गिलगमेश की महागाथा : भगवतशरण उपाध्याय

जल -प्रलय की कथाएँ संसार की प्रायः सभी प्राचीन जातियों के साहित्य में लिपिबद्ध हैं। और अब तो इस जल-प्रलय के मूल स्थान को भी सर ल्योनार्ड वूली ने दजला-फरात के निचले दोआब में खोज निकाला है। यहाँ हम प्राचीनतम सुमेरी-अक्कादी जल-प्रलय की कहानी दे रहे हैं। इसका अन्तरंग है गिलगमेश की वीरगाथा।

सन् 1872 में जार्ज स्मिथ को निनेवे के मलबे में बारह ईंटें (पट्टिकाएँ) मिलीं, जिनमें से ग्यारहवीं पर जल-प्रलय की कथा कीलनुमा अक्षरों में खुदी है। यह लिखावट करीब 660 ई. पू. में प्रस्तुत हुई थी। पर यह उस प्राचीन गाथा की प्रतिलिपि मात्र है, जो कम-से-कम 2000 ई. पू. में लिखी जा चुकी थी। जल-प्रलय की यह आदिम घटना अक्कादी-बाबुली कथा के मूल स्थान सुमेरी नगरों सिप्पर, ऊर, उरूक, आदि में घटित हुई थी। मानव जाति की प्रथम महागाथा 'गिलगमेश' का नायक एक अत्यन्त शक्तिशाली एवं साहसी योद्धा है। रोग की औषध के ज्ञान के लिए वह अपने पूर्वज शित्नपिश्ती (नुह्नपि-श्तिम, मूल सुमेरी बीर-जिउसुद्धू) की खोज में निकलता है और फरात के मुहाने पर शित्नपिश्ती उससे जल-प्रलय की कथा कहता है। यहाँ गिलगमेश महागाथा की मूलकथा का रूपान्तर प्रस्तुत किया जा रहा है। यह सभ्यता की प्रथम महागाथा है।

कुलाब के स्वामी, युरुक के सम्राट् गिलगमेश की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। वह एक ऐसा मनुष्य था, जो संसार की हरेक चीज की जानकारी रखता था। वह एक ऐसा सम्राट् था, जिसे संसार के सभी देशों का पता था। वह बहुत चतुर, बहुत विद्वान, बहुत शक्तिशाली और विश्व के अनेकानेक रहस्यों का ज्ञाता था। लगता, जैसे उसके शरीर के दो तिहाई भाग में ईश्वर का वास है। युरुक में उसने एक भव्य दीवार और ईना का मन्दिर बनवाया था, जहाँ अनु (सर्वोच्च सत्ता-ईश्वरों के ईश्वर) और इश्तर (प्रेम और युद्ध की देवी, जिसे 'स्वर्ग की रानी' भी कहा जाता था) की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की गयी थीं।

एक समय की बात है, गिलगमेश विश्व-विजय के लिए निकला। युरुक लौटने तक उसे कोई ऐसा शक्तिवान नहीं मिला, जो उससे लोहा लेता। यह उसके लिए बेहद रोचक और हौसला देने वाली बात थी। उसने कुमारी कन्याओं का कौमार्य भंग किया, योद्धाओं की बेटियों को अपनी उद्दाम वासना का शिकार बनाया और उनकी पत्नियों को अपनी प्रेमिका बनाने से भी वह नहीं चूका। लोगों में त्राहि-त्राहि मच गयी। देवी-देवताओं को जब लोगों का विलाप सुनाई पड़ा, तो वे बहुत चिन्तित हुए। वे इस विलक्षण और प्रचण्ड व्यक्ति को समाप्त करने के लिए या साधारण मनुष्यों की तरह बनाने के लिए सोच-विचार करने लगे। अन्ततः अनु ने काफी तर्क-वितर्क के पश्चात एंकिदू (आकाश-देवता) को जन्म देकर पृथ्वी पर भेजा।

एंकिदू एकदम आदिम, जंगली, पशु-तुल्य था। उसके शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल थे और सिर के बाल तो औरतों के बालों की ही तरह थे, वह मनुष्य और मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि विकास की ओर से सर्वथा अनभिज्ञ था। वह जंगली जानवरों के साथ रहता था और उन्हीं की तरह घास भी खाता था।

एक बार एक शिकारी जंगल में शिकार खेलने के लिए आया। वहाँ उसकी भेंट जब एंकिदू से हुई, तो वह भयभीत हो उठा। जो कुछ भी शिकार उसके हाथ लगा था। उसे लेकर वह वापस चला आया। भय के कारण उसके मुँह से बोल नहीं फूटते थे, काँपते-हकलाते उसने अपने पिता से कहा, “जंगल में मैंने एक अद्भुत आदमी देखा है, जो जंगली जानवरों के साथ रहता है, उन्हीं के समान घास-पात खाता है-और उसे देखने से ऐसा लगता है, जैसे वह अवतारी पुरुष हो।”

“मेरे लड़के!” पिता ने कहा, “गिलगमेश के पास जाकर इस अनजान जंगली आदमी के बारे में सूचित करो। साथ ही इस आदमी को फँसाने के लिए प्रेम-मन्दिर...से एक देवदासी लेकर जाओ।”

शिकारी युरुक के लिए रवाना हो गया। उसने गिलगमेश को सारी बातें बता दीं। गिलगमेश ने कहा, “शिकारी! तुम देवदासी लेकर वापस जाओ। जब झील-किनारे वह आदमी पानी पीने आये, तो देवदासी को उसकी ओर भेज देना। निश्चय ही वह नारी-सौन्दर्य के प्रति आकर्षित हो जाएगा। और तब जंगली जानवर उसे अपने साथ रखने से इनकार कर देंगे।”

देवदासी को साथ लेकर शिकारी लौट आया और वे झील-किनारे बैठकर एंकिदू की प्रतीक्षा करने लगे। तीन दिनों के बाद जानवरों का एक झुण्ड उधर आया, जिसमें एंकिदू भी था। पानी पी चुकने के बाद जब वहीं इधर-उधर वह जानवरों के साथ घास चरने लगा, तो शिकारी ने देवदासी को बताया, “यही है वह। अब तुम अपने उरोजों से आवरण हटा दो। शरमाओ नहीं। देरी भी मत करो। तुम्हें नग्न देखकर वह तुम्हारी ओर खिंचा चला आएगा और तब तुम उसे पाठ पढ़ाना।”

देवदासी ने अपने को नग्न कर लिया और वह एंकिदू को लुभाने की कोशिश करने लगी। एंकिदू शीघ्र ही उसके जाल में फँस गया। छह दिन और सात रातों तक वे साथ-साथ रहे। तब एक दिन देवदासी ने कहा, “तुम कितने चतुर हो, एंकिदू! और तुम्हारा तो जैसे इस धरती पर अवतार ही हुआ है! फिर जानवरों के साथ पहाड़ी में रहना कहाँ की अक्लमन्दी है? चलो मेरे साथ। मैं तुम्हें युरुक की भव्य दीवार और महान मन्दिर दिखाऊँगी। वहाँ अनु और इश्तर निवास करते हैं। वहाँ गिलगमेश है, जो बहुत शक्तिशाली है और जिसके अधीन बहुत-से लोग हैं।”

देवदासी ने अपने कपड़ों के दो भाग कर लिये और एक भाग को उसने एंकिदू को पहना दिया। एंकिदू ने स्वयं ही अपने शरीर के बालों को साफ किया, सिर के बालों को छोटा किया और तेल से खूब मालिश की। फिर देवदासी ने उसे दूध पीना, रोटी खाना इत्यादि सिखा कर पूरी तरह साधारण आदमी की तरह बना दिया। और उसे साथ लेकर वह युरुक के लिए रवाना हो गयी। जब वे युरुक के बाजार में दाखिल हुए, तो अपार जन-समुदाय उसे देखने के लिए उमड़ पड़ा।

भव्य दीवार के द्वार पर एंकिदू की मुठभेड़ गिलगमेश से हुई। एंकिदू ने नाक से जोरों की घरघराहट निकाली और वे साँडों की तरह लड़ने लगे, उनके संघर्ष के कारण दरवाजा ध्वस्त हो गया और दीवारें धसकने पर उतर आयीं। अन्त में गिलगमेश ने अपने जबरदस्त पाँवों से एंकिदू के घुटने को मरोड़ा और उसे उठाकर फेंक दिया। एंकिदू का सारा क्रोध, सारा गर्व क्षणांश में हवा हो गया और उसने गिलगमेश से कहा, “संसार में तुम्हारे जैसा शक्तिशाली कोई नहीं, अब तुम समूचे मानव-समुदाय पर शासन कर सकोगे।”

इस प्रकार उन दोनों ने एक-दूसरे का उत्साह से आलिंगन किया। और उनमें पक्की मित्रता हो गयी।

एक रात गिलगमेश ने सपना देखा, जिसमें उसे धिक्कारा गया था कि हे गिलगमेश! ईश्वर ने तुझे राजा बनाया है, पर तू अपने पद और अधिकार का कितना दुरुपयोग कर रहा है! बन्धुत्व, ममता और न्याय के आधार पर तू अपना राज्य क्यों नहीं चलाता?

सपने की चर्चा उसने अपने मित्र एंकिदू से की। एंकिदू ने उस सपने का और विश्लेषण किया। तब गिलगमेश ने प्रतिज्ञा की कि वह आज से विश्व-बन्धुत्व और जनता-जनार्दन की सेवा में अपने जीवन को अर्पित करेगा। फिर उसने सूर्य देवता को प्रणाम करते हुए कहा, “ओ मेमेश! मैं उस देश की ओर जा रहा हूँ, जहाँ की मानवता पीड़ित है और मैं वहाँ ऐसा कृत्य करूँगा, जिससे मैं महान शक्तियों की श्रेणी में गिना जा सकूँ और मेरा नाम पत्थरों पर अंकित हो सके।”

और सचमुच, दूसरे दिन वह एंकिदू को साथ लेकर यात्रा पर निकल पड़ा। चलते-चलते वे एक पहाड़ के पास पहुँचे, जहाँ का प्रहरी हुम्बाबा (वन देवता) था। वह दहाड़ता हुआ गिलगमेश की ओर लपका। दोनों में भयंकर लड़ाई छिड़ गयी और अन्त में गिलगमेश ने हुम्बाबा को समाप्त कर दिया।

इसके बाद गिलगमेश ने अपने हथियारों को साफ किया और कपड़े बदलकर ज्यों ही उसने राज-मुकुट को धारण किया, वहाँ इश्तर का आगमन हुआ। उसने गिलगमेश से कहा, “मेरे साथ आओ, गिलगमेश! और मुझसे विवाह कर लो।”

“असम्भव!” गिलगमेश ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हें दे ही क्या सकता हूँ। जिससे तुम मुझसे विवाह करोगी! मैं तो अब पथिक हूँ। मैं तुम्हारी जीवन-रक्षक आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे कर पाऊँगा? और यदि मैंने तुमसे किसी भाँति विवाह कर ही लिया, तो तुम्हारे जो ढेर-ढेर भर प्रेमी हैं, उनका क्या हाल होगा?”

गिलगमेश के उत्तर से इश्तर ने अपने को बहुत अपमानित महसूस किया। वह सीधे अपने माता-पिता के पास स्वर्ग को गयी और उसने अपने पिता अन से कहा, “गिलगमेश ने मेरा अपमान किया है, उसने मुझपर कई तरह के लांछन लगाये और मेरे साथ दुर्व्यवहार भी किया। उसे नष्ट करने का उपाय बताइए।”

अन ने एक भयंकर बैल को जन्म देकर पृथ्वी पर भेज दिया। बैल ने एंकिदू पर आक्रमण किया। पर एंकिदू बच निकला और उछलकर उसने उसके सींग पकड़ लिये। बैल ने उसके चेहरे पर झाग उगलना शुरू किया और साथ ही अपनी मोटी पूँछ से प्रहार भी करता रहा। एंकिदू ने चिल्लाकर गिलगमेश से कहा, “इस तरह तो हमारा नाम ही डूब जाएगा, मित्र! तुम इसकी गरदन के पृष्ठ भाग और सींग पर प्रहार करो।” गिलगमेश ने शीघ्रता से बैल पर आक्रमण किया। उसने उसकी पूँछ पकड़ ली और तलवार से उसकी गर्दन तथा सींग पर प्रहार किया। बैल मारा गया।

लेकिन एंकिदू काफी घायल हो गया था। उसकी स्थिति मृतक-सी हो गयी थी। वह बेतरह भयभीत भी हो गया था। उसे तरह-तरह के सपने आने लगे थे।

उस रात एंकिदू ने एक भयानक स्वप्न देखा। उसने देखा कि देवताओं ने अपनी सभा में निश्चित किया कि एंकिदू वृषभ मारने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो और गिलगमेश जीवित रहे। उसने जाकर बुरी तरह उस नारी को कोसना शुरू किया, जिसने उसे पशु-जीवन के निश्छल वातावरण से छल से लाकर विपज्जनक मानव जगत में पटक दिया। तब सूर्य देवता ने उसे धिक्कारा-

“एंकिदू, तू देवदासी को कुवाच्य क्यों कहता है,

उस आनन्द कन्या को ?

किसने तुझे खाने को रोटियाँ दीं।

किसने तुझे प्रशस्त वस्त्र से ढका ?

और किसने तुझे , एंकिदू तुझे,

गिलगमेश -सा अप्रतिम मित्र दिया?

और देख , वीर गिलगमेश तेरा भाई है,

तुझे वह समुन्नत पर्यंक पर लिटा देगा (मरने के बाद)...

तेरी सेवा के लिए वह रखैलें और सेवक नियुक्त करेगा। “

(ऊर और कीश की कब्रों से इस वक्तव्य की सत्यता सिद्ध हो जाती है। वहाँ राजाओं और श्रीमानों की लाशों के साथ जीवित नारियाँ, दास, दासी, सुख के प्रभूत सामान दफनाये मिले हैं) और तब एंकिदू ने प्रसन्न होकर देवदासी को आशीर्वाद दिया -

“शाह, राजा और अमीर तुझे प्यार करें!”

एंकिदू ने एक और स्वप्न देखा, जिसमें यमलोक का वर्णन था -

“उस सदन की ओर, जहाँ प्रवेश कर कोई लौटकर नहीं आता,

उस सदन की ओर, जिसमें बसने वाले प्रकाश नहीं पाते,

जहाँ धूल (आहार के लिए) मांस है, मिट्टी रोटी है,

जहाँ वे पक्षियों की भाँति परों के वस्त्र पहनते हैं...”

गिलगमेश अपने मरणासन्न मित्र को धीरज बँधाता रहा -

“कैसे हो, कैसी नींद है वह, जिसने तुझे जकड़ लिया है?

तू काला पड़ गया है, मेरी आवाज नहीं सुनता!”

पर उसने अपनी आँखें नहीं खोलीं। गिलगमेश ने उसके हृदय पर हाथ रखा, गति बन्द थी, उसने अपने (मृत) मित्र को वधू की भाँति ढक दिया।

गिलगमेश उसके लिए कातर विलाप करने लगा, फिर तभी स्वयं उसे एक दारुण विचार ने आ घेरा -क्या अपने मित्र की ही भाँति वह भी इसी प्रकार मर जाएगा? अकड़कर गूँगा हो जाएगा? सन्त्रस्त हो उसने दूर बसने वाले अपने पूर्वज जिउसुद्दू को ढूँढ़ निकालने और उससे उस अमरता का भेद जानने का निश्चय किया, जो प्रलय के पश्चात उसे देवताओं से प्राप्त हुआ था, पहले वह भयानक पर्वत पर चढ़ा, जिसकी रक्षा भीषण बिच्छू-मानुख करते थे।

“हे राजन्! तुम क्या कह रहे हो?” एक द्वारपाल ने उसे समझाते हुए कहा, “जीवित मनुष्य इस पर्वत में प्रवेश नहीं कर सकता। यहाँ घना अँधेरा और भयावह सन्नाटा है।”

“कोई बात नहीं!” गिलगमेश ने उत्तर दिया, “मैं अँधेरे से लड़ूँगा। पीड़ा और यातना को सहूँगा। तुम दरवाजा खोल दो।”

द्वारपाल ने दरवाजा खोलते हुए कहा, “जाओ! जाओ गिलगमेश! ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।”

फिर उसे एक मत्स्यकन्या मिली, जो सागर की गहराइयों में रहती थी और जिससे उसने अपनी पिछली साहसपूर्ण यात्रा का वर्णन कर अमरता प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा घोषित की। मत्स्यकन्या बोली -

“गिलगमेश, तू विदेश क्यों जा रहा है?

जो तू ढूँढ़ रहा है , वह (अमर) जीवन तू नहीं पा सकता।

जब देवताओं ने मानव जाति को सिरजा ,

तब उसके लिए उन्होंने मृत्यु की भी व्यवस्था की।

और देख गिलगमेश , तू तो अपना पेट भर,

दिन और रात तू ऐश कर ...”

गिलगमेश इससे आश्वस्त न हुआ, चलता चला गया, जब तक मृत्यु के समुद्र में नाव चलाने वाले जिउसुद्दू के माझी को उसने ढूँढ़ नहीं निकाला। क्रुद्ध होकर उसने नौका के पाल फाड़ दिये, मस्तूल उखाड़ दिया। तब माझी ने भी मरण को, जन्मसिद्ध मान उसे लौट जाने को कहा, और जब वह लौट जाने को राजी नहीं हुआ, तब माझी इस शर्त पर उसे ले जाने को राजी हुआ कि नाव को बढ़ाने के लिए वह बाँस काट लिया करे। मृत्यु का समुद्र विषाक्त था, इससे नाव खेने के लिए प्रत्येक चोट के बाद बाँस फेंक देना पड़ता था। बावन लग्गियों (की चोटों) के बाद अन्त में वह मृत्यु का सागर पार कर विस्मित जिउसिद्दू के सामने जा खड़ा हुआ।

गिलगमेश ने मानव जाति को परम भय से मुक्त करने की अपनी उत्कट महत्त्वाकांक्षा घोषित करते हुए जिउसुद्दू से पूछा कि स्वयं वह किस प्रकार अपने स्वाभाविक मरण भाग्य से मुक्त हो सका है। तब जल-प्रलय की कथा का जिउसुद्दू ने वर्णन किया। कथा सुनाकर वह बोला कि अगर तुम अमर जीवन प्राप्त करना चाहते हो, तो पहले सप्ताह भर बिना सोये रहो, जागते रहो। पर गिलगमेश यात्रा की थकान से चूर, बजाय जागते रहने के सो गया। तब जिउसुद्दू ने उसे माझी के साथ स्नान करके ताजा होने के लिए भेजा। और लौटने पर उसे बताया कि अमरता सागर तल में उगने वाली औषध (पौधे) से प्राप्त होती है -

“उसके काँटे तेरे हाथ में गुलाब की भाँति चुभेंगे,

फिर भी यदि तू उस औषध को पा ले ,

तो जीवन (अमरता) को पा लेगा।”

“गिलगमेश ने यह सुनकर कमरबन्द कसा,

पैरों में भारी पत्थर बाँधे।

वे उसे गहरे जलतल में खींच ले गये ,

जहाँ उसने वह औषध देखी।

उसने औषध उखाड़ ली ,

और उसके काँटे उसके हाथ में चुभ गये। “

गिलगमेश पत्थरों की रस्सी काट मुक्त हो गया। प्रसन्न बदन उसके ऊपर पहुँचने पर माझी उसे मृत्यु-जगत की ओर लौटा ले चला। साठ घण्टे निरन्तर चलते रहने से थककर गिलगमेश विश्राम और सरोवर में स्नान करने के लिए रुका।

“सर्प ने औषध की गन्ध पा ली।

जल से वह सर्प निकला और औषध लेकर चम्पत हो गया।

(सरोवर) में लौट कर सर्प ने अपनी केंचुल छोड़ दी,

उसका नया जन्म हुआ।

तब गिलगमेश बैठकर विलाप करने लगा ...

'किसके लिए मैंने अपने हृदय का रक्त सुखाया?

मैंने अपने लिए कुछ नहीं किया।

केवल धूल के क्रूर जीव (सर्प) का भला किया!' “

अन्ततः वृद्ध और व्याकुल गिलगमेश ने परलोक की व्यवस्था जानने के लिए अपने मित्र के प्रेत से साक्षात्कार के लिए उन सारे तपस विधानों को तोड़ डाला, जो मानव की प्रेत की छाया से रक्षा करते हैं। देव नर्गल ने, जो यमलोक पहुँचकर निकल भागा था, भूमि में छेद कर दिया और -

“एंकिदू का प्रेत वायु की भाँति पृथ्वी से निकल पड़ा।

दोनों सपद गले मिले। क्रन्दन करते वे बात करने लगे,

बता, मेरे मित्र, बता कब्र के विधान, जो तूने देखे हैं।”

“नहीं बताऊँगा, मित्र, तुझे नहीं बताऊँगा, क्योंकि यदि अपने

देखे कब्र के विधान तुझे बता दूँ, तो तू बैठा रोया करेगा।”

“तो (कुछ परवाह नहीं) मुझे बैठा रोने दे।”

एंकिदू के प्रेत ने तब बताया कि किस भयानक रीति से वस्त्र की भाँति शरीर को कीट चट कर जाते हैं। केवल वे ही परलोक में शान्ति पाते हैं, जिनकी समाधि पर जीवित आहार और पेय भेंट चढ़ते हैं। अन्यथा प्रेत निरन्तर सड़कों पर घूमते मल खाते और नालियों का जल पीते रहते हैं।

यहीं गिलगमेश वीरकाव्य का नितान्त निराशा में अन्त हो जाता है। हाल की मिली काव्य की एक दूसरी प्रति से ज्ञात होता है कि गिलगमेश को भी अन्ततः मरना पड़ा और मरकर उसने परलोक के दण्डधरों (जजों) में स्थान पाया।

ग्रीस (यूनान)

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