घणी गई थोड़ी रही : हरियाणवी लोक-कथा

Ghani Gayi Thodi Rahi : Lok-Katha (Haryana)

नाहरगढ़ की रियासत का नाम देस-परदेस के कलावन्तों में कई पीढ़ियों से प्रसिद्ध था। लगभग सवा सौ साल पहले राजा वीरभद्र सिंह ने नाहरगढ़ के राज्य की नींव डाली थी। वह चित्रकला, संगीत व नृत्य का पारखी माना जाता था। उसके जमाने में कला व संस्कृति परवान चढ़ने लगी थी। तीसरी पीढ़ी में उसके पौत्र राजा धनंजय सिंह के जमाने में तो देस-परदेस के कला-कर्मी आते थे। अपनी कला के जौहर दिखलाते और मान-सम्मान तथा पारितोषिक पाकर धनंजय सिंह की जय-जयकार करते हुए अपने घर जाते। उस जमाने में राजा-प्रजा दोनों पर ही कला का जनन सवार था। पर जैसा कि प्रकृति का नियम है, समय में बदलाव आता रहता है। राजा धनंजय सिंह के पुत्र विक्रम सिंह को कला व संगीत से कोई लगाव न था। विक्रम सिंह के राजगद्दी पर बैठते ही नाहरगढ़ में कला की तो मानो मौत हो गई। राजा का रुख देखकर प्रजा ने भी इस ओर से मुंह मोड़ लिया। राजदरबार की महफिल किंवदंतियां बनकर रह गई, क्योंकि राजा विक्रम सिंह ने कला व संगीत को पारिश्रमिक और प्रोत्साहन देना बिलकुल बंद कर दिया। इक्का-दुक्का तो बहुत मामूली इनाम पाकर दोबारा इधर कभी मुंह न करने की कसम खाकर ही जाते।

बनारस की प्रसिद्ध नर्तकी गौहरजान ने अपनी नानी से नाहरगढ़ की सखावत के बड़े किस्से सुने थे। नानी ने उसे रत्नजड़ित हार भी दिखाया था, जो महाराज धनंजय सिंह ने प्रसन्न होकर उसे बख्शीश में दिया था। बदलते माहौल से बेखबर आफत की मारी गौहरजान ने, विक्रम सिंह के दरबार में पेश होकर अपनी कला के प्रदर्शन की आज्ञा चाही। विक्रम सिंह भी उस दिन प्रसन्नचित्त था। अतः उसने आज्ञा दे दी।

एक घड़ी रात बीतने के बाद महफिल शुरू हुई। गौहरजान ने एक मदभरी अंगड़ाई लेकर नृत्य शुरू किया। पुराने दरबारी कलेजा थामकर रह गए। गौहरजान के पैरों में बिजली की चपलता थी। उसके शरीर की कमनीयता उसके साथ आए साजिंदों की लय और ताल से मिलकर एक आलौकिक, अद्भुत एवं अवर्णनीय माहौल बना रही थी। पुराने कला-पारखी बहुत दिनों बाद अपनी सुध-बुध खो बैठे थे। मंत्रमुग्ध दर्शकों को आभास ही न हुआ कि रात कब आखरी पहर आ पहुंची, परन्तु जैसा कि नियम है, राजा बख्शीश न दे तो और कोई बख्शीश कैसे दे? साजिंदों की समझ में ही न आ रहा था कि क्या हो रहा है? इनाम मिलता न देखकर उनका धैर्य जवाब देने लगा था, परन्तु गौहरजान की तन्मयता व चपलता में कोई अंतर न था। वह इस मुग्ध भाव से नाच रही थी, जैसे काले बादलों के छा जाने पर मोर नाचता है। तभी एक जवान तबलची की ताल लड़खड़ाई। गौहरजान के थिरकते पांव थम गए। फिर उसने संभलकर जवान तबलची की ओर देखकर तौड़ा उठाया और नृत्य फिर प्रारंभ कर दिया। तौड़े के बोल थे,

‘घणी गई थोड़ी रही, वाह भी बीती जाय।
कह नटी सुन तबलची, ताल चूक न जाय।’

कला-पारखी दरबारियों ने दर्दभरी आवाज सुनकर राजा विक्रम सिंह की तरफ देखा परन्तु वह तो पत्थर की मूरत बना बैठा था। गौहरजान ने जब तौड़े को दोबारा गाया तो उसकी आवाज में दुनियाभर का दर्द था। तौड़ा खत्म होते-होते एक गजब हो गया। महफिल व राजदरबार के नियमों की परवाह न करते हुए, एक हृष्ट-पुष्ट अधेड़ साधु ने अपना एकमात्र कंबल, जो वह सर्दी की रात में ओढ़े हुए था, उतारकर नर्तकी को बतौर बख्शीश पेश कर दिया।

उसके तुरन्त बाद ऊपर जनवासे में चिक के पास बैठी राजकुमारी ने अपने गले से कीमती हार उतारकर नर्तकी पर न्यौछावर कर दिया। राजकुमारी के बाद उसका भाई सोनभद्र कैसे पीछे रहता? उसने अपनी हीरे-पन्ने की अंगूठी गौहरजान को दे दी। दरबारियों को मौका मिला। फिर तो जिसके मन में जो आया, वह उसने गौहरजान को दे दिया। राजा विक्रम सिंह जला-भुना तो बहुत, परन्तु अपनी इज्जत की खातिर उसे भी बख्शीश देनी पड़ी। महफिल चरम सीमा पर पहुंचकर समाप्त हो गई। साजिंदे सामान समेटने लगे। दरबारियों ने “घणी खम्मा अन्नदाता” कहकर रुखसत ली। परन्तु राजा विक्रम सिंह ने उस अधेड़ साधु, राजकुमारी, राजकुमार तथा नर्तकी को वहीं रोक लिया। सबके चले जाने के बाद राजा ने उस अधेड़ साधु से पूछा, “बाबा सर्दी की इस रात में तुमने एकमात्र कंबल इस नर्तकी को क्यों दिया?” साधु कहने लगा, “महाराज! गौहरजान के रूप और सौन्दर्य ने मुझे इतना मुग्ध किया था कि मैं संन्यास छोड़कर दोबारा गृहस्थ बनने की सोचने लगा था, परन्तु जब उसने वह तौड़ा उठाया,

‘घणी गई थोड़ी रही, वाह भी बीती जाय।
कह नटी सुन तबलची, ताल चूक न जाय।’

तो मुझे लगा कि मैंने सारी उम्र भगवान के भजन में गुजार दी और अब जिंदगी के अंतिम हिस्से में गृहस्थ के मोहपाश में बंधने जा रहा था। मुझे गौहरजान की यह सीख अच्छी लगी। अतः मैंने प्रसन्न होकर, जो कुछ मेरे पास था इसे दे दिया।”

अब राजा ने वही प्रश्न राजकुमारी से पूछा। राजकुमारी पहले सकुचाई। फिर बोली, “पिताश्री! क्षमा करें, मेरी आयु लगभग अट्ठाइस वर्ष की हो चुकी है। मेरी सभी सखियां विवाह करके आनंद ले रही हैं। मगर आपने अभी तक मेरे स्वयंवर की नहीं सोची। मैंने मन बना लिया था कि मैं सेनापति के लड़के के साथ भाग जाऊंगी, परन्तु नर्तकी के तौड़े ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि आज नहीं तो कल आप मेरे स्वयंवर की सोचेंगे। अतः मुझे कुल पर यह कलंक नहीं लगाना चाहिए। अतः मैंने गौहरजान को अपना हार भेंट में दे दिया, जिसने मुझे कलंक से बचाया।”

सवाल दोहराए जाने पर राजकुमार ने उत्तर दिया, “पिताजी! क्षमा करें। मैं पैंतालीस वर्ष का हो गया हूं। कहने को युवराज हूं, परन्तु मेरे अधिकार क्या हैं? हर छोटी-से-छोटी बात की आज्ञा मुझे आपसे लेनी पड़ती है। मैं जिंदगी से ऊब गया था, मैंने आपका कत्ल करके राजगद्दी पर कब्जा करने का मन बना लिया था, परन्तु नर्तकी के तौडे ने मुझे समझाया कि पिता वृद्ध हैं, उनकी उम्र जा चुकी है। अतः गद्दी आज नहीं तो कल मुझे मिलेगी ही।”

राजा विक्रम सिंह ये बातें सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि गीत-संगीत का प्रभाव इतना भी हो सकता है। नर्तकी ने उस सवाल का जवाब इस तरह दिया, “महाराज! इनाम मिलता न देखकर जवान तबलची का धैर्य टूटने से उसकी ताल टूटने लगी थी। अपने तौड़े से मैंने उसे सीख दी थी कि इनाम तो मिलता ही रहता है। अगर कभी इनाम न भी मिले, तो कला की इज्जत के लिए उसे धैर्य नहीं खोना चाहिए।”

राजा विक्रम सिंह ने अगले दिन राजदरबार में तीन घोषणाएं की :-

1. राजकुमारी का विवाह सेनापति के लड़के के साथ किया जा रहा है।
2. गौहरजान को राजनर्तकी नियुक्त किया जाता है।
3. राजकुमार ज्ञानभद्र को राजगद्दी देकर वे स्वयं उस साधु के शिष्य बनकर संन्यास ले रहे हैं।

इस तरह नाहरगढ़ में गौहरजान की बदौलत कला व संस्कृति का मान-सम्मान लौट आया।

(डॉ श्याम सखा)

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