गोद में गाँव (कहानी) : महेश कटारे

God Mein Gaanv (Hindi Story) : Mahesh Katare

रात किसी रीछ की तरह पूरे गाँव को चपेटकर पसर गई थी। सुना जाता है कि रीछ तलवे चाटकर आदमी के प्राण लेता है। रीछ खून चूसता है। आदमी ठंडा होता जाता है। रीछ के सामने आदमी का क्या बस ? जब ताकत ही निर्णय हो तो हिम्मत और हिकमत भी खड़ी रह जाती है।

सालिगराम के हाथ में भैंस हाँकने लायक लाठी तो खैर पहले भी नहीं थी इन दिनों तो उसकी अक्ल भी जवाब देने लगती है। चुगली, चालाकी, चोरी, चकमा पहले भी चलता रहा है पर अब तो यह सब अंधेरे में साँप-सा बे-आवाज सरकता है जाने कब कहाँ किसको कौन डँस ले उसका दिन अलाव को आँच जुटाने अथवा खखोरने में बीत रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि जाने कितने जन्मों से वह राख कुरेद-कुरेद कर ही घूरे पर फेंकता रहा है।

आज भी सबेरे कुछ जल्दी ही लाइन में लगने पहुँचा था पर तब तक तो सैकड़ों लोग आगे लग चुके थे। कतार में एक सीध.......जैसे पैरों में काठ कसकर खड़ा कर दिया हो। कम्पनी के मालिकों की ओर से हल्ला-गुल्ला की मनाही है। इस समय साहब लोग सोते हैं।.........बस उनके कुत्ते घूमते हैं चहारदीवारी के भीतर। प्रवेश कर ले तो बोटी-बोटी चीर डालें। ये बाहर से मँगाए गए हैं। सालिगराम ने सुना है कि एक कुत्ते पर इतना खर्चा होता है कि दो परिवार पल जाएँ। ये जरूर है कि इन्हें कोई बहला-फुसला नहीं सकता और इन पर संविधान की कोई दफा भी लागू नहीं होती।

लाइन से जरा भी ऊँचे सुर में बोलने वाले का नाम काली सूची में डाल दिया जाता है फिर वह तो क्या उसके कुनबे से भी कोई भीतर दाखिल नहीं हो सकता। इसीलिए लोग समय गुजारने के लिए भी आपस में बातचीत नहीं करते बस फुसफुसाते हैं। पानी पेशाब तक के लिए इजाजत संकेतों से माँगी जाती है।

कतार में लगे हुओं को कोई हुकूमत नहीं मिलने वाली........बस यही कि रजिस्टर पर नाम चढ़ गया तो महीने में दस-पाँच दिन का काम मिलने की उम्मीद बन जाती है। आधा- अधूरा पेट में पटककर टूटे-फूटे परिवार को जिलाए रखने की जुगत का आसरा रहता है। कम्पनी में पहाड़ खोदने या मुरम सकेलने का काम है तो हाड़-तोड़ पर इसके चाहने वालों की भीड़ लगी रहती है- मर्द, औरत, बच्चेनुमा चेहरे भी। पेट दिखाते बजाते.........समूह के समूह। सब भय के आत्मानुशासन में..........।

दरअसल इस गाँव को कम्पनी ने गोद लिया है। कम्पनी आने से पहले यहाँ सिर्फ सूखे पहाड़ और खेत भर थे। एक पतली-सी नदी भी तीन ओर से गाँव का घेरा लगाकर बहती रहती थी। संपन्नता नहीं थी............बस गुजर-बसर होती आई है पीढ़ियों से। खुद मुख्यमंत्री ने अपने मुँह से घोषणा कर गाँव को कम्पनी की गोद में पहुँचाया था। कहा था कि गाँव में न अकाल रहेगा न गरीबी। कम्पनी का आना सौभाग्य कहा था गाँव का। शुरू-शुरू में ऐसा कुछ लगा भी था पर अब ?

सालिगराम कतार में था और खिड़की खुलने की उम्मीद में कभी एक कभी दूसरे पैर हो रहा था कि अफरा-तफरी शुरू हो गई। हुड़दंग अधिकतर पीछे से आरंभ होता है.......। हो हल्ला, धक्का- मुक्की में पीछे के जोर-जबर आगे आ ठसे। आगे कमजोर कतार से बाहर हो गए.......अब उनके किसी नंबर को पाने की संभावना भी समाप्त थी। हालात बिगड़ते देख कम्पनी के कारिंदों ने वर्दियाँ बुलवा लीं। डंडों से नियंत्रण की स्थिति तो बनाई पर कतार फिर भी रूक-रूक कर टूटती रही। व्यवस्था वाले स्वयं ही किसी को खिड़की पर ले लेते।

कतार से बाहर हुए सबसे पीछे खड़े होकर सालिगराम में बाट जोहने का न साहस बचा था न कूवत। घर लौटने के बजाय वह कंधों पर खेस लपेट पहाड़ी चढ़ा और सूरज डूबने के साथ झोली- भर झरबेरी के बेर लिए लौटा। पाँच प्राणियों के पेट की आग में झोंकने के लिए कुछ-न-कुछ तिनका पत्ता तो चाहिए ही। इलाका का इलाका तीन साल से अकाल झेल रहा है। पहली साल उधार- सुधार और बचे-खुचे से काटी। दूसरे साल स गहना-गुरिया बेच जमीन का मुँह भरा और तीसरे साल तो खैर सूनी ही छोड़ दी। जब बीज भी न लौटे तो और क्या करे किसान ? अब जमीन औने-पौने बिक्री और जरूरत के मुताबिक कम्पनी ने खरीदी। लोगों के पास काम न था और कम्पनी का कारोबार दिन दूना रात चैगुना होने लगा। कम्पनी के साथ-साथ लगता था कि रात भी फैल उठी है।

अभी आठ भी न बजे होंगे पर रात गाँव में साँय-साँय डोलने लगी थी। गली के मोड़ से कोई भूरी-सी काया चोर चाल में सालिगराम की ओर चढ़ी आ रही थी। पहले तो वह सतर्क हुआ फिर उसने खुद को ढीला छोड़ दिया कि - घर में चूहे दुलत्ती खेलते हैं, चोर-चकार क्या खोंस लेगा ?

राम राम दद्दा !

आवाज के सहारे सालिगराम ने पहचाना कि सरपंच है। बास नहीं सुहाती उसे सरपंच की.........पर क्या करे ? कम-से-कम अगले चुनाव तक तो उसे लदे ही रहना है। गाँव अकाल-दर-अकाल भुगत रहा है और इस सरपंचड़ा को सदा अपना फायदा और चुनाव दिखता है। इसने गाँव को तो जातियों में बाँट ही रखा है। घरों में भी दीवारें खिंचवा दीं। खुद सालिगराम के बेटे जै सिंह को ही जाने क्या पट्टी पढ़ाई कि गू गोड़ना पड़ रहा है परिवार-भर को। वैसे अपना ही दाम खोटा हो तो परखने वाले पे क्या दोष धरा जाए ?

सरपंच गमगमाती ऊनी शाल सहेजता अलाव पर सामने आ बैठा-का होय रहा है दद्दा ?

‘‘बखत काट रये हैं” सालिगराम ने मरे मन से उत्तर दिया।
‘‘तिहारे घर मन-भर ज्वार पहुँचायबे का बोल गया था, आय गई का ?”

सलिगराम के भीतर कुछ भक्क से जला-अच्छा ! तो कूटन उसी की भिजवाई ज्वार से बना था !......पर बखत की टेढ़ और अपनी घरवाली रामसिरी की चतुराई भाँप चुप रहा। समझ गया कि रामसिरी ज्वार के साथ बेर कूटकर पकाते हुए अकाल और भूख के साथ युद्ध को कुछ लंबा खींचना चाहती है...........शायद अगली फसल बने........दिन बहुरें। फिर वह इस गुत्थी में उलझ गया कि सरपंच ने दाना क्यों फेंका है ? सभी जानते हैं कि पूरा हरामी है ये मुखिया। ऐसा कुछ भी नहीं करता कि कोई मतलब न सधे। गाँव- भर को यूँ गांस रखा है कि कुछ कहकर कोई बैर बुराई भले मोल ले......इसका बिगाड़ नहीं कर पाएगा। चैपड़ ही ऐसी है.....कम्पनी तक से हिस्सा बँधा है इसका। बोला, ‘‘नेंक बैठो भइया ! दुकान खुली होय तो बीड़ी ले आऊँ !” वैसे सालिगराम की जेब में जतन से बचाई गई चार छह बीड़ियाँ अभी सुरक्षित थीं और वह यह भी जानता है कि सरपंच बीड़ी नहीं सिगरेट पीता है।

चुनाव के टैम महीने भर दारू बँटवाई थी सरपंच ने। अब तो कम्पनी साहबों के साथ अंगरेजी पर हाथ फेरता है। चर्चाएँ तो इसकी लँगोटी पर भी हैं......इसके खानदान में रखैलों का चलन रहा ही है। इतना तो सालिगराम भी जानता है कि इसके बाप को अफीम और औरत रोजाना की जरूरत थी। अब जमाना बदल गया है कि इसके बाप-दादों की तरह सीधे झपट्टे की बजाय पेट पुचकार कर मारता है।

सालिगराम अनमना-सा खड़ा हुआ तो सरपंच ने हाथ पकड़ बैठा लिया, ‘‘अरे दद्दा ! तुम बड़े बूढ़े इस बखत अंधेरे में कहाँ ठिब्बे खाओगे। है ना मेरे पास। तुम्हारी ई तो है ये”- सरपंच ने जेब से सिगरेट की पैकेट निकाल सालिगराम की ओर बढ़ा दी-लेव ! दोनों भाई संगसाथ पियेंगे।

सिगरेट सुलगाकर धँआ गुटकते सालिगराम की आशंका और घनी होने लगी कि कोई जाल तो फिंकना ही है। .......खैर अभी नहीतो फिर कभी उच्चारेगा कि क्या चाहता है ? सुट्टा मार सालिगराम ने अलाव की आँच कुरेदी।

सरपंच के ओठों पर सिगरेट का तिलंगा लहका, ‘‘दद्दा ! सुना है कि मोंड़ी का ब्याह अखतीज पर बन रहा है। जै सिंह बता रहा था कि अगली साल गुरू जाने कौन राशि बैठेंगे सो पूरी साल बिना लगनसरा की है।”

बेटी का ब्याह हर पिता की तरह सालिगराम की भी दुखती रग है। अट्ठारह साल तक वह बेटी को बच्ची ही समझता रहा फिर रामसिरी के कोंचने पर वर घर को ओर निगाह दौड़ाई तब तक अकाल आ गया। इन तीन सालों में बेटी ताड़ हो गई है। कम्पनी को खेत इस आस में सौंपा कि जमीन देने वाले परिवार से एक को नौकरी में लिया जाएगा। नौकरी पाकर जै सिंह न्यारा हो गया। न्यरा पूत पड़ौसी दाखिल। माँ-बाप, भाई-बहिन के खाली पेट की सुध नहीं लेता तो ब्याह का क्या हीला करेगा ? ज्वार की कूटन से पेट की आग पर कुछ राख जमी थी कि सरपंच ने ब्याह का जिक्र कर फूँक मार दी। सालिगराम जल्दी-जल्दी सिगरेट धोंकने लगा।

सरपंच ने बात का सिरा फिर बढ़ाया, ‘‘ब्याह जोग बेटी को गोबर के टीके से ही सही, बिदा कर देना चाहिए........समय खराब है।” बड़े जतन से घाव में चुभोई गई सींक से सालिगराम बिल बिलाकर रह गया।
‘‘कछू हूँ हाँ नहीं करी दद्दा तुमने ?”
‘‘काये की ?”
‘‘यही ब्याह की चर्चा जै सिंह ने करी मो से सो कहा मैंने........।”
‘‘मो से तो जिकर नहीं करा।”
‘‘मोसे करा तो का मैं कोई गैर हूँ ? .........स्यात् तुमसे कहबे की हिम्मत न परी हो। जे भी कहता था कि बन पड़ेगा सो वो भी लगाएगा बयाह में।”

सलिगराम ने साँस भरी, ‘‘देखई रये हो। घर-घर में खायबे के लाले परे हैं।” लगा कि जैसे गैर के आगे जाँघ उघड़ गई हो।

सरपंच ने हूँका भरा, ‘‘तुम तो फिर भी ठीक हो। कई घरों में तो सात-सात दिन अन्न के दरसन नईं मिलते। मोसे जितना बन पड़ता है कर रहा हूँ। रोज-रोज अफसरों तक दौड़ भाग करता हूँ कि राहत खुल जाए पर वो कहत हैं कि बजट नईं है। पच्चीस परसेंट पै बजट हो जाता है पर फिर दूसरे महकमों का मुँह भरो। इतनी बेईमानी मैं नहीं साध पाता। ले देकर कंपनी का सहारा बचता है।

‘‘मरने-मारने पर उतारू होकर मैंने कंपनी से पानी का राशन कार्ड बनवाया। नहीं तो सबको प्यास से मरते गाँव छोड़ना पड़ता। जानत हौ कंपनी का एक बोतल पानी दस रूपैया में बिकता है। पाँच की भी लागत मान लो तो एक बाल्टी से कम कौन लेता है, मैंने एक-दो बाल्टी बढ़ाकर ही बनवाए हैं कार्ड। हिसाब लगाओ तो तीन-चार सौ का पानी हर घर खरच करता है। किस्मत की बात है कि यहाँ के ढोर तक मिनस्टरों, कलक्टरों वाला पानी पी रहे हैं। कम्पनी पैसा न लगाती तो किसे पता था कि हमारी जमीन में पानी नहीं अमृत बह रहा है। देस तो का बिदेस तक में बिक रहा है हमारा पानी।

‘‘पर भैया ! गए सोमवार चार-पाँच लड़के आए थे। कह रहे थे कि कंपनी के गहरे कुँओं ने हमारे कुएँ सोख लिए हैं। कंपनी सिरफ हमारा पानी ही नई बेचती, उससे शराब भी बनाती है। पहाड़ खोदकर मिट्टी बेचती है.........गिट्टी बेचती है। कह रये हते कि करोड़ों लगाकर अरबों कमा रही है कम्पनी।” सालिगराम के मन में यह बात बैठ गई थी कि दाल में काला तो जरूर है पर वह काला क्या और कैसे है यही पकड़ में ना आ रहा था।

सरपंच हँस पड़ा, ‘‘हाँ सुनी है कि आये हते कछू लफंगे। गाँव को बरगलाय रहे हते कम्पनी के खिलाफ। का बतायें दद्दा। इनें कछू काम-धाम तो है नईं। माँ-बाप की दम पै इस्कुल, कालेज कर आए। खाय, पीवे, पहरबे को चाहिए फस किलास। नौकरी है नईं........मेहनत का काम कर नईं सकत। कपड़ा पै दाग न आए बो काम चाहिये। तो खाली बैठा बनियाँ सेर बाँट ही तौले। आय गए जनता को भड़काने। कहो काऊ दिन जुलूस भी निकल जाय गाँव में। जे धंधा भी चालू है गया है आजकल।........

‘‘हाँ एक कारन से और मैं इतें आया। कम्पनी कों थोड़ी-सी जगह चाहिए। आयबे जायबे वारन कों कोठी बनेगी।.......रेस्टहाउस यानी आरामघर। तुम्हारा खेत मौके को है।

अच्छे पैसे मिलेंगे। जै सिंह ने कहीं कि तुमसे पुछूँ........आधा खेत निकार देव। ब्याह निपट जाएगा और कछू हाथ पास बचा रहेगा।”

सालिगराम के दिमाग में बिजली कौंध गई-ओ ये मतलब है इसका। जीभ पर आता कर्रा उत्तर काबू में कर बोला, ‘‘मतलब ! जो बची है बिससे हू हाथ धोय बैठें। माना कि खेती फायदे की र्नइं रही। आमद सुन्न है और लागत ज्यादा। खाद, बीज, जुताई, गहाई.........पुरती नहीं। कोढ़ में खाज साल-दर-साल अकाल। पर नईं भैया ! हम ना बेचेंगे। धरती है तो आस तो बची है।”

‘‘सोच लेव !.........सलाह कर लेव ! कम्पनी का का है ? कहीं और देख लेगी.......पर मौके रोज-रोज नहीं मिलते।” कह राम-राम कर सरपंच उठ गया।

चला तो गया सरपंच पर सालिगराम के सोच पर चूहा छोड़ गया। खटिया पर लेटने के बाद भी वह मन में बार-बार फुदकता और किसी खुटके की आहट पाते ही दुबक जाता। ब्याह.........अकाल...........बाँझ होती धरती........कम्पनी...............दलाल। उड़ते-उड़ते सुना यह भी गया है कि कम्पनी में किसी बड़े मंत्री का भी हिस्सा है। रात करवटें बदलते बीती सालिगराम की।

सबेरे-सबेरे जै सिंह खाट की पाटी पर आ बैठा, ‘‘सरपंच आए हते का ?”
‘‘.........।”
‘‘कछू बात करी होगी.......।”
‘‘खेत के बारे में कही हती। दलाल है ससुरा।”
‘‘हमें का करना काहू की दलाली से। हमें तो अपना मतलब निकालना है।”
‘‘अपने-अपने मतलब से ई दुरगत है रही है। कम्पनी सब डकारे जात है-खेत........पानी...........पहाड़।”

‘‘और ये स्कूल को बनवाय रहा है। सड़क किसने बनाई ? अस्पताल कौन ने खोला ? मैंने..........तुमने या सरकार ने ? सरकार तो दिवालिया है रई है। कम्पनी रोजगार तो दे रई है......थोड़ा ही सही।” जै सिंह तीखा होने लगा।

‘‘जै सिंह ! मोय तो जे लगई रई कि जौन दिन हमारे सोत सूख जाएँगे तौन दिन जे कम्पनी हमें मरते बिलबिलाते छोड़ जाएगी। चूसे भये आम की नाईं।”

‘‘तब की तब देखी जाएगी अबई तो मोंड़ी का ब्याह करना है। अच्छे पैसा मिल रये हैं तो काये नईं बेच रये खेत ?”

बाप बेटे को बतियाते देख रामसिरी भी पास आ गई। बेटी की चिंता में वह भी घुल रही है। कुछ क्षण उसने बाप-बेटे के चेहरों पर निगाह घुमाई और बोली, ‘‘जमीन तो अब नईं बिकेगी।......बस्स। जो जोयगा देखेंगे।”

गाँव में कोई शोर-सा उठने लगा था सो अपना सुर कुछ ऊँचा करते जै सिंह ने पूछा, ‘‘जमीन से मिल का रहा है ?......सूखी पड़ी है।”

गाँव का शोर और बढ़ने लगा। पानी पर हर दूसरी तीसरे दिन तकरार होती है। एक-एक लोटा पानी के लिए लोग कारिंदों से चिरौरी, आपस में तकरार करते हैं। हाथापाई तक होने लगी है। कुछ लोग गुस्से में थे, कुछ तमाशबीन बने कम्पनी की ओर लंबे-लंबे डग भर रहे थे। बेटे का सामना करने से बचता सालिगराम भी खटिया से खड़ा हो गया। कम्पनी से सामना तो उसे भी करना ही होगा।

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