गरुड़ और गरुड़ी की कथा : गुजरात की लोक-कथा
Garud Aur Garudi Ki Katha : Lok-Katha (Gujrat)
एक विशाल जंगल था। उसमें पशु-पक्षी और जानवर रहते थे। इस जंगल में नाना प्रकार की वनस्पतियाँ थीं। जब वनस्पतियों में फूल आते, तब यह जंगल सुगंधित हो उठता। फल भी बहुत आते। पक्षी फल-फूल खाकर रहते थे, फिर भी कुछ बड़े प्राणी छोटे प्राणियों को मारकर खाते। यह वन न्यायी राजा के राज्य में स्थित था, इसलिए मनुष्य यहाँ शिकार करने नहीं आते थे। कभी राजा राज-काज से ऊबकर घोड़े पर सवार हो यहाँ आता था और नदी के किनारे बैठकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेता था। नदी का पानी बहता रहता, नदी की मछलियाँ, मेढक और कछुआ निर्भय होकर घूमते रहते, जंगल के बंदर एक वृक्ष से दूसरे पर उछल-कूद करते रहते थे। मोर पंख फैलाकर जंगल में नाचते थे। उसमें भी बरसात होनेवाली हो, तब उनकी कला देखते ही बनती थी। पक्षियों का कलरव मधुर लगता। इस जंगल में गरुड़ भी रहते थे।
ये गरुड़, साँप और अन्य जीवों को मारकर खाते थे। इस जंगल में जीवों के कम होने पर गरुड़ दूसरे जंगल में चले गए। अब मात्र एक युगल ही बचा था। अभी हाल ही में गरुड़ी ने दो बच्चों को जन्म दिया था। वे भी चले जाते पर छोटे बच्चों को लेकर कहाँ जाएँ, कैसे जाएँ? अब उन्हें बच्चे होंगे या नहीं, यह तो भगवान् ही जाने। इससे पहले उनको चार बार बच्चे हुए थे और चारों बार जंगल में आग लगी और वे बच्चे छोड़कर भाग गए थे। वह बच्चे दावाग्नि में जल मर गए थे। इस कारण इस बार जो होना हो, पर वो बच्चों को छोड़कर नहीं ही जाएँगे, ऐसा निश्चित किया था। गरुड़-गरुड़ी दाना-पानी लाकर उन्हें खिलाते रहते।
इस जंगल में फिर एक बार आग लगी। पशु-पक्षी जान बचाने के लिए भागने लगे। उनका चीखना-चिल्लाना मच गया। सभी पशु-पक्षी भाग निकले। अब तो मात्र गरुड़ और गरुड़ी तथा उनके बच्चे ही बाकी रहे। गरुड़ गरुड़ी से कहता है
—“चलो, हम भी यहाँ से भाग चलें।” गरुड़ी ने कहा, “तुम पागल हुए हो, कैसे भागें? हम भाग जाएँगे तो अपने इन बच्चों का क्या होगा?”
गरुड़ ने कहा, “गरुड़ी, तुझे बुद्धि नहीं है। इस जंगल से सभी पशु-पक्षी भाग गए हैं, केवल हम लोग ही यहाँ हैं। ऐसे समय में तो अपना अपना जीवन बचाना होता है?”
गरुड़ी कहती है, “तुम भी ऐसा सोचते हो क्या? इन बच्चों को छोड़कर हम भाग जाएँगे! तो इन बच्चों का क्या होगा? पहले के बच्चों जैसे ही...?”
गरुड़ कहता है, “तुम नाहक हठ मत करो। ये जंगल जलता हुआ नजदीक आता जा रहा है। विचार करने का समय नहीं है। तुम चलो, बच्चे भले यहाँ रहें। हम जीवित रहेंगे तो फिर बच्चे भी पालेंगे। पर हम ही नहीं होंगे तो बच्चे कहाँ से?”
गरुड़ी बोली, “तुम तो निर्लज्ज हो। ऐसा कहने में तुम्हें थोड़ी भी शर्म नहीं आई। हमारे पहले के चार बार के बच्चे अग्नि में जल गए और ये बच्चे भी दावाग्नि में जल जाएँगे, ऐसा तुम सोच रहे हो। तुम कैसे नर हो?”
दावाग्नि जलते हुए नजदीक आने लगी। अब अधिक बात करने में गरुड़ को कोई लाभ नहीं दिखा। अब क्या करना है?
गरुड़ ने गरुड़ी से कहा, “तू मेरा कहा मानती ही नहीं तो मैं क्या करूँ, यहाँ रहेंगे तो हम दोनों जलकर मर जाएँगे और मैं तो जीना चाहता हूँ। तुम रहो, मैं तो चला।”
गरुड़ी बोली, “मत जाओ, स्वामी मत जाओ। मैं एक अबला हूँ। मैं इन बच्चों को किस तरह बचा पाऊँगी! आप रहोगे तो हम कोई भी उपाय कर सकेंगे। आप मत जाइए! हम सबको ऐसी परिस्थिति में छोड़कर आप कैसे जा रहे हैं? आपका मन कैसे होता है?”
गरुड़ ने कहा, “तुम तो समझती नहीं हो, फिर से कहता हूँ, आना हो तो चलो। नहीं तो यहाँ रहकर इन बच्चों के साथ ही दावाग्नि में जल मरो।”
अंत में गरुड़ बच्चों और गरुड़ी को उसी जंगल में छोड़कर चला गया। गरुड़ी तो रोने लगी। उसको देखकर बच्चे भी रोने लगे। गरुड़ी ने निश्चय किया कि भले ही मैं बच्चों के साथ जलकर मर जाऊँगी, परंतु बच्चों को छोड़ूँगी नहीं।
दावाग्नि तो नजदीक आने लगी। अब क्या करना है? गरुड़ी ने विचार किया, भले ही दावानल विशाल हो, पर थोड़ी सी जगह को सँभाल लूँगी तो शायद मैं बच्चों को बचा सकूँगी।
गरुड़ी ने दूर ही पर एक चंदन का जंगल देखा। उसने एक-एक करके बच्चों को वहाँ ले जाकर छोड़ा, फिर अगल-बगल में नीचे पड़े हुए पत्तों को हटा दिया। चारों ओर के पत्तों को साफ किया, फिर जंगल के ही नजदीक में एक नदी थी। उस नदी में पानी का एक निर्झर था। वह झरने पर जाकर अपनी पाँखें भिगोकर आती और बच्चों को रखी थी, वहाँ उसके पास के दूर्वा की अग्नि पर पाँखें झटकारती। वह पानी छींटकर अग्नि को बुझाती। अग्नि पर पानी डालकर वह फिर पाँखें भिगोने नदी पर जाती। इतने देर में तो अग्नि फिर सुलग उठती। ऐसी भयानक परिस्थिति खड़ी हो गई थी। गरुड़ी तो रात-दिन पानी में पाँखें भिगोकर छाँटने लगी। अब तो वह थककर लथपथ हो गई। एक-दो दिन के बाद दावानल शांत पड़ने लगा, फिर भी गरुड़ी तो पानी छींटती ही रही। एक बार वह पानी में चोंच डुबाकर आ रही थी, तब वह पानी के भार के कारण गिर पड़ी थी। वह जस-की-तस ही पड़ी रही। काफी समय हो जाने से उसके शरीर पर चींटियाँ चढ़ गईं, फिर रात्रि के ठंडे प्रहर में उसके शरीर में चेतना आई। उसने आँखें खोलकर देखा तो वह नदी के निर्झर के किनारे पड़ी है। उसको जंगल के दावानल की घटना याद आई, बच्चे याद आए, परंतु अब जाए कहाँ सर्वत्र अँधेरा व्याप्त था। उसको लगा कि बच्चे मर ही गए होंगे। ऐसा विचार करके वह रोने लगी। सुबह हुई, उजाला फैला और वह धीरे से उठकर चंदन वन में चली गई। तब उसने देखा कि बच्चे गरमी के कारण औंधे पड़े हैं। उसको तो बहुत दुःख हुआ, फिर उसने ध्यानपूर्वक देखा तो बच्चे साँस ले रहे थे। वे मरे नहीं थे। उसको पुनः आशा जगी। वह फिर से नदी पर गई और पाँखे भिगोकर पानी ले आई और बच्चों की चोंच में डाला। शरीर पर छींटे मारी। थोड़ी देर के बाद बच्चों ने आँखें खोलीं। गरुड़ी तो आनंदित हो उठी, फिर दोनों बच्चों को पंखों में लेकर खूब प्रेम करने लगी। जंगल में खाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था, फिर भी वे वहीं रहने लगे। नजदीक के ही छोटे-बड़े वन में जाकर जीव-जंतुओं को खाकर रहने के लिए वे चंदन वन में ही आते। ऐसा करके वे दिन बिताने लगे। अब तो बच्चे भी बड़े हो गए थे। वह गरुड़ी बच्चों के साथ खूब आनंदपूर्वक रहने लगी। गरुड़ का तो कोई पता ही नहीं था। बच्चे गरुड़ को याद भी नहीं करते थे। दिन बहुत अच्छे निकलने लगे।
इस तरफ गरुड़ अन्य जंगल में आकर रहने लगा। वहाँ दूसरे जंगल में रहते हुए गरुड़ ने सोचा, “वहाँ दावानल वाले जंगल में पड़े गरुड़ी और बच्चे तो दावाग्नि में मर गए होंगे? तो वहाँ जाने का मेरा कोई काम नहीं है। अब तो मैं अकेला पड़ गया हूँ। न तो मेरी पत्नी है, न ही बच्चे हैं तो पूरी जिंदगी मैं अकेले कैसे व्यतीत करूँगा। इसकी अपेक्षा दूसरी पत्नी रख लूँ तो और अच्छा।”
ऐसा सोचकर उसने उसी जंगल में रहनेवाली एक गरुड़ी से संबंध स्थापित किया। वह भी उसी जंगल में रहने लगा। वहाँ भी एक घटना घटी। वह जिस गरुड़ी के साथ संबंध बना रहा था, उस गरुड़ी का पति आया। वह गरुड़ गरुड़ी के संबंध के विषय में जाना और वह इस गरुड़ को चोंच मार-मारकर परेशान करने लगा।
एक बार वह गरुड़ और उसके संबंधी गरुड़ों ने इस गरुड़ को दूसरे जंगल में चरने के बहाने ले गए। वहाँ चार-पाँच गरुड़ों ने इस गरुड़ को चोंच मार-मारकर बेहोश कर दिया। वह मर गया है, ऐसा समझकर वे गरुड़ वापस जंगल में आ गए। इसकी खोज खबर लेने वह गरुड़ी नहीं आई। वह क्यों आएगी अब तो उसका पति आ गया था!
गरुड़ पूरे दिन अर्धमृत हालत में पड़ा रहा। रात बीत गई। दूसरे दिन उसने आँखें खोलीं। उसको बहुत दुःख हुआ, पर क्या करता? यह उसके कर्म का फल था, फिर वह धीरे से उठा और नदी पर गया। पानी पीया और नजदीक में ही स्थित एक चंदन के वृक्ष पर जाकर बैठा। दो-तीन दिन वहीं रहा, फिर उसे थोड़ा आराम लगा। अब वह नजदीक के वनों में चरने के लिए जाता था और रहने के लिए वहीं चंदन के वृक्ष पर ही लौट आता। वहाँ भी कितने दिन रहता? अब उसके मन में आया कि ‘मेरी असली पत्नी गरुड़ी और बच्चे जीवित हैं या मर गए, इसका पता तो लगाऊँ?’
ऐसा विचार करके वह जिस जंगल से भागकर गया था, उस जंगल में वापस आया। वहाँ देखा तो उसको कोई नहीं दिखा। उसे लगा कि सचमुच ही मेरी पत्नी और बच्चे दावानल में जलकर मर गए। अब वह उसी जंगल में रहने लगा।
एक दिन ऐसा हुआ कि गरुड़ जंगल में, जहाँ चरने के लिए आता था, उसी वन में गरुड़ी बच्चों को लेकर चरने आई। गरुड़ ने गरुड़ी को देखा। उसने गरुड़ी को पहचानने का प्रयत्न किया। यह तो मेरी पत्नी जैसी ही लगती है, परंतु बच्चों को वह नहीं पहचान सका। उसको दुविधा हुई कि यह वही है या कोई अन्य गरुड़ी है। वह चुप ही रहा। तो दूसरी तरफ गरुड़ी ने भी गरुड़ पति को देखा, लेकिन उसे लगा कि गरुड़ तो दूसरे वन में गया था, वो यहाँ कैसे आ सकता है? वह तो वहाँ नई पत्नी के साथ मौज करता होगा। ये तो कोई दूसरा ही गरुड़ होगा।
गरुड़ अपने ढंग से चरता था तो गरुड़ी और बच्चे अपने ढंग से अलग ही रहकर चरने लगे।
एक दिन दोपहर को चंदन के वृक्ष के ही खोखल में गरुड़ के बच्चों ने साँप के एक बच्चे को देखा। वह साँप का बच्चा गरुड़ों को देखकर खोखल में छिप गया। गरुड़ के बच्चों ने साँप के बच्चे को खोखल से निकाला और उसे चोंच मार-मारकर अधमरा कर दिया। साँप का बच्चा भागा और वहाँ से भागकर पीपल के वृक्ष पर चढ़ गया। पीपल के वृक्ष पर ही गरुड़ बैठा था। गरुड़ ने साँप को देखा और उसने चोंच मारकर उसे मार डाला। इतनी देर में गरुड़ के बच्चे साँप को खोजते हुए वहाँ आए। बच्चों से गरुड़ ने कहा, “यह हमारा शिकार है, हमें दे दीजिए।”
गरुड़ ने बच्चों से कहा, “इस शिकार को मैं कैसे वापस दे दूँ, इसको तो मैंने पकड़ा और मारा है।”
बच्चे बोले, “परंतु शिकार तो हमने खोजा था। यह हमारे पास से भागकर यहाँ आया है, इसलिए यह शिकार तो हमारा ही कहलाएगा तो हमें दे दीजिए।”
गरुड़ बोला, “नहीं दूँगा, यह मेरा शिकार है।”
बच्चे बोले, “ऐसा नहीं चलेगा, यह हमारा शिकार है। हमें दे दो।”
शिकार की खातिर बच्चों और गरुड़ का झगड़ा हुआ, तभी बच्चों को खोजती हुई गरुड़ी वहाँ आई। गरुड़ी ने गरुड़ से कहा, “इस शिकार को इन बच्चों ने खोजा है, इसलिए इस शिकार को बच्चों को दे दो।”
गरुड़ ने कहा, “परंतु इस शिकार को मैंने पकड़ा है तो उन्हें कैसे दे दूँ?”
गरुड़ी ने कहा, “पर तुम तो नर हो और ये बच्चे हैं। तुम्हें समझना चाहिए। यदि हम बुजुर्ग ही न समझें तो कैसे चलेगा?”
गरुड़ ने कहा, “मैं नहीं देनेवाला। तुम्हें जो करना हो सो करो, पर मैं तो इस शिकार को नहीं दूँगा।”
गरुड़ी ने कहा, “हाय रे! तुम्हें क्या कहना! एक तो बच्चों का पिता गरुड़ इन बच्चों को छोड़कर भाग गया और दूसरी तरफ तुम इनका शिकार नहीं देते। तुम सभी नर एक जैसे ही होते हो।”
गरुड़ ने पूछा, “इनके पिताजी इन्हें छोड़कर कहाँ गए?”
गरुड़ी ने पूरी बात कह सुनाई। गरुड़ ये बात जानकर बहुत खुश हुआ। उसके मन में आया, ये तो मरे ही बच्चे हैं और गरुड़ी मेरी पत्नी है। मैं समझता था, वह सब मिथ्या निकला। वे सब दावानल में मरे नहीं, जीवित ही हैं।
फिर गरुड़ ने कहा, “तुम्हारा पति तो मैं ही हूँ।”
गरुड़ी कहती है, “मेरे पति तुम नहीं, तुम तो अलग ही दिखते हो।”
गरुड़ गरुड़ी की बातें चल रही थीं, तब बच्चे शिकार लेकर भाग गए।
फिर गरुड़ ने अपनी सब बातें गरुड़ी को कह सुनाईं। उसको सुनकर गरुड़ी बोली, “भले पहले के तुम मेरे पति होगे, पर अभी मेरे पति नहीं रहे। यदि तुम मेरे पति ही होते तो दावानल में हमें छोड़कर नहीं भागे होते। तुम मेरे पति नहीं और इन बच्चों के पिताजी भी नहीं। तुम्हारे और हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है।”
फिर गरुड़ी बच्चों को लेकर वहाँ से निकल गई और चंदन वन में आ गई।
गरुड़ वहाँ से आकर उनके पास ही थोड़ी दूरी पर रात को रहा। सुबह फिर वह गरुड़ी के पास गया। बच्चे इधर-उधर चरते हुए खेल रहे थे। वो बच्चों के पास जाकर लाड-प्यार करने लगा। बच्चे गरुड़ को देखकर दूर भागने लगे। गरुड़ी ने कहा, “तुम्हें यहाँ आने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे पति नहीं हो।”
गरुड़ ने कहा, “मैं ही तेरा पति हूँ, तू क्यों नहीं समझती?”
गरुड़ वहाँ पास में जा-जाकर गरुड़ी को फुसलाने लगा, लेकिन गरुड़ी उसको स्वीकरती नहीं थी।
बाद में गरुड़ ने कहा, “भले तुम मुझको स्वीकार न करो, अपने घर नहीं रखो, परंतु मेरे बच्चे तो दे दो।”
गरुड़ी गरुड़ की माँग सुनकर बहुत खीज गई। तुम्हारे बच्चे हैं! तुम्हारे बच्चे होते तो तुम उन्हें छोड़कर भाग नहीं गए होते। उन्हें किस तरह से बचाया है, वह मुझको ही पता है। सूर्य-चंद्र उसके साक्षी हैं। गरुड़ ने कहा, “तुम चाहे जो करो, परंतु मेरे बच्चों को मुझे सौंप दो।” गरुड़ी उसको बच्चे नहीं देती हैं।
गरुड़ बोला, “तुम मुझे मेरे बच्चों को नहीं दोगी तो मैं राजा के पास न्याय के लिए जाऊँगा।”
गरुड़ी ने कहा, “तुम चाहे जिस राजा के पास जाओ और चाहे जो करो, परंतु मैं तो बच्चों को नहीं दूँगी तो नहीं ही दूँगी।”
फिर तो गरुड़ राजा की नगरी में जाकर न्यायी राजा से मिला और पत्नी और बच्चों से जुड़ी सभी बातें कह सुनाईं।
न्यायी राजा ने कहा, “गरुड़, तुम कल गरुड़ी और बच्चों को लेकर दरबार में आना।”
गरुड़ फिर से चंदनवन में आया और गरुड़ी से बोला, “तुझको कल बच्चों के साथ न्यायी राजा ने दरबार में बुलाया है।”
गरुड़ी बोली, “कोई बात नहीं, मैं कल बच्चों को लेकर दरबार में आऊँगी। राजा के आदेश का अनादर नहीं करते हैं।”
गरुड़ी ने माना कि “यदि इतनी तकलीफें उठाकर बच्चों को दावानल से बचाया है और छोटे से बड़ा किया है, ये सब बातें राजा को कह सुनाऊँगी तो राजा बच्चों को गरुड़ को नहीं देंगे, लेकिन बदले में उसको दंड ही देंगे।”
दूसरे दिन गरुड़ी बच्चों को लेकर न्यायी राजा के दरबार में गई, गरुड़ भी आया और दरबार लगा। राजा ने न्याय का काम आरंभ किया। राजा ने कहा, “गरुड़ी, ये गरुड़ तेरा पति है?”
गरुड़ी ने कहा, “मुझको पूरा विश्वास तो नहीं है, पर उसकी बात से लगता है कि वह मेरा पति होगा।”
राजा ने कहा, “और ये बच्चे तुम्हारे हैं?”
गरुड़ी बोली, “हाँ, महाराज ये बच्चे मेरे ही हैं।”
राजा ने गरुड़ से पूछा, “तुम्हारे गृह-संसार में ऐसा क्यों हुआ?”
गरुड़ ने कहा, “महाराज, मैं बाहर के अन्य जंगल में चरने के लिए गया था, तब जंगल में दावानल लगा था। मुझको लगा कि वहाँ ठहरी पत्नी गरुड़ी और बच्चे अग्नि में जलकर मर गए होंगे, इसलिए मैं वहीं दूसरे जंगल में ही रुक गया था।”
फिर न्यायी राजा ने गरुड़ी से पूछा, “क्या गरुड़ ठीक कह रहा है? यह बात सच है?”
गरुड़ी बोली, “महाराज, गरुड़ झूठ बोल रहा है। दरअसल सच बात तो और ही है। गरुड़ी ने जंगल में दावाग्नि लगी, तब से बात शुरू करके बच्चों पर से झगड़े होने और बच्चों की गरुड़ की माँग तक की बात राजा को कह सुनाई।”
गरुड़ी की बात सुनकर राजा ने सिर हिलाया। राजा ने कहा, “गरुड़, अब तुम गरुड़ी को साथ रखोगे?”
गरुड़ ने कहा, “हाँ महाराज! मैं अब भी गरुड़ी और बच्चों को अपने साथ रखने को तैयार हूँ। कारण—वह मेरी पत्नी है और अपने बच्चों के बिना तो मेरा जीवन व्यर्थ है।”
फिर राजा ने गरुड़ी से पूछा, “गरुड़ी तुम गरुड़ के साथ रहोगी?”
गरुड़ी ने कहा, “मैं कैसे जाऊँ? दावानल लगा तब हमको छोड़कर भाग गए थे तो अब इनका क्या भरोसा? मेरा और बच्चों का तो यह नया जन्म हुआ है, समझो।”
राजा ने कहा, “गरुड़, गरुड़ी तो तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं है तो तुम क्या करोगे?”
गरुड़ ने कहा, “महाराज, गरुड़ी नहीं आए तो कोई बात नहीं, परंतु मेरे बच्चे मुझको मिलने चाहिए।”
गरुड़ी बोली, “महाराज, मैं किस तरह से इन्हें बच्चों को सौंप सकती हूँ? उनको मैंने जन्म दिया है। दावानल से बचाया है, छोटे से बड़ा मैंने किया है तो इनको क्यों दे दूँ? मैं बच्चों को इन्हें नहीं दूँगी।”
गरुड़ ने कहा, “महाराज, मेरे बच्चे मुझको मिलने चाहिए।”
गरुड़ी ने कहा, “मैं बच्चों को नहीं दूँगी।”
राजा के लिए बड़ा कठिन प्रश्न खड़ा हुआ। बच्चों को किसका माना जाए? नर का गिनना या मादा का? फिर उन्होंने खूब विचार करके न्याय दिया, “गरुड़ी बहन, बच्चों को तुमने जन्म दिया, दावानल से तुमने बचाया, छोटे से बड़ा किया, तुझको बड़ी मुश्किल हुई, परंतु वंश तो नर का ही कहलाता है, इसलिए ये बच्चे तो गरुड़ के ही माने जाएँगे।”
गरुड़ी बोली, “आप चाहे जो करें। मैं बच्चों को देनेवाली नहीं हूँ। नहीं दूँगी।” कहते-कहते गरुड़ी वहीं चक्कर खाकर गिर पड़ी।”
फिर गरुड़ दोनों बच्चों को आगे करके चलने लगा। बच्चे तो ‘माता! माता!’ कहकर खूब रोने लगे, परंतु उनकी माता उन्हें बचाने के लिए कहाँ से आ पाती।
फिर तो गरुड़ी किसी तरह से उठकर वहाँ से निकली और साकरी नदी पर आकर बच्चों के लिए खूब विलाप करने लगी। वह विलाप करते-करते ही नदी के किनारे निर्झर था, वहाँ तड़प-तड़पकर मर गई। गरमी के कड़ाक धूप में उसका शरीर सूखकर चमड़ा हो गया।
न्यायी राजा के राज्य में ही एक बढ़ई रहता था। उस बढ़ई की पत्नी मासिक धर्म में आई। पाँच-सात दिन के बाद उसने माथे से स्नान किया और स्वच्छ हुई। उसको दो दिन हुए और वह दोपहर को साकरी नदी के किनारे निर्झर पर पानी लेने के लिए गई। वहाँ उसने गरुड़ी के सूखे शरीर को देखा। उसको लगा कि यह क्या है, यह जानने की इच्छा हुई। उसने एक लकड़ी ली और लकड़ी से उस शरीर को वहाँ से खिसकाया। उस मृत शरीर में रही वाष्प बढ़ई की स्त्री के नाक-मुँह में गई, फिर उसने घड़ा माँजा और पानी भरकर घर आई। कई दिन बीतने पर बढ़ई की स्त्री को गर्भ ठहरा। नव मास और नौ दिन पूरे होने पर बढ़ई की पत्नी ने बालिका को जन्म दिया।
अब बढ़ई की लड़की बड़ी होने लगी। महीने, वर्ष बीते लड़की बालिका से किशोरी हुई, तरुणी बन गई। वह बढ़ई की पत्नी को गृहकार्य में मदद करने लगी। वह लकड़ी लाती, पानी भरती, रसोई बनाती और घर के काम करती।
न्यायी राजा की सात घोड़ियाँ थीं। जो घोड़े थे, वो तो उसने सैन्य को सवारी या लड़ने के लिए दे दिए थे। उस नगरी में केवल बढ़ई के पास ही एक घोड़ा था। राजा की घोड़ियाँ बढ़ई के घर के आसपास चरने के लिए आती थीं। बढ़ई का घोड़ा भी उन्हीं में जाकर चरता था। घोड़ियाँ मासिक धर्म में आईं। घोड़े ने घोड़ियों के साथ संबंध स्थापित कर संतुष्टि पाई। अब घोड़ियों को गर्भ ठहरा। वह गर्भ विकसित होने लगा। गर्भ का पूर्ण विकास हुआ और घोड़ियों ने बछेड़ों को जन्म दिया। राजा ने जाना कि घोड़ियों ने बछेड़ों को जन्म दिया है तो वह बहुत खुश हुआ।
एक दिन बढ़ई के बाड़े में घोड़ियाँ बछेड़ों के साथ चर रही थीं। उसमें बढ़ई का घोड़ा भी जाकर चरने लगा। उसको बढ़ई की लड़की ने देखा, वह बहुत खुश हो गई। लड़की ने बढ़ई को बुलाया और घोड़ी तथा बछेड़ों को दिखाकर कहने लगी कि “ये बछेड़े किसके हैं?”
बढ़ई बोला, “बेटा, ये घोड़ियाँ और बछेड़े तो राजा के हैं।”
लड़की बोली, “परंतु यह घोड़ा तो अपना है।”
बढ़ई बोला, “हाँ बेटा, यह घोड़ा तो अपना है। अपने घोड़े ने घोड़ियों के साथ संबंध किया, इसलिए तो घोड़ियों को गर्भ ठहरा और ये बछेड़े जनमे।”
लड़की ने कहा, “तो ये बछेड़े अपने ही गिने जाएँगे।”
बढ़ई बोला, “है तो ऐसा ही, अपने घोड़े की वंशज इसलिए ये बछेड़े अपने हैं, परंतु जाने दे अब। राजा की क्या बात करना! बड़े लोगों की बड़ी बात। हम छोटे मुँह से बड़ी बात क्यों करें।”
लड़की बोली, “लेकिन, पिताजी हम कहाँ बड़ी बात कर रहे हैं। जिसका वंश उसके बालक।”
लड़की खुश हो गई। वह बछेड़ों और घोड़े को हाँक लाई और तबेले में बंद कर दिया। साँझ को घोड़ियाँ राजा के घर आईं। वे बछेड़ों के बिना थीं, बछेड़ों के लिए तूफान मचाने लगीं। घोड़े की रखवाली करनेवाला बछेड़ों की खोज में निकला। उसने देखा कि बछेड़े बढ़ई की घुड़साल में बंद हैं। वह बढ़ई के घर गया और कहा, “बढ़ई! इन बछेड़ों को छोड़ दो, ये राजा के बछेड़े हैं।”
बढ़ई बछेड़ों के बंद किए हुए तबेले का दरवाजा खोलने गया, लेकिन लड़की ने उसको रोका—“नहीं, ये राजा के नहीं हैं, फिर क्यों देना है।”
बढ़ई लड़की को समझाता है, पर वो नहीं मानती और बछेड़ों को नहीं देती है। बढ़ई ने कहा, “बेटा, राजा के आदमी बछेड़े लेने के लिए आए हैं तो दे देते हैं।”
लड़की ने कहा, “परंतु क्यों देना? ये अपने घोड़े के वंश हैं। राजा को इन्हें नहीं देना है।”
राजा के नौकर ने घर जाकर पूरी बात राजा से कही। अब राजा ने बढ़ई को बुलवाया।
राजा ने कहा, “बढ़ई, अपने तबेले में मेरे बछेड़ों को बंद किया है। उन्हें क्यों नहीं छोड़ता?”
बढ़ई ने कहा, “महाराज, उन बछेड़ों को तो मेरी लड़की ने बंद कर दिया है। उसको पसंद हैं, इसलिए रखा है।”
राजा ने कहा, “लेकिन वे बछेड़े तो मेरे हैं। ये तो तुम्हें पता ही है। तुम्हें बछेड़ों को छोड़ देना पड़ेगा।”
बढ़ई बोला, “उस पागल लड़की को मैंने कितनी बार समझाया है, पर वह समझने के लिए तैयार नहीं है।”
राजा ने कहा, “इन सिपाहियों को लेकर जाओ और लड़की को धमकी देकर बछेड़ों को छोड़ दो।”
बढ़ई के साथ सिपाही बढ़ई के घर आए। लकड़ी तबेले के दरवाजे के पास ही थी। बढ़ई ने लड़की को समझाया कि “हम बछेड़ों को छोड़ दें,” परंतु वह मानने को तैयार नहीं थी। सिपाहियों ने लड़की को धमकाया, राजा का भय दिखाया, फिर भी वह एक से दो नहीं ही हुई, फिर वे सिपाही वापस आए और राजा से सारी बात कही। राजा ने कहा, “ठीक है, कल दरबार में लड़की को हाजिर करो।”
दूसरे दिन दरबार लगा। लड़की को दरबार में बुलाया। लड़की ने बछेड़ों को हाँककर दरबार में ले आई। बछेड़ों को बाहर बाँध दिया, वह सभा में जा बैठी।
राजा ने कहा, “पगली लड़की तू ही है?”
लड़की बोली, “महाराज, आप कैसे कह सकते हैं कि मैं पागल हूँ।”
राजा ने कहा, “पागल नहीं तो क्या चतुर कहूँ, राजा के बछेड़ों को अपने घर बाँध रखा है, उन्हें लेने आए तो भी न दिया।”
लड़की ने कहा, “बछेड़े मुझको अच्छे लगे, पसंद आए और मैंने बाँध रखा। उसमें क्या हो गया?”
राजा ने कहा, “लेकिन बछेड़े तो मेरे थे, तुझको नहीं मालूम?”
लड़की ने कहा, “महाराज, आप यह क्या कह रहे हैं? ये बछेड़े तो हमारे हैं, इसलिए तो मैंने अपने तबेले में बाँध रखा था।”
अब राजा को लड़की पर क्रोध आया। राजा ने कहा, “लड़की, तेरा मगज तो ठीक है न? बछेड़े मेरे हैं और तू मेरे साथ कैसी बात कर रही है।”
लड़की बोली, “महाराज, मैं सच बात कर रही हूँ, ये बछेड़े हमारे हैं।”
राजा ने कहा, “लड़की, तू तो बिल्कुल पागल निकली, इन बछेड़ों को मेरी घोड़ियों ने जन्म दिया है तो तेरे बछेड़े कैसे हुए?”
लड़की ने कहा, “महाराज, भले आपकी घोड़ियों ने जन्म दिया होगा पर वंश तो हमारा है न। हमारे घोड़े द्वारा इन घोड़ियों ने गर्भ धारण किया था, इसलिए वंश तो हमारा और वंश हमारा, मतलब बछेड़े भी हमारे हुए।”
राजा ने कहा, “लड़की, तू क्या कह रही है। संसार में ऐसा कहीं होता है, घोड़ी के साथ जो घोड़ा संबंध स्थापित करे, उससे घोड़ा के मालिक के बछेड़े हो जाएँगे।”
लड़की ने कहा, “वाह रे! न्यायी राजा, आपका अभिनंदन।”
“आपका न्याय भी कदम-कदम पर बदलता है। कभी कैसा न्याय कभी कैसा? इस तरह के न्याय का पशु-पक्षियों को पता होता तो वे यहाँ नहीं रहते।”
राजा ने कहा, “लड़की तुझको क्या हुआ। तुझे कहाँ अन्याय हुआ है।”
लड़की बोली, “महाराज, याद कीजिए, आज से पंद्रह वर्ष पहले की बात है। यहाँ राज दरबार में ‘बच्चे नर के या मादा के’ ऐसा ही झगड़ा लेकर गरुड़-गरुड़ी आपके पास न्याय लेने आए थे। उन्हें आपने क्या न्याय दिया था?”
राजा याद करने लगे और उन्हें सहसा याद आ गया।
लड़की ने कहा, “महाराज, उस गरुड़ी ने अपने बच्चों को कैसे बड़ा किया होगा। यह तो वही जाने। दावानल लगा था, तब गरुड़ बच्चों को बचाने के बदले उन्हें वहीं छोड़कर भाग गया था, फिर बच्चे मेरे हैं कहकर गरुड़ी से माँगा, परंतु गरुड़ी ने बच्चे नहीं दिए। उन बच्चों को लेने के लिए वह गरुड़ आपके पास न्याय माँगने आया। उनकी बातें सुनकर आपने न्याय किया कि वंश नर का कहलाता है, इसलिए बच्चे गरुड़ के हैं। आपने बच्चों को गरुड़ को सौंप दिया। बेचारी गरुड़ी की क्या हालत हुई। वह तो बच्चों के बिना तड़प-तड़प कर मर गई।”
राजा को गरुड़-गरुड़ी की सब बातें याद आ गईं, इसलिए वह शांत ही रहा।
लड़की ने कहा, “महाराज, सच बात है न।”
राजा बोला, “हाँ, बेटी तेरी बात सच है।”
लड़की ने कहा, “महाराज, अब बोलिए, ये बछेड़े किसके हैं? हमारे ही हैं न, हमारे घोड़े के वंश हैं, इसलिए हमारे ही कहलाएँगे।”
राजा बोले, “हाँ, ऐसा ही है।”
लड़की राजा के दरबार से निकली और बछेड़ों को खदेड़कर वापस अपने घर ले गई।
राजा लड़की और बछेड़ों को देखता ही रहा गया। राजा विचार करने लगा, “लड़की बहुत होशियार निकली, मुझे पराजित करके न्याय प्राप्त कर लिया।”
कुछ दिन बीते और राजा ने सिपाहियों को भेजकर बढ़ई को बुलवाया। राजा ने बढ़ई से कहा, “बढ़ई, मुझको एक मंदिर बनवाना है।”
बढ़ई बोला, “हाँ महाराज, हम बना देंगे।”
राजा बोला, “हम सब जिस तरह से मंदिर बनाते हैं, उस तरह से यह मंदिर नहीं बनाना है। बढ़ई, इस मंदिर का पहले सोने का कलश रखना है, फिर मंदिर का स्तंभ खड़ा करना है।”
बढ़ई तो राजा की बात सुनकर चुप ही हो गया। बढ़ई राजदरबार से घर आया। उसने कामधाम छोड़ दिया। वह विचारों में ही खोया रहता। बढ़ई की पत्नी ने उसको कहा, “स्वामी, तुम्हें क्या हो गया है?”
बढ़ई ने कहा, “कुछ नहीं, मैं तो अच्छा ही हूँ।”
लड़की भी बढ़ई से पूछने लगी, लेकिन बढ़ई कुछ नहीं बोला। वह खाना खाने के लिए बुलाने पर भी खाने नहीं आता। उसको चिंता होने लगी। क्या करना है?
बढ़ई की पत्नी और लड़की उससे कहतीं, “जो बात हो, उसे हमसे कहिए तो सही, उसका कोई उपाय निकलेगा।”
फिर एक दिन बढ़ई ने पत्नी और लड़की से राजदरबार में राजा की कही मंदिर बनाने की बात कह सुनाई। उस बात को सुनकर बढ़ई की पत्नी को भी चिंता होने लगी, लेकिन बढ़ई की लड़की तो आनंदित हो गई। लड़की ने बढ़ई से कहा, “पिताजी, आप क्यों चिंता कर रहे हैं? उसका हल तो हम निकालेंगे। चिंता करना छोड़ दीजिए।”
फिर भी बढ़ई और उसकी पत्नी तो चिंता में ही रहने लगे।
दूसरे दिन लड़की ने ओढ़नी ओढ़कर राजा के दरबार की ओर चली। उसने राजा के महल में आकर राजा को नमस्कार किया। राजा ने लड़की को देखा।
अब राजा ने लड़की से पूछा, “लड़की, तू किसलिए आई है?”
लड़की ने कहा, “महाराज, घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए मजूरी लेने आई हूँ। आपका मंदिर बनाना है, उसमें से वह मजूरी काट लीजिएगा।”
राजा ने कहा, “कोई बात नहीं, तू मजूरी में क्या लेगी? पैसा दूँ या अनाज, दलहन—क्या दूँ?”
लड़की ने कहा, “महाराज, अनाज ही दे दीजिए।”
राजा बोला, “अनाज में क्या लोगी, कोदों, सावाँ, धान, ज्वार, बाजरा—क्या लेगी?”
लड़की ने कहा, “महाराज, साँवा की ही मजूरी दीजिए।”
राजा ने नौकर को बुलाया और कहा, “इस लड़की को सावाँ की मजूरी एक मपना भर दे दो।”
नौकर लड़की को लेकर गोदाम में आया। वहाँ लड़की ने मजूरी लेने के लिए ओढ़नी फैलाई। नौकर ने तगाड़े में सावाँ निकालकर मजूरी देने के लिए मपना ले आया और भरने लगा। तब लड़की ने नौकर से कहा, “मुझको मजूरी तुम देनेवाले हो?”
नौकर ने कहा, “तो कौन राजा देंगे?”
लड़की ने कहा, “मैं तो तुम्हारे हाथ की मजूरी नहीं लूँगी। राजा अपने हाथ से मजूरी देंगे तो ही लूँगी।”
नौकर ने बहुत समझाया कि राजा तो किसी को अपने हाथ से मजूरी नहीं देते। हम नौकरों को ही देने के लिए कहते हैं। यह सब काम तो हमको ही करना पड़ता है, इसलिए तो हम नौकर हैं। लेकिन लड़की नहीं मानी। उसने तो हठ ही पकड़ लिया कि “तुम चाहे जो करो, सो पर मैं तो राजा के हाथ से दी हुई मजूरी ही लेनेवाली हूँ।”
फिर नौकर जाकर राजा से बात करता है कि “लड़की मेरे हाथ से मजूरी नहीं ले रही है, वो तो आपके हाथ से ही मजूरी लेने को कहती है।”
राजा ने कहा, “ठीक है, उसे मेरे हाथ से मजूरी चाहिए तो मैं उसको मजूरी दूँगा।”
फिर राजा आया और सावाँ से मपना भरकर लड़की की ओढ़नी में खाली करने गया। लड़की ने तभी बीच में हाथ करके मजदूरी देने से रोका, फिर बोली, “महाराज, मपने में ठीक ऊपर तक सावाँ नहीं भरा है।”
राजा ने मपना खाली करके फिर से भरा और ओढ़नी में खाली करने को तैयार हुआ, तब फिर लड़की ने हाथ से रोका और बोली, “महाराज, मपना ऊपर तक ठीक से भर गया है, परंतु अब भरने की पद्धति बदलनी पड़ेगी।”
राजा ने पूछा, “कैसी पद्धति?”
लड़की ने कहा, “महाराज, पहले मपने का ऊपरी भाग भरना चाहिए, फिर मपने में अनाज भरना चाहिए। ऐसा काम नौकर से नहीं होता, इसलिए तो मुझे आपको बुलाना पड़ा है।”
राजा ने कहा, “तेरा बाप ऐसा करता है। लड़की, तू तो पगला गई है। कहीं ऐसा देखा है कि पहले मपना का ऊपरी भाग आए, फिर मपने में अनाज भरता हो।”
लड़की ने कहा, “सब हो सकता है। आपको ऐसा करना नहीं है तो बहाना क्यों कर रहे हैं?”
राजा बोले, “लड़की ऐसा कभी नहीं होता।”
लड़की ने कहा, “महाराज, हो सकता है, ऐसा क्यों नहीं हो सकता। महाराज, यह तरीका तो आपने ही खोजा है और आपसे यह नहीं हो सकेगा, ऐसा कैसे हो सकता है?”
राजा ने कहा, “कैसा तरीका, मैंने क्या किया?”
लड़की ने कहा, “महाराज, मेरे पिताजी बढ़ई हैं। उनसे आपको मंदिर बनवाना है, लेकिन आपने उनसे कहा है कि मंदिर पर कलश पहले रखना है, बाद में मंदिर का पाया बनाना है। महाराज, दुनिया में ऐसा हुआ है?”
राजा हँस पड़ा। उसने लड़की से कहा, “लड़की, तू सच्ची बात करती है। तू जीत गई और मैं हारा। अब तू जा, अपने पिता बढ़ई को कहना कि वह चिंता नहीं करे। उसकी लड़की बहुत होशियार है, उसने राजा के सभी कूट हल कर दिए हैं।”
लड़की ने घर आकर राजा से माँगी मजूरी वाली सभी बात अपने माता-पिता को कह सुनाई। वे सब बहुत खुश हुए।
अब लड़की युवा हुई। राजा विचार करने लगा कि बढ़ई की लड़की बहुत बुद्धिशाली है, उसको राज्य में रानी बनाकर लाऊँ तो राज-दरबार में आनेवाले प्रश्नों या कूट का हल खोज निकालेगी और प्रश्नों का समाधान हो जाएगा। अब राजा ने बढ़ई की लड़की से विवाह करने की इच्छा बढ़ई के समक्ष व्यक्त की।
बढ़ई बोला, “महाराज, हम गरीब आदमी और आप ठहरे राजा। ऐसा रिश्ता कैसे सोच सकते हैं। हमारे रहन-सहन और आपके रहन-सहन में जमीन-आसमान का फर्क है। आपका राजमहल और हमारी झोंपड़ी में रहनेवाली लड़की कैसे सँभाल सकेगी। ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। महाराज, यह विचार आप छोड़ दीजिए, बात आप तक ही रहने दें।”
राजा को बढ़ई ने बहुत समझाया, पर राजा मानने को तैयार नहीं हुआ। वह तो कहता था, “चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारी लड़की के साथ ही विवाह करूँगा।”
फिर बढ़ई वहाँ से घर आया और राजा के साथ हुई सभी बातें पत्नी और लड़की को कह सुनाईं। लड़की ने यह बात नकार दी, फिर भी बढ़ई लड़की को समझाने लगा। लड़की ने बढ़ई से कहा, “पिताजी, आप चिंता मत कीजिए। इसका समाधान भी हम निकाल लेंगे।”
दूसरे दिन बढ़ई की लड़की राजा के महल में गई और राजा से मिली। वह लड़की राजा से बोली, “महाराज, आपके साथ मैं विवाह करूँगी, परंतु इससे पहले मैं जो कहूँगी, उसके अनुसार आपको करना होगा।”
राजा ने कहा, “ठीक है, तुम जैसा कहोगी वैसा करने के लिए मैं तैयार हूँ।”
लड़की ने कहा, “महाराज, यह आपका महल है, उसके मुख्य दरवाजे के पास एक चौरस दरवाजा बनवाना। उसकी दीवाल बनाकर उसमें तुलसी का पौधा रोपना। उस पर साफ पीले कपड़े का टुकड़ा ढक देना। उसके अगल-बगल में गोबर से लीपने के बाद वहाँ धूप-अगरबत्ती, दीया कर देना। दीये में तेल खत्म नहीं होना चाहिए, फिर रात होगी, तब वहाँ आप खाट बिछाकर सो जाना।”
दूसरे दिन लड़की ने कहा था, उसके अनुसार राजा ने तैयारी की। साँझ को वह वहाँ खटिया बिछाकर सोया। रात्रि के दो प्रहर व्यतीत हो गए। अब मध्यरात्रि हुई और राजा की खाट आकाश में उड़ने लगी। वह स्वर्ग में गया और वहाँ रुका। वहाँ राजा देखने लगा तो उसके माता-पिता सोने के हिंडोले के किनारे आ गए हैं। उनका आसन डोलने लगा है, वे अब नीचे गिर जाएँगे, ऐसा लगने लगता हैं। राजा नीचे देखता है तो नीचे तो नरक दिखता है। उसमें छोटे-बड़े कीड़े एक-दूसरे पर चलते हुए और मैला खाते हुए दिखते हैं। ऐसा देख राजा जल्दी-जल्दी माता-पिता को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाता है और चिल्ला उठता है। राजा जग गया और देखता है तो वह तो नीचे पलंग पर ही सो रहा है। उसे लगा, यह स्वप्न था या सच बात थी। राजा को कुछ समझ नहीं आया।
दूसरे दिन बढ़ई की लड़की राजा के पास आई और देखा तो उसने दूसरे दिन बढ़ई की लड़की राजा के पास आई और देखा तो उसने कहा था, वैसा ही किया गया था। उसने राजा से कहा, "महाराज, मैंने कहा था उसी अनुसार किया दिख रहा है, परंतु मैंने कहा था कि उसी तरह से आप सोए थे?"
राजा ने कहा, "हाँ, मैंने जैसा तुमने कहा था, उसके अनुसार ही किया।"
लड़की ने कहा, "हाँ तो आपको क्या अनुभव हुआ?"
राजा ने रात को जो अनुभव किया था, वे सभी बातें लड़की से कह सुनाईं। लड़की ने कहा, “महाराज, आज भी आप वहीं सोना पर आज आप मन को साफ रखिएगा। आज आपको मेरे प्रति ऐसा भाव रखना है कि मैं आपकी छोटी बहन हूँ।"
राजा ने कहा, "ठीक है, आज मैं ऐसी भावना रखकर सोऊँगा।"
दूसरे दिन रात हुई, राजा पलंग पर सोया। रात्रि के दो प्रहर बीते, मध्यरात्रि हुई और राजा की खाट आकाश में उड़ने लगी और वह स्वर्ग गया। वहाँ रुका। वहाँ राजा देखता है तो उसके माता-पिता सोने के झूले पर झूल रहे हैं। वे पान खाते दिखे। वहाँ वे बहुत आनंद में हैं। उनके अगल-बगल में फूल-ही-फूल दिखते हैं। वह नीचे देखता है तो नीचे भी सुंदर बगीचा है, उस बाग में फूल महक रहे हैं, यह सब उसने देखा। राजा यह सब देखकर आनंदित हो उठा, फिर वह जाग गया और देखता है कि उसकी खाट तो नीचे जमीन पर महल के आँगन में ही है।
आज तो राजा बहुत खुश है। सुबह लड़की राजा के महल में आई और राजा से रात्रि को क्या अनुभव हुआ, उस विषय में पूछने लगी। रात में जो अनुभव हुआ, वह सभी अनुभव राजा ने लड़की से कह सुनाया। इसे सुनकर लड़की ने राजा को कहा, “महाराज, पहली रात को आप मेरे प्रति पत्नी का भाव रखे थे। मुझे ब्याहेंगे इस भाव से आप वहाँ सोए थे, इसलिए आपको स्वर्ग में आपके माता-पिता, झूले के किनारे बैठे हुए अभी गिर पड़ेंगे या फिर गिरेंगे और वे नीचे गिरेंगे तो सीधे नरक में जाएँगे। जहाँ कीड़े नरक खाकर रहते हैं, माता-पिता की ऐसी स्थिति आपको दिखाई दी। अपने माता-पिता को दु:खी होते हुए आपने देखा, जबकि दूसरे दिन आपका मेरे प्रति भाव पवित्र था। आपने अपने मन में मुझको बहन मान लिया और बहन का भाव पवित्र भाव होता है, इसलिए मन में कोई खराब विचार नहीं आया और इसी कारण दूसरे दिन रात को आपके माता-पिता स्वर्ग में झूले पर बैठे झूलते हुए और पान-मसाला का मुखवास करते आनंदित मुद्रा में दिखाई दिए। उनको बगीचे में फूलों की सुगंध भी मिलती है, ऐसा लगा। इस तरह वो सुखी दिखे। महाराज इस प्रकार के पवित्र भाव के कारण आपको यह सुखद अनुभव हुआ। इसीलिए हे महाराज ! आप मेरे साथ विवाह नहीं करेंगे। यदि करेंगे तो आपके माता-पिता दुःखी होंगे।"
राजा ने लड़की की बात मान ली। बढ़ई की लड़की अपनी ही छोटी बहन है, ऐसा पवित्र भाव रखा, फिर बढ़ई की लड़की को बढ़ई और बढ़ई की पत्नी को उन्होंने अपने ही माता-पिता हैं, इस भाव से उनको राजमहल में बुलाकर साथ में रखा और फिर खा-पीकर प्रजा का, लोक का कल्याण करने लगा।
—डॉ. प्रभु चौधरी