घरन्ती (बांग्ला कहानी) : बिमल मित्र

Gharanti (Bangla Story in Hindi) : Bimal Mitra

यह कहानी अगर मुझे नहीं लिखनी पड़ती तो मैं खुश ही होता। मैं लेखक-जीवन के शुरू में ही अपनी सुख-सुविधाओं का प्रश्न पीछे छोड़ आया था। और अब यह प्रश्न ऐसे भी नहीं उठता क्योंकि मिसेज चौधरी के विशेष अनुरोध पर ही मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-हालांकि कहानी का अन्त उन्होंने जैसा चाहा था वैसा कर नहीं पाऊंगा-इसलिए मुझे खेद है। वे जहां भी हों, आशा है इस कहानी को पढ़कर मुझे माफ करेंगी।

उस दिन की घटना के बाद मिसेज चौधरी कहां चली गयीं, किसी को मालूम नहीं। मैं नहीं जानता यह किताब उनके हाथ लगेगी या नहीं। फिर भी, अगर उनकी नजर इस कहानी पर पड़े तो मैं उन्हें सूचित करना चाहूंगा कि लावण्य अच्छी है, उसका एक लड़का हुआ है और लावण्य ने अपने लड़के का नाम रखा है...खैर! यह बात अभी यहीं छोड़ते हैं।

मिसेज चौधरी को सारी बातें आज याद हैं या नहीं, मैं नहीं कह सकता-पर मुझे सब कुछ याद है।

रात के करीब बारह बज रहे थे। लावण्य के घर से निकलकर मिसेज चौधरी टैक्सी पकड़कर यों ही सड़क पर थोड़ी दूर घूमती रहीं और फिर मेरे घर आयीं। मिसेज चौधरी वृद्धा नहीं थी, पर उन्हें युवती भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी जब वह कमरे के अन्दर आयीं तब सेन्ट की खुशबू से सारा कमरा सुगन्धित हो उठा था। पर आज उनके रूज लगे गाल और लिपस्टिक रंगे होंठ अचानक मुरझा-से गये थे।

आते ही वह बोलीं, "मैं मुश्किल में पड़कर तुम्हारे पास आयी हूं। तुम्हें एक कहानी लिखनी पड़ेगी, विमल।"

मैंने कहा, "क्यों? क्या बात हो गयी?"

"तुम पहले वचन दो कि लिखोगे? तुमने तो बहुतों को लेकर लिखा है। यह भी तुम्हारा ही विषय है।"

"खुलकर बताइये-आखिर मामला क्या है?"

मिसेज चौधरी बोली, "तुम्हें लावण्य को लेकर एक कहानी लिखनी पड़ेगी।"

"लावण्य कौन है?"

"सब बताऊंगी। पर पहले वचन दो कि लिखोगे?"

मैं करता भी क्या? 'हां' करनी ही पड़ी।

मिसेज चौधरी बोलीं,"बदनाम सिर्फ हमें ही किया जाता है, पर फिर भी तुम्हें कहती हूं-हम कितने भी अपराध क्यों न करें, पर हम चरित्रहीन नहीं। हमारे घर जो लोग आते हैं-उनमें से कोई भले ही हमें सती सावित्री न माने, पर मुझे घृणा से नहीं देखते हैं। मेरे विरुद्ध कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने समाज को धोखा दिया है। मैं सीधी-सपाट बात समझती हूं-रुपया फेंको, मजा लूटो। आज कोई भी यह नहीं कह सकता कि मेरे घर आने पर उसके पीछे पुलिस कभी भी पड़ी है। पुलिस क्या कुछ नहीं समझती कि मेरा कारोबार क्या है, कैसे मेरी रोजी-रोटी चलती है। पुलिस को सब मालूम है। फिर भी ये मुझे कुछ नहीं कहते। मेरे घर के पास ही थाना है-उनकी नाक के नीचे ही मेरा कारोबार चल रहा है। कैसे?"

मिसेज चौधरी को प्रश्न का उत्तर चाहिए नहीं था इसलिए मैं चुप ही रहा।

बोलते-बोलते मिसेज चौधरी के अधपके बालों का जडा खल गया। दोनों हाथों से उसे संभालती हुई बोली, "इस रात को तुम्हारे घर बैठकर ही बोलती हूं-मुझे कुछ लोग कुल-त्यागिनी कहते हैं। कुछ कहते हैं-मुझे पति ने छोड़ रखा है। मैं सब जानती हूं। स्वीकार भी करती हूं। तुम लोगों के सामने अपने को भला बनाकर व्यर्थ की बड़ाई कभी नहीं करती। मैं जो हूं, वह हूं। जिस दिन मिस्टर चौधरी का हाथ मेरे बक्से में रखे प्रेम पत्र पर पड़ा, उस दिन भी मैंने अपनी सफाई में झूठ नहीं बोला था। और फिर तुम लोगों को तो मालूम ही है कि एक गिलास बीयर पी लेने के बाद मैं कितना बकने लगती हूं। कुछ भी छिपा नहीं रह जाता।" बोलते-बोलते वह हांफने लगीं। बोली, "शायद तुम मानोगे नहीं। शाम को तीन कप चाय के बाद ही नशा उतरता है, पर आज एक कप भी चाय पीने की फुर्सत नहीं मिली।" फिर नि:संकोच बोली, "अपने नौकर को जगाकर जरा चाय बनाने के लिए कहना।"

मुझे लगा मिसेज चौधरी को किसी बात से जबरदस्त चोट पहुंची है। यंत्रणा से इतनी त्रस्त हैं कि रोज की चाय भी याद नहीं रही-नहीं तो मिसेज चौधरी जैसी महिला इतनी रात गये अपना कारोबार न संभालकर यहां क्यों आती? किसी असहाय आक्रोश से वह क्षत-विक्षत हो रही थी और मुझे ही एकमात्र उपाय समझकर यहां आ पहुंची थीं कि शायद एक कहानी लिखकर मैं उनके दुःख का कोई समाधान कर पाऊं।

मैंने पूछा, "लावण्य आपकी कौन है?"

चाय की चुस्की लेकर मिसेज चौधरी बोली, "कोई भी नहीं। मेरा अपना है ही कौन, बोलो? मेरे घर पर जैसे और भी दस-पांच लड़के-लड़कियां आती हैं-लावण्य भी वैसी ही है। इन लोगों के साथ मेरा कैसा संपर्क? कितने ही गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, मारवाड़ी आते-जाते हैं। लड़की साथ लेकर आते हैं। एक, दो या तीन घंटे के लिए कमरा किराये पर लेते हैं। कोई-कोई रात-भर के लिए भी लेता है। तीन फर्निश्ड कमरे हैं मेरे पास-फिर काम खत्म हो जाने पर जिसको जहां जाना हो, चले जाते हैं। लावण्य भी उन्हीं में से एक है। मेरे साथ उसका क्या रिश्ता?"

लावण्य के साथ अगर मिसेज चौधरी का कोई रिश्ता नहीं तो फिर उसे लेकर इतना सिरदर्द ही क्यों और मुझसे कहानी लिखवाने की यह अथक चेष्टा भी क्यों? मैं कुछ समझ नहीं सका। मिसेज चौधरी फिर बोली, "मेरा इस तरह का कारोबार है, केवल इसलिए तुम मुझे अर्द्धपिशाच नहीं कह सकते। तुम लोग भी तो मेरे घर आते हो, ताश खेलते हो और, हालांकि अपने ही पैसों से खाना मंगवाकर खाते हो, पर क्या मैंने कभी कोई किराया मांगा है? बचपन में मैं भी कभी कविता लिखती थी, इसीलिए तुम लोगों से आज भी मिलती-जुलती हूं। इस लाइन में आकर सब-कुछ छूट गया। छूटने दो। सबको सब चीजें हासिल भी तो नहीं होतीं। उस मकान के किराये से जो कुछ आता है-मेरा बाकी जीवन तो उससे कट ही जायेगा।"

जो मिसेज चौधरी को जानते हैं वे समझ सकते हैं कि यह उनकी नम्रता है। जैसे-तैसे दिन गुजार देना-ऐसा जीवन उनका नहीं है। इधर के वर्षों में उन्होंने काफी धन कमाया है। मिसेज चौधरी बोली, "तुमने फूलचन्द को देखा है?"

"हां" मैंने कहा।

"उसके जैसा धनी, जो एक बात पर दस हजार रुपया निकाल सकता है, उसने भी जब लावण्य के लिए एक बार के लिए आठ सौ रुपये खर्च करने चाहे, तब भी मैं राजी नहीं हुई। अब चाहे मैं कितनी भी बड़ी व्यापारी ही क्यों न रहूं. कभी मैं घर की बहू थी। रोज सुबह स्नान करके तुलसी पर भी मैं पानी चढ़ाया करती थी।-आज तुम लोग मुझे कुछ और ही रूप में देख रहे हो। अब तो पके बालों को काले रंग से रंगती हूं, गाल की झुर्रियों पर रूज लगाती हूं..."

अचानक मिसेज चौधरी की जुबान से ऐसी बातें सुनकर मैं तो दंग रह गया।

पर वह बोली, "बाहर टैक्सी खड़ी है। तुम मेरे साथ मेरे घर चलो, वहीं तुम्हें पूरी कहानी सुनाऊंगी।"

"अभी? इतनी रात को?" मैंने पूछा।

"उसमें क्या है?"

खैर, उस रात अंत तक मैं उनके साथ उनके घर नहीं गया। बहुत रात तक वहीं बैठकर मिसेज चौधरी मुझे सारी कहानी सुना गयीं। कहानी जब खत्म हुई, सुबह के तीन बज रहे थे।

चलते समय मेरे दोनों हाथ पकड़कर बड़े करुण भाव से मिसेज चौधरी ने कहा था, "बड़े भले हो तुम। यह कहानी तुम्हें लिखनी ही पड़ेगी। लेकिन अंत तुम्हें बदलना पड़ेगा। मैंने जैसा कहा-उसी तरह अंत करना। करोगे न? और हां, कल शाम एक बार मेरे घर भी आना।"

दूसरे दिन ठीक समय पर मैं मिसेज चौधरी के घर पहुंचा, पर उनसे भेंट नहीं हुई। . दरवाजे पर ताला लटका रहा था। सुना, मिसेज चौधरी मकान छोड़कर कहीं चली गयी हैं। कहां? यह किसी को मालूम नहीं।

उनके साथ उस रात की भेंट मेरी आखिरी भेंट थी। भले ही अंतिम भेंट मेरी वही रही हो पर उनसे मेरा सम्पर्क नहीं टूटा। जब भी कभी कोई कहानी लिखने बैठता, मिसेज चौधरी की कही कहानी ही बार-बार याद आती। कई बार सोचा-निरंजन और लावण्य की कहानी लिख ही डालूं। मिसेज चौधरी ने जिस तरह लिखने को कहा था-उसी तरह लिख डाल। मिसेज चौधरी जहां भी हों, हो सकता है यह कहानी उनके हाथ लग हो जाय। कभी वह मुझे बहुत मानती थीं-उस स्नेह का बदला मैं कहानी लिखकर थोड़ा-बहुत लौटा भी सकता हूं, पर मन नहीं मानता।

ट्राम, बस, सिनेमा, सड़क-सभी जगह मन लावण्य को ढूंढता फिरा। शाम की चौरंगी में एक किनारे पर सस्ते रंग से गाल और होंठ रंगे किसी लड़की को खड़ा देखकर मैं चौंक उठता-कहीं यही मिसेज चौधरी की लावण्य तो नहीं? हो सकता है लावण्य के जीवन की परिणति यही हुई हो। और फिर जब कभी किसी नये परिवार को शान्त-सुखी जीवन व्यतीत करते देखा-पुत्र-कन्याओं के बीच एक सुखी दम्पत्ति देखा-मैं अपलक देखता रह गया। लगता, यही तो लावण्य है। हो सकता है निरंजन के उदार प्रेम में वह मान बन गयी हो। पर मेरे जिज्ञासु मन की भूख कभी नहीं मिटी। शायद मिसेज चौधरी की काल्पनिक परिणति से लावण्य के वास्तविक जीवन की परिणति अलग थी। मैं अपनी कल्पना और उद्भावना सहित उसका कोई समाधान नहीं निकाल सका।

निरंजन न सही, पर उस जैसे आदमियों को तो मैं आज भी सुबह बस में चढ़कर ऑफिस जाते देखता हूं। सौ-एक रुपये माहवार में दाल-रोटी और मोटा कपड़ा ही मुश्किल से कोई जुटा पाता होगा। एक पेट का गुजारा तो सौ रुपयों में खींच-तानकर चल ही सकता है। पर लावण्य? मिसेज चौधरी ने कहा था-लावण्य भी निरंजन की ही तरह पचपन रुपया वेतन और पचास रुपया महंगाई भत्ता-कुल एक सौ पांच पाती थी।

मैं भी तो यही सोच रहा हूं। इतने कम पैसों में इससे अधिक विलासिता वे कर भी कैसे सकते हैं? मेस का खर्चा, बस का किराया, टिफिन और महीने में एक-आध सिनेमा क्या वे नहीं देखते?

मालूम नहीं उन दोनों का परिचय कैसे हुआ। कभी किसी ग्रह के चक्कर में, लक्ष्य-भ्रष्ट होकर एक-दूसरे के समीप आ गये होंगे-फिर कभी अलग नहीं हुए-क्यों? उन लोगों को लेकर कभी कहानी लिखवानी पड़ेगी, ऐसी शंका मिसेज चौधरी को नहीं थी, नहीं तो वह भी कारण जानने की कोशिश करतीं। लेकिन कुछ भी हो, निरंजन की पसन्द की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। मिसेज चौधरी कहती-लावण्य दुबली है तो क्या? उसके चिबुक के तिल के कारण उसे सभी पसन्द करते हैं।

मैं भी लावण्य को देख सकता हूं। मिसेज चौधरी के वर्णन के साथ ट्राम और बस में बैठे लड़कियों को मन-ही-मन मिलाता भी रहता हूं। लिंडसे स्ट्रीट के चौराहे पर जब किसी लड़के-लड़की को साथ जाते हुए देखता हूं तो लगता है ये लावण्य और निरंजन ही हैं और दफ्तर की छुट्टी के बाद वे लोग शायद मिसेज चौधरी के 'फ्री स्कूल स्ट्रीट' के मकान की ही तरफ जा रहे हैं। महीने का पहला सप्ताह है-एक घंटे के लिए पांच रुपये किराये पर कमरा लेकर एकांत में दोनों आमने-सामने घनिष्ठ होकर बैठेंगे...

ऐसी जोड़ी का मैंने कभी-कभी पीछा भी किया है। लगा-क्या मिसेज चौधरी ने फिर से अपना कारोबार शुरू कर दिया है? पर मेरी कल्पना के निरंजन और लावण्य दुकानें, मोटरें, लोग-बाग सबको पीछे छोड़कर आगे बढ़ते ही जा रहे हैं। मोटे ट्विल की कमीज और पैर में काबुली जूते पहनकर निरंजन बड़ा आकर्षक दिख रहा है। आज उसने दाढ़ी भी बनायी है। लावण्य ने भी आज नयी साड़ी बांधी है। गले में झूठे मोतियों की माला लटक रही है। मैं झट नजदीक पहुंचकर उन्हें देखने लगता हूं। सड़क की भीड़ में वे मुझे नहीं देख सकते। मुझे इन्हें लेकर कहानी लिखनी ही है। मिसेज चौधरी के वर्णन से ऐसी जोड़ियों में आज भी कोई अन्तर नहीं है।

शाम के धुंधलके में मिसेज चौधरी के लावण्य और निरंजन मेरे समक्ष मानो सजीव हो उठे हैं।

निरंजन कहता है, "इस साड़ी में बड़ी अच्छी दिख रही हो, लावण्य!"

"कितने में खरीदी यह साड़ी?"

"कीमत अभी नहीं दी है। परिचित दुकान है-हर महीने दो रुपये देकर कीमत चुका दूंगा।"

लावण्य बोलती है, "पर अभी इसकी क्या जरूरत थी? तुम्हारे जूते फट गये हैं। उन्हें भी खरीदना जरूरी है।" निरंजन बोलता है,"अगले महीने नौकरी पक्की हो जायेगी, फिर खरीद लूंगा।"

"हम लोगों को अभी से कुछ पैसे जोड़ने चाहिए। कब तक मिसेज चौधरी का कमरा किराए पर लेते रहेंगे? पिछले महीने के ही दो दिनों का किराया बाकी पड़ा है।" लावण्य कहती है।

निरंजन का चेहरा मैं अब पूरी तरह देख पा रहा हूं। निम्न मध्यमवर्गीय जीवन के भविष्यहीन दिन गुजारने की थकावट के बीच मानो एक थोड़ी-सी चमक दिखायी पड़ी। लावण्य और वह-एक सुखी दम्पत्ति का एक छोटा-सा परिवार। दो कमरों का छोटा-सा फ्लैट-यही तीस, चालीस या पचास रुपये किराये का बस यही तो चाहिए। और यदि कभी अच्छे दिन आये, तो...चलते-चलते अचानक निरंजन बोलता है, "पता है, एक अच्छे मकान की सूचना मिली है। किराया भी ज्यादा नहीं-सिर्फ पचास रुपये, लेकिन..."

"सलामी मांगता है क्या?" लावण्य पूछती है।

"चेष्टा करने पर सलामी के बिना भी फ्लैट किराये पर मिल सकता है।"

लावण्य से परिचय के बाद पिछले दो सालों से निरंजन मकान के लिए क्या कम कोशिश कर रहा है? एक मकान मिल जाने पर उसकी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। मिसेज चौधरी का कमरा किराये पर लेकर पैसा बर्बाद नहीं करना पड़ेगा। महीने में चार बार मिलने पर पांच चौके बीस-बीस रुपये निकल जाते हैं। कभी-कभी तो महीने में पांच या छह बार भी मिसेज चौधरी के यहां जाना पड़ा है। वैसे तो मिसेज चौधरी अच्छी महिला हैं। उनका व्यवहार भी अच्छा है। उधार पर भी कमरा दे देती हैं। इसके अलावा भी वे मनचाहे उतने घंटे रह भी सकते हैं। बस, ट्राम बंद होने के पहले ही निकल जाना पड़ता है। फिर उसके बाद न जाने मुलाकात का मौका फिर कब मिले? चलते-चलते निरंजन लावण्य का हाथ अपने हाथों में ले लेता है।

उनकी बात सुनते-सुनते मैं भी आगे बढ़ जाता हूं। अचानक देखता हूं, आदमी और दुकानों की भीड़ में निरंजन और लावण्य कहीं खो गये हैं। और मैं ही अकेला मिसेज चौधरी की 'फ्री स्कूल स्ट्रीट' के मकान के सामने खड़ा हूं। स्वप्न से मैं जाग उठता हूं। इस परिचित मकान के अंदर सजे-धजे साहब और मेम बैठे हैं। पियानो की धुन सुनायी दे रही है। मिसेज चौधरी का नेपाली दरबान अब मुझे पहले की तरह सलाम नहीं करता। मिसेज चौधरी कहती थीं-टालीगंज से बसंती, चेतला से कल्याणी और बेहाला से टगर आती है। लेकिन हर दिन एक नये चेहरे के साथ। चौरंगी से पकड़कर ले आती थीं। लेकिन लावण्य? वह बराबर निरंजन के साथ ही आती थी। जब निरंजन बेकार रहता तब भी लावण्य तीन-तीन महीनों तक उसके मेस का खर्च देती थी।

इसी शहर में किराये पर और भी मकान और जगहें मिल सकती हैं-पर कहीं भी इतनी शालीनता नहीं होगी। बाहर से देखने पर कोई समझ ही नहीं सकता था। सामने आर्चिड और मार्निंग क्लोरी फूलों की बाड़। पीछे के दरवाजे से सीधे अंदर जाने पर कोने में तीन कमरे हैं। भारी पर्दा हटाकर कमरे के अंदर पहुंचने पर एक तख्तपोश दिखायी देता है। एक ड्रेसिंग टेबुल, एक दर्पण, दो कुर्सियां। बस, फर्नीचर के नाम पर सिर्फ इतना ही है। पर बाथरूम कमरे के साथ ही हैं ऐसी जगह में रुपये खर्च करने पर अफसोस नहीं होता।

आज मुझे याद आ रहा है-एक दिन ताश खेलते-खेलते अचानक मिसेज चौधरी उठ पड़ीं। जार्जेट की साड़ी संभालती हुई बोलीं, "मुझे ताश मत देना, भाई। जरा उधर देख आऊं, यह शोर-शराबा कैसा हो रहा है।"

बाहर से कुछ कोलाहल की आवाज आ रही थी। फिर एकाएक मिसेज चौधरी का अलसेशियन गरज उठा। हम लोग कुछ समझ ही नहीं पाये। थोड़ी देर में मिसेज चौधरी आयीं और पंखें की रफ्तार तेज कर बैठ गयीं।

मैंने पूछा, "मामला क्या है, मिसेज चौधरी?"

"अरे, क्या बताऊं? फूलचन्द सेठ आया था। शराब में धुत्। कई बार मना कर चुकी हूं पर फिर भी..."

और फिर ताश के पत्तों में डूब गयीं-नो बिड्, थ्री डायमन्ड्स।

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उसके बहुत दिनों के बाद उसी फूलचन्द से मेरी भेंट हो गयी। लम्बी-चौड़ी मोटर का ब्रेक लगाते हुए हंसकर पूछा, "क्या हाल है, सर?" कौन कहेगा-फूलचन्द चालीस वर्ष का हो चुका है। अभी भी मस्त होकर कार ड्राइव कर सकता है।

मैंने सोचा, अच्छा ही हुआ फूलचन्द से भेंट हो गयी। शायद मिसेज चौधरी के बारे में यह कुछ खबर दे सके। पर मेरे पूछने के पहले ही उसने खुद पूछा, "मिसेज चौधरी की कोई खबर है, सर?"

पर फूलचन्द सेठ को किस बात की चिन्ता? इस मोहल्ले में न सही, किसी और मोहल्ले में अड्डा खोज ही लेगा। मिसेज चौधरी न सही, मिसेज सरकार तो हैं। कितना कुछ है। और फूलचन्द की उम्र तो मानो घट रही है। वह रोज नवयुवक बनता जा रहा है। तीन असली शुद्ध घी की दुकानें और डालडा घी का कारोबार है फूलचन्द सेठ का। गाड़ी चली गयी। मैं बहुत देर तक उसी तरफ देखता रहा।

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लेकिन फिर एक दिन सच में ही मैं कलम लेकर लिखने बैठ गया। सोचा, अब लावण्य की कहानी लिखनी ही चाहिए। मिसेज चौधरी के कहने के अनुसार ही लिखने बैठा।

शुरू किया-सप्लाई ऑफिस की सीढ़ियों के पास निरंजन खड़ा है। लावण्य की दफ्तर से छुट्टी हो चुकी है। सभी सीढ़ी से उतर रहे हैं। निरंजन को खड़ा देखकर लावण्य चौंककर पूछ बैठती है, "अरे, तुम?" निरंजन बोलता है, "हां, तुम्हारे लिए ही तो खड़ा हूं।"

"पर आज तो तुम्हारे आने की बात नहीं थी।"

"कुछ भी हो। आज मिसेज चौधरी के घर चलने का बहुत मन कर रहा है।"

"लेकिन रुपये? मेरे पास तो सिर्फ बस का किराया भर है।"

"तुम्हारे पास कुछ है क्या?"

"मिसेज चौधरी से अनुरोध करूंगा। सारी व्यवस्था हो जायेगी। लेकिन आज तुम्हें वहां चलना ही होगा। जानती हो, लावण्य, आज मेरी नौकरी चली गयी।"

"क्या कह रहे हो?"

मिसेज चौधरी सारी बातें सुनती हैं। लावण्य के कष्ट के इतिहास और उसकी साधना को वह जानती हैं। लावण्य ने धोबी के यहां कपड़े देना बन्द कर दिया है। दोपहर का खाना छोड़ दिया है।

ट्राम में सेकंड क्लास में चढ़ने लगी है। अपना खाना रूमाल में बांधकर ले आती है और मिसेज चौधरी का कमरा बन्द करके वहां बैठकर दोनों मिलकर उसी को खाते हैं। लावण्य ने सिर में तेल डालना भी कम कर दिया है। क्रीम भी खत्म हो गयी है। और फिर खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ी।

मिसेज चौधरी ने मुझसे कहा था-"क्या करती? उन लोगों के लिए कन्सेशन कर दिया। पांच रुपये के बदले तीन रुपये किराया कर दिया। फिर भी नकद नहीं दे पाते थे। बाकी रह जाता था।"

दूसरी तरफ टालीगंज की बसन्ती ढाका की साडी पहनती। चेतला की कल्याणी ने सोने का हार बनवा लिया था और बेहाला की टगर ने पीतल की चूड़ियां तुड़वाकर सोने की करवा ली थीं। बाजार गरम था।

मिसेज चौधरी भी चुप क्यों बैठतीं? कमरे का किराया उन्होंने पांच से दस रुपया कर दिया। लेकिन फिर भी निरंजन और लावण्य के लिए तीन रुपये ही तय रहा। वैसे दस रुपये पर भी कमरा खाली नहीं रह पाता। ग्राहक लौट जाते। मिसेज चौधरी दिन भर टेलीफोन पर ऐंगेज्ड रहतीं।

मुझे याद है, एक दिन मैं बहुत डर गया था। दोपहर का समय था। खाना खाने के बाद मिसेज चौधरी के साथ गप्प लड़ाने के लिए निकल पड़ा। एक उद्देश्य यह भी था कि अपनी नयी पुस्तक की प्रति उन्हें भेंट करूंगा और उन्हीं के बिस्तर में बैठकर किताब के कुछ अंशों को पढ़कर उन्हें सुनाऊंगा। मिसेज चौधरी साहित्यिक नहीं थीं, पर साहित्य-रसिक थीं। उनको किताब देकर मैं अपने को धन्य मानता। पर दूर से ही मैंने देखा-उनके घर के सामने भीड़ थी। भीड़ में पुलिस के कई आदमी भी थे। मुझे लगा, जरूर कोई हंगामा हुआ होगा। छि:-छि:, अब मिसेज चौधरी जरूर फंसेंगी। हम लोगों के अड्डे की भी शायद छुट्टी हो जायेगी।

जाऊं या नहीं, यही सोच रहा था। क्या पता, कहीं मैं ही न फंस जाऊं? यह सोचकर और भी लज्जा आयी क्योंकि लगा मिसेज चौधरी को अकेला छोड़कर भागना क्या उचित होगा? सच में उस दिन पहली बार मैंने अनुभव किया कि मिसेज चौधरी कितनी अकेली हैं और दुनिया में औरत को क्यों एक पुरुष अभिभावक की जरूरत है।

मिसेज चौधरी, आप जहां भी हों, आज मैं नि:संकोच स्वीकार करता हूं कि उस दिन मुझे आप पर दया आयी थी। खैर! उस दिन आपके घर पहुंचकर मैंने कहा था, "मिसेज चौधरी, आज तो मैं बहुत डर गया था।"

आप सलवार-कुर्ता पहनकर सोफे पर बैठी अखबार पढ़ रही थीं। आपने पूछा, "क्यों?" आपके चेहरे पर कोई घबराहट नहीं थी। मैंने कहा था, "घर के सामने भीड़ देखकर मैंने सोचा, पुलिस का हंगामा है लेकिन..."

पुलिस का नाम सुनकर आप चैन की सांस लेकर आराम से सोफे पर अधलेटी होकर बोली थीं, "लेकिन क्या?"

मैंने देखा-सड़क पर बन्दर का नाच हो रहा था, इसलिए भीड़ इकट्ठा थी।

आपने हंसकर कहा, "पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ेगी। मुझे तो डर बस फूलचन्द का है।"

मैंने अचरज से पूछा था, "क्यों? फूलचन्द आपका क्या बिगाड़ लेगा?" आपने कहा था, "मेरा वह क्या बिगाड़ेगा? फूलचन्द मुझसे ज्यादा पैसे वाला हो सकता है, पर मेरे यहां उसकी धोती बंधी पड़ी है। पर डर और चिंता मुझे दूसरी बात की है।"

"दूसरी बात? वह क्या? सुन सकता हूं?"

"डर मुझे लावण्य को लेकर है।" इतना कहकर आप गंभीर हो गयी थीं।

मैंने उस समय आपसे यह नहीं पूछा था, "लावण्य कौन है? उसका परिचय क्या है?"

आपको अब शायद याद भी नहीं होगा। आप मन-ही-मन बुदबुदा रही थीं-फूलचन्द की नजर बहुत दिनों से लावण्य पर है। एक घंटे के लिए दो सौ रुपय तक देने के लिए राजी है। पर राजी मैं नहीं हैं। पर कहीं किसी दिन...

मैं और चुप नहीं रह सका था। पूछ ही बैठा, "लावण्य कौन है?"

मेरी बात का जवाब न देकर आप बोलती जा रही थीं-"फूलचन्द अगर बसंती, टगर या कल्याणी-किसी को भी मांगता तो आधा घंटे में फोन पर उसे बुला देती। कोई मुश्किल काम नहीं था। लेकिन लावण्य को मांगेगा-यह कैसे हो सकता है? छि:-छि:!"

लावण्य को आप क्यों इतना मानती थीं, यह मैं उस दिन बहुत थोड़ा-सा ही समझ सका था। उलझन ही अधिक थी। उस दिन क्या आपको ही मालूम था कि कभी इसी लावण्य को लेकर कहानी लिखवाने के लिए आप रात के बारह बजे मेरे घर पर धरना देंगी।

शायद अपने जीवन में जिस चीज को आपने खोया था, उसी चीज को आपने लावण्य में पाया था। इसीलिए फूलचन्द के हाथों में लावण्य को देकर आप स्वयं अपने को अपमानित नहीं करना चाहती थीं। कौन जानता है?

इसीलिए न जब फूलचन्द ने यह प्रस्ताव रखा था, आपने उससे कहा था, "दो सौ क्या, पांच सौ देने पर भी लावण्य तुम्हें नहीं मिल सकती। उसकी तरफ अपनी गंदी नजर मत डालो, फूलचन्द!"

पर मिसेज चौधरी, आप फूलचन्द को नहीं पहचान सकीं। फूलचन्द ठहरा व्यापारी आदमी। व्यापार के दांव-पेंच सात पुरखों से उसके खून में थे। कब क्या खरीदना चाहिए और फिर कब उसे बेचना चाहिए, यह वह अच्छी तरह जानता था। इसलिए नाराज या अपमानित न होकर फूलचन्द अपनी रकम बढ़ाता गया था। पांच सौ नहीं तो सात सौ.. .सात सौ कम लगे तो आठ सौ...आठ सौ में भी राजी नहीं हुई तो...

आज भी कोशिश करता हूं तो स्पष्ट देख सकता हं. कि तीन मंजिले मकान की किसी सीढ़ी से निरंजन उतर रहा है। साथ में लावण्या लावण्य खुशी से उछल रही है। बोलती है, "देखो यह मकान कितना साफ हैं पर कहीं भी जरा-सी मिट्टी नहीं है।"

निरंजन हैरान होकर पूछा है, "मिट्टी से क्या करोगी?"

"वाह, एक तुलसी का पौधा लगाऊंगी। हिन्दू परिवार के घर में एक तुलसी का पौधा तो हाना ही चाहिए।"

निरंजन बोलता है, "तो यह बात है। फिर एक टब में पौधा लगा लेना।"

"अच्छा, तो बोलो, सोने का कमरा कौन-सा रहेगा?"

"दक्षिण का कमरा ही ठीक रहेगा। खिड़की खुलने पर पूरा आकाश दिखायी पड़ता है।"

"एक पलंग भी खरीदना पड़ेगा।"

निरंजन हंस देता है। बोलता है,"धीरज रखो। अभी तो नौकरी लगी ही है। धीरे-धीरे सब कुछ हो जायेगा। पहले मकान की व्यवस्था तो हो जाये। चालीस रुपये से कम में मकान मिलता ही नहीं। मकान-मालिक इससे कम पर तैयार ही नहीं है। ऊपर से बोलता है-धंधा मंदा है। व्यापार में भी घाटा सहना पड़ा है। आपको सलामी भी कुछ देनी पड़ेगी।"

निरंजन थोड़ा निराश होता है। लावण्य भी। ऐसी घटना कोई नयी बात नहीं। निरंजन बोलता है, "कितनी सलामी?" जैसे कि अगर सलामी थोड़ी कम हो तो वह दे ही सकेगा। मकान-मालिक बोलता है,"कोई ज्यादा नहीं। बाकी किरायेदारों ने जितना दिया है उतना ही आप भी दे दीजियेगा। आपसे एक पैसा भी अधिक नहीं लूंगा। मेरे लिए सभी बराबर हैं।" किसी सधे साम्यवादी की तरह निर्लिप्त भाव से बातें कर रहे हैं।

"फिर भी कितना?" निरंजन पूछता है।

"पूरा ही दे दीजिएगा। टूटी रकम मैं लेता नहीं।"

ऐसी भाषा निरंजन के लिए समझनी थोड़ी मुश्किल है। निरंजन फिर पूछता है, 'खुलकर साफ-साफ बताएं।"

तब मकान-मालिक कहता है, "पूरे हजार चाहिए।" उस दिन फूलचन्द ने भी तो यही कहा था, "आठ सौ न सही, पूरे एक हजार।"

मिसेज चौधरी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ था। उन्होंने फूलचन्द को कुछ भी नहीं कहा। निर्विकार भाव से टॉफी चूसती रही थीं।

पर घटना-चक्र से उसी समय लावण्य और निरंजन वहां से गुजर रहे थे। रात के साढ़े नौ बज चुके थे। लावण्य चप्पल घसीटती हुई चली जा रही थी। दिन-भर दफ्तर की थकान से चूर घर पहुंचकर वह मानो विश्राम के लिए तरस रही थी। आपको लगा था-यह लावण्य नहीं। यह आप ही का विगत जीवन है। आपकी ही विक्षुब्ध आत्मा आप पर व्यंग्य कसकर आपको पीछे छोड़कर जा रही है और कभी लौटकर नहीं आयेगी।

आपने अपने नेपाली दरबार को आवाज दी थी, "जंगी!" जंगी ने आकर सलाम किया तो आपने कहा, "लावण्य को बुलाकर तो ले आ।"

लावण्य आयी।

आप अपनी ही आत्मा के सामने खड़ी हुई थीं-शायद पहली और आखिरी बार।

आपने लावण्य को एकांत में बुलाकर फूलचन्द का प्रस्ताव सुनाया। आपको लगा था कि पृथ्वी पर आज तक जितने भी मनुष्यों के पैरों की छाप पड़ी है, उस अनन्त जन-समुद्र के तरंग यदि आज उद्वेलित हो उठे तो होने दो। नीले आकाश के सभी नक्षत्र यदि कक्ष-भ्रष्ट हो केन्द्रच्युत होकर रास्ता भूल जायें, तो हो जाने दो। आपकी वह लावण्य-रूपी आत्मा अटल रहेगी। पर वही लावण्य सब कुछ सुनकर सिर झुकाकर चुप रही। फिर थोड़ी देर के बाद बोली, "एक बार उनसे पूछना पड़ेगा।"

मार्निंग ग्लोरी की झाड़ के पास निरंजन लावण्य की प्रतीक्षा में खड़ा था। लावण्य वहां गयी। दोनों में न जाने क्या बातें हुई। ऐसा लगा-मानो एक समझाने की कोशिश कर रहा हो और दूसरा समझना ही नहीं चाहता हो।

फिर लावण्य आपके सामने आयी और आंखें नीची करके बोली, "मैं राजी हूं।"

लावण्य धीरे ही बोली थी लेकिन आपने देखा कमरे के अन्दर फूलचन्द जलती हुई सिगरेट फेंककर खुशी से उछल खड़ा हुआ था। और आपको लगा था-जैसे बाहर बरामदे में चेन से बंधा अलसेशियन भी अचानक रो उठा हो।

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मैंने पूछा, "उसके बाद?"

मिसेज चौधरी के पके बालों का जूड़ा फिर खुल गया था। वह खुला ही रह गया। बोली,"उसके बाद? वही प्रथम और वही अंतिम था। उसके बाद वे लोग फिर कभी मेरे यहां नहीं आये। 'फ्री स्कूल स्ट्रीट' के किसी भी आदमी ने फिर कभी निरंजन और लावण्य को उस सड़क से गुजरते नहीं देखा।" मैंने पूछा, "वे लोग फिर गये कहां?"

मिसेज चौधरी बोली, "मैं भी यही सोचती हूं-कहां गये वे लोग। लगता था, लावण्य भी शायद दूसरी लड़कियों की तरह गिर गयी होगी। बंसती, कल्याणी और टगर से भी मैंने पूछा, पर वे भी कुछ नहीं बता पायीं। यहां तक कि फूलचन्द भी नहीं बता सका कि वे कहां गये।"

मैंने कहा, "हो सकता है, उस घटना के बाद निरंजन ने लावण्य को त्याग दिया हो।"

मैंने भी कई बार यही सोचा। शायद अविश्वास और घणा से निरंजन ने मुंह फेर लिया-और लावण्य ने आत्म-ग्लानि से आत्महत्या कर ली हो। अपनी आत्मा को अपने ही हाथों से रौंद डाला-यह जानकर मैं भी खुश थी। मैं सच बता रही हूं कि लावण्य की बर्बादी मेरी अपनी बर्बादी थी। शादी के बाद से मिस्टर चौधरी ने मेरे बक्से से प्रेम-पत्र पाने पर जब मुझे त्याग दिया था, उसके बाद इतनी खुशी मुझे पहली बार मिली थी। उस शाम मैंने तीन के बदले नौ कप चाय पी ली।

मिसेज चौधरी बोल रही थी और उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे थे। गाल पर रूज की ललाई, होंठों की लिपस्टिक और आंखों का सुरमा-सब कुछ धुल गया। उन्हें ऐसी हालत में मैंने पहले कभी नहीं देखा था। क्या करूं-कुछ समझ में नहीं आया।

उसके बाद एकाएक मिसेज चौधरी ने अपने को संभाला और अपना बैग खोलकर एक चिट्ठी निकाली। मेरी तरफ बढ़ाकर बोली, "इतने दिनों के बाद आज सुबह यह चिट्ठी मिली। पढ़कर मैं तो हैरान रह गयी।"

मैंने देखा, वह निरंजन और लावण्य के विवाह के निमंत्रण का पत्र था। 15-सी, काली सरकार रोड, स्वीट तेरह नम्बर। तारीख भी आज ही की थी।

मैं मिसेज चौधरी को अपलक देख रहा था। वह फिर बोलीं,"अभी वहीं से आ रही हूं।"

"क्या देखा वहां?" मैंने पूछा।

"देखा। जैसा हर शादी में होता है-उसी तरह लावण्य की मांग में सिन्दूर था। माथे पर चन्दन का तिलक और गले में फूलों की माला। निरंजन भी सेहरा बांधकर तशर का कुर्ता-धोती पहनकर बैठा था। मैं सोच रही थी पहले यह रिश्तेदार कहां थे? भगवान जाने-पर आज की इस शुभ घड़ी में सभी वहां मौजूद थे। आज उनके शुभाकाक्षियों की कमी नहीं थी। मकान भी अच्छा ही लगा। रसोई के बगल में एक टब में तुलसी का पौधा प्रतिष्ठित था। दक्षिण का कमरा बेडरूम था, जहां से खिड़की खुलनेपर आकाश दिखायी पड़ता था। आयोजन भी अच्छा ही था। मैंने अच्छी तरह से देखा-फूलचन्द के संस्पर्श का - कलंक कहीं भी नहीं था। चन्दन की सुगंध में सब घुल गया था। पर मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। मैंने पानी तक नहीं पिया। बाहर आकर एक टैक्सी पकड़कर सड़क पर चक्कर काटती रही और अब रात के बारह बजे तुम्हारे घर पहुंची हूं, विमल!" कहानी बताते-बताते मिसेज चौधरी उदास हो उठीं। लग रहा था अभी बुझ जायेंगी।

मैंने कहा, "निरंजन की उदारता को मानना ही पड़ेगा।"

सुनते ही मिसेज चौधरी आग की तरह भड़क उठीं। बोली, "रहने दो इस उदारता को। पर अपनी कहानी में तुम उनकी शादी नहीं करवाओगे। अंत को तुम्हें बदलना ही पड़ेगा।"

"लेकिन क्यों?" मैंने पूछा।

मिसेज चौधरी सांस भरकर बोली, "शुरू से हूबहू जैसा हुआ वैसा ही लिखना, पर अंत तुम्हें बदलना पही पड़ेगा। उसकी आत्मा में सड़न लग गयी है-मैं, मिसेज चौधरी, उसकी साक्षी हूं।"

"लेकिन आत्मा तो कभी मरती नहीं, मिसेज चौधरी!"

मर गयी है बसंती, कल्याणी, अगर-सभी की आत्माएं मर चुकी हैं अगर कहानी में तुम दोनों की शादी करवाओ भी तो थोड़े ही दिनों के बाद उनमें तलाक करवा डालो। उसके बाद धीरे-धीरे लावण्य को कल्याणी, बसंती और टगर के स्तर पर घसीट लाओ और अंत में लिखो-जीवन के अंतिम दिनों में लावण्य भी मेरी ही तरह किराये पर कमरा देने का कारोबार चला रही है-बिलकुल मेरी तरह। तुम इतना भी नहीं करोगे? सिर्फ मेरे लिए। बड़े भले हो तुम। अंत तुम्हें दुखद करना ही पड़ेगा।"

"आखिर क्यों?" मैं अधीर हो उठा था।

"मान लो, यह मेरा एक शौक ही है। अगर तुमने कभी भी मुझे माना है, और यदि कभी मैं तुम्हारे किसी काम आयी हूं तो मेरा यह एक अनुरोध तुम रखना, मेरे भाई। और घरन्ती को कभी घर नहीं मिलता-इस कहावत को तो मानते हो न?"

अतीत की सारी घटनाओं की पुनरावृत्ति करने से आज कोई लाभ नहीं। फिर भी इतना कह सकता हूं कि पिछले दस वर्षों से मैं इस कहानी को लिखने का प्रयास करता रहा हूं। दोस्तों के बीच कभी-कभार इस सुनी हुई कहानी का उल्लेख भी किया है-किसी ने विश्वास किया है, किसी ने नहीं। पर मनुष्य के संसार में जीवन के मूल्यबोध के इतने परिवर्तन मैंने देखे हैं और विस्मय की ऐसी अस्वाभाविक परिसमाप्तियां हुई हैं कि कुछ नहीं कह सकता। फिर भी, साहित्य के कारोबार में आकर जीवन के संबंध में धारणा चाहे जो भी रही हो पर साहित्य में भी तो हम फार्मूले पर ही चलते हैं। इसीलिए तो धार्मिक कथा साहित्यिकों को भी अंत तक सधवा किरणमयी को पागल बना देना पड़ा था और विधवा रमा को काशीवास देना पड़ा था। इसी नियम का शिकार बनकर, मैंने भी, मिसेज चौधरी, आपसे सुनी हुई कहानी आपकी ही इच्छानुसार लिखने की कोशिश की थी। लावण्य को पतन की आखिरी सीढ़ी तक पहुंचा देने पर मुझे भी आपकी तरह संतोष ही होता। उससे कम-से-कम कहावत की कीमत तो बढ़ ही जायेगी। उसे एक और दृष्टांत मिल जाता। जीवन में न सही, साहित्य में तो ऐसा किया ही जा सकता था। इसीलिए तो कह रहा हूं-यह कहानी न ही लिखनी पड़ती तो मैं खुश ही होता।

पर आप मुझे क्षमा करें, मिसेज चौधरी। आपका अनुरोध मैं नहीं मान सका। क्यों नहीं मान सका, इसका भी एक कारण हैं वही कारण बताता हूं। घृणा, लज्जा और संकोच से चाहे कितना ही क्यों न गड़ जाऊं, पर मुझे यह कहना ही पड़ेगा।

उस दिन कलकत्ता से बाहर मध्य प्रदेश के एक कोलियरी इलाके में मुझे जाना पड़ा। किसी पुस्तकालय का उद्घाटन समारोह था। सभापति मुझे ही बनाया गया था। सभा हुई।

सभा के अंत में चाय-पानी का इंतजाम वहां के वेलफेयर ऑफिसर मिस्टर मजूमदार के घर पर था।

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