गेटकीपर का इनाम (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण
Gatekeeper Ka Inaam (English Story in Hindi) : R. K. Narayan
जब एक दर्जन आदमी खुलेआम या इशारे से किसी आदमी को पागल कहना शुरु कर दें तो वखुद भी अपने पर शक करने लगता है। भूतपूर्व गेटकीपर गोविंद सिंह के साथ भी यही हुआ। और इसके लिए लोगों को दोष देना भी गलत है। ऐसे आदमी के लिए आप भी क्या कहेंगे जो अपने हाथ में एक रजिस्टर्ड लिफाफा लिये आपके पास आये और पूछे, 'मुझे बताइये कि इसके भीतर क्या है?' इस बात का जवाब यही होगा कि 'खोली और देख लो।" लेकिन इस बात से वह इतना डर जाता जिसका जवाब नहीं। 'नहीं, नहीं, मैं यह नहीं कर सकता, ' यह कहकर वह अपने किसी दूसरे परिचित के पास जा खड़ा होता और यही सवाल उससे भी करने लगता। सब उसे यही जवाब देते तो वह कहने लगता कि आप सब पागल हैं। फिर किसी ने उससे कहा कि अगर तुम इसे खोलना भी नहीं चाहते और जानना भी चाहते हो कि इसके भीतर क्या है तो एक्स-रे करवाने के लिए इसे किसी अस्पताल ले जाओ। यह सलाह उसे एक पूर्व कंपाउंडर ने दी, जो दूसरी सड़क पर रहता था।
'यह क्या होता है?" गोविंद सिंह ने पूछा। जब उसे एक्स-रे क्या होता है, यह समझाया गया तो वह पूछने लगा, 'ऐसा अस्पताल कहाँ मिलेगा जिसमें एक्स-रे होता हो ?'
लेकिन इस विषय में आगे बढ़ने से पहले हमें यह जानना पड़ेगा कि यह समस्या पैदा क्यों हुई। 1914-18 के पहले विश्वयुद्ध के बाद, जिसमें वह लड़ा था, उसे इंग्लेडिया दफ्तर में गेटकीपर की नौकरी के लिए सिफारिशी चिट्ठी दी गई। उसे यह काम बहुत अच्छा लगा। उसे एक खाकी ड्रेस पहनने को दी गई, जिसके कंधे पर एक चमकदार पट्टी थी, और हाथ में रखने के लिए एक छोटी-सी छड़ी दी गयी। छड़ी हाथ में पकड़ कर वह गेट पर रखे एक स्टूल पर बैठ गया। मैनेजर की गाड़ी जब फाटक से घुसती, तब सीधे खड़े होकर वह उसे मिलिटरी सेल्यूट मारता। दफ्तर में सौ के करीब कर्मचारी थे और जब वे भीतर आते या बाहर जाते, तो वह उन पर नजर रखता। समय समाप्त होने पर जब जनरल मैनेजर सीढ़ियों से खट-खट करता नीचे उतरता, तो वह सीधा तनकर खड़ा हो जाता और उसके जाने के बाद सभी सौ कर्मचारी एक-एक करके बाहर निकलना शुरू हो जाते। फिर वह दरवाजा बन्द करता, स्टूल उठाकर भीतर रखता और उसी पर अपनी छड़ी भी तिरछी करके टिका देता। फिर बाहर निकलकर वह मुख्य फाटक का ताला लगाकर उसे भी सील कर देता।
इस तरह उसने नौकरी के पच्चीस साल गुजार दिये थे और फिर पेंशन दी जाने की प्रार्थना की थी। वह अभी रिटायर होने की बात न सोचता, लेकिन अब उसकी नजर कमजोर हो चली थी और कान भी ऊँचा सुनने लगे थे और मैनेजर जब सीढ़ियों से नीचे उतरते, तो उसे सुनाई नहीं पड़ता था कि वे आ रहे हैं। दस कदम दूरी पर आ रहे व्यक्ति को वह पहचान नहीं पाता था कि कौन आ रहा है। उसे कंपनी अध्यक्ष के सामने पेश किया गया, जिसने कागजों से सिर उठाकर कहा, 'तुम्हारे काम से कंपनी बहुत संतुष्ट है, इसलिए उसने तुम्हें आजीवन रु... 12 महीने की पेंशन देने का फैसला किया है.। गोविंद सिंह ने एड़ियाँ जमाकर सिर उठाकर सेल्यूट किया, फिर पीछे घूमकर प्रसन्न मन कमरे से बाहर निकल आया। यह दूसरी बार अध्यक्ष ने उससे बात की थी, पहली बार तब, जब उसे इस कंपनी में नौकरी दी गई थी। तब वह जैसे ही अपनी ड्यूटी पर आकर खड़ा हुआ था, अध्यक्ष ने भी दफ्तर में पैर रखा। नया आदमी देखकर उसने पूछा था, 'कौन हो तुम?' और उसने सेल्यूट मारकर फुर्ती से जवाब दिया था, 'सर, मैं नया गैटमैन हूँ।" उसके बाद पच्चीस साल बाद यह दूसरी बार बात हुई थी।
दोनों दफा यद्यपि अध्यक्ष ने बहुत कम शब्द बोले थे, उन्हें सुनकर उसमें मानो बिजली दौड़ गई थी। सिंह की नजरों में वह देवता के समान था और देवता भी जिन्दगी में कभी-कभी ही प्रकट होकर दो-चार शब्द ही बोलते हैं। कई दफा जब वह चुप बैठा सोचता रहता तो उसके दिमाग में अध्यक्ष की गरिमा और व्यक्तित्व की तस्वीर बनती रहती। पेंशन मिलने के बाद भी उसकी जिंदगी उसी तरह सुख से बीतती रही।
पेंशन के रुपये और उसकी बीवी दो घरों में झाडू-पोंछा करके जो कुछ कमाती थी, दोनों को मिलाकर उसका खर्चा बहुत अच्छी तरह चल जाता था। खाना खाकर वह घर से निकल जाता और मित्रों से मिलता-जुलता, फिर एक सिगरेट की दुकान पर, जिसे उसका एक संबंधी चलाता था, जाकर जम जाता। महीने की पहली तारीख को ही उसके इस कार्यक्रम में फेर पड़ता, जब वह वर्दी पहनकर अपने दफ्तर जाकर एकाउंटेंट से पेंशन का पैसा लेने जाता। जब कभी पैसा लेने वह शाम को जाता तो सड़क के किनारे खड़े होकर अध्यक्ष के बाहर आने का इन्तजार करता, और गाड़ी में बैठते समय उसे सेल्यूट मारकर घर वापस आता।
अब उसका समय बिलकुल खाली था, चारों तरफ फैला फालतू समय। अपने बारे में उसने एक नया आविष्कार किया, वह मिट्टी और लकड़ी का बुरादा मिलाकर खिलौने बनाने लगा। उसे अचानक ही एक दिन इस बात का ज्ञान हुआ जब एक बच्चा अपना टूटा खिलौना लेकर आया और उसे ठीक करने को कहने लगा। उसने खिलौना ठीक ही नहीं कर दिया, उसे पहले से अच्छा एक अलग खिलौना बनाकर भी दे दिया। इस बात से उसे खुद भी बड़ी खुशी हुई और इसके बाद वह इसी काम में लग गया। उसके घर के पिछवाड़े काफी अच्छी मुलायम मिट्टी थी और संबंधी की सिगरेट की दुकान के बगल में आरा लगा था; जहाँ उसे लकड़ी का बुरादा मिल जाता था। रंग वह दुकान से खरीद लेता था, दो-चार आने में बहुत से रंग मिल जाते थे।
अब उसका समय बड़ी तेजी से बीतने लगा। घर के सामने की जगह में उसका काम शुरू हो गया और देखते-ही-देखते रंग-बिरंगे तरह-तरह के खिलौनों की नुमायश ही खड़ी हो गई। यह एक पूरी दुनिया थी, पशु पक्षी, आदमी, मकान, पूरेपूरे गाँव और बाजार। फाटक पर खड़ा वह जो भी देखता रहता था-भिखारिन, मदारी, अफसर, खोमचेवाला, सब्जी बेचनेवाली, सब कुछ उसने बनाकर पटरी पर सजा दिये। मिट्टी और बुरादे से ये सब बनाकर वह इन्हें लकड़ी के पतले टुकड़ों में जड़कर सामने सजा देता। फिर इन्हें उसने सिगरेट की दुकान पर रखना शुरू कर दिया जहाँ इनकी बिक्री भी होने लगी। पैसा भी आने लगा, लेकिन पैसे से ज्यादा खुशी उसे इन्हें बनाकर मिलती थी।
दूसरी दफा जब वह पेंशन लेने गया तब अपने साथ अपना सबसे अच्छा खिलौना, सड़क का दृश्य, लेकर गया। उसे एकाउंटेंट को देकर बोला, 'इसे साहब को दे देना।' इसके बाद फिर जब वह पेंशन लेने गया तो एक और खिलौना, खेलते हुए बच्चे, साथ ले गया और उसे भी एकाउंटेंट को दे आया।
पूछा, 'साहब को मेरा खिलौना कैसा लगा ?'
अच्छा लगा।'
'यह खिलौना भी उन्हें देना..।" इसके बाद हमेशा वह अपने साथ एक खिलौना साहब को देने के लिए ले जाता और एकाउंटेंट से पूछता, 'साहब को खिलौना कैसा लगा ?'
हर बार उसे यही जवाब मिला, 'बहुत अच्छा लगा उन्हें। उन्होंने कहा बहुत अच्छा बनाया है।'
इसके बाद उसने एक बहुत बड़ा खिलौना बनाया। इसमें उसने दफ्तर का फाटक बनाया, गेट पर वह वर्दी पहने खड़ा है, साहब गाड़ी से उतर रहे हैं, यह सारा नजारा बड़ी कुशलता से अंकित कर दिया। यह सबको बहुत शानदार लगा और उसे खुद अपने पुराने दिनों की याद आ गई। इसे भी साहब को देने के लिए वह एकाउंटेंट को दे आया। इसे देखने सारे दफ्तर के लोग जमा हो गये और 'वाहवाह!' कहने लगे। एक बोला, 'तुम खुद भी इसमें बड़ी शान से खड़े हो।'
इतनी तारीफ सुनकर उसे कुछ डर भी लगा और वह बोला, 'साहब इसे देखकर खफा तो नहीं होंगे?'
'नहीं, नहीं, खफ़ा क्यों होने लगे?' एकाउंटेंट ने कहा और पेंशन के पैसे उसे पकड़ा दिये।
एक हफ्ते बाद जब वह घर के बाहर पत्थर पर बैठा मिट्टी मल रहा था, डाकिया आया और कहने लगा, 'तुम्हारी रजिस्ट्री आई है।' उसे ताज्जुब हुआ, बोला, 'मेरे लिए रजिस्ट्री?' उसे तो साधारण चिट्ठी लेते हुए भी डर लगता था, अब तक सारी जिंदगी में उसके लिए तीन ही चिट्ठियाँ आई थीं और जब तक वह इन्हें पढ़वाकर सुन नहीं लेता था कि क्या लिखा है, तब तक वह काँपता ही रहता था और अब अचानक यह रजिस्टर्ड चिट्ठी आ पहुंची थी। उसके लिए पहली रजिस्टर्ड चिट्ठी!' रजिस्ट्री से तो वकील ही चिट्ठियाँ भेजते हैं, है न?' वह परेशानी से कहने लगा।
'हाँ होता तो यही है, 'पोस्टमैन ने जवाब दिया।
'तुम इसे वापस ले जाओ, मुझे नहीं चाहिए," वह पोस्टमैन से कहने लगा।
'तो मैं इस पर लिख दूँ, 'वापस की'?" उसने पूछा।
'नहीं, नहीं, इसे ले जाओ, कह देना कि मैं मिला नहीं," गोविंद सिंह ने उत्तर में कहा।
'यह नहीं हो सकता, 'पोस्टमैन ने गंभीर होकर कहा।
अब सिंह को दस्तखत करने और चिट्ठी ले लेने के अलावा कोई उपाय नहीं सूझा। चिट्ठी लेकर वह जमीन पर बैठ गया और उसी को घूरने लगा। पत्नी बाहर गई थी, जब लौटी तो इस तरह चुप बैठा देखकर पूछने लगी, 'क्या बात है? यह तुम्हारे हाथ में क्या है?'
घुटी-सी आवाज में उसने कहा, 'यह रजिस्ट्री आई है।' और चिट्ठी उसकी ओर फेंक दी।
'क्या है इसमें?'
'मुझे क्या पता! हमारी बरबादी की खबर हो सकती है इसमें..." यह कहकर वह फूट पड़ा। पत्नी उसे एक मिनट देखती रही, फिर कुछ जरूरी काम निपटाने घर में चली गई। कुछ देर बाद वापस आई, तब भी उसका यही हाल देखकर कहने लगी, 'खोलकर क्यों नहीं देख लेते इसे? किसी से ले जाकर पढ़वा लो।"
इस पर तो डर के मारे उसने हाथ खड़े कर दिये। 'तुम नहीं जानती, क्या कह रही हो। इसे खोला नहीं जा सकता। इसमें शायद लिखा हो कि मेरी पेंशन रोक दी गई है, और पता नहीं साहब ने क्या कुछ कहा हो...।"
'तो दफ्तर जाकर उन्हीं से क्यों नहीं पूछ लेते?"
'मैं दफ्तर जाऊँ ! मैं तो वहाँ अब अपनी शक्ल भी नहीं दिखाऊँगा...।'
वह धीरे-धीरे बोलता रहा। 'सारी जिंदगी मेरे खिलाफ एक भी बात नहीं कही गई है. अब. " वह काँपने लगा। 'मैं जानता था दफ्तर का मॉडल बनाकर मैं परेशानी मोल ले रहा हूँ।... पहले भी जब मैं कुछ बनाकर ले जाता था तो सारा दफ्तर इकट्ठा होकर तारीफ करने लगता था। यह सब भी साहब के कानों में जरूर पहुँचा होगा...।"
यही सब कहता, चिट्ठी हाथ में लिये, वह घूमता रहा। खाने में उसकी रुचि पर घूमता, जो साफ-सुथरी सैनिक की उसकी जिन्दगी को देखते हुए लोगों को बहुत अजीब लगता था। उसकी पत्नी की मानसिक शांति भी समाप्त हो गई थी और वह भी पति के लिए बहुत चिंतित रहने लगी थी। उसे जो भी मिलता, उससे वह यही सवाल करता, 'इस पत्र में क्या है, मुझे बताओ, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं होता था कि पत्र खोलकर देखे कि उसमें क्या लिखा है।
अंत में यही हुआ कि सिंह ने एक्स-रे वाले अस्पताल का पता लगाया। जो रेसकोर्स रोड पर था। जब वह फाटक पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ गाड़ियों की लाइन लगी थी और बाहर एक गोरखा सिपाही खड़ा था। सौफों पर बैठे बहुत से लोग पत्रिकाएं और पुस्तकें पढ़ रहे थे। उन्होंने सिंह की तरफ एक हलकी-सी नजर डाली और फिर पढ़ने में लग गये। वह दरवाजे पर असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा, यह देखकर एक सहायक उसके पास आया और पूछने लगा, 'तुम्हें क्या चाहिए?" सिंह ने उसे सेल्यूट किया और चिट्ठी सामने बढ़ाकर पूछने लगा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमें क्या है। ' सहायक ने कहा कि खोलकर देख लो। लेकिन सिंह ने कहा, 'लोगों ने कहा है कि आप इसे खोले बिना बता सकते हैं कि इसमें क्या लिखा है।'
'आप कहाँ से आ रहे हैं?' सिंह ने उसे अपनी जिन्दगी का पूरा ब्योरा दिया और और अंत में कहा, 'मैंने जिन्दगी भर बिना शिकायत के नौकरी की है। अब मुझे लगता है, इसमें मेरे लिए कोई परेशानी छिपी है...।' यह कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गये।
सहायक ने अचरज से उसे देखा, जो और भी बहुतों ने यह सुनकर किया था, फिर मुस्करा कर कहा, 'घर जा कर आराम करो। तुम्हारी तबियत ठीक नहीं लगती... जाओ, घर जाओ।"
'आप मुझे यह नहीं बता सकते कि इसमें क्या लिखा है?' बहुत दयनीय होकर उसने फिर कहा। सहायक ने पत्र हाथ में लेकर उसे देखा और पूछा, 'मैं इसे खोल सकता हूँ?"
'नहीं, नहीं, नहीं', सिंह ने झपट कर पत्र उसके हाथों से ले लिया। उसकी आँखों में दहशत दिखाई देने लगी थी। और लोगों ने भी सिर उठाकर उसे देखा और मनोरंजन के भाव से मुस्कराये। सहायक ने नरमी से उसका कंधा थामा और बाहर ले गया।
घर लौटते हुए वह इसी पर सोचता रहा। 'ये सब मुझे ऐसे क्यों देखते हैं, क्या मैं सचमुच पागल हूँ?"दिमाग में यह शब्द आते ही वह एकाएक सड़क के बीच में ही रुककर खड़ा हो गया और चिल्लाकर कहने लगा, 'तो यह बात है? यही बात है-मैं पागल हूँ पागल!" उसने खुश होकर सिर हिलाया, जैसे पूरी सच्चाई उसकी समझ में आ गई है। अब वह जान गया है कि लोग उसे अजीब नजरों से क्यों देखते थे। 'वाह, अरे वाह!' यह कहकर वह हँसने लगा।
इससे उसे काफी चैन मिला। 'मैं पागल हो गया था और मुझे इसका पता ही नहीं था.।' वह पिछले दिनों के बारे में सोचने लगा। एक-एक दिन की सभी घटनाएं, जब से, उसने खिलौने बनाना शुरू किया था, उसकी आँखों के सामने से गुजरने लगीं। 'पच्चीस साल की इज्जतदार नौकरी करने के बाद कौन भला आदमी खिलौने बनाना शुरू करेगा?' अब जैसे उसके शरीर के जोड़ खुलने लगे और वह आराम से चलने लगा। उसे लगा कि वह उड़ भी सकता है। उसने दोनों हाथ ऊपर उठाये और सड़क पर दौड़ना शुरू किया। लोग उसे देखने के लिए रुक गये, तो वह चिल्लाकर कहने लगा, 'मुझ पर मत हँसी, मैं तो पागल हूँ। कौन जानता है तुम भी अगर मेरी तरह खिलौने बनाने लगोगे तो पागल हो जाओगे।' यह कहकर वह भीड़ के बीच चिल्लाता हुआ दौड़ने लगा।
तभी उसने देखा, स्कूल से बहुत से बच्चे निकलकर चले आ रहे हैं। उसने सोचा, शोर का अभिनय करके इनका मनोरंजन करूं। वह जमीन पर हाथ पैरों के बल चलकर गुर्राता हुआ बच्चों की तरफ जाने लगा।
जब वह घर पहुँचा, उसकी हालत बुरी हो रही थी। पत्नी मसाला पीस रही थी, उसे देखकर बोली, 'यह क्या तमाशा है?' उसके बालों में धूल भरी थी और सारा शरीर कीचड़ से सना था। वह ठट्टे मारकर हँस रहा था, इसलिए बोल भी नहीं पा रहा था। 'पता है, क्या हुआ?'
'क्या हुआ?'
'मैं पागल हूँ पागल, अब मुझे पता चल गया। " उसने कोने में रखी टोकरी उठाई और उसमें से मिट्टी लेकर एक टोप बनाया, फिर उसे सिर पर लगा लिया। नीचे जमीन पर नए बनाए खिलौने रखे थे। पिछली दफा दफ्तर जाने के बाद से उसने गाँव का एक मॉडल बनाना शुरू किया था। इसमें एक सड़क भी थी, लाल टाइलों से बने मकान थे, नारियल के पेड़ों पर हरे फल लटक रहे थे, औरतें रंगबिरंगी साड़ियाँ पहने सिर पर पानी से भरे बर्तन लिये जा रही थीं। यह प्रेरणा उसके अपने बचपन के दिनों की यादों से, जो उसने गाँव में बिताये थे, मिली थी। आज तक बनाये सब मॉडलों में इतना बड़ा और शानदार यह पहला प्रयत्न था। इस पर काम करते हुए वह अपार सुख का अनुभव करता रहा था। 'इसे मैं अपने ही पास रखेंगा, यह मेरे बचपन की यादगार है।' इसे मैं किसी नुमायश में रखेंगा, इसके लिए मुझे मैडल मिलेगा।" वह खजाने की तरह इसकी रक्षा करता था-जब यह गीला था, वह अपनी पत्नी को इसके दस गज दूर तक चलने भी नहीं देता था। कहता था, 'इससे दूर रहना। इस गाँव तक तुम्हारे पैरों की धूल नहीं पहुँचनी चाहिए।'
अब पागल की तरह उसने इसे देखा। फिर पैर उठाकर उसे कुचलना शुरू कर दिया। बहुत जल्द सारा मॉडल रंगीन टुकड़ों के ढेर में बदल गया। मिट्टी अभी तक कुछ गीली थी। उसने देखा, सड़क पर एक गधा घूम रहा है। उसने सारा मलबा उठाया और गधे के सामने डाल दिया-'अच्छा लगे तो इसे खा जाओ। यह बहुत अच्छा गाँव है।'
इसके बाद वह फिर बाहर निकल गया। पागलों की तरह सड़कों पर टहलने लगा। फिर रुक गया, आराम से एक-एक कदम उठाकर धीरे-धीरे चला, गहरी साँस खींची। सिर पर टोप लगा था, जिसके भीतर से सफेद बाल निकले पड़ रहे थे, बाँहें पीठ के पीछे, ऊँगलियों में वही चिट्ठी दबाये, सिर आसमान की तरफ उठाये, वह मार्केट रोड पर इस तरह आगे बढ़ने लगा, मानो दुनिया का मालिक हो-उसके पागलपन ने उसे असीम स्वतंत्रता, शक्ति और उत्साह प्रदान कर दिया था। लोग उसे देखकर हँस रहे थे, मजाक कर रहे थे परंतु उस पर किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। चलते-चलते उसकी नजर सामने खड़े खंभे पर लगे एक बल्ब पर पड़ी। उसे देखकर कह बोला, 'अरे, पपीते जितना बड़ा बल्ब।' वह बहुत दिन से पत्थर मारकर इसे तोड़ने का विचार किया करता था, पर हिम्मत नहीं पड़ती थी। अब पागलपन की झोंक ने उसमें वह साहस और उत्साह पैदा कर दिया कि यह काम कर डाले। उसने जमीन से पत्थर उठाया और निशाना साधकर बल्ब की दिशा में फेंक दिया। बल्ब फूट गया और उसकी आवाज उसे संगीत की तरह लगी। एक सिपाही दौड़कर आया और उसका कंधा पकड़कर बोला, 'यह क्यों किया?' उसने गुस्से में भरकर जवाब दिया, 'मुझे पपीते का शीशा तोड़ना अच्छा लगता है।' सिपाही बोला, 'मेरे साथ पुलिस स्टेशन चलो।"
'अरे हाँ, मैं जब मेसोपोटामिया में था, उन्होंने मुझे एक दफा आधे राशन पर रख दिया था, ' यह कहता हुआ वह पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ा। बीच में रुका, सिर एक तरफ मोड़ा और बोला, 'यह सड़क सीधी नहीं है.।' कई गाड़ियाँ और साइकिलें उसकी तरफ आ रही थीं। इन सबमें उसे कमियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्हें वह ये बातें बताना चाह रहा था। वह सड़क के बीचोंबीच रुक गया, हाथ फैलाये और चिल्लाकर बोला, 'रुको, रुक जाओ।" गाड़ियाँ रुक गई, साइकिलों पर सवार लोग नीचे उतर आये और उसने भाषण देना शुरू किया-'मैं जब मेसोपोटामिया में था-दोस्तो, मैं तुम्हें वह बातें बताऊँगा जो तुम्हें पता नहीं हैं।'
सिपाही ने उसे किनारे की तरफ खींचा और गाड़ियों को आगे बढ़ने का इशारा किया। एक साइकिल वाला उसे ध्यान से देखकर उसकी तरफ आया और बोला, 'अरे, यह तो सिंह है, वही अपना सिंह! अरे, तुम यह कैसे कपड़े पहने हो? तुम्हें क्या हुआ है भई?'
पागलपन की रौ से धुंधली हुई नजर से भी वह इस व्यक्ति को पहचान गया, ये तो दफ्तर के एकाउंटेंट थे।
उसने आदत के मुताबिक सीधे खड़े होकर एकाउंटेंट को सेल्यूट किया और बोला, 'माफ कीजियेगा सर, मैं आपको नहीं रोकना चाहता, आप जा सकते हैं.।' यह कहकर उसने सड़क पर आगे इशारा किया और एकाउंटेंट को उसके हाथ में वही पत्र दिखाई दे गया। उसने लिफाफा पहचान लिया। हालांकि यह तुड-मुड़ गया था और मिट्टी से भी सन गया था।
'सिंह, तुम्हें यह खत मिल गया?'
'मिल गया, सर, लेकिन आप चलिये। इस बारे में कोई बात नहीं करनी है।' 'क्या बात है?" यह कहते हुए उसने लिफाफा छीन लिया और बोला, 'तुमने इसे खोला क्यों नहीं है?'
यह कहकर उसने लिफाफा खोल लिया और पत्र निकालकर जोर से पढ़ने लगा, 'जनरल मैनेजर को आपके भेजे मॉडल बहुत कथात्मक लगे हैं और इनके लिए वे आपको सौ रुपये के इनाम की घोषणा करते हैं। वे आशा करते हैं कि इससे आपको यह काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा और इस कला में आप और ज्यादा प्रगति करते रहेंगे।'
पत्र अंग्रेजी में था इसलिए उसका पूरा अनुवाद करके भी उसे सुनाया गया और पत्र के साथ सौ रुपये का जो चेक नत्थी था, वह निकालकर उसे पकड़ा दिया गया।
यह तमाशा देखने बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। सिंह ने पत्र अपनी आँखों से लगाया, सिर पर हाथ मारा और जोर से बोला, 'सर, आप बतायें, मैं पागल हूँ या नहीं?'
'तुम बिलकुल ठीक लग रहे हो। तुम पागल बिलकुल नहीं हो', एकाउंटेंट ने कहा।
सिंह यह सुनकर उसके पैरों पर गिर पड़ा और आँखों में आँसू भरकर बोला, 'सर, आप देवता हैं जो मुझे पागल नहीं कह रहे। यह सुनकर मैं बहुत खुश हूँ।'
अगतगो ओर घिर आये और पूछने लगे, 'अब क्या बना रहे हो, कलाकार?'
'कुछ नहीं, सर, अब मैं कुछ नहीं बनाता। यह भले आदमी का काम नहीं है।' यह कहकर उसने पैसे लिये और तेज कदमों से बाहर निकल आया।