गौरी (कहानी) : सुभद्रा कुमारी चौहान
Gauri (Hindi Story) : Subhadra Kumari Chauhan
शाम को गोधूलि की बेला, कुली के सिर पर सामान रखवाये जब बाबू
राधाकृष्ण अपने घर आये, तब उनके भारी-भारी पैरों की चाल, और
चेहरे के भाव से ही कुंती ने जान लिया कि काम वहाँ भी नहीं बना।
कुली के सिर पर से बिस्तर उतरवाकर बाबू राधाकृष्ण ने उसे कुछ
पैसे दिए। कुली सलाम करके चला गया और वह पास ही पड़ी, एक
आराम कुर्सी पर जिसके स्प्रिंग खुलकर कुछ ढीले होने के कारण
इधर-उधर फैल गए थे, गिर से पड़े। उनके इस प्रकार बैठने से कुछ
स्प्रिंग आपस में टकराए, जिससे एक प्रकार की झन-झन की आवाज़
हुई। पास ही बैठे कुत्ते ने कान उठाकर इधर-उधर देखा फिर भौं-भौं
करके भौंक उठा। इसी समय उनकी पत्नी कुंती ने कमरे में प्रवेश
किया। काम की सफलता या असफलता के बारे में कुछ भी न
पूछकर कुंती ने नम्र स्वर में कहा, "चलो हाथ-मुंह धो लो, चाय
तैयार है।
'चाय', राधाकृष्ण चौंक से पड़े, "चाय के लिए मैंने नहीं कहा
था।"
"नहीं कहा था तो क्या हुआ, पी लो।" कुंती ने आग्रहपूर्वक कहा।
"अच्छा चलो", कहकर राधाकृष्ण कुंती के पीछे-पीछे चले गए।
गौरी, अपराधिनी की भाँति, माता-पिता दोनों की दृष्टि से बचती हुई,
पिता के लिए चाय तैयार कर रही थी। उसे ऐसा लग रहा था कि पिता की
सारी कठिनाइयों की जड़ वही है। न वह होती और न पिता को उसके विवाह
की चिन्ता में, इस प्रकार स्थान-स्थान घूमना पड़ता। वह मुँह खोलकर किस
प्रकार कह दे कि उसके विवाह के लिए इतनी अधिक परेशानी उठाने की
आवश्यकता नहीं। माता-पिता चाहे जिसके साथ उसकी शादी कर दें, वह
सुखी रहेगी। न करें तो भी वह सुखी है। जब विवाह के लिए उसे जरा भी
चिन्ता नहीं, तब माता-पिता इतने परेशान क्यों रहते हैं–गौरी यही न समझ
पाती थी। कभी-कभी वह सोचती–क्या मैं माता-पिता को इतनी भारी हो गयी हूँ?
रात-दिन सिवा विवाह के उन्हें और कुछ सूझता नहीं। तब आत्मग्लानि और
क्षोभ से गौरी का रोम-रोम व्यथित हो उठता। उसे ऐसा लगता कि धरती फटे
और वह समा जाय, किन्तु ऐसा कभी न हुआ।
गौरी, वह जो पूनो के चाँद की तरह बढ़ना भर जानती थी, घटने का
जिसके पास कोई साधन न था, बाबू राधाकृष्ण के लिए चिंता की सामग्री हो गई
थी। गौरी उनकी एकमात्र संतान थी। उसका विवाह वे योग्य वर के साथ करना
चाहते थे, यही सबसे बड़ी कठिनाई थी। योग्य पात्र का मूल्य चुकाने लायक उनके
पास यथेष्ट संपत्ति न थी। यही कारण था कि गौरी का यह उन्नीसवाँ साल चल
रहा था। फिर भी वे कन्या के हाथ पीले न कर सके थे। गौरी ही उनकी अकेली
संतान थी । छुटपन से ही उसका बड़ा लाड़-प्यार हुआ था । प्राय: उसके उचित-अनुचित
सारे हठ पूरे हुआ करते थे । इसी कारण गौरी का स्वभाव निर्भीक, दृढ़-निश्चयी
और हठीला था । वह एक बार जिस बात को सोच-समझकर कह दे, फिर उस बात
से उसे कोई हटा नहीं सकता था । पिता की परेशानियों को देखते हुए अनेक बार
उसके जी में आया कि यह पिता से साफ-साफ पूछे कि आखिर वे उसके विवाह
के लिए इतने चिंतित क्यों हैं ? वह स्वयं तो विवाह को इतना आवश्यक नहीं
समझती । और अगर पिता विवाह को इतना अधिक महत्त्व देते हैं, तो फिर पात्र
और कुपात्र क्या ? विवाह करना है कर दें, किसी के भी साथ, वह हर हालत में
सुखी और संतुष्ट रहेगी । उनकी यह परेशानी, इतनी चिंता अब उससे सही नहीं
जाती । किंतु संकोच और लज्जा उसकी जबान पर ताला-सा डाल देते । हजार बार
निश्चय करके भी वह पिता से यह बात न कह सकी ।
पिता को आते देख, गौरी चुपके से दूसरे कमरे में चली गई । राधाकृष्ण बाबू
ने जैसे बेमन से हाथ-मुँह धोया और पास ही रखी एक कुरसी पर बैठ गए । वहीं
एक मेज पर कुन्ती ने चाय और कुछ नमकीन पूरियाँ पति के सामने रख दीं ।
पूरियों की तरफ राधाकृष्ण ने देखा भी नहीं । चाय का प्याला उठाकर पीने लगे ।
ऐसी कन्या को जन्म देकर, जिसके लिए वर ही न मिलता हो, कुन्ती स्वयं
ही जैसे अपराधिन हो रही थी । कुन्ती ने डरते-डरते पूछा, जहाँ गए थे क्या वहाँ
भी कुछ ठीक नहीं हुआ ?
-ठीक ! ठीक होने को वहाँ धरा ही क्या है, चाय का घूँट गले से नीचे
उतारते हुए बाबू राधाकृष्ण ने कहा, सब हमीं लोगों पर है । विवाह करना चाहें तो
सब ठीक है, न करना चाहें तो कुछ भी ठीक नहीं है।
कुन्ती ने उत्सुकता से पूछा, फिर क्या बात है, लड़के को देखा?
-हाँ देखा, अच्छी तरह देखा हूँ ! कह राधाकृष्ण फिर चाय पीने लगे । कुन्ती
की समझ में यह पहेली न आई, उसने कहा, 'जरा समझाकर कहो । तुम्हारी बात
तो समझ में ही नहीं आती ।'
राधाकृष्ण ने कहा, "समझाकर कहता हूँ, सुनो। वह लड़का,
लड़का नहीं आदमी है। तुम्हारी गौरी के साथ मामूली चपरासी की तरह
दिखेगा। बोलो करोगी ब्याह?''
कुंती बोली, ''विवाह की बात तो पीछे होगी। क्या रूप-रंग बहुत
खराब है ? फोटो में तो वैसा नहीं जान पड़ता।"
राधाकृष्ण ने कहा, "रूप-रंग नहीं, रहन-सहन बहुत खराब है ।
उम्र भी अधिक है, पैंतीस-छस्तीस साल । साथ ही दो बच्चे भी । उन्हीं
बच्चों को सँभालने के लिए तो वह विवाह करना चाहते हैं, वरना वे
शायद कभी न करते। उनकी यह दूसरी शादी होगी। उनकी उमंगें ,
उत्साह सब कुछ ठंडा पड़ चुका है। वे अपने बच्चों के लिए एक धाय
चाहते हैं", मेरी लड़की की तो दूसरी शादी नहीं है। वे साफ़-साफ़ कहते
हैं कि मैं बच्चों के लिए शादी कर रहा हूँ।"
कुंती ने कहा, है 'जिन्हें दूसरी शादी करनी होती है वे ऐसे ही
कहते हैं।"
राधाकृष्ण बोले, "अरे नहीं-नहीं यह आदमी कपटी नहीं है।
उसके भीतर कुछ और बाहर कुछ नहीं हो सकता। उसका हदय तो
दर्पण की तरह साफ़ है। उसका खादी कुरता, गांधी टोपी, फटे-फटे
चप्पल देखकर जी हिचकता है। वह नेता बनकर व्याख्यान तो दे सकता
है, पर दूल्हा बनकर आने लायक नहीं है। तीस रुपए कुल उनकी
तनख्वाह है। कांग्रेस के दफ्तर में वे सेक्रेटरी हैं। तीन बार जेल जा चुके
हैं, फिर कब चले जाएँ कुछ पता नहीं।'
कुंती बोली, "आदमी तो बुरा नहीं जान पड़ता।'
राधाकृष्ण ने कहा, "बुरा आदमी तो मैं भी नहीं कहता उसे, पर
वह गौरी का पति होने लायक नहीं । सच बात यह है।"
कुंती बोली, "फिर तुमने क्या कह दिया?"
राधाकृष्ण ने कहा, "क्या कह देता? उन्हें बुला आया हूँ। अगले
इतवार को आवेंगे। आने के लिए भी वे बडी मुश्किल सै तैयार हुए:
कहने लगे, नहीं साहब ! मैं लड़की देखने न जाऊँगा। इस तरह लड़की
देखकर मुझसे किसी लड़की का अपमान नहीं किया जाता। जब मैंने
समझाकर कहा कि आप लड़की देखेंगे लड़की और उसकी माँ
आपको देखेंगी, तब जाकर कहीं बड़ी मुश्किल से राजी हुए ।"
गौरी दरवाजे की आड़ में खड़ी सब बातें सुन रही थी है जिस व्यक्ति के प्रति
उनके पिता इतने असंतुष्ट और उदासीन थे, उसके प्रति गौरी के हदय में अनजाने
ही कुछ श्रद्धा के भाव जाग्रत हो गए । राधाकृष्ण बाबू पान का बीड़ा उठाकर
अपनी बैठक में चले गए । और उसी रात फिर उन्होंने अपने कुछ मित्रों और
रिश्तेदारों को गौरी के लिए योग्य वर तलाशने को कई पत्र लिखे ।
अगला इतवार आया । आज ही बाबू सीताराम जी, गौरी को देखने या अपने
आपको दिखलाने आवेंगे । राधाकृष्ण जी ने यह पहले से ही कह दिया है कि किसी
बाहर वाले को कुछ न मालूम पड़े कि कोई गौरी को देखने आया है । अतएव यह
बात कुछ गुप्त रखी गई है । घर के भीतर आँगन में ही उनके बैठने का प्रबंध किया
गया है । तीन-चार कुर्सियों के बीच एक मेज है, जिस पर एक साफ धुला हुआ
खादी का कपड़ा बिछा दिया गया है । और एक गिलास में आंगन के ही गुलाब के
कुछ फूलों को तोड़कर, गुलदस्ते का स्वरूप दिया गया है । बहुत ही साधारण-सा
आयोजन है । सीताराम जी सरीखे व्यक्ति के लिए किसी विशेष आडंबर की
आवश्यकता भी तो न थी ।
यथासमय बाबू सीताराम जी अपने दोनों बच्चों के साथ आए । बच्चे भी वही
खादी के कुरते और हाफपैंट पहने थे । न जूता न मोजा, न किसी प्रकार का
ठाटबाट । पर दोनों बड़े प्रसन्न, हँसमुख; आकर घर में वे इस प्रकार खेलने लगे
जैसे इस घर से चिरपरिचित हों । कुंती एक तरफ बैठी थी । बच्चों के कोलाहल
से परिपूर्ण घर उसे क्षण भर के लिए नंदनकानन-सा जान पड़ा । उसने मन-ही-मन
सोचा, कितने अच्छे बच्चे हैं । यदि बिना किसी प्रकार का संबंध हुए भी, सीताराम
इन बच्चों के संभालने का भार उसे सौंप दें, तो वह खुशी-खुशी ले ले । वह बच्चों
के खेल में इतनी तन्मय हो गई कि क्षण भर के लिए भूल बैठी कि सीताराम भी
बैठे हैं, और उनसे भी कुछ बातचीत करनी है । इसी समय अचानक छोटे बच्चे को
जैसे कुछ याद आ गया हो, दौड़कर पिता के पास आया । उनके पैरों के बीच में
खड़ा होकर बोला, बाबू, तुम तो कैते थे न कि माँ को दिखाने ले चलते हैं । माँ
कआँ है, बतलाओ?
बाबू ने किंचित् हँसकर कहा, ये माँ जी बैठी हैं, इनसे कहो, यही तुम्हें
दिखाएँगी ।
बालक ने मचलकर कहा, 'ऊँ हूँ तुम दिकाओ ।' और इसी समय एक
बड़ी-सी सफेद बिल्ली आँगन से होती हुई भीतर को भाग गई । बच्चे बिल्ली के
पीछे सब कुछ भूलकर, दौड़ते हुए अंदर पहुंच गए । गौरी पिछले दरवाजे पर
चुपचाप खड़ी थी । वह न जाने किस खयाल में थी । छोटे बच्चे ने उसका आँचल
पकड़कर खींचते हुए पूछा, तुम अमारी मां हो ?
गौरी ने देखा हृष्ट-पुष्ट सुंदर-सा बालक, कितना भोला, कितना निश्चल ।
उसने बालक को गोद में उठाकर कहा, हां ।
बच्चे ने फिर उसी स्वर में पूछा, अमारे घर चलोगी न ? बाबू तो तुम्हें लेने
आए हैं औल हम भी आए हैं।
अब तो गौरी उसकी बातों का उत्तर न दे सकी । पूछा, मिठाई खाओगे ?
कुछ क्षण बाद कुंती ने अंदर देखा, छोटा बच्चा गौरी की गोद में और बड़ा
उसी के पास बैठा मिठाई खा रहा है । एक नि:श्वास के साथ कुंती बाहर चली गई
और थोड़ी देर बाद ज्योंही गौरी ने ऊपर आँख उठाई, उसने माता-पिता दोनों को
सामने खड़ा पाया । पिता ने स्नेह से पुत्री से कहा, बेटा जरा चलो, चलती हो न ?
गौरी ने कोई उत्तर न दिया । उसने बच्चों का हाथ-मुँह धुलाया, उन्हें पानी
पिलाया, फिर मां के पीछे-पीछे बाहर चली गई । बच्चे अब भी उसी को घेरे हुए थे ।
वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे । बही मुश्किल से सीताराम जी उन्हें बुलाकर कुछ देर
तक अपने पास बिठा सके, किंतु जरा-सा मौका पाते ही वे फिर जाकर गौरी के
आसपास बैठ गए । पिता के विरुद्ध उन्हें कुछ नालिशें भी दायर करनी थीं, जो
पिता के पास बैठकर न कर सकते थे।
छोटे ने कहा, बाबू हमें कबी खिलौने नहीं ले देते।
बड़े ने कहा, मिठाई भी तो कभी नहीं खिलाते ।
छोटा बोला, और अमें छोड़कर दफ्तर जाते हैं, दिन भर नई आते, बाबू अच्छे
नई हैं ।
बड़ा बोला, मां तुम चलो, नहीं तो हम भी यहीं रहेंगे ।
बच्चों की बातों से सभी को हंसी आ रही थी । कुन्ती ने बच्चों से कहा, तो
तुम दोनों भाई यहीं रह जायो, बाबू को जाने दो, है न ठीक?
काफी देर हो गई यह देखकर सीताराम जी ने कहा, समय बहुत हो चुका है,
अब चलूँगा, नहीं तो शाम की ट्रेन न मिल सकेगी । फिर राधाकृष्ण की तरफ
देखकर कहा, आप लोगों से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई । लड़की तो आपकी
साक्षात् लक्षमी है । और यह मैं जानता था कि आपकी लड़की ऐसी ही होगी,
इसीलिए देखने को आना नहीं चाहता था । फिर कुछ ठहरकर बोले, और सच बात
तो यह है कि मुझे पत्नी की उतनी जरूरत नहीं, जितनी इन बच्चों को जरुरत है
एक मां की । मेरा क्या ठिकाना ? आज बाहर हूँ कल जेल में । मेरे बाद इनकी
देख-रेख करने बाला कोई नहीं रहता । यही सोच-समझकर विवाह करने को तैयार
हो सका हूँ, अन्यथा इस उमर में विवाह? कहकर वे स्वयं हँस पड़े ।
राधाकृष्ण ने मन-ही-मन सोचा, तो मेरी लड़की इनके बच्चों की धाय बनकर
जाएगी । कुंती ने सोचा, कोई भी स्त्री ऐसे बच्चों का लालन-पालन कर अपना
जीवन सार्थक बना सकती है! गौरी ने मन-ही-मन इस महापुरुष के चरणों में
प्रणाम किया और बच्चों की और ममता-भरी दृष्टि से देखा । जैसे यह दृष्टि कह
रही थी कि किसी विलासी युवक की पत्नी बनने से अधिक मैं इन भोले-भाले
बच्चों की मां बनना पसंद करूँगी । सीताराम जी को जाने के लिए प्रस्तुत देख,
बच्चे फिर गौरी से लिपट गए । झूठ ही सही, यदि राधाकृष्ण एक बार भी कहते
कि बच्चों को छोड़ जाओ तो सीताराम बच्चों को छोड़कर निश्चिंत होकर चले
जाते । परंतु इस ओर से जब ऐसी कोई बात न हुई तो बच्चों को सिनेमा, सरकस
और मिठाई का प्रलोभन देकर बड़ी कठिनाई से गौरी से अलग करके वे ले जा
सके । जाते समय सीताराम जी को पक्का विश्वास था कि विवाह होगा, केवल
तारीख निश्चित करने भर की देर है ।
सीताराम जी उस पत्र की प्रतीक्षा में थे जिसमें विवाह की निश्चित तारीख लिखकर
आने वाली थी । देश की परिस्थिति, गवर्नमेंट का रुख, और महात्माजी के वक्तव्यों
को पढ़कर, वे जानते थे कि निकट भविष्य में फिर सत्याग्रह-संग्राम छिड़ने बाला
है । न जाने किस दिन उन्हें फिर जेल का मेहमान बनना पड़े । पिछली बार जब गए
थे तब उनकी बूढ़ी बुआ थीं, पर अब तो वे भी नहीं रहीं । यह कहारिन क्या बच्चों
की देखभाल कर सकेंगी । बच्चों की उन्हें बड़ी चिंता थी । और बच्चे भी सदा ही
मां-मां की रट लगाए रहते थे । उन्होंने फिर एक पत्र बाबू राधाकृष्ण को शीघ्र ही
तारीख निश्चित काने के लिए लिख भेजा । उधर राधाकृष्ण जी दूसरी ही बात तय
कर रहे थे । उन्होंने सीताराम के पत्र के उत्तर में लिख भेजा कि गौरी की मां पुराने
खयाल की है । वे बिना जन्मपत्री मिलवाए विवाह नहीं करना चाहतीं । अतएव
आप अपनी जन्मपत्री भेज दें । पत्र पढ़ने के साथ ही सीताराम को यह समझने में
देर न लगी कि यह विवाह न करने का केवल बहाना मात्र है, किन्तु फिर भी उन्होंने
जन्मपत्री भेज दी । जन्मपत्री भेजने के कुछ ही दिन बाद उत्तर भी आ गया कि
जन्मपत्री नहीं मिलती, इसलिए विवाह न हो सकेगा, क्षमा कीजिएगा ।
बाबू राधाकृष्ण को गौरी के लिए दूसरा वर मिल गया था, जो उनकी समझ में गौरी "
के बहुत योग्य था । धनवान ये भी अधिक न थे । पर अभी-अभी नायब तहसीलदार
के पद पर नियुक्त हुए थे, आगे और भी उन्नति की आशा थी । बी०ए० पास थे ।
देखने में अधिक सुंदर न थे । बदशक्ल भी कहे जा सकते थे, पर पुरुषों की भी
कहीं सुंदरता देखी जाती है ? उमर कुछ अधिक न थी, यही 24-25 साल । लेने-देने
का झगड़ा यहाँ भी न था । पहली शादी थी और माँ-बाप, भाई-बहन से भरा-पूरा
परिवार था । राधाकृष्ण जी इससे अधिक और चाहते ही क्या थे । ईश्वर को
उन्होंने कोटिश: धन्यवाद दिए, जिसकी कृपा से ऐसा अच्छा वर उन्हें गौरी के लिए
मिल गया ।
विवाह आगामी आषाढ़ में होना निश्चित दुआ । दोनों तरफ से विवाह की
तैयारी हो रही थी । राधाकृष्ण जी की यही तो एक लड़की थी । वे बड़ी तन्मयता
के साथ गहने-कपड़ों का चुनाव करते थे । सोचते थे, देर से शादी हुई तो क्या
हुआ वर भी तो क्तिना अच्छा ढूँढ़ निकाला है । कुन्ती भी बहुत खुश थी । उसकी
आँखों में यह दृश्य झूलने लगता था कि उसका दामाद छोटा साहब हो गया है,
बेटी-दामाद छोटे-छोटे बच्चों के साथ उससे मिलने आए हैं । किंतु बच्चों की बात
सोचते ही उसे सीताराम जी के दोनों बच्चे तुरंत याद आ जाते और याद आ जाती
उनकी बात । बच्चों की देख-रेख करने वाला कोई नहीं है । फिर वह सोचती, ऊंह,
दुनिया में और भी तो लड़कियाँ हैं । कर लें शादी, क्या मेरी गौरी ही है । इस प्रकार
पति-पत्नी दोनों ही प्रसन्न थे, पर गौरी से कौन पूछता कि उसके हृदय में कैसी
हलचल मची रहती है । रह-रहकर उसे उन बच्चों का भोला-भाला मुंह और
मीठी-मीठी बातें याद आ जातीं । साथ ही याद आ जाते विनयी, नम्र और सादगी
की प्रतिमा सीताराम जी । उनकी याद आते ही श्रद्धा से गौरी का माथा अपने आप
ही झुक जाता । देशभक्त त्यागी वीरों के लिए उसके हदय में बड़ा सम्मान था ।
सीताराम जी ने भी तो देश के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया है, नहीं तो
बी०ए० पास करने के बाद क्या प्रयत्न करने पर उन्हें नायब तहसीलदार की
नौकरी न मिल जाती ? मिलती क्यों नहीं ? पर सीताराम जी सरकार की गुलामी
पसंद करते तब न ?
दूसरी और थे उसके होनेवाले वर-नायब तहसीलदार साहब, जिन्हें अपने
आराम, अपने ऐश के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट के जरा से इंगित मात्र से निरीह
देशवासियों के गले पर छुरी फेरने में जरा भी संकोच या हिचक नहीं । जिनके
सामने कुछ चाँदी के दुकड़े दिए जाते हैं और ये दुम हिलाते हुए, निंद्य-से-निंद्य
कर्म करने में भी किंचित् लज्जित नहीं होते । घृणा से गौरी का जी भर जाता, किन्तु
उसके इन मनोभावों को जानने वाला यहाँ कोई भी न था । वह रात-दिन एक
प्रकार की अव्यक्त पीड़ा से विकल-सी रहती । बहुत चाहती थी कि अपनी मां से
कह दे कि वह नायब तहसीलदार से शादी न करेगी, किंतु लज्जा उसे कुछ भी न
कहने देती । ज्यों-ज्यों विवाह की तिथि नजदीक आती, गौरी की चिंता बढ़ती ही
जाती थी ।
विवाह की निश्चित तारीख से पंद्रह दिन पहले एकाएक तार आया कि
नायब तहसीलदार के पिता का देहांत हो गया । इस मृत्यु के कारण विवाह साल
भर को टल गया । गौरी के माता-पिता बड़े दुखी हुए, किंतु गौरी के सिर पर से जैसे
चिंता का पहाड़ हट गया ।
इसी बीच सत्याग्रह आंदोलन की लहर सारे देश में बड़ी तीव्र गति से फैल गई ।
शहर-शहर में गिरफ्तारियों का तांता लग गया । रोज ही न जाने कितने गिरफ्तार
होते, कितनों को सजा होती । कहीं लाठी चार्ज !- कहीं 144 ! सरकार की दमन की
चक्की बड़े भयंकर रूप से चल रही थी । गौरी को चिंता थी उन बच्चों की । जब
से सत्याग्रह-संग्राम छिड़ा था, तभी से उसे फिकर थी कि न जाने कब सीताराम जी
गिरफ्तार हो जाएँ । और फिर वे बच्चे बेचारे-उन्हें कौन देखेगा । रोज का अखबार
ध्यान से पढ़ती, कानपुर का समाचार तो और भी ध्यान से देखती थी । इसी प्रकार
उसने एक दिन पढ़ा कि राजद्रोह के अपराध में सीताराम जी गिरफ्तार हो गए ।
और उन्हें एक साल का सपरिश्रम कारावास हुआ है । इस समाचार को पढ़कर
गौरी कुछ क्षण तक स्तब्ध-सी खड़ी रही, फिर कुछ सोचती हुई टहलने लगी । कुछ
ही देर बाद उसने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया । वह मां के पास गई, मां कोई
पुस्तक देख रही थी । उसने अपने सारे साहस को समेटकर दृढ़ता से कहा, 'मां, मैं
कानपुर जाऊँगी ।'
'कानपुर में क्या है ?' आश्चर्य से कुंती ने पूछा ।
गौरी ने कहा, 'वहां बच्चे हैं ।'
मां ने उसी स्वर में कहा, 'बच्चे ? कैसी बात करती हो गौरी, पागलों-सी ?'
गौरी बोली, 'नहीं माँ, मैं पागल नहीं हूँ । बच्चों को तुम भी जानती हो । उनके
पिता को राजद्रोह के मामले में साल भर की सजा हो गई । बच्चे छोटे हैं । मैं
जाऊँगी माँ । मुझे जाना ही पड़ेगा ।'
गौरी के स्वभाव से कुन्ती भली-भांति परिचित थी । वह जानती थी कि गौरी
जिस बात की हठ पकड़ती है, कभी छोड़ती नहीं है अतएव सहसा वह गौरी का
विरोध न कर सकी, बोली, पर तेरे बाबू जी तो बाहर गए हैं, उन्हें तो आ जाने दे ।
गौरी ने दृढ़ता के साथ कहा, बाबूजी के आने तक नहीं ठहर सकूंगी मां।
मुझे जाने दो । रास्ते में मुझे कुछ कष्ट न होगा । अब मैं काफी बड़ी हो गई हूँ ।
और उसी दिन शाम को एक नौकर के साथ गौरी कानपुर चली गई ।
अपनी सजा पूरी करके सीताराम घर लौटे । इस साल भर के भीतर उन्होंने बच्चों
को एक बार भी न देखा था । उन्हें कायदे के अनुसार हर महीने उनका
कुशल-समाचार मिल जाता था, पर बच्चों की चिंता उन्हें लगातार बनी ही रहती
थी । जिस कहारिन के भरोसे वे बच्चों को छोड़ गए थे, उसके भी तीन-चार बच्चे
थे । वह बच्चों को कैसे रखेगी, सो सीताराम जी जानते थे; पर विवशता थी क्या
करते । सबेरे-सबेरे छै बजे ही जेल से मुक्त कर दिए गए । एक ताँगे पर बैठकर वे
घर की ओर चले । जेब में कुछ पैसे थे । एक जगह गरम-गरम जलेबियां बन रही
थीं । बच्चों के लिए थोड़ी-सी खरीद लीं । घर के दरवाजे पर पहुंचे । दरवाजा खुला
था । घर के अंदर पैर रखने में हृदय धड़कता था । न जाने किस हालत में हों । वे
चोरों की तरह चुपके-चुपके घर में घुसे । परंतु यह क्या ? आँगन में पहुंचते ही वे
ठगे-से खड़े रह गए । फिर जरा आगे बढ़कर उन्होंने कहा, आप ?
गौरी ने झुककर उनकी पद-धूलि माथे से लगा ली ।