को वह कैसे भूल सकता था? पहली बार रंजीत ने ही उसके भीतर दिल्ली में जीने की हिम्मत और हौसला भर दिया था। उसी ने गोलू को हर हाल में सिर उठाकर हिम्मत से जीना सिखाया था। इसलिए उसी ने रंजीत से कहा था, “रंजीत भैया, मैं तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाऊँगा।”

और आज वह फिर से एक बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर था।

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन।...खूब भीड़-भाड़। चहल-पहल। बत्तियों की जगर-मगर।...चारों तरफ आवाजें, आवाजें, आवाजों का शोर!...

पता नहीं क्या बात है, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आकर वह बिल्कुल सहज नहीं रह पाता। एक दूसरी ही दुनिया में जा पहुँचता है, जहाँ पता नहीं क्या-क्या याद आने लगता है।...लगता है, पता नहीं, कौन-कौन हाथ बढ़ाकर उसे अपनी ओर खींच रहा है। यहाँ आकर अजीब सा डर लगता है कि एक बार वह इधर से उधर भटका या खोया तो फिर कभी अपने आप से नहीं मिल पाएगा।

याद आया गोलू को वह दिन, जब पहली बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपने डरते-काँपते पैर उसने रखे थे। मक्खनपुर से आकर यहीं उसने तीन-रात रातें ठिठुरते-काँपते बिताई थीं। तब उसके पास ओढ़ने के लिए एक चादर तक नहीं थी और वह घुटनों को मोड़कर पेट से लगाए-लगाए गठरी बना, किसी तरह पूरी रात काट देता था।

फिर याद आया, यहीं से कुछ कदम दूर कीमतीलाल का होटल। आह, कीमतीलाल ने उसे जूठे बर्तन साफ करने का काम देने से भी इनकार कर दिया था।

फिर याद आए मास्टर गिरीशमोहन शर्मा जिनका सामान उठाकर वह बाहर  थ्री व्हीलर तक लाया था।  मास्टर जी ने उसमें न जाने क्या देख लिया था कि सामान के साथ वह खुद भी उनके घर जा पहुँचा था। परिवार के एक सदस्य की तरह।

फिर याद आईं सरिता मैडम...मालती सक्सेना नाम की चंट और खुर्राट महिला। और शोभिता और मेघना। मास्टर जी की दो निश्छल बेटियाँ।

सचमुच मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के घर काम उसे चाहे जो भी करना पड़ता हो, उसे बड़ा अपनापा मिला था। अगर मालती सक्सेना जहर न घोल देती तो वह अब तक उस परिवार का एक सदस्य बनकर अपनी आगे की पढ़ाई कर रहा होता। पर अफसोस! इस दुनिया में मालती सक्सेना जैसे क्रूर लोग भी हैं और खूब हैं।

और रंजीत...? क्या वह रंजीत को अब तक ठीक-ठीक समझ पाया है। वह भला-भला-सा भी है, मगर फिर भी उसमें कुछ है, जिससे गोलू को बराबर डर लगता रहता है।

‘अगर रंजीत न मिला होता तो मैं अब तक मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के यहाँ ही काम कर रहा होता।’ गोलू ने सोचा, ‘पता नहीं, रंजीत का मिलना मेरे जीवन में शुभ रहा या अशुभ?’

‘रंजीत बहुत तेज है, बहुत तेज दौड़ना चाहता है। मैं इतना तेज नहीं दौड़ सकता।’ गोलू सोचता।

‘तो क्या एक बार मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के यहाँ हो आऊँ?’ गोलू सोचने लगा। सोचते ही एक बार तो उसके मन में उत्साह आया, पर फिर उसका मन हिचकने लगा।

इस बीच घर की याद भी आई, ‘ओह! कितना समय हो गया मक्खनपुर को छोड़े हुए। मम्मी-पापा, कुसुम दीदी, सुजाता दीदी, आशीष भैया...सबने अब तक तो मुझे मरा मान लिया होगा। या फिर मुझे भूलने की कोशिश कर रहे होंगे। पता नहीं, उनसे अब कभी मुलाकात होगी कि नहीं? मिलना होगा कि नहीं?’

इतने में गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर लगी। तो सवारियाँ हबड़-तबड़ करके उधर दौड़ने लगीं। रंजीत ने गाड़ी में सवार होने से पहले गोलू को छाती से लगाकर खूब प्यार किया। बोला, “गोलू, कोई मुश्किल हो तो बगैर किसी हिचक के लिख देना। अगर पैसों की जरूरत हो तो गल्ला मंडी वाले दलाल कालू से कहना, वह पहुँचा जाएगा। उसका-मेरा पुराना हिसाब चलता है। तुम किसी बात की चिंता न करना। दिल्ली से मन उखड़े तो सीधे गाड़ी पड़कर मुंबई चले आना। मैं वहाँ जाते ही अपना पता लिख भेजूँगा।”

जब तक गाड़ी नहीं चली, रंजीत ढेरों बातें करता रहा। गाड़ी छूटने के बाद देर तक रंजीत का हाथ हिलता रहा, गोलू का भी। फिर गोलू धप्प से पास की एक बेंच पर बैठ गया।

गोलू के मन की अजीब हालत थी। जैसे भीतर से रुलाई फूट रही हो, लेकिन बाहर निकल न पा रही हो। उसका मन हो रहा था, एकांत में जाकर खूब रोए, खूब! पता नहीं उसका कैसा दुर्भाग्य है कि उसे जो भी मिलता है, जल्दी ही छूट जाता है। रंजीत के रूप में एक अच्छा सहारा मिला था, पर...उसका दुर्भाग्य!

“यहाँ दिल्ली में आकर मैंने क्या खोया, क्या पाया?” गोलू मन ही मन सोचने लगा, तो मम्मी-पापा, कुसुम दीदी, सुजाता दीदी और आशीष भैया की प्यार से छलछलाती शक्लें एक बार फिर उसकी डब-डब, डब-डब आँखों के आगे आकर ठहर गईं। वह भीतर इस कदर व्याकुल हुआ कि लगा अंदर बहुत कुछ टूट-फूट जाएगा। जाने कब उसकी आँखें बंद होती चली गईं।

जाने कितनी देर वह ऐसे ही बैठा रहा, आधा सोया, आधा जागा।

19

नीला लिफाफा

तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। गोलू ने अचकचाकर आँखें खोल दीं। उसने देखा, एक अजनबी आदमी उसके पास खड़ा है—खासा लंबा और पतला। कोई छह फुट का तो जरूर होगा। बड़ा रोबीला।...पर मुसकराती हुई आँखें।

उस आदमी ने इशारे से गोलू को अपने पीछे-पीछे आने के लिए कहा। गोलू एक क्षण के लिए तो कुछ कह नहीं सका, पर फिर जैसे जादू की डोर से बँधा खुद-ब-खुद उसके पीछे-पीछे चल दिया।

कुछ दूर जाकर उस अजनबी ने जेब से एक नीला लिफाफा निकाला। उसे गोलू को देते हुए कहा, “तुम मुझे अच्छे बच्चे लग रहे हो। मेरा एक काम करो। बाहर एक आदमी काली पैंट सफेद कमीज पहने खड़ा है। अभी जाकर उसे यह दे देना। बहुत जरूरी पत्र है।”

गोलू कुछ समझ पाता, इससे पहले ही उस आदमी ने सौ रुपए का एक नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “लो, यह रख लो।”

“यह...यह किसलिए? रहने दीजिए अंकल। इसे छोटे से काम के लिए सौ रुपए क्यों दे रहे हैं?” गोलू ने झिझकते हुए कहा।

“नहीं-नहीं, यह तो वैसे ही है।” उस आदमी ने हँसकर कहा, “इन पैसों से तुम चॉकलेट ले लेना। असल में जो लिफाफा तुम्हें दिया है, वह बहुत जरूरी है। उस आदमी को मदद की जरूरत है।...मैं खुद चला जाता, पर मेरी गाड़ी छूटने का टाइम हो गया है। तुम मुझे जिम्मेदार लड़के लग रहे हो। इसीलिए तुम्हीं पर यह जिम्मा छोड़ रहा हूँ।...तुम उसे दे जरूर देना। नहीं तो बेचारा परेशानी में फँस जाएगा।”

गोलू ने एक बार फिर कोशिश की कि सौ रुपए का वह नोट उस अजनबी को वापस कर दे। पर उसका बार-बार एक ही आग्रह था, “यह तो एक छोटी-सी भेंट है तुम्हारे लिए।...तुम मुझे बड़े भले भले और जिम्मेदार लड़के लग रहे हो। इसीलिए तुम्हीं को यह जिम्मा सौंप रहा हूँ।”

और जब गोलू लिफाफा लेकर बाहर चलने लगा तो उस लंबे आदमी ने फिर याद दिया, “हाँ, भूलना नहीं। सीढ़ियों से उतरोगे तो गेट के ठीक सामने काली पैंट, सफेद कमीज पहने एक आदमी नजर आएगा। उसके पास चमड़े का थैला होगा। उसी को देना यह लिफाफा। उसकी को—किसी और को नहीं। और हाँ बता देना कि रफीक भाई ने यह दिया है, रफीक भाई ने!”

गोलू ने उसे भरोसा दिलाया और तेजी से चलता हुआ झटपट सीढ़ियाँ उतरकर रेलवे स्टेशन से बाहर आ गया।

(एक अँधेरी दुनिया में गोलू)

20

काली पैंट, सफेद कमीज वाला आदमी

स्टेशन से बाहर आकर गोलू ने चौकन्नी नजरों से इधर-उधर देखा। सचमुच गेट के आगे ही वह था—काली पैंट, सफेद कमीज वाला आदमी। उसके पास चमड़े का काला बैग भी था। उम्र होगी कोई सत्ताईस-अट्ठाईस साल। साँवला रंग, तीखे नाक-नक्श, थोड़ा मझोला कद। देखने में कुछ बुरा न था। पर गोलू को जाने क्यों वह अच्छा न लगा।

गोलू ने जेब से निकालकर झट उसे नीला लिफाफा पकड़ाया। बोला, “यह रफीक भाई ने आपके लिए दिया है। बताया था, आप यहाँ, गेट के सामने मिलेंगे।”

“अच्छा...!” वह आदमी बोला। और गौर से गोलू को ऊपर से नीचे तक देखने लगा। उसके चेहरे पर अजीब-सी गंभीरता थी। सामने वाले को डरा देने वाली।

फिर उसने नाम पूछा। गोलू ने अपना नाम बताया तो सुनकर वह चुप हो गया। जैसे कोई जरूरी बात सोच रहा हो।

गोलू को यह आदमी कुछ अजीब लगा। खुद को ‘रफीक भाई’ कहने वाला आदमी तो हँसमुख लगता था, लेकिन यह...?

कुछ देर बाद गोलू चलने लगा, तो उस आदमी ने कहा, “ठहरो गोलू, कहाँ जाना है तुम्हें? मैं छोड़ देता हूँ...गाड़ी है मेरे पास।”

“शाहदरा।” गोलू ने कहा, “पर...पर मैं चला जाऊँगा बस से। यहाँ से बहुत बसें जाती हैं। मुझे कोई परेशानी नहीं है अंकल!”

“अरे, मैं तो उधर ही जा रहा हूँ। आ जाओ, शरमाओ मत।” पहली दफा हँसकर उस आदमी ने कहा।

अब गोलू की झिझक थोड़ी कम हो गई थी। वह उस आदमी के साथ जाकर सफेद मारुति कार में बैठ गया। काली पैंट, सफेद कमीज वाले आदमी ने पार्किंग से अपनी कार को निकाला और कार कनॉट प्लेस होती हुई दौड़ पड़ी दिल्ली की सड़कों पर।

उस आदमी ने कहा, “मेरा नाम डिकी है, गोलू। मुझसे दोस्ती करोगे तुम?” और फिर डिकी और गोलू की बातों का सिलसिला शुरू हो गया।

डिकी ने गोलू से उसके घर-परिवार के बारे में पूछा। गोलू ने उसे भी कहानी सुनाई, जो उसने मास्टर गिरीशमोहन शर्मा को सुनाई थी। बोला, “मैं एक अनाथ बालक हूँ। माँ-बाप, भाई-बहन कोई नहीं है। माँ-बाप रेल से कटकर मर गए।...कुछ साल पहले। दोनों रेल की पटरी पार कर रहे थे। अचानक गाड़ी आई और दोनों उसकी लपेट में आ गए। पड़ोसियों ने दाह-संस्कार किया। मैं किसी तरह छोटा-मोटा काम करके गुजारा कर रहा हूँ।”

“अरे, तुम तो इतनी हिम्मत वाले लड़के हो, तो घबराते क्यों हो? चाहोगे तो एक दिन तुम्हारे पास सब कुछ होगा—कोठी, कार, पैसा।...सभी कुछ। तुम अच्छे-खासे समझदार लड़के हो। किस चीज की कमी है तुम्हारे पास?” डिकी ने बड़े प्यार से कहा।

“सच!” गोलू को विश्वास नहीं हो रहा था डिकी की बातों पर। फिर इतनी खूबसूरत कार में बैठने का अपना नशा था। गोलू को लगा, अरे, दिल्ली इतना बुरा शहर तो नहीं है—अगर अपनी गाड़ी हो तो! फिर न बसों में भीड़ के धक्के खाने की जरूरत है और न देर-देर तक बस स्टॉप पर खड़े होकर बसों का इंतजार करने का झंझट।

पर तभी गोलू को अपनी असलियत याद आ गई। कहाँ तो कल की रोटी कमाने की चिंता है—और कहाँ कोठी और कार का सपना!...हद है भई, हद है! क्या कार में बैठने का इतना नशा हो गया?

अब उसे अपने आप पर ही शर्म आ रही थी।

“क्या सोच रहे हो?” अचानक डिकी ने गोलू की ओर देखकर पूछा।

इस पर गोलू और भी संकुचित हो गया। “कुछ नहीं अंकल...कुछ नहीं।” कहकर गोलू ने गरदन नीची कर ली।

“कहाँ जाओगे...कहाँ घर है तुम्हारा? शाहदरा तो आ गया।” डिकी ने फिर पूछा।

“नवीन शाहदरा...!” गोलू ने कहा, “नवीन शाहदरा में एक पतली-सी गली में मेरा घर है। रास्ता बहुत खराब है। वहाँ आपकी गाड़ी नहीं जा पाएगी। मुझे यहीं सड़क पर उतार दीजिए। मैं घूमता, टहलता हुआ अपने कमरे पर पहुँच जाऊँगा।...आप बिल्कुल कष्ट न करें।”

इतने में डिकी ने एक अजीब-सा सवाल पूछा। बोला, “सच बताओ गोलू, क्या तुम अपने जीवन से संतुष्ट हो? क्या तुम्हारी बिल्कुल इच्छा नहीं होती कि तुम भी कारों में घूमो...कोठी में रहो? ठाटदार जीवन जियो!”

गोलू ने कुछ नहीं कहा। एक नजर भरकर डिकी नाम के उस आदमी को देखा। फिर पहले की तरह गरदन झुका ली।

गोलू सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो जादूगर मालूम पड़ता है। वरना जो बात मेरे भीतर चल रही है, इसे कैसे पता चलती!’

गोलू की यह उधेड़बुन भला डिकी को कैसे न पता चलती! उसने कहा, “गोलू, चलो आज मैं तुम्हें अपने घर ले जाता हूँ। वहाँ दो-चार दिन रहो। फिर मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे पर छुड़वा दूँगा।...क्यों ठीक है न?”

गोलू इनकार करना चाहता था। पर उसे लगा, वह इस आदमी की बातों के जादू में फँसता जा रहा है। उसके मुख से इनकार का स्वर निकला भी, पर बहुत हलका। जैसे उसका मन कार-कोठी वाली एक नई दुनिया में जाने के लिए मचल रहा हो।

“मैं असल में रेडीमेड गारमेंट्स की एक फैक्टरी में काम करता हूँ। दो दिन काम पर नहीं जाने से वहाँ मुश्किल आ जाएगी। वैसे भी आजकल, आप जानते ही हैं, नौकरियाँ बड़ी मुश्किल से मिलती हैं।” गोलू ने कहा।

“क्या काम करते हो तुम?” डिकी ने पूछा।

“कपड़े सीने का।” गोलू ने कुछ संकोच के साथ बताया।

“नौकरी छूटती है तो छूट जाने दो। उसके बदले तुम्हें कोई और अच्छा काम मिल जाएगा।” वह आदमी हँसा।

गोलू ने पाया कि वह पूरी तरह डिकी नाम के इस आदमी के सम्मोहन में जकड़-सा गया है।

“तुममें कुछ खास बात है, इसीलिए मेरा तुम्हारी तरफ ध्यान गया।” डिकी ने कहा, “यह मत समझ लेना कि मैं तुम पर कोई दया दिखा रहा हूँ या अहसान कर रहा हूँ। तुम योग्य हो, प्रतिभाशाली हो। वरना तो दिल्ली में कितने ही लड़के हैं जो कुछ बनना चाहते हैं और इसके लिए बुरी तरह संघर्ष कर रहे हैं...हाथ-पैर मार रहे हें। पर तुम सबसे अलग हो। तुम्हारे चेहरे पर बुद्धिमत्ता की छाप है। इसीलिए पहली बार तुम्हें देखा, तभी से मुझे लग रहा है, तुम्हें बहुत ऊपर उठना चाहिए।”

इस प्रशंसा से गोलू और अधिक सकुचा गया था। हालाँकि वह महसूस कर रहा था, उसके मन के आँगन में ढेरों गुलाब खिल गए हैं—नई उमंगों और उम्मीदों की कलियाँ चटख रही हैं, चट-चट, चट-चट, चट...! ओह, इतना खुश वह पहले कब था?

गोलू समझ नहीं पा रहा था, इतनी खुशी भला उसके अंदर कैसे समा सकेगी? वह सोच रहा था—क्या सचमुच भाग्य ने उसका जीवन इतने क्रांतिकारी ढंग से बदल दिया है, क्या सचमुच?

और वह सफेद मारुति कार फिर से दिल्ली की सड़कों पर दौड़ पड़ी। दौड़ती रही...दौड़ती रही...दौड़ती रही...!

21

वह आलीशान नीली कोठी

डिकी नाम का वह आदमी गोलू को सचमुच एक भव्य, विशालकाय नीली कोठी में ले आया। इतनी आलीशान कोठी...कि वह हर ओर से बस चमचमा रही थी। सामने एक से एक खूबसूरत कारें।

कोठी में प्रवेश करते ही एक लकदक-लकदक करता रिसेप्शन। बालों में सुर्ख गुलाब का फूल लगाए एक सुंदर-सी लड़की रिसेप्शन पर फोन अटैंड कर रही थी। कतार में रखे चार या पाँच फोन। उनमें से कोई न कोई बजता ही रहता।

गोलू के साथ डिकी के अंदर प्रवेश करते ही रिसेप्शनिस्ट ने मुसकराकर कहा, “गुड नाइट डिकी सर!”

डिकी ने परिचय कराते हुए कहा, “माई न्यू फ्रेंड गोलू...उर्फ गौरव कुमार।...एंड गोलू, शी इज कमलिनी...कमलिनी सेठ।”

अंदर एक बड़ा-सा हॉल था जिसमें कई सोफे पड़े थे। डिकी गोलू के साथ एक सोफे पर बैठ गया। बोला, “गोलू, यही हमारा ऑफिस है। यहीं अंदर वाले कंपार्टमेंट में हम रहते हैं! क्यों, अच्छा है न!”

“हाँ, बहुत!” गोलू अचरज से इस कोठी की चमचम चमकती, वार्निश पुती दीवारों पर नजर डालते हुए बोला। सोचने लगा, ‘यह तो ऐसी जगह है, जहाँ हर चीज अपनी जगह सही सुरुचिपूर्ण है। मैं पता नहीं, यहाँ टिक पाऊँगा भी या नहीं? फिर यहाँ तो हर कोई अंग्रेजी बोलता है। मैं तो इतनी अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल सकता।’

फिर थोड़ी देर में चाय आ गई। गोलू डिकी के साथ बैठकर चाय पीने लगा। डिकी ने गोलू को चाय बनाना सिखाया—ऐसे ही टी-बैग डालो, ऐसे मिल्क...शुगर...!

चाय पीने के बाद डिकी ने कहा, “गोलू, तुम यहीं बैठकर अखबार और पत्रिकाएँ देखो। मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ। तुम्हें अभी पॉल साहब से भी मिलवाना है। मिस्टर विन पॉल, हमारे बिग बॉस!

डिकी चला गया तो गोलू ने निगाहें घुमाकर इधर-उधर देखा। हॉल में बहुत से लोग थे...पर हर आदमी अपने काम में लगा था। कोई टाइप कर रहा था, कोई नोट्स ले रहा था। कोई किसी को कुछ समझा रहा था...कोई फोन कर रहा था। हर आदमी व्यस्त था, साथ ही हर आदमी चौकन्ना भी था। आपस में लोग एक-दूसरे से बहुत-कम बात कर रहे थे।

गोलू ने सामने की मेज पर पड़ा ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ उठा लिया और खबरों की दुनिया में डूब गया। उन्हीं में एक खबर भारत की रक्षा तैयारियों के बारे में हो रही जासूसी की थी। भारत की सुरक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारियाँ दूसरे मुल्कों तक कैसे पहुँच रही हैं? भारत के उच्च सैन्य अधिकारी इस बात को लेकर चिंतित थे और खोजबीन में जुटे थे।...तो क्या थोड़े से फायदे के लिए अपने देश के ही लोग ये सूचनाएँ विदेशों तक पहुँचा रहे हैं? गोलू हैरान होकर सोच रहा था।...वह बड़ी उत्सुकता से पढ़ने लगा।

कुछ ही देर में डिकी आया। बोला, “चलो गोलू, तुम्हें मिस्टर पॉल बुला रहे हैं...!”

इस हॉल के अंदर एक और काफी लंबा-चौड़ा कमरा था। वहाँ मिस्टर विन पॉल एक बड़ी-सी आराम कुर्सी पर बैठे थे—किसी शान-शौकत वाले राजा की तरह।

मिस्टर विन पॉल के ठाट-बाट देखकर गोलू मन ही मन कुछ आतंकित-सा हो गया। डिकी बार-बार उनके आगे सिर झुकाकर बात करता था और ‘सर...सर...!’ कहकर कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था।

मिस्टर पॉल सीरियस थे, पर बीच-बीच बीच-बीच में कभी-कभी मुसकरा भी पड़ते थे और ‘वैल डन...वैल डन’ कहकर डिकी को शाबाशी देने लगते थे।

गोलू सोचने लगा, यह गंजा आदमी जिसके आगे डिकी भी झिझकता हुआ ‘सर...सर...’ कहकर बात कर रहा है, कितना बड़ा आदमी होगा।

22

बिग बॉस!

पर ये लोग करते क्या होंगे? कोई फैक्टरी वगैरह तो ये लोग चलाते नहीं हैं? फिर कहाँ से आता है इतना पैसा, इतनी दौलत...?

गोलू फिर से हॉल की सजावट पर गौर करने लगा। यह तो पुराने जमाने के किसी राजा-महाराज का महल लगता है।

“अच्छा, तो क्या तुम्हीं गोलू हो?” एक गूँजदार आवाज सुनाई दी, तो गोलू चौंका। मिस्टर पॉल मुसकराकर उससे पूछ रहे थे।

“जी...!” गोलू को लगा कि उसकी जीभ तालू से चिपक गई है और बड़ी मुश्किल से शब्द निकल पा रहे हैं।

फिर हिम्मत करके उसने कहा, “सर, मेरा असली नाम तो गौरव कुमार है, पर सभी गोलू कहते हें। अब तो मुझे भी यही अच्छा लगने लगा है।”

“ओह, यू मीन, गोलू...उर्फ गौरवकुमार!” मिस्टर पॉल खिलखिलाकर हँसे।

“यस सर...यस!” गोलू ने भी इसी तरह हँसकर जवाब दिया। अब उसकी झिझक काफी कम हो गई थी।

“कैसा लगा हमारा घर...?” मिस्टर पॉल ने पूछा।

“जी, अच्छा है, बहुत अच्छा...लाइक ए ब्यूटीफूल ड्रीमलैंड!” गोलू ने बेझिझक उत्तर दिया।

इस पर मिस्टर विन पॉल ने मुसकराकर कहा, “तो अब तुम भी यहीं रहोगे—हमारे ड्रीमलैंड में! क्यों, ठीक है न!”

“लेकिन मैं जिस फैक्टरी में काम करता हूँ, वहाँ...अभी मैंने रिजाइन भी नहीं दिया!” गोलू ने झिझकते हुए कहा।

“भूल जाओ उसे!” मिस्टर पॉल ने कहा, “अब तो यही तुम्हारा घर है, यही तुम्हारी फैक्टरी। सोचो कि तुम्हारी दुनिया बदल गई! और अब बदली हुई दुनिया के हिसाब से तुम भी बदलो।” फिर एकाएक उन्होंने पूछा, “वहाँ तुम्हें कितनी तनखा मिलती थी?”

“सात सौ रुपए।” गोलू ने थोड़ा सकुचाकर कहा।

“तो ठीक है, इस पर एक जीरो और लगा लो। यानी सात हजार रुपए।...क्यों ठीक है न! अब तो खुश हो...या कम लगती हो तो बताओ।” मिस्टर विन पॉल ने गौर से उसे देखते हुए कहा।

“नहीं सर, यह तो बहुत है...बहुत ज्यादा!” गोलू के चेहरे पर चमक थी।

“मेहनत से काम करोगे—जिम्मेदारी से, तो साल भर के अंदर तनखा दूनी।” विन पॉल हँसे।

“थैंक्यू सर! पर मुझे काम क्या करना होगा?” गोलू ने पूछा। वह जान लेना चाहता था कि जो काम उसे सौंपा जाए, वह उसके साथ न्याय कर पाएगा या नहीं?

“वह भी बताएँगे...आराम से। धीरे-धीरे सब सीख जाओगे। कोई जल्दी नहीं है। बहुत जिम्मेदारी वाला काम तुमसे लेना है।” विन पॉल मंद-मंद मुसकरा रहे थे।

“हाँ, एक बात है, तुम्हारी अंग्रेजी अच्छी होनी चाहिए। आज से ही अंग्रेजी की किताबें, अखबार और मैगजीन पढ़ने शुरू कर दो। बढ़िया अंग्रेजी बोलने की भी प्रैक्टिस करो। हमार काम ज्यादातर विदेशी दूतावासों से पड़ता है...इसलिए अंग्रेजी बहुत अच्छी होनी चाहिए।”

“जी, ठीक है। मुझे बस एक महीने का समय दे दीजिए।” गोलू ने भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहा।

“ठीक है, जाओ गोलू। कोई कोई परेशानी हो तो मुझे या मि. डिकी को बताना।...अब तुम भी इस ड्रीमलैंड के एक पार्ट हो।” मि. विन पॉल के चेहरे पर चौड़ी मुसकान थी।

गोलू ने सिर झुकाकर मिस्टर विन पॉल को धन्यवाद दिया और बाहर चला गया।.

*

उसके बाद तो गोलू के लिए जैसे एक नई दुनिया के द्वार खुल गए। सारे दिन वह अंग्रेजी के अखबार पत्रिकाएँ और किताबें पढ़ता रहता। पढ़ने का शौक तो उसे पहले से ही था, पर अंग्रेजी की पत्रिकाएँ और किताबें उसने बहुत कम पढ़ी थीं।

इधर पढ़ना शुरू किया तो तो शुरू-शुरू में दिक्कत आई। फिर उसे अच्छा लगने लगा। कभी-कभी अकेले में ही धीरे-धीरे बुदबुदाकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करता। उसे लगता, थोड़ी मुश्किल भले ही आए, पर वह अंग्रेजी बोलना सीख जाएगा, जल्दी ही। और अंग्रेजी पढ़ने और समझने में तो उसे जरा भी मुश्किल नहीं आती थी।

कुछ रोज बाद एक साँवले रंग की दुबली-पतली महिला उसे अंग्रेजी पढ़ाने आने लगी। उसने कहा, “मिस्टर विन पॉल का आदेश है, मैं आपकी मदद करूँ।”

गोलू उस महिला के साथ अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करता और वह महिला उसे प्रोत्साहित करती। अच्छा बोलने पर शाबाशी भी देती।

गोलू को मालूम पड़ा, उस साँवली स्त्री का नाम है, मिसेज ब्राउनी। उसे हैरानी हुई, ये तो एकदम सीधी-सादी हिंदू औरतों की तरह लगती है। वैसी ही साड़ी, यहाँ तक कि बिंदी भी। तो फिर इसका नाम मिसेज ब्राउनी कैसे?

तभी एक बात पर उसका ध्यान गया कि ज्यादातर लोगों के नाम यहाँ अजीबोगरीब हैं। कोई मिस्टर एक्स है तो कोई मिस्टर वाई। कोई मिस्टर डब्ल्यू...! काली पैंट, सफेद कमीज वाला जो आदमी उसे कार में बिठाकर लाया था, उसका नाम था मिस्टर डिकी!...यह भी कितना अटपटा नाम है। भारतीयों के ऐसे नाम कहाँ होते हैं! जबकि देखने-भालने में सब यहीं के लगते हैं। बस स्टेशन पर मिले रफीक भाई का नाम ही उसे कुछ ठीक-ठाक लगा। पर ऐसा नाम तो किसी और का है नहीं। यहाँ तो लगता है, किसी भी आदमी का नाम असली नहीं है। जैसे नाम न हों, सिर्फ नाम के ठप्पे हों।

जो भी हो, मिसेज ब्राउनी सचमुच अच्छी थीं और बहुत प्यार से उसे अंग्रेजी बोलना सिखाने लगीं। मिसेज ब्राउनी का अंग्रेजी बोलने का ढंग इतना अच्छा था और वह इतनी अच्छी अंग्रेजी बोलती थीं कि गोलू हैरानी से उन्हें बस देखता ही रह जाता था। उसकी इच्छा होती मिसेज ब्राउनी दिन भर अंग्रेजी बोलती रहें और वह बस सुनता रहे, सुनता रहे।

लेकिन मिसेज ब्राउनी सिर्फ एक घंटा पढ़ाकर चली जाती थीं। घड़ी की सूइयों से बँधा एक घंटा जिसके लिए वह बाकी तेईस घंटे इंतजार करता था।

जो भी पाठ मिसेज ब्राउनी पढ़ाकर जातीं, वह दिन भर उसी का अभ्यास करता रहता और खूब अच्छी तरह याद कर लेता था, ताकि अगले दिन मिसेज ब्राउनी की आँखों में अपने लिए शाबाशी और प्रशंसा के भाव देख सके।

महीने भर में ही गोलू काफी फर्राटे से अंग्रेजी बोलने लगा था। कभी-कभी उसे अपने पर अभिमान भी होने लगता था। सोचता, ‘योग्यता की कोई कमी तो है ही नहीं मुझमें। काश, किसी ने पहले मेरी योग्यता को परखा होता! तो मैं कुछ न कुछ तो ऐसा करके दिखा देता कि...आखिर मैं भी किसी से कम नहीं हूँ।’

लेकिन जब एक महीने के बाद मिस्टर विन पॉल ने खुद बुलाकर उसकी हथेली पर सौ-सौ रुपए के नए-नकोर सत्तर नोट रखे, तो उसकी आँखों में आँसू छलछला आए!

“ये तो ज्यादा हैं, बहुत ज्यादा। मैंने ऐसा किया ही क्या है!” गोलू ने झिझकते हुए कहा।

“नहीं, यह ज्यादा नहीं हैं। तुम्हारी प्रतिभा की यह सही कीमत नहीं है। तुम्हारी प्रतिभा इससे कहीं ज्यादा ऊँची है। तुम अभी जानते ही नहीं हो कि तुम क्या कर सकते हो।” कहकर मिस्टर पॉल हँसे।

फिर बोले, “जाओ, ये नोट सँभालकर अपनी अलमारी में रख लो। उसे लॉक करके रखना। चॉबी तुम्हें मिल गई है न! और भी जिस सामान की जरूरत हो, कहना। मँगवा दिया जाएगा। और हाँ, मिसेज ब्राउनी तुम्हारी बहुत तारीफ कर रही थीं कि तुम बहुत इंटेलिजेंट चैप हो और बिल्कुल अमेरिकन स्टाइल में अंग्रेजी बोलना सीख गए।...गुड ब्वाय! अब जल्दी ही हम तुम्हें काम पर भेजेंगे।...घबराओगे तो नहीं?”

“नहीं, बिल्कुल नहीं।” गोलू ने दृढ़ता से कहा।

“ठीक है, जाओ।” कहकर मिस्टर विन पॉल ने उसके कंधे थपथपा दिए।

फिर अपने कमरे में आकर गोलू अखबार पढ़ने में लीन हो गया। इधर ‘टाइम’ जैसी पत्रिका भी उसे मिलने लगी थी, जिसे पढ़ने में उसे बहुत मजा आता।...सचमुच उसके ज्ञान के अनंत दरवाजे-खिड़कियाँ खुल रही थीं। एक ऐसी दुनिया—एक ऐसी खूबसूरत दुनिया उसे मिलेगी, यह तो कभी उसने सोचा ही नहीं था।

फिर उसे याद आया, कीमतीलाल का होटल जहाँ उसे जूठे बर्तन साफ करने का काम भी नहीं मिला था।

याद आए वे भूख से कुड़मुड़ाते दिन, ठंड से ठिठुरती रातें जब उसरने आखिर कुलीगीरी का काम करने का निर्णय किया था। याद आए मास्टर गिरीशमोहन शर्मा। याद आया रंजीत...याद आए मम्मी-पापा और घर के लोग। और उसके चारों ओर यादों के ऐसे चक्कर पर चक्कर बनने लगे, चीजें इतनी तेजी से घूमने लगीं कि उसकी समझ में नहीं आया कि उसके साथ हो क्या रहा है और क्या होने वाला है!

यह कैसी दुनिया में वह आ गया जहाँ महीना भर तो उसे अंग्रेजी सीखने में ही लगा। और इस अंग्रेजी सीखने की उलटे कीमत मिली—सात हजार रुपए। ऐसी यह अजब-गजब दुनिया है! गोलू को हैरानी हुई। क्या यहाँ आने से पहले मैं इसकी कल्पना भी कर सकता था?

अब जल्दी ही उसे काम पर भेजा जाएगा। कैसा काम...? गोलू कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। ओर उसे लगा कि एक काला-डरावना बिंदु उसकी आँख के आगे आकर ठहर गया है।

“घबराओगे तो नहीं?” यह क्यों कह रहे थे मिस्टर विन पॉल।

एक क्षण के लिए गोलू के चेहरे पर सचमुच भय और घबराहट के भाव झलकने लगे। पर जल्दी ही उसने उन्हें परे झटक किया। “ठीक है, देखा जाएगा।” कहकर वह चुटकी बजाने लगा।

23

मिसेज नैन्सी क्रिस्टल

और फिर अगले हफ्ते गोलू के जिम्मे सचमुच एक काम आ पड़ा। पहले मिस्टर डिकी ने उसे सारी बातें समझाईं, फिर मिस्टर विन पॉल के पास भेज दिया।

मिस्टर विन पॉल उससे एक-एक चीज खोद-खोदकर पूछते रहे...कि पहले रिसेप्शन पर जाकर क्या करोगे, फिर...? फिर मिस्टर सी. अल्फ्रेड पीटर के मिलने पर क्या मैसेज देना है? नीला लिफाफा पकड़ाते हुए क्या बात कहनी है? और जो पैकेट वो पकड़ाए, उसे किस तरह अटैची में सँभालकर लाना है...अपना टोटल इंप्रेशन कैसा बनाना है!

गोलू ने सारी रटी-रटाई बातें एक बार फिर बढ़िया तरीके से मिस्टर विन पॉल के आगे उगल दीं। मिस्टर विन पॉल बहुत प्रभावित दिखे। बोले, “एक्सीलेंट...वाह गोलू, वाह!”

इस बार भी कार डिकी ही चला रहा था। वही काली पैंट और सफेद कमीज, जिसमें गोलू ने उसे पहली बार देखा था।

गोलू को वह दिन भी याद था, खूब अच्छी तरह। और वह यह भी देख रहा था कि उस दिन और आज के दिन में कितना अंतर आ चुका था। उस दिन गोलू एक असहाय लड़का था और डिकी ने उस पर बड़ी कृपा की थी। पर आज उसकी पोजीशन डिकी से किसी कदर बेहतर थी।

गोलू कार में बैठा-बैठा अपने प्रोग्राम के बारे में सिलसिलेवार सोचता जा रहा था। फ्रांस के दूतावास में जाकर उसे रिसेप्शन पर एक भद्र महिला नैन्सी के बारे में पूछना था और फिर उसके आने पर उसे एक नीले रंग का लिफाफा देना था। बदले में वे जो खाकी रंग का भारी-सा लिफाफा पकड़ाएँ, उसे सँभालकर ब्रीफकेस में डालकर ले आना था और मिस्टर विन पॉल को सौंपना था। लिफाफा लेकर वापस आते हुए मिसेज नैन्सी क्रिस्टल को बढ़िया अंग्रेजी में धन्यवाद देना था। और यह संदेश भी कि ‘यह महत्त्वपूर्ण सामग्री आपके बहुत काम आएगी, मादाम। उम्मीद है, आगे हम इससे भी ज्यादा उपयोगी सामग्री आपको दे पाएँगे। आप हमारी सेवाओं को पूरा-पूरा विश्वास कर सकती हैं मादाम!’

गोलू में फ्रांस के दूतावास के रिसेप्शन पर जाकर जब मिसेज नैन्सी क्रिस्टल के बारे में पूछा तो रिसेप्शनिस्ट ने उसे हैरानी से देखा। यह नन्हा-सा बालक भला मिसेज नैन्सी क्रिस्टल से क्या बात करेगा?

लेकिन जब गोलू ने कहा कि उसके पास मिसेज नैन्सी क्रिस्टल के लिए एक जरूरी मैसेज है, तो उन्होंने झट उसे बुला दिया। नैन्सी क्रिस्टल उसे साथ लेकर एक अलग केबिन में चली गईं, जहाँ गोलू ने उन्हें नीले रंग का लिफाफा पकड़ाकर कहा, “यह आपके लिए है मादाम। हमारे बॉस मिस्टर विन पॉल ने दिया है।...”

सुनकर मिसेज नैन्सी क्रिस्टल का चेहरा खिल गया। अब के गोलू ने गौर से देखा, गोरे ललछौंहे रंग की एक भारी काया। यही थीं मिसेज नैन्सी क्रिस्टल। उन्होंने एक बड़ा-सा खाकी लिफाफा गोलू को देते हुए कहा, “इसे अपने बॉस को देना, मेरी ओर से उपहार!”

चलते समय गोलू ने बढ़िया लहजे वाली अंग्रेजी में मिसेज नैन्सी क्रिस्टल को अपने बॉस का ‘मैसेज’ और ‘धन्यवाद’ दिया तो वे पुलकित हो उठीं। खुश होकर बोलीं, “यू स्माल चैप!...तुम तो बहुत इंटेलिजेंट लड़का है। क्या नाम है तुम्हारा?”

“गोलू...!” उसने एक मीठी मुसकान के साथ कहा।

“ओह, गोलू! वेरी नाइस, वेरी नाइस...वेरी स्वीट नेम!” कहते-कहते मिसेज नैन्सी क्रिस्टल ने प्यार से उसके गाल चूम लिए।

गोलू अपने ब्रीफकेस में खाकी लिफाफा डालकर ले आया और बाहर खड़ी चमचमाती ब्राउन इंडिका कार में आकर बैठ गया।

मिस्टर डिकी ने फौरन कार स्टॉर्ट की! फिर उसे मोड़ते हुए पूछा, “कोई दिक्कत तो नहीं आई गोलू?”

“बिल्कुल नहीं। शी इज़ ए नाइस लेडी, मिस्टर डिकी।” कहकर गोलू ने पूरी बात बता दी।

सुनकर मिस्टर डिकी जोरों से हँसे। बोले, “हमारे साथ रहोगे गोलू, तो ऐसे अच्छे-अच्छे लोग हमेशा मिलेंगे। रोज। तुम्हारा एक्सपीरिएंस भी बढ़ेगा।” कहते-कहते मिस्टर डिकी एक बार ठहाका मारकर हँस पड़े।

गोलू को इस बार मिस्टर डिकी की हँसी बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। वह सोचने लगा, ‘क्या कहना चाहते हैं मिस्टर डिकी? क्या वह महिला सचमुच अच्छी नहीं थी?...क्या गड़बड़ थी उसमें?”

और सोचते-सोचते अचानक गोलू को लगा, वह शायद गलत लोगों में आकर फँस गया है। जिस चमचमाती कंपनी का वह हिस्सा है, वह कंपनी सिरे से ही गड़बड़ है। उसमें कुछ न कुछ फ्रॉड जरूर है, वरना तो कितनी मुश्किल से वह हाड़-तोड़ मेहनत करके महीने में कुल सात सौ रुपए कमा पाता था और यहाँ उसे बैठे-बैठे बगैर किसी काम-धाम के सात हजार रुपए मिल जाते हें! उस पर बढ़िया खाना, पहनना...हर तरह के ठाठ-बाट। कारों में घूमना। हर आदमी के पास अलग मोबाइल फोन और लाखों रुपए का वारा न्यारा।

यह सारा धंधा शायद लिफाफे इधर से उधर लाने ले जाने पर ही टिका है। इधर से नीला लिफाफा...उधर से भारी-भरकम खाकी लिफाफा!

गोलू सोचने लगा, जो नीला लिफाफा वह ले गया था, वह तो हलका-सा था। लेकिन जो भारी-सा खाकी लिफाफा वह लाया, उसका वजन तो खासा होगा। भला ऐसा क्या होगा उसमें? विदेशी करेंसी, सोने की सिल्ली, ब्राउन शुगर...? कुछ न कुछ ऐसी गड़बड़ चीज ही होनी चाहिए। पर जाने क्यों मुझे लगता है कि उसमें करेंसी ही थी? हो सकता है डॉलर...अनगिनत! लिफाफे के साइज से तो यही लग रहा था। यानी कोई दस-बीस करोड़ की रकम। या हो सकता है और भी ज्यादा!

और इस अनाप-शनाप धन के बदले नीले लिफाफे में जो कुछ वहाँ पहुँचाया गया, वह क्या था? जरूर वह कोई बेशकीमती चीज होगी, मगर क्या?

लौटने पर मिस्टर विन पॉल ने गोलू से अटैची ली और कंधा थपथपाते हुए कहा, “कोई मुश्किल तो नहीं आई डियर गोलू?”

“नहीं, बिल्कुल नहीं।” गोलू ने गरदन सीधी तानकर कहा।

फिर वह मिस्टर विन पॉल पर प्रभाव जमाने के लिए छोटी-छोटी कुछ और बातें बताता रहा। और मिस्टर पॉल लगातार गरदन हिलाते हुए ‘वैल डन...वैल डन’ कहते हुए उसकी तारीफ करते रहे।

जब गोलू मिस्टर पॉल के पास से उठकर आया तो उन पर उसका काफी सिक्का जम चुका था। लेकिन गोलू के मन को शांति नहीं थी, उसके भीतर बड़ी तेज उथल-पुथल हो रही थी। उसे बार-बार लग रहा था कि इन अकूत रुपयों के पीछे कोई महत्त्वपूर्ण चीज बेची गई है, बहुत ही महत्त्वपूर्ण। बेशकीमती। अनमोल। वह क्या थी?...क्या थी? क्या थी?

उसका मन बार-बार कह रहा था—इन रुपयों के बदले अपने देश की कुछ जरूरी गोपनीय सूचनाएँ दी गई हैं। फ्रांस के दूतावास की उस महिला को...जिसका क्या नाम था? हाँ, याद आया, नैन्सी क्रिस्टल!

अब तो हर हफ्ते एक या दो जगह इसी तरह के जरूरी अभियान पर उसे निकलना पड़ता। फ्रांस की ही तरह जर्मनी, जापान, इटली, पाकिस्तान और अमरीका के दूतावासों पर भी गोलू की आवाजाही शुरू हो गई। वहाँ जिन लोगों से उसे मिलना होता, उनके नाम और शक्लों से भी वह बखूबी परिचित हो गया।

उसका काम एकदम सीधा था। एक लिफाफा देना, दूसरा लिफाफा लेना और आकर मिस्टर विन पॉल को सौंप देना। पर बीच में जगह-जगह उसकी काबलियत की परीक्षा भी हो जाती। तब अपनी अच्छी अंग्रेजी से सामने वाले को प्रभावित करके रास्ता निकाल लेना जरूरी होता।

जब उससे पूछा जाता कि वह कौन है और किस काम से मिलने आया है तो उसे किस तरह की कल्पित कहानी गढ़कर सुनानी है! असलियत किस तरह छिपानी है, यह बात भी वह खूब अच्छी तरह जान गया। जर्मनी, फ्रांस, अमरीका, इटली या कनाडा के लोगों से मिलते समय...अलग-अलग ढंग की अंग्रेजी और अलग-अलग ढंग की हाव-भाव भरी मुद्राएँ दिखाकर कैसे, किसे प्रभावित करना है, ये सारे गुर भी गोलू बहुत अच्छी तरह जान गया था।

पर उसकी अंतरात्मा में एक कील चुभी हुई थी और वहाँ से लगातार एक कराह निकल रही थी। वह बिना किसी के बताए अच्छी तरह समझ गया था कि वह किसी जासूसी के गिरोह के हत्थे चढ़ चुका है। और उसे अपने देश के खिलाफ ही जासूसी करनी पड़ रही है।

गोलू की आत्मा उसे बुरी तरह धिक्कारने लगी, ‘अरे वाह गोलू, क्या इसी तरह तुम बड़े आदमी होने चले थे! इसी तरह...?’

24

यहाँ से भाग जाओ बाबू!

गोलू को रहने के लिए जो कमरा दिया गया था, वहाँ दूर-दूर तक एकांत था। बस, आसपास बड़े-बड़े गमलों और खूबसूरत क्यारियों में किस्म-किस्म के फूलों के पौधे, लॉन में गुलमोहर और पॉप्लर के पेड़ और कुछ दूर हरा-भरा जंगल नजर आ जाता था। रामप्यारी नाम की एक स्त्री उसके कमरे में झाड़ू-पोंछा और सफाई करने आती थी। गोलू कभी-कभी उससे यों ही बातें करता।

रामप्यारी ने बताया कि वह मैनपुरी जिले की है। और जब उसे पता चला कि गोलू मक्खनपुर का है तो उसके मन में उसके लिए बहुत ममता उमड़ पड़ी।

गोलू ने रामप्यारी को सब कुछ सच-सच बता दिया था, “मैं मक्खनपुर का हूँ, आंटी। जाने किस बुरी घड़ी में घर छोड़कर चला आया और अब पछता रहा हूँ। इन लोगों को मैंने कुछ भी नहीं बताया, पर तुम्हें सच-सच बताया है।...तुम्हारे आगे तो झूठ बोलना एकदम मुश्किल है।”

रामप्यारी बोली, “बाबू, मैं तो अनपढ़ हूँ, ज्यादा कुछ नहीं जानती। पर फिर भी जाने क्यों मुझे लगता है, ये लोग सही नहीं हैं। तुम गलत जगह आकर फँस गए हो बाबू! जितनी जल्दी हो सके, तुम यहाँ से चले जाओ!”

फिर पास आकर धीरे से उसने कहा, “तुम शरीफ घर के लगते हो। पर यहाँ जो लोग हैं, वो तो बड़े अजीब-अजीब हैं। और पता नहीं, तुम्हें मालूम है या नहीं, यहाँ जो पीला वाला कमरा है, वहाँ रात भर दूसरा काम भी चलता है। जो औरतें दिन में यहाँ काम करती हैं, उनमें से बहुत-सी रात में कुछ और काम करती हैं। बड़े-बड़े अफसरों को खुश करने के लिए। तभी तो रात में कितनी गाड़ियाँ आती हैं, जाती हैं। तुमने भी देखा होगा।”

अब तो जब रामप्यारी आती, उसकी आँखें गोलू को एक ही बात कहती नजर आतीं, “गोलू जितनी जल्दी हो, यहाँ से भाग जाओ! ये ठीक लोग नहीं हैं!...सब एक-दूसरे की जासूसी करते हैं। हो सकता है, यहाँ भी आसपास कोई जासूस छिपा हो!”

फिर धीमी आवाज में कहती, “हमारी तो मजबूरी है बाबू। हम अनपढ़ हैं, कुछ और काम कर नहीं सकते। पर तुम तो पढ़े-लिखे हो, लायक हो। तुम्हारे आगे तो पूरा जीवन पड़ा है। यहाँ से निकलो और कुछ और काम ढूँढ़ो। कुछ और नहीं, तो अपने घर ही लौट जाओ। जरा सोचो तो, तुम्हारे मम्मी-पापा का एक-एक दिन तुम्हारे पीछे कैसे कटता होगा।”

सुनकर गोलू की आँखें छलछला उठतीं। वह सोचने लगता, ‘यह अनपढ़ स्त्री है...लेकिन इसके दिल में कैसी ममता है, कितनी सच्चाई है। जो चार अक्षर पढ़ जाते हैं, वे अपने को जाने क्या समझने लग जाते हैं। देश के साथ गद्दारी करते हुए उन्हें जरा भी दुख नहीं होता, मगर दूसरी तरफ इस औरत को देखो! कितना सच्चा, निर्मल हृदय है इसका!’

गोलू को पता नहीं क्यों, रामप्यारी में अपनी मम्मी की छवि नजर आने लगती। अकसर रामप्यारी की जगह उसे मम्मी दिखाई देने लगतीं। और उसके कानों में जोर-जोर से मम्मी की दुख से भरी आवाज गूँजने लगती, ‘गोलू, लौट आ...लौट आ...लौट आ मेरे प्यारे बेटे!’

अब गोलू के भीतर उधेड़बुन और तेज हो गई! उसने सोच लिया कि वह यहाँ से जाएगा तो, पर इस जासूसी के षड्यंत्र का भंडाफोड़ करके जाएगा।

हालाँकि वह इस बात के लिए मिस्टर विन पॉल के प्रति कृतज्ञता महसूस करता था कि उन्होंने उसे इतने प्यार और आराम से रखा। लेकिन जब उनके स्वार्थ और बुरे मकसद का खयाल आता, तो उसके अंदर लपटें उठने लगतीं। और फिर गद्दारी तो गद्दारी है! उसे किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता।...

उफ, चंद सिक्कों के लिए देश को बेचना! देश की इज्जत, आबरू और आजादी को बेचना! इससे नीच काम भी कोई और हो सकता है? गोलू को लगा, उसके भीतर भयानक आग की लपटें उठ रही हैं और जब तक वह इस पूरे षड्यंत्र का पर्दाफाश नहीं करता, उसे चैन नहीं पड़ेगा।

उसने तय कर लिया कि वह इस संस्था के एक-एक आदमी की छोटी से छोटी गतिविधि पर नजर रखेगा, ताकि समय आने पर पुलिस के आगे पूरी तरह भंडाफोड़ किया जा सके।

ऐसा सोचते ही, उसे लगा, उसकी निगाहें बहुत तेज हो गई हैं। और इस ऊपरी चमक-दमक के अंदर छिपे बहुत से कीटाणु और कालिख के दाग-धब्बे जो पहले नजर नहीं आए थे, वे अब साफ-साफ नजर आने लगे हैं।

उसे समझ में आ गया था कि चीजें यहाँ वैसी नहीं हैं, जैसी ऊपर से नजर आती हें। और लोग भी वैसे नहीं हैं, जैसे ऊपर से दिखते हैं। दिखने और होने ममें यहाँ बड़ा भारी पर्दा पड़ा है। यह पर्दा अब गोलू के आगे चिंदी-चिंदी हो गया था और उसे सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगा था।

उसे यह भी समझ में आ गया था कि मिस्टर विन पॉल का यह इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा किस आधार पर था? और यह भी कि इतना सारा पैसा और ऐशोआराम...आखिर देशद्रोह और गद्दारी की कीमत पर ही है न!

उफ, मैं भी इस गद्दारी में शामिल हुआ—मैं भी! गोलू अंदर ही अंदर छटपटाता। पता नहीं वे कितनी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ होंगी? हमारे देश की फौज, हथियारों और सैनिक ठिकानों के बारे में! हमारे देश की वैज्ञानिक खोजों के बारे में! ऐसी सूचनाएँ जिनका हमारे देश के ही खिलाफ उपयोग होगा! और क्या पता, उससे हमारे देश की आजादी संकट में पड़ जाए?

वे जरूरी और महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ कहाँ-कहाँ पहुँचेंगी और कौन-कौन लोग उनका इस्तेमाल करेंगे? सोचकर उसका सिर चकराने लगा।

ओह, कितनी मुश्किल से...कितनी कुर्बानियाँ देने के बाद हमने आजादी हासिल की है और दुनिया के ये देश सोचेंगे कि भारत की आजादी इतनी सस्ती है, इतनी...कि चंद नोटों में खरीदी जा सकती है।

उफ, मैं क्या कर बैठा...! गोलू सोच रहा था और रो रहा था।

फिर भी गोलू जल्दी-जल्दी में कुछ नहीं करता चाहता था। उसने सूचना-सेवा के नाम पर काला धंधा कर रही इस फर्जी कंपनी के बोर में इधर-उधर से सूचनाएँ इकट्ठी करनी शुरू कर दीं।

उसने रामप्यारी से पूछा था, “यहाँ से बाहर निकलने का क्या कोई गुपचुप रास्ता भी है?” तब रामप्यारी ने उसे पिछवाड़े वाले दरवाजे के बारे में बताया था, जहाँ से बहुत से लोग चोरी-चोरी अंदर दाखिल होते और फिर चुपके से निकल जाते थे। ऐसे लोग जो सरकार के बड़े अधिकारी, बड़े अफसर थे। ऊँची तनखा वे लेते थे, मगर चंद सिक्कों के बदले देश की इज्जत बेचने में जिन्हें शर्म नहीं आती थी। वे देश की बहुत-सी गोपनीय सूचनाएँ मिस्टर विन पॉल को बताकर बदले में सोना, चाँदी और कागज के नोट ले जाते थे।

गोलू ने पिछवाड़े के दरवाजे से दाखिला होने और निकलने वाले लोगों पर ध्यान देना शुरू किया तो बहुत-से गुप्त रहस्य उजागर होने लगे।

रामप्यारी ने उसे बताया था कि आधी रात के समय, जब सब सो रहे हों, तो वह पिछवाड़े का दरवाजा खोलकर निकल जाए। इससे किसी को उस पर शक नहीं होगा। फिर यहाँ से खेतों में होकर रास्ता सीधा किंग्सवे कैंप में निकलता है। वहाँ से वह रेलवे स्टेशन जा सकता है।

किंग्सवे कैंप के पास बनी हजार गज की इस तिमंजिला कोठी का कितना किराया होगा? कोई डेढ़ लाख रुपए महीना! सोचकर गोलू की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई थी।

उसे लगा—काश, अगर वह कवि होता, तो वह बड़ा तीखा-सा गाना बना सकता था। उस गाने की शुरुआत इन पंक्तियों से होनी चाहिए थी—

‘ये पैसा कहाँ से आए रे!

ये पैसा कहाँ को जाए रे!!’

*

गोलू ने यहाँ से भागने की योजना दो-तीन बार बनाई और उसने जान लिया कि इसमें जरा भी मुश्किल नहीं है। पर फिर आखिरकार उसने तय किया कि नहीं, कुछ करके ही वह यहाँ से जाएगा। सिर्फ अपने आप को बचा लेना ही काफी नहीं है। इस खतरनाक जासूसी और गद्दारी का भंडाफोड़ करना भी जरूरी है।

लेकिन सही मौका उसे नहीं मिल पा रहा था। और गोलू इंतजार में था—कभी न कभी तो उसे मौका मिलेगा। सारी चीजें तेजी से उसके दिमाग में दौड़ने लगीं।

उसने एक पुलिस वैन को भी अकसर इस इलाके में गश्त लगाते देखा देखा था। ‘अगर किसी दिन वह नीला लिफाफा मैं दूतावास के अधिकारी को देने की बजाय पुलिस के हवाले कर दूँ तो...?’ गोलू ने सोचा। और मन में यह खयाल आते ही उसकी आँखें चमकने लगीं।

‘लेकिन...अगर मिस्टर डिकी ने यह देख लिया तो? हो सकता है, वह गुस्से में आकर गोली मार दे! आखिर तो ये खतरनाक लोग हैं। कुछ भी इनके लिए मुश्किल नहीं है।’ गोलू के मन में विचार आया।

‘मगर जो होगा, सो देखा जाएगा।’ गोलू ने निश्चय किया, वह अपनी आत्मा को बेचेगा नहीं। किसी भी कीमत पर नहीं! जान जाती है तो जाए!

और यह निर्णय कर लेने के बाद ही गोलू को शांति पड़ी। उस रात, बहुत दिनों बाद गोलू को चैन की नींद आई।

25

पुलिस जिप्सी वैन में

और जल्दी ही गोलू को मौका मिल गया। एक दिन जर्मन दूतावास के एक अधिकारी के पास गोलू को इसी तरह का लिफाफा पहुँचाना था। अपने चमड़े के बैग को लिए गोलू सतर्कता से आगे बढ़ रहा था। अचानक उसे बाहर सड़क पर एक पुलिस जिप्सी वैन दिखाई पड़ गई।

मिस्टर डिकी तो गाड़ी को पार्क करने के लिए एक साइड में ले गए थे। उधर गोलू के पैर धीरे-धीरे पुलिस जिप्सी वैन की ओर बढ़ने लगे। वह उसके पास जाकर खड़ा हो गया। अंदर से झाँककर पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा, “क्या बात है भाई?”

“कृपया मुझे जल्दी से अरेस्ट कर लीजिए। मेरे पास कुछ जरूरी सूचनाएँ हैं—गोपनीय सूचनाएँ, जो इस देश की सुरक्षा को संकट में डाल सकती हैं। प्लीज जल्दी कीजिए, अरेस्ट मी!” गोलू ने उसके पास जाकर धीरे से कहा।

इस पर पुलिसवाला हक्का-बक्का रह गया। बोला, “कौन-सी सूचनाएँ? क्या...क्या...क्या कह रहे हो तुम?...तुम हो कौन?”

गोलू बोला, “मेरे पास ज्यादा बात करने का समय नहीं है। जल्दी से मुझे अरेस्ट करो और अपने किसी बड़े अधिकारी के पास ले चलो। हो सके तो डी.आई.जी मिस्टर रहमान खाँ के पास! मैं उन्हें सब कुछ बता दूँगा। मुझे गाड़ी में बैठाओ और जल्दी से वायरलेस पर उन्हें सूचना दो!”

अब पुलिस इंस्पेक्टर समझ गया था कि मामला गंभीर है। उसने झट दरवाजा खोलकर गोलू को जीप के अंदर बैठाया। पूछा, “कहाँ हैं सूचनाएँ?” गोलू ने अपने चमड़े के बैग की ओर इशारा किया। बोला, “इसमें! सारी बात बाद में बताऊँगा। पहले फोन करो डी.आई.जी रहमान खाँ को!”

पुलिस की जीप फर्राटे से दौड़ पड़ी और डी.आई.जी रहमान खाँ से संपर्क भी हो गया। उन्होंने तुरंत पुलिस इंस्पेक्टर को अपने दफ्तर पहुँचने के लिए कहा। उस इलाके की जितनी भी पुलिस जिप्सियाँ थीं, उन्हें उसी क्षण सतर्क कर दिया गया।

26

रहमान चाचा

अब गोलू पुलिस डी.आई.जी रहमान खाँ के सामने बैठा था और पास ही पुलिस इंस्पेक्टर भी था। रहमान खाँ गौर से गोलू का दिया हुआ नीला लिफाफा खोलकर अंदर के कागज पढ़ रहे थे। उनका चेहरा गंभीर, बेहद गंभीर था। बोले, “हमारे सैनिक ठिकानों के बारे में इतनी गोपनीय सूचनाएँ! यह लिफाफा आया कहाँ से तुम्हारे पास?”

“मुझे यह लिफाफा जर्मन दूतावास के एक अधिकारी को देना था। लिफाफा मिस्टर विन पॉल ने दिया था।” गोलू ने धीरे से कहा।

“कौन मिस्टर विन पॉल? तुम उसे कैसे जानते हो? उसने तुम्हीं को क्यों दिया?” मिस्टर रहमान ने गौर से उसे देखते हुए कहा।

“यह लंबी कहानी है। मैं अनजाने ही मि. विन पॉल के चक्कर में फँस गया था। मैं नहीं जानता था कि वहाँ ये सारे काम होते हैं।...आप मेरी पूरी कहानी सुन लीजिए रहमान चाचा। फिर आप खुद सारी बातें जान जाएँगे।” गोलू ने कहा।

और फिर उसने सक्षेप में मक्खनपुर से भागकर दिल्ली आने की...और फिर जिस तरह मिस्टर विन पॉल के चंगुल में फँसा, वह पूरी कहानी सुना दी।

डी.आई.जी रहमान खाँ गोलू की सारी बातें ध्यान से सुनते रहे। फिर बोले, “जिसने तुम्हें लिफाफा पकड़ाया था और अपना नाम रफीक भाई बताया था, पुलिस को उसकी कई मामलों में तलाश है। इसलिए वह भागा-भागा फिरता है और चोरी-छिपे तुम जैसे सीधे-सादे लड़कों को फँसाने के लिए जाल डालता है। बच्चों पर कोई शक नहीं करता, शायद इसलिए वे लोग जान-बूझकर बच्चों को फँसाते हैं। उन्हें आगे-आगे रखकर, पीछे अपना काला धंधा चलाते रहते हैं। पर तुमने सचमुच बहादुरी का काम किया है गोलू। ऐसी हिम्मत कोई-कोई कर पाता है। तुम्हारे भीतर देशभक्ति का जज्बा है, इसलिए तुम यह कर पाए! सच तो यह है कि देश के साथ गद्दारी करने से तो अच्छा है भूखा मर जाना।”

सुनकर गोलू रोमांचित हो गया। बोला, “माफ कीजिए, क्यों मैं आपको रहमान चाचा कहकर बुला सकता हूँ?”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं?” कहकर रहमान चाचा ने गोलू की स्नेहपूर्वक पीठ थपथपाई।

फिर बोले, “तुम बहादुर बच्चे हो। मुझे उम्मीद है, तुम जीवन में कुछ बड़ा काम करोगे। बहुत आगे जाओगे।”

सुनकर गोलू को बड़ा अच्छा लगा। पर उसके मन में खुदर-बुदर चल रही थी। बोला, “रहमान चाचा, आपने इतना प्यार दिया, यह मैं कभी भूल न पाऊँगा। पर अब हमें जल्दी करनी चाहिए। कहीं अपराधी भाग न जाएँ। अब तक तो उन्हें पता चल गया होगा कि पुलिस का छापा पड़ने वाला है।”

“तुमने ठीक अनुमान लगाया।” रहमान चाचा बोले, “पर वे अब भागकर कहीं नहीं जा पाएँगे। पूरी दिल्ली की पुलिस को अलर्ट कर दिया गया है।”

फिर रहमान चाचा ने गोलू को अपनी कार में बिठाया। कुछ सिपाही और बड़े अधिकारी भी कार में बैठे। और फिर रहमान चाचा की कार किंग्सवे कैंप की ओर दौड़ पड़ी। पीछे-पीछे पुलिस के सिपाहियों को भी आने का आदेश दे दिया गया।

जैसा कि पहले ही अंदाजा था, मिस्टर विन पॉल और उनके साथी कोठी को खाली करके भाग गए थे। फिर भी छापा पड़ा तो बहुत-सी काम की चीजें पुलिस के कब्जे में आ गईं। उनसे अपराधियों के काले कारनामों के बारे में काफी कुछ पता चला। उनकी पहचान के बारे में भी और यह भी कि वे किन-किन लोगों से मिलकर काम करते थे। सूचनाएँ किन अधिकारियों से हासिल करते थे और उन्हें कहाँ-कहाँ पहुँचाते थे। मि. विन पॉल के संपर्कों का जाल कहाँ-कहाँ तक फैला हुआ था, ये सभी सूचनाएँ और नाम एक डायरी में मिल गए।...

सख्त पूछताछ हुई तो और भी काम की सूचनाएँ मिलती गईं। तीसरे दिन मि. विन पॉल समेत सभी अपराधियों को पकड़ लिया गया।

पुलिस ने जब गवाह के रूप में गोलू को आगे किया, तो सबकी हालत खराब हो गई। सभी ने अपना जुर्म कबूल कर लिया।

इस बीच गोलू रहमान चाचा के घर पर ही रहा, क्योंकि रहमान चाचा समझ गए थे कि गोलू के प्राणों पर संकट मँडरा रहा है। अपराधी अपनी जान बचाने के लिए उसे मार भी सकते हैं।

रहमान चाचा और सफिया चाची गोलू को खूब प्यार करते। फिराक और शौकत उनके दो बेटे थे, जिनमें शौक बिल्कुल गोलू की ही उम्र का था। गोलू, फिराक और शौकत के साथ दिन भी खेलता और बातें करता रहता। वे उसका खूब जी बहलाते। फिर भी कभी-कभी गोलू को घर की याद आ जाती और वह रो पड़ता।

सफिया चाची उसे प्यार करते हुए कहतीं, “रो मत गोलू, तूने तो इतना बड़ा बहादुरी का काम किया है। अब तक तेरे माता-पिता को भी तेरी बहादुरी की खबर लग गई होगी। फिर भी तेरे रहमान चाचा कह रहे थे कि मैं गोलू को अकेले नहीं जाने दूँगा। खुद अपने साथ ले जाकर घर छोड़कर आऊँगा।”

अब तक इस गद्दारी और जासूसी कांड की पूरी अखबारों में छप चुकी थी। जिन भ्रष्ट अधिकारियों को इसमें लिप्त पाया गया, उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। इसी तरह विदेशी दूतावासों के जिन अधिकारियों को जासूसी में लिप्त पाया गया, उनकी सूची भारत सरकार ने जारी कर दी। उन्हें तत्काल देश छोड़ने का आदेश दिया गया।

अखबारों में गोलू की प्रशंसा में लेख छपे। उसकी तसवीर भी छपी। उसी शाम रहमान चाचा अपनी गाड़ी में गोलू को बिठाकर खुद उसके घर मक्खनपुर की ओर चल पड़े।

27

किस्सा रहमान चाचा के साथ घर लौटने का

रहमान चाचा जब गोलू को लेकर घर पहुँचे, तो पूरे मक्खनपुर में उत्सव जैसा माहौल बन गया। मक्खनपुर की रहट गली में तो घर-घर दीए जलाए गए। बाकी लोगों ने भी अपनी खुशी प्रकट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आखिर मक्खनपुर के एक बहादुर लड़के ने पूरे देश, बल्कि पूरी दुनिया में इस कसबे का नाम ऊँचा किया था। लोग समझ गए थे कि मक्खनपुर में खाली बढ़िया मक्खन ही नहीं पाया जाता, गोलू जैसे बहादुर बच्चे भी होते हैं, जारे अपनी जान पर खेलकर भी देश का नाम ऊँचा कर सकते हैं। और लाखों लोगों को देशभक्ति का पाठ पढ़ा सकते हैं।

जैसे ही रहमान चाचा की गाड़ी गोलू के घर के आगे आकर रुकी, गोलू के मम्मी-पापा, दोनों दीदियाँ और आशीष भैया दौड़कर उसके पास आए। सबने गोलू को छाती से लगा लिया। गोलू की मम्मी तो इतनी खुशी थीं कि मारे खुशी के उनकी आँखों से आँसू छलछला आए। बार-बार वे गोलू को छाती से चिपका रही थीं और कहतीं, “बेटा, तू ऐसा कैसे हो गया? तुझे हमारी बिल्कुल याद नहीं आई!”

गोलू के पापा और आशीष भैया उसे बार-बार शाबाशी दे रहे थे, “वाह गोलू, तूने तो कमाल कर दिया! तूने सचमुच ऐसी बहादुरी का काम किया कि घर की इज्जत में चार चाँद लगा दिए। सारा शहर मम्मी-पापा को बधाइयाँ दे रहा है और न जाने कहाँ-कहाँ से बधाई के तार और पत्र आ रहे हैं।”

गोलू की दोनों दीदियाँ बार-बार गोलू के सिर पर हाथ फेरती हुई अपनी खुशी प्रकट कर रही थीं और कुसुम दीदी ने तो उसे बाँहों में भरकर चूम भी लिया था। एक फोटोग्राफर ने झट से गोलू का यह फोटो खींचकर अखबार में छपने के लिए भेज दिया था। इतने में मन्नू अंकल भी आ गए। उन्होंने गोलू को छाती से चिपका लिया। हँसकर बोले, “बुद्धूराम, इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले मुझसे तो मिल लिया होता!” रहमान चाचा मुसकराते हुए यह सब देख रहे थे।

गोलू के मम्मी-पापा ने बार-बार रहमान चाचा को धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के कारण गोलू सकुशल घर वापस आ गया था।

लेकिन रहमान चाचा ने कहा, “गोलू ने कोई मामूली काम नहीं किया। इसकी बहादुरी से तो खुद पुलिस वाले दंग हैं। इसका नाम राष्ट्रपति के विशेष पुरस्कार के लिए भेज दिया गया है। बड़ा होकर यह बहुत अच्छा पुलिस अधिकारी बन सकता है।”

उस रात रहमान चाचा गोलू के घर पर ही रुके और ढेरों बातें करते रहे। अगले दिन वे विदा हुए तो उन्होंने गोलू से कहा, “गोलू, तुमने दिल्ली में जो मुश्किल दिन बिताए, उनके बारे में जरूर लिखना। इससे बहुत से बच्चों को सीख मिलेगी। वैसे भी दिल्ली में बिताए दिनों की तुम्हारी कहानी इतनी रोमांचक है कि हर आदमी उसे साँस रोककर पढ़ेगा।”

इस पर गोलू ने मुसकराते हुए सिर हिलाया और जब रहमान चाचा गाड़ी में बैठने को हुए, तो उन्होंने चुपके से उनके पैरों की धूल ले ली। रहमान चाचा प्यार से उसके कंधे थपथपाकर चले गए। जाते-जाते उन्होंने कहा, “गोलू, मुझे चिट्ठी लिखना मत भूलना।”

28

अखबारों में छपी कहानी

यह रहमान चाचा का जादू ही था कि अब घर में गोलू की इज्जत पहले से कई गुना अधिक बढ़ गई थी। अब कोई उसे ताने नहीं देता था और न यह कहता था कि गोलू, तुझमें यह कमी है, वह कमी है।

शायद रहमान चाचा ने ही गोलू के घर वालों को इशारा कर दिया था, इसलिए किसी ने खोद-खोदकर उससे पिछली बातें नहीं पूछीं।...हाँ, अखबारों में गोलू के बारे में जो भी छपता था, उसकी कटिंग गोलू के घरवाले सँभालकर रखते जाते थे। बहुत से अखबरों के संवाददाता तो गोलू के घर भी आ पहुँचे थे। और उसकी पूरी कहानी नोट करके ले गए थे। ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’, ‘भास्कर’, ‘दैनिक हिंदुस्तान’ और ‘नवभारत टाइम्स’ ने गोलू के संघर्ष और बहादुरी की पूरी कहानी उसके फोटो के साथ छापी थी। गोलू के दोस्त उन अखबारों को लेकर दौड़े-दौड़े गोलू के पास आते और कहते, “वाह दोस्त, तुम तो रातोंरात महान हो गए!” इस पर गोलू हँस पड़ता।

मास्टर गिरीशमोहन शर्मा और रंजीत को भी गोलू की बहादुरी की यह कहानी अखबारों में पढ़ने को मिली थी। किसी अखबार में गोलू का पूरा पता भी छपा था। वहीं से पता लेकर मास्टर गिरीशमोहन शर्मा ने गोलू को शाबाशी की चिट्ठी लिखी थी। और लिखा था कि मैं तो शुरू से ही जानता था कि तुम जरूर कोई बहादुरी का काम करोगे।

रंजीत ने भी गोलू को बड़ी प्यारी सी चिट्ठी लिखी थी जिसमें उसके साथ बिताए दिनों को याद करते हुए कहा था, “गोलू, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। मैं जिस बुरे धंधे के आकर्षण में मुंबई गया था, अब उससे मुझे घृणा हो गई है। मैं भी अब तुम्हारे जैसा सीधा-सादा प्यार और इनसानियत का जीवन जीना चाहता हूँ।”

इन सब चीजों से गोलू को बड़ी प्रेरणा मिली। पिछले कई दिनों से अतीत की घटनाएँ उसके दिमाग में चक्कर-पर-चक्कर काट रही हैं।

कोई महीने भर में गोलू ने दिल्ली में बिताए अपने दिनों की पूरी कहानी लिख डाली। ढाई सौ पन्ने का बड़ा रजिस्टर था, वह पूरा भर गया। और गोलू की कहानी भी पूरी हो गई जिसमें मास्टर गिरीशमोहन शर्मा, रंजीत, आर्टिस्ट पागलदास, मिस्टर डिकी, मिस्टर विन पॉल और सबसे ज्यादा तो रहमान चाचा, सफिया चाची, फिराक और शौकत का जिक्र था। और हाँ, कमरे में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली रामप्यारी को भी वह भूला नहीं था। उसने लिखा था, “असल में तो मुझे मैनपुरी की उस सीधी-सादी काम करने वाली आंटी रामप्यारी ने ही इस सारे चक्कर से बाहर निकलने की प्रेरणा दी थी। मुझे कुछ-कुछ संदेह तो था कि ये लोग कुछ गड़बड़ कर रहे हैं, लेकिन रामप्यारी की बातों से मेरा संदेह यकीन में बदल गया। फिर रामप्यारी ने ही मुझे बताया कि इस जासूसी की संस्था में हर आदमी के पीछे जासूस लगे हैं, इसलिए बचकर रहो। शुरू-शुरू में तो रामप्यारी ने सब कुछ कहा, लेकिन बाद में उसने शब्दों से कहना बंद कर दिया। हाँ, पर उसकी आँखें कहा करती थीं, ‘भाग जा लल्ला, यहाँ से भाग जा, भाग जा। ये लोग अच्छे नहीं हैं।...रामप्यारी में अकसर मुझे अपनी मम्मी की छवि दिखाई देने लगती थी। और इसीलिए अभिमन्यु की तरह मैं इस पूरे चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए कसमसा उठा।”

गोलू ने अपनी कहानी पूरी होते ही सबसे पहले मन्नू अंकल को पढ़ने के लिए दी। मन्नू अंकल पढ़कर खुशी से झूम उठे। बोले, “अद्भुत है गोलू। इतने अच्छे ढंग से तो मैं भी नहीं लिख सकता था। तू तो सचमुच लेखक हो गया।”

फिर गोलू ने अपनी कहानी सुजाता दीदी को पढ़ने को दी। सुजाता दीदी ने पढ़कर बहुत तारीफ की। उन्हों आशीष भैया, मम्मी और पापा को इसके बारे में बताया तो उन्होंने भी इसे खूब मन लगाकर पढ़ा। मन्नू अंकल ने इसके कुछ हिस्से अखबारों में छपने के लिए भेजे। एक अखबार ‘नया सवेरा’ ने तो गोलू की इस पूरी कहानी को धारावाहिक रूप से छापना शुरू कर दिया।

जब यह पूरी कहानी छप गई, तो गोलू ने ‘नया सवेरा’ में छपी अपनी कहानी की कतरनों को सिलसिले में लगाकर रजिस्ट्री से रहमान चाचा को भेज दिया।

29 अंतिम भाग - रहमान चाचा की चिट्ठी

एक हफ्ते बाद रहमान चाचा का एक लंबा पत्र आया। उन्होंने लिखा, “गोलू, तुम्हारी सच्ची कहानी पढ़ी। पढ़कर आँखें नम हो गईं। मुझसे ज्यादा तो घर में तुम्हारी सफिया चाची, फिराक और शौकत तुम्हारी तारीफ कर रहे हैं, बल्कि कल तो मुझमें और तुम्हारी सफिया चाची में झगड़ा होते-होते बचा। मैं बार-बार कह रहा था कि तुम बहुत अच्छे पुलिस अधिकारी बन सकते हो और तुम्हारी चाची का कहना था कि तुम लेखक बहुत अच्छे हो। आगे चलकर एक बड़े लेखक बनकर देश और समाज की सेवा कर सकते हो। सफिया चाची को तुम्हारे लिखने की शैली में महान लेखक शरतचंद्र और मंटो जैसा जज्बा दिखाई दिया।...अच्छा, तो मुझे भी बहुत-बहुत लगा, पर मेरे पास तारीफ के लिए सही अल्फाज नहीं हैं।

वैसे, मेरी राय है कि तुम चाहे लेखक बनकर देश का नाम ऊँचा करो और चाहे जिम्मेदार पुलिस अधिकारी बनकर अपना कर्तव्य पूरा करो, आगे भविष्य तुम्हारा ही है।...तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता गोलू, क्योंकि तुम्हारी आत्मा बड़ी बलवान है।

मेरी शुभकामनाएँ तथा घर में सभी को दुआ सलाम।

—तुम्हारा रहमान चाचा”

रहमान चाचा का यह पत्र पाते ही, खुशी के मारे गोलू के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

उसने यह निश्चय कर लिया है कि आगे से वह बहुत मेहनत से पढ़ाई करेगा, ताकि बहुत कुछ जो छूट गया है, उसे जल्दी से जल्दी पूरा कर ले। नहीं तो बड़ा होकर वह रहमान चाचा जैसा नेक और ईमानदार पुलिस अधिकारी कैसे बनेगा!

हाँ, गोलू ने अपनी कहानी दिल्ली के मशहूर प्रकाशक को छपने के लिए दे दी है। और उसके पहले ही सफे पर लिखा है, ‘यह किताब रहमान चाचा को समर्पित है जिन्होंने मुझे जीवन की नई दिशा दी।’

गोलू ने तय कर लिया कि जैसे ही उसकी यह किताब छपकर आएगी, इसे भेंट करने के लिए वह खुद रहमान चाचा के घर जाएगा। पर इस बार वह अकेला नहीं होगा। उसके मम्मी-पापा, दोनों दीदियाँ और आशीष भैया भी साथ होंगे। और हाँ, उसे बहुत-बहुत प्यार करने वाले मन्नू अंकल भी।

गोलू को लगता है, यह किताब छपकर आते ही उसका पहला सपना पूरा हो जाएगा। पर उसके आगे एक नहीं, कई सपने हैं। और उन्हें पूरा करने के लिए वह अभी से कड़ी मेहनत करने में जुट गया है।

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