गेरुआ बाबा (हिंदी उपन्यास) : गोपाल राम गहमरी

Gerua Baba (Hindi Novel) : Gopalram Gahmari

-: 1 :-

“सुपरिंटेंडेंट साहब हैं?”

“ऑफिस में जा ऑफिस में।”

हाथ में एक लिफाफा लिये हुए एक लड़के ने पूछा, फिर भीतर से दाई का जवाब पाकर कहने लगा, “किधर, ऑफिस है किधर?”

“आमर! बौड़दा! ऑफिस नहीं जानता। कैसा आदमी है?” कहती हुई एक दाई निकल आई।

दाई आई तो थी अनखायी हुई, लेकिन सामने एक सुंदर लड़के को हाथ में चिट्ठी लिये देखकर हँसती हुई बोली, “लाओ देखें तो किसका है?”

पढ़कर उसने लड़के को लिफाफा लौटा दिया। कहा, “हाँ, सुपरडंट साहब का है। ले जाव! वह देखो फाटक दिखलाई देता है। उसी में ऑफिस है, जाव।”

लड़का ब्वॉय मेसेंजर था। दौड़ता हुआ ऑफिस में गया। एक महाशय कुरसी पर बैठे रजिस्टर उलट रहे थे। नमस्ते कहकर उसने चिट्ठी दी। जवाब में जो निकला, उनके कंठ से बाहर नहीं हुआ था कि लड़के ने कहा, “यहाँ अभिवादन लेने का दस्तूर नहीं है क्या?”

इस छोटे से लड़के का वज्र सा उलाहना कुरसीवाले को बेध गया। कहा, “नमस्ते के जवाब से अधिक जरूरी तो तुझको चिट्ठी का जवाब चाहिए। जाव उस कमरे में।”

लड़का चिट्ठी उठाकर यह कहता हुआ चला, “हाँ! तभी न! मैंने तो समझा था कि आप ही सुपरिंटेंडेंट हैं। जो सुपरिंटेंडेंट होगा, वह अभिवादन को इस तरह लात नहीं मारेगा, न तुम ताम ही करेगा।”

बात यह है कि वह कुरसी पर का बैठा हुआ ऑफिस का आदमी नहीं शहर का था, जिसका कोई पहचान का आदमी उसी कुरसी पर बैठकर काम करता था। लेकिन अभी तक वह आदमी नहीं आया था। इसी से वह अपनी पहचानवाले की कुरसी पर बैठ उसकी राह देखता था। इस आदमी का अनोखा स्वभाव था। जब इसको कोई सलाम करता, आपसी सलाम करता था। जब कोई आदाब कहता तो आदाब आप भी कहता। कोई गुडबाई करता तो आप गुडबाई करता था, लेकिन जब कोई नमस्ते कहता, तब यह कहता था कि हम नहीं समझते।

लेकिन लड़के के नमस्ते कहने पर अपनी वह बात भी भूल गया। और भीतर जाने का इशारा करके आप वहाँ से उठ खड़ा हुआ।

जब लड़का भीतर जाकर एक बड़े कमरे में पहुँचा। सामने ही बैठे एक गंभीर पुरुष को देखकर पूछा, “सुपरिंटेंडेंट साहब कहाँ हैं?”

“क्या काम है?”

लड़का, “चिट्ठी लाया हूँ।”

“किसकी है लाओ।”

माथ नवाकर उसने चिट्ठी दी। झट उन्होंने खोलकर पढ़ा। और उसी दम जवाब लिखा, “आपको आदमी भेजा गया है।”

लड़का जवाब लेकर चला गया।

-: 2 :-

हम वहाँ चिट्ठी भेजने और जवाब देनेवाले दोनों का कुछ परिचय देना चाहते हैं। शहर का नाम हम नहीं बतलावेंगे, न सन् न महीना या तारीख ही का पता देंगे। शहर का नाम अलकापुर कहेंगे। दिनों की बात हम कहते हैं, उन दिनों वहाँ सेवा समिति स्थापित हो गई थी। जो मेले-ठेले और समय-समय पर राजा-प्रजा दोनों को सहायता देती थी और लोगों के उसके काम पर बड़ी श्रद्धा-भक्ति थी। उसके मेंबरों की मुस्तैदी और परोपकार के कारण सब लोगों का उस समिति पर बड़ा विश्वास था। समिति में दो आदमी ऐसे थे, जो जासूसी का काम करते थे। इस कारण बड़े-बड़े लोग अपने संगीन मामले पुलिस में रपट करके उसी सेवा समिति के हाथ में सौंपते और सफलता पाकर जी से प्रसन्न होते और उनके काम करनेवालों को पुरस्कार देते थे। आज जो चिट्ठी आई वह भी इसी तरह की थी। उसमें इतना ही लिखा था कि आप अपने गेरुआ जासूस को फौरन भेजिए, बहुत ही जरूरी काम आ पड़ा है।

समिति में एक विकट जासूस थे जो ऐसे ही भेद भरे गूढ़ मामलों में छोड़े जाते थे। वह सदा गेरुआ पहने रहते थे। इससे सब लोग उनको गेरुआ बाबा कहा करते थे।

सुपरिंटेंडेंट ने गेरुआ बाबा को बुलाकर वह चिट्ठी दे दी और लड़के को जवाब देकर विदा किया।

इधर, गेरुआ बाबा भी रवाना हो गए। जब वह चिट्ठी भेजनेवाले मुरलीधर के दरवाजे पहुँचे, तब देखा कि मुरलीधर शहर से बाहर सदर में रहते हैं। पता मिला कि नौकरी से पेंशन लेकर उन्होंने बड़े लंबे-चौड़े मैदान में तीन महल का मकान बनाया है। मकान के चारों ओर कोई चार बीघे में एक सुंदर बाग लगवाया है। बड़े हॉल के बगलवाले कमरे में एक सफेद संगमरमर के टेबल के सामने कुरसी पर बैठे एक महाशय मानो किसी की राह देखते हैं। उज्ज्वल गोरा बदन देखने से ही जान पड़ता है कि कोई भाग्यवान आदमी हैं।

उन्होंने पूछा, “आप सेवा समिति से आए हैं?”

“जी हाँ।”

तब आदर से बिठाकर कहने लगे, “आपसे मैं एक अद्भुत घटना बयान करता हूँ। आप दया करके इसका पता लगाइए।”

“आप सब आदि से अंत तक कह जाइए।”

“मेरी एक लड़की है। नाम उसका प्यारी है। उसकी शादी दो साल बीते सेठ दुर्गाप्रसाद के लड़के मूलचंद से कर चुका हूँ। लड़की का वहाँ उसके गुणों से बड़ा आदर है। सास ने हीरे-मोती के जड़ाऊ गहने बहुत भेजे थे। हीरे का एक जड़ाऊ हार, एक सिरबिंदी, एक जोड़ा कान का और एक नाक का गहना था। एक बड़ा हीरा जड़ा जूड़े का चंदवा, एक चंपाकली सब मिलाकर तीस हजार का माल था। उस सनीचर को न जानें किस कुसाइत में यहाँ पहुँचा कि कल शुक्रवार को रात को सब गायब है।”

गेरुआ, “तो मुझे उन्हीं गहनों का पता लगाना होगा क्या?”

“जी हाँ, मैं आपको अच्छी तरह खुश करूँगा। आप इन गहनों का पता लगा दीजिए। देखिए ये गहने चढ़ाव के हैं। इनके नहीं मिलने से मेरी कितनी बदनामी है, सो आप समझ सकते हैं।”

अब गेरुआ बाबा ने उन चोरी की गई चीजों का नाम, दाम, वजन, रंग सब अच्छी तरह ऐसा लिख लिया कि देखते ही पहचान सकें।

फिर मुरलीधर ने उनसे कहा, “एक बात बड़े अचरज की है कि चोर गहनों का बॉक्स यहीं फेंक गया है। उसके देखने से जान पड़ता है कि जोर करके वह खोला गया है। मैंने आदमियों को तो अच्छी तरह घुमा-फिराकर, हिला-डुलाकर जाँच लिया है। इनसे कुछ पता नहीं चलता।”

गेरुआ, “चिंता नहीं।”

मुरलीधर, “दो बात मैं आपसे कहना चाहता हूँ। किसी को मैंने अभी तक वह नहीं कहा।”

गेरुआ, “कहिए।”

मुरलीधर, “पहली बात तो यह है कि गहनों के बॉक्स के किनारे पर खून लगा था। मालूम हुआ कि जल्दी में खोलते समय बॉक्स का कोना खोलनेवाले की देह से लगने से खून निकला है और मेरी लड़की की एक लौंडी, जिसका नाम फेंकनी है, उसके हाथ में भी कट जाने का दाग है। यह लौंडी अभी हमारे यहाँ नई आई है। इसके ऊपर जरा खयाल रखता हूँ, लेकिन अगर उसी ने चुराया है, तो रंग-ढंग से कुछ भी पहचानी नहीं जाती। दूसरी बात यह है कि मेरी छोटी लड़की, जो नव बरस की है, आज यह एक हीरा मेरे पास लाई है।”

यही कहकर मुरलीधर ने एक हीरा जासूस के आगे निकालकर रख दिया।

गेरुआ बाबा ने देखा कि बड़ा चमकदार और दामी हीरा है। आकार में छोटा होने पर भी चमक-दमक से वह अँधियारे घर का उजियाला है।

मुरलीधर, “इसको वह कहती है कि लौंडी फेंकनी के कमरे में बॉक्स के नीचे मिला है। यह उन्हीं गहनों में से एक में जड़ा था। मालूम होता है, उससे उखाड़ लिया गया है।”

गेरुआ, “अच्छा जिस कमरे में यह सब गहने थे, उसको एक बार हम देखना चाहते हैं।”

अब मुरलीधर गेरुआ बाबा को प्यारी के कमरे में ले गए। उन्होंने कमरे को अच्छी तरह देखा। उनकी समझ में नहीं आया कि भीतर कैसे आदमी आया होगा, क्योंकि बाहर से ऊपर चढ़ने के लिए कुछ उपाय नहीं था। एक खिड़की से एक फव्वारा तीन-चार फीट की दूरी पर पानी फेंक रहा था, लेकिन वह बहुत पतला था। यहाँ तक कि बहुत बोझ भी नहीं ले सकता था। अगर कोई उस पर चढ़ता, तो सब लिये-दिए गिर जाता और कोई भी उपाय बाहर से ऊपर चढ़ने को नहीं था। सब देख-सुनकर गेरुआ बाबा ने एक बार उन सब लोगों को देखने का इरादा किया, जो उस घर में रहते थे। अब सब लोग बारी-बारी से आने लगे और जासूस उनको कुछ पूछ-पाछकर विदा करने लगे।

इससे मुरलीधर की लड़की प्यारी को भी आना पड़ा। दो-चार बात ही गेरुआ बाबा ने उससे पूछी, लेकिन उतने में प्यारी का चेहरा फक हो गया था। उसने जासूस से कहा, “मैं तो बहुत हैरान हूँ, कैसे क्या हुआ! देखिए इस कमरे में एक ही तो दरवाजा है, इसके सिवाय जिस चाबी से यह बंद था, वैसी चाबी भी किसी की नहीं थी। इसके जोड़ की चाबी नहीं है और चाबी मैं खास अपनी जेब में रखती हूँ।”

गेरुआ, “आप जब रात के आठ बजे पीछेवाली दालान में गईं, तब आपके गहनों का बॉक्स कपड़ों के बॉक्स के ऊपर ही था?”

प्यारी, “हाँ!”

इतना सुनने पर गेरुआ बाबा ने दीवार को अच्छी तरह नीचे-ऊपर देखा कि क्या जाने कोई चोर दरवाजा हो, लेकिन कहीं कुछ भी पता नहीं चला। न छत में ही ऐसा कहीं रोशनदान या छेद मिला, जिससे बाहर का आदमी भीतर आ सके।

यह सब अच्छी तरह देख चुकने पर फेंकनी लौंडी उनके सामने आई। वह पश्चिमी हिंदुस्तान की रहनेवाली थी। उसका चेहरा घूरकर जासूस ने कहा, “यह तो बतलाओ लौंडी कि जब रात को गहनों का बॉक्स चोरी गया, उससे पहले ही तुम्हारे हाथ में यह जख्म था या पीछे हुआ?”

सुनते ही फेंकनी का रंग उतर गया। वह कुछ सेकेंड तक गेरुआ का मुँह ताकती रह गई। फिर उन्होंने पूछा, “जख्म होने और खून गिरने की बात याद है या नहीं?”

लौंडी, “याद क्यों नहीं है साहब?”

गेरुआ, “और गहनों के बॉक्स पर भी खून गिरा है। अच्छा बतलाओ तुम्हारे हाथ पर यह खून कैसे लगा?”

लौंडी, “एक आलपिन के गड़ जाने से यह खून निकला है।”

इतने में मुरलीधर के मुँह से निकला, “बेतहाशा, अरे तू निकल गया।” गेरुआ बाबा ने रोक दिया। और आप लौंडी का हाथ उलट-पुलटकर देखने लगे। मालूम हुआ कि एक जख्म है और वह आलपिन या सूई सी पतली चीज से नहीं हो सकता।

अब गेरुआ बाबा ने वह हीरा दिखाकर पूछा, “अच्छा, तुम्हारे कमरे में तुम्हारे बॉक्स के नीचे यह कैसे गया?”

लौंडी अचकचाकर कई सेकंड तक वह हीरा देखती रही। फिर चकित होकर कहने लगी, “आपने इसको मेरी कोठरी में पाया है क्या?”

इस समय उसका चेहरा देखकर कुछ और अटकल तो नहीं हो सका। उन्होंने जवाब में कहा, “हाँ, हाँ।”

अब तो लौंडी हाथ जोड़कर आँखों में आँसू भरकर जासूस से विनती करने लगी, “देखिए साहब! आपकी बातों से मालूम देता है कि मुझे ही आप चोर समझ रहे हैं, लेकिन मैं इस मामले में बिल्कुल बेकसूर हूँ। जिसकी कहिए, उसकी कसम खाकर मैं कह सकती हूँ कि मैं बिल्कुल बेगुनाह हूँ। बबुई का गहना किस बॉक्स में वहाँ रहता है, मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। अगर मुझे मालूम हो तो उसे बचाऊँगी कि ऐसी नमकहरामी करूँगी। हमारी दोनों आँखें फूट जाएँ, जो हमको कुछ भी मालूम हो तो!”

प्यारीबाई भी उसी कमरे में मौजूद थी। लौंडी की ओर होकर बोली, “नहीं, लौंडी पर मेरा पूरा विश्वास है। और वह उस घर में जाएगी कैसे? ताला बंद था। यह कहें कि चाबी की नकल उसने बनवा ली थी, तो वह बात भी नहीं है।”

जासूस ने चाबी माँगकर देखी, तो वह एक नए ढंग की थी। जब तक उसकी छाप मोम से लेकर दूसरी नकल न तैयार की जाए, तक तब ताला हरगिज नहीं खुल सकता।

जब लौंडी की पूछताछ हो चुकी, उस कमरे से और सब लोग विदा कर दिए गए। जासूस ने कहा, “गहनों को बरामद करना और चोर को पकड़ना दो काम हैं और दोनों के लिए समय दरकार है। और यह घटना ऐसी है कि जल्दी पता लगने का ढंग नहीं है। मैं चाहता हूँ कि घर का कोई आदमी घटना का हाल कहीं किसी पर जाहिर न करे। अखबार वगैरह में भी खबर न छपे। आप इन सब बातों पर ध्यान रखिए।”

मुरलीधर, “अच्छा, फेंकनी को आपने कैसा पाया?”

गेरुआ, “वह तो हमको बेगुनाह मालूम देती है।”

मुरलीधर, “आप ऐसा क्यों समझते हैं?”

गेरुआ, “मुझे तो ऐसा ही मालूम देता है। खैर, अब मैं जाता हूँ। जब जरूरत होगी, आपसे मिलूँगा या खबर दूँगा।”

यही कहकर जब गेरुआ बाबा बाहर निकले, तो बगल के एक कमरे से एक बुढ़िया सामने आई। और जासूस को इशारे से बुला ले गई। उसके घर जब गेरुआ बाबा जाकर बैठे तो उसने पूछा, “आपने फेंकनी से बातचीत की है?”

गेरुआ, “हाँ, जो कुछ पूछना था, सो तो पूछ लिया।”

बुढ़िया, “तो जवाब पाकर आपने उसको कैसा समझा है?”

गेरुआ, “मुझे तो लौंडी बेकसूर मालूम हुई।”

बुढ़िया, “तब गहने से वह हीरा कैसे गिरकर उसकी कोठरी में जा पड़ा?”

गेरुआ, “आपको हीरा की बात पहले से ही मालूम है क्या?”

बुढ़िया, “मैं इसी हीरे की बात नहीं, साहब बहुत सी बातें जानती हूँ। किसी से कहा नहीं, आपको गंभीर आदमी देखकर कहती हूँ, क्योंकि यह सब बातें पहले से जाहिर हो जाने पर असल चोर खबरदार हो जाएगा और माल भी न मिलेगा। उस सनीचर की रात बड़ी भयावनी थी। फेंकनी उस अँधेरे में किसी मर्द से बात करती थी। जरा दूर थी, इससे मैं सब बातें तो नहीं समझ सकी, लेकिन मर्द की दो-एक बातें सुनने में आईं। वह कहता रहा कि प्यारी की कौन खिड़की बगीचे की ओर खुली है।”

इसके बाद कुछ देर तक बुढ़िया चुप रही। गेरुआ बाबा ने कहा, “सब बातें कह जाव, रुकती क्यों हो?”

बुढ़िया बोली, “उसके बाद की बातें समझ में ठीक से नहीं आईं। लेकिन एक और मामला मैं बतलाती हूँ, जिससे मालूम होगा कि दोनों किस गरज से वहाँ अँधेरे में मिले थे। वह बात यह है कि कल जब पहर रात बाकी थी तो बगीचे के किनारे किसी की आहट मिली। मालूम हुआ कोई तेजी से दौड़ा जाता है। फिर साँय-साँय, फुस-फुस सुनाई दिया। इतना मैंने बहुत धीरे-धीरे सुना, ‘तब अंत में यही हुआ कि जान नहीं बचेगी।’

“उसके बाद ही मैंने देखा कि एक आदमी किनारे-किनारे दौड़ा जाता है। बादल हट गए थे, अँधियारे पाख की दशमी का चाँद निकल आया था। उसी उजियाली में मैंने उस मर्द को दौड़ते हुए अपनी आँखों देखा था। वह बगीचे के फाटक की ओर गया था। उसका एक हाथ छाती पर था, जिसमें एक चमकता हुआ जड़ाऊ जेवर था। मैंने चाँदनी में उसकी चमक देखी थी, गहना बड़ा कीमती था। इसमें संदेह नहीं है।”

गेरुआ, “अच्छा, उस आदमी को आप पहचानती हैं या नहीं?”

बुढ़िया, “पहचानती क्यों नहीं, वह थे तो मूलचंद मुरली ही बाबू के दामाद।”

गेरुआ, “ऐं! प्यारी के मालिक ही थे?”

बुढ़िया, “हाँ, वही थे।”

गेरुआ, “वही गहना लिये जा रहे थे?”

बुढ़िया, “हाँ, और गहना प्यारीबाई का ही था। मैं सब गहना उनका पहचानती हूँ।”

गेरुआ, “तो क्या आप समझती हैं कि दामाद ही ने यह काम किया है?”

“मोको समझने-वमझने से कुछ मतलब नहीं। न मैं कभी उसको जानती हूँ कि ऐसा है। लेकिन जो आँखों से देखने में आया, वही आपसे कह दिया है। चोर-साहु आप जानें!”

जब गेरुआ बाबा ने बुढ़िया से यह सुना कि घटना आधी रात के बाद हुई है, तब दो-चार जरूरी बातें पूछने के लिए फिर प्यारी के पास लौट आए। देखा तो पीछे-पीछे वह बुढ़िया भी धीरे-धीरे चली आ रही है।

जब प्यारी के सामने पहुँचे, देखा तो वह उदास आँखों से ताक रही है। चेहरा सकपकाया हुआ है। गेरुआ बाबा ने पूछा, “अच्छा! पाहुन मूलचंदजी कब यहाँ आए थे?”

प्यारी, “कल सूरज डूबने पर।”

गेरुआ बाबा, “वह कब तक यहाँ रहे। रात भर तो ठहरे रहे न?”

प्यारी, “ना, ना! कल ही रात के दस बजे चले गए। कहते थे जल्दी विदेश जाने की साइत है।”

गेरुआ, “उनके जाने पर कितनी देर पीछे आपके गहने चोरी गए?”

प्यारी, “जब वह चले गए, तब मैं नीचे आई और थोड़ी देर पीछे ऊपर गई, देखा तो गहने नहीं हैं।”

गेरुआ बाबा, “जब आप संध्या को कल नीचे गई थीं, तब गहना था, इसमें तो कुछ संदेह नहीं है न?”

प्यारी, “नहीं, इसमें कुछ संदेह की बात नहीं है।”

गेरुआ, “आपने अपने कमरे से खिड़की की राह बगीचे में देखा था, कोई आदमी था?”

प्यारी, “मैं तो साहब खिड़की की ओर नहीं गई, न किसी को देखा ही था।”

गेरुआ, “अच्छा, आपके गहने मूलचंद ने देखे थे?”

प्यारी, “हाँ, देखे थे। और यह भी कहा था कि बहुत दामी हैं।” अब गेरुआ बाबा वहाँ से बाहर निकले, लेकिन आस-पास अच्छी तरह उन्होंने जाँचा। चारों ओर बगीचे में भी घूमे। यह भी देखा कि चहारदीवारी में किधर-किधर को दरवाजे हैं, लेकिन किसी को उनकी जाँच की कुछ खबर नहीं हुई।

यह सब देखकर गेरुआ जासूस सदर सड़क पर जब पहुँचे तो देखा फेंकनी बगीचे के फाटक से निकलकर तेजी से सड़क पार कर गई। मालूम हुआ कोई चीज छाती पर रखे है, लेकिन बड़ी ही सावधानी से छिपाए जा रही है। एक बार उसने वहाँ हाथ रखकर देखा कि है या नहीं। फिर बेफिक्र होकर चलने लगी।

गेरुआ बाबा भी झपटकर उसके पास पहुँचे और रोककर कहा, “सुन तो फेंकनी! सुन तो।”

“अरे! आप हैं। इधर कहाँ से?” कहकर फेंकनी खड़ी हो गई।

जासूस ने कहा, “यह चोली के नीचे चिट्ठी किसकी रखे है रे?”

फेंकनी, “कहाँ, चिट्ठी कहाँ? मैं चिट्ठी काहे रखूँगी? मोको कौन काम है?”

गेरुआ, “चलाकी मत कर फेंकनी। दिखा चिट्ठी किसकी है। ये दिखाए जाने नहीं पावेगी।”

फेंकनी फिर धीरे से बोली, “अरे कोऊ की छिपी चिट्ठी हो तब?”

गेरुआ, “अच्छा लिखा किसने है?”

फेंकनी, “कोऊ तो लिखे ही होगा न?”

गेरुआ, “बता तो कौन ने भेजा है?”

फेंकनी, “अरे, यह सब तो घरू बातें।”

गेरुआ, “अरे, बतलाती है सीधी तरह से कि नहीं?”

फेंकनी, “बबुई की तो है।”

गेरुआ, “किसको लिखा है?”

फेंकनी, “आप सब पूछ लेंगे?”

गेरुआ, “बोल! बोल किसको देने जाती है?”

फेंकनी, “अपनी सासरे को लिखिन हैं।”

गेरुआ, “अच्छा, देखें तो क्या लिखा है?”

अब फेंकनी बड़ी सकपकाई। गेरुआ ने कहा, “इधर-उधर मत कर, दे दे सीधे तरह से। जानती है हमको कि नहीं?”

फेंकनी, “जानने की बात नहीं, लेकिन कोऊ के भीतर की बात आप काहे वास्ते देखने को चाहत हैं?”

गेरुआ, “बस सीधे देती है कि हवालात जाएगी बोल।”

हाथ जोड़कर फेंकनी बोली, “न हुजूर? बबुई से कसम करके आई नहीं तो दिखा देती।”

गेरुआ, “अरे, सीधे देती है या हवालात में चलकर देगी? अच्छा चल तेरे कपड़े उतारे जाएँगे तब देगी। भलमनसाहत का जमाना नहीं है।”

जब फेंकनी ने देखा कि इन देवता से नहीं बच सकती, तब लाचार होकर दे दिया।

जासूस ने देखा उस पर मूलचंद का नाम लिखा है। झट उसे जेब में रखा और कहा, “देख, फेंकनी किसी से यह बात कहना मत। थोड़ी देर बाद ठीक समय पर जाना और कह आना कि चिट्ठी दे आई हूँ।”

अकचकाकर फेंकनी बोली, “अरे! इतना झूठ! बबुई से सब झूठ जाकर कहूँगी।”

गेरुआ, “नहीं कहेगी तो हवालात ही पसंद है?”

फेंकनी, “बाप रे बाप! हवालात।” कहकर फेंकनी चौंक उठी।

गेरुआ बाबा ने कहा, “नहीं, तो कहता हूँ सो सुन और जा जैसा कहता हूँ वैसा कर। नहीं तो जेल में भर दूँगा। तू समझती है कि नहीं?”

यही कहकर जासूस ने लिफाफा खोला। उसमें यों लिखा था—

“प्यारे! आप तो विदेश जानेवाले हैं, उसमें देर न कीजिए। चल दीजिए। जिन चीजों को देखकर आपने खुशी जाहिर की थी, उनकी बात क्या कहूँ, मेरा तो सर्वनाश हो गया। आपको बगीचे से जाती बेर देखा था। सब जानती हूँ। लेकिन अपने अभाग्य की बात क्या लिखूँ, जो होना था सो हो गया।

आप ही की

प्यारी”

चिट्ठी पढ़कर जासूस ने समझ लिया कि जिसको प्यारे लिखा गया है, उसको बड़ी चालाकी से खबरदार किया गया है। तो क्या मूलचंद ने ही यह कुकर्म किया है? क्या बात है? मूलचंद भले घर का लड़का है। चाल-चलन में खराबी की बात अभी तक नहीं सुनी गई। फिर ऐसा आदमी अपनी स्त्री के गहने क्यों चुरा लेगा, लेकिन परदेश जाना है, इसके खर्च के लिए कुछ दरकार हो तो इतना दामी माल की क्या जरूरत है? इसके सिवाय प्यारी ने उनको बगीचे से होकर जाते देखा है। जानती सब है, लेकिन कुछ किसी से जाहिर नहीं करती। जान पड़ता है पति की फजीहत और बेइज्जती से डरती है। सोचती है, जिसको पति के सिवाय जगत् में दूसरी गति ही नहीं, वह स्वामी का दोष कैसे जाहिर करेगी। खैर, अब देखना है आगे कौन कैसा उतरता है। ऐसी लिखावट को पाकर हाथ से खोना ठीक नहीं।

अब वहाँ से गेरुआ बाबा अपने ऑफिस की ओर चले। वहाँ पहुँचते ही सेवा समिति के सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण से भेंट हो गई। अलग एकांत में ले जाकर सब हाल उनसे आदि से अंत तक कह दिया।

अवधेश नारायण ने देखा कि मामला साधारण है। चोर पकड़ने का काम है। इस कारण इसमें गेरुआ बाबा का ही अकेले काम है। यही सोचकर उन्होंने कहा, “तो इसमें तो आप ही सब कर डालेंगे। कहिए, आपको संदेह किस पर आता है?”

गेरुआ, “ढंग से तो जान पड़ता है कि उसी मूलचंद का यह सब काम है।”

सुपरिंटेंडेंट, “और फेंकनी को आप इसमें नहीं समझते?”

गेरुआ, “हाँ, उसको तो मैं बेदाग देखता हूँ, लेकिन उसके हाथ का जख्म देखकर मैंने उस पर भी नजर रखने का ठीक प्रबंध कर दिया है।”

सुपरिंटेंडेंट, “ठीक है, आप जो कार्रवाई उचित समझते हैं, कीजिए। इसके लिए और किसी की कुछ जरूरत नहीं है। अगर कभी काम पड़े, तो फौरन कहिएगा। लेकिन एक बात मैं आपसे कह देना चाहता हूँ। मुरलीधर के पहले का हाल इस मामले में दरकार होगा। इस कारण याद रखिए कि दस बरस हुए उनकी स्त्री मर चुकी है। वह उनकी प्यारी स्त्री थी। उनको यह बहुत मानते थे। यहाँ तक कि दुलार का फल बुरा हुआ। और इनके मित्रों में से एक के साथ वह निकल गई। उस समय वह गर्भिणी थी। नाम उनका देवीबाला था। कुछ दिन तक देवीबाला का पता नहीं लगा। एक बार अपने पेट से जन्मे हुए एक लड़के की बात उन्होंने मुरली बाबू को लिखी थी। मुरली ने उस लड़के को लानेवाले के लिए बहुत इनाम देने का लोभ देकर ढिंढोरा पिटवाया था, लेकिन कहीं उसके लड़के या उसकी माँ का फिर पता नहीं चला। यहाँ भी उन्होंने अपना निवेदन-पत्र भेजा था। उसके बाद दो साल हुए उन्होंने अपनी लड़की प्यारीबाई का विवाह किया। ब्याह किसी भले घर के पात्रा से किया है, लेकिन ब्याह के थोड़े ही दिन पीछे उनकी समधिन का देहांत हो गया। अब घर का वही लड़का बेमाथे का मालिक हुआ।

बाप ने रुपया पैदा किया था, लेकिन एक तो एकलौता लकड़ा पिता के आदर-दुलार ने दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था। इस कारण जो कुछ बाप छोड़ गए थे, उससे उसका चलना कठिन हुआ। खाली खाना, पहनना तो किसी तरह चल भी सकता था, लेकिन बेटा अपना विलास घटाता नहीं। यह सुना था, इधर का हाल नहीं जानता। इतना और मालूम हुआ कि उसकी कोई नौकरी लगी है या लगनेवाली है। मुरलीधर भले आदमी हैं। बतछोड़ धनिकों में उनकी गिनती नहीं है। लेकिन मिजाज उनका कड़ुवा है। और वह कड़ुवाहट इसलिए कि उनका हाथ तंग हो चला है। इतनी बातें जानने लायक हैं, इसलिए कह दिया।”

ऑफिस से बाहर आकर गेरुआ बाबा ने यह मन में ठीक किया कि कैसे कौन सूत धरकर चलना चाहिए।

इधर-उधर खोज-पूछ करके गेरुआ बाबा ने पता पाया कि मूलचंद फिशिंग रिक्वेसिटीज कंपनी के यहाँ नौकरी करते हैं, लेकिन तलब कम है। काम नहीं चलता। इस कारण दूसरी अच्छी नौकरी की खोज में हैं। लाहौर में एक नातेदार अच्छे दर्जे पर हैं। उनके वसीले में उन्हें एक नौकरी मिलनेवाली है। इसी से जल्द लाहौर जानेवाले हैं। अपने शहर में थोड़ी तलब से भी इसीलिए नौकरी कबूल की थी कि घर पर रहेंगे। दिन भर काम करके थके-माँदे घर तो पहुँचेंगे, लेकिन जब संग के चुहेड़े और चिबिल्लों के साथ उतने रुपए से निबाह नहीं देखा, तब बाहर जाने की सूझी। पहले यह भी समझा था कि धन-कुबेर के यहाँ ब्याह हुआ है। वहाँ से भी कुछ मिला करेगा, लेकिन उधर तो आप ही हाथ तंग हो रहा था। इसी कारण सब ओर से निराश होकर नातेदार के जरिए पश्चिम जाने की तैयारी करने लगे।

-: 3 :-

पहनाव-पोशाक से सोलहो आने नई रोशनी के जेंटिलमैन होकर एक महाशय तीसरे पहर को मूलचंद के दरवाजे पर पहुँचे। कोई है, कोई है, कहके पुकारने पर भीतर से एक खिदमतगार हाथ का कारिख झाड़न में पोंछता हुआ बाहर आया। उससे पूछने लगे, “बाबू हैं?”

नौकर बोला, “जी नहीं, ऑफिस गए हैं।”

“कब आएँगे?”

नौकर, “आते तो पाँच बजे हैं, लेकिन आज कुछ ठीक नहीं है।”

“क्यों, ठीक क्यों नहीं?”

नौकर, “आज उधर से ही बाजार करने जाएँगे। बाहर जानेवाले हैं?”

“बाहर जानेवाले हैं सो तो मालूम है, इसीलिए हम आए हैं। उनसे भेंट करना बड़ा जरूरी है।”

नौकर, “कहाँ से आए हैं आप?”

“आता तो हूँ यहीं से। बाजार कितनी देर में करेंगे, क्या मालूम नहीं है? तुमको कह नहीं गए कि कोई आएगा?”

नौकर, “नहीं साहब! यह तो नहीं कह गए हैं।”

“यह क्या हुआ! इतनी जल्दी भूल गए। खैर, जल्दी में हैं। लेकिन मुझको तो उनसे भेंट करनी ही होगी।”

नौकर, “तो आप आइए, बैठिए।”

“हाँ, यही ठीक है।” कहकर वह महाशय भीतर गए। वहाँ बैठक में आसन देकर नौकर चला गया। अब तो वह महाशय बिजली की तेजी से अपना काम करने लगे। कमरे की सजावट, पयंदाज के बाद वाले कालीन की कारीगरी, मखमली कौच की शोभा, दीवारों पर लटकती हुई तस्वीरों की सुंदरता, किसी ने उनको अपनी ओर नहीं फेरा। वह कुरसी के पास वाले टेबल के पास जाकर खड़े हुए और जेब से स्क्रू ड्राइवर निकाल, उसके पेंदे का ताला खोल डाला। जब दराज बाहर खींचा तब उसके भीतर की सब चीजें सामने आईं। सोने का एक ठोस पछुआ मिला, जिसके मुँह बाघ के थे और हर मुँह पर असल नीलम की आँखें लगी थीं। एक चंद्रहार देखा, जिसके बीच का चंद्रमा मानो निकल जाने से जगह खाली हो गई थी, लेकिन आस-पास और बहुत से हीरे-मोती, नीलम-पुखराज करीने से जड़े थे। देखने पर वह महाशय मन में कहने लगे, ‘फिहरिस्त में जो बयान जेवरों में दिए गए हैं, वे इन्हीं के जरूर हैं। जब इसी का उखाड़ा हुआ फेंकनी की कोठरी में मिला है, तब क्या यही समझें कि वह भी इसमें शामिल है। लेकिन मुरलीधर तो कहते हैं, फेंकनी के किसी काम में अभी कुछ पकड़ नहीं मिली है। इसके सिवाय प्यारीबाई का भी फेंकनी पर बड़ा विश्वास है। जान पड़ता है कि बड़ी खबरदारी से इसने गहने चुराए और नीचे फेंक दिए। मूलचंद उनको लेकर चलता बना। फेंकनी के हाथ में घाव है, वह बॉक्स खोलने में ही लगा जान पड़ता है। ऐसा नहीं हो सकता कि बाहर का चोर इस तरह बंद मकान में आकर चोरी करेगा। घर में फव्वारे के ऊपर से गए बिना और कोई उपाय ऊपर चढ़ने का नहीं। खैर, है चाहे जो हो। कुछ तो पता चला। गहना जहाँ का तहाँ ही रहना ठीक है। और गहने कहीं

बेचने या बंधक देने का सुभीता तो है ही नहीं। मैं सब सुनार और सर्राफों को खबरदार कर चुका हूँ। बंधक माल रखनेवालों से बंदोबस्त कर ही दिया है। इसको यहाँ से हटाने में ठीक नहीं है। वह खबरदार हो जाएगा।’

यहाँ यह बतलाना दरकार नहीं होगा कि यह महाशय जो मूलचंद के बैठक में हैं, खुद गेरुआ बाबा जासूस ही हैं। उन्होंने यही सब सोच-विचारकर जहाँ का माल तहाँ रहने दिया और टेबल का दराज ज्यों-का-त्यों बंद करके स्क्रू चढ़ाकर बाहर आए। नौकर से कहा, “देरी तो बहुत हुई यार! अभी आए नहीं।”

नौकर, “हाँ, यह तो कही दिया था कि कुछ ठीक नहीं कि कब आएँगे।”

“अच्छा मैं जाता हूँ, एक चिट्ठी टेबल पर लिखकर रख दी है। उनसे कह देना एक जरूरी काम के वास्ते गए हैं। चिट्ठी दे गए हैं। होगा तो लौटती बेर मैं मिलता जाऊँगा, तब तक तो वह आ ही जाएँगे।” यही कहकर वह देवता वहाँ से चल दिए।

-: 4 :-

गेरुआ बाबा जब वहाँ से लौट गए, तब थोड़ी देर पीछे मूलचंद अपने घर लौट आए। नौकर ने कहा, “एक बाबू आपसे भेंट करने आए थे, कहते थे बड़ा जरूरी काम है। आप पछाँह जानेवाले हैं, इसी से आपसे मिलने आए हैं।”

मूलचंद, “नाम क्या था?”

नौकर, “नाम तो नहीं बता गए और हम भी पूछना भूल गए।”

अकचकाकर मूलचंद ने कहा, “अरे कौन आदमी था! कुछ पता तो चले। हमारे पछाँह जाने से उसका या किसी का कौन मतलब है? मुझे तो कुछ याद नहीं आता।”

नौकर, “अच्छा फिर लौटती बेर भेंट करते जाएँगे, कह गए हैं और एक चिट्ठी भी लिखकर टेबल पर रख गए हैं।”

मूलचंद, “तो भीतर भी आए थे? कितनी देर रहे? तू कहाँ रहा?”

नौकर, “बड़ी पहर तक बैठक में आपकी राह देखते रहे। हम तो बैठा के काम को चले गए थे।”

नौकर की पिछली बात सुनकर मूलचंद मन में डरे और उसको डाँटकर बोले, “अरे, तू कैसा अहमक है रे! जिसको जानता-ओनता नहीं, उसको घर में बिठाकर कहाँ चला गया था? चाहता तो सब मूस ले जाता न? जब घर में बिठाया, तब काहें नहीं बैठा रहा? चला क्यों गया रे बेहूदा कहीं का!”

अब मालिक की डाँट पर नौकर की बोलती बंद हो गई। उसने अपना अपराध समझा और कई दिन पहले पड़ोस के एक मकान से भी कोई बेजान-पहचान का आदमी मालिक के सूने में आकर, पहचानवाला बना और मालिक का नाम लेकर कुछ चीजें ले देकर चंपत हो गया था। सो याद करके पछताने लगा।

अगर वह भी वैसा ही चोर हो और मालिक का कुछ माल लेकर चला गया हो, तब उसकी क्या गति होगी, यही सोचकर नौकर को बड़ी चिंता हुई। उसने सोचा कि चाहे कुछ चीज किसी तरह चोरी जाए, उसी पर कलंक लगेगा। ठीक—मजा मारे गाजी मियाँ धक्का खायँ डफाली का मामला हुआ।

अब नौकर अपना अपराध मानकर हाथ जोड़कर मालिक के सामने खड़ा हुआ। उसका भाव देखकर मूलचंद को भी पड़ोस की चोरीवाली बात याद आई। झट जाकर उन्होंने टेबल खोला और देखा तो सब माल जहाँ-का-तहाँ जैसे-का-तैसा रखा था।

अब मूलचंद का चित्त ठिकाने आया, क्योंकि पहले यह जानकर बहुत डरे थे कि कोई चोर पता पाकर सब माल हाथ मारने आया था, लेकिन जब सब ठीक-ठिकाने पाया, तब बड़ी तसल्ली हुई।

अब इतनी चिंता रह गई कि कौन उनसे भेंट करने आया था, उसका कुछ पता नहीं लगा।

अब नौकर ने वही चिट्ठी दिखा दी। उसे देखते ही वह लिखावट देखकर बड़े चकराए। जरूर कोई ससुराल का आदमी आया था, लेकिन नौकर ऐसा नासमझ है कि उसका नाम-पता तक नहीं पूछ लिया।

अब चिट्ठी खोलकर पढ़ने पर मूलचंद के मन में बड़ी घृणा हुई। भीतर जो बातें लिखी थीं, उनसे उनके मन में क्रोध और दुःख दोनों हुआ। “सब मैं समझ गई हूँ। बगीचे से जाते देखा है।” क्या खूब? हमको गहना दिखाने के बाद ही सर्वनाश हो गया। इसका क्या मतलब! मुझे दिखाने से ही दुःख हुआ या क्या बात है? मेरे देखने ही की वजह से चोरी गया है, ऐसा समझती है क्या? हमीं पर संदेह है क्या?

ओफ! स्त्री के ऐसे कोमल हृदय में ऐसी घृणा का विचार भी हो सकता है। यह बड़े अफसोस की बात है। मन में बड़ा डर हुआ। क्यों मेरी विपद और मेरे अपमान के कारण डर होता है? इसका भी पता नहीं क्या अर्थ है? जो कुछ लिखना था, साफ खोलकर क्यों नहीं लिखा। एक बार चलकर सब हाल जानना चाहिए कि क्या बात है, लेकिन अगर सचमुच उसके मन में ऐसा विश्वास हुआ है, तब तो हरगिज जाना ठीक नहीं है। ऐसा छोटा खयाल जिनका है, जिनके मन इतने ओछे हैं, जिनके भीतर इतनी नीचता आ सकती है, उनसे मिलना और भेंट करना ठीक नहीं। हाँ! शादी किया है, तो उसे हटा देना तो नहीं होगा। और अभी तो भरोसा ही नहीं कि उसके मन में ऐसी भावना आ सकती है। अगर किसी तरह बने, तो छिपकर भेंट करना ही और सब भेद लेना चाहिए। जाना है तो क्या जाने से एक बार पहले भेंट करना ठीक होगा। लेकिन चिट्ठी ऐसी है कि जाने का मन नहीं करता।

यहाँ सब हाँ-नहीं और आगा-पीछा विचार कर मूलचंद ने अंत को एक बार ससुराल जाना ही ठीक ठहराया।

जब वह ससुराल पहुँचकर इधर-उधर चुपचाप टहलने लगे और मन में इस बात की चिंता करने लगे कि कैसे स्त्री से चुपके मिलें, तो देखते क्या हैं कि फाटक के पास फेंकनी खड़ी है। उन्होंने अटकल किया कि उनकी प्यारी ने ही उनकी टोह में उसे भेजा है।

मूलचंद ने उसे पुकारा। वह बोली, “अरे! आप हैं।”

मूलचंद, “हाँ, फेंकनी तोरी बबुई तो अच्छी तरह से हैं। हमको चिट्ठी लिखी थी, उनको डर काहे हुआ?”

फेंकनी को चुप देखकर फिर बोले, “देख, अपनी बबुई से बोल देना हम कल पच्छिम जाएँगे। अब इस घर में जाकर उनसे भेंट करने का मन नहीं करता। अगर वह हमको कुछ समाचार देना चाहें, तो घर पर बहन से पता पुछवाकर लिखें और कह देना अपने गहने वगैरह इतनी गफलत से न रखें। कीमती चीजें यों ही पड़ी रहने से खराब हो जाती हैं। यह ले जाव अपनी बबुई को दे देना।”

यही कहकर उन्होंने अपनी जेब से एक हार निकालकर दिया। रात की चाँदनी में वह चमचमा उठा। फेंकनी उसे देखते ही चौंक उठी और जोर से चिल्लाकर वहाँ से भागी।

मूलचंद उसका ढंग देखकर बड़े चकित हुए और बार-बार उसे पुकारने और कहने लगे, “अरे क्या हुआ फेंकनी! ले जा अपनी बबुई को दे देना। भागती क्यों है? पागल हो गई है क्या?”

इतने में एक आदमी ने आकर मूलचंद से कहा, “कहिए जनाब, हवास में हैं या कुछ नशा चढ़ गया है। पागल तो नहीं न हुए?”

अब मूलचंद ने पीछे देखा, तो एक विकटाकार आदमी हाथ में भुजाली लिये उनकी छाती पर चलाने के लिए तैयार है।

वह कब आया, किधर से आया, सो मूलचंद ने नहीं देखा। न उसके आने की आहट ही मिली। बात यह कि पंजे के बल बड़ी ही सावधानी से पीछे होकर आया था। अब वह दाँत पीसकर बोला, “कहिए, आप पागल तो नहीं न हुए?”

मूलचंद, “अरे! तेरा यहाँ क्या काम है रे बेईमान?”

“अरे धीरे! कोई सुन लेगा।”

मूलचंद, “सुनेगा तो सुने न। मैं तो सुनाना ही चाहता हूँ। तू दूर हो, सामने से चला जा।”

“खबरदार! खबरदार!!”

अब उस विकट आदमी का चेहरा गुस्से से लाल हो आया। बोला, “देखिए, हमको जल्दी जाना है।”

“तो बोलता क्यों नहीं? बोल, जल्दी बोल! जो कहना हो, सो कह के चला जा! जल्दी से।”

बात यह कि मूलचंद डरपोक आदमी नहीं थे।

उस दुष्ट के डराने से कुछ नहीं डरे। न एक पग भी पीछे हटे। लेकिन वह आदमी उनके इतना पास आ गया था कि उनको और तरह से खबरदार होने का अवसर नहीं था।

वह आदमी बोला, “मैं तो यही कहता था साहब कि आप पागलपना मत कीजिए। ऐसी कीमती चीज कपड़े में लपेटकर इस तरह खुले तौर से नहीं लाना चाहिए।”

मूलचंद, “नहीं चाहिए तो बला से! मुझे जो काम है सो किया है। तू अपना काम देख, तुझे इससे क्या मतलब है?”

“आप मेरी बात नहीं समझते। मैं कहता हूँ कि यह हार मुझे देकर आप जहाँ चाहिए, खुशी से जाइए। इसकी मुझे जरूरत है।”

“वहाँ तेरा सिर पहले काट लूँगा, तब कहीं जाऊँगा रे पाजी!”

“बस अब देर नहीं सही जाती। मैं एक-दो गिनता हूँ। जब पाँच कहूँगा और आप इसे मुझे नहीं दे चुकेंगे, तो यही छुरी आपके पेट में पैठ गई होगी।”

मूलचंद, “अरे बदमाश कहीं का। इतना लुचई तू करेगा, इतना साहस है तेरा।”

अब वह दुष्ट गिनने लगा, “एक, दो, तीन...”

उसके मुँह से अभी चार नहीं निकला था कि मूलचंद ने तेजी से उसके हाथ की छुरी का फल उलट दिया और जोर से दाबकर चाहते थे कि उसकी देह में भोंक दें। लेकिन वह था बड़ा मजबूत। मूलचंद जो चाहते थे, सो नहीं बना। उसने जोर से कसा और उलटकर उनकी देह में गड़ाया। वह घाव खाकर गिर पड़े। झट वह गुंडा हार लेकर वहाँ से चलता हुआ।

-: 5 :-

उधर, जासूस गेरुआ बाबा मूलचंद के मकान से चलकर अपना इरादा पक्का कर चुके कि जो चिट्ठी मूलचंद के टेबल पर रख आए थे, उसे पढ़कर वह क्या करता है, यह देखने की बड़ी जरूरत है। इसी ताक में आस-पास टहलते रहे। गहने की चोरी घर के भेदी से घर ही के आदमियों का काम हो सकता है। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि असल बात जासूस के ध्यान से अभी दूर हो। पहली बात विचारने को यह है कि मोहल्ले के लोगों से मूलचंद के चाल-चलन का पता लेकर उस पर सोलहो आना विश्वास कर लेना अथवा उस पर कार्रवाई करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि सब लोग समान नहीं होते। किसी से उनकी भीतरी मिताई होगी, किसी से उनकी पटती नहीं होगी। जिनसे बनती होगी, वे तो उनकी बड़ाई और गुणों के पुल बाँध देंगे और जिनसे नहीं बनती होगी, वे उनकी निंदा करेंगे, क्योंकि परायी निंदा ऐसे दुष्टों के लिए मीठी खुराक है। ये लोग सरसों को पहाड़ ही बनाकर सुनानेवालों के सामने पेश करके रह जाते हैं। खैर, लेकिन बिना जड़ की बातें भी गढ़कर किसी के ऊपर दाग देने की कोशिश में पीछे पाँव नहीं रखते। और जब ये लोग यह देखते हैं कि किसी अजनबी से बात कहने का अवसर है, तब तो असल बात से छुआछूत भी नहीं होने देते। कानून की पाबंदी करके फॉर्म भरना और सीधे-साधे अफसरों के आगे कारगुजार बन जाना दूसरी बात है। लेकिन असल बात को शत्रु-मित्र आदि के जंजाल से बाहर निकलना और बात है।

जासूस को जब से घटना का हाल कहकर काम सौंपा गया है, तब से कई बार मूलचंद का पीछा करके उन्होंने देखा है कि संदेह का सूत हाथ नहीं आता। एक बार उनके मन में संदेह आया था कि यह आदमी बड़ा गहरा है। इसी कारण ऊपर से भीतरी भेद नहीं मिलता या ऐसा भी हो सकता है कि हाथ तंग होने से ऐसा काम किया हो। क्योंकि ‘दरिद्रदोषेण करोतिपापम्’ लेकिन ऐसा होने की जगह बहुत ही कम है, क्योंकि जिस ढंग से मूलचंद काम चला रहे हैं, उससे वह नासमझे नहीं जान पड़ते, लेकिन आदमी बड़े खबरदार और चौकस जान पड़ते हैं। बहुत हिसाबी नहीं हैं तो भी जहाँ तक पता चलता है, बहुत देना भी नहीं है। ऐसे आदमी को चोर समझना बुद्धिमान आदमी का काम नहीं है।

इसके सिवाय जिस ऊँची चहारदीवारी से गहने चोरी गए थे, उसके देखते बाहर से चोर का आना और माल ले जाना बिल्कुल अनहोनी घटना है, लेकिन घर के भेड़ों से कहाँ क्या नहीं होता! फिर गहनों का बॉक्स हाते में ही खोला गया है। इससे जान पड़ता है कि चोर भीतर आया था। यह क्या फेंकनी की मदद से हुआ या यह भी एक चोरनी ही है? दाई बनकर भीतर इसी के लिए घुसी है।

मूलचंद का चाल-चलन ठीक समझ लेने पर इन बातों का अच्छी तरह निर्णय करना होगा। यह जासूस गेरुआ बाबा ने मन में पक्का कर लिया, क्योंकि उन्होंने समझ लिया कि इन बातों का असल भेद जाने बिना उस चोरी की जाँच में जाना मेहनत बेकार करना है।

यह सब विचार कर जासूस ने फिर आप-ही-आप कहा, ‘चाहे जो हो चिट्ठी पाने पर ऐसा अब नहीं हो सकता कि मूलचंद अपनी प्यारी से बिना मिले ही विदेश चले जाएँ। नौकर के जबानी तो मालूम हुआ कि कल ही वह रवाना होनेवाले हैं। तब आज ही वह ससुराल की गैल दौड़ेंगे, यह बनी बात है।’

इतने में जासूस देखते हैं, तो मूलचंद बड़ी तेजी से नागिनी महल्ले को चले जा रहे हैं। रात का समय होने से पास आकर देखते हैं, तो चेहरे पर चिंता की गहरी छाप है। झट गेरुआ बाबा भी थोड़ी दूरी पर उसका पीछा करने लगे।

जब मूलंचद ससुराल पहुँचकर फेंकनी से फाटक पर बातें कर रहे थे, तब थोड़ी दूर पर गेरुआ बाबा भी छिपे थे, लेकिन इतनी दूर पर थे कि दोनों की बातें नहीं सुन सकते थे।

उनका भाव देखकर फेंकनी पर गेरुआ बाबा ने संदेह किया, लेकिन बातें जब तक नहीं सुनें, तब तक असल मामला कहाँ समझ सकते थे। जब फेंकनी वहाँ से भागी और वह बदमाश छुरा लिये उन पर चढ़ दौड़ा, तब उन्होंने सब देखा था। लेकिन जब तक वह अपनी जगह से आए, तब तक वह गुंडा मूलचंद को घायल करके चलता बना।

गेरुआ बाबा ने पास पहुँचकर देखा, तो मूलचंद धरती पर गिरे पड़े हैं। चोट गहरी लगी है। खून जारी है। कमजोरी बहुत है। एकदम बेहोश नहीं, किंतु उठ नहीं सकते। जख्म बड़ा है। गेरुआ बाबा ने पूछा, “क्यों साहब! चोट बहुत तो नहीं लगी है न?”

“देखिए मैं तो देख नहीं सकता। यहीं मारा है हत्यारे ने।” यही कहकर अपना कंधा दिखाया।

गेरुआ बाबा कहने लगे, “क्या कहें चांडाल ने जब छुरा ताना, तब मैंने देखा था, लेकिन यहाँ आते-आते वार करके चला गया।”

मूलचंद, “वह बदमाश गया किधर?”

“वह भाग गया। यहाँ है थोड़े। अच्छा मैं पकड़ूँ, आप उठेंगे?”

ज्यों ही गेरुआ बाबा ने इतना कहा था कि मूलचंद के न जाने कहाँ हाथ पड़ा। वे चिल्ला उठे। फिर धीरे-धीरे खड़े होकर कपड़ा टटोलने लगे। देखा तो हार नहीं है।

पहले जासूस ने समझा कि जख्म की तकलीफ से ही मूलचंद चिल्ला रहे हैं। कहने लगे, “आप घबराइए नहीं। इस पाजी का पता लगाकर हम पकड़ेंगे जरूर। ऐसे चांडाल को सब काम छोड़कर पकड़ना होगा।”

मूलचंद, “हाँ, जरूर इस हत्यारे को पकड़िए।”

गेरुबा बाबा, “हाँ, मैं उसको छोड़ूँगा नहीं। उसकी करनी का फल जरूर देना होगा। ऐसा करना चाहिए कि जरूर वह इस पाप का दंड पावे।”

मूलचंद, “क्या कहूँ, मेरी ऐसी चीज वह ले गया है कि जिसको मैं जीते-जी छोड़ना नहीं चाहता था। उस चांडाल के लिए आप जो कहिए मैं करने को तैयार हूँ।”

गेरुआ, “क्या चीज है साहब? यह बतलाने में कुछ हरज है।”

मूलचंद, “नहीं, हरज नहीं है। लेकिन ऐसा करना होगा कि इससे वह माल लेना होगा।”

गेरुआ, “हाँ, हाँ, जरूर! पहले उसको गिरफ्तार करना होगा। फिर पीछे जो-जो करना होगा किया जाएगा। इस घड़ी सबसे पहला काम है आपके घाव की मरहम-पट्टी।”

अभी मूलचंद के कंधे से खून बह रहा था। जासूस ने कहा, “आपका घर यहाँ से कितनी दूर है? मैं चाहता हूँ कि कंधे पर चढ़ाकर आपको ले चलूँ।”

मूलचंद, “घर तो मेरा बहुत दूर नहीं है। रास्ते में गाड़ी मिल जाए तो ठीक है। कमजोरी बहुत है। मैं चल नहीं सकूँगा।”

गेरुआ, “मैं नहीं चाहता कि आप पैदल चलें। आपको कमजोरी बहुत है। चलने से फिर आपको बेहोशी आएगी। आप मेरे कंधे पर चढ़ लीजिए। रास्ते में जहाँ गाड़ी मिलेगी, वहीं उतर जाइएगा।”

मूलचंद, “नहीं साहब! बेहतर है आप एक गाड़ी लाइए, क्योंकि कंधे पर वहाँ तक पहुँचना नहीं हो सकता। न मैं पैदल ही चल सकता हूँ। इस कारण चाहे देर हो, लेकिन आप तकलीफ करके गाड़ी यहाँ ले आएँ तो बेहतर होगा।”

गेरुआ बाबा पंद्रह मिनट में गाड़ी लेकर आए। उनको सवार कराकर उनके घर पहुँचाया। नौकर को पासवाले डॉक्टर के यहाँ भेजा। वह गुडमैन कंपनी के यहाँ से एक डॉक्टर ले आया।

डॉक्टर ने देखा कि घाव गले के पास है, लेकिन उतना संगीन नहीं है। बोरिक लोशन से धोकर आइडोफार्म छिड़का और बोरिक कॉटन से पट्टी बाँध दी। साथ ही एक शीशी में स्पिरिट अमोनिया आरामेट, सिरपटि फोलियम कंपाउंड, मेग सलफर मात्रा में देकर आठ खुराक बना दिया और कहा, “दिन में दो बार पिया करें और पट्टी सबेरे-शाम बदल जाए करें। घर में रहें। बहुत हिले-डुले नहीं।”

यही सब कर-धरकर डॉक्टर चले गए। जासूस अभी उनके पास ही थे। उन्होंने धीरे से पूछा, “क्यों साहब! उस बदमाश को आप देखें, तो पहचान सकते हैं?”

मूलचंद, “जरूर! जरूर! उसको देखते ही मैं पहचान लूँगा। मुझे तो पंजाबी गुंडा मालूम हुआ।”

गेरुआ, “तो पुलिस में भी खबर दे देना तो अच्छा होगा। आपकी राय क्या है?”

मूलचंद, “हाँ, मैं इसके लिए जासूस भी लाऊँगा। लेकिन मैं पहले अच्छा हो लूँ तब, क्योंकि घर में कोई और आदमी नहीं है। महल्लेवासी को भी बुलाकर राय लूँगा। इस घड़ी रात बहुत गई है। इस समय कोई आएगा भी नहीं। अगर आप पुलिस में खबर देने की तकलीफ करते जाएँ, तो बड़ी दया होगी।”

गेरुआ, “पुलिस में क्या कोतवाली में रपट लिखाने को कहते हैं।”

मूलचंद, “हाँ, लेकिन कोतवालीवालों को तो घूँस खाने के सिवाय और कुछ काम नहीं है। काम के नाम ठनठन गोपाल है। बेहतर हो आप सी.आई.डी. के ऑफिस में जाकर सुपरिंटेंडेंट से इत्तला करें।”

गेरुआ, “सी.आई.डी. का ऑफिस तो इस घड़ी बंद होगा। अच्छा सबेरे सब काम छोड़कर हम पहले सी.आई.डी. में रपट लिखा देंगे।”

मूलचंद, “अच्छा सुनिए, बंद होगा, तो बेहतर है आप सेवा समिति में सीधे चले जाएँ। उनके यहाँ गेरुआ बाबा का बड़ा नाम है। वही इस काम में हाथ डालेंगे तो ठीक होगा।”

गेरुआ, “अच्छा मैं सेवा समिति में ही जाता हूँ। इधर ही से खबर देता जाऊँगा। उनका ऑफिस तो आठों पहर खुला रहता है। इसमें मेरी भी राय है।”

मूलचंद, “क्या कहें, आपको तो मेरे लिए बड़ी तकलीफ हुई। आप इतना मेरे लिए करेंगे, इसका कुछ भी भरोसा नहीं था। भगवान् ने बड़े भाग्य से आप ऐसे सज्जन को भेज दिया। आपका नाम मैं जानना चाहता हूँ। जिंदगी भर आपकी नेकी नहीं भूलेगी।”

गेरुआ, “नहीं! नहीं! ऐसी कुछ बात नहीं। आप पर जो उस घड़ी आफत आई थी कि छुरा लिये कसाई आपको हलाल करना चाहता था। वैसी दशा में पत्थर को भी आँसू आ जाएँगे। भला ऐसा आदमी कौन होगा, जिससे आपका वह दुःख देखा जाता। मैं अभी जाता हूँ, सेवा समिति में खबर दूँगा। यह बिल्कुल साधारण बात है। मेरे लिए और जो हुकुम हो, मैं तैयार हूँ। अगर आपको कुछ हरज न हो, तो मैं कल सबेरे देखने को आऊँगा।”

मूलचंद ने बड़ी नरमी से उपकार माना और हाथ जोड़कर निवेदन किया, “आपकी नेकी से मैं कैसे उऋण हूँगा! दुनिया में आप सरीखे बिना मतलब के उपकारी हैं, तभी तो यह धरती थमी है। नहीं तो इस शहर में कौन किसको पूछता है! पूछता है, तो खाली रुपए को, जिसके लिए एक देवता मेरी यह दुर्गति आपके देखते-ही-देखते कर गए हैं। अहोभाग्य जो इस संकट के समय आपके दर्शन मिले, लेकिन अब मैं नहीं चाहता कि मेरे ही लिए इतनी तकलीफ करें। हाँ, इधर से जब पधारिए, तब दर्शन जरूर दीजिएगा।”

गेरुआ, “नहीं! नहीं! आप तनिक भी संकोच न करें। न मन में कुछ दूसरा भाव लावें। मैं अच्छी तरह आपके पिता को जानता हूँ। उनके ऐसा परोपकारी इस शहर में कौन है? मुझे आपसे मिलने में बड़ी खुशी हुई है।”

मूलचंद, “नहीं साहब! मैं तो किसी लायक नहीं हूँ। न कभी किसी का उपकार किया। भगवान् ने ऐसी गरीबी दी कि अपना ही पेट पालना कठिन हो रहा है। अपने को तो मैं संसार का एक भार ही समझता हूँ। नहीं जाने बड़ो के किस पुण्य-प्रताप से आप ऐसे धर्मात्मा का इस अवसर पर दर्शन हो गया। आपको इतना कष्ट देने से मैं लज्जित हूँ। अब और तकलीफ देना नहीं चाहता। रात भी बहुत गई है।”

गेरुआ, “आप मेरे लिए कुछ भी चिंता और संकोच न करें। आराम कीजिए। मैं इधर ही से सेवा समिति में आपके नाम से निवेदन-पत्र देता जाता हूँ। आप किसी बात की फिक्र मत कीजिएगा। चोट आपकी इतनी गहरी है कि इस घड़ी आराम की दरकार है। चुपचाप बेखटके होकर सोइए। दिल में घबराहट वगैरह कुछ भी आने मत दीजिएगा। मैं जाता हूँ। कल सबेरे आऊँगा।”

इतना कहकर गेरुआ बाबा वहाँ से चलते हुए।

-: 6 :-

जब गेरुआ बाबा अपने ऑफिस में पहुँचे, बारह बज चुका था। सुपरिंटेंडेंट सामने बैठे सोच रहे थे। देखते ही बोले, “कहिए बाबाजी! कुछ काम बना या नहीं? एक चिट्ठी पड़ी है। जान पड़ता है मुरलीधर के यहाँ से आई है।”

गेरुआ, “काम तो बहुत कुछ रास्ते पर आ गया है। मूलचंद से खासी मित्राई हो गई है। उनको एक अच्छे जासूस की जरूरत है। वह गेरुआ बाबा को चाहते हैं, उनका नाम और यश उन्होंने बहुत सुना है। पहचानते नहीं हैं। इसलिए मुझे दूसरे ही रूप में जाना होगा।”

इतना कहकर गेरुआ बाबा चिट्ठी पढ़ने लगे। लिखनेवाली वही मुरलीधर की बहन नोखा बुढ़िया थी। उसने लिखा था—

“इस चोरी के मामले में आज रात को फेंकनी से बेजान-पहचान के आदमी ने जो बातें की हैं, वही लिखती हूँ। दोनों की बातचीत नीचे देती हूँ—

उसने कहा, “अरे! आ गई मेरी लक्ष्मी?”

फेंकनी, “तुमने कहा था कि आएँगे, तब आती नहीं तो करती क्या!”

“देखा, मैं अपनी बात तुम्हारे सामने कभी झूठी न पड़ने दूँगा।”

फेंकनी, “तो दे दो न वह कागज।”

“अरे, तो इतनी जल्दी काहे की पड़ी है?”

फेंकनी, “लाए हो या नहीं?”

“वह कागज मेरी जान के पीछे है, मैं उसको कहीं छोड़ता हूँ?”

फेंकनी, “तब देते काहे नहीं?”

“जब जून-बेरा होगी, तब न?”

फेंकनी, “बाप-रे-बाप! अब जून-बेरा कब होगी! तुमने कहा था कि प्यारी के घर में बगीचे से जाने को किस खिड़की से सुभीता होगा। सो मैंने बतला दिया और तुमने काम कर लिया। तुमने कहा था कि काम कर देने पर और कुछ करना नहीं पड़ेगा। न और कोई फरमाइश बाकी रहेगी। कागज चुपचाप दे दोगे। अब सब काम कर दिया। मेरी ओर से कुछ कसर नहीं है। तब तुम अपनी बात पूरी करने में क्यों कसर करते हो?”

“तुमने जो गहने बतलाए थे, उनमें से एक तो हई नहीं है।”

फेंकनी, “मैंने जो देखा था सो कहा था।”

“दो हार कहा था न?”

फेंकनी, “हाँ, हाँ।”

“लेकिन गबदू तो वह एक नहीं लाया!”

फेंकनी, “कौन चीज?”

“अरे, हार नहीं ले आया हार! वह ऐसा बच्चा तो है नहीं कि फेंक आएगा। वैसी दामी चीज कुछ सुई तो है नहीं कि सरक पड़ेगी। इससे जान पड़ता है कि तुमने इस बार धोखा दिया है। वह गबदुआ गदहा नहीं है। उसी का काम है कि तुमको वहाँ के गारद से निकाला था।”

फेंकनी, “अब तो दादा हमारा नाकन दम आ गया। अब हमसे तुम लोगों का हर हुकुम नहीं सहा जाएगा। कागज दे दो हमारा।”

“तो हमारा वह हार दे दो।”

फेंकनी, “हार-वार मो का जानों।”

“हैं बड़ी उस्ताद फेंकनी। कहीं छिपा रखा है तुमने।”

फेंकनी, “अरे, हुलास बरम्ह जानें, मैंने नहीं छिपाया है। मोरी दोनों आँख फूट जाएँ।”

“ठीक कहती है, नहीं छिपाया है।”

फेंकनी, “अरे! आँख से दुनियाँ में बढ़कर कौन चीज है! उसको भी तो खा लिया। अब क्या चाहते हो भोंकू?”

“मैं किरिया-कसम पर विश्वास नहीं करता फेंकनी। तुम तो जानती ही हो।”

फेंकनी, “वाह, तुम्हीं दुनिया में अरकी के बन के आए हो। यह सब जो काम किरिया-कसम पर होता है सब झूठ है।”

“झूठ हो चाहे जो हो, लेकिन मैं तो कसम पर विश्वास रत्ती भर भी नहीं करता। बल्कि जो कसम खाता है, उसकी सब बातें झूठी ही समझता हूँ?”

फेंकनी, “कैसे रे भोंकुआ?”

“कैसे की बात ऐसी कि जो लोग कसम खाते हैं, वह झूठी बात को सच कहकर बतलाने के वास्ते ही खाते हैं। नहीं तो जो सच कहता है, उसको किरिया खाने की कुछ जरूरत नहीं।”

फेंकनी, “चलो-चलो ढेर हुआ। वह हमारा कागज दो भोंकू। अब देर मत करो! कहे देती हूँ।”

उस बेजान-पहचान के आदमी ने कागज देने के बदले कुछ इशारे की सीटी बजाई और झट वहाँ से भागकर कहीं छिप गया। थोड़ी ही देर में मेरे भाई के दामाद मूलचंद वहाँ पहुँचे। अब फेंकनी से इनकी बात होने लगी, लेकिन थोड़ी ही देर पर फेंकनी चिल्लाकर वहाँ से भाग गई। क्या हुआ कुछ मालूम नहीं हुआ। मूलचंद भी फाटक से चला गया। यह सब देखकर मुझे मालूम देता है कि चोरों का एक दल है, मूलचंद उनका सरदार है। फेंकनी भी उसमें मिली हुई है। गबदू और भोंकू दो गुंडे मूलचंद के साथ हैं, जो उसी दल के अगिया-बैताल हैं, जो मुझे मालूम हुआ, सो आपको लिख दिया है। अब जो कुछ असल बात हो, उसका पता आप लगा लीजिए।”

चिट्ठी पूरी पढ़ चुकने पर जासूस ने समझ लिया कि मूलचंद के हाथ से जो हार गुंडों ने छीन लिया है, उसी की बात हो रही है। मूलचंद किसी के दल में नहीं हैं, न गबदू और भोंकू उनके साथी ही हैं। ऐसा होता, तो वह भोंकू मूलचंद का खून करने की कोशिश हरगिज नहीं करता।

यहाँ जासूस गेरुआ बाबा को बड़ी चिंता हुई। पहले उन्होंने सुपरिंटेंडेंट से सब हाल सुनकर यही समझा था कि साधारण चोरी का मामला है और उनको मेहनत करके चोर को पकड़ना होगा।

सुपरिंटेंडेंट ने भी यही समझकर अकेले उनको काम सौंपा था और मन में विचारा था कि यह तो गेरुआ बाबा के लिए बाएँ हाथ का खेल है। उनको इसमें और कुछ मदद या सहायक दरकार नहीं होगा। लेकिन ज्यों-ज्यों गेरुआ बाबा आगे बढ़ते गए, त्यों-त्यों मामला बड़ा गहरा, बड़ा पेंचदार और बड़ा संगीन होता गया।

सुपरिंटेंडेंट साहब से उन्होंने कहा, “यह मामला जैसा हम लोगों ने पहले समझा था, साधारण चोरी का नहीं है। इसमें बड़े-बड़े पेंच हैं।”

सुपरिंटेंडेंट, “जी हाँ, हमें भी ऐसा भरोसा नहीं था। समझा था कि साधारण मामला है। यह बात सही है कि चोरी बहुत कम की नहीं गई है तो भी मामला चोरी ही का है, लेकिन अब इतने दिन से आप इसी में उलझ रहे हैं, तब तो देखता हूँ कि बड़ा पेंचदार मामला है। आप कुछ सहायता देनेवाले चाहते हों तो खुशी से ले सकते हैं।”

“नहीं, साहब! सहायक अगर दरकार होगा, तो मैं आप माँग लूँगा। मुझे असलियत निकालना है और जब आप कोई सहायक इसमें देंगे, तो हमारे काम में खलल होगा। लाभ नहीं होगा, जब सहायक चाहिएगा, मैं निवेदन करके किसी को चुन लूँगा।”

“अच्छी बात है। आप अपना काम कीजिए।” यही कहकर सुपरिंटेंडेंट ने गेरुआ बाबा को विदा किया।

-: 7 :-

रात के तीन बज गए थे। मूलचंद के दरवाजे पर कई बार पुकारने पर दरवाजा खोलकर उनका नौकर बड़बड़ाता हुआ बाहर आकर बोला, “कौन है! रात भर सोने नहीं पाया। ज्यों ही आँख लगी कि फिर किवाड़ भड़भड़ाने लगा। क्या काम है? इतनी रात के जो चिल्लाकर कपार खाए जाते हो?”

अब तो पुकारनेवाले ने कहा, “अरे, तुम्हारे मालिक के फॉर्म के वास्ते आए हैं। खबर दो।”

नौकर, “वाह! बड़े कामवाले आए। मालिक को अभी डॉक्टर कह गए हैं सोने के वास्ते! हम हरगिज नहीं जगा सकते। ऐसी संगीन चोट लगी है कि जगाने से उनका बड़ा नुकसान होगा।”

“अच्छी बात है। अगर जगाने से नुकसान होगा, तो सोने दो। मैं उनका नुकसान नहीं चाहता। उनके भले के वास्ते आया हूँ। जाव तुम भी सो रहो। मैं यहीं बैठता हूँ। सबेरे भेंट करूँगा।”

नौकर, “तो हम किवाड़ खोलकर तो नहीं छोड़ देंगे। आप बाहर उसी चौकी पर बैठिए। जब सबेरा होगा, तब भेंट हो जाएगी।”

“सबेरा नहीं सबेरा का बाप हो, तो भी उनको जगाना मत खबरदार! जब आप ही जागें, तब खबर देना।”

नौकर, “अजी, आप ही न तब क्या हम उनको जगाने जाते हैं! जगाने को लाट साहब आवे, तो भी हम नहीं जगा सकते और तो कोई किस खेत की मूली है!”

“जाव तुम सो रहो, गुस्से में हो। मैं यहीं बाहर चौकी पर बैठता हूँ। तीन तो बज गया है। घंटे-डेढ़ घंटे में सबेरा होता है।”

नौकर चुपचाप चला गया। वह आदमी वहीं बाहर की चौकी पर बैठा रहा।

जब सबेरा हुआ, नौकर ने आकर किवाड़ खोले। देखा, तो वह महाशय चौकी पर ही बैठे हुए हैं। हाथ में रामडंडा है। पाँव में सलीमसाही जूता, सिर पर लखनऊ सूइकाढ़ की दुपलिया टोपी है। बदन चौड़ी मुहरी के पंजाबी कुरते से ढका है। धोती सादी किनारी की साफ-सुथरी देखकर नौकर मन में लज्जित हुआ कि ऐसे भले आदमी को नाहक मैंने नींद में उतनी बात कही और भीतर न बिठाकर बाहर चौकी पर डाल दिया। फिर अभी जो उस दिन बिना जाने-पहचाने को भीतर जाने दिया था, उस पर मालिक ने जो डाँट-डपट की थी, वह याद आई। तब मन का पछतावा जाता रहा। और पूछने लगा, “आपका नाम क्या है? कहाँ से आए हैं? मालिक पूछते हैं।”

जवाब में उन्होंने कहा, “कह दो मैं सेवा समिति से आया हूँ। गेरुआ बाबा ने मुझे भेजा है। नाम है मेरा मेटूलाल।

नौकर ने कहा, “वाह, नाम भी पाया तो मेटूलाल! ऐसे साफ, सुथरे और सुघड़ आदमी और नाम मेटूलाल! तब तो अच्छा हुआ, जो रात के मैंने भीतर सोने नहीं दिया, क्योंकि सबकुछ आप मेट ही जाते हैं। तब इसको कहाँ याद रखते!”

मेटूलाल, “क्या कहूँ माँ-बाप ने जो नाम दिया, उसी को न जिंदगी भर ढोना होगा, तुम्हारा नाम क्या है भैया?”

नौकर, “मेरा नाम पूछकर क्या कीजिएगा? जाता हूँ, मालिक से पहले आपकी खबर दे आऊँ।” यही कह वह झट से भीतर गया। लेकिन फिर तुरंत लौटकर कहने लगा, “क्या कहूँ साहब! मालिक की तो नींद लग गई है। थोड़ा बैठिए! जब उठेंगे तब बात होगी।”

मेटूलाल, “ओ अभी कहते थे मेरा नाम-पता पूछते हैं और फिर कहते हो, नींद लगी है, यह कैसी बात!”

नौकर, “बात ऐसी कि ज्यों ही कुनमुनाने लगे, मैंने कहा एक आदमी पहर रात के तड़के से आकर बैठे हैं। उन्होंने कहा क्या नाम है? कहाँ से आए हैं? तभी मैं पूछने के वास्ते आपके पास आया। जब लौटकर गया, तब देखा तो फिर नींद लग गई है। इससे जगाया नहीं है। बैठिए, कुछ जल्दी तो नहीं है न!”

मेटूलाल, “जल्दी तो है, लेकिन उनको तकलीफ देकर मैं अपनी जल्दी का काम भी पूरा नहीं करना चाहता। और सच पूछो तो भाई हमको उन्हीं के आराम होने की जल्दी है। अच्छा आओ तुम भी बैठो, बातें करें, तब तक जागेंगे न?”

वह नौकर आकर पास ही बैठ गया। उन्होंने पूछा, “कितने दिन से बाबू के यहाँ नौकरी करते हो भैया? तलब क्या है?”

नौकर, “तलब तो दस रुपया है, लेकिन खाली पिनसिन है। काम-वाम कुछ नहीं है, धोती धोना, नहलाना, कपड़े पहनाना, बस!”

मेटू, “और कितने आदमी नौकर हैं, तुम्हारे यहाँ?”

नौकर, “आदमी तो हैं चार-पाँच। एक रसोई बनानेवाली मिसराइन हैं, एक सौदा-सुलुफ के वास्ते कहार है, एक दरवाजे पर के वास्ते सिपाही है और एक जनाने में रहनेवाली लौंडी है। गौ को घास लानेवाला, दूध दुहनेवाला और सानी-पानी करनेवाला एक ग्वाला है।”

मेटू, “तुम कितने दिन से नौकर हो?”

नौकर, “हमको तो अभी बरस पूरा नहीं हुआ। अबकी दसहरे में साल पूरा होगा।” इतने में भीतर से पुकार सुनकर नौकर दौड़ गया। बात बीच में ही टूट गई। मेटूलाल ने जो बात ढीली थी, उसका मतलब भी पूरा नहीं हुआ।

-: 8 :-

पहले जिस चिट्ठी की बात हम कह आए हैं, जिसे लिखकर सेवा समिति में भेजा था और सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण ने गेरुआ बाबा को ऑफिस में पहुँचते ही दिखाया था। उस चिट्ठी को तो नोखा ने जब लिखकर एक लड़के के हाथ सेवा समिति में भिजवा दिया और आप सोने के लिए जाते समय मन में चिंता और दुःख करने लगी कि भाई का इतना सर्वनाश हो गया, जिससे मेरा निबाह होता था, जिसकी छाया में मैंने जिंदगी के बाकी दिन काट ले जाने का भरोसा किया था, उसकी यह गति हुई, तब मेरा दिन दूभर हो जाएगा।

इस समय वह बालक लौटकर आया और चिट्ठी पहुँचा आने का समाचार कहकर विदा हुआ। नोखा को फिर चिंता चढ़ी। फिर अपनी दशा विचारने लगी कि इतने में किसी के रोने-चिल्लाने की आवाज आई। फिर लोगों की दौड़-धूप और पाँव का धब-धब सुनाई देने लगा। नोखा भी घबड़ाकर कमरे से बाहर आई। जिधर से आवाज आई थी, उसी ओर चली।

प्यारी के कमरे में पहुँचकर देखती है, उनके बरामदे में सब पहुँचे हैं। मुरलीधर भीतर हैं। उनको घेरकर चारों ओर नौकर व लंग की मसहरी कट-फटकर गिरी है। जान पड़ता है कमरे में कुछ लोगों ने आपस में बड़ी लड़ाई और धींगा-मुस्ती की है। बेहोश होकर जो प्यारी गिरी है, उसके उघरे हुए दोनों हाथ जख्मी हैं। सिर के बाल बिखरकर धरती पर लोट रहे हैं। उसके उज्ज्वल ललाट पर भी रक्त का गोल दाग पड़ा है। और पास ही कमरे के फर्श पर भी वैसा ही दाग पड़ा है। फेंकनी मुट्ठी बाँधे पास ही बैठी है। वह चेहरे से बहुत डरी दिखाई दे रही है। रह-रहकर लंबी साँस लेती और चिल्लाती है।

मुरलीधर कुछ देर तक कमरे में खड़े अवाक् होकर यह सब देखते हैं। अंत को बेटी की वह दुर्दशा देख जो मन में उद्वेग और व्याकुलता हुई थी, उसके कुछ ठीक होने पर, “हे भगवान्! बुढ़ापे में यह भी होना था।” कहा। अब सब लोग उनके दुःख में हमदर्दी दिखाते हुए भीतर आए। चेहरे से जान पड़ा कि सब लोगों को हाल जानने की चिंता है।

मुरलीधर ने लंबी साँस लेकर कहा, “काहे बेटी! क्या हुआ! बोलो! बूढ़े बाप का मुँह देखो! बोलो बेटी!” यही कहते हुए उन्होंने कन्या का सिर अपनी गोंद में उठा लिया। लेकिन झट बहन नोखाबाई उनकी गोद से लेकर प्यारी का सिर अपनी जाँघ पर रखकर बैठी।

उसके बाद सन्नाटा रहा। नोखा ने प्यारी की नाड़ी पर हाथ रखा। देखा तो सूत की तरह कभी-कभी अपना वेग जता देती है। आँखें खुली हैं। लेकिन मुर्दे की तरह स्थिर और कांतिहीन नहीं हैं। गंड-देश मलिन और सूखे हुए नहीं हैं। दो-एक जगह लाली भी है।

नोखा ने सब देखकर वहाँ आई हुई स्त्रियों से कहा, “मरी नहीं! अभी जान है उठाकर पलंग पर रख देना ठीक होगा।”

अब वह उठाकर पलंग पर रखी गई। मुरलीधर उसके सिर के पास झुककर खड़े हुए कि होंठ वगैरह हिलें या आँखों की पलकें गिरें-उठें, लेकिन देर तक वे आँखें वैसी ही खुली रहीं।

कुछ देर और बीतने पर आँखों में प्राण भाव आया और होंठ काँप उठे। फिर धीरे-धीरे हिलने लगे। पलकें भी चलायमान हुईं।

मुरलीधर और झुककर पास गए और कुछ सुनने के लिए वैसे ही झुके रहे। थोड़ी देर पर बहुत धीरे-धीरे उन्होंने सुना, “वह गया?”

मुरलीधर, “कौन गया बेटी? किसको कहती हो?”

प्यारी, “वही शैतान?”

मुरलीधर, “यहाँ तो कोई शैतान-वैतान नहीं है?”

प्यारी, “नहीं है! सच कहते हैं बाबूजी?”

मुरलीधर, “हाँ बेटी! मैं तुम्हारे पास खड़ा हूँ। तब तक यहाँ किसका डर है? तुम्हारे सब अपने तो हैं!”

अब प्यारी का चित्त मानो ठिकाने आया। अपने दोनों हाथ उठाकर उसने पिता का हाथ पकड़ लिया और फिर चुप हो गई।

ऐसा जान पड़ा कि दो-चार बातें ही कहकर वह थक गई है। इस कारण देर तक वह बहुत शांत रही।

थोड़ी देर पर उसने आँख खोलकर कमरे में चारों ओर देखा और अकबकाहट दिखाकर फिर रोकर बोली, “जान बची। मेरे गहने कहाँ?”

मुरलीधर, “कहती क्या हो बेटी! गहने कहाँ रखे हैं?”

अब फिर प्यारी दुःखी हुई तो फिर शिथिल हो पड़ी। मुरलीधर ने कहा, “जरा पानी तो लाना। ललाट से लोहू अभी तक बह रहा है।”

इतना सुनते ही आदमी दौड़ पड़े। इधर नोखा बगलवाले कमरे में गई और एक चिट्ठी सेवा समिति को लिखकर द्वारपाल के हाथ देती हुई बोली, “जल्दी जा। कहीं रास्ते में जरा भी न ठहरना।”

उसके चले जाने पर मुरलीधर ने कहा, “बड़ी आफत की बात है। पुलिस में खबर देना चाहिए।”

नोखा ने कहा, “न-न! थाना-पुलिस का नाम नहीं।”

मुरलीधर, “क्यों? खबर देने में क्या हरज है? कहीं कुछ असल बात का पता नहीं लगता। लड़की बेहोश पड़ी है। कुछ बतला नहीं सकती। मैं तो समझता हूँ, कोई चांडाल मेरी प्यारी की जान लेने आया था। जरूर पुलिस में इत्तला देकर उस हत्यारे को पकड़वाना चाहिए।”

नोखा, “अभी पुलिस का कुछ काम नहीं।”

मुरलीधर, “पुलिस बिना दूसरा कौन यह सब करेगा?”

नोखा, “यह सब काम सेवा समिति ही से होगा। वे ही लोग जासूसी करके इसका भेद लगावेंगे। सरकार भी उनको बहुत मानती है और सब लोग उन लोगों के काम से बड़े खुश हैं।”

मुरलीधर, “अच्छी बात है। हम भी इस सलाह को पसंद करते हैं। बहन वहीं खबर भेजो। मेरा मतलब यही है कि चांडाल का पता लगाकर पकड़ना और उसे उसकी करनी का फल देना चाहिए।”

नोखा, “मैं वहाँ चिट्ठी अभी भेज चुकी हूँ।”

मुरलीधर, “अच्छी बात है बहन! तुमने बहुत अच्छा किया। इस आफत में मेरा तो चित्त ठिकाने नहीं है। मैं समझ ही नहीं सकता कि क्या करना चाहिए? कई बार जब संकट पड़ा है, तुमने बड़ी ही समझदारी का काम किया है। अच्छा अब जरा प्यारी को देख लो तो इसका जख्म कैसा है? बहुत संघातिक तो नहीं है?”

अब नोखा ने प्यारी के पास जाकर उसको अच्छी तरह देखा और पानी से बहते हुए खून को धोकर जख्म साफ कर दिए। जहाँ कपड़ा बाँधने लायक था, वहाँ कपड़े बड़ी सावधानी से बाँध दिए। फेंकनी ने इस अवसर पर बड़ा काम किया। नोखा ने अच्छी तरह सब देखभाल और अपनी जाँच पूरी करके भाई से कहा, “नहीं, संघातिक नहीं है।”

मुरलीधर, “कैसे यह सब हुआ, तुम कुछ समझती हो बहन?”

नोखा, “अभी जब तक यह आप नहीं उठती, तक तक की सब बातें खाली अटकल होंगी। लेकिन प्यारी ने जो धीरे से कहा था कि गहने क्या हुए, उसका मतलब कुछ समझे हो?”

मुरलीधर, “न बहन, वह मैंने सुना तो, लेकिन कारण समझ में नहीं आया कि क्या बात है?”

नोखा, “बात ऐसी-वैसी नहीं बहुत संगीन है। फिर यह दुनिया बड़ी टेढ़ी जगह है। बहुत सँभलकर चलना होगा। पुलिस में ऐसे मामले देने से बदनामी होती है। जहाँ तक हो, इसमें छिपे-छिपे काम करना होगा। और असल बात जानना असल अपराधी का पता लगाकर उसको दंड दिलाना यह तो हम लोगों का असल कर्तव्य ही है। लेकिन सब काम जरा समझ-बूझकर करना ठीक होगा। सेवा समिति प्रजा की ओर से होने पर भी उसके काम ऐसे हैं कि सरकार भी खुश है। और सरकार खुश भी ककक्‍क्यस न हो, बिना तलब-तनख्वाह के जो लोग काम कर रहे हैं और काम अच्छा कर रहे हैं, उन पर सरकार को जरूर खुश होना चाहिए। सरकार तो प्रजा ही का काम उचित रूप पर होने के लिए इतना खर्च करती है, लेकिन इतने पर भी जब काम वैसा नहीं होता, तब इसमें काम करनेवालों की भूल है। सरकार क्या करेगी? वह तो काम करने के वास्ते दाम देती है और लेकर जो नमकहरामी करते हैं और प्रजा का काम नहीं करते, वे ही अपराधी हैं। ये लोग इसी देश के आदमी हैं। सरकार को जहाँ तक करना है वह करती है, लेकिन इस देश के आदमी ही जब यहाँ की प्रजा को सताकर अपना भेट भरते हैं और यही अपना करतब समझते हैं, तब इसका कौन उपाय है। उसके लिए प्रजा-पालक सरकार का खुश न होना ही अचरज की बात है। यही सब विचारकर सेवा समिति की नेकनामी के भरोसे पर हमने वहीं खबर दी है। देखें वहाँ से कोई आदमी आ जाए और तब तक प्यारी को भी होश आ जाएगा। तब सब भेद खुल जाएगा।”

-:9:-

जब नौकर नोखा की चिट्ठी लिये हुए सेवा समिति के दरवाजे पर पहुँचा, तब सब लोग चले गए थे। सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण बाहरी बरांडे में टहल रहे थे । सर झुका हुआ था। मन-ही- मन कुछ चिंता कर रहे थे।

जब वह आदमी पहुँचा, तब उनकी चिंता का सोता रुक गया । उसको खड़ा देखकर पूछा, "कौन है ? "

“मैं बाबू मुरलीधर के मकान से आया हूँ । गेरुआ बाबा को खोजता हूँ ।"

सुपरिंटेंडेंट, "वह तो बाहर गए हैं। "

" उनके वास्ते एक चिट्ठी लाया हूँ ।"

सुपरिंटेंडेंट, " अच्छा चिट्ठी दे दो। जब वह आएँगे, उनको दे देंगे।"

"नहीं, सुपरिंटेंडेंट साहब को देने का हुक्म है। दूसरे को नहीं दे सकते।"

सुपरिंटेंडेंट, “मैं ही हूँ सुपरिंटेंडेंट । लाओ चिट्ठी ।"

'बहुत अच्छा।" कहकर उसने प्रणाम किया और चिट्ठी देकर अलग खड़ा हो गया ।

सुपरिंटेंडेंट ने वह चिट्ठी खोलकर रोशनी में पढ़ी, उसमें यों लिखा था-

'बाबाजी! आप तुरंत आइए। प्यारी को कोई अधमरा करके उसके कमरे में छोड़ गया है। वह बेहोश पड़ी है। आप आने में देर मत कीजिए।

नोखा ।'

पढ़कर उन्होंने कहा, “ अच्छा तुम जाव, मैं गेरुआ बाबा को जल्दी से भेजता हूँ। "

जब वह प्रणाम करके चला गया, तब सुपरिंटेंडेंट ने अपने नए बालदूत को बुलाया। यह अभी थोड़े दिनों से सेवा समिति में आया था। लड़का नौ या दस वर्ष का होगा, लेकिन चतुराई, तेजी और मुस्तैदी देखकर सुपरिंटेंडेंट ने उसे अपना खास बालदूत बनाकर रखा था । गुप्त संवाद कहीं भेजने की जल्दी और जरूरत होती थी, तब उसको बुलाकर सौंपते थे ।

उस जरूरी चिट्ठी को लिफाफे में डालकर उन्होंने नए लिफाफे में बंद किया और ऊपर लाल का नाम लिखकर बालक के हाथ पर रखा और मूलचंद के यहाँ ले जाकर गेरुआ बाबा को देने का हुक्म दिया। यह भी समझा दिया कि बड़ी खबरदारी से देना, जिसमें कोई ताड़ न सके।

लड़के ने, “बहुत अच्छा । " कहकर लिफाफा हाथ में लिया और अपना खाकी कुरता पहना। उसने डाक के ब्वॉय मेसेंजर को इधर आते-जाते देखकर उन्हीं के जैसा कुरता और दुरंगी मुरेठा सुपरिंटेंडेंट से हठ करके बनवाया था। बात यह कि सुपरिंटेंडेंट महाशय उसका बड़ा आदर करते थे। उसको होनहार देखकर अपने लड़के के समान प्यार से पालने लगे थे। जिस चीज के लिए मचलता था, उसको वह चीज देते थे । ब्वॉय मेसेंजर के जैसा कुरता और मुरेठा भी उसको बनवा दिया था। उसके वास्ते बढ़िया कमीज और किनारीदार काला फीता पाड़ की धोती भी खरीद दी थी। मारवाड़ी पगड़ी भी बनवा दी थी। बालक सबका सेट बनाकर कायदे से अलग-अलग रखता था। जब जैसी मौज आवे, तब तैसा वेश बनाकर रहता था या शहर में जाता था ।

उस घड़ी सुपरिंटेंडेंट का हुक्म सुनकर उसके मन में ब्वॉय मेसेंजर बनने की सूझ गई थी । ब हाथ में रसीद बही और लिफाफा लेकर बायसाइकिल पर सवार हो गया और मूलचंद के दरवाजे पर पहुँचा तो देखा खिदमतगार बैठा लैंप साफ कर रहा है और दरवाजे तिपाई पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा है। उसने लैंप साफ करनेवाले को पास बुलाकर पूछा, “यहाँ कोई मेटू बाबू आए हैं?"

"नाम तो नहीं मालूम, लेकिन एक मेहमान आए हैं। क्यों, क्या काम है बच्चा ?"

"अच्छा जरा लैंप रख दो और जाव बाबू से कहो उनसे भेंट करने को एक आदमी आया है।"

"वाह जी! तुम हो तो छोटे, लेकिन बातें बड़ो की-सी करते हो! "

“तुम जाव जल्दी। इस घड़ी छोटे-बड़े का पहचान मत करो। पहले सरकारी काम करो, पीछे बात। "

" तुम क्या कोई सरकारी काम करने आए हो?"

“हाँ! हाँ! तुम इसको नहीं समझोगे । जल्दी जाव, उनको खबर दो।"

लैंप साफ करनेवाला उठकर भीतर गया और थोड़ी ही देर में मेटूलाल आ पहुँचे। सामने ही तार का हरकारा देखकर उन्होंने उसकी रसीद बही में सही की और तार लेकर खोला । भीतर का लिफाफा देखकर कुछ चौंके। लेकिन वह भाव बड़ी सावधानी से भीतर ही दबाकर बोले, "अच्छा जाव। "

वह बालक 'नमस्ते' कहकर चलता हुआ । उसकी चलन और उसका चेहरा देखकर मेटूलाल मन में कहने लगे, 'लड़का जैसा सुशील है, वैसा ही चतुर है। रूप भी भगवान् ने अच्छा दिया है। उसका चेहरा किस आदमी से मिलता है, याद नहीं आता ! '

थोड़ी देर में आप-ही-आप उन्होंने कहा, 'हाँ! मुरलीधर से इसका चेहरा बहुत मिलता है। ठीक जैसे उनका र्ट एडिशन हो । जैसे कोई बहुत बड़ा फोटो सामने रखकर उसको नगीने में लगाने के लिए छोटी कॉपी उतारी जाए।'

-:10:-

" मालिक को खबर दो कि बड़ी रात से आकर कोई बैठा है। आप सोते रहे, इसी से भीतर नहीं आने दिया।” यह सुनकर तब वह उस पर बिगड़े और बोले कि " क्यों खबर नहीं दी तुमने और भीतर नहीं आने दिया क्यों ? "

"भीतर आने देने का फल तो पड़ोस में मिल ही गया है। इसी डर के मारे भीतर आने देने की हिम्मत नहीं हुई । "

मूलचंद, “तुमने अच्छा नहीं किया। मैं समझता हूँ, यह वही महाशय हैं, जिनको मैंने बुलाया था। जरूर यह गेरुआ बाबा होंगे।" वह नौकर अपनी भूल पर जब लज्जित होकर चुप रहा उसने कहा, "अच्छा! जाव बुला लाओ जल्दी । "

नौकर झट बाहर जाकर उनको बुला ले गया और उनको पास ही आसन देकर बिठाया ।

बैठते ही उन्होंने कहा, “आप ही गेरुआ बाबा हैं । "

"जी नहीं! मैं उनका दूत हूँ। उन्होंने मुझे भेजा है। वह एक जरूरी काम के वास्ते गए हैं। "

मूलचंद ने परिचय पाकर कहा, “जान पड़ता है गेरुआ बाबा ने आपको भेजा है। तब आप उनके बड़े विश्वासी हैं। अच्छी बात है, उन्होंने बड़ी कृपा की। मैं तो इस घड़ी बड़ी तकलीफ में हूँ। उनकी कृपा का धन्यवाद है।"

“ आप अब चिंता न कीजिए! अच्छे हो जाइएगा। जान पड़ता है, आपकी कोई कीमती चीज खो गई है। "

मूलचंद, " जी हाँ! वह तो मैं आपको कहता हूँ, लेकिन इतनी दया चाहता हूँ कि आप किसी से यह सब बातें जाहिर मत कीजिएगा । हाँ! जब माल मिल जाए और चोर का पता लग जाए, तब गिरफ्तार करने पर खुले इजलास में खोल दिया जाए तो कुछ हरज नहीं है। "

मेटूलाल, “कोई बात आपके कहने से बाहर नहीं होगी। आप कहिए।"

मूलचंद, " कहना तो यही है कि एक हार चोरी गया है। लेकिन यह हार मेरा नहीं है और है भी असल में जिसके पहनने की चीज, उससे न जाने कैसे अलग हुआ। लेकिन मेरे हाथ में वह एक अजीब ढंग से आ पड़ा। अफसोस है कि यह मेरे पास से भी चोरी गया। बात यह हुई कि जब मुझे मिला तब संध्या को मैं उसे प्यारी को लौटाने गया । वहाँ जाने पर बड़ी आफत आई। एक डाकू ने उसे छीन लिया और मेरी यह दशा कर दी। लेकिन जान पड़ता है मुरलीधर के घर पर हाथ मारने जा रहा था। अगर मैं बीच में नहीं मिलता तो, उन्हीं पर वह वार करता । "

इतना सुनकर मेटूलाल ने उनकी ओर अच्छी तरह देखा । और कहा, “मुझे साफ आपकी बात समझ में नहीं आई। इतना आपके बयान से मालूम होता है कि मुरलीधर के घर में कोई प्यारी नाम की है, उसका हार आपके हाथ पड़ गया है। मुरली बाबू का नाम तो शहर भर जानता है और उनकी कोठी भी मुझे मालूम है । लेकिन पूरा हाल उनकी चोरी जाने का और डाकू का चेहरा-मोहरा अच्छी तरह आप बतलावें, तो बड़ा काम हो । "

यही बातें हो रही थीं कि खिदमतगार ने पहुँचकर खबर दी कि डाकघर का हरकारा आपके वास्ते आया है।

इतना सुनते ही मूलचंद के पास से मेटूलाल उठकर चले आए। फिर उनसे जो बातें हुई ह सब तो हम लिख ही आए हैं।

अब नोखा की चिट्ठी में लिखी घटना की ही उन्हें सबसे अधिक चिंता थी । इसी से एक बहुत जरूरी काम आ पड़ने की बात कहकर उन्होंने मुहलत माँगी और झट वहाँ से चल पड़े।

मूलचंद, " नसीब की बात ऐसी है कि इस समय गेरुआ बाबा आप तो नहीं आ सके, लेकिन आपको उन्होंने भेजा, सो आपको भी किसी अधिक जरूरी काम के वास्ते जाना पड़ता है। अच्छा तो आप जब वहाँ से छुट्टी पावें, तब जरूर कृपा करें। "

तुरंत आने का वचन देकर मेटूलाल वहाँ से विदा हुए और एक जगह अकेले में जाकर गेरुआ बाबा बन गए।

जब मुरलीधर के मकान पर पहुँचे, वहाँ उनकी राह ही देखी जा रही थी ।

जब भीतर गए, मुरलीधर और आदमियों को विदा करके नोखा और फेंकनी के साथ प्यारी की खाट के पास ही बैठे थे। देखते ही बोले, “अरे! आप पर फिर आफत आई!”

मुरलीधर, "क्या कहें बाबाजी ! दिन बिगड़ते हैं, तब ऐसा ही होता है । देखिए आपके सामने ही सब है। इस बार तो सब चौपट हुआ देखते हैं। "

घर में चारों ओर तेज नजर डालते हुए गेरुआ बाबा ने कहा, "अच्छा, घटना तो बतलाइए। " मुरलीधर, "मैं तो बाहर के कमरे में था साहब! भीतर से चिल्लाहट सुनकर आया, तो मालूम हुआ कि प्यारी के कमरे से आवाज आती है। लेकिन दरवाजा बंद था। जब जोर किया, तब कब्जा टूट गया। भीतर घुस आया, तो सब चीजें तितर-बितर देखीं। लड़की नीचे खून से डूबी पड़ी थी। नहीं जानता किस चांडाल ने यह दशा की है। "

उनकी बात सुनकर गेरुआ बाबा ने उस घर के भीतर - बाहर चक्कर दिया और सब देखकर खिड़की खोल डालने पर भीतर - बाहर देखा । देखते-देखते दरीची पर खून से लदफद एक जगह छोटे पाँव का निशान मिला।

खिड़की के पास एक फव्वारा देखकर उसको अच्छी तरह जाँचा, तो मालूम हुआ कि उस पर आदमी नहीं चढ़ सकता । अगर कॉर्निस पर भार देकर उतरा हो, तो भी फव्वारे पर जोर पड़ेगा और वह बोझ से टूट जाएगा, लेकिन फव्वारे पर भी एक जगह खून भरे पाँव का दाग लगा है। इससे जान पड़ता है जरूर, वहाँ चांडाल ने पाँव रखा था।

मुरलीधर, " ढंग से तो यही दिखाई देता है कि फव्वारे पर से वह आकर उतरा है। लेकिन उनके भार से वह टूटा नहीं यह बड़ा आश्चर्य है । "

गेरुआ, “इन दोनों जगहों पर पाँव रखा है।"

मुरलीधर, "आप क्या समझते हैं? "

गेरुआ, “मैं समझता हूँ, जो इस पर चढ़ा था, वह आदमी नहीं है । "

अकचकाकर मुरलीधर ने कहा, "क्या, आदमी नहीं है।"

इसी समय फेंकनी बोली, "अरे, बबुई को चेत हुआ है।"

मुरलीधर पलंग के पास पहुँचे । गेरुआ बाबा जहाँ थे वहीं रहे। इसी समय नोखाबाई ने गेरुआ बाबा के पास पहुँचकर धीरे से कहा, “अब जान पड़ता है इस चोरी का भेद खुलेगा। एक बार प्यारी को कुछ चेत आया था । तब वह बोली रही कि अब समझ गई कि गहना उसका कहाँ गया है?"

उसी समय मुरलीधर ने गेरुआ बाबा को बुलाया। जब वह पलंग के पास पहुँचे तो फेंकनी उठकर मसहरी की आड़ में जा खड़ी हुई । उसका एक हाथ साड़ी की आड़ में जाकर तर्जनी और अँगूठे के सहारे किनारी की बत्ती बना रहा था, दूसरा आँचल सँभाल धड़कती हुई छाती को मानो दाबे था । चेहरे से डरी हुई जान पड़ती थी ।

मुरलीधर जब बेटी के पास पहुँचे तो प्यारी ने उनका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने उसका सिर सँभालकर तकिए पर ठीक कर दिया और ललाट पर हाथ फेरकर प्यार से बोले, "काहे बेटी! अब कैसा है? कुछ बल आया? कुछ कहोगी?"

डरती हुई प्यारी ने चारों ओर देखकर कहा, " अब भी डर लगता है ! "

मुरलीधर, “न बेटी ! डरो मत! यहाँ तो हम लोग मौजूद ही हैं। देखती नहीं गेरुआ बाबा भी सामने हैं। डर किस बात का ? अगर तुम कह सकती हो, तो कुछ हाल तो बतलाओ! क्या बात हुई !"

प्यारी ने मुँह से कुछ नहीं कहा। लेकिन वह एक बार गेरुबा बाबा की ओर और फिर पिता की ओर देखकर चुप रह गई ।

गेरुआ बाबा ने भाव समझकर निडर करने के लिए कहा, “बोलो बेटी ! सब हाल कहो ! डरने का क्या काम है?"

प्यारी ने बहुत थोड़े में कहा, "जब मैं दरवाजा बंद करके सोने चली, तब देखती हूँ तो भीतर दराज के पास एक भयानक आदमी खड़ा है। उस पर जो गहने का खाली बॉक्स था उसको उलट-पलटकर देख रहा है। उसके ऐसा विकट तो कभी नहीं देखा था दादा !"

मुरलीधर, "वह कैसा आदमी था बेटा! "

प्यारी, "न बाबूजी! आदमी नहीं था । "

धीरे से गेरुआ बाबा बोले, "मैं तो पहले ही कह चुका हूँ ।"

प्यारी, “लेकिन आदमी ही की तरह हाथ-पाँव था। सीधा खड़ा रहा। चेहरा देखे से वहाँ डर लगता रहा। दोनों आँखें आग की तरह जल रही थीं। देह भर में रोएँ थे । जान पड़ता था, जैसे वनमानुस हो। "

सब लोग चौंककर बोल उठे, “वनमानुस ?"

प्यारी, “मैंने समझा कि उसको पकड़ लूँगी । दौड़कर धरने गई तो लगा नोचने-बकोटने । फिर वही बॉक्स उठाकर कपार पर ऐसा मारा कि लहू-लुहान हो गया। खून आँख में पड़ा । मेरी आँखें बंद हो गईं, फिर उसने बॉक्स से मारा। अब मैं चिल्लाई तो लेकिन गरमी चढ़ गई। फिर मैं नहीं जानती कि कहाँ क्या हुआ? लेकिन वनमानुस मेरा गहना ले गया है। "

गेरुआ बाबा वनमानुस की बात सुनकर मन में सोचने लगे, 'यह बात अलबत्ते सोचने की है कि वनमानुस किसका है और किसने इसको यह सब सिखलाया है? फिर यह भीतर क्यों आया? जब एक बार चोरी कर ले गया था, तो किसी और गहरे मतलब से आया था ?'

यही सब मन में सोच-विचार कर गेरुआ बाबा ने मुरलीधर से पूछा, "अच्छा, आपका या आपकी लड़की का इस शहर में कोई दुश्मन है ?"

मुरलीधर, "मैं तो जहाँ तक जानता हूँ इस शहर की बात कौन कहे, इस दुनिया में हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है। "

अब जासूस को बाहर जाने की जरूरत पड़ी । उनको कुछ देख-भाल और सलाह करना था । जब कमरे से निकले नोखा भी प्यारी के कमरे से अपने कमरे को गई।

जिस समय वनमानुस की बात पर सब लोग अकचका रहे थे, उसी समय फेंकनी मसहरी की आड़ में खड़ी मन-ही-मन सब समझ रही थी। लेकिन मुँह से कुछ कह नहीं सकती थी । गेरुआ बाबा की कनखी उसी पर थी। वह उसका रंग-ढंग, उसके चेहरे का भाव और उसकी लंबी साँस सब देख-सुन रहे थे।

जब सब लोग वहाँ से चले गए, तब फेंकनी झट पलंग के पास आकर घुटने के बल बैठी और सिसक-सिसकर रोने लगी।

प्यारी ने कहा, “ रो मत फेंकनी ? मुझे वैसा संघातिक घाव नहीं लगा है। खाली डर गई थी और डर से ही ऐसी दशा थी । अब डर छूट गया है। खिड़की जो खुली है, इसे बंद कर दे। सर्दी मालूम देती है।"

बिसूरती हुई फेंकनी ने झट उठकर खिड़की बंद कर दी। गेरुआ बाबा मुरलीधर के साथ आकर बाहर बैठे।

बाबा ने कहा, “ देखिए सेठजी! आप घबराइए मत। घटना तो ऐसी ही भयंकर है, लेकिन तो भी विपत में धीरज से काम होता है। 'धीरज धरिय, तो उतरिय पारा । नाहीं त बूड़ सकल परिवारा।' आपके घर पर जो लगातार दो वारदातें हो गई हैं, इसमें डकैती ही नहीं, बल्कि चांडालों का मतलब आपकी लड़की की जान लेने का मालूम देता है।"

मुरलीधर, “मेरी लड़की का कौन ऐसा दुश्मन है? फिर उसके दुश्मन का भी दुश्मन बात क्या है ? कुछ समझ में नहीं आता । "

गेरुआ, "देखिए, मेरी बुद्धि में जो आता है, वही मैं आपसे कहता हूँ । लेकिन मैं निश्चय होकर कोई बात नहीं कह सकता कि यह बात पक्की है। लेकिन इतना जरूर है कि जिस वनमानुस ने आपकी कन्या के गहने चुराए हैं, उसका कोई मालिक है। उसने उसको स्त्रियों का गहना चुराना सिखलाया है । वनमानुस फव्वारे पर सुगमता से चढ़कर उतर सकता है। उसके लिए कुछ कठिन नहीं है । और आपकी लड़की के गहने इसी तरह चोरी किए गए हैं, लेकिन इतनी ही बात बीच में अड़ती है कि वह वनमानुस फिर भीतर क्यों आया है? चोरी ही करने का मतलब था, तब तो वह चोरी कर ही चुका था, फिर आने-जाने की जरूरत क्या थी? उसका फिर आना और लड़की को घायल करना कह रहा है कि उसके मालिक का मतलब आपकी लड़की की जान लेना था। दुनिया में किसका क्या मतलब है और कोई किस गरज से घूम रहा है, सो नहीं कहा जा सकता, लेकिन काम देखकर उसके करनेवाले की गरज का अटकल किया ता है। इसके सिवाय एक बात यह है कि आपकी लड़की जीती है। जब डाकू सुनेंगे तब जरूर समझ लेंगे। आपने उसी के जुबानी पता पाया कि गहने वनमानुस के ही हाथ से चुराए गए हैं। उससे बेहतर यह कि आप यह जाहिर करें कि डाकू घर में घुसकर माल असबाब ले गए हैं और लड़की को भी इस तरह जख्मी कर गए थे कि उसकी जान निकल गई है। बस इसी को सुनकर वे सब बेफिक्र हो जाएँगे । और समझेंगे कि असल बात किसी को जाहिर नहीं हुई है। लेकिन लड़की को यहाँ रखने से काम नहीं बनेगा। किसी-न-किसी तरह असल भेद खुल ही जाएगा। बेहतर है कोई विश्वासी आदमी प्यारीबाई को दूर ले जाकर रक्षा करे। तब सब लोग समझेंगे कि सचमुच लड़की मर गई है। एक दवा ऐसी खिला दी जाए कि लड़की मुर्दे की तरह हो जाएगी । यहाँ तक कि डॉक्टर भी नहीं पहचान सकेगा । दाह करने के लिए बाहर ले चलकर वहाँ जो करना होगा, सब कर दूँगा । लेकिन यह काम बड़ी खबरदारी से करना होगा और मरघट तक भी अपने बड़े विश्वासी आदमियों को साथ ले जाना होगा। आप खुद रहिएगा और बाकी मेरे अपने आदमी रहेंगे। ऐसा नहीं करने से चोर नहीं पकड़ा जा सकता। और आज रात तक अगर आसामी नहीं पकड़ा जाएगा तो मामला बड़ा गहरा हो जाएगा।"

पहले तो मुरलीधर इस काम में राजी नहीं होते थे, लेकिन बहुत कुछ समझाने-बुझाने पर उन्होंने हामी भरी। गेरुआ बाबा यह कहकर विदा हुए कि थोड़ी देर में दवा लेकर आएँगे।

कुछ देर बीत जाने पर गेरुआ बाबा बग्घी करके फिर मुरलीधर के मकान पर पहुँचे। उनके हाथ में दवा देकर उसी गाड़ी पर लौट गए।

ऑफिस में पहुँचकर उन्होंने दिन की जरूरी बातें पॉकेट बुक में लिख लीं और डायरी भरकर विश्राम करने चले गए।

-:11:-

सबेरा होते ही मुरलीधर के मकान पर कुहराम पड़ गया। फेंकनी भोंक फाड़कर रोने लगी। नोखा भी हाय बेटी! हाय प्यारी! करने लगी। मुरलीधर लड़की के कमरे में जाकर शोक के मारे अधीर होने लगे और घर के आदमी भी सब उदास हो पड़े। डॉक्टर बुलाए गए। उन्होंने जाँच कर देखा और कहा, "यह तो मामला खतम हो चुका है। "

उनकी बात सुनकर मुरलीधर ने रात की सब घटना बयान करते हुए कहा, " रात को डाका पड़ा था। एक डाकू मेरी प्यारी को घायल करके भाग गया है। सिर से खून बहुत देर तक जाता रहा। लेकिन तो भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि जान निकल जाएगी। इसी से डॉक्टर उस रात को नहीं बुलाया, . लेकिन जब लड़की होश में आई, तब बहुत डरी थी । रह-रहकर चौंक उठती थी । देखा तो उतने डर की बात नहीं है । इसी से फेंकनी लौंडी को यहाँ करके हम लोग चले गए। उस समय बारह बजे थे। घंटे भर बाद आकर मैं फिर देख गया । और एक ठंडी दवा भी पिला गया था। उससे कुछ मगज ठंडा हुआ भी था । कुछ घंटे बीतने पर लौंडी ने खबर दी कि लड़की एकदम काठ की तरह पड़ी है। हिलती-डुलती तक नहीं, न साँस ही चलती है। तब आपको बुलाया है।"

डॉक्टर ने कहा, “आपके खानदानवालों का दिल बड़ा कमजोर है । यही कारण है कि यह हालत हुई है। नहीं तो कोई जख्म उतना संघातिक नहीं है। लेकिन दिल की हरकत बंद होने ही से यह लड़की मरी है। मैं सर्टिफिकेट देता हूँ । सबेरे ही मैं कॉरोनर से मिलूँगा । आप उसकी चिंता मत कीजिए। लेकिन उस चांडाल डाकू को पकड़ने की कोशिश कीजिए। जरा दाह-कर्म में जल्दी मत कीजिएगा। कॉरोनर की रिपोर्ट होने पर संस्कार करना होगा । "

यही सब बातें समझाकर डॉक्टर चले गए।

-:12:-

जिस सड़क पर मुरलीधर का मकान है, उसी के मोड़ पर एक छोटी किंतु बड़ी साफ-सुथरी तीन मंजिली अटारी चिकचिका रही है। उसी में एक स्त्री रहती है । उमर अड़तालीस पचास बरस की होगी। उनके साथ एक लौंडी और एक टहलुआ है। रंग-ढंग से जान पड़ता है कि उस स्त्री का समाज से कुछ स्नेह - नाता नहीं है। कोई उसके घर न आता है, न वह किसी के काम- प्रयोजन में जाती है। उस स्त्री के मोहल्ले में दुष्ट - बदमाशों की बस्ती नहीं है।

रात के ग्यारह बज गए हैं। वह स्त्री अपने कमरे में लौंडी के साथ बैठी महाभारत कथा पढ़ रही है। कुंती और उनके पाँचों पुत्रों की कथा चल रही है। कर्ण उनकी कन्यावस्था के पुत्र हैं। कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय कुंती ने अपने पुत्रों को वह समाचार दिया, यही बातें हो रही थीं कि तीसरे मंजिल से चिल्लाहट सुनाई दी। लेकिन मालूम हुआ कि चिल्लाहट आदमी की नहीं है। उसके डेकरने से बड़ी घबराहट हुई। बार-बार वह चिल्लाहट सुनाई देने लगी। स्त्रियाँचौक उठीं। जब वह स्त्री आवाज ताड़कर ऊपरवाली कोठरी में पहुँची तो देखा दरवाजे पर भोंकू लाठी लिये खड़ा है और भीतर एक भयंकर जानवर है। हाथ-पाँव आँखें सब आदमी-से हैं, मुँह बंदर से मिलता है, शरीर में देह भर रोएँ हैं और वही भोंकू की लाठी खाकर डेकर रहा है।

स्त्री, “अरे! यह तुम क्या कर रहे हो? यह कैसा भालू है? मैं घर में रहती हूँ और कुछ नहीं जानती। यह तो आदमी की आँख है दादा। इसको लेकर तुम यहाँ करते क्या हो? आज तक तुमने इसकी कुछ बात मुझसे नहीं कही । यह कैसी बात है? " क्रोध में आकर स्त्री यही कहती हुई अपने कमरे में चली गई। भोंकू भी उसके पीछे गया।

जब वह अपने कमरे में पहुँची, लौंडी को बाहर जाने का इशारा करके भोंकू भीतर गया और कहने लगा, “ मालकिन।"

वह चौंककर बोली, “अरे! यहाँ तू किस वास्ते आया है? "

हाथ जोड़कर भोंकू बोला, “जरा बैठ जाव मालकिन। कुछ बातें कहनी हैं।”

स्त्री भोंकू का भाव देखकर चौंकी । उसके चेहरे पर डाह और बदला लेने का भाव था। स्त्री बैठ गई, कुछ दूर पर भोंकू भी बैठ गया । वह बोला, "यह तो आप जानती हैं कि मैं ही मालिक हूँ और सब मेरे हाथ में है?"

स्त्री, “रुपया-पैसा सब तुम्हारे हाथ में रहा । उसका क्या था? मैं क्या जानती ? सब तुम्हीं जानते होगे । "

भोंकू, “आप तो जानती ही हो । गुनधर साहु मरती बार बहुत धन छोड़ गए थे। वही सब आपको मिला है?"

स्त्री, “यही मैं जानती हूँ। और आज तक यहाँ के इस मकान का किराया वगैरह सब उसी रुपए से खर्च तुम चलाते हो, लेकिन कितना रुपया या कितने का प्रामेसरी नोट कहाँ जमा हैं और उसका सूद कितना मिलता है, यह सब मैं कुछ नहीं जानती। इतना जानती हूँ कि मरने से पहले तुम उनके पास थे। उसके बाद से बराबर यहीं हो। तुमको मैं उनका नौकर जानती हूँ। लेकिन सब रुपया-पैसा तुम्हारे हाथ है। तब नौकर काहे को, तुम तो मालिक ही हो। जब मेरा रुपया होने पर भी मेरे हाथ में कुछ नहीं है, तब मैं तो कुछ नहीं हूँ ।"

भोंकू, “अच्छा! अब यह सब धन चला जाए, तो क्या आप भीख माँगती फिरोगी मालकिन?"

स्त्री, "यह तुम क्या बकते हो भोंकू ? मैं तुम्हारी बात कुछ भी समझ नहीं सकती। तुम्हारा ढंग देखने से मुझे बड़ा डर लगता है।"

भोंकू, “मेरे हाथ में सब है, मैं जो चाहूँ, सो कर सकता हूँ।"

स्त्री, “तो जो तुम्हारे धर्म्म में आवे, सो करो, मैं क्या कहूँ?"

भोंकू, “देखिए गुनधर साहु, जिनके साथ आप इस शहर से भाग गई थीं, वह बड़े सुंदर जवान और भले आदमी थे। काशी जाकर भी यह बड़े भलेमानुस के जामे में रहे। बड़े ठाट से उनका वहाँ चलता रहा। आप वहाँ उनकी घरनी और आपके वह पति थे । चाल-चलन जैसी अच्छी, रूप भी वैसा ही सुंदर देखने में था, लेकिन वह भीतरी बड़े भारी डाकू थे । "

स्त्री, “डाकू थे?”

भोंकू, “हाँ, आप जो जानती थीं कि बार-बार काशी किसी काम के लिए जाते थे, लेकिन वह काशी का बहाना करके कभी काशी, कभी पटना, कभी प्रयाग या और जगह जाकर अपने गिरोह से मिलते और डाकूपना करके माल लाते थे और उसी से अपना काम चलाते थे। मैं भी उन्हीं के गिरोह का एक डाकू हूँ । जब पिछली बार गए, तब पुलिसवालों के पंजे में पड़ गए। लेकिन पुलिसवाले उन्हें पकड़ नहीं पाए, दूर से गोली मारकर घायल किया। लेकिन उसी चोट से उनकी जान चली गई। मरती बार मुझसे गंगा माता और विश्वनाथ की कसम देकर, आपको मेरे ही ऊपर सौंप गए। हम लोग कसम खाकर जो बात देते हैं, उसको जान रहते तक निबाहते हैं। मैंने आज तक उसका निबाह किया है। आपको तो उन्होंने मरती बार यही कहा था कि शिकार में गए थे। एक शिकारी की गोली मुझे लग गई है?"

स्त्री, "हाँ, मुझसे तो मरती बेर यही कह गए। "

अब भोंकू की बात सुनने पर स्त्री को बड़ा डर हुआ। उसने मन में कहा, “बाप रे बाप! अभी न जाने क्या कहेगा! "

भोंकू, “यहीं आपको उन्होंने धोखा दिया । उनको गोली शिकारी की नहीं, पुलिसवाले की लगी थी ।"

स्त्री, " अगर यही बात सही है, तो हम लोग का खर्च कैसे चलता है? "

भोंकू, “सब मैं ही चला रहा हूँ और कहाँ से आता है ?"

स्त्री, “ तो इतना रुपया तुम कहाँ से पाते हो?"

भोंकू, “सब हमारा गबदू लाता है। "

स्त्री, " गबदू क्या इस वनमानुस का नाम रखा है? "

भोंकू, “हाँ, मालकिन! यही गबदू हम लोगों का खर्च चलाता है। आपके धर्म्म - कार्य, पाठ- पूजा सबका खर्च यही जुटाता है। मैंने इसको खरीदकर सब सिखाया है। अब यह जो काम करता है, वह आदमी से हरगिज नहीं हो सकता । यह बड़ा चालाक आदमी है। हमारे इशारे पर काम करता है। कभी भूलता नहीं ।"

स्त्री, "ऐं!"

भोंकू, “ आपने समझा नहीं मालकिन ! बात यह है कि यह गबदू एक चालाक चोर है।"

स्त्री, " चोर है?"

भोंकू, “हाँ, जहाँ कहें इशारे पर पहुँच जाएगा, जिसको इशारा करें, उसी को ले आएगा। वह बड़े आदमियों के घर में घुसकर बहू-बेटियों के गहने चुरा लाता है। मैं सोने के गहनों को गलाकर पीटकर चौरस करके सर्राफ के यहाँ बेच देता हूँ । उनमें कोई हीरा लाल जड़े हों, तो उनको उखाड़कर, काटकर, तराशकर, नया करके जौहरियों के हाथ खर्च करता हूँ । इसी तरह तो दिन काटता हूँ।"

स्त्री, " तो हम लोग चोर की चोरी से अपना काम चलाते हैं! "

भोंकू, “हाँ मालकिन! असल बात तो यही है। "

स्त्री, “बस करो भोंकू ! मैं ऐसे पैसे को प्रणाम करती हूँ। इससे भीख माँगना ही अच्छा है।" इतना सुनने पर भोंकू उस घर से चुपचाप बाहर हुआ । स्त्री बहुत देर तक अपने बिछौने पर करवट बदलती रही। बहुत रात गए पर उसे नींद आई थी। इस कारण सबेरे देर से जागी । फिर लौंडी को बुलाकर गंगा नहाने गई ।

स्नान करके लौटती बेर कुछ दिन चढ़ आया । रास्ते में मुरलीधर का मकान पड़ा। उस घर के सब आदमी शोक में थे। भीतर से स्त्रियों का रोना सुनाई देता था । लौंडी ने दरबान से जाकर पूछा, "क्या हुआ है?" उसने कहा, "मालिक की लड़की प्यारी को डाकुओं ने मार डाला है। "

दरबान से लौंडी की यही बातें हो रही थीं । और मालकिन रास्ते पर खड़ी थीं। दरबान ने कहा, 'इसी रात को बिचारी लड़की मर गई है। बुरी तरह से घायल कर गए थे। डॉक्टर आते-आते मर गई। वही एक लड़की थी और कोई घर में नहीं है। "

उसी समय दूसरे महल की खिड़की का परदा उठा । मुरलीधर सामने दिखाई पड़े। उनका चेहरा मलीन था ।

मुरलीधर ने देखा मालिकन और लौंडी पास ही पास खड़ी बातें करतीं और खिड़की की ओर ताक रही हैं। मालकिन ने मन में कहा, "अरे! यह क्या दशा है? यह तो जीते हैं। " मुरलीधर ने दोनों को देखकर परदा फिर गिरा दिया और धीरे से भीतर चले गए। ऐसा जान पड़ा कि जो कुछ उन्होंने देखा, उससे दिल पर बड़ी चोट आई।

उधर, लौंडी ने सब हाल जाकर मालकिन से कहा। डाकुओं के हाथ से प्यारी का मारा जाना सुनते ही उसके भीतर बड़ी वेदना - सी हुई ।

-:13:-

जासूस गेरुआ बाबा सवेरे ही उठे। उन्होंने मुरलीधर के घर जाने का ठीक किया, क्योंकि कॉरोनर की जाँच हो जाने पर लाश मिलेगी। इन सब कामों में बड़ी खबरदारी की दरकार थी । अपनी मदद के लिए उन्होंने मनलायक विश्वासी आदमी ऑफिस से चुन लिये।

जब ऑफिस से बाहर निकले तो देखा कि एक बालक हरकारा एक छोटे कदवाले आदमी के साथ सामने से आ रहा है। उस अनोखे नाटे आदमी को देखते ही गेरुआ बाबा को बाबू मूलचंद के घायल होने की बात याद आई। उनके मन में आया कि वह आदमी भी वैसा ही था, जिसने उनको घायल किया था। लेकिन जल्दी से वह ऑफिस के पास आकर उस लड़के को छोड़ दिया और आप झट चला गया। वह लड़का ऑफिस के बरांडे की ओर अलसाया हुआ धीरे-धीरे चलता था ।

उन दोनों को देखकर गेरुआ बाबा वहीं टहलने लगे । उनको पहचानकर लड़के ने प्रणाम किया। गेरुआ बाबा ने लड़के से पूछा, “तुम्हारा क्या नाम है ?"

" मेरा नाम तो नगीना है ।"

गेरुआ, "रहते कहाँ हो?"

" पास ही खपरैल के मकान में रहता हूँ। "

गेरुआ, “तुम्हारे माँ-बाप हैं?"

इतना सुनने पर उसने सिर झुका लिया । आँखों से कई बूँद आँसू निकलकर टपक पड़े। भारी आवाज से बोला, “अब तो नहीं हैं, लेकिन.."

गेरुआ, “जो आदमी साथ आया, वह तुम्हारा कौन है ?"

“मुझे मालूम नहीं।"

गेरुआ, " तुमसे वह क्या कहता था ? "

“राजी-खुशी पूछता रहा और यह भी पूछता रहा कि महीना बढ़ा या नहीं ? "

गेरुआ, " तुमसे यह बात आज ही पूछता था?"

" नहीं, जब मिलता तब पूछता है। कभी कुछ तकलीफ होती है, तो देता भी है। जब मेरी नौकरी लगी थी, तब इसने मेरी बहुत मदद की है। इसी उम्र में मैंने बड़ी-बड़ी ठोकरें खाई हैं। बहुत जगह नौकरी की है । जान पड़ता है, नव बरस से मैं ऊपर का हूँ ।"

गेरुआ, “कैसे समझा कि तुम नव बरस के हो?"

"यही आदमी कहता है। इसी से सुना है।"

गेरुआ, “नाम जानते हो इसका ? कहाँ रहता है सो मालूम है ?"

" नाम तो जानता हूँ भोंकू है, लेकिन मालूम नहीं कहाँ रहता है। कभी-कभी आता है । फिर गायब हो जाता है। "

गेरुआ, “अच्छा अगर तुम इसका ठिकाना जाँचकर हमको बतला दो, तो हम पाँच रुपया तुमको मिठाई खाने के वास्ते देंगे। बोलो लोगे? "

"अच्छा देखेंगे।” कहकर लड़का चला गया । गेरुआ बाबा फिर ऑफिस लौट गए। और अपने अफसर अवधेश नारायण से बात करके बाहर चले । इस बार सीधे मुरलीधर के मकान की ओर रवाना हुए।

आधी रात के समय जब गेरुआ बाबा मुरलीधर की बहन नोखा की चिट्ठी पाकर उनके मकान की ओर गए, तब उनके मकान से थोड़ी दूर पर मोड़ के पास एक मकान के सामने एक सिपाही पहरेवाले से भेंट हुई, वह उस मकान के सामने बड़ा चकित होकर देख रहा था, गेरुआ बाबा ने पूछा, “यहाँ क्यों खड़ा है? "

सिपाही, "इस मकान के ऊपरवाली कोठरी से एक अजीब चिल्लाहट आई है।"

उसकी बात सुनकर गेरुआ बाबा ने और तो कुछ नहीं पूछा, लेकिन उस मकान का खयाल करके चले गए। जब लौटे, तब उन्होंने देखा कि दो स्त्रियाँ उसमें घुस गई। एक की आयु अधिक थी, ढंग से मालकिन जान पड़ती थी, दूसरी लौंडी । उन्होंने बगलवाले दुकानदार से पूछा, तो वह कुछ पता नहीं दे सका।

आज जब मुरलीधर के मकान पर पहुँचे, उनको उदास पाया । उन्होंने समझा कि इसकी घटना से ऐसा हुआ होगा। गेरुआ बाबा को आदर से आसन देकर बोले, “आज मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ। मैंने आपके सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण को खबर भेजी है। आपने आती बेर रास्ते में दो स्त्रियों को देखा है ? "

गेरुआ, “हाँ, दोनों एक तीन मंजिले मकान में चली गई हैं। "

मुरलीधर, " आप फिर उनको देखें तो पहचान लेंगे ?"

गेरुआ, “हाँ, मैंने खयाल करके उनको देखा है। सामने आते ही पहचान लूँगा । "

मुरलीधर ने एक फोटो देकर कहा, “अच्छा आप देखिए तो इस फोटो को ?"

देखकर गेरुआ बाबा बोल उठे, “हाँ, यह उन्हीं में एक का फोटो है, जो बड़ी उम्र की है और जिसको मैं मालकिन समझता हूँ। दूसरी इसकी लौंडी है। बात इतनी ही है कि यह फोटो आजकल का नहीं, कई बरस पहले का है। "

मुरलीधर, “आप भूलते तो नहीं हैं न?"

गेरुआ, "नहीं, नहीं! "

मुरलीधर, " अच्छी बात है, सुपरिंटेंडेंट भी आते होंगे। उनसे यह बात मैं कह दूँगा । आपके कहे मुताबिक मैंने सब काम कर डाला है। देखिएगा सब आपको सँभालना होगा। "

गेरुआ, “कुछ परवाह नहीं, डॉक्टर हई हैं। मैं भी मौजूद रहूँगा "

मुरलीधर, “हाँ, ऐसा ही तो बंदोबस्त हुआ है। "

इसी समय अवधेश नारायण आ पहुँचे । उनको आदर से बैठाकर मुरलीधर ने कहा, “आपको याद होगा। कई बरस हुए, मैंने अपनी स्त्री की खोज के लिए निवेदन किया था। आज देखा तो वही स्त्री एक लौंडी के साथ नहाकर सामने से गई है। "

सुपरिंटेंडेंट ने बात सुनकर गेरुआ बाबा की ओर देखकर कहा, “मैं तो आपको यह बात पहले भी कह चुका हूँ।"

मुरलीधर, “हाँ, इन्होंने भी उन दोनों को किसी घर में घुसते देखा है। "

गेरुआ बाबा के हाँ कहने पर उनमें बातें होने लगीं फिर थोड़ी ही देर पर गेरुआ बाबा वहाँ से विदा होकर बाबू मूलचंद के यहाँ चले। रास्ते में वहाँ के अखबार का एडिटर मिला। उसको घर का नंबर और सड़क बताकर कहा, "कोई संवाददाता भेजकर खबर लीजिए, वहाँ कोई घटना हुई है। "

वहाँ से आगे बढ़ने पर वह एक जगह मेटूलाल बने और मूलचंद के मकान पर पहुँचकर नौकर को खबर दी। वहाँ से परवानगी पाते ही उनको वह भीतर ले गया । अब मूलचंद के पास बैठकर उन्होंने कहा, “आप मुझे बड़ा लापरवाह और आलसी समझते होंगे। लेकिन क्या करूँ, मैं एक जरूरी काम में फँस गया था ।"

अब नरमी से मूलचंद ने कहा, "नहीं, आप ऐसा मत समझिए । जब आप तकलीफ करके आ गए हैं, तब मेरा सब काम सिद्ध ही है।"

फिर मूलचंद सच कहने लगे, " अब समझ लीजिए कि कल रात की घटना से मेरे मन में बड़ा उद्वेग है। कल जहाँ तक मैंने आपको कहा था उससे आगे कहता हूँ। जो चीज मेरे पास से उस चांडाल ने छीन ली है, वह एक जड़ाऊ हार था। सोने का बना था । हीरे, मोती, लाल, पुखराज करीने से जड़े थे। उसमें जो सबसे बड़ा हीरा बीच में था वह उसमें से उखाड़ा गया है। वह प्यारी का है, यह मैं जानता हूँ । दहेज में और गहने जो मिले थे, उसमें से उस हार को मैंने खासतौर से देखा था। आधी रात से कुछ पहले मैं यहाँ आया था। उसके बिहान ही मैं बाहर जानेवाला था। लेकिन इसी आफत में पड़कर जा नहीं सका। मैं ससुराल से लौटकर बगीचे के किनारे आता था। बाहरी फाटक खुला देखकर संदेह हुआ, क्योंकि रात बहुत जा चुकी थी। इसी कारण मैं भीतर घुसा। तब मैंने देखा तो दो चोर धीरे से रास्ते की आड़ में छिप गए। मैंने झपटकर उनको पकड़ना चाहा। दोनों दो ओर भागे। मैंने एक का पीछा किया, जिसका मैंने पीछा किया, उसकी अनोखी चाल देखकर मैं चकित हुआ। कभी सीधा चलता, कभी हाथ धरती में रखकर चौपायों की तरह दौड़ता था । इस तरह वह तेजी से गुलाब के पेड़ों के बीच से होता हुआ भागा, उस समय मैंने सुना कि कोई आदमी झाड़ी में छिपा है और धीरे से 'गबदू, गबदू आ!' कहकर पुकार रहा है। मैं बराबर दौड़ता जाता था। जब एक ही दो फाल पर वह रह गया, तब मैंने हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाहा। उसके हाथ में देखा, तो कोई चीज चमक रही है। उसने वह चीज धरती पर फेंक दी। मैंने उसे उठा लिया । इस अवसर में वह दूर भाग गया। पीछे मैंने बगीचे में बहुत ढूँढ़ा, लेकिन कहीं किसी का पता नहीं चला। तब मैंने वह चीज देखी तो वही हार है। मैं देखते ही पहचान गया। मैं उस घड़ी वहाँ न पहुँचता तो चोर जरूर उसे ले जाते । मैं उसी चीज को वापस देने के वास्ते गया था। किसी वजह से घर में नहीं गया। फेंकनी लौंडी को देखकर मैंने उसके हाथ में देना चाहा, उसको न जाने क्या हो गया। वह पागल की तरह चिल्लाकर भाग गई। फिर तो मुझ पर जो आफत आई, वह आप ने देखा ही होगा। "

गेरुआ, "हाँ, मैंने देखा था और उसके सिवाय और बातें भी मुझे मालूम हुई हैं। मैं आपका वह हार बहुत जल्द बरामद करूँगा । इस घड़ी एक काम के वास्ते जा रहा हूँ। फिर आपसे मिलूँगा । "

-:14:-

जब गेरुआ बाबा ऑफिस से मुरलीधर के महल की ओर जाने को चले, तब लड़के को एक आदमी के साथ उन्होंने देखा था । फिर उसे छोड़कर वह दूसरे रास्ते चला गया। बालक ऑफिस की ओर आया, उससे गेरुआ बाबा की जो बातें हुई, वह सब पाठकों को मालूम हो चुकी हैं।

जब गेरुआ बाबा और सुपरिंटेंडेंट भीतर जाकर मिले, उन्होंने कहा, “मैं अभी मुरलीधर के लड़के से बात करके आया हूँ।"

सुपरिंटेंडेंट, "ऐं! मुरलीधर का लड़का ! मुझे तो यही नहीं मालूम था कि उनको लड़का है। मुझसे तो दस बारह बरस से मेलजोल है, लेकिन कुछ खबर मैं नहीं जानता कि उनको लड़का है!"

गेरुआ, "अच्छा, दस बरस से उधर की बात तो आपने सुनी है।"

सुपरिंटेंडेंट, "यह आपकी पहेली मैं नहीं समझ सकता कि क्या कह रहे हैं?"

गेरुआ, “आपने एक बार मुझसे कहा था कि नव-दस बरस हुए, मुरलीधर की स्त्री बाहर चली गई। उसकी फिर कुछ खबर नहीं मिली । चिट्ठी में एक लड़का पैदा होने की बात उसने लिखी थी। उसी तारीख के मुताबिक वह लड़का दस-बारह बरस का होगा।"

सुपरिंटेंडेंट, “हाँ, यह बात मैंने ही आपसे कही थी। मैं मानता हूँ। "

गेरुआ, "वही एक लड़का है, इस घड़ी दस-बारह बरस का होगा । इसी शहर में है। उसका नाम इस घड़ी नगीना है । जब जरूरत हो, यह लड़का मिल सकता है।"

सुपरिंटेंडेंट, “अच्छी बात है बाबाजी ! खुद मुरलीधर की चिट्ठी मौजूद है। लड़का हो या लड़की । जो कोई उसको उनके पास पहुँचाएगा, वह पाँच हजार रुपया इनाम पाएगा।"

गेरुआ, “अच्छी बात! यह तो पक्का है कि यह लड़का है। और उसका चेहरा मानो मुरलीधर का शॉर्ट एडिशन है। माँ-बाप हैं या नहीं, उसकी कुछ खबर उसको नहीं है। "

"अच्छा, आपने ऐसा लड़का देखा है, तो उस पर निगरानी रखिए।" यह कहकर अवधेश नारायण मुसकराए।

गेरुआ, “वह पास ही खपरैल के मकान में रहता है । हरकारे का काम करता है। "

अब फिर गेरुआ बाबा ऑफिस से निकलकर मुरलीधर के मकान को रवाना हुए। लेकिन रास्ते में वह लड़का मिला। उसको लिये हुए लौट आए। सुपरिंटेंडेंट ने देखा, तो उन्हीं का गुप्तचर है । " अच्छी बात है। आप जाइए, यह तो हमारी नजर ही में रहेगा ।" यही कहकर गेरुआ बाबा को वहाँ से विदा कर दिया और आप उस बालक से कई बातें पूछकर इन्होंने अपना संदेह मिटा डाला और पहले जितना उसका आदर- प्यार करते थे, उससे अधिक करने लगे।

इसके बाद वह ऑफिस के कमरे में आए। तुरंत ही मुरलीधर के यहाँ से खबर आई और चट वहाँ चले गए।

वहाँ जो बातें हुईं, वह सब हम ऊपर कह आए हैं। अब मुरलीधर के मकान से चलकर अवधेश नारायण मुरलीधर की निकली हुई स्त्री देवीबाला की खोज में चले।

गेरुआ बाबा के बतलाए हुए ठिकाने से मुड़कर पहुँचकर उसी घर में घुसे । भीतर जाकर दाई ! दाई! पुकारने लगे। दाई ने नीचे आकर पूछा, “का है?"

अवधेश, “तुम तो पहचानोगी नहीं। मैं आया हूँ बहुत दूर से । मालकिन से कुछ कहना है।"

लौंडी, “ अभी तो नहाकर आई हैं। पूजा पर बैठी हैं। थोड़ी देर पर आना । "

अवधेश, “हमको यहाँ रहना नहीं है। दो-दो बात तो करना ही है। पूजा करती हैं, तो करती रहें, वहीं से सुन लें।"

लौंडी, “आमर! कहाँ से आए हो, जो ऐसी बात करते हो?"

अवधेश, "मैं उन्हीं से कहूँगा । यहाँ से चिल्लाना ठीक नहीं होगा । "

यह कहते हुए वह दाई की न मानकर ऊपर चले गए। जहाँ से खड़ी वह बात करती थीं, दरवाजे पर जाकर देखा, तो मालकिन पूजा पर बैठी हैं। फोटो की याद बनी ही थी । देखते ही उन्होंने पहचान लिया। कहा, “मैं देवीबाला से कुछ कहना चाहता हूँ ।"

स्त्री बोली, "क्या कहना है ? "

" जरा पानी तो लाओ दाई ! " कहकर अवधेश नारायण ने पहले उसको विदा कर दिया। तब अकेले में वे कहने लगे, "मैं आपसे आपके लड़के की कुछ बात कहने आया हूँ। "

स्त्री, “ लड़का हमारे कहाँ है? "

अवधेश, “आपके निकल आने से पहले जो लड़का पैदा हुआ था, उसी की बात मैं कह रहा हूँ।"

स्त्री, “तुम्हारी बात समझ में नहीं आती । जान पड़ता है किसी दूसरी देवीबाला की बात तुम करते हो! "

अवधेश, “देखिए, फजूल टालमटोल से काम नहीं बनेगा । मैं जासूस हूँ । आप मुरली बाबू की घरनी, नाम आपका देवीबाला है। आपकी सब बातों का मुझे पता है । नाहक गड़ा मुर्दा क्यों उखड़वाती हैं! "

यह बात सुनकर स्त्री बड़ी अकचकाई । मन में सोचने लगी। बात क्या है, उन्होंने इसके साथ मुझे बुलवाने का इरादा किया है क्या! लेकिन ऐसा भरोसा नहीं होता। मुरली घमंडी आदमी ऐसा काम नहीं करेगा। वह अपने चैन से दिन काट रहे हैं। यह काम क्यों करेंगे ! इसके साथ ही अपनी दुर्दशा याद आई। जिसके मोह में पड़कर घर से निकली थी, उसका खराब स्वभाव, इस समय की हालत, भोंकू के पंजे में रहना, यह विचारकर बड़ा दुःख हुआ । निदान उनकी बातों पर कुछ भला-बुरा न कहकर बोली, “ आपका मतलब क्या है? "

अवधेश, " आप जब घर से निकल गए, उसके तीन महीने पर आपने अपने संतान होने की बात लिखकर अपने मालिक को भेजी थी?"

स्त्री, "हाँ, भेजी रही । "

अवधेश, "यह भी लिखा था कि इसी संसार में कहीं उनका लड़का है। यहाँ तक कि माता को भी मालूम नहीं कि कहाँ है?"

स्त्री, “ इसमें आप भूलते हैं। "

अवधेश, "अच्छी बात है, ऐसी भूल चाहते भी हैं। "

स्त्री, "नहीं, फिर भी आपने नहीं समझा। जिस लड़के की बात आप कह रहे हैं, वह तो तीन ही दिन में मर गया।"

अवधेश, "वह लड़का था या लड़की?"

स्त्री, "लड़का !"

अवधेश, “तब तो आप ही भूलती हैं ? "

स्त्री, "नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। "

अवधेश, "इतना जोर देने का कारण ? "

स्त्री, “ बात यह कि गुनधर की और बात में चाहे जितनी शिकायत हो, लेकिन मुझे इतना चाहते थे कि मुझे दुःख होने का भय करके उन्होंने बालक के मरने की खबर मुझे नहीं दी । उनका एक नौकर था, उसी ने खबर भेजी थी। उस समय हम लोग काशी में थे। अब सोच लीजिए कि वह कैसे जीता होगा? "

अवधेश, "अच्छा, वह नौकर कहाँ है?"

स्त्री, “यहीं है। आप चाहें तो मैं पुकार दूँ।"

अवधेश, "अच्छी बात है, बुलाओ। लेकिन इतनी दया जरूर कीजिए कि उसको पता न दीजिए। नहीं तो कुछ भी बात नहीं बतलावेगा । मैं इस परदे के अंदर जाकर छिप जाता हूँ।"

लौंडी को पुकारकर मालकिन ने पूछा, "भोंकू कहाँ है ? "

'वह चोर कोठरी में है ।" बात यह कि इस समय रोज वह कुछ देर उसी चोर कोठरी में रहता था। मालकिन ने अकचकाकर पूछा, “चोर कोठरी कैसी? "

लौंडी, "सीढ़ी के नीचे जो छिपी कोठरी है, उसी में रोज इस समय जाता है और ठक-ठुक करता है और तो कुछ पता नहीं है।"

मालकिन, “अच्छा, उसको मेरे पास भेजो।"

अब बुलाहट पाकर भोंकू आया । अवधेश नारायण आड़ में छिपकर सब देखने-सुनने लगे। मालकिन, “मैंने एक बड़ी अनोखी खबर पाई है भोंकू ! "

भोंकू, “कौन खबर मालकिन?"

“लड़के की खबर मिली है। मैं तो जानती थी कि दस बरस हुआ होगा, वह जन्मा और मर गया था। "

इतना सुनकर वह भोंकू चुप हो रहा । स्त्री ने पूछा, "क्या सचमुच वह मर गया था ? "

भोंकू, “इतने दिन पर आज आपको क्यों संदेह हुआ मालकिन ? "

मालकिन, “मुझे मालूम हुआ कि वह जीता है।"

फिर भोंकू चुप रहा । स्त्री ने पूछा, “सब बात साफ बोलकर बतलाओ भोंकू ! "

भोंकू, “क्या बतलाऊँ?"

मालकिन, “यही कि वह जीता है या नहीं? "

भोंकू, “हाँ, मालकिन वह आज भी जीता है। "

मालकिन, “ऐं! तो मेरा बच्चा अभी जीता है?"

भोंकू, “हाँ, मालकिन जीता है।"

इतना सुनते ही मालकिन मानो आसमान से गिरी । वह कहने लगीं, “ तो इतना ठगपन मेरे साथ क्यों किया? "

भोंकू, “अब मैं आपसे कुछ छिपाना नहीं चाहता । इतने दिन तक छिपाने की जरूरत थी। बालक अभी जीता है। बात यह थी कि आपके मालिक गुनधर बाबू उस लड़के की झंझट पसंद नहीं करते थे । "

मालकिन, “ लड़के- बच्चे झंझट होते हैं?'

भोंकू, “हमको तो उन्होंने हुक्म दिया था कि इसको गला दबाकर मार डालो।”

मालकिन, “ओफ, बाप रे बाप! ऐसे हत्यारे?"

भोंकू, “मैं तो सरकार को बतला ही चुका हूँ कि वह बड़े निर्दयी और कठ-करेजी थे। लेकिन थे बड़े सुंदर, जो सरकार को मालूम ही है। मैंने उस लड़के की जान नहीं मारी। एक बुढ़िया को सौंप दिया था। उसके बाद वह खुद खत्म हो गए। उसके बाद मैं उस लड़के को यहाँ लाया । अब तक वह जीता-जागता है। बड़ा होशियार और होनहार है। मालकिन सौ - हजार में एक है। मेरी बराबर उस पर नजर है। "

उकताकर मालकिन ने पूछा, “इस घड़ी वह कहाँ है?"

भोंकू, "इसी शहर में है । "

मालकिन, " तो कहाँ है? कैसे जीता है?"

भोंकू, “एक जगह बालदूत का काम कर रहा है मालकिन । "

मालकिन, "अच्छा, उसको मेरे पास ले तो आओ।"

भोंकू, " बहुत अच्छा, मैं लाऊँगा मालकिन ।”

मालकिन, " ठीक बोलो लाओगे न?"

भोंकू, “हाँ, मालकिन लाऊँगा काहे नहीं? आपका लड़का आपसे दूर रखने में मुझे क्या मिलेगा ? "

"अच्छा लाना।" हुक्म सुनकर भोंकू चला गया। अब अवधेश नारायण बाहर आए । मालकिन ने पूछा, "सब सुन लिया आपने? "

अवधेश, "हाँ, सब सुना है हमने । "

मालकिन, “मैं तो बड़े अचरज में हूँ ।"

अवधेश, "हाँ, अचरज में होने की तो बात ही है। "

मालकिन, "अच्छा, आप उस लड़के का क्या करेंगे?"

अवधेश, “उसके बाप के पास पहुँचा देंगे।”

मालकिन, "नहीं, आप हमको देवें । हमें कोई नहीं है। "

अवधेश, "ऐसा कैसे होगा? "

मालकिन, "काहे नहीं होगा? जरूर हमको ही देना होगा।"

अवधेश, "देखिए, आप नाराज न होना मालकिन । माँ के पास लड़के को रहने में सुख सही, लेकिन जब वह माँ पति छोड़कर घर से निकल गई, तब लड़के का मोह करने की क्या जरूरत है? कानून तो उसे बाप ही के पास न पहुँचाएगा?"

इतना सुनने पर वह बिसूर - बिसूरकर रोने लगी । अवधेश नारायण ने कहा, “मैं आज आप पास इसलिए आया था कि आप लड़के की सब बात जानती होंगी। और आपसे इसका पूरा पता लग जाएगा कि वह मुरलीधर ही का है। लेकिन देखते हैं, तो आपको कुछ भी खबर नहीं है । लेकिन दया-माया आपको है। आप चिंता न कीजिए। वह लड़का मेरे ही पास है । लेकिन आप जो लड़के को माँगती हैं, उसमें विचार कीजिए तो उसको बाप के यहाँ रहने में ही उसकी भलाई है। खाली लिखने ही पढ़ने का सुभीता नहीं, बल्कि मुरलीधर का वारिस उसके सिवाय दूसरा कोई नहीं है। लेकिन आपके पास रहने में बड़ी गड़बड़ी है। पहले तो आपसे किसी से कुछ नेह- नाता नहीं। फिर उसको आप अपनी सब बातें बतला भी नहीं सकतीं। और उसके बाप की सब जायदाद दूसरा कोई भोग करे, यह तो उचित नहीं है न! फिर मुरलीधर गंभीर आदमी हैं । उसको आपके कलंक की बात हरगिज नहीं कहेंगे । आप सब नीच - ऊँच, भला-बुरा विचार कीजिए । देखिए, मैं जो कहता हूँ, उसमें भलाई है या नहीं? "

मालकिन रो-रोकर कहने लगीं, “हा भगवान ! मैं अपने बेटे की भी कोई नहीं ठहरी । हाँ, संसार में मेरा रहना नहीं के बराबर है। सबकुछ होते हुए भी मेरा कुछ नहीं है । धिक्कार है, मेरी कुबुद्धि पर। हाय!” यही कहकर वह बिसूरने लगी और अवधेश नारायण वहाँ से विदा हो गए।

-:15:-

जब अवधेश नारायण अपने ऑफिस में पहुँचे। देखते हैं तो गेरुआ बाबा बैठे कुछ चिंता कर रहे हैं। दो-एक बातें दोनों महाशयों में हुई। फिर दोनों अपने-अपने आराम कमरे में चले गए। लेटे-लेटे सुनते हैं तो सड़क से अखबार बेचनेवाला चिल्लाता जाता है, “बड़ी गजब खबर है । भयंकर डकैती! बड़े घर में खून। "

गेरुआ बाबा ने बाहर निकलकर एक कॉपी अखबार की खरीदी। उसमें देखा तो मुरलीधर के घर पर डाका पड़ने और उनकी लड़की के खून होने की खबर छपी है। प्यारी के गहने चोरी जाने का समाचार दिया हुआ है।

जिस समय गेरुआ बाबा अखबार पढ़ रहे थे, उसी समय भोंकू ने भी एक अखबार लेकर अपनी मालकिन के हाथ में पहुँचाया। वह सब समाचार पढ़कर आँसू बहाने लगीं। मन में कहने लगीं, 'मेरी लड़की की यह दशा हुई है । यहीं बैठी मैं सुन रही हूँ। कुछ कर नहीं सकती ! ऐसी अभागिन! ऐसा कर्म हमारा!'

भोंकू ने खबर पढ़कर उससे और ही ढंग का स्वाद पाया । मन में कहने लगा, 'यह काम हमारे गबदू का है। उसी ने इस स्त्री का खून किया है। लेकिन इस काम से आफत आएगी। बेहतर है कि इस गबदू को अब मार-काटकर गंगा में डाल दें, जिसमें कुछ किसी को पता न लगे। लिखा है कि चोट वैसी संगीन नहीं थी, लेकिन डर के मारे दिल की हरकत बंद होने से मौत हुई है। अगर मरने से पहले उसने सब घटना बयान कर दी होगी, तब तो जासूस के मारे जेल से जान नहीं बचेगी। अब ऐसा करना चाहिए कि गबदू का किसी को कहीं कुछ पता न लगे।'

यही सब सोच-विचारकर भोंकू ने मन में ठीक किया कि कारण की जाँच के बाद एक बार फेंकनी से भेंट करके सब तय करके सब ठीक करना होगा।

उधर, अखबार में छपी खबर पढ़कर हाल जानने के लिए मुरली बाबू के दरवाजे पर लोगों की बड़ी भीड़ हुई। कॉरनर की जाँच खत्म होने में देर नहीं लगी । काम पूरा करते ही, संस्कार करने का हुक्म देकर वह चले गए। अब भीड़ में तरह-तरह की बात होने लगी । भोंकू किनारे खड़ा सब देख-सुन रहा था ।

इसी समय फेंकनी घर से बाहर आई। देखते ही भोंकू उसके पास गया। उस पर और किसी ने तो ध्यान नहीं दिया, लेकिन ऊपर खड़े गेरुआ बाबा की आँखों से वह ओट नहीं हुआ ।

दोनों में कुछ देर बातें हुई, फिर भोंकू चला गया। अकेले फेंकनी खड़ी देख रही थी, क्योंकि सुनती थी कि प्यारीबाई की लाश लोग लिये आ रहे हैं । इतने में गेरुआ बाबा ने बगल से आकर उसका हाथ पकड़ा और दूर जाते हुए भोंकू को दिखाकर पूछा, "यह आदमी कौन है?"

वह तो अकबकाकर उनका मुँह ताकने लगी। कुछ जवाब नहीं दिया। तब उन्होंने कहा, " बोल जल्दी । नहीं तो जानती है न कि हम क्या करेंगे?" इतना कहकर उन्होंने ऊपर का कपड़ा उतार डाला ।

अब यह डरकर बोली, “उसका तो नाम भोंकू है । "

गेरुआ, "बस हो गया । यही मैं भी समझता था । "

अब मुरलीधर के पास पहुँचकर उन्होंने सावधान कर दिया कि बड़ी मुस्तैदी से लड़की की खबरदारी करें। कोई किसी तरह हटा न देवे या और कुछ न करे ।

ऊपर से देह उतारने में बहुत देर लगी। रात के आठ बज गए और यह देर जान-बूझकर की गई थी। कोई आठ बजे चुने हुए कई आदमी अरथी पर लेकर चले। इस अवसर पर वहाँ किसी जरूरी काम के न होने से गेरुआ बाबा ऑफिस चले गए।

ऑफिस पहुँचकर गेरुआ बाबा ने देखा तो उस नगीना नाम के लड़के को पास बिठाकर सुपरिंटेंडेंट कुछ सोच रहे थे। फिर बोले, "तुम चिंता मत करो। हम तो तुमको आदर करते थे और प्यार से पालते थे। यह सब तुमको होनहार देखकर किया था। लेकिन अब तुमको इस तरह भटकना नहीं होगा। अब अपने पिता के पास तुमको हम पहुँचाएँगे। वह तुमको पाल-पोस और पढ़ा-लिखाकर सुशील, गुणवान लड़का बनाएँगे। अब तुमको कमी किसी बात की नहीं रहेगी । "

बालक, "तो क्या सचमुच मैं अपने पिता को देख सकूँगा?'

सुपरिंटेंडेंट, “हाँ! हाँ!”

बालक, “वाह! तब तो बड़े आनंद की बात होगी। अच्छा वह भी मुझे पाकर सचमुच खुश होंगे! "

सुपरिंटेंडेंट, “अरे! वह बड़े कोमल चित्त के आदमी हैं । तुम्हारे वास्ते तो पागल हो रहे हैं। "

इसी समय गेरुआ बाबा आ गए थे। इससे अलग कमरे में सुपरिंटेंडेंट को बुला ले गए। वहाँ बातें होने लगीं। गेरुआ बाबा ने कहा, “अब तो मेरा काम बिल्कुल रास्ते पर आ चला है । "

सुपरिंटेंडेंट, "कौन चोरीवाला या खूनवाला ? "

गेरुआ, "दोनों ही ।"

सुपरिंटेंडेंट, “ लेकिन आपने बड़ी जल्दी कर ली।"

गेरुआ, “गहने कहाँ हैं, सो मालूम हो चुका है और जिस चांडाल ने सुशीला की जान लेनी चाही थी, उसको भी पहचान गया हूँ।"

सुपरिंटेंडेंट, "चाही थी, लेकिन जाहिर में तो खून कर चुका! "

गेरुआ, “हाँ, वह बड़ी बातें हैं । अभी थोड़ा काम और बाकी है। "

सुपरिंटेंडेंट, “तो मेरी कुछ मदद चाहिए क्या?"

गेरुआ, "जी हाँ । "

सुपरिंटेंडेंट, “अच्छा पक्का हो चुका। अब कुछ संदेह तो नहीं है? अब बतलाइए यह बात कि कैसे पकड़ेंगे? वैसा बंदोबस्त हो। "

गेरुआ, "मेरा असामी रोड नंबर के मकान में रहता है। भोंकू उसका नाम है। वह एक वनमानुस को सिखलाकर पक्का करके लाया है। इसी से अमीरों की बहू-बेटियों के गहने- जवाहरात वगैरह चोरी करवा ले जाता है। मुरलीधर के गहनों का सुबूत मैं पा चुका हूँ । भोंकू का घर चारों ओर से घेर लेना होगा; जिससे असामी भाग न सके, क्योंकि वह इसी रात को एक बजे की गाड़ी से भागनेवाला है। ठीक काम होने से सब माल भी मिल जाने का भरोसा है। अभी वह कुछ बेच नहीं सका है। मैं सब सर्राफा को खबरदार कर चुका हूँ । इसके सिवाय यह कहीं जा भी नहीं सका है। अभी उसको पकड़ने से माल मिलेगा।"

सुपरिंटेंडेंट, "देखिए, कहीं कुछ भूल न हो।"

गेरुआ, "नहीं साहब! सब ठीक है। "

सुपरिंटेंडेंट, “ लेकिन वही तो मुरलीधर की स्त्री देवीबाला का मकान है।"

गेरुआ, “हाँ, मैं भी ऐसा ही समझता हूँ। "

सुपरिंटेंडेंट, “मैंने तो भोंकू को देखा है । "

गेरुआ, “अरे! आप उस चोर को देख चुके हैं ? "

सुपरिंटेंडेंट, “हाँ, मैं इस नगीना की बात इसकी माँ और भोंकू दोनों के मुँह से सुन चुका हूँ। "

गेरुआ, “अच्छा, लड़के की बात कल पर रखिए। मेरा मामला ग्यारह बजे के भीतर सब ठीक-ठाक हो जाना चाहिए।"

सुपरिंटेंडेंट, “कुछ परवाह नहीं! मैं घेराव करने को आदमी भेजता हूँ । आप अपना बाकी काम ठीक-ठाक कर लीजिए। बस मैं आधे घंटे में वहाँ जाऊँगा । वहीं गिरफ्तारी का सब सामान तैयार रखूँगा। थाने-पुलिस के सब आदमी तैनात होंगे। मैं अभी डी.एस.पी. के यहाँ जाता हूँ।"

"बहुत अच्छा।" कहकर गेरुआ बाबा चले गए।

वहाँ से मुरलीधर के मकान पर पहुँचे और भीतर जाते ही फेंकनी की बुलाहट हुई।

जब वह सामने आई, अकेले गेरुआ बाबा ने कहा, “देख फेंकनी! जो कुछ पूछता हूँ, ठीक जवाब दे, नहीं तो जानती है, तेरी क्या गति मैं करूँगा।"

वह सुनते ही घबड़ा गई। कुछ देर सहमकर बोली, “क्या पूछते हैं?"

गेरुआ, " और सब बात पूछने से पहले तुमको मैं इतना बतला देना चाहता हूँ कि वह भोंकू इसी रात को गिरफ्तार किया जाएगा । उसकी चोरी का पता लग गया है। उसका ठिकाना भी मालूम हो चुका है। अब वह भाग नहीं सकता। तुम यही ठीक बतला दो कि बबुई की चोरी के मामले में तुम क्या-क्या जानती हो? तुम इसमें बात जानती हो, यह पता लग गया है। अगर झूठ कहोगी तो जेल में ठेल दी जाओगी।"

इतना सुनते ही फेंकनी गेरुआ बाबा के पाँव पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ाकर बोली, "मोको जेलखाना मत दीजिए। सब ठीक मो कहे देती हूँ | पहले हम लोग मेरठ में रहती रहीं । मेरा बाप डाकुओं के गोल में रहता था । मुझसे वह डाकुओं का लेने और लोभ में डालकर लोगों को लाने का काम लेते थे। एक बार वह पुलिस के हाथ में ऐसे पड़े कि भाग न सके, क्योंकि भागती बेर गोली खाकर गिर पड़े। उसी से उनकी जान चली गई। मैं पकड़कर जेलखाने भेजी गई । भोंकू ने अपने वनमानुस से मुझको वहाँ से निकाला। मैंने वैसा कुछ कसूर नहीं किया था। खाली डाकुओं ने मुझे बुलाकर काम करा लिया था। इसी से वहाँ उन लोगों ने फिर गिरफ्तार नहीं किया। तभी से मैं भोंकुआ के हाथ पड़ गई। वह कहता है न जाने उसके पास कौन कागज है, इससे हमको जब चाहे जेलखाने में डाल सकता है । मेरठ से मुझे वह यहाँ लेकर आया । मैं कई बड़े घरों में दाई थी। मेरा काम वहीं की बेटी - बहुओं के गहने कहाँ रखे हैं, इसकी खबर भोंकू को देना । वही यह बात अपने वनमानुस को समझा देता है और वह भी ऐसा चालाक है कि समझकर सब काम कर लेता है और गहना लाकर उसको दे देता है । जिस दिन प्यारी बबुई का गहना गया था, उस दिन मैंने वनमानुस को देखा था । यह समझा था कि डराने से यह छोड़कर भाग जाएगा। मैंने एक चाबी बहू के गहनों के बॉक्स का ताला खोलने के लिए उनकी चाबी का साँचा बनवा लिया था। मैं बबु को बहुत चाहती थी । मेरा इरादा नहीं था कि उनके गहने चोरी जाएँ, इसी से जब मैं डराई, तब बॉक्स लेकर भागने लगी। मैंने इसको पकड़कर खींचा इसी से बॉक्स खुल गया और मेरे हाथ में चोट आई। एक हाथ में तो गहना पकड़ा, लेकिन वनमानुस बड़ी ताकतवाला था, छीनकर ले भागा। उसने कई बार मुझे भोंकू के साथ देखा था । यही खैर हुई, नहीं तो मेरी भी हालत वह बबुई की कर देता । हाय मोरी बबुई! ओह चांडाल के हाथ से तुमको मरना लिखा रहा। "

गेरुआ, "अच्छा एक हीरा तुम्हारे घर में कैसे गया?"

फेंकनी, “मोहूँ हैरान हूँ जान पड़ता है खींचा- खींची में कहीं मोरे कपड़े में रहा। बस साथ चला गया। मोको कुछ खबर नहीं। "

अब गेरुआ बाबा फेंकनी को लेकर ऑफिस चले । वह डरने लगी, लेकिन बाबा ने कहा, 'अगर तुमने सच कहा है, तो डरने की कुछ बात नहीं। " ऑफिस से सब लोग देवीबाला के मकान को चले। वहाँ देखा तो पुलिस उस घर को घेरकर बैठी है। कोई किसी ओर भाग नहीं सकता। सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण ने पूछा, "कुछ नई बात है?" उसने जवाब दिया, "जी नहीं । कुछ नई नहीं है । दो गाड़ीवान भीतर आए थे, वे चले गए हैं। "

गेरुआ, “हम लोग गाड़ी आने से पहले के आए हुए हैं।"

धक्का देते ही दरवाजा खुला। भीतर से एक ने कहा, "गाड़ी कहाँ है?" फिर एक गुट भीतर घुसा। बरांडों में सब सामान धरा तैयार मिला। सफर की तैयारी है। जान पड़ता है, फेंकनी से भोंकू ने सुना था कि वनमानुस ने प्यारी को घायल किया और प्यारी ने जासूस को कह दिया है। इसी से इतनी जल्दी भागने की तैयारी हुई है।

गेरुआ ने पूछा, “वह नौकर भोंकू कहाँ है ? "

लौंडी ने कहा, "कौन जाने आज संझा के कहाँ गया है! कह गया है कि आज नहीं आएगा । " अच्छी तरह ढूँढ़ने पर भी कहीं भोंकू का पता नहीं चला। जब सब थक गए, तब अवधेश नारायण ने कहा, "चलो चोर कोठरी में देखें, उसमें जरूर मिलेगा ।"

गेरुआ, "ऐसा क्यों आप समझते हैं? "

सुपरिंटेंडेंट, “जब मैं देवीबाला से मिलने आया था। तभी पता लगा कि उसमें रहता है। "

अब गेरुआ बाबा और अवधेश नारायण कई आदमियों के साथ चोर कोठरी की खोज में जीने से उतरे, तो किवाड़ की फाँक में जरा रोशनी आ रही थी । भीतर देखते हैं तो उसमें पुरजे हैं, एक शीशी में दवा भी रखी है और कई तरह की दवा शीशियों में धरी है । भोंकू चूल्हे के पास पिछौड़ बैठा है। यह देखकर वे बड़े खुश हुए। लेकिन भोंकू ऐसा तन्मय होकर काम करता था कि उसको कुछ खबर नहीं हुई, जब तक गेरुआ बाबा ने यह नहीं कहा, “अब तो पिंजड़े में आ गए।”

जब उसने देखा, गरजकर बोला, “ओहो ! तुम लोग हो! कुछ परवा नहीं।" एक ही लात में रोशनी बुझाकर बोला, "मुझे अब भी नहीं पाओगे।"

भोंकू ने समझा था कि अँधेरे में धक्का देकर निकल जाएँगे, लेकिन रोशनी बुझते ही अवधेश नारायण और गेरुआ बाबा के जासूसी लैंप जगमगा उठे। अब देखा तो उजियाले में खड़ा है। कहीं भागने का उपाय नहीं ।

उसने देखा तो हाथों में दो ओर से दो पिस्तौल की नाल उसकी खोपड़ी ताक रही है।

कुछ परवाह नहीं की और गरजकर पूछा, "क्या कहते हो?" जवाब मिला, “बस हथकड़ी में बँध जाए।" उसने कहा, "ऐसा मैं न करूँगा।"

यही कहकर तेजी से उसने एक पिस्तौल की नाल मुँह में करके लबलबी दबा दी । खोपड़ी उड़ी और वह गिर गया। देखा तो उसी घर में एक ओर मुरलीधर के सब गहने पड़े हैं।

शोर सुनकर मालकिन नीचे आई। गेरुआ बाबा ने पूछा, "क्या हाल है?"

मालूम हुआ कि काशी जाने की तैयारी थी ।

गेरुआ, “आपको मालूम है, हम लोग यहाँ क्यों आए हैं?"

मालकिन, “नहीं, मैं तो नहीं जानती। "

गेरुआ, “हम लोग उस आदमी को गिरफ्तार करने आए हैं, जिसने मुरली बाबू के गहने चुराए हैं । "

मालकिन, "मेरे घर में चोर है? "

गेरुआ, “हाँ, और चोर को देखा भी है। गहने भी मिल गए हैं। लेकिन चोर बड़ा तेजीवाला है। उसने अपने को आप ही मार डाला। आप भी इसमें शामिल हैं। "

मालकिन, “मैं भी?”

गेरुआ, “जी हाँ, यह चोर आपका नौकर है, नाम है भोंकू ।"

मालकिन, “वह भोंकू मेरा नौकर होने पर भी, वह चोर है। यह मैं कैसे जान सकती हूँ? उसका भाव ऐसा दिखाई दिया कि वे ठीक विचार नहीं कर सके कि वह इसमें है या नहीं । गेरुआ बाबा एक थैली में सब गहने उठाकर ले गए। पहले मरघट की खबर मँगाई। मालूम हुआ कि मुरलीधर अभी वहाँ नहीं पहुँचे हैं । झट उनके मकान पर पहुँचे। देखा तो बाप- बेटी बैठे बातें कर रहे हैं।

गेरुआ बाबा ने सब गहने मुरली बाबू के सामने रखे। अब दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनको दिए गए वचन के अनुसार उन्होंने पारितोषिक दिया। अब गेरुआ बाबा का यश भी बहुत बढ़ गया।

अब प्यारी का हाल संक्षेप में कह देना जरूरी है । गेरुआ बाबा ने चोर की आँख में धूल डालने की गरज से एक दवा प्यारी को पिला दी थी। इससे आदमी कई घंटे ऐसा ही हो जाता है कि बड़ा प्रवीण वैद्य डॉक्टर भी पहचान नहीं सकता कि मरा है या बेहोश है । उसी से प्यारी बेहोश थी। बाकी बातें पहले ही कही जा चुकी हैं। उनका मतलब यही था कि चोर समझेगा कि गबदू के घाव से ही प्यारी बेहोश थी और मर गई। फिर होश में नहीं आई, न पता चला कि किसने क्या किया? लेकिन अखबार में जैसा बयान छपा था, उसकी ध्वनि से चोर ने ताड़ लिया कि उतनी संगीन चोट न होने पर भी जब वह मर गई, तब दाल में कुछ काला जरूर है। उसी से भोंकू ने जल्दी-जल्दी भागने की तैयारी की थी। जब सामान बोरिया-बिस्तर बँधना तैयार कर लिया, गेरुआ बाबा ने जाँच कर ठीक निशाना दाग दिया और चोर गिरफ्तार हो गया । उसके गिरफ्तार होने की खबर पाते ही मुरलीधर लड़की को ऊपर ले गए और उसके बाद वह होश में आई ।

अब प्यारी के मन में यही दुःख हुआ कि नाहक उस दिन संदेह करके स्वामी को अपराधी समझ दुर्भाव दिखाकर चिट्ठी लिखी। इसके लिए भीतर बड़ी वेदना - सी हुई। जब सुना कि वनमानुस के हाथ से गिरा गहना पाकर स्वामी देने आए थे और उसी अवसर पर डाकू ने उन पर चोट की, तब प्यारी की तकलीफ का कोई किनारा न रहा । मुरलीधर सबेरे उठते ही दामाद से जाकर मिले और उन्होंने मूलचंद के आराम होने की बात लौटकर कन्या को सुनाई ।

फिर निरोग होने पर वह बड़े आदर से ससुराल में पधराए गए। दोनों ओर से बीती घटना कहकर अपना-अपना दुःख दूर किया गया। अंत में सबको सुख हुआ, जिसका परिणाम अच्छा हो, वही अच्छा होता है ।

चोर गिरफ्तार होने के दूसरे दिन मुरलीधर बाबू के घर सुपरिंटेंडेंट अवधेश नारायण पहुँचे और उनके बेटे का पता मिलने की बात उन्होंने कही। अब मुरलीधर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से इनाम देकर अपना वचन पूरा किया। सुपरिंटेंडेंट ने इनाम लेकर उसमें से गेरुआ बाबा को भी दिया और शेष सेवा समिति के स्थायी कोष में डाल दिया। बालक को धीरे- धीरे अपना दिन फिरने का अनुभव हुआ। वह योग्य शिक्षक के हाथ सौंपा गया। उसकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। बड़ी तेजी से पढ़ने और बढ़ने लगा ।

फेंकनी ने भोंकू के हाथ में पड़कर ही सब किया था । उसका प्रायश्चित्त करने के लिए अपने को सबसे छिपाकर रखा। वह स्वामी के पास जीते ही मर गई थी। बेटा-बेटी के लिए भी मर चुकी थी। जिनसे आदर पाकर माता को आदर होता है, उस सुख से भी वंचित रही। मालकिन भी स्वामी की धन-संपत्ति के उपभोग से दूर होकर एक कोने में दिन बिताती रही ।

महानुभाव मुरलीधर बेटा-बेटी को लेकर सुख से दिन काटने लगे। बेटे की उम्र होने पर ब्याह कर दिया। प्यारी घर जाकर मूलचंद के घर की गृहिणी हुई। मुरलीधर बाबू का घर नगीना के रूप- गुण और गृहलक्ष्मी पतोहू के आने से जगमगा उठा। दोनों ओर सुख-संपत्ति विराजने लगी । भगवान् ने उनका दिन फेरा, वैसे सबका फेरे ।

इति ।

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