गोदान (उपन्यास) : मुंशी प्रेमचंद

Godan (Novel) : Munshi Premchand

6.
जेठ की उदास और गर्म सन्ध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ़ फूलों और पौधों के गमले सजा दिये गये थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। राय साहब अपने कारख़ाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफ़े बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक़्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आकर रुकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं उनका नाम पिण्डत ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र ' बिजली ' के यशस्वी सम्पादक हैं, जिन्हें देश-चिन्ता ने घुला डाला है। दूसरे महाशप जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कम्पनी की दलाली करते हैं और ताल्लुक़ेदारों को महाजनों और बैंकों से क़रज़ दिलाने में वकालत से कहीं ज़्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन राय साहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव में निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाक़े के असामी आयेंगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिये हैं और एक गुलाबी मिरज़ई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक कछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिये और मुख पर पाउडर लगवाये राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है। राय साहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर ख़ूब खिल रही थी। पिण्डत ओंकारनाथ ने पूछा -- अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है? मेरे रस की तो यहाँ वही वस्तु है। राय साहब ने तीनों सज्जनों को अपनी रावटी के सामने कुसिर्यों पर बैठाते हुए कहा -- पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लम्बा कि शायद पाँच घंटों में भी ख़तम न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आख़िर मैंने स्वयम् एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा। ओंकारनाथ को राय साहब की रचना-शक्ति में बहुत सन्देह था। उनका ख़्याल था कि प्रतिभा तो ग़रीबी ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं की, पण्डित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया। मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी राय साहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले -- नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाट्य-कला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेम्बर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है। दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे पर सिद्धान्त की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले -- भाई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, ज़मींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बिल्क उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप ज़मींदार हैं, वैसे ही ज़मींदार जैसे हज़ारों और ज़मींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप ख़ुद शुरू करें -- काश्तकारों को बग़ैर नज़राने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बन्द कर दें, इज़ाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर ज़मीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमददीर् नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ। राय साहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गये और सम्पादकजी के मुँह में जैसे कालिख लग गयी। वह ख़ुद समिष्टवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे। तंखा ने राय साहब की वकालत की -- मैं समझता हूँ, राय साहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी ज़मींदार वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे। मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमायी -- मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बतार्व है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारनेवाला ज़हर से मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नक़ली ज़िन्दगी का विरोधी हूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं। राय साहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले -- आपका विचार बिल्कुल ठीक है मेहताजी। आप जानते हैं, मैं आपकी साफ़गोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और ज़मींदार ईश्वर का मन्त्री। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ़ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकालकर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेचकर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे; मगर उसी वक़्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धमार्वतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझकर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा का पालन उनका सनातन-धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को ये रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं ख़ुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया जाय। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणीमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पीसें और खपें, कभी सुखद नहीं हो सकती। पूँजी और शिक्षा, जिसे मैं पूँजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका क़िला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उनके अफ़सर और नियोजक दस-दस पाँच-पाँच हज़ार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम ज़मींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं ख़ूब जानता हूँ; लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मज़बूर हैं। अगर अफ़सरों को क़ीमती-क़ीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जायँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलायें। प्रगति की ज़रा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं, और अफ़सरों के पास फ़रियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अन्दर से दुर्बल, सत्वहीन और मुहताज।

मेहता ने ताली बजाकर कहा -- हियर, हियर! आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती! खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते।
ओंकारनाथ बोले -- अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही ज़रूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं, जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं? राय साहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी सन्तोष से सम्पादकजी को देखा और बोले -- व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए सम्पादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं।
मिस्टर मेहता उसी ठंठे मन से बोले -- नहीं-नहीं, मैं इसे बुरा नहीं समझता। समाज व्यक्ति ही से बनता है। और व्यक्ति को भूलकर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिये इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है। सम्पादकजी को अचम्भा हुआ -- अच्छा, तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैं?
'मैं इस सिद्धान्त का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा। '
कुश्ती का जोड़ बदल गया। राय साहब किनारे खड़े हो गये। सम्पादक जी मैदान में उतरे -- आप इस बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं।
'जी हाँ, मानता हूँ और बड़े ज़ोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नयी चीज़ नहीं। जब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ, तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के प्रवर्तक थे। यूनानी और रोमन और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी। '
'आपकी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। '
'आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है। '
'मैं आपका कृतज्ञ हूँ! अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें। '
'जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रक़म दिलवाइए, तो अलबत्ता। '
'आपने सिद्धान्त ही ऐसा लिया है कि खुले ख़ज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं। '

'मुझमें और आपमें अन्तर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, और रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूप की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राज कर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी। तश्तरी में पान आ गये थे। राय साहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा -- बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपित्त नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी; लेकिन सम्पत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी सम्पत्ति विष बोने के लिए, उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बग़ैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं।

दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरे, जो एक बैंक के मैनेजर और शक्करमिल के मैनेजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। राय साहब ने दोनों देवियों को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गम्भीर और विचारशील-सी हैं, मिस्टर खन्ना की पत्नी, कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंगलैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रैकिटस करती हैं। ताल्लुक़ेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाज़िर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझनेवाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन; जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव; मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया। आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा -- सच कहती हूँ, आप सूरत से ही फ़िलासफ़र मालूम होते हैं। इस नयी रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़कर रख दिया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊँ। फ़िलासफ़रों में सहृदयता क्यों ग़ायब हो जाती है?

मेहता झेंप गये। बिना-ब्याहे थे और नवयुग की रमिणयों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में ख़ूब चहकते थे; मगर ज्योंही कोई महिला आयी और आपकी ज़बान बन्द हुई। जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी। मिस्टर खन्ना ने पूछा -- फ़िलासफ़रों की सूरत में क्या ख़ास बात होती है देवीजी?
मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देखकर कहा -- मिस्टर मेहता बुरा न मानें, तो बतला दूँ। खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जाय, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाज़िम था। उनके आस-पास भौंरे की तरह मँडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक-से-अधिक वही बोलें, उनकी निगाह अधिक-से-अधिक उन्हीं पर रहे। खन्ना ने आँख मारकर कहा -- फ़िलासफ़र किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफ़त है।
'तो सुनिए, फ़िलासफ़र हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं; आप उनसे बातें किये जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं। जैसे शून्य में उड़ रहे हों। '
सब लोगों ने क़हक़हा मारा। मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में गड़ गये। ' आक्सफ़ोर्ड में मेरे फ़िलासफ़ी के प्रोफ़ेसर मिस्टर हसबेंड थे ... '
खन्ना ने टोका -- नाम तो निराला है।
'जी हाँ, और थे क्वाँरे ...। '
'मिस्टर मेहता भी तो क्वाँरे हैं ... '
'यह रोग सभी फ़िलासफ़रों को होता है। '
अब मेहता को अवसर मिला। बोले -- आप भी तो इसी मरज़ में गिरफ़्तार हैं?
'मैंने प्रतिज्ञा की है किसी फ़िलासफ़र से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देखकर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके आफ़िस में चली जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें ख़ूब छेड़ा करते थे, मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबन्ध करती थीं। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फ़िक्र ही न रहती थी। मिलने-वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बन्द करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर किताब बन्द कर देती थीं, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थीं। एक दिन बहन ने किताब बन्द करना चाहा, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में ज़ोर-आज़माई होने लगी। आख़िर बहन उनकी पहियेदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लायी। '
राय साहब बोले -- मगर मेहता साहब तो बड़े ख़ुशमिज़ाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।
'तो आप फ़िलासफ़र न होंगे। जब अपनी चिन्ताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिन्ता सिर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है! '
उधर सम्पादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे -- बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि सम्पादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुनकर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर-एक आन्दोलन में वह सबसे आगे रहे जेल, जाय, मार खाय, घर के माल-असबाब की क़ुर्क़ी कराये, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर-एक विद्या, हर-एक कला में पारंगत होना चाहिए; लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे क्यों मुझे वंचित रखती हैं? मिसेज़ खन्ना को कविता लिखने का शौक़ था। इस नाते से सम्पादकजी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे; लेकिन घर के काम-धन्धों में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थी। सच बात तो यह है कि सम्पादकजी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
'क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा? '
सम्पादकजी उपेक्षा भाव से बोले -- उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अन्दर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है, जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे।
कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा -- अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें, तो आपका प्रचार दुगना हो जाय। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है, जो आपका ग्राहक न बन जाय।
'अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँ, तो लाखों कमा सकता हूँ; लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा। '
'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए। '
'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा। ' ' संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते हैं। '
'मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हक़ीक़त नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। ख़ुशामद से मुझे घृणा है। '
कामिनी ने चुटकी ली -- लेकिन मेरी ख़ुशामद तो आप कर रहे हैं सम्पादकजी! सम्पादकजी ने गम्भीर होकर श्रद्धा-पूर्ण स्वर में कहा -- यह ख़ुशामद नहीं है देवीजी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं। राय साहब ने पुकारा -- सम्पादकजी, ज़रा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं। सम्पादकजी की वह सारी अकड़ ग़ायब हो गयी। नम्रता और विनय की मूरित्त बने हुए आकर खड़े हो गये। मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देखकर कहा -- मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा डर सम्पादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ़ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा -- अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बन्द कर सकूँ, तो अपने को भाग्यवान समझूँ। ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गयीं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शान्त प्रकृति के आदमी थे; लेकिन ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता भरे स्वर में बोले -- इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज़्म में अपना ज़िक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आये। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजियेगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है जो इन धमकियों से डर जाय। उसकी क़लम उसी वक़्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर फेंक देने का ज़िम्मा लिया है। मिस मालती ने और उकसाया -- मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं? अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष ज़रा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी ख़ुशामद की, अपनी कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब ज़रा अधिकारियों को भी आज़मा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगायेंगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले -- यही तो मैं नहीं कर सकता देवीजी! मैंने अपने सिद्धान्तों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है, और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धान्त के पुजारियों में हूँ।
'मैं इसे दम्भ कहती हूँ। '
'आपकी इच्छा। '
'धन की आपको परवा नहीं है? '
'सिद्धान्तों का ख़ून करके नहीं। '
'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धान्तवादी, पर अपने फ़ायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको ज़रा भी खेद नहीं होता? आप किसी तकर् से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते। '
ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बग़लें झाँकते देखकर राय साहब ने उनकी हिमायत की -- तो आख़िर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ, तो पत्र कैसे चले? मिस मालती ने दया करना न सीखा था। फ्र पत्र नहीं चलता, तो बन्द कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मज़बूर हैं, तो सिद्धान्त का ढोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धान्तवादी पत्रों को देखकर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो सिद्धान्तवादी नहीं है। ' मेहता खिल उठे। थोड़ी देर पहले उन्होंने ख़ुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा। ' यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ' मिस मालती प्रसन्न मुख से बोली -- तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फ़िलासफ़र होने का दावा कर सकती हूँ। खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले -- आपका एक-एक अंग फ़िलासफ़ी में डूबा हुआ है। मालती ने उनकी लगाम खींची -- अच्छा, आपको भी फ़िलासफ़ी में दख़ल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपनी फ़िलासफ़ी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कम्पनियों के डाइरेक्टर न होते।
राय साहब ने खन्ना को सँभाला -- तो क्या आप समझती हैं कि फ़िलासफ़रों को हमेशा फ़ाकेमस्त रहना चाहिए।
'जी हाँ। फ़िलासफ़र अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फ़िलासफ़र कैसा? '
'इस लिहाज़ से तो शायद मिस्टर मेहता भी फ़िलासफ़र न ठहरें! '
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ाकर कहा -- मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिसमें बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है जिनमें मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए बढ़ने और फलने-फूलनेवाली चीज़ नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिल्कुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन का उपयोग कर सकूँ।
ओंकारनाथ समिष्टवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? ' इसी तरह हर एक मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत है। '
'अगर आप समझते हैं कि उस मज़दूर के बग़ैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मज़दूर थोड़ी-सी मज़दूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की ख़ुशामद करें। '
'अगर मज़दूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मज़दूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही ज़रूरी सुविधा हो जाती जितनी फ़िलासफ़रों के लिए। '
'तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता। '
'जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है, तो आप शादी क्यों नहीं कर लेते? '
मेहता ने निस्संकोच भाव से कहा -- इसीलिए कि मैं समझता हूँ, मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बन्द कर देता है।
खन्ना ने इसका समर्थन किया -- बन्धन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नयी थ्योरी है मुक्त भोग। मालती ने चोटी पकड़ी -- तो अब मिसेज़ खन्ना को तलाक़ के लिए तैयार रहना चाहिए।
'तलाक़ का बिल पास तो हो। '
'शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगे। '
कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है -- खन्ना तुम्हें मुबारक रहें, मुझे परवा नहीं।
मालती ने मेहता की तरफ़ देखकर कहा -- इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता?
मेहता गम्भीर हो गये। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।
'विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैं, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं। '
'तो आप तलाक़ के विरोधी हैं, क्यों? '
'पक्का। '
'और मुक्त भोग वाला सिद्धान्त? '
'वह उनके लिए है, जो विवाह नहीं करना चाहते। '
'अपनी आत्मा का सम्पूर्ण विकास सभी चाहते हैं; फिर विवाह कौन करे और क्यों करे? '
'इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैं; पर ऐसे बहुत कम हैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें। '
'आप श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन को? '
'समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को। '
धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोग्राम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गयी। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबन्ध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गये थे। और भी कितने ही मेहमान आ गये थे। सभी अपने-अपने कमरों में गये और कपड़े बदल-बदलकर भोजनालय में जमा हो गये। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णो के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल सम्पादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गये। और कामिनी खन्ना को सिर दर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और मांस भी। इस उत्सव के लिए राय साहब अच्छी क़िस्म की शराब ख़ास तौर पर खिंचवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से; पर होती थी ख़ालिस शराब। मांस भी कई तरह के पकते थे, कोफ़ते, कबाब और पुलाव। मुरग़, मुग़िर्याँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर, जिसे जो पसन्द हो, वह खाये।
भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा -- सम्पादकजी कहाँ रह गये? किसी को भेजो राय साहब, उन्हें पकड़ लाये।
राय साहब ने कहा -- वह वैष्णव हैं, उन्हें यहाँ बुलाकर क्यों बेचारे का धर्म नष्ट करोगी। बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है।
'अजी और कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा। '
सहसा एक सज्जन को देखकर उसने पुकारा -- आप भी तशरीफ़ रखते हैं मिरज़ा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी। मिरज़ा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफ़ाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ़ वोट देते थे। सूफ़ी मुसलमान थे। दो बार हज कर आये थे; मगर शराब ख़ूब पीते थे। कहते थे, जब हम ख़ुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें! बड़े दिल्लगीबाज़, बेफ़िक्रे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाये, मगर शामत आयी कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुक़दमेबाज़ी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अन्दर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ़ पचास हज़ार लेकर भाग खड़े हुए। बम्बई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा उसी में ज़िन्दगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हज़ार भी ऐंठ लिये। निराश होकर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात् हुआ। महात्माजी ने उन्हें सब्ज़ बाग़ दिखाकर उनकी घड़ी, अँगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिये। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा और कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाक़ात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दूकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दूकान थी चार-पाँच सौ रोज़ की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुक़ेदार को नीचा दिखाकर कौंसिल में पहुँच गये। अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोले -- जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको ख़ुद करना चाहिए। मज़ा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिलाकर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आज़माइश है।
चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं -- हाँ-हाँ, मिस मालती, आज अपना कमाल दिखाइए।
मालती ने मिरज़ा को ललकारा, कुछ इनाम दोगे?
'सौ रुपए की एक थैली! '
'हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाड़ूँ सौ के लिए। '
'अच्छा, आप ख़ुद अपनी फ़ीस बताइए। '
'एक हज़ार, कौड़ी कम नहीं। '
'अच्छा मंज़ूर। '
'जी नहीं, लाकर मेहताजी के हाथ में रख दीजिए। '

मिरज़ाजी ने तुरन्त सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े होकर बोले -- भाइयो! यह हम सब मरदों की इज़्ज़त का मामला है। अगर मिस मालती की फ़रमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी; अगर मेरे पास रुपए होते तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक़ के एक काले तिल पर समरक़न्द और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिये थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकालकर रख दे। आपको इल्म की क़सम, माशूक़ की अदाओं की क़सम, अपनी इज़्ज़त की क़सम, पीछे क़दम न हटाइए। मरदो! रुपए ख़र्च हो जायँगे, नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिए, लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मन्त्र कैसे चलाती है? भाषण समाप्त करते ही मिरज़ाजी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले। मिरज़ा ने मुँह फीका करके कहा -- वाह खन्ना साहब, वाह! ! नाम बड़े दर्शन थोड़े। इतनी कम्पनियों के डाइरेक्टर, लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाँच रुपए! लाहौल बिला कूबत! कहाँ हैं मेहता? आप ज़रा जाकर मिसेज़ खन्ना से कम-से-कम सौ रुपए वसूल कर लायें।

खन्ना खिसियाकर बोले -- अजी, उनके पास एक पैसा भी न होगा। कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी लेना शुरू करेंगे?
'ख़ैर आप ख़ामोश रहिए। हम अपनी तक़दीर तो आज़मा लें। '
'अच्छा तो मैं जाकर उनसे पूछता हूँ। '
'जी नहीं, आप यहाँ से हिल नहीं सकते। मिस्टर मेहता, आप फ़िलासफ़र हैं, मनोविज्ञान के पण्डित। देखिए अपनी भेद न कराइएगा। '
मेहता शराब पीकर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपककर मिसेज़ खन्ना के पास गये और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाये लौट आये। मिरज़ा ने पूछा -- अरे क्या ख़ाली हाथ?
राय साहब हँसे -- क़ाज़ी के घर चूहे भी सयाने।
मिरज़ा ने कहा -- हो बड़े ख़ुशनसीब खन्ना, ख़ुदा की क़सम!
मेहता ने क़हक़हा मारा और जेब से सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले। मिरज़ा ने लपककर उन्हें गले लगा लिया। चारों तरफ़ से आवाज़ें आने लगीं -- कमाल है, मानता हूँ उस्ताद, क्यों न हो, फ़िलासफ़र ही जो ठहरे! मिरज़ा ने नोटों को आँखों से लगाकर कहा -- भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा?
मेहता अकड़कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले -- अजी कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जाकर पूछा, अन्दर आऊँ? बोलीं -- आप हैं मेहताजी, आइए! मैंने अन्दर जाकर कहा, वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। अँगूठी एक हज़ार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए देकर एक हज़ार की चीज़ ले लीजिए। ऐसा मौक़ा फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक़्त रुपए न दिये, तो बेदाग़ निकल जायँगी। पीछे से कौन देता है, शायद इसीलिए उन्होंने अँगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुसकराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकालकर दे दिये, और बोलीं -- मैं बिना कुछ लिये घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े। खन्ना खिसियाकर बोले -- जब हमारे प्रोफ़ेसरों का यह हाल है, तो यूनिवसिर्टी का ईश्वर ही मालिक है।
खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का -- अरे तो ऐसी कौन-सी बड़ी रक़म है जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है। ख़ुदा झूठ न बुलवाये तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है। समझ लीजिएगा, एक दिन बीमार पड़ गये और जायगा भी तो मिस मालती ही के हाथ में। आपके दर्द-ए-जिगर की दवा मिस मालती ही के पास तो है। मालती ने ठोकर मारी -- देखिए मिरज़ाजी तबेले में लतिआहुज अच्छी नहीं। मिरज़ा ने दुम हिलायी -- कान पकड़ता हूँ देवीजी।

मिस्टर तंखा की तलाशी हुई। मुश्किल से दस रुपए निकले, मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली। कई सज्जनों ने एक-एक, दो-दो रुपए ख़ुद दे दिये। हिसाब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी। यह कमी राय साहब ने उदारता के साथ पूरी कर दी। सम्पादकजी ने मेवे और फल खाये थे और ज़रा कमर सीधी कर रहे थे कि राय साहब ने जाकर कहा -- आपको मिस मालती याद रही हैं। ख़ुश होकर बोले -- मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! राय साहब के साथ ही हाल में आ विराजे। उधर नौकरों ने मेज़ें साफ़ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। सम्पादकजी ने नम्रता दिखायी -- बैठिए तकल्लुफ़ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ। मालती ने श्रद्धा भरे स्वर में कहा -- आप तकल्लुफ़ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ; यों आप अपने को कुछ समझें और आपको शोभा भी नहीं देता है लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझें; लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है -- मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है -- जब हर-एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाउन हालों में आपके चित्र लटकाये जायेंगे। इस वक़्त जो थोड़ी बहुत जागृति है, वह आप ही के महान् उद्योग का प्रसाद है। आपको यह जानकर आनन्द होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गये हैं जो आपके देहात-सुधार आन्दोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैं, और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात-सुधार संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों। ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मन्त्री और उपमन्त्री भी थे; लेकिन शिक्षित-समाज में अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसीलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थान्धता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। क़लम तेज़ थी, वाणी कठोर, साफ़गोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसलिए लोग उन्हें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज ' स्वराज ' और ' स्वाधीन भारत ' और ' हंटर ' के सम्पादक, आकर देखें और अपना कलेजा ठंठा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपादृष्टि है। सदुद्योग कभी निष्फल नहीं जाता, यह ऋषियों का वाक्य है। वह स्वयम् अपनी नज़रों में उठ गये। कृतज्ञता से पुलकित होकर बोले -- देवीजी, आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कर्तव्य समझकर की। मैं इस सम्मान को अपना नहीं, उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँ, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अपिर्त कर दिया है, लेकिन मेरा नम्र-निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जाय, मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ। मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकतीं। सभापति पण्डितजी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखायी देता। जिसकी क़लम में जादू है, जिसकी ज़बान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह ज़माना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। सम्पादकजी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मन्त्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हज़ार का चन्दा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रान्त पड़ा हुआ है। चार-पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है। ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी सी उठ रही थी, उसने गम्भीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले -- मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ़ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पायँगी।

मिरज़ाजी ने पुचारा दिया -- आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना फ़रज़ अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे।
मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गम्भीर बनकर बोलीं -- अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुक़ेदार को सभापति बनाकर धन ख़ूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर-एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस हज़ार तक पहुँचा दिया जाय। प्रान्त की सभी म्युनिसिपैलिटियों और जिला बोर्ड के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर-एक ने पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लीं, तो पचीस हज़ार प्रतियाँ तो आप यक़ीनी समझें। फिर राय साहब और मिरज़ा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए ' बिजली ' की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वाषिर्क सहायता स्वीकार की जाय। और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा।
ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा -- हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा।
मिरज़ा खुर्शेद बोले -- ज़रूर-ज़रूर! ' उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी ' बिजली ' का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता। '
मिरज़ा खुर्शेद ने कहा -- अवश्य-अवश्य! ' मैं गर्व नहीं करता। अभी गर्व करने का समय नहीं आया; लेकिन मुझे इसका दावा है कि ग्राम्य-संगठन के लिए ' बिजली ' ने जितना उद्योग किया है ... '
मिस्टर मेहता ने सुधारा -- नहीं महाशय, तपस्या कहिए।
'मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। ' बिजली ' ने जो तपस्या की है, वह इस प्रान्त के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है। '
मिरज़ा खुर्शेद बोले -- ज़रूर-ज़रूर! मिस मालती ने एक पेग और दिया -- हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह ख़ाली हो, उसके लिए आपको उम्मेदवार खड़ा किया जाय। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम हम लोग कर लेंगे। आपको न ख़र्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से।
ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गयी। गर्व-पूर्ण नम्रता से बोले -- मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए।

'हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओं के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गये और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आप में सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरु पाया है और इस शुभ दिन के आनन्द में आज हमें एकमन, एकप्राण होकर अपने अहंकार को, अपने दम्भ को तिलांजलि दे देना चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिन्दू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के खेलनेवाले, एक ही थाली के खानेवाले भाई हैं। जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथजी जैसे विशाल-हृदय व्यिक्त हों, उस सभा में ऊँच-नीच का, खान-पान का और जाति-पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते हों, वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ। राय साहब ने शंका की -- मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पड़ेगा? मालती ने निर्मम स्वर में कहा -- बेशक अलग हो जाना पड़ेगा। आप इस संघ में रहकर किसी तरह का भेद नहीं रख सकते।

मेहता जी ने घड़े को ठोका -- मुझे सन्देह है कि हमारे सभापतिजी स्वयम् खान-पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं। ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं, यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देखकर दृढ़ता से कहा -- आपका सन्देह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जा-जनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है। ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और सन्तोष की आभा झलक पड़ी। मालती ने उसी स्वर में कहा -- और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पाकर वह कौन भद्र पुरुष है जो इनकार कर दे? यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का जिसके नयन-बाणों से अपने ह्ृदय को बिन्धवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान् अवसर पर किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपित्त राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीयेंगे। बर्फ़, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वणर्-श्रेष्ठता काफ़ूर हो गयी। मन ने कहा -- सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो; लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था। उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अँग्रेज़ी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिये। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं; वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं? उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुकाकर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गये और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पिण्डत हूँ। अब तो मुझे दम्भी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? हाल में ऐसा शोर गुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बन्द गहगहे निकल पड़े हों। वाह देवीजी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का क़िला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गयी। मुस्कराकर बोले -- मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हज़ार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ। क़हक़हों से हाल गूँज उठा। सम्पादकजी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भरकर बोले -- यह मिस मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पियें और उन्हें आशीवार्द दें। लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर दिये। उसी वक़्त मिरज़ा खुर्शेद ने एक माला लाकर सम्पादकजी के गले में डाल दी और । बोले -- सज्जनो, फ़िदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक क़सीदा कहा है। आप लोगों की इजाज़त हो तो सुनाऊँ। चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं -- हाँ-हाँ, ज़रूर सुनाइए। ओंकारनाथ भंग तो आये दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मन्थर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें ख़ुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्र्य न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि क़सीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज़ पर हाथ पटककर बोले -- नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई क़सीदा नयी ओगा, नयी ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सबा को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नहीं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नयी है। मिरज़ा ने हाथ जोड़कर कहा -- हुज़ूर, इस क़सीदे में तो आपकी तारीफ़ की गयी है। सम्पादकजी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा -- तुम हमारी तारीप क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीप की? हम किसी का नौकर नयी है। किसी के बाप का नौकर नयी है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम ख़ुद सम्पादक है। हम ' बिजली ' का सम्पादक है। हम उसमें सबका तारीप करेगा। देवीजी, हम तुम्हारा तारीप नयी करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नयी है। हम सबका ग़ुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारा सरस्वती, हमारी राधा ... यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ़ झुके और मुँह के बल फ़र्श पर गिर पड़े। मिरज़ा खुर्शेद ने दौड़कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटाकर वहीं ज़मीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जाकर बोले -- राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाज़ा निकालें। राय साहब ने कहा -- कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा-ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। कई आदमियों ने सम्पादकजी को उठाया और ले जाकर उनके कमरे में लिटा दिया।

उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफ़गान आकर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा क़द, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, ज़री के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कन्धे में चमड़े का बैग लटकाये, कन्धे पर बन्दूक़ रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरजकर बोला -- ख़बरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा हैं। यहाँ का जो सरदार है। वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा! एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ। राय साहब ने सामने आकर क्रोध-भरे स्वर में कहा -- ' कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ़-साफ़ कहो, क्या मामला है?

अफ़गान ने आँखें निकालीं और बन्दूक़ का कुन्दा ज़मीन पर पटककर बोला -- अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचास जवान है। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हज़ार। वह तुम लूट लिया, और कहता है कैसा डाका? अम बतलायेगा कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नयीं कर सकता, कुछ नयीं कर सकता। खन्ना ने अफ़गान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने ज़ोर से डाँटा -- काँ जाता तुम? कोई कई नयीं जा सकता। नयीं अम सबको क़तल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नयीं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देखकर भागता है। अमारा अपना काँसल है, अम उसको खत लिखकर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नयीं जाने देगा। तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया। अमारा रुपया नयीं देगा, तो अम किसी को ज़िन्दा नहीं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक़ के साथ शराब पीता है। मिस मालती उसकी आँख बचाकर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज़ की तरह टूटकर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला -- तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाये, नयीं अम तुमको उठा ले जायगा और अपनी कोठी में जशन मनायेगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक़ हो गया। या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नहीं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक़ हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस जिला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने क़बीले का खान है। अमारे क़बीला में दस हज़ार सिपाही हैं। अम क़ाबुल के अमीर से लड़ सकता है। अँग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार सालाना ख़िराज देता है। अगर तुम हमारा रुपया नयीं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक़ को उठा ले जायगा। ख़ून करने में अमको लुतफ़ आता है। अम ख़ून का दरिया बहा देगा! मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गयीं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंज़िले बँगले में रहते थे। ज़ीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय साहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बन्दूक़ को क्या करते। उन्होंने ज़रा भी चीं-चपड़ किया और इसने बन्दूक़ चलायी। हूश तो होते ही हैं ये सब, और निशाना भी इन सबों का कितना अचूक होता है; अगर उसके हाथ में बन्दूक़ न होती, तो राय साहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर रख देता। आख़िर उन्होंने दिल मज़बूत किया और जान पर खेलकर बोले -- हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेम्बर हूँ और यह देवीजी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज़्ज़तदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल ख़बर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जाकर थाने में रपट कीजिए। खान ने ज़मीन पर पैर पटके, पैंतरे बदले और बन्दूक़ को कन्धे से उतारकर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा -- मत बक-बक करो। काउंसिल का मेम्बर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है। (ज़मीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम ख़ुदा ताला के सिवा और किसी से नयीं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा, तो अम (राय साहब की तरफ़ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा। अपनी तरफ़ बन्दूक़ की नली देखकर राय साहब झुककर मेज़ के बराबर आ गये। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिये। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर जाने-आने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। ज़मींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते ही हैं, जब तक दस दफ़े न पुकारा जाय बोलते ही नहीं; और इस वक़्त तो वे एक शुभ काम में लगे हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान् की लीला थी; अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को ख़बर हो जाती और दम-भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना ग़ुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का ग़म, न जीने की ख़ुशी। मिरज़ा साहब ने चकित नेत्रों से देखा -- क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मज़ा चखा देता। खन्ना रोना मुँह बनाकर बोले -- कुछ रुपए देकर किसी तरह इस बला को टालिए। राय साहब ने मालती की ओर देखा -- देवीजी, अब आपकी क्या सलाह है? मालती का मुख-मंडल तमतमा रहा था। बोलीं -- होगा क्या, मेरी इतनी बेईज़्ज़ती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बोस मर्दो के होते एक उजड्डा पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के ख़ून में ज़रा भी गमीर् नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जाकर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपटकर उसके हाथ से बन्दूक़ नहीं छीन लेते? बन्दूक़ ही तो चलायेगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो। मगर देवीजी मर जाने को जितना आसान समझती थीं और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान ग़ुस्से में आकर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफ़ाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी की सज़ा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े क़बीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है। हमारे ऊपर उलटे मुक़दमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं; कितने मज़े से हँसी-मज़ाक़ हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते होते। इस शैतान ने आकर एक नयी विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक ख़ून किये मानेगा भी नहीं। खन्ना ने मालती को फटकारा -- देवीजी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं मानो अपनी प्राण रक्षा करना कोई पाप है, प्राण का मोह प्राणी-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं; यह देखकर मुझे खेद होता है। एक हज़ार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार हैं, उसे देकर क्यों नहीं बिदा कर देतीं? आप ख़ुद अपनी बेईज़्ज़ती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष?

राय साहब ने गर्म होकर कहा -- अगर इसने देवीजी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आख़िर वह भी आदमी ही तो है।
मिरज़ा साहब ने सन्देह से सिर हिलाकर कहा -- राय साहब, आप अभी इन सबों के मिज़ाज से वाक़िफ़ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को ज़िन्दा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है।
मि. तंखा बेचारे आनेवाले चुनाव की समस्या सुलझने आये थे। दस-पाँच हज़ार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले -- सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्नाजी ने बतलाया। एक हज़ार ही की बात है और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं?
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा। ' आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी। ' '
मैं भी यह न समझता था कि आप को रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ़्त के! '
'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे? '
'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी। '
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एका-एक गरजकर बोला -- अम अब नयीं मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नहीं देता। ( जेब से सीटी निकालकर ) अम तुमको एक लमहा और देता है; अगर तुम रुपया नहीं देता तो अम सीटी बजायेगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस! फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भरकर उसने मिस मालती को देखा। ' तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फ़िदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे क़दमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक़ है; मगर कोई सच्चा आशिक़ नहीं। सच्चा इश्क़ क्या है, अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुबा सकता है। ' मिरज़ा ने घिघियाकर कहा -- देवीजी, ख़ुदा के लिए इस मूज़ी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़कर याचना की -- हमारे ऊपर दया करो मिस मालती!
राय साहब तनकर बोले -- हर्गिज़ नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिये। या तो हम ख़ुद मर जायँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक़ दे देंगे।
तंखा ने राय साहब को डाँट बतायी -- शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ। मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनन्द आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुँगवों के बीच में रहकर उनके बर्बर प्रेम का आनन्द उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनघड़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े। उन्होंने खाँ साहब के सामने जाकर निश्शंक भाव से कहा -- तुम्हें रुपये नहीं मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़ाकर कहा -- तो अम तुमको लूट ले जायगा।
'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकता। '
'अम तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से ले जा सकता है। '
'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा। '
'अम अपने माशूक़ के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है। '
उसने मालती का हाथ पकड़कर खींचा। उसी वक़्त होरी ने कमरे में क़दम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा मालिक अभी तक क्यों नहीं आये। वह भी तो आकर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाये? वह अवसर खोज रहा था, और ज्योंही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया; मगर यहाँ का दृश्य देखकर भौचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक़्त राय साहब ने पुकारा -- होरी, दौड़कर जा और सिपाहियों को बुला, ला जल्द दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि ख़ान ने उसके सामने बन्दूक़ तानकर डाँटा -- कहाँ जाता है सुअर, हम गोली मार देगा।
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देखकर उसके प्राण निकल जाते थे; लेकिन मस्त साँड़ पर लाठी लेकर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था; मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाये, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हैं, तो फिर किसका डर। तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि ख़ान चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहे और लगे पश्तों में गालियाँ देने। होरी उनकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गयी। ख़ान ने तुरन्त अपनी कुलाह उतार फेंकी और ज़ोर मारकर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वही! लोगों ने चारों तरफ़ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व; चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
मालती ने नक़ली रोष से कहा -- आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखा? मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा -- ज़रा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताख़ी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा।

7. यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी; मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गये और आदि से अन्त तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मज़ा आ रहा था। बीच-बीच में तालियाँ बजाते थे और ' फिर कहो, फिर कहो ' का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। राय साहब ने इस प्रहसन में एक मुक़दमेबाज़ देहाती ज़मींदार का ख़ाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था; मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में क़ानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुक़दमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में ज़रा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नख़रे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसे, पहले गवाही के लिए चट-पट तैयार हो जाना; मगर इजलास पर तलबी के समय ख़ूब मनावन कराना और नाना प्रकार के फ़रमाइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देखकर लोग हँसी के मारे लोटे जाते थे। सबसे सुन्दर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों को समझाना और अन्त में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। राय साहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। राय साहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़कर उनके गले लिपट गये और मुग्ध होकर बोले -- आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था।
दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग़ में भोजन बने, ख़ूब जल-क्तीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आयँ। देहाती जीवन का आनन्द उठाया जाय। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो बिदा हो गये, केवल वे ही लोग बच रहे जिनकी राय साहब से घनिष्टता थी। मिसेज़ खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और सम्पादकजी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख-माला निकालकर इनकी ख़बर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या ख़बर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फ़िलासफ़र बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को सम्पूर्ण बनाओ। महीने में एक हज़ार मार लेते हो, तुम्हें अख़्तियार है, जीवन को सम्पूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फ़िक्र दबाये डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आयँ या अब की घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे सम्पूर्ण बनाये! छूटे साँड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी, जब क्रान्ति होगी और तुमसे कहा जायगा -- बचा, खेत में चलकर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे सम्पूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पीकर भी मिस बनी फिरती है! शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बन्धन में पड़ जाता है, और बन्धन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वन्द्व विलास किये जाओ! सारे बन्धन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन के कर्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन सम्पूर्ण हो गया। इससे ज़्यादा आसान और क्या होगा। माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ; शादी मत करो, यह बन्धन है; बच्चे होंगे, यह मोहपाश है; मगर टैक्स क्यों देते हो? क़ानून भी तो बन्धन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो। जानते हो न कि क़ानून की ज़रा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जायँगी। बस वही बन्धन तोड़ो, जिसमें अपनी भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बनाकर पीटो और तीस मारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों वह फूकार भी मारेगा तो, लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो। यह तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन है!
आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बन्दूक़ की आवाज़ से काँपते थे; लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रुक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाय। राय साहब अपने इस इलाक़े में बहुत दिनों से नहीं गये थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाक़े में आने-जाने से आदमियों से एक सम्बन्ध भी हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकून और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिरज़ा खुर्शेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। राय साहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोईया, कहार, ख़िदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने उसका विरोध किया। खन्ना ने कहा -- आख़िर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?
मेहता ने जवाब दिया -- भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग ख़ुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बग़ैर हम ज़िन्दा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायँगी और हम लोग खायँगे। देहातों में हाँडियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।
मालती ने गिला किया -- क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।
'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा। '
मिरज़ा खुर्शेद बोले -- अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इन्तज़ाम कर दूँगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँडी और बर्तन ढूँढ़ना हिमाक़त है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए, और वहीं दरख़्त के साये में खर्राटे लीजिए।
यही प्रस्ताव स्वीकति हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी ख़ुद राय साहब। कोई बीस-पचीस मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया। दोनों तरफ़ ऊँची पर्वतमाला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नज़र आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पन्द कगार पर एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर रह गये। जिस विचार से आये थे, उसमें जैसे पंचर हो गया; अगर जानते, मालती दग़ा देगी, तो घर लौट जाते; लेकिन राय साहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहो। उनकी टोली बनी-बनायी थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ़ चल दीं। कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा -- तुम तो चले ही जाते हो। ज़रा दम ले लेने दो।
मेहता मुस्कराये -- अभी तो हम एक मील भी नहीं आये। अभी से थक गयीं?
'थकीं नहीं; लेकिन क्यों न ज़रा दम ले लो। '
'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं। '
'मैं शिकार खेलने न आयी थी। ' मेहता ने अनजान बनकर कहा -- अच्छा यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आयी थीं?
'अब तुमसे क्या बताऊँ। '
हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नज़र आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गये और निशाना बाँधकर गोली चलायी। निशाना ख़ाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा -- अब?
'कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा। '
दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा -- गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ।
'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता। '
'बड़े निर्दयी हो तुम, सच कहती हूँ। '
'जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता। '
'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक़्त मुझे अपने साथ ले जाते? '
मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं। दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी। मेहता खड़े-खड़े बोले -- अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।
'मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे? '
'मैं जानता हूँ, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो। '
'कैसे जानते हो? '
'नये युग की देवियों की यही सिफ़त है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कन्धा मिलाकर चलना चाहती हैं। '
मालती ने झेंपते हुए कहा -- तुम कोरे फ़िलासफ़र हो मेहता, सच।
सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बन्दूक़ चलायी। मोर उड़ गया।
मालती प्रसन्न होकर बोली -- बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।
मेहता ने बन्दूक़ कन्धे पर रखकर कहा -- तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं तुम्हें दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा।
मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली -- फ़िलासफ़रों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया। उस ग़रीब को मार ही डालते; मगर मैं यों न छोड़ूँगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।
मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजलनेत्र होकर बोली -- मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी।
मेहता ने तेज़ी से क़दम बढ़ाये। मालती उन्हेंदेखती रही। जब वह बीस क़दम निकल गये, तो झुँझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनन्द न था। समीप आकर बोली -- मैं तुम्हें इतना पशु न समझती थी।
'मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा। '
'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। '
'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी। '
एक चौड़ा नाला मुँह फैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों से लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्व पर आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणेंजल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तो लौटना पड़ा।
'क्यों? उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे। '
'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी। '
'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ। '
'हाँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है। '
मेहता ने पानी में क़दम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली -- पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ।
'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज़ है। '
'कोई हरज़ नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, ख़बरदार। '
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाये। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले -- तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा -- होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता था, क़दम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भरकर कहा -- मैंने तुम्हारे-जैसे बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। ख़ैर, आज सता लो, जितना सताते बने; मैं भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बन्दूक़ सँभालती हुई उनसे चिमट गयी। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा -- तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा -- तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी है?
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया। मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली -- अगर कोई देख ले?
'भय तो लगता है। '
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा -- अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा। मेहता ने आहत स्वर से कहा -- तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ?
'मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ। '
'सच कहती हो मालती? '
'तुम क्या समझते हो? '
'मैं! कभी बतलाऊँगा। '
पानी मेहता के गर्दन तक आ गया। कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली, मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूँगी। उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक़ उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा; लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की ज़रूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी। पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तुम मुझे उतार दो।
'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय। '
'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिनी है। '
'मुझे इसकी मज़दूरी दे देना। '
मालती के मन में गुदगुदी हुई।
'क्या मज़दूरी लोगे? '
'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आय तो मुझे बुला लेना। '
किनारे आ गये। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोड़ा, जूते का पानी निकाला, मुँह-हाथ धोया; पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे। उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते हुए कहा -- यह दिन याद रहेगा।
मेहता ने पूछा -- तुम बहुत डर रही थीं?
'पहले तो डरी; लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो। '
मेहता ने गर्व से मालती को देखा -- इनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।
'मुझे यह सुनकर कितना आनन्द आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती? '
'तुमने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो; और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़त में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे। '
मेहता मुस्कराये। इन शब्दों का संकेत ख़ूब समझ रहे थे।
'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि तुमसे प्रेम करता हूँ। मुझसे विवाह करोगी? '
'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा! रात-दिन जलाकर मार डालोगे। ' और मधुर नेत्रों से देखा, मानी कह रही हो -- इसका आशय तुम ख़ूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो।
मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा -- तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं इसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।
मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था। उसने पूछा -- बताओ, तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट होगे?
'बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग--प और हाव-भाव और नाज़ो-अन्दाज़ का मूल्य इतना ही है; जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे ज़रूरत नहीं। '
मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर साँस खींचते हुए कहा -- तुमसे कोई पेश न पायेगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या ख़याल है?
मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर कहा -- तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो; लेकिन प्रेम नहीं कर सकती।
मालती ने पैनी दृष्टि से ताककर कहा -- झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो।
दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे; पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के सम्भाषण में उसे एक ऐसा आनन्द आ रहा था, जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गयी थी, जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी। धायँ की आवाज़ हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खाकर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।
'अब? '
'अभी जाकर लाता हूँ। जाती कहाँ है? '
यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बन्दूक़ किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे; मगर आध मील तक पूरा ज़ोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी। सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली -- पानी से निकल जाओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है।
मेहता युवती की चपलता और साहस देखकर मुग्ध हो गये। तुरन्त किनारे की ओर हाथ चलाये और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए। युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़ आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा सके; लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छन्द हो गये थे कि यौवन का चित्र खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।
मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा -- तुम बड़े मौक़े से पहुँच गयीं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।
युवती ने प्रसन्नता से कहा -- मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। शिकार खेलने आये होंगे?
'हाँ, आये तो थे शिकार ही खेलने; मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।
'तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज़ पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है। '
फिर ज़रा सकुचाकर सिर झुकाये बोली -- उसकी खाल हमेंदेनी पड़ेगी। चलो मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप मेंकब तक खड़े रहोगे। कपड़े भी तो गीले हो गये हैं।
मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा -- तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं। उसने लापरवाही से कहा -- ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं। तुम थोड़े ही रह सकते हो। लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार।
'तुम खाल लेकर क्या करेगी? '
'हमारे दादा बाज़ार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है। '
'लेकिन दोपहरी यहाँ काटें, तो तुम खिलाओगी क्या? '
युवती ने लजाते हुए कहा -- तुम्हारे खाने लायक़ हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटियाँ खाओ, जो धरी हैं। चिड़िये का सालन पका दूँगी। तुम बताते जाना जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगाकर भाग आयी, तब से तेंदुआ उससे डरता है।
'लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है। '
'तुम्हारी घरवाली होगी? '
'नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है। '
'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चलकर छाँह मेंबैठो। '
'नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूँ। '
'तुम थक गये होगे। शहर का रहैया जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी। '
जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गयी। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छाँह में बैठे। इस स्वच्छन्द जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वतमाला दर्शन-तत्व की भाँति अगम्य और अत्यन्त फै हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानो आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मन्दिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहाँ तक पर मारकर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता। मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिये आ पहुँची, एक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप मेंमुरझायी और निजीद्मव। मालती ने बेदिली के साथ कहा -- पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है क्या? और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं। युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी और बोली -- तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूँ, फिर चूल्हा जला दूँगी; और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बोटियाँ सेंक दूँगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हाँ, गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दूकान भी नहीं है कि ला दूँ। मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली -- तुम यहाँ क्यों आकर पड़ रहे? मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा -- एक दिन ज़रा इस जीवन का आनन्द भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों मेंकितना स्वाद है। ' मुझसे मक्के की रोटियाँ खायी ही न जायँगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हज़म न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ लाकर पटक दिया! ' मेहता ने कपड़े उतार दिये थे और केवल एक नीला जाँघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिये और कुएँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल भुजाएँ और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गये थे। कुआँ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खींचते-खींचते शिथिल हो गये। युवती ने दौड़कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली -- तुमसे न खिंचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती हूँ। मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और ज़ोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिए आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। युवती ने चटपट आग जलायी, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियाँ बनायीं और चूल्हे मेंआग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई मेंदूध उबालने लगी। और मालती भौंहेंचढ़ाये, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह द श्य देख रही थी मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो। मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के ग ह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले -- मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूँ? युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा -- तुम्हें कुछ नहीं करना है, जाकर बाई के पास बैठो, बेचारी बहुत भूखी है। दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना। उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हेंकनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी। मालती ने पुकारा -- तुम वहाँ क्या खड़े हो? मेरे सिर मेंज़ोर का ददद्म हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा। मेहता ने आकर कहा -- मालूम होता है, धूप लग गयी है।
'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो। '
'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है? '
'क्या मैं किसी मरीज़ को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है। उफ़! सिर फटा जाता है! '
मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बन्द कर लीं। युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ़ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गयी और मालती को आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली -- बाई को क्या हो गया है?
मेहता बोले -- सिर में बड़ा दर्द है।
'पूरे सिर में है कि आधे में? '
'आधे में बतलाती हैं। '
'दाईं ओर है, कि बाईं ओर? '
'बाईं ओर। '
'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा। '
'तुम इस धूप में कहाँ जाओगी? '
युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गयी। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा -- इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है। मालती ने आँखें खोलकर देखा -- कहाँ गयी वह कलूटी। ग़ज़ब की काली है, जैसे आबनूस का कुन्दा हो। इसे भेज दो, राय साहब से कह आये, कार यहाँ भेज दें। इस तपिश मेंमेरा दम निकल जायगा।
'कोई दवा लेने गयी है। कहती है, उससे आधा-सीसी का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है! '
'इनकी दवाएँ इन्हीं को फ़ायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गये हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फ़रिश्ते! '
मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था। ' कुछ बातेंतो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं। '
'उसकी ख़ूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं है। '
'तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जाकर कार लाऊँ, यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता। '
'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते? '
'वह तो दवा लेने गयी है, फिर भोजन पकायेगी। '
'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छा मिलते हैं। '

मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा -- इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ट मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी ग़रीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बन्धुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ, केवल भाषण दे सकता हूँ; वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार कर सकती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो। मालती ने उपहास भाव से कहा -- बस-बस, वह देवी है। मैं मान गयी। उसके वक्ष में उभार है, नितम्बों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए। मेहता तिलमिला उठे। तुरन्त उठे, और कपड़े पहने जो सूख गये थे, बन्दूक़ उठायी और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी -- तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़कर।

'तब कौन जायगा? '
'वही तुम्हारी देवी। '

मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ। वह दौड़ी हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिये हुए। समीप जाकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली -- मैं वह जड़ी खोज लायी। अभी घिसकर लगाती हूँ; लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो। मांस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना। उसने निस्संकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गँवारिन के चरणों को चूम लें। मालती ने कहा -- अपनी दवाई रहने दो। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लायें। दौड़ी हुई जा। युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लायी, उसका यह अनादर। इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही ज़रा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता। उसने बूटी ज़मीन पर रखकर पूछा -- तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाईजी। कहो तो रोटियाँ सेंककर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटरवाले को बुला लाऊँगी। वह झोपड़ी में गयी, बुझी हुई आग फिर जलायी। देखा तो मांस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियाँ सेंकी, दूध गर्म था, उसे ठंडा किया और एक कटोरे में मालती के पास लायी। मालती ने कटोरे के भेंपन पर मुँह बनाया; लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांस और रोटियाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल रही थी। मालती ने युवती से कहा -- उन्हें खाने दे। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जाकर गाड़ी ला। युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतिज्ञता और याचना न दिखायी दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गँवारिन मनोभावों के पहचानने में चतुर थी। बोली -- मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ बाईजी! तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी।

मालती ने डाँटा -- अच्छा, तूने गुस्ताख़ी पर कमर बाँधी! बता तू किसके इलाक़े में रहती है?
'यह राय साहब का इलाक़ा है। '
'तो तुझे उन्हीं राय साहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी। '
'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाईजी! कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी। '
मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले -- वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूँ।
मालती भी खड़ी हो गयी -- उसे जाना पड़ेगा।
मेहता ने अँग्रेज़ी में कहा -- उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती!
मालती ने फटकार बतायी -- ऐसी ही लौंडियाँ मर्दो को पसन्द आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा। वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है; लेकिन अन्दर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो। मेहता मनोविज्ञान के पण्डित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्नमुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला! बोले -- कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कपिओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नज़रों में नीच नहीं बन सकता। मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे से उठी और चलने को तैयार हो गयी। उसने जलकर कहा -- अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना। मालती दो-तीन क़दम चली गयी, तो मेहता ने युवती से कहा -- अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी। युवती ने दोनों हाथों से, सजलनेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अन्दर चली गयी।
दूसरी टोली राय साहब और खन्ना की थी। राय साहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाटा था, जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फ़ुरसत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे; गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग़; बात-चीत में बड़े कुशल। कुछ दूर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का ज़िकर छेड़ दिया जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाये हुए थे। बोले -- यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।
राय साहब मेहता की इज़्ज़त करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे; पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शान्ति-प्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले -- मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता। और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ। जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी क़दम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धान्त अलापता हैं तो मुझे उस पर हँसी आती है। मज़े से एक हज़ार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिन्ता न बाधा, वह दर्शन न बघारें, तो कौन बघारे? आप निद्वद्वद्व रहकर जीवन को सम्पूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।
'मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं है। '
'बेफ़िक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो तब पता चले! '
'मालती न जाने क्या देखकर उन पर लट्टू हुई जाती है। '
'मैं समझता हूँ, वह केवल तुम्हें जला रही है। '
'मुझे वह क्या जलायेंगी। बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज़्यादा नहीं समझता। '
'यह तो न कहो मिस्टर खन्ना, मिस मालती पर जान तो देते हो तुम। '
'यों तो मैं आपको भी यही इलज़ाम दे सकता हूँ। '
'मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाये हुए हैं। ' खन्ना ने ज़ोर से क़हक़हा मारा, हालाँकि हँसी की कोई बात न थी! ' अगर एक लोटा जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है। ' अबकी राय साहब ने ज़ोर से क़हक़हा मारा, जिसका कोई प्रयोजन न था। ' तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे, उतना ही वह आप से दूर भागेगी। जितना ही दूर भागियेगा, उतना ही आपकी ओर दौड़ेगी। '
'तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था। '

'मेरी ओर! मैं उस रसिक-समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्ना, सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धि, जितना बल हैं वह इस इलाक़े के प्रबन्ध में ही ख़र्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त; कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में। कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम हैं कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुक़ेदार भाई भोग-विलास करते हैं, यह सब मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूँककर तमाशा देखते हैं। क़रज़ का बोझ सिर पर लदा जा रहा हैं रोज़ डिग्रियाँ हो रही हैं। जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं जानते, चारों तरफ़ बदनाम। मैं तो ऐसी ज़िन्दगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ। मालूम नहीं, किस संस्कार से मेरी आत्मा में ज़रा-सी जान बाक़ी रह गयी, जो मुझे देश और समाज के बन्धन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह-आन्दोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-क़बाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की ज़ेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है। मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता, जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँ; मगर करूँ क्या? जिस व्यवस्था में पला और जिया, उससे घ णा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चरखे में रात-दिन पड़ा रहता हूँ कि किसी तरह इज़्ज़त-आबरू बची रहे, और आत्मा की हत्या न होने पाये। एेसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकता, और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिये। हाँ, थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है। मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़नेवाले। दो बार जेल हो आये थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर न पहनते थे और फ़्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और ए. क्लास में रहकर भी सी. क्लास की रोटियाँ खाते रहे, हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था; मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाज़िमा थी। बोले -- आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँ, जो भोगी नहीं हैं वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं। राय साहब मुस्कराये -- आप मुझी पर आवाज़ें कसने लगे।

'आवाज़ नहीं हैं तत्व की बात है। '
'शायद हो। ' ' आप अपने दिल के अन्दर पैठकर देखिए तो पता चले। '
'मैंने तो पैठकर देखा हैं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, विषय की लालसा नहीं है। '
'तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिन्तित हैं, इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेलकर रहूँगा, चाहे दुःखान्त ही क्यों न हो! वह मुझसे मज़ाक़ करती हैं दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है; लेकिन मैं हिम्मत हारनेवाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिज़ाज नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। '
'लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाज़ी मार ले जायँ। '
एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़े सींगोंवाला, बिलकुल काला। राय साहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका -- क्यों हत्या करते हो यार? बेचारा चर रहा हैं चरने दो। धूप तेज़ हो गयी हैं आइए कहीं बैठ जायँ। आप से कुछ बातें करनी हैं। राय साहब ने बन्दूक़ चलायी; मगर हिरन भाग गया। बोले -- एक शिकार मिला भी तो निशाना ख़ाली गया।
'एक हत्या से बचे। '
'आपके इलाक़े में ऊख होती है? '
'बड़ी कसरत से। '
'तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए। हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज़्यादा नहीं एक हज़ार हिस्से ख़रीद लें? '
'ग़ज़ब किया, मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगा? '
'इतने नामी इलाक़ेदार और आपको रुपयों की कमी! कुछ पचास हज़ार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी २५ फ़ीसदी ही देना है। '
'नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक़्त बिलकुल रुपए नहीं हैं। '
'रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी ज़िन्दगी इंश्योर्ड न करायी होगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्ठी रक़म मिल जायगी -- चालीस-पचास हज़ार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ़्तर और कर्मचारियों के ख़र्च के सिवा नफ़े की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी चल कैसे रही है। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो आज सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम ज़रा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरन्देश लोगों के लिए इससे ज़्यादा नफ़े का काम ही नहीं। बाज़ार का चढ़ाव-उतार कोई आकिस्मक घटना नहीं। इसका भी विज्नान है। एक बार उसे ग़ौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाय। ' राय साहब कम्पनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों से बढ़ते देखा था और उनकी कार्यदक्षता के क़ायल हो गये थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाह की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायँ, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। एेसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तरह-तरह के प्रश्न करते रहे। सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पित्तयाँ, कुछ फल लिये जाता नज़र आया। खन्ना ने पूछा -- अरे, क्या बेचता है? देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला -- कुछ तो नहीं मालिक! यही घास-पात है।
'क्या करेगा इनका? '
'बेचूँगा मालिक! जड़ी-बूटी है। '
'कौन-कौन सी जड़ी बूटी हैं बता? ' देहाती ने अपना औषधालय खोलकर दिखलाया। मामूली चीज़ें थीं जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेईया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करजे, घमची आदि। हर-एक चीज़ दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उसके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मन्दाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खोराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं मालिक, गठिया हो, बाई हो ...। खन्ना ने दाम पूछा -- उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रुपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। ग़रीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया। राय साहब ने पूछा -- आप यह घास-पात लेकर क्या करेंगे? खन्ना ने मुस्कराकर कहा -- इनकी अशर्फ़ियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम।
'तो यार, वह मन्त्र हमें सिखा दो। '

'हाँ-हाँ, शौक़ से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब बताऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबक़ा पड़ता है। कुछ एेसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूिटयों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फ़कीर की दी हुई बूटी हैं फिर आपकी ख़ुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज़ उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ऋणी हो जायँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है। ज़रा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं। राय साहब ने कुतूहल से पूछा -- मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे? खन्ना ने क़हक़हा मारा -- आप भी राय साहब! बड़े मज़े की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाक़त पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफ़सरों को देखते हैं, और इन लम्बी पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अन्धविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफ़ेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधे का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मज़ाक़ तो हमारे स्वामीजी ख़ूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आयेंगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बग़ीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गयी। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष; हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास हैं आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमन्तर हो जायँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनायेंगे। ऐसे प्रसन्नमुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो यह है कि ख़ुद इतने बड़े महात्मा हैं; मगर संन्यास और त्याग मिन्दर और मठ, सम्प्रदाय और पन्थ, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं, रूढ़ियों के बन्धन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का ख़याल छोड़ो। देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे। राय साहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुता-वालों में आम तौर पर होता है। दुखी प्राणी को आत्मचिन्तन में जो शान्ति मिलती है। उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़कर एकान्त में जा बैठें और मोक्ष की चिन्ता करें। संसार के बन्धनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था; लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बन्धनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?

'लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो ख़ुद क्यों संन्यास लिया है? '
'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं -- आदमी को अन्त तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातन्त्र्य उनके उपदेशों का तत्व है। '
'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातन्त्र्य का आशय क्या है? '
'समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुन्दर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है। '
'मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं? '
'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलता । । । ' वाक्य पूरा न हुआ था कि वह सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज़ सुनकर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय साहब के पीछे आ गये। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मन्द गति से सामने की ओर चला। राय साहब ने बन्दूक़ उठायी और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा -- यह क्या करते हैं आप? ख़्वाहमख़्वाह उसे छेड़ रहे हैं। कहीं लौट पड़े तो?
'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा। '
'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौक़ीन नहीं हूँ। '
'तब क्या शिकार खेलने चले थे? '
'शामत और क्या। ' राय साहब ने बन्दूक़ नीचे कर ली। ' बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। एेसे अवसर कम मिलते हैं। '
'मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। ख़तरनाक जगह है। '
'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। ख़ाली हाथ लौटते शर्म आती है। '
'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का। '
'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच। '
'व्यर्थ में अपनी जान ख़तरे में डालना बहादुरी नहीं है। '
'अच्छा तो आप ख़ुशी से लौट सकते हैं। '
'अकेला? '
'रास्ता बिलकुल साफ़ है। '
'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा। '
राय साहब ने बहुत समझाया; मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक़्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख़ मारकर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गये थे! राय साहब को लाचार होकर उनके साथ लौटना पड़ा। जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आये, तो खन्ना के होश ठिकाने आये। बोले -- ख़तरे से नहीं डरता; लेकिन ख़तरे के मुँह में उँगली डालना हिमाक़त है।
'अजी जाओ भी। ज़रा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गयी। '
'मैं शिकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गयी है। '
'मैं मिस मालती से आपकी क़लई खोलूँगा। '
'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता। '
'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश! '
खन्ना ने गर्व से कहा -- जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले -- तो आप कब तक आयँगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फ़ार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फ़ार्म भी मौजूद हैं। राय साहब ने चिन्तित स्वर में कहा -- ज़रा सोच लेने दीजिए।
'इसमें सोचने की ज़रूरत नहीं। '
तीसरी टोली मिरज़ा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिरज़ा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे काग़ज़ की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिन्ता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज़्यादा उत्साही मेम्बर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ --रियायत करना नहीं जानते थे।

बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। ग़ुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे; लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखायी और यह हाथ धोकर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक़ था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे। मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिये रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुक़ेदारों को महाजनों से क़रज़ दिलाना, नयी कम्पनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। ख़ासकर चुनाव के समय उनकी तक़दीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेद-वार को खड़ा करते, दिलोज़ान से उसका काम करते और दस-बीस हज़ार बना लेते। जब काँग्रेस का ज़ोर था काँग्रेस के उम्मेदवारों के सहायक थे। जब साम्प्रदायिक दल का ज़ोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से काम करने लगे; मगर इस उलट-फेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसन्द न करें; पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था। मिरज़ा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर कहा -- आज तो शिकार खेलने के लायक़ दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था।

वकील ने समर्थन किया -- जी हाँ, वहीं बाग़ में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी।
'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है। '
मिरज़ा विरक्त मन से बोले -- अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा। तंखा ने पूछा -- क्यों? मुफ़्त की बकबक कौन करे। फ़ायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमाक्रेसी में भक्ति नहीं रही। ज़रा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिन्दुस्तानी हो, या अँग्रेज़, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मज़े से हज़ारों मील खींच ले जा सकता हैं उसे दस हज़ार आदमी मिलकर भी उतनी तेज़ी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेज़ार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमाक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मींदारों का राज्य हैं और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाज़ी ले जाता हैं जिसके पास रुपए हैं। रुपए के ज़ोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पण्डित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलनेवाले, जो अपनी ज़बान और क़लम से पब्लिक को जिस तरफ़ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं। मैंने तो इरादा कर लिया हैं अब एलेक्शन के पास न जाऊँगा! मेरा प्रोपेगंडा अब डेमाक्रेसी के ख़िलाफ़ होगा। '
मिरज़ा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने ज़माने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ़ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को ख़ज़ाने की एक कौड़ी भी निजी ख़र्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नक़ल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुज़र करता था। मिरज़ा ने आदर्श महीपों की एक लम्बी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालनेवाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मन्त्री और मिनिस्टर, पाँच, छः, सात, आठ हज़ार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमाक्तसी! हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नज़र आया। मिरज़ा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बन्दूक़ सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिरज़ा भी बेतहाशा दौड़े। बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतरकर मिरज़ाजी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कम्पन हो रहा था और आँखें पथरा गयी थीं। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा -- अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुँचा दूँ? मिरज़ा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था; मगर अब निस्पन्द पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका क़ीमा बना डालो, उसे ख़बर न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनन्द था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुन्दर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि? उसकी छलाँगें हृदय में आनन्द की तरंगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता है; लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।
लकड़हारे ने पूछा -- कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।
मिरज़ाजी जैसे ध्यान से चौक पड़े। बोले -- अच्छा उठा ले। कहाँ चलेगा?
'जहाँ हुकुम हो मालिक। '
'नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ। ' लकड़हारे ने मिरज़ा की ओर कुतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। ' अरे नहीं मालिक, हुज़ूर ने सिकार किया हैं तो हम कैसे खा लें। '
'नहीं-नहीं मैं ख़ुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है? '
'कोई आधा कोस होगा मालिक! '
'तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे ख़ुश होते हैं। '
'ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आये, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?

'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया तू भला आदमी है। ' लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिरज़ाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला -- मैं समझ गया मालिक, हज़ूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिरज़ाजी ने हँसकर कहा -- बस-बस, तूने ख़ूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिरज़ाजी धर्म के इतने पाबन्द न थे। दस साल से उन्होंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहार, निर्जल; मगर लकड़हारे को इस ख़याल से जो सन्तोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया हैं उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गरदन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है; लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिरज़ा से बोले -- आप उधर कहाँ जा रहे हैं हज़रत! क्या रास्ता भूल गये? मिरज़ा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा -- मैंने शिकार इस ग़रीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न। तंखा ने मिरज़ा को कुतूहल की दृष्टि से देखा और बोले -- आप अपने होश में हैं या नहीं। ' कह नहीं सकता। मुझे ख़ुद नहीं मालूम। ' ' शिकार इसे क्यों दे दिया? ' इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी ख़ुशी होगी, मुझे या आपको न होगी। ' तंखा खिसियाकर बोले -- जाइए! सोचा था, ख़ूब कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। ख़ैर, राय साहब और मेहता कुछ न कुछ लायेंगे ही। कोई ग़म नहीं। मैं इस एलेक्शन के बारे में कुछ अरज़ करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मरज़ी; लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ़ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ। ख़्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट सोलहों आने उनकी तरफ़ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पबलिक पर आपका जो असर हैं इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हज़ार रुपए महज़ यह ज़ाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी ख़ातिर बैठ जाते हैं । । । नहीं मुझे अरज़ कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफ़िक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ़ से एक मेनिफ़ेस्टो निकाल दूँगा। और उसी शाम को आप मुझसे दस हज़ार नक़द वसूल कर लीजिए। मिरज़ा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा -- मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ। मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।

'मुझ पर आप जितनी लानत चाहें भेजें; मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही नुक़सान कर रहे हैं। '
'मैं ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ। '
'आप शरीयत के इतने पाबन्द तो नहीं हैं। '
'लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबन्द होने की ज़रूरत नहीं है। '
'तो इस मुआमले में क्या आप अपना फ़ैसला तब्दील नहीं कर सकते? '
'जी नहीं। '
'अच्छी बात हैं इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ नहीं है? आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न ख़रीदना पड़ेगा। आप सिर्फ़ अपना नाम दे दीजिएगा। '
'जी नहीं, मुझे यह भी मंज़ूर नहीं है। मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना ख़ुद-ग़रज़ बना देती हैं कितना ऐश-पसन्द, कितना मक्कार, कितना बेग़ैरत। '
वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिरज़ाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कन्धे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिरज़ा ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गये। उन्होंने पुकारा -- ज़रा सुनिए, मिरज़ाजी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिरज़ाजी ने बिना रुके हुए जवाब दिया -- वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेज़ी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था। मिरज़ा साहब ने आकर पूछा -- थक गये, क्यों?
लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा -- बहुत भारी है सरकार!
'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ। '
लकड़हारा हँसा। मिरज़ा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताज़े थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया।
'तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता? '
लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी -- सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।
'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ। '
'इससे क्या होता है मालिक! '
मिरज़ाजी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास क़दम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मज़बूत किया और एक बीस क़दम और चले। कम्बख़्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मज़ा आये। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, ज़रा उसका मज़ा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये। लकड़हारे ने चुटकी ली -- कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न? मिरज़ाजी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले -- उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।
'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक! '
'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ! '
'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान हैं उस पर उतार दीजिए। '
'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ। '
'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें। '
मिरज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुँचे। मिरज़ा ने दाना फेंका -- अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नज़रों में अब मिरज़ाजी का कोई महत्व न था। बोले -- मुआफ़ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।
'बहुत भारी नहीं हैं सच। '
'अजी रहने भी दीजिए। '
'आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंज़ूर कर लूँगा। '
'मैं इन चकमों में नहीं आता। '
'मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस सौ क़दम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती हैं जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों। '
तंखा का मन चुलबुला उठा। मिरज़ा अपने क़ौल के पक्के हैं, इसमें कोई सन्देह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आख़िर मिरज़ा इतनी दूर ले ही आये। बहुत ज़्यादा थके तो नहीं जान पड़ते; अगर इनकार करते हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आख़िर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पँसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।
'सौ क़दम की रही। '
'हाँ, सौ क़दम। मैं गिनता चलूँगा। '
'देखिए, निकल न जाइएगा। '
'निकल जानेवाले पर लानत भेजता हूँ। '
तंखा ने जूते का फ़ीता फिर से बाँधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हों। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्ठा की। दो-तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गयी; पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गयी, हाँफ उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कि मिरज़ा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तरह उठाया जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिरज़ा ने बढ़ावा दिया -- शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है।
'मार लिया मैदान! जीते रहो पट्ठे! ' तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं। ' बस, एक बार और ज़ोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शर्त ग़लत। पचास क़दम की ही रही। '
वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हज़ार तक की गोटी थी। मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर भी टूट गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े। मिरज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।
'ज़ोर तो यार तुमने ख़ूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे हो। ' तंखा ने हाँफते हुए लम्बी साँस खींचकर कहा -- आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर। मिरज़ा ने हँसते हुए कहा -- लेकिन भाईजान मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था। वकील साहब ने ख़ुशामद करनी शुरू की -- मुझै तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।
'आपने मुआहदा कब पूरा किया। '
'कोशिश तो जान तोड़कर की। '
'इसकी सनद नहीं। '
लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया था और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-काँखकर दस क़दम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गये। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुक़दमे चाहे जितने बनाओ।
एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छः घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने -- किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्ठा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने कहा -- यह हमारा है।
उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पन्द्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर छोटे भाई को डाँटा -- चुप, नहीं सिपाई पकड़ ले जायगा।
मिरज़ा ने लड़के को छेड़ा -- तुम्हारा नहीं हमारा है।
बालक ने हिरन पर बैठकर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध कर दिया और बोला -- बापू तो लाये हैं। बहन ने सिखाया -- कह दे भैया, तुम्हारा है।

इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नये भले आदमियों को देखकर उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया और शर्मायी कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेष में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गये बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है। अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी; लेकिन मिरज़ा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवायी, शिकार पका, समीप के बाज़ार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मर्दों ने ख़ूब शराब पी और मस्त होकर शाम तक गाते रहे। और मिरज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ट परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफ़ल कन्धे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी क़लाई की घड़ी खोलकर अपनी क़लाई पर बाँध लेता था। मिरज़ा ने ख़ुद ख़ूब देशी शराब पी और झूम-झूमकर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के जीवन में शायद पहली ही बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। ज़रूर यह कोई राजा हैं नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे! कुछ दूर चलने के बाद मिरज़ा ने पीछे फिरकर देखा और बोले -- बेचारे कितने ख़ुश थे। काश मेरी ज़िन्दगी में ऐसे मौक़े रोज़ आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।

तंखा ने बेरुखी के साथ कहा -- आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जँगलों और पहाड़ों की ख़ाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिये लौट जाते हैं।
मिरज़ा ने निर्दयता से कहा -- मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है।
दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाये हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नयी बात थी। राय साहब और खन्ना दोनों भूखे रह गये थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुखी थे कि मिरज़ा ने उनके साथ बेवफ़ाई की। अकेले मिरज़ा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।

8.
जब से होरी के घर में गाय आ गयी है, घर की श्री ही कुछ और हो गयी है। धनिया का घमंड तो उसके सँभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो गाय की चर्चा। भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गयी थी। उसी की कुट्टी काटकर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आँखें आकाश की ओर लगी रहती थीं कि कब पानी बरसे और घास निकले। आधा आसाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई। सहसा एक दिन बादल उठे और आसाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा। किसान ख़रीफ़ बोने के लिए हल ले-लेकर निकले कि राय साहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाक़ी न चुक जायगी किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रापात हो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गाँव छोड़कर भागा थोड़ा ही जाता है; अगर खेती में हल न चले, तो रुपए कहाँ से आ जायेंगे। निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिलकर कारकुन के पास जाकर रोये। कारकुन का नाम था पण्डित नोखेराम। आदमी बुरे न थे; मगर मालिक का हुक्म था। उसे कैसे टालें। अभी उस दिन राय साहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थीं और आज आसामियों पर यह ज़ुल्म। होरी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ; लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे। वह अगुवा बनकर क्यों बुरा बने। जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो यही आग में क्यों कूदे। जो सब के सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा। किसानों में खलबली मची हुई थी। सभी गाँव के महाजनों के पास रुपए के लिए दौड़े। गाँव में मँगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा हुआ था। गेहूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पण्डित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरान्त और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपए देते थे। गाँववालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक़ था कि जिसके पास दस-बीस रुपए जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपए हैं। आख़िर वह धन गया कहाँ। बँटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं; गया तो कहाँ गया। जूते जाने पर भी उनके घट्ठे बने रहते हैं। किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्म-सम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपए उस पर बाक़ी थे उनके पास कौन मुँह लेकर जाय। झिंगुरीसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का काग़ज़ लिखाते थे, नज़राना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टाम्प की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पचीस रुपए का काग़ज़ लिखा, तो मुश्किल से सत्रह रुपए हाथ लगते थे; मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? राय साहब की ज़बरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता। झिंगुरीसिंह बैठे दातून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी मूछोंवाले आदमी थे, बिलकुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़े हँसोड़। इस गाँव को अपनी ससुराल बनाकर मदों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते -- पण्डितजी पाल्लगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते -- तुम्हारी आँखें फूटे, घुटना टूटे, मिरगी आये, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे; मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपए लिये द्वार से न टलते थे। होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति-कथा सुनायी। झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा -- वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला?

'पुराने रुपए होते ठाकुर, तो महाजनी से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है। '
'गड़े रुपए न निकलें चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है। '
'कहाँ के गड़े रुपए बाबू साहब, खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया; ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गयी। रुपए होते, तो किस दिन के लिए गाड़ रखते। '
झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दाँत लगाये हुए गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पाँच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अरदब में डालकर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर आ गया। बोले -- अच्छा भाई, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, अब राज़ी हुए। जितने रुपए चाहो, ले जाओ लेकिन तुम्हारे भले के लिए कहते हैं, कुछ गहने-गाठे हों, तो गिरो रखकर रुपए ले लो। इसटाम लिखोगे, तो सूद बढ़ेगा और झमेले में पड़ जाओगे। होरी ने क़सम खाई कि घर में गहने के नाम कच्चा सूत भी नहीं है। धनिया के हाथों में कड़े हैं, वह भी गिलट के। झिंगुरीसिंह ने सहानुभूति का रंग मुँह पर पोतकर कहा -- तो एक बात करो, यह नयी गाय जो लाये हो, इसे हमारे हाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच जाओ; चार आदमी जो दाम कहें, वह हमसे ले लो। हम जानते हैं, तुम उसे अपने शौक़ से लाये हो और बेचना नहीं चाहते; लेकिन यह संकट तो टालना ही पड़ेगा। होरी पहले तो इस प्रस्ताव पर हँसा, उस पर शान्त मनसे विचार भी न करना चाहता था; लेकिन ठाकुर ने ऊँच-नीच सुझाया, महाजनी के हथकंडों का ऐसा भीषण रूप दिखाया कि उसके मन में भी यह बात बैठ गयी। ठाकुर ठीक ही तो कहते हैं, जब हाथ में रुपए आ जायँ, गाय ले लेना। तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पचीस रुपए मिलेंगे और तीन चार साल तक न दिये गये, तो पूरे सौ हो जायँगे। पहले का अनुभव यही बता रहा था कि क़रज़ वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। बोला -- मैं घर जाकर सबसे सलाह कर लूँ, तो बताऊँ।
'सलाह नहीं करना है, उनसे कह देना है कि रुपए उधार लेने में अपनी बबार्दी के सिवा और कुछ नहीं। '
'मैं समझ रहा हूँ ठाकुर, अभी आके जवाब देता हूँ। '

लेकिन घर आकर उसने ज्योंही वह प्रस्ताव किया कि कुहराम मच गया। धनिया तो कम चिल्लाई, दोनों लड़कियों ने तो दुनिया सिर पर उठा ली। नहीं देते अपनी गाय, रुपए जहाँ से चाहो लाओ। सोना ने तो यहाँ तक कह डाला, इससे तो कहीं अच्छा है, मुझे बेच डालो। गाय से कुछ बेसी ही मिल जायगा, दोनों लड़कियाँ सचमुच गाय पर जान देती थीं। रूपा तो उसके गले से लिपट जाती थी और बिना उसे खिलाये कौर मुँह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुन्दर होगा। अभी से उसका नाम-करण हो गया था -- मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज़्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे। मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आख़िर धनिया को किसी तरह राज़ी कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है; लेकिन बिपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-सी बड़ी बात है। ऐसा न हो, तो लोग बिपत से इतना डरें क्यों। गोबर ने भी विशेष आपित्त न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया गया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जायँ, तो गाय झिंगुरीसिंह के पास पहुँचा दी जाय। दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयीं। गोबर इस करुण दृश्य से भागकर कहीं चला गया था। वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आँसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक़्त उसे पचीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर खड़ा हुआ तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली सजीव आँखों में आँसू भरे हुए हैं और वह कह रही है -- क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूँगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर सन्तुष्ट हो गयी। बोलो। धनिया ने कहा -- लड़कियाँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते। जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो। होरी ने काँपते हुए स्वर में कहा -- मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुँह नहीं देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूँगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायँगे। तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय। धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा -- और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायँगे वैसे इसे भी चुका देंगे। भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बन्द थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाये हुए थे; पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहाँ लिये जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला -- बाहर हवा में बाँधे देता हूँ। आराम से रहेगी। उसके भी तो जान है। गाय बाँधकर वह अपने मँझले भाई शोभा को देखने गया। शोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबन्ध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। शोभा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों भागनेवाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था। और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें होने लगीं। राय साहब का यह नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना हुआ था। कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा --
कौन खड़ा है वहाँ? हीरा बोला -- मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था। हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस ज़रा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गाँव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं से आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गाँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाँव से सबसे सम्पन्न यही कौड़ा था; मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद! हीरा के मन में कपट नहीं रहता। ग़ुस्सैल है; लेकिन दिल का साफ़। उसने स्नेह भरे स्वर में पूछा -- तमाखू है कि ला दूँ?
'नहीं, तमाखू तो है दादा!
'सोभा तो आज बहुत बेहाल है। '
'कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान् के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गयी। '
होरी ने चिन्ता से कहा -- यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बिमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इफ़िंजा हो गया था, तो दवाई उठाकर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, तब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुँह में दवाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हज़ारों गालियाँ देते थे।
'हाँ दादा, भला वह बात भूल सकता हूँ। तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता। ' होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।
'बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो ज़िन्दगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराये थोड़े ही हो जाते हैं। जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। जिसके कोई है ही नहीं, उसके कौन लड़ाई करेगा। '
दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अन्दर भोजन करने चला। धनिया रोष से बोली -- देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात हो गयी और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह राँड़ लड़की नहीं है, झुनिया! उसी के फेर में पड़ा रहता है। होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला -- किसने कहा तुमसे? धनिया प्रचंड हो गयी -- तुमसे छिपी होगी, और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिये हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो नहीं कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी, तो कहीं के न रहोगे। होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी -- झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है। धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा -- झुनिया इस घर में आये, तो मुँह झुलस दूँ राँड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहाँ चाहे रहे।
'और जो गोबर इसी घर में लाये? ' तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं। '
'उसे इसकी क्या परवाह। '
'इस तरह नहीं छोड़ूँगी लाला को। मर-मर के पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुँह में आग लगा दूँगी राँड़ के। '

सहसा गोबर आकर घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला -- दादा, सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है। होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला -- क्या असगुन मुँह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी। तीनों बाहर गये। चिराग़ लेकर देखा। सुन्दरिया के मुँह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गयी थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गये थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पण्डित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सक के वही आचार्य थे। पण्डितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आये। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है; लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो; ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं; लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर सन्देह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी; मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा दुखी तो हीरा ही था। धमकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाय तो ख़ून पी जाय। वह लाख ग़ुस्सैल हो; पर इतना नीच काम नहीं कर सकता। आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दुःख में दुखी थे और बधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा। अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिन्ता न थी; लेकिन अब तो एक नयी विपित्त आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पाँच सेर से दूध कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्रा गिर पड़ा। जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो धनिया होरी को कोसने लगी -- तुम्हें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आँगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय; लेकिन नहीं, उसे गमीर् लग रही है। अब तो ख़ूब ठंडी हो गयी और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया। ठाकुर माँगते थे; दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरा का निहोरा होता; मगर यह तमाचा कैसे पड़ता। कोई बुरी बात होनेवाली होती है तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मज़े से घर में बँधती रही; न गमीर् लगी, न जूड़ी आयी। इतनी जल्दी सबको पहचान गयी थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आयी है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जग गयी थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गये! सोना और गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धोकर सो गयी थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आयी तो होरी ने धीरे से कहा -- तेरे पेट में बात पचती नहीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी। धनिया ने आपत्ति की -- भला सुनूँ; मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा तेरा सन्देह किसी पर होता है। '
'मेरा सन्देह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था। '
'किसी से कहेगी तो नहीं? '
'कहूँगी नहीं, तो गाँववाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे। '
'अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूँगा। '
'मुझे मारकर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे। '
'मेरा सन्देह हीरा पर होता है। '
'झूठ, बिलकुल झूठ! हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुँह का ही ख़राब है। '
'मैंने अपनी आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह। '
'तुमने अपनी आँखों देखा! कब? '
'वही, मैं सोभा को देखकर आया; तो वह सुन्दरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा -- कौन है, तो बोला, मैं हूँ हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलायी। वह उधर गया, मैं भीतर आया और वही गोबर ने पुकार मचायी। मालूम होता है, मैं गाय बाँधकर सोभा के घर गया हूँ, और इसने इधर आकर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं। धनिया ने लम्बी साँस लेकर कहा -- इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उफ़्फ़ोह। हीरा मन का इतना काला है! और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।
'अच्छा जा सो रह, मगर किसी से भूलकर भी ज़िकर न करना। '
'कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ, तो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है। '
होरी ने धमकी दी -- मैं कहे देता हूँ धनिया, अनर्थ हो जायगा। धनिया आवेश में बोली -- अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाय। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल। वहाँ से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला! और गवाही दिलाऊँगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रखकर। उसने भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयम् उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी। अब यह चुड़ैल माननेवाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की। चारों ओर नीरव अन्धकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घण्टियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस क़दम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चात्ताप में करवटें बदल रहा था। अन्धकार में प्रकाश की रेखा कहीं नज़र न आती थी।

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