घूस (बांग्ला कहानी) : बिमल मित्र
Ghoos (Bangla Story in Hindi) : Bimal Mitra
यह कहानी है भी और कहानी नहीं भी। यह मेरे पुलिस-जीवन के एक 'संस्मरण का रोचक टुकड़ा है। मेरे बहुत से पाठकों को यह मालूम नहीं है कि किसी जमाने में मैं पुलिस में नौकरी भी कर चुका हूँ।
जी हाँ, एक जमाने में मैं पुलिस का गुप्तचर था। एक उम्दा केस पकड़ने के लिए मुझे भारत के राष्ट्रपति की तरफ से एक बार 'सम्मान-पत्र' भी मिला था।
कहानियाँ तो मैंने खूब लिखी हैं, मोटे-मोटे उपन्यास भी बहुत से लिख डाले हैं। यह बात सभी जानते हैं। किंतु इस बार कहानी नहीं, एक सच्चा वाकया सुना रहा हूँ। लेखक के रूप में गिने जाने से पहले उसी पुलिस की नौकरी के समय की एक घटना यहाँ बयान करता हूँ।
कुछ वर्षों के लिए मेरी आँख खराब हो गई थी। डॉक्टर के निर्देश के अनुसार लिखने-पढ़ने का काम बंद हो गया। अब जिंदगी भर शाम के बाद मुझे लिखना-पढ़ना बंद करना होगा।
तो फिर क्या किया जाए? ऐसी नौकरी भला कहाँ है, जिसमें लिखनेपढ़ने की जरूरत न पड़े?
वैसे आड़े वक्त में मैंने एक ऐसे सज्जन की मदद पाई, जिनका उपकार मैं जिंदगी भर नहीं भूलूँगा। वे थे परम श्रद्धेय राजबहादुर खगेंद्रनाथ मुखोपाध्याय। पुलिस सुपरिटेंडेंट के रूप में वे पूरे बंगाल में उस समय सुविख्यात थे। वे पुलिस के उस विभाग से संबद्ध थे, जिसे आजकल सी.बी.आई. कहा जाता है। उन्होंने मुझे एक नौकरी दे दी। उस नौकरी में लिखाई-पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं थी। काम के नाम पर अगर कुछ काम था, तो वह था सिर्फ घूमना-फिरना। कहाँ कौन चोरी कर रहा है अथवा कहाँ कौन घूस ले रहा है, उसकी खोज-खबर लेकर यथास्थान रिपोर्ट कर देना, यही मेरा काम था। बस इतना ही, इसके बाद जिन्हें जो कुछ करना हो, वे समझें!
प्रायः छह महीने तक कलकत्ते में रहने के बाद मेरी बदली बिलासपुर में हो गई। बिलासपुर, यानी मध्य प्रदेश का छत्तीसगढ़ अंचल। पहले सिर्फ कलकत्ता महानगर में ही मेरा कार्य-क्षेत्र सीमाबद्ध था, किंतु उसके बाद सारा मध्य प्रदेश ही मेरा कार्य-क्षेत्र बन गया।
एक दिन वहाँ एक अजीब घटना घटी।
एक आदमी ने मेरे पास आकर मुझे खबर दी कि सरसों के तेल का एक सप्लायर सरसों में तीसी तेल मिलाकर सरकार को मिलावटी तेल सप्लाई कर रहा है।
मैंने उस आदमी से पूछा, "आपको यह कैसे मालूम हुआ कि मिलावटी सरसों का तेल सप्लाई किया गया है?"
उस आदमी ने कहा, "हाँ सर, मुझे सबकुछ मालूम है। खुद हम लोगों की भी एक तेल-मिल है। हम लोगों ने भी टेंडर दिया था लेकिन उस कंपनी ने घूस देकर यह ऑर्डर हासिल कर लिया।"
अब मेरी समझ में यह बात अच्छी तरह आ गई कि उस आदमी की नाराजगी का असल कारण क्या था!
मैंने पूछा, "कितने रुपए का सरसों तेल उन लोगों ने सप्लाई किया है ?"
उस आदमी ने बताया, "कुल तीस हजार रुपयों का। उस तेल में पचास प्रतिशत सरसों तेल है और पचास प्रतिशत तीसी तेल।"
मैंने पूछा, "क्या आप ये बातें लिखकर दे सकते हैं?"
उस आदमी ने कहा, "नहीं सर, लिखकर तो मैं नहीं दे सकता। वैसा करने पर मेरा नाम सामने आ जाएगा। आप अगर खुद जाकर देखें तो पता चल जाएगा कि वह तेल मिलावटी है या नहीं।"
बिलासपुर में रेल के कर्मचारियों के लिए जितनी भी खाद्य सामग्री खरीदी जाती थी, उसका गोदाम था अकलतरा में। अकलतरा बिलासपुर के ठीक बाद का स्टेशन है। वहीं सारा माल जमा रहता था। उस आदमी के चले जाने के बाद दूसरे दिन ही मैं बिलासपुर से जबलपुर चला आया। बिलासपुर से जबलपुर की दूरी लगभग अढ़ाई सौ मील थी। वहाँ से डी.आई.जी. की अनुमति लेकर मैं अकलतरा चला गया। वहाँ जाकर मैंने देखा कि गोदाम में सरसों तेल से भरे हुए ढेर के ढेर ड्राम पड़े थे। मैंने एक शीशी में सरसों के तेल का सैंपल लिया और फिर सभी ड्रामों को सील करके मैं लौट आया।
उसके बाद कलकत्ते के अलीपुर टेस्ट हाउस' में जाकर मैंने वहाँ के अफसरों से सारी बातें बताईं। उस समय सारे भारतवर्ष में सभी चीजों की क्वालिटी की जाँच की जाती थी। शायद अब भी वही व्यवस्था हो।
दूसरे दिन तेल की जाँच पूरी होने पर मुझे बताया गया कि तेल मिलावटी है। यह तेल मनुष्य के उपयोग के लायक है ही नहीं।
वह रिपोर्ट मैंने सीधे जबलपर के दफ्तर में भेज दी। मेरा कर्तव्य पूरा हो चुका था।
इस काम के लिए जाने-आने में मेरा काफी समय बेकार चला गया। लेकिन मन में एक बड़े जालसाज को पकड़ पाने की खुशी भी कम न थी। मैं सोचने लगा कि मेरे ऊपरवाले अफसर मेरे काम से बहुत खुश होंगे। सभी लोग मुझे मेरी ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के लिए वाह-वाही देंगे।
इसके बाद कई महीने बीत गए। इस सरसों तेल के केस के बारे में मेरे ऑफिस से मेरे पास कोई भी निर्देश नहीं आया। मैंने भी इस मामले में अपने ऑफिस की ओर से कुछ भी खबर नहीं भेजी। मैंने सोचा कि शायद मामला दब गया हो।
उसके बाद वर्षा आई, शरद आया और हेमंत भी आया। इस सरसों तेल के केस के संबंध में किसी भी पक्ष की तरफ से कोई बात आगे नहीं बढ़ी। सभी चुप्पी साधे रहे। मैं भी दूसरे केस में व्यस्त हो गया। महीने में छब्बीससत्ताईस दिनों तक मैं रेल में ही घूमता रहता। कोई भी कहीं मुझे हुक्म देनेवाला न था। मैं बिलासपुर स्टेशन से जब जिधर इच्छा होती, घूमने निकल जाता और साथ-ही-साथ मैं अपने आँख-कान खुले रखता। कहीं भी चोरी, घूस अथवा भ्रष्टाचार की खबर मिलते ही अपनी डायरी में लिखकर मैं अपने दफ्तर में रिपोर्ट भेज देता। प्रत्येक सप्ताह मेरी डायरी जबलपुर जाती। कब किस तारीख को क्या किया है, कब गया और कब लौटा हूँ, इन सभी बातों का सविस्तार वर्णन रहता उस डायरी में । जहाँ भी घूस लेने की खबर मिलती, मैं वहीं चला जाता। ऑफिस में मेरे अफसर लिख भेजते कि मैं सभी अंचलों में घूमता रहूँ। जहाँ-जहाँ कांग्रेस के कार्यालय थे, वहाँ जाकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ मुलाकात करने का निर्देश भी मिलता। उस समय वह कांग्रेस कुछ और ही थी, आज की जैसी कांग्रेस नहीं।
इसी बीच एक केस के लिए भारत के राष्ट्रपति की ओर से मुझे एक सम्मान-सूचक प्रमाण-पत्र मिला। उससे मेरा उत्साह और भी बढ़ गया। मैं देश में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए और भी ज्यादा परिश्रम करने लगा।
उन्हीं दिनों मैंने देखा किया कि एक आदमी प्रतिदिन मेरे घर के सामने रहस्यमय ढंग से चहलकदमी करता है। लेकिन वह मुझसे कहता कुछ भी नहीं। मैं शहर में जहाँ भी जाता, वह मेरे पीछे ही होता। उसके बाद मैं उसे फिर देख नहीं पाता। न जाने वह कहाँ भीड़ के भीतर गुम हो जाता!
एक दिन मैं अपने आप को रोक नहीं पाया। ठीक उसके सामने जाकर पूछा, "आप कौन हैं?"
उसने हँसते हुए मुझे सलाम किया और कहा, "हुजूर, हमारा सरसों तेल आपने रोक रखा है। उस मामले का क्या हुआ?"
मैंने कहा, "उस मामले में मुझे अपने ऊपरवालों का कोई भी आदेश नहीं मिला।"
उस आदमी ने कहा, "लेकिन हमारे ड्रामों में मोरचा लगता जा रहा है। ड्रामों में मोरचा लग जाने पर तो फिर सारा तेल खराब हो जाएगा।"
मैंने कहा, "आपका तेल मिलावटी तेल है। खराब तेल भला और कितना खराब होगा?"
उस आदमी ने कहा, "वह तेल भी मैं बाजार में बेच सकूँगा। उस तेल को बेचकर मेरी जेब में कुछ रुपए आ सकेंगे।"
मैंने कहा, "आपके रुपए बरबाद हो जाना ही ठीक है। आपके मिलावटी तेल को अगर मैं नहीं पकड़ता तो न जाने कितने लोग उस तेल का उपयोग करके मर जाते।"
वह आदमी बोला, "नहीं सर, यह आप क्या कह रहे हैं ? मैंने कभी भी मिलावटी तेल सप्लाई नहीं किया।"
मैंने कहा, "तो फिर क्या आप यह कहना चाहते हैं कि कलकत्ते के 'टेस्ट हाउस' द्वारा दी गई रिपोर्ट झूठी है ? उन लोगों ने कहा है कि यह तेल अगर गाय, बकरी बल्कि कुत्ते भी खाएँ तो वे मर जाएंगे। यह तेल जमीन में गड्ढा खोदकर दफन कर दिया जाएगा अथवा इसमें आग लगाकर इसे नष्ट कर दिया जाएगा।"
वह आदमी मानो इस बार कुछ डर गया।
वह बोला, "तो फिर क्या होगा सर? क्या मेरे इतने रुपए बरबाद हो जाएँगे?"
मैं उसके साथ कुछ भी न कर अपने काम पर चला गया। उसके साथ बातें करने का मतलब था, अपना समय बरबाद करना।
लेकिन दो दिनों के बाद ही वह आदमी मेरे घर पर आ धमका।
मैंने पूछा, "क्या हुआ? आप फिर क्यों आए हैं ? मैं तो आपको पहले ही बता चुका हूँ कि इस मामले में मुझे अपने ऑफिस से कोई भी निर्देश नहीं मिला है।"
उस आदमी ने कहा, "आपसे एक बात कहूँ, सर! अगर आप इजाजत दें, तो...!"
मैंने कहा, "ठीक है। कहिए, क्या बात है?"
उस आदमी ने दबी हुई आवाज में कहा, "सर, आपके घर में तो कोई भी फर्नीचर नहीं है। आप नया फर्नीचर क्यों नहीं बनवा लेते?"
मैंने पूछा, "यह जानकर आपको क्या फायदा होगा? मैं गरीब आदमी हूँ। गरीब आदमी की तरह रहना ही मेरे लिए उचित है।"
उस आदमी ने कहा, "रुपए आपको नहीं देने पड़ेंगे सर! आप सिर्फ फर्नीचरवालों की दुकान में जाकर ऑर्डर दे आइए। यही काफी है। उसके बाद जो कुछ करना होगा, हम करेंगे।"
इस बार मैं उसकी बातें सुनकर क्रोधित हो उठा।
मैंने कहा, "आप मेरे घर से निकल जाइए। इसी वक्त निकल जाइए।"
"सर, आप नाराज क्यों होते हैं? इस तरह हम लोग हमेशा रेलवे के अफसरों को देते रहते हैं।"
मैंने कहा, "किन्हें देते हैं? मेरे सामने उनके नाम बताइए।"
वह आदमी बड़ा शैतान था। उन लोगों के नाम उसने नहीं बताए।
वह आदमी कहने लगा, "इस तरह अगर आप डर रहे हों तो फिर सोना लीजिए न। आपको हम सोने के बिस्कुट देंगे। कोई भी समझ नहीं पाएगा।"
अचानक मेरे दिमाग में बिजली कौंध गई। मैंने सोचा कि अगर मैं इस आदमी को पकड़वा दूं तो कैसा रहे ! घूस लेना जिस तरह अपराध है, घूस देना भी तो उसी तरह एक अपराध है।
मैंने उस आदमी को कुछ भी समझने नहीं दिया और कहा, "ठीक है, आप एक काम कीजिए। आप पंद्रह दिनों के बाद मेरे साथ मुलाकात कीजिए।"
वह आदमी खिल उठा। उसने सोचा कि मैं उसके प्रस्ताव पर राजी हो गया हूँ और लोभ को सँभाल नहीं पा रहा हूँ।
उसी दिन डायरी में लिखा कि मैंने तीस हजार रुपए का जो मिलावटी सरसों का तेल पकड़ा है, उसका मालिक मुझे घूस में सोने के बिस्कुट देना चाहता है। मैं इस आदमी को अपना जाल बिछाकर पकड़ लूँगा।
उस दिन डायरी डाक के द्वारा भेजने के बजाय मैं खुद अपने साथ डायरी लेकर जबलपुर रवाना हुआ। सुबह छह बजे हौबाग जबलपुर स्टेशन पर ट्रेन पहुँची। मैंने नेपियर टाउन के डाक बंगले में अपना सामान रखा। उसके बाद मैं यथासमय अपने ऑफिस में पहुँचा। लेकिन एस.पी. के पास डायरी भेजने से पहले मैंने एक बार किसी आदमी से परामर्श कर लेने की बात तय की।
ऑफिस में जितने अफसर थे, सभी दूसरे प्रदेश के रहनेवाले थे। महाराष्ट्रियन, गुजराती और सिंधी से शुरू कर असमिया, उड़िया, बिहारी और मद्रासी सभी थे। किसी भी प्रदेश के आदमी बाकी न थे। एक बंगाली अफसर थे। श्री ए.के. घोष-एक बंगाली सज्जन। पूरा नाम था अजित कुमार घोष।
मैंने अजित बाबू को ही सारी बातें खोलकर बताईं। वे ध्यान से मेरी बातें सुनने लगे।
मैंने कहा, "यह एक नए ढंग का केस होगा. अजित बाब! वह आदमी पुलिस को घूस देना चाहता है और पुलिस ही उसे ट्रैप करेगी। संभवतः ऐसा हमारे विभाग में पहले कभी नहीं हुआ। मैं इस केस के रूप में एक आदर्श दृष्टांत रखना चाहता हूँ।"
अजित बाबू ने कहा, “विमल बाबू, आपने जो कुछ भी कहा, मैंने उस पर विश्वास कर लिया है। लेकिन आप यह काम हरगिज न करें। इसमें आपका भी नुकसान होगा।"
मैं उनकी बातें सुनकर हैरत में पड़ गया।
मैंने पूछा, "क्यों?"
उन्होंने कहा, "आप इस डायरी को फाड़कर फेंक दीजिए और दूसरी डायरी लिखिए। उस तारीख को आप यह दिखाइए कि आप किसी दूसरी जगह गए थे।"
मैं और भी ताज्जुब में पड़ गया।
मैंने पूछा, "क्या मैं झूठी डायरी लिखूँ?"
अजित बाबू ने कहा, "हाँ, अगर बचना चाहते हो तो झूठी डायरी लिखनी होगी। पहले जिंदगी है या सिद्धांत? जिंदगी बची रहेगी तो उसके बाद ही तो सिद्धांत है! यदि आप सच्ची बात लिखते हैं तो साहब समझेंगे कि आपको घूस लेने की आदत है। बाजार के व्यवसायी जानते हैं कि आप घूस लेते हैं। अन्यथा आपको घूस देने की हिम्मत कैसे होती उस आदमी की? साहब यही मतलब निकालेंगे।"
उसके बाद कुछ रुककर अजित बाबू फिर बोले, "मैं खुद पैंतीस वर्षों से पुलिस की लाइन में हूँ। मैं पुलिस को जितनी अच्छी तरह पहचान पाया हूँ, उतनी अच्छी तरह आप भी नहीं पहचान पाए हैं। आप ठहरे नए आदमी! आप भी बंगाली हैं और मैं भी हूँ बंगाली। आपने मुझसे मेरी राय माँगी है, इसीलिए आपके भले के लिए ही मैं कह रहा हूँ। आप डायरी बदलकर उसमें झूठी बातें घुसा डालिए। लिख दीजिए कि आप रायगढ़ गए थे।"
अभी तक मेरे आश्चर्य की खुमारी कटी नहीं थी।
अजित बाबू फिर कहने लगे, "आपसे और एक बात कह रहा हूँ। आप चौंकिएगा मत। हम लोग पुलिस के आदमी हैं। हम किसी पर भी विश्वास नहीं करते। हम अपनी माँ पर भी विश्वास नहीं करते और न ही अपनी पत्नी पर। यही क्यों, हम लोग अपने आप पर भी विश्वास नहीं करते। हम लोग साल में छह-सात महीने घर के बाहर बिताते हैं। यही है हम लोगों की इस नौकरी की नियति।"
उसके बाद कुछ रुककर वे उसी सुर में कहने लगे, "देखिए, अगर आप मेरी बात मानें तो आप इतना ईमानदार बनने की कोशिश न करें। आप घूस लिया कीजिए, समझे?"
मैंने पूछा, "मैं घूस लूँगा? क्या कह रहे हैं आप?"
अजित बाबू ने कहा, "हाँ, जरूर लीजिए। घूस लेने का एक आसान तरीका आपको मैं बता देता हूँ। किसी के बाप की भी हिम्मत नहीं कि वह आपको पकड़ सके। यदि कोई आपको घूस देना चाहे तो आप खुद अपने हाथों से रुपए मत लीजिए। उससे कह दीजिए कि वह आपके तालाबंद लेटर-बॉक्स में रुपए फेंक आए। उसके बाद जब रात होगी, तब आप लेटरबॉक्स खोलकर रुपए निकाल लीजिए। बस मामला सुलट जाएगा। फिर आपको कौन पकड़ेगा? आपके लेटर-बॉक्स में अगर कोई रुपए फेंक जाए तो इसमें आप कर भी क्या सकते हैं? इसके लिए तो कोई आपको जिम्मेदार नहीं मान सकता।"
मैं अजित बाबू की बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि मैं कैसी नौकरी में आ फँसा हूँ!
अजित बाबू फिर कहने लगे, "और फिर तीस हजार रुपयों का तेल पकड़ने के लिए आप गर्व कर रहे हैं! किंतु क्या आप जानते हैं कि वह तेल कितना भी मिलावटी क्यों न हो, उसे आपको उस सप्लायर को वापस देना ही पड़ेगा!"
मैंने पूछा, "क्यों?"
अजित बाबू बोले, "इसका इंतजाम पहले से ही किया हुआ है। जिस अफसर ने उस व्यापारी को तेल सप्लाई करने का कांट्रैक्ट दिया है, उस कांट्रैक्ट में ही यह शर्त लिखी हुई है कि अगर तेल मिलावटी प्रमाणित हो तो तेल वापस लेकर बदले में नया शुद्ध तेल देना होगा।"
मैंने पूछा, "तो फिर कांट्रैक्ट में ऐसी चूक कैसे रह गई?"
अजित बाबू बोले, "वही, मैंने कहा न, घूस खाकर। आप घूस लेने के विरोधी हैं। लेकिन घूस कौन नहीं लेता, क्या आप बता सकेंगे? एक भी ऐसा आदमी आप दिखाइए तो सही, जो इस युग में घूस नहीं लेता। अजी साहब, आजकल भगवान् तक घूस लेने लगा है। क्या आप कभी तिरुपति बालाजी के मंदिर में गए हैं? आंध्र प्रदेश में अवस्थित इस मंदिर में क्या आपने बालाजी के दर्शन किए है? वहाँ जाकर आप देखेंगे कि वहाँ भगवान् को इतनी घूस दी जाती है कि बीस आदमी भी उन रुपयों को गिन नहीं पाते। आप वहाँ जाकर देखेंगे कि लाख-लाख रुपयों की रेजगारी चलनी से छानी जा रही है। यह दृश्य अगर मैंने खुद अपनी आँखों से नहीं देखा होता तो मैं भी विश्वास नहीं कर पाता।"
यह प्रायः आज से तीस साल पहले की घटना है। उसके बाद तो गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। घूस की लेन-देन और भी बढ़ गई है। घूसखोरों को पकड़ने के लिए और भी बहुत से अफसर बहाल किए गए हैं। फिर भी घूस की लेन-देन बंद नहीं हुई, वरन् और बढ़ी है। लेकिन इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य, कि मैं नौकरी छोड़कर साहित्य के क्षेत्र में चला आया हूँ। मैंने सोचा था कि साहित्य के माध्यम से ही मैं घूसखोरी के खिलाफ आवाज बुलंद करूंगा। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में भी इतनी घूस चलती है, काश! मुझे पहले इसका पता होता?
इसके बारे में एक उदाहरण देता हूँ। मैंने खुद एक बार अपनी एक साहित्यिक कृति के लिए एक सरकारी पुरस्कार पाया था। खबर पाकर मेरे एक पंजाबी साहित्यकार मित्र श्री हरनामदास सहराई मुझे बधाई देने के लिए मेरे घर पर पधारे। उन्होंने पुरस्कार पाने के लिए मुझे बधाई दी और उसके बाद उन्होंने चुपचाप दबी जुबान में मुझसे पूछा, “इस पुरस्कार के लिए क्या खर्च करना पड़ा है, भाई? कितनी घूस देनी पड़ी?"