घर और बाहर (निबंध) : महादेवी वर्मा

Ghar Aur Bahar (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

घर और बाहर : 1

युगों से नारी का कार्यक्षेत्र घर में ही सीमित रहा । उसके कर्त्तव्य के निर्धारित करने में उसकी स्वभावजात कोमलता, मातृत्व, सन्तान-पालन आदि पर तो ध्यान रखा ही गया, साथ ही बाहर के कठोर संघर्षमय वातावरण और परिस्थितियों ने भी समाज को ऐसा ही करने पर बाध्य किया । यदि विचार कर देखा जावे तो, न उस विस्मृत युग में, जब जाति नवीन-भूमि में, अपनी जीवन-स्थिति को सुदृढ़ बना रही थी, न उस कोलाहलमय काल में, जब उसे अपने देश या सम्मान की रक्षा के लिए तलवार के घाट उतरना या उतारना पड़ता था, और न उस समय, जब हताश जाति विलास में अपने दु:ख डुबा रही थी, स्त्री के जीवन के सम्मुख ऐसा विविधवर्णी क्षितिज रहा जैसा आज है या जैसा भविष्य में होने की सम्भावना है । तब उसके सामने एक ही निश्चित लक्ष्य था जिसकी पूर्ति उसे और उस समय के समाज को पूर्ण आत्मतोष दे सकती थी । चाहे द्रौपदी के समान पाँच पति स्वीकार करना हो, चाहे सीता के समान मन, वचन, कर्म और शरीर से एक ही की उपासना हो, चाहे राजपूत-रमणी का जलती चिता में जौहरव्रत हो और चाहे रीति-युग की सौंदर्य-मदिरा बनकर जीवित रहना हो ; परन्तु एक समय में एक ही लक्ष्य, एक ही केन्द्रबिन्दु ऐसा रहा जिसकी ओर स्त्री के जीवन को सारी शक्तियों के साथ प्रभावित होना पड़ा। उस लक्ष्य तक पहुँच जाने में उसके जीवन की चरम सफलता थी, उस तक पहुँचने के प्रयत्न में मिट जाना उसके लिए स्तुत्य, परन्तु उस मार्ग में लौट आना या विपरीत दिशा की ओर जाने की इच्छा भी उसके लिए कलंक का कारण थी ! आज उसका पहले जैसी कठोर रेखाओं में बँधा न एक रूप है और न एक कर्त्तव्य, अतः वह अपना लक्ष्य स्थिर करने के लिए अपेक्षाकृत स्वतन्त्र कही जा सकती है ।

आज स्त्री का सहयोगी पुरुष न आदिम युग का ऐसा अहेरी है, जिसके लाये हुए पशु पक्षियों को खाद्य रूप में परिवर्तित कर देने में ही उसके कर्त्तव्य की इति हो जावे, न वह वेद-काल का ऐसा गृहस्थ है, जिसके साथ यज्ञ में भाग लेना ही उसे सहधर्मचारिणी के पद तक पहुँचा सके, और न वह वीर युग का ऐसा युद्धपरायण आहत है जिसकी शिथिल और ठण्डी उँगलियों से छूटती हुई तलवार संभाल लेने में ही उसके जीवन की सार्थकता हो, प्रत्युत् वह इस उलझन भरे यन्त्र-युग का एक सबसे अधिक उलझनमय यन्त्र बन गया है जिसके जीवन में किसी प्रकार का सहयोग भी तब तक सम्भव नहीं जब तक उसे ठीक-ठीक न समझ लिया जावे । समझ लेने पर भी सहयोग तभी सुगम हो सकेगा जब स्त्री में भी जीवन के अनेक रूपों और परिस्थितियों के साथ चलने और उनके अनुरूप परिवर्तनों को हृदयंगम करने की शक्ति उत्पन्न हो जावे।

वास्तव में स्त्री भी अब केवल रमणी या भार्या नहीं रही, वरन् घर के बाहर भी समाज का एक विशेष अंग तथा महत्त्वपूर्ण नागरिक है, अतः उसका कर्त्तव्य भी अनेकाकार हो गया है जिसके पालन में कभी-कभी ऐसे संघर्ष के अवसर आ पड़ते हैं, जिसमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना पड़ता है । वह क्या करे और क्या न करे, उसका कार्यक्षेत्र केवल घर है या बाहर या दोनों ही, इस समस्या का अब तक समाधान नहीं हो सका है ।

उसके सामने जो अन्य प्रगतिशील देशों की जाग्रत स्त्रियाँ हैं, वे इस निष्कर्ष तक पहुँच चुकी हैं कि स्त्री के लिए घर उतना ही आवश्यक है जितना पुरुष के लिए । वह पुरुष के समान ही अपने जीवन को व्यवस्थित तथा कार्य-क्षेत्र को निर्धारित कर सकती है तथा उसका मातृत्व या पत्नीत्व उसे अपना विशिष्ट मार्ग खोजने से नहीं रोक सकता और न उसके जीवन को घर की संकीर्ण सीमा तक ही सीमित रख सकता है। भारतीय स्त्री ने अभी तक इस समस्या पर निष्पक्ष होकर वैसा विचार नहीं किया जैसा किया जाना चाहिए ; परन्तु अव्यक्त और अज्ञात रूप से उसकी प्रवृत्ति भी उसी ओर होती जा रही है । हमारे यहाँ स्त्रियों में एक प्रतिशत भी साक्षरता नहीं है, इसलिए हमें इस प्रवृत्ति को भी उतनी ही कम संख्या में ढूँढ़ना चाहिए ।

संसार के बड़े से बड़े, असम्भव से असम्भव परिवर्तन के आदि में इने-गिने व्यक्ति ही रहे हैं, शेष असंख्य व्यक्ति तो कुछ जानकर और कुछ अनजान में ही उनके अनुकरणशील बन जाया करते हैं । यदि किसी परिवर्तन का मूल्य या परिणाम आलोचनीय हो तो हमें उसके मूल प्रवर्तक तथा समर्थकों के दृष्टिकोण को समझ लेना उचित होगा, क्योंकि अनुकरणशील व्यक्तियों में प्रायः हमें उसका सच्चा रूप नहीं मिलता। अनुकरण तो मनुष्य का स्वभाव है, परन्तु प्रत्येक कार्य की अन्तर्निहित प्रेरणा को उसी रूप में समझ पाना अपने-अपने बौद्धिक विकास पर निर्भर है ।

भविष्य में स्त्री-समाज की रूप-रेखा हमें इन्हीं विदुषियों से मिलेगी, जिन्हें हम अभी अल्पसंख्यक जानकर जानना नहीं चाहते, जिन्हें हम अपवाद मानकर समझना नहीं चाहते । वे अपवाद हो सकती हैं, परन्तु क्रमागत व्यवस्था के विरुद्ध किसी नवीन परिवर्तन को ले आने का श्रेय ऐसे अपवादों को ही मिलता रहा है, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के बिना हम असम्भाव्य को साधारण या सम्भव समझ ही नहीं पाते।

यदि हम अपने ही प्रान्त की थोड़ी-सी शिक्षिता महिलाओं पर दृष्टिपात करें, तो प्रत्यक्ष हो जाएगा कि उन्होंने अधिकांश में नवीन दृष्टिकोण को ही स्वीकार कर घर-बाहर में एक सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है, चाहे परिणामतः वह प्रयत्न सफल रहा चाहे असफल, श्लाघ्य समझा गया चाहे निन्द्य । इस युग में ऐसी शिक्षिता स्त्री कठिनता से मिलेगी जिसे गृह में ऐसी आत्मतुष्टि मिल गई हो जिसको पाकर जीवन के अनेक आघातों को, जय-पराजयों को मनुष्य गर्व के साथ झेल लेता है । हमारी शिक्षित बहिनों में ऐसी भी हैं, जो केवल गृहिणीपन में सन्तोष न पाकर सार्वजनिक जीवन का उत्तरदायित्व भी सँभालती और कभी-कभी तो दूसरे कर्त्तव्यों के पालन के लिए पहले की उपेक्षा करने पर भी बाध्य हो जाती हैं, ऐसी भी हैं जो अपनी सन्तान तथा गृहस्थी की ओर यथाशक्ति ध्यान देती हुई अन्य क्षेत्रों में भी कार्य करती रहती हैं, ऐसी भी हैं जो गृहस्थ-जीवन तथा सार्वजनिक जीवन के संघर्ष से भयभीत होने के कारण पहले जीवन को स्वीकार ही नहीं करतीं तथा ऐसी भी दुर्लभ नहीं जो समस्त शिक्षा का भार लिये घर में निष्क्रिय और खिन्न, समय व्यतीत करती रहती हैं । यदि स्त्रियों के लिए अपने व्यक्तिगत अनुभवों को हृदय में ही समाहित किये रहना स्वाभाविक न होता तो सम्भव है समाज उनकी कठिनाइयाँ समझ सकता तथा उनके जीवन को अधिक सहानुभूति से देखना सीख सकता । परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में उनके जीवन के विषय में भ्रान्तिमय धारणा बना लेना जितना सम्भव है उतना उन्हें उनके वास्तविक रूप में देखना नहीं । दरिद्र तथा श्रमजीवी इतर श्रेणी की स्त्रियों तक तो शिक्षा पहुँची ही नहीं है, परन्तु उनके सामने घर-बाहर की कोई समस्या भी नहीं है । ऐसी कोई सामाजिक तथा सार्वजनिक परिस्थिति नहीं है जिसमें वे पुरुष के साथ नहीं रह सकतीं, न ऐसी कोई गृहस्थी या जीविका से सम्बन्ध रखने वाली समस्या है, जिसमें वे पुरुष की सहयोगिनी नहीं ।

यह घर तथा बाहर का प्रश्न केवल उच्च, मध्यम तथा साधारण वित्त वाले गृहस्थों की स्त्रियों से सम्बन्ध रखता है तथा ऐसी ही परिस्थितियों में सदा उन्हीं तक सीमित रहेगा । गृह की व्यवस्था और सन्तानपालन की किन सुविधाओं को ध्यान में रखकर कब किसने ऐसी सामाजिक व्यवस्था रची थी, इसकी खोज-ढूँढ़ तो हमारा कुछ समाधान कर नहीं सकती । विचारणीय यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में क्या सम्भव है और क्या असम्भव ।

पुरुष की जिस मनोवृत्ति ने उसे स्त्री को अपने ऐश्वर्य की प्रदर्शिनी बनाकर रखने पर बाध्य किया उसी ने कालान्तर में घर के कर्तव्यों से भी उसे अवकाश दे दिया । सम्पन्न कुलों में स्त्री को न सन्तान की विशेष देख-रेख करनी पड़ती है और न गृह की व्यवस्था । वह तो केवल स्वयं को अलंकृत करके पति या पिता के घर का अलंकार मात्र बनकर जीना जानती हैं, उसके लिए बाहर का संसार सजीव नहीं और न वह उसके लाभ के लिए कुछ श्रम करने को स्वच्छन्द ही है । हममें से प्रायः ऐसी रानी-महारानी और अन्य सम्पन्न घरों की स्त्रियों के जीवन से परिचित होंगे, जिन्हें सुवर्ण देवता की हृदय-हीन मूर्ति की उपासना के अतिरिक्त और किसी कार्य का ज्ञान नहीं। भाग्यवश इनमें से जो कुछ शिक्षिता भी हो सकी हैं उन्हें सार्वजनिक जीवन में कुछ कर सकने की स्वतन्त्रता उतनी नहीं मिल सकी जितनी मिलनी उचित थी । इस श्रेणी की स्त्रियों के निकट भोजन बनाने और सन्तान-पालन का गुणगान कुछ महत्त्व नहीं रखता क्योंकि उनके परिवार की प्रतिष्ठा के स्वर के साथ यह गुणगान बेसुरा ही जान पड़ेगा ।

मध्यम तथा निम्न मध्यम श्रेणी के गृहस्थ दम्पत्ति भी जहाँ तक उनकी आर्थिक परिस्थिति सुविधा देती है इन कर्त्तव्यों से छुटकारा पाने का प्रयत्न करते रहते हैं और इन्हें प्रतिष्ठा में बाधक समझते हैं । फिर वर्तमान युग की अनेक आर्थिक परिस्थितियों ने दास दासियों को इतना सुलभ कर दिया है कि गृहिणी एक प्रकार से अपने उत्तरदायित्व से बहुत कुछ मुक्त हो गई है । आज प्रायः वे परिस्थितियाँ नहीं मिलतीं, जिन्होंने पुरुष का कार्य-क्षेत्र बाहर और स्त्री का गृह तक ही सीमित कर दिया था । यह हमारा अज्ञान होगा यदि हम समय की गति को न समझना चाहें और जीवन को उस गति के अनुरूप बनने को अभिशाप समझें ।

जिस प्रकार सीधा पौधा कालान्तर में असंख्य शाखा-प्रशाखाओं तथा जड़ों के फैलाव से जटिल और दुरूह हो जाता है, उसी प्रकार हमारा जीवन असंख्य कर्तव्यों तथा सम्बन्धों का केन्द्र होकर पहले जैसा सरल नहीं रह सका है ।

यह सत्य है कि समाज की विभिन्न परिस्थितियों, व्यक्तिगत स्वार्थ और जीविका के अस्थिर साधनों ने मनुष्य के कुटुम्ब को छोटा कर दिया है, परन्तु इसी से उसकी अन्तर्मुखी शक्तियों ने और भी अधिक बहिर्मुखी होकर घर से राष्ट्र तक या विश्व तक फैलकर आत्मतुष्टि को उतनी सुलभ नहीं रहने दिया, जितनी वह अतीत की सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक व्यवस्था में थी ।

आज मनुष्य की प्रवृत्ति विश्वास का नहीं, तर्क का आश्रय लेकर चलना चाहती है और चल रही है, अतः वह उन व्यवस्थाओं का मूल्य भी आँक लेना चाहती है जिनके विषय में युगों से किसी ने प्रश्न करने का साहस भी नहीं किया । जिस नरक-स्वर्ग ने मनुष्य जाति पर इतने दिनों तक निरंकुश शासन किया उसका, आज के प्रतिनिधि युवक या युवती के निकट उतना भी मूल्य नहीं है जितना दादा द्वारा कही गई गुलबकावली की कहानी का । जिन भावनाओं ने असंख्य व्यक्तियों को घोर से घोरतर बलिदान के लिए प्रेरित किया उनको भी आज मनुष्य तर्क की कसौटी पर कसने और उपयोग की तुला पर तौलने के उपरान्त ही स्वीकार करना चाहता है । जिस धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के प्रति मनुष्यता ने सदा से मूक भाव से मस्तक झुकाया, आज उसी को अपने रहने की भिक्षा माँगनी पड़ रही है । सारांश यह कि यह ऐसा युग है जिसमें मनुष्य सब वस्तुओं को तर्क के द्वारा समझेगा और उनकी उपयोगिता जानकर ही स्वीकार करेगा । ‘ ऐसा होता आया है इसीलिए ऐसा होता रहना चाहिए इस तर्क में विश्वास करने वाले आज कम मिलेंगे और भविष्य में कदाचित् मिलेंगे भी नहीं ।

स्त्री-समाज भी इस वातावरण में विकास पाने के कारण इन विशेषताओं से दूर नहीं रह सका और रहना स्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता था । इस तर्क-प्रवृत्ति को उसने अपनी बुद्धि के अनुसार ही ग्रहण किया है इसी से हम शिक्षित महिला-समाज में इसे जिस रूप में पाते हैं, उसी रूप में अशिक्षिताओं में नहीं पाते । जिसे देखने का अवकाश तथा बुद्धि प्राप्त है, वह स्त्री देखती है कि उसके सहयोगी पुरुष के समय का अधिकांश बाहर ही व्यतीत होता है, वह भोजन या विश्राम के अतिरिक्त घर से और किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता तथा बाहर उपार्जित ख्याति को स्थिर रखने के लिए सन्तान और उनके पालन तथा अपने विनोद के लिए पत्नी चाहता है । इसके विपरीत स्त्री को इतनी ही स्वच्छन्दता मिली है कि वह बाहर के जगत को केवल घर के झरोखे से कभी-कभी देख ले और मन में सदा यही विश्वास रखे कि वह कर्मक्षेत्र उसकी शक्तियों के अनुरूप कभी नहीं था और न भविष्य में कभी हो सकेगा । इस तर्क-प्रधान युग में ऐसी आशा करना कि सौ में से सौ स्त्रियाँ इस पर कभी आलोचना न करेंगी, या इसके विपरीत सोचने का साहस न कर सकेंगी भूल के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है !

कुछ स्त्रियों ने इसी युगान्तरदीर्घ विश्वास को हृदय से लगाकर अपने असन्तोष को दबा डाला, असन्तुष्ट होने के अतिरिक्त और कुछ न कर सकीं और कुछ ने बाहर आकर से बाह्य- जगत में अपनी शक्तियों को तोला । कौतूहलवश बाहर के संघर्षमय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली स्त्रियों की शक्ति का ऐसा परिचय मिला कि पुरुष-समाज ही नहीं, स्त्री भी अपने सामर्थ्य पर विस्मित हो उठी । इतने दीर्घ- काल तक निष्क्रिय रहने पर भी स्त्री ने सभी कार्य-क्षेत्रों में पुरुष के समान ही सफलता पा ली । यह अब तक प्रत्यक्ष हो चुका है कि वह अपनी कोमल भावनाओं को जीवित रखकर भी कठिन से कठिन उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकती है, दुर्वह से दुर्वह कर्त्तव्य का पालन कर सकती है और दुर्गम से दुर्गम कर्म-क्षेत्र में ठहर सकती है । शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्तियों का उसमें ऐसा सामंजस्य है, जो उसे कहीं भी उपहासास्पद न बनने देगा । ऐसी दशा में यह समस्या कि वह अपना कार्यक्षेत्र घर बनावे या बाहर, और भी अधिक जटिल हो उठी है ।

भिन्न-भिन्न देशों ने उसे अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार सुलझाया है, परन्तु सभी ने स्त्री को उसकी खोई स्वतन्त्रता लौटा देने का प्रयत्न अवश्य किया है । हमारे देश में अभी न उनमें पूर्ण जागृति है और न इस प्रश्न का कोई समाधान ही आवश्यक जान पड़ा है । हम अपने प्राचीनतम आदर्शों को हृदय से लगाये भयभीत-से बैठे उस दिन के कभी न आने की कामना में लगे हुए हैं, जब स्त्री रसोई-घर के धुएँ से लाल आँखों में विद्युत भर पुरुष से पूछ बैठेगी — क्या मुझसे केवल यही काम हो सकता है ?-इस दिन को रोकने के लिए हम कभी उन महिलाओं पर अनेक प्रकार के लांछन लगाने से भी नहीं चूकते जिन्होंने अपनी शक्तियों को किसी अन्य कार्य में लगाना अच्छा समझा। परन्तु उन उपायों से हम कब तक इस समस्या को भुला रखने में समर्थ रह सकेंगे, यही प्रश्न है । समाज को किसी न किसी दिन खी के असन्तोष को सहानुभूति के साथ समझ कर उसे ऐसा उत्तर देना होगा जिसे पाकर वह अपने आपको उपेक्षित न माने और जो उसके मातृत्व के गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए भी उसे नवीन युग की सन्देश-वाहिका बना सकने में समर्थ हो ।

हम स्त्री के जीवन को, चारों ओर फैली हुई जटिलता में भी, आदिम काल के जीवन जैसा सरल बनाकर रखना चाहते हैं, परन्तु यह तो समाज तथा राष्ट्र के विकास की दृष्टि से सम्भव नहीं । वह घर में अन्नपूर्णा बने या न बने, केवल यही प्रश्न नहीं है, प्रत्युत् यह भी समस्या है कि यदि वह अपने वात्सल्य के कुछ अंश को बाहर के संसार को देना चाहे तो घर उसे ऐसा करने की स्वतन्त्रता देगा या नहीं और यदि देगा तो किस मूल्य पर ? जब स्त्रियों को, सुशिक्षिता बनाने के लिए सुविधाएँ देने की चर्चा चली तो बहुत से व्यक्ति अगुवा बनने को दौड़ पड़े थे । यह कहना तो कठिन है इस प्रयत्न में कितना अंश अपनी ख्याति की इच्छा का था और कितना केवल स्त्रियों के प्रति सहानुभूति का, परन्तु यह हम अवश्य कह सकते हैं कि ऐसे सुधारप्रिय व्यक्तियों का दृष्टिकोण भी संकुचित ही रहा । उन्होंने वास्तव में यह नहीं कि बौद्धिक विकास के साथ स्त्रियों में स्वभावत : अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को फिर से जाँचने की इच्छा जागृत हो जाएगी तथा वे घर के बाहार भी कुछ विशेष अधिकार और उसके अनुरूप कार्य करने की सुविधाएँ चाहेंगी। ऐसी परिस्थिति में युगों से चली आने वाली व्यवस्था के रूप में भी कुछ अन्तर आ सकता है ।

अपनी असीम विद्या-बुद्धि का भार लिये हुए एक स्त्री किसी के गृह का अलंकार मात्र बनकर संतुष्ट हो सकेगी, ऐसी आशा दुराशा के अतिरिक्त और क्या हो सकती थी । वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका । उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अन्त इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है । कहना नहीं होगा कि इस धारणा ने ही इतने असन्तोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है ।

स्त्रियों के उज्ज्वल भविष्य को अपेक्षा रहेगी कि उसके घर और बाहर में ऐसा सामंजस्य स्थापित हो सके, जो उसके कर्त्तव्य को केवल घर या केवल बाहर ही सीमित न कर दे । ऐसी सामंजस्यपूर्ण स्थिति के उत्पन्न होने में अभी समय लगेगा और सम्भव है यह मध्य का समय हमारी क्रमागत सामाजिक व्यवस्था को कुछ डावाँडोल भी कर दे, परन्तु निराशा को जन्म देने वाले कारण नहीं उत्पन्न होने चाहिए ।

घर और बाहर : 2

समय की गति के अनुसार न बदलने वाली परिस्थितियों ने स्त्री के हृदय में जिस विद्रोह का अंकुर जम जाने दिया है उसे बढ़ने का अवकाश यहीं घर-बाहर की समस्या दे रही है । जब तक समाज का इतना आवश्यक अंग अपनी स्थिति से असंतुष्ट तथा अपने कर्त्तव्य से विरक्त है, तब तक प्रयत्न करने पर भी हम अपने सामाजिक जीवन में सामंजस्य नहीं ला सकते । केवल स्त्री के दृष्टिकोण से ही नहीं, वरन् हमारे सामूहिक विकास के लिए भी यह आवश्यक होता जा रहा है कि खी घर की सीमा के बाहर भी अपना विशेष कार्यक्षेत्र चुनने को स्वतन्त्र हो । गृह की स्थिति भी तभी तक निश्चित है जब तक हम गृहिणी की स्थिति को ठीक-ठीक समझ कर उससे सहानुभूति रख सकते हैं और समाज का वातावरण भी तभी तक सामंजस्यपूर्ण है, जब तक स्त्री तथा पुरुष के कर्त्तव्यों में सामंजस्य आधुनिक युग में घर से बाहर भी ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जो स्त्री के सहयोग की उतनी ही अपेक्षा रखते हैं, जितनी पुरुष के सहयोग की । राजनीतिक व्यवस्थाओं तथा अन्य सार्वजनिक कार्यों में पुरुष का सहयोग देने के अतिरिक्त समाज की अन्य ऐसी अनेक आवश्यकताएँ हैं जो स्त्री से सहानुभूति और स्नेहपूर्ण सहायता चाहती है । उदाहरण के लिए हम शिक्षा के क्षेत्र को ले सकते हैं । हम अपनी आगामी पीढ़ी को निरक्षरता के शाप से बचाने के लिए अधिक से अधिक शिक्षालयों की आवश्यकता का अनुभव कर रहे हैं । आज भी श्रमजीवियों को छोड़कर प्रायः अन्य सभी अपने एक विशेष अवस्था वाले छोटे- छोटे बालक-बालिकाओं को ऐसे स्थानों में भेजने के लिए बाध्य होते हैं, जहाँ या तो दण्डधारी, कठोर आकृति वाले जीवन से असन्तुष्टगुरु जी या अनुभवहीन हठी कुमारिकाएँ उनका निष्ठर स्वागत करती हैं ! एक विशेष अवस्था तक बालक-बालिकाओं को स्नेहमयी शिक्षिकाओं का सहयोग जितना अधिक मिलेगा, हमारे भावी नागरिकों का जीवन उतने ही अधिक सुन्दर साँचे में ढलेगा । हमारे बालकों के लिए कठोर शिक्षक के स्थान में यदि ऐसी स्त्रियाँ रहें, जो स्वयं माताएँ भी हों तो कितने ही बालकों का भविष्य इस प्रकार नष्ट न हो सकेगा जिस प्रकार आजकल हो रहा है । एक अबोध बालक या बालिका को हम एक ऐसे कठोर तथा अस्वाभाविक वातावरण में रखकर विद्वान या विदुषी बनाना चाहते हैं, जो उसकी आवश्यकता, उसकी स्वाभाविक दुर्बलता तथा स्नेह-ममता की भूख से परिचित नहीं, अतः अन्त में हमें या तो डर से सहमे हुए या उद्दण्ड विद्यार्थी ही प्राप्त होते हैं ।

यह निर्धान्त सत्य है कि बालकों की मानसिक शक्तियाँ स्त्री के स्नेह की छाया में जितनी पुष्ट और विकसित हो सकती हैं, उतनी किसी अन्य उपाय से नहीं । पुरुष का अधिक सम्पर्क तो बालक को असमय ही कठोर और सतर्क बना देता है ।

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि बालक-बालिकाओं को स्त्री के अंचल की छाया में ही पालना उचित है तो उनकी प्रारम्भिक शिक्षा का भार माता पर ही क्यों न छोड़ दिया जावे ? वे एक विशेष अवस्था तक माता की देख-रेख में रहकर तब किशोरावस्था में विद्यालयों में पहुँचाये जावें तो क्या हानि है ?

इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही सरल है । मनुष्य ऐसा सामाजिक प्राणी है, जिसे केवल अपना स्वार्थ नहीं देखना है, जिसे समाज के बड़े अंश को लाभ पहुंचाने के लिए कभी-कभी अपने लाभ को भूलना पड़ता है, अपनी इच्छाओं को नष्ट कर देना होता है और अपनी प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पड़ता है । परन्तु सामाजिक प्राणी के ये गुण, जो दो व्यक्तियों को प्रतिद्वन्द्वी न बनाकर सहयोगी बना देते हैं, तभी उत्पन्न हो सकते हैं जब उन्हें बालकपन से समूह में पाला जावे। जो बालक जितना अधिक अकेला रखा जाएगा, उसमें अपनी प्रवृत्तियों के दमन की, स्वार्थ को भूलने की, दूसरों को सहयोग देने तथा पाने की शक्ति उतनी ही अधिक दुर्बल होगी । ऐसा बालक कभी सच्चा सामाजिक व्यक्ति बन ही न सकेगा । मनुष्य क्या पशुओं में भी बचपन के संसर्ग से ऐसा स्नेह-सौहार्द उत्पन्न हो जाता है जिसे देखकर विस्मित होना पड़ता है । जिस सिंह- शावक को बकरी के बच्चे के साथ पाला जाता है, वह बड़ा होकर भी उससे शत्रुता नहीं कर पाता ।

अकेले पाले जाने के कारण ही हमारे यहाँ बड़े आदमियों के बालक बढ़ कर खजूर के वृक्ष के समान अपनी छाया तथा फल दोनों ही से अन्य व्यक्तियों को एक प्रकार से वंचित कर देते हैं ! उनमें वह गुण उत्पन्न ही नहीं हो पाता जो सामाजिक प्राणी के लिए अनिवार्य है । न उनको बचपन से सहानुभूति के आदान-प्रदान की आवश्यकता का अनुभव होता है न सहयोग का । वे तो दूसरों का सहयोग अन्य आवश्यक वस्तुओं के समान खरीद कर ही प्राप्त करना जानते ; स्वेच्छा से मनुष्यता के नाते जो आदान-प्रदान धनी-निर्धन, सुखी- दुखी के बीच में सम्भव हो सकता है उसे जानने का अवकाश ही उन्हें नहीं दिया जाता । बिना किसी भेद-भाव के धूल-मिट्टी, आँधी- पानी, गर्मी- सदी के साथ खेलनेवाले बालकों का एक-दूसरे के प्रति जो भाव रहता है, वह किसी और परिस्थिति में उत्पन्न ही नहीं किया जा सकता ।

इसके अतिरिक्त प्रत्येक माता को केवल उसी की सन्तान का संरक्षण सौंप देने से उसके स्वाभाविक स्नेह को सीमित कर देना होगा । जिस जल के दोनों ओर कच्ची मिट्टी रहती है वह उसे भेदकर दूर तक के वृक्षों को सींच सकता है, परन्तु जिसके चारों ओर हमने चूने की पक्की दीवार खड़ी कर दी है वह अपने तट को भी नहीं गीला कर सकता । माता के स्नेह की यही दशा है । अपनी सन्तान के प्रति माता का अधिक स्नेह स्वाभाविक ही है, परन्तु निरन्तर अपनी सन्तान के स्वार्थ का चिन्तन उसमें इस सीमा तक विकृति उत्पन्न कर देता है कि वह अपने सहोदर या सहोदरा की सन्तान के प्रति भी निष्ठुर हो उठती है ।

बालक-बालिकाओं के समान ही किशोरवयस्क कन्याओं और युवतियों की शिक्षा के लिए भी हमें ऐसी महिलाओं की आवश्यकता होगी, जो उन्हें गृहिणी के गुण तथा गृहस्थ जीवन के लिए उपयुक्त कर्त्तव्यों की शिक्षा दे सकें । वास्तव में ऐसी शिक्षा उन्हीं के द्वारा दी जानी चाहिए जिन्हें गृह-जीवन का अनुभव हो और जो स्वयं माताएँ हों । आजकल हमारे शिक्षा-क्षेत्र में विशेष रूप से वे ही महिलाएँ कार्य करती हैं, जिन्हें न हमारी संस्कृति का ज्ञान है, न गृहजीवन का, अतः हमारी कन्याएँ अविवाहित जीवन का ऐसा सुनहला स्वप्न लेकर लौटती हैं जो उनके गृहजीवन को अपनी तुलना में कुछ भी सुन्दर नहीं ठहरने देगा । सम्भव है, उस जीवन को पाकर वे इतनी प्रसन्न न होतीं, परन्तु उसकी सम्भावित स्वच्छन्दता उन्हें गृह के बन्धनों से विरक्त किये बिना नहीं रहती ।

जब तक हम अपने यहाँ गृहिणियों को बाहर आकर इस क्षेत्र में कुछ करने की स्वतन्त्रता न देंगे, तब तक हमारी शिक्षा में व्याप्त विष बढ़ता ही जाएगा । केवल गार्हस्थ्य शास्त्र या सन्तान-पालन-विषयक पुस्तकें पढ़कर कोई किशोरी गृह से प्रेम करना नहीं सीख जाती, इस संस्कार को दृढ़ करने के लिए ऐसी स्त्रियों के सजीव उदाहरण की आवश्यकता है, जो आकाश के मुक्त वातावरण में स्वच्छन्द भाव से अधिक से अधिक ऊँचाई तक उड़ने की शक्ति रखकर भी बसेरे को प्यार करने वाले पक्षी के समान कार्य-क्षेत्र में स्वतन्त्र, परन्तु घर के आकर्षण से बँधी हों ।

स्त्री को बाहर कुछ भी कर सकने का अवकाश नहीं है और बाहर कार्य करने से घर की मर्यादा नष्ट हो जाएगी, इस पुरानी कहानी में विशेष तथ्य नहीं है और हो भी तो नवीन युग उसे स्वीकार न कर सकेगा । यदि किसान की स्त्री घर में इतना परिश्रम करके, खेती के अनेक कामों में पति का हाथ बटा सकती है या साधारण श्रेणी के श्रमजीवियों की स्त्रियाँ घर-बाहर के कार्यों में सामंजस्य स्थापित कर सकती हैं और उनका घर वन नहीं बन जाता तो हमारे यहाँ अन्य स्त्रियाँ भी अपनी शक्ति, इच्छा तथा अवकाश के अनुसार घर से बाहर कुछ करने के लिए स्वतन्त्र हैं । अवकाश के समय का दुरुपयोग वे केवल अपनी प्रतिष्ठा की मिथ्या भावना के कारण ही करती हैं और इस मिथ्या भावना को हम बालू की दीवार की तरह गिरा सकते हैं ।

यह सत्य है कि हमारे यहाँ ऐसी सुशिक्षिता स्त्रियाँ कम हैं जो शिक्षा के क्षेत्र में तथा घर में समान रूप से उपयोगी सिद्ध हो सकती हों, परन्तु यह भी कम सत्य नहीं कि हमने उनकी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर उनके जीवन को पंगु बनाने में कोई कसर नहीं रखी । यदि वे अपनी बहिनों तथा उनकी सन्तान के लिए शिक्षा के क्षेत्र में कुछ कार्य करें तो घर उन्हें जीवन भर के लिए निर्वासन का दण्ड देगा, जो साधारण स्त्री के लिए सबसे अधिक कष्टकर दण्ड है। यदि वे जीवन भर कुमारी रहकर सन्तान तथा सुखी गृहस्थी का मोह त्याग सकें तो इस क्षेत्र में उन्हें स्थान मिल सकता है अन्यथा नहीं। विवाह करते ही सुखी गृहस्थी के स्वप्न सच्ची हथकड़ी-बेड़ी बनकर उनके हाथ-पैर ऐसे जकड़ देते हैं कि उनमें जीवनशक्ति का प्रवाह ही रुक जाता है । किसी बड़भागी के सौभाग्य का साकार प्रमाण बनने के उपलक्ष्य में वे घूमने के लिए कार पा सकती हैं, पालने के लिए बहुमूल्य कुत्ते-बिल्ली मँगा सकती हैं और इससे अवकाश मिले तो बड़ी-बड़ी पार्टियों की शोभा बढ़ा सकती हैं, परन्तु काम करना, चाहे वह देश के असंख्य बालकों को मनुष्य बनाना ही क्यों न हो, पति की प्रतिष्ठा को आमूल नष्ट कर देता है । इस भावना ने स्त्री के मर्म में कोई ठेस नहीं पहुँचाई है, यह कहना असत्य कहना होगा, क्योंकि उस दशा में विवाह से विरक्त युवतियों की इतनी अधिक संख्या कभी नहीं मिलती । कुछ व्यक्तियों में वातावरण के अनुकूल बन जाने की शक्ति अधिक होती है और कुछ में कम, इसी से किसी का जीवन निरानन्द नहीं हो सका और किसी का सानन्द नहीं बन सका । परन्तु परिस्थितियाँ प्रायः एक-सी ही रहीं ।

आधुनिक शिक्षाप्राप्त स्त्रियाँ अच्छी गृहिणियाँ नहीं बन सकतीं; यह प्रचलित धारणा पुरुष के दृष्टिबिन्दु से देखकर ही बनाई गई है, स्त्री की कठिनाई को ध्यान में रखकर नहीं । एक ही प्रकार के वातावरण में पले और शिक्षा पाये हुए पति-पत्नी के जीवन तथा परिस्थितियों की यदि हम तुलना करें तो सम्भव है आधुनिक शिक्षित स्त्री के प्रति सहानुभूति का अनुभव कर सकें । विवाह से पुरुष को तो कुछ छोड़ना नहीं होता न उसकी परिस्थितियों में कोई अन्तर ही आता है, परन्तु इसके विपरीत स्त्री के लिए विवाह मानो एक परिचित संसार छोड़कर नवीन संसार में जाना है, जहाँ उसका जीवन सर्वथा नवीन होगा । पुरुष के मित्र, उसकी जीवनचर्या, उसके कर्तव्य सब पहले जैसे ही रहते हैं और वह अनुदार न होने पर भी शिक्षिता पत्नी के परिचित मित्रों, अध्ययन तथा अन्य परिचित कार्यों के अभाव को नहीं देख पाता । साधारण परिस्थिति होने पर भी घर में इतर कार्यों से स्त्री को अवकाश रहता है, संयुक्त कुटुम्ब न होने से बड़े परिवार के प्रबन्ध की उलझनें भी नहीं घेरे रहतीं, उसके लिए पुरुष-मित्र वर्ज्य हैं, और उसे मित्र बनाने के लिए शिक्षिता स्त्रियाँ कम मिलती हैं, अतः एक विचित्र अभाव का उसे बोध होने लगता है । कभी- कभी पति के, आने-जाने जैसी छोटी बातों में, बाधा देने पर वह विरक्त भी हो उठती है । अच्छी गृहिणी कहलाने के लिए उसे केवल पति की इच्छा के अनुसार कार्य करने तथा मित्रों और कर्तव्य से अवकाश के समय उसे प्रसन्न रखने के अतिरिक्त और विशेष कुछ नहीं करना होता, परन्तु यह छोटा-सा कर्त्तव्य उसके महान अभाव को नहीं भर पाता ।

ऐसी शिक्षिता महिलाओं के जीवन को अधिक उपयोगी बनाने तथा उनके कर्त्तव्य को अधिक मधुर बनाने के लिए हमें उन्हें बाहर भी कुछ कर सकने की स्वतन्त्रता देनी होगी । उनके लिए घर-बाहर की समस्या का समाधान आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, अन्यथा उनके मन की अशान्ति घर की शान्ति और समाज का स्वस्थ वातावरण नष्ट कर देगी। हमें बाहर भी उनके सहयोग की इतनी ही आवश्यकता है । जितनी घर में, इसमें सन्देह नहीं ।

शिक्षा के क्षेत्र के समान चिकित्सा के क्षेत्र में भी स्त्रियों का सहयोग वांछनीय है । हमारा स्त्री-समाज कितने रोगों से जर्जर हो रहा है, उसकी सन्तान कितनी अधिक संख्या में असमय ही काल का ग्रास बन रही है, यह पुरुष से अधिक स्त्री की खोज का विषय है । जितनी अधिक सुयोग्य स्त्रियाँ इस क्षेत्र में होंगी उतना ही अधिक समाज का लाभ होगा । स्त्री में स्वाभाविक कोमलता पुरुष की अपेक्षा अधिक होती है, साथ ही पुरुष के समान व्यवसाय- बुद्धि प्रायः उसमें नहीं रहती, अतः वह इस कार्य को अधिक सहानुभूति तथा स्नेह के साथ कर सकती है । अपने सहज स्नेह तथा सहानुभूति के कारण ही रोगी की परिचर्या के लिए नर्स ही रखी जाती है । यह सत्य है कि न सब पुरुष ही इस कार्य के उपयुक्त होते हैं और न सब स्त्रियाँ, परन्तु जिन्हें इस गुरुतम कर्त्तव्य के लिए रुचि और सुविधाएँ दोनों ही मिली हैं, उन स्त्रियों का इस क्षेत्र में प्रवेश करना उचित ही होगा । कुछ इनी-गिनी स्त्री चिकित्सक हैं भी, परन्तु समाज अपनी आवश्यकता के समय ही उनसे सम्पर्क रखता है ।

उनका शिक्षिकाओं से अधिक बहिष्कार है, कम नहीं । ऐसी महिलाओं में से जिन्होंने सुयोग्य और सम्पन्न व्यक्तियों से विवाह करके बाहर के वातावरण की नीरसता को घर की सरसता से मिलाना चाहा, उन्हें प्रायः असफलता ही प्राप्त हो सकी। उनका इस प्रकार घर की सीमा से बाहर कार्य करना पतियों की प्रतिष्ठा के अनुकूल न सिद्ध हो सका, इसलिए अन्त में उन्हें अपनी शक्तियों को घर तक ही सीमित रखने के लिए बाध्य होना पड़ा । वे पारिवारिक जीवन में कितनी सुखी हुईं, यह कहना तो कठिन है, परन्तु उन्हें इस प्रकार खोकर स्त्री-समाज अधिक प्रसन्न न हो सका । यदि झूठी प्रतिष्ठा की भावना इस प्रकार बाधा न डालती और वे अवकाश के समय का कुछ अंश इस कर्त्तव्य के लिए भी रख सकतीं तो अवश्य ही समाज का अधिक कल्याण होता ।

चिकित्सा के समान कानून का क्षेत्र भी स्त्रियों के लिए उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। यदि स्त्रियों में ऐसी बहिनों की पर्याप्त संख्या रहती, जिनके निकट कानून एक विचित्र वस्तु न होता तो उनकी इतनी अधिक दुर्दशा न हो सकती । स्त्री-समाज के ऐसे प्रतिनिधि न होने के कारण ही किसी भी विधान में, समय तथा खी की स्थिति के अनुकूल कोई परिवर्तन नहीं हो पाता और न साधारण स्त्रियाँ अपनी स्थिति से सम्बन्ध रखने वाले किसी कानून से परिचित ही हो सकती हैं । साधारण स्त्रियों की बात तो दूर रही, शिक्षिताएँ भी इस आवश्यक विषय से इतनी अनभिज्ञ रहती हैं कि अपने अधिकार और स्वत्वों में विश्वास नहीं कर पातीं । सहस्रों की संख्या में वकील और बैरिस्टर बने हुए पुरुषों के मुख से इस कार्य को आत्मा का हनन तथा असत्य का पोषण सुन-सुनकर उन्होंने असत्य को इस प्रकार त्यागा कि सत्य को भी न बचा सकीं । वास्तव में ऐसी विषयों में स्त्री की अज्ञता उसी की स्थिति को बना देती है, क्योंकि उस दशा में न वह अपने अधिकार का सच्चा रूप जानती और न दूसरे के स्वत्वों का, जिससे पारस्परिक सम्बन्ध में सामञ्जस्य उत्पन्न हो ही नहीं पाता ! वकील, बैरिस्टर महिलाओं की संख्या तो बहुत ही कम है और उनमें भी कुछ ही गृहजीवन से परिचित हैं ।

प्रायः पुरुष यह कहते सुने जाते हैं कि बहुत पढ़ी-लिखी या कानून जानने वाली स्त्री से विवाह करते उन्हें भय लगता है । जब एक निरक्षर स्त्री बड़े से बड़े विद्वान से, कानून का एक शब्द न जानने वाली वकील या बैरिस्टर से और किसी रोग का नाम भी न बता सकने वाली बड़े से बड़े डाक्टर से विवाह करते भयभीत नहीं होती तो पुरुष ही अपने समान बुद्धिमान तथा विद्वान स्त्री से विवाह करने में क्यों भयभीत होता है ? इस प्रश्न का उत्तर पुरुष के उस स्वार्थ में मिलेगा जो स्त्री से अन्धभक्ति तथा मूक अनुसरण चाहता है । विद्या बुद्धि में जो उसके समान होगी, वह अपने अधिकार के विषय में किसी दिन भी प्रश्न कर ही सकती है; सन्तोषजनक उत्तर न पाने पर विद्रोह भी कर सकती है, अतः पुरुष क्यों ऐसी स्त्री को संगिनी बनाकर अपने साम्राज्य की शांति भंग करे। जब कभी किसी कारण से वह ऐसी जीवन-संगिनी चुन भी लेता है तो सब प्रकार के कोमल कठोर साधनों से उसे अपनी छाया मात्र बनाकर कर रखना चाहता है, जो प्राय : सम्भव नहीं होता।

इन कार्यक्षेत्रों के अतिरिक्त स्त्री तथा बालकों के लिए अन्य उपयोगी संस्थाओं की स्थापना कर उन्हें सुचारु रूप से चलाना, स्त्रियों में संगठन की इच्छा उत्पन्न करना, उन्हें सामयिक स्थिति से परिचित कराना आदि कार्य भी स्त्रियों के ही हैं और इन्हें वे घर से बाहर जाकर ही कर सकती हैं । इन सब कार्यों के लिए स्त्रियों को अधिक संख्या में सहयोग देना होगा, अत : यह आशा करना कि ऐसे बाहर के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने वाली सभी स्त्रियाँ परिवार को त्याग, गृह-जीवन से विदा लेकर बौद्ध भिक्षुणी का जीवन व्यतीत करें, अन्याय ही है। कुछ स्त्रियाँ ऐसा जीवन भी बिता सकती हैं, परन्तु अन्य सबको घर और बाहर सब जगह कार्य करने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए ।

इस सम्बन्ध में आपत्ति की जाती है कि जब स्त्री अपना सारा समय घर की देख-रेख और सन्तान के पालन के लिए नहीं दे सकती तो उसे गृहिणी बनने की इच्छा ही क्यों करनी चाहिए । इस आपत्ति का निराकरण तो हमारे समाज की सामयिक स्थिति ही कर सकती है । स्त्री के गृहस्थी के प्रति कर्त्तव्य की मीमांसा करने के पहले यदि हम यह भी देख लेते कि आजकल का व्यस्त पुरुष पत्नी और सन्तान के प्रति ध्यान देने का कितना अवकाश पाता है तो अच्छा होता । जिस श्रेणी की स्त्रियों को बाहर भी कुछ कर सकने का अवकाश मिल सकता है उनके डाक्टर, वकील या प्रोफेसर पति अपने दैनिक कार्य, सार्वजनिक कर्तव्य तथा मित्रमंडली से केवल रात के बसेरे के लिए ही अवकाश पाते हैं और यदि मनोविज्ञान से अपरिचित पत्नी ने उस समय घर या सन्तान की कोई चर्चा छेड़ दी तो या तो उनके दोनों नेत्र नींद से मुंद जाते हैं या तीसरा क्रोध का नेत्र खुल जाता है ।

परन्तु ऐसी गृहिणियों को जब हम अन्य सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने के लिए आमंत्रित करेंगे तब समाज की इस शंका का कि इनकी सन्तान की क्या दशा होगी, उत्तर भी देना होगा । स्त्री बाहर भी अपना कार्यक्षेत्र बनाने के लिए स्वतंत्र हो और यह स्वतंत्रता उसे निर्वासन का दण्ड न दे सके, इस निष्कर्ष तक पहुँचने का यह अर्थ नहीं है कि स्त्री प्रत्येक दशा में सार्वजनिक कर्त्तव्य के बन्धन से मुक्त न हो सके । ऐसी कोई माता नहीं होती, जो अपनी सन्तान को अपने प्राण के समान नहीं चाहती । पुरुष के लिए बालक का वह महत्त्व नहीं है, जो स्त्री के लिए है, अतएव यह सोचना कि माता अपने शिशु के सुख की बलि देकर बाहर कार्य करेगी, मातृत्व पर कलंक लगाना है । आज भी सार्वजनिक क्षेत्रों में कुछ सन्तानवती स्त्रियाँ कार्य कर रही हैं और निश्चय ही उनकी सन्तान न करने वाली स्त्रियों की सन्तान से अच्छी ही हैं । कैसा भी व्यस्त जीवन बिताने वाली श्रान्त माता अपने रोते हुए बालक को हृदय से लगाकर सारी क्लान्ति भूल सकती है, परन्तु पुरुष के लिए ऐसा कर सकना सम्भव ही नहीं है । फिर केवल हमारे समाज में ही माताएँ नहीं हैं, अन्य ऐसे देशों में भी हैं, जहाँ उन्हें और भी उत्तरदायित्व संभालने होते हैं । हमारे देश में भी साधारण स्त्रियाँ मातृत्व को ऐसा भारी नहीं समझतीं । आवश्यकता केवल इस बात की है कि पुरुष पंख काटकर सोने के पिंजर में बन्द पक्षी के समान स्त्री को अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा की बन्दिनी न बनावे । यदि विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो निश्चय ही स्त्री इतनी दयनीय न रह सकेगी । घर से बाहर भी अपनी रुचि, शिक्षा और अवकाश के अनुरूप जो कुछ वह करना चाहे उसमें उसे पुरुष के सहयोग और सहानुभूति की अवश्य ही अपेक्षा रहेगी और पुरुष यदि अपनी वंशक्रमागत अधिकार युक्त अनुदार भावना को छोड़ सके तो बहुत-सी कठिनाइयाँ स्वयं ही दूर हो जावेंगी ।

घर और बाहर : 3

बाहर के सार्वजनिक कार्यों के अतिरिक्त और भी ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें स्त्री घर में रह कर भी बहुत कुछ कर सकती है । उदाहरण के लिए हम साहित्य के क्षेत्र को ले सकते हैं जिसके निर्माण में स्त्री का सहयोग व्यक्ति और समाज दोनों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा । यदि पुरुष साहित्य के निर्माण को अपनी जीविका का साधन बना सकता है, तो स्त्री के लिए भी यह कार्य संकोच का कारण क्यों बन सकेगा ! यदि वैयक्तिक दृष्टि से देखा जावे तो इससे स्त्री के जीवन में अधिक उदारता और संवेदनशीलता आ सकेगी, उसकी मानसिक शक्तियों का अधिक से अधिक विकास हो सकेगा तथा उसे अपने कर्तव्य की गुरुता का भार, भार न जान पड़ेगा । यदि सामाजिक रूप से इसकी उपयोगिता जाँची जावे तो हम देखेंगे कि स्त्री का साहित्यिक सहयोग साहित्य के एक आवश्यक अंग की पूर्ति करता है । साहित्य यदि स्त्री के सहयोग से शून्य हो तो उसे आधी मानव-जाति के प्रतिनिधित्व से शून्य समझना चाहिए । पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परन्तु यथार्थ के अधिक समीप नहीं । पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है, पर नारी के लिए अनुभव । अत : अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र वह हमें दे सकेगी पुरुष बहुत साधना के उपरान्त भी शायद ही दे सके ।

महिला-साहित्य के अतिरिक्त बाल- साहित्य के निर्माण की भी वह पुरुष की अपेक्षा अधिक अधिकारिणी है, कारण, बालकों की आवश्यकताओं का, उनकी भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियों का जैसा प्रत्यक्षीकरण माता कर सकती है वैसा पिता नहीं कर पाता । बालक के शरीर और मन दोनों के विकास के क्रम जैसे उसके सामने आते रहते हैं वैसे और किसी के सामने नहीं । अतः वह, प्रत्येक पौधे के अनुकूल जलवायु और मिट्टी के विषय में जानने वाले चतुर माली के समान ही अपनी सन्तान के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकती है ऐसे कार्य अधिक हैं जिन्हें करने में मनुष्य को आवश्यकता का अधिक ध्यान रखना पड़ता है, सुख का कम, परन्तु साहित्य यदि सत्य अर्थ में साहित्य हो तो उसका निर्माता सुख तथा उपयोग को एक ही तुला पर समान रूप से गुरु पा सकता है । स्त्री यदि वास्तव में शिक्षित हो तो अपने गृहस्थी के कामों से बचे हुए अवकाश के समय को साहित्य की सेवा में लगा सकती है और इस व्यवसाय से उसे वह प्रसन्नता भी मिलेगी जो आत्मतुष्टि से उत्पन्न होती है और वह तृप्ति भी जो परोपकार से जन्म पाती है । प्राय : सम्भ्रान्त व्यक्ति यह कहते हुए सुने जाते हैं कि उनके घर की महिलाएँ किसी योग्य नहीं हैं, परन्तु ऐसे सज्जनों में दो ही चार अपनी गृहिणियों को कुछ करने का सुयोग देने पर उद्यत होंगे । सम्पन्न गृहस्थी के घरों में भी स्त्रियों के मानसिक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया जाता । शरीर जिस प्रकार भोजन न पाकर दुर्बल होने लगता है, स्त्रियों का मस्तिष्क भी साहित्य-रूपी खाद्य न पाकर निष्क्रिय होने लगता है, जिसका परिणाम मानसिक जड़ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता । अपने अवकाश के समय सभी किसी न किसी प्रकार का मनोविनोद चाहते हैं और जिस मनोविनोद में सुलभ होने की विशेषता न हो उसे प्रायः कोई नहीं ढूँढ़ता । हमारे यहाँ स्त्रियों में साहित्यिक वातावरण बनाये रखने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया जाता, अतः यदि स्त्री की प्रवृत्ति इस ओर हुई भी तो अनुकूल परिस्थितियाँ न पाकर उसका नष्ट हो जाना ही सम्भव है।

प्राय : जिन वकील या प्रोफेसरों के पास उनके आवश्यक या प्रिय विषयों से सम्बन्ध रखने वाली हजार पुस्तकें होती हैं उनकी पत्नियाँ दस पुस्तकें भी रखने के लिए स्वतंत्र नहीं होतीं । इसे किसका दुर्भाग्य कहा जावे, यह स्पष्ट । हमारे यहाँ से है समाज की यह धारणा कि साहित्य का सम्बन्ध केवल उपाधिधारिणी महिलाओं है और उसकी सीमा अंग्रेजी भाषा तक ही है, बहुत कुछ अनर्थ करा रही है । हमें अब भी यह जानना है कि अपनी भाषा का ज्ञान भी हमें विद्वान और विदुषी के पद तक पहुँचा देने के लिए पर्याप्त हो सकता है और अपने साहित्य की सेवा भी हमें विश्व साहित्यिकों की श्रेणी में बैठा सकती है । यदि हम सुविधायें दे सकते तो हमारे घरों में ऐसा साहित्यिक वातावरण उत्पन्न हो सकता था, कठिन से कठिन कर्त्तव्य और कटु से कटु अनुभव को कोमल और मधुर बना सकता । अनेक व्यक्ति शंका करेंगे कि क्या ऐसे ठोक-पीटकर और पुस्तकालयों में बन्दी कर साहित्यिक महिलाएँ गढ़ी जा सकेगी! यह सत्य है कि प्रतिभा नैसर्गिक होती है, परन्तु उसका नैसर्गिक होना वैसा ही निष्क्रिय बना दिया जा सकता है, जैसे विकास की प्राकृतिक प्रवृत्ति से युक्त अंकुर को शिला से दबाकर उसे विकासहीन कर देना सम्भव है ।

हमारा साहित्य इस समय भी ऐसी अनेक महिलाओं के सहयोग से विकास कर रहा है जिनकी प्रतिभा अनुकूल परिस्थितियों के कारण ही संसार से परिचित हो सकी है । उनमें से ऐसी देवियाँ भी हैं जिनकी गृहस्थी सुख और सन्तोष से भरी है, जिनकी साहित्य-सेवा उनकी आर्थिक कठिनाइयों को दूर करती है और जो अपने जीवन-संगियों को उपयुक्त सहयोग देकर नाम से ही नहीं किन्तु कार्य से भी सहकर्मिणी हैं । ऐसे दम्पत्ति अब केवल कल्पना नहीं रहे जिनमें पति-पत्नी दोनों की आजीविका साहित्य-सेवा हो या जहाँ एक भिन्न क्षेत्र में काम करके भी दूसरे की साहित्य-सेवा में सहयोग दे सके । जिन्होंने उच्च शिक्षा पाकर शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र को अपनाया है ऐसी महिलाओं का भी नितान्त अभाव नहीं। फिर सुविधा देने पर और अधिक बहिनें क्यों न अपने समय का अच्छा से अच्छा उपयोग करेंगी ? यह चिन्ता कि उस दशा में गृह की मर्यादा न रहेगी या स्त्रियाँ न माता रहेंगी न पत्नी, बहुत अंशों में भ्रान्तिमूलक । साहित्य के नाम पर हमने कुछ थोड़े- से सस्ते भावुकता भरे उपन्यास रख लिये हैं, जिन्हें हाथ में लेते ही हमारी बालिकाएँ एक विचित्र कल्पना-जगत का प्राणी बन जाती हैं और उसी के परिणाम ने हमें इतना सतर्क बना दिया है कि हम साहित्यिक वातावरण को एक प्रकार का रोग समझने लगे हैं, जिसके घर में आते ही जीना कठिन हो जाता है । उपयोगी से उपयोगी वस्तु का गुण भी प्रयोग पर निर्भर है, यह कौन नहीं जानता ! हम संखिया जैसे विष को भी औषधि के रूप में खाकर जीवित रह सकते हैं और अन्न जैसे जीवन के लिए आवश्यक पदार्थ को भी बहुत अधिक मात्रा में खाकर मर सकते हैं । यही साहित्य के लिए भी सत्य है । हम उसमें जीवन-शक्ति भी पाते हैं और मृत्यु की दुर्बलता भी । यदि हम उसे जीवन का प्रतिबिम्ब समझकर उससे अपने अनुभव के कोष को बढ़ाते हैं, उसे अपने क्षीण दुर्बल जीवन के लिए आशा की सञ्जीवनी बना सकते हैं तो उससे हमारा कल्याण होता है । परन्तु इसके विपरीत जब हम उससे अपने थके जीवन के लिए क्षणिक उत्तेजना मात्र चाहते हैं तब उससे हमारी वही हानि हो सकती है जो मदिरा से होती है । क्षणिक उत्तेजना का अन्त असीम थकावट के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता ।

परन्तु स्त्री को किसी भी क्षेत्र में कुछ करने की स्वतंत्रता देने के लिए पुरुष के विशेष त्याग की आवश्यकता होगी । पुरुष अब तक जिस वातावरण में साँस लेता रहा है वह स्त्री को दो ही रूपों में बढ़ने दे सकता है, माता और पत्नी । स्त्री जब घर से बाहर भी अपना कार्य- क्षेत्र रखेगी तो पुरुष को उसे और प्रकार की स्वतंत्रता देनी पड़ेगी, जिसकी घर में आवश्यकता नहीं पड़ती । उसे आने-जाने की, अन्य व्यक्तियों से मिलने-जुलने की तथा उसी क्षेत्र में कार्य करने वालों से सहयोग लेने-देने की आवश्यकताएँ प्रायः पड़ती रहेंगी । ऐसी दशा में-पुरुष यदि उदार न हुआ और प्रत्येक कार्य को उसने संकीर्ण और सन्दिग्ध दृष्टि से देखा तो जीवन असह्य हो उठेगा! वास्तव में खी की स्थिति के विषय में कुछ भी निश्चित होने के पहले पुरुष को अपनी स्थिति निश्चित कर लेना होगा । समय अपनी परिवर्तनशील गति में उसके देवत्व और स्त्री के दासत्व को बहा ही ले गया है, अब या तो दोनों को विकासशील मनुष्य बनना होगा या केवल यन्त्र ।

1934

('शृंखला की कड़ियाँ' से)

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