जेनेवा झील के किनारे (जर्मन कहानी) : स्टीफन ज्विग
Geneva Jheel Ke Kinare (German Story in Hindi) : Stefan Zweig
1981 में जेनेवा झील के किनारे एक छोटे से स्विस गांव विलेनव के पास, गर्मियों की एक रात में एक मछुआरे को, जो अपनी नाव के साथ झील में था, पानी में एक विचित्र सी चीज़ दिखाई दी।जब वह पास गया तो उसने देखा कि वह लट्ठों का एक बेड़ा था, जिसे एक नग्न पुरुष पटरे की सहायता से खे रहा था।चकित मछुआरे ने बेड़े के पास जाकर उस आदमी की मदद की, जो बुरी तरह से थका हुआ था।वह उसे अपनी नाव में ले आया और अपने जाल को उसे उढ़ा दिया।फिर उसने उस आदमी से बात करने की चेष्टा की, जो ठंड से ठिठुर रहा था और डर के मारे नाव के एक कोने में दुबक कर बैठा था।किंतु उस व्यक्ति ने एक अपरिचित भाषा में उत्तर दिया, जिसे वह मछुआरा नहीं समझ सका।
जल्दी ही उसने प्रयत्न करना छोड़ दिया और तेजी से पतवार चलाते हुए नाव को किनारे पर ले आया।भोर के उजाले में जैसे ही किनारा दिखने लगा, उस नग्न पुरुष का चेहरा भी चमकने लगा।उसके खुले हुए मुंह, जिसके चारों ओर झाड़ियों जैसी दाढ़ी उगी हुई थी, पर एक बाल सुलभ मुस्कान दिखने लगी।उसने उस ओर एक हाथ से इशारा किया और वह बार-बार पूछते हुए, कुछ अविश्वास के साथ, एक-एक शब्द अटक-अटक कर बोल रहा था, जो कुछ ‘रोसिया’ जैसा सुनाई दे रहा था।
जैसे-जैसे नाव किनारे की ओर आती जा रही थी उसके चेहरे की खुशी उतनी ही बढ़ती जा रही थी।अंत में एक जोर की आवाज के साथ नाव किनारे आ लगी।मछुआरों की पत्नियां, जो मछली आदि किसी जलचर के शिकार का इंतजार कर रही थीं, नाव में एक नग्न पुरुष को देख कर शोर मचाते हुए हुए तितर-बितर हो गईं।इस खबर से आकृष्ट होकर गांव के अनेक लोग धीरे-धीरे इकट्ठे हो गए।जल्दी ही गांव का मुखिया भी वहां आ गया और मामले को अपने हाथ में ले लिया।अपने अनुभवों और अन्य कई जानकारियों, जो उसने युद्ध काल के दौरान प्राप्त की थीं, के आधार पर उसे यह तुरंत स्पष्ट हो गया कि यह सेना का भगोड़ा है और फ्रांसीसी तट से तैर कर आया है।वह सरकारी पूछताछ करने के लिए तैयार हो गया पर उसकी औपचारिक पूछताछ और मेहनत तुरंत ही बेकार हो गई, क्योंकि वह नग्न पुरुष (जिसे इस बीच कुछ लोगों ने एक पैंट और एक कोट फेंक कर दे दिए थे) सभी प्रश्नों के जवाब में एक ही उत्तर दे रहा था, ‘रोसिया’, ‘रोसिया’।सफलता न मिलने से झुंझला कर मुखिया ने उस अपरिचित को अपने पीछे आने का हुक्म दिया।बहुत बड़ा कोट और पैंट पहने हुए, वह भीगा हुआ, नंगे पांव, गांव के बच्चों के शोरगुल के बीच सरकारी कार्यालय में पहुंचा, जहां तुरंत उसे नियंत्रण में ले लिया गया।उसने कोई विरोध नहीं किया।कोई शब्द नहीं, सिर्फ उसकी आंखों की चमक फीकी पड़ गई, क्योंकि वह असंतुष्ट था।उसके कंधे झुक गए थे, मानो उसे डर लग रहा था कि कहीं पिटाई न हो।
उस व्यक्ति के पकड़े जाने की खबर पास के एक होटल तक पहुंच गई और कुछ महिलाएं एवं पुरुष, जो बोरियत भरे दिन में कुछ मनोरंजक घटना की जानकारी से कुछ खुशी महसूस कर रहे थे, उस जंगली पुरुष को देखने के लिए आ गए।एक महिला ने उसे पीने के लिए चाय दी, जिसे उसने अविश्वास के कारण नहीं पिया।एक व्यक्ति ने उसका फोटो खींचा, उसके आसपास खड़े सभी लोग बातचीत करने लगे।तभी एक होटल का मैनेजर, जो कई देशों में घूम चुका था और जिसे कई भाषाएं आती थीं, वहां आ गया और उस अत्यंत डरे हुए व्यक्ति से जर्मन, इतालवी, अंग्रेजी और अंत में रूसी भाषा में बातचीत की।जैसे ही उस व्यक्ति ने अपनी मातृभाषा का शब्द सुना, उसके चेहरे पर हँसी आ गई।उसने अपने आपको सुरक्षित महसूस किया और अपनी पूरी कहानी सुनाई।
कहानी बहुत लंबी और अस्पष्ट थी।बहुत सी बातें दुभाषिए को भी समझ नहीं आईं।पर उस व्यक्ति का अनुभव लगभग इस प्रकार था: उसने रूस में लड़ाई लड़ी थी, फिर एक दिन हजारों अन्य लोगों के साथ रेल में बैठा दिया गया और बहुत दूर ले जाया गया।फिर उन्हें पानी के जहाज में लाया गया।लंबे समय तक उन्होंने उस इलाके की यात्रा की जहां बहुत गर्मी थी, इतनी कि वे गर्मी के मारे भुन गए, जैसा कि उसने बाद में बताया।अंत में फिर कहीं और पहुंचा और फिर से रेल की यात्रा की।एक बार एक पहाड़ के सामने पहुंचा, जिसके बारे में उसे कुछ ठीक से पता नहीं है।शुरुआत में ही उसकी टांग में एक गोली लग गई थी।
श्रोताओं को, जिन्हें वह दुभाषिया अनुवाद करके सुना रहा था, तुरंत समझ में आ गया कि वह रूसी सेना का एक सैनिक है, जिसे आधी दुनिया पार करके, साइबेरिया, ब्लादिवोस्तक होते हुए फ्रांस के युद्ध क्षेत्र में भेजा गया था।
अब लोग उत्सुक हो गए और उन्होंने पूछा कि उसने भागने का प्रयास क्यों किया? कुछ सौम्यता और समझदारी के साथ मुस्कराते हुए उस रूसी ने बताया कि जैसे ही वह स्वस्थ हुआ, उसने लोगों से पूछा कि रूस कहां है? उन लोगों ने उसे एक दिशा में इशारा किया जिसे उसने सूर्य और तारों की स्थिति के हिसाब से समझने का प्रयास किया।इस प्रकार किसी का ध्यान आकर्षित किए बिना वह भाग चला।रात में वह चलता और दिन में भूसे के ढेर में छिप जाता।अजनबी लोगों द्वारा दी गई डबलरोटी और फल खाता था।दस दिन बाद वह उस झील तक आ गया था।अब उसकी जानकारी उसका साथ छोड़ने लगी थी।उसे लगा कि बैकाल झील के निकट से आया था जिसके उस पार रूस है।उसे दो लट्ठे मिल गए थे, जिसे वह पतवार की तरह इस्तेमाल कर रहा था और वह झील में यहां तक आ गया था, जहां वह उस मछुआरे को मिला था।अपने वर्णन को उसने इस प्रश्न के साथ खत्म किया कि क्या वह कल अपने घर पहुंच सकता है?
उसकी इस बात पर सभी हँसने लगे।पर अंत में सभी को उस पर दया आ गई और सभी ने उस अपरिचित को कुछ पैसे दिए।इस बीच मौन्त्रो से एक उच्च अधिकारी आ गया, जिसने बड़ी मेहनत से उसकी रिपोर्ट बनाई।उसने बयान में सिर्फ यही नहीं घोषित किया कि अनुवाद बहुत खराब था, बल्कि यह भी लिखा कि उस व्यक्ति को अपने उपनाम ‘बोरिस’ के अलावा किसी और चीज का ज्ञान नहीं था।अपने काम के बारे वह सिर्फ यही बता सका कि वह राजा मेचेंसकी के यहां एक कृषक मजदूर था (जबकि यह प्रथा बहुत पहले ही ख़त्म हो चुकी थी)।उसने यह भी बताया कि वह एक बड़ी सी झील से लगभग 50 किमी दूर अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहता था।तब सब मिल कर यह सोचने लगे कि उसके साथ क्या करना चाहिए।इस दौरान वह सिर लटकाए, कंधे झुकाए, तरह-तरह के विचार व्यक्त करते हुए लोगों के बीच खड़ा रहा।
किसी का विचार था, उसे रूसी दूतावास पहुंचा देना चाहिए।औरों को डर था कि वह फ्रांस वापस भेज दिया जाएगा।पुलिस कर्मी के लिए सारी बातचीत एक ही प्रश्न पर आकर सिमट गई थी कि उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए जैसा किसी भगोड़े के साथ यानी बिना उचित कागजात वाले व्यक्ति के साथ किया जाता है।वहां का मुखिया बोला कि किसी भी हाल में वे लोग उस अजनबी की देखभाल करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
एक फ्रांसीसी चिल्लाया, बेवकूफों के बारे में इतनी देर तक बातचीत करने का कोई मतलब नहीं है, वह या तो काम करे या उसे वापस भेज दिया जाए।दो महिलाओं ने तुरंत विरोध किया : किसी व्यक्ति को मातृभूमि से इतनी दूर भेज देना अमानवीय है।मतभेद धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे थे।तभी अचानक एक डेनिश बुज़ुर्ग ने जोर से यह कहकर इस बात का अंत किया कि आठ दिनों तक वे इस व्यक्ति के रहन-सहन का खर्च उठाएंगे।इस बीच सरकारी संस्थाएं व स्थानीय समुदाय इसका हल खोज लेंगे।एक अप्रत्याशित हल, जिससे सभी संतुष्ट थे।
धीरे-धीरे उग्र होते हुए इस वाद-विवाद के दौरान उस भगोड़े की निगाहें होटल के मैनेजर के होठों पर टिकी हुई थीं।इस भीड़ में एकलौता वही था, जिसके बारे में वह यह जानता था कि वह उसकी मातृभाषा में यह बता सकता है कि उसके साथ क्या होने वाला है।ऐसा आभास हो रहा था कि उसके कारण होने वाले इस बखेड़े को वह महसूस कर रहा था।जैसे ही शोर कम हुआ, वह अपने आप दोनों हाथ जोड़ कर उठा जैसे कि महिलाएं धार्मिक तस्वीर को देख कर करती हैं।इस दृश्य से सभी द्रवित हो गए।होटल का मैनेजर स्नेहपूर्वक उसकी ओर बढ़ा और उससे बोला कि उसे डरने की कोई जरूरत नहीं है।वह बेहिचक यहां रह सकता है।आने वाले समय में उसकी देखभाल होटल में की जाएगी।
रूसी व्यक्ति उसके हाथों को चूमना चाहता था, पर मैनेजर ने अपने हाथ तेजी से पीछे खींच लिए।फिर उसने पड़ोसी का घर दिखाया, गांव का छोटा सा अतिथिगृह, जहां उसे बिस्तर और खाना मिलेगा।उसने एक बार फिर उस रूसी को सांत्वना देने के लिए कुछ स्नेह भरे शब्द कहे और फिर अपने होटल की सड़क की ओर चला गया।
उस निश्चल भगोड़े ने उसे देखा और उतनी ही तेजी से वह एकलौता व्यक्ति, जो उसकी भाषा समझ सकता था, चला गया।उसका चमकता हुआ चेहरा स्याह पड़ गया।इस बात पर ध्यान दिए बिना कि लोग उस पर आश्चर्य कर रहे थे और उस पर हँस रहे थे, उसकी निगाहें उस मैनेजर का होटल तक पीछा करती रहीं जो ऊपर स्थित था।फिर एक व्यक्ति उसे अतिथि गृह तक ले गया।सिर झुकाए हुए वह दरवाजे से घुसा।उसके लिए अतिथि कक्ष खोल दिया गया।वह एक मेज पर जाकर बैठ गया, जिस पर नौकरानी स्वागत स्वरूप ब्रांडी का गिलास रख गई।वह पूरी सुबह निश्चल बैठा रहा।गांव के बच्चे लगातार खिड़की से अंदर झांकते रहे, हँसते रहे, उसे देख कर कुछ बोलते रहे।उसने सिर नहीं उठाया।लोग, जो अंदर आए, उसे उत्सुकता से देखते रहे पर उसकी निगाहें मेज पर टिकी रहीं।वह कंधे झुकाए बैठा रहा, चिंतित और डरा हुआ।
दोपहर में खाने के समय जब कमरा लोगों की हँसी से भर गया, उसके चारों ओर सैकड़ों शब्द थे, जिन्हें वह नहीं समझ सकता था और तब उसे महसूस हुआ कि वह कितना अजनबी है।अपने अंदर की अशांति के कारण उसके हाथ इतने अस्थिर हो गए थे कि वह चम्मच से सूप भी नहीं उठा पा रहा था।अचानक आंसू की एक बड़ी सी बूँद उसके चेहरे से होती हुई मेज पर आ गिरी।उसने मुड़ कर देखा।इस बात पर लोगों का भी ध्यान गया और वे अचानक शांत हो गए।वह आशंकित हो उठा।अस्त-व्यस्त बालों से भरा उसका सिर मेज की काली लकड़ी पर टिक गया।लगभग शाम तक वह ऐसे ही बैठा रहा।और लोग भी आए, पर उसने इसका अनुभव नहीं किया।लोगों ने भी उसपर ध्यान देना छोड़ दिया था।
चूल्हे की छाया के एक हिस्से में भारी, निर्जीव से हाथ मेज पर रखे हुए वह बैठा हुआ था।किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि शाम के धुंधलके में वह अचानक उठा और ऊपर होटल के रास्ते पर चल पड़ा।दो एक घंटे वह टोपी हाथ में लिए, किसी को देखे बिना वहां दरवाजे के सामने खड़ा रहा।अंत में वह पेड़ के तने जैसी निश्चल और काली काया वाला व्यक्ति होटल के प्रवेश द्वार पर आकर खड़ा हो गया।एक हरकारे का ध्यान उसकी ओर गया और वह होटल के मैनेजर को बुला लाया।
जब उसे उसकी भाषा में अभिवादन किया गया तो उसके बुझे हुए चेहरे पर फिर से कुछ चमक आई।मैनेजर ने उससे स्नेहपूर्वक पूछा, ‘क्या चाहिए, बोरिस?’
‘माफ़ कीजिए’, वह भगोड़ा बोला, ‘मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि क्या मैं घर जा सकता हूँ?’
‘अवश्य, बोरिस।तुम घर जा सकते हो।’ उसने मुस्करा कर जवाब दिया।
‘कल ही?’
मैनेजर गंभीर हो गया।शब्द इतने आग्रहपूर्वक कहे गए थे कि उसके चेहरे से मुस्कान गायब हो गई। ‘नहीं बोरिस, अभी तो नहीं।जब तक युद्ध समाप्त नहीं हो जाता।’
‘तो कब? युद्ध कब समाप्त होगा?’
‘यह तो भगवान ही जाने।हम इनसान यह नहीं जानते।’
‘क्या मैं उसके पहले नहीं जा सकता?’
‘नहीं।’
‘क्या यह इतनी दूर है?’
‘कई दिन लगेंगे।’
‘कई दिन?’
‘पर मैं जाऊंगा श्रीमान।मैं स्वस्थ हूँ।मैं थकूंगा नहीं।’
‘पर तुम नहीं जा सकते, बोरिस।बीच में सीमा है।’
‘सीमा?’ उसने चकराते हुए देखा।यह शब्द उसके लिए नया था।
अपने अटल विचार के साथ उसने फिर कहा, ‘मैं तैर कर चला जाऊंगा।’
इसपर मैनेजर को मुस्कराहट आ गई।पर उसे तकलीफ भी हुई और उसने धीरे से कहा, ‘नहीं बोरिस, यह संभव नहीं है।यह एक दुश्मन देश है, लोग तुम्हें वहां से गुजरने नहीं देंगे।’
‘पर मैं उनका कुछ नहीं बिगाड़ूंगा।मैंने अपने हथियार फेंक दिए हैं।अगर मैं भगवान के नाम पर उनसे अनुरोध करूंगा तो वे मुझे मेरी पत्नी से क्यों नहीं मिलने देंगे?’
मैनेजर गंभीर हो गया।उसके अंदर कड़वाहट बढ़ गई।वह बोला, ‘नहीं, वे तुम्हें वहां से नहीं गुजरने देंगे।अब लोग भगवान की बात नहीं सुनते।’
‘पर मैं क्या करूं, श्रीमान? मैं यहाँ नहीं रह सकता।लोग मुझे नहीं समझते, मैं उन्हें नहीं समझता।’
‘तुम जल्दी ही सीख जाओगे।’
‘नहीं श्रीमान’, सिर झुकाए हुए वह रूसी बोला, ‘मैं कुछ नहीं सीख सकता।मैं यहां क्या कर सकता हूँ? मैं घर जाना चाहता हूँ।मुझे कोई रास्ता दिखाइए।
‘कोई रास्ता नहीं है, बोरिस।’
‘पर श्रीमान, वे मुझे मेरी पत्नी और बच्चों के पास जाने से नहीं रोक सकते।अब मैं सैनिक नहीं हूँ।’
‘वे रोक सकते हैं, बोरिस।’
‘और ज़ार?’ अचानक उसने पूछा।
‘अब कोई ज़ार नहीं हैं, बोरिस।उन्हें अपदस्थ कर दिया गया है।’
‘ज़ार अब नहीं हैं?’ स्याह चेहरा लिए हुए उसने पूछा, ‘तो मैं घर नहीं जा सकता?’
‘अभी तो नहीं।तुम्हें इंतज़ार करना होगा, बोरिस।’
‘लंबे समय तक?’
‘मुझे नहीं पता।’
‘मैंने तो पहले ही बहुत लंबा इंतजार किया है।मैं और इंतजार नहीं करना चाहता।मुझे राह दिखाओ।मैं प्रयास करना चाहता हूँ।’
‘कोई राह नहीं है, बोरिस।सीमा पर वे तुम्हें पकड़ लेंगे।यहीं रहो।हम तुम्हारे लिए काम ढूंढ देंगे।’
‘यहां लोग मुझे नहीं समझते, मैं उन्हें नहीं समझता।मैं यहां नहीं रह सकता।मदद करो, श्रीमान।’
‘मैं नहीं कर सकता, बोरिस।’
‘भगवान के लिए मदद कीजिए, श्रीमान।मदद कीजिए।मैं और बर्दाश्त नहीं कर पा रहा।’
‘मैं नहीं कर सकता, बोरिस।कोई किसी की मदद नहीं कर सकता।’ वे एक-दूसरे के सामने निःशब्द खड़े रहे।बोरिस ने टोपी को हाथ में घुमाया। ‘फिर उन्होंने मुझे घर से क्यों बुला लिया?’ वे बोले, ‘मुझे रूस की रक्षा करने के लिए लड़ना है।पर रूस यहां से बहुत दूर है और तुम कहते हो उन्होंने ज़ार को … क्या कहा था तुमने?’
‘अपदस्थ’
‘अपदस्थ’ बिना समझे उसने वह शब्द दोहराया।
‘अब मैं क्या करूं श्रीमान? मुझे घर जाना है।मैं यहां नहीं रह सकता।मदद करो, श्रीमान, मदद करो!’
‘मैं नहीं कर सकता, बोरिस।’
‘तो क्या, कोई मेरी मदद नहीं कर सकता?’
‘फिलहाल कोई नहीं।’
रूसी का सिर और ज्यादा झुक गया।अचानक वह बोला, ‘मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।’
और वह मुड़ गया।
एकदम धीरे-धीरे वह नीचे की ओर चला गया।
मैनेजर उसे देर तक देखता रहा और आश्चर्य करता रहा कि वह अतिथि गृह की ओर क्यों नहीं जा रहा, बल्कि वह सीढ़ियों से नीचे झील की ओर जा रहा है।उसने एक गहरी सांस ली और फिर से होटल के अपने काम में लग गया।यह एक संयोग ही था कि अगले दिन बोरिस का शव उसी मछुआरे को मिला।भेंट की गई पैंट, कोट और टोपी उसने सम्हाल कर किनारे पर रख दी थी और खुद पानी में वैसा ही चला गया जैसा वह बाहर आया था।इस घटना की रिपोर्ट लिखी गई और चूँकि उस अजनबी का नाम नहीं पता था सो उसकी कब्र पर लकड़ी का सस्ता सा क्रॉस लगा दिया गया।यह उन अनगिनत छोटे क्रॉसों में से एक था जिनसे यूरोप इस कोने से उस कोने तक भरा पड़ा है।
(अनुवाद : शिप्रा चतुर्वेदी)