गरीब की जोरू : अमीन कामिल (कश्मीरी कहानी)
Gareeb Ki Joru : Amin Kamil (Kashmiri Story)
ज्यों ही मुफ्ती साहब ने देखा कि वह किसान उनके ही आँगन में घुस रहा है, वह जल्दी से खिड़की छोड़कर, भीतर कालीन पर बैठ गए। पगड़ी की नोक को सीधा किया और दायाँ हाथ दाढ़ी पर फेरा। उनके होंठों पर मुस्कुराहट-सी खिल उठी, जिसका अर्थ केवल वही जानते थे।
असल में उस समय मुफ्ती साहब खिड़की की दरार से रहमान कुली के लकड़ी के मकान की ओर देख रहे थे। वहाँ 'दालान' पर कोई स्त्री उनकी ओर पीठ किये हुए बैठी थी और मुफ्ती साहब इस सोच में थे कि वह रहमान कुली की पत्नी है या भाभी?
मुफ्ती साहब तकिये के सहारे बैठ गए। किसान भीतर आया और बड़े आदर के साथ उनको सलाम किया। मुफ्ती साहब ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और अपने मुफ्ती के ओहदे को दृष्टि में रखते हुए, बड़ी गम्भीर मुद्रा में उसके सलाम का जवाब दिया। किसान के सिर पर मैली टोपी थी जिसके किनारे के धागे लटक रहे थे। एक लोई लपेटी हुई थी। उसमें दो-चार स्थानों पर चूहों ने छेद कर दिये थे। आयु के लिहाज से वह एक युवक लगता था, मगर उसका चेहरा पीला पड़ा हुआ था।
अपनी हैसियत को ध्यान में रखते हुए वह दरवाजे के पास ही दरी पर बैठा। उसने पहले मुफ्ती साहब को देखा, बाद में उनके सामने रखे हुए नक्काशी किये अखरोट की लकड़ी के बने डेस्क को देखा। डेस्क पर एक कमलदान के साथ कुछ कागज रखे थे। पास ही चमड़े की जिल्द से मढ़ी हुई एक मोटी-सी पुस्तक भी रखी थी। इस सारे दृश्य को मैं मानो स्वयं देख रहा था। मगर में स्वयं वहाँ कहाँ था? अनुमान लगा लें जैसे में उसी कमरे में एक शेल्फ पर हाथ-पैर समेटे बैठा था।
किसान सोच रहा था कि मुफ्ती साहब स्वयं ही पूछ लेंगे कि क्यों आये हो और क्या चाहिए? मगर मुफ्ती साहब तो माथे पर गहरी रेखाओं के बल डाले और आँखें मूंदे तकिये पर आराम से गम्भीर मुद्रा में बैठे थे। उन्हें जगाने का उसे प्रयत्न करना पड़ा।
"हजरत!' किसान ने डरते हुए मुँह खोला, "मैं शरई मशवरा लेने आया
"हूँ...!" मुफ्ती साहब ने आँखें मींचे ही सिर से हामी भरी।
"हूँ...!"
किसान ने समझा कि ये ऐसे ही शरण में आए व्यक्तियों की बातें सुनते होंगे। वह इससे पहले कभी भी इनके पास नहीं आया था। उसने समस्या बताई-"हजरत, आज से चार वर्ष पहले मैंने विवाह किया था। मेरी पत्नी मेरे साथ बहुत अच्छी तरह से रहती थी। लहू-पसीना एक करके में उसको पालता था। सोचता था कि वह उम्रभर मेरा साथ देगी। जनाब, पत्नी के बिना आदमी की जिन्दगी ही क्या है। यह कहते हुए लोई के भीतर ही वह अपने हाथ से अपनी पीठ खुजलाने लगा।
मुफ्ती साहब जैसे गहरी नींद से जाग उठे, और आँखें चमकाते हुए पूछा, "तुमने अपनी पत्नी का क्या नाम बताया?"
"नाम मैंने नहीं बताया। वैसे उसका नाम खतिज है।"
"ख-तिज, मुफ्ती जैसे इस नाम के हिज्जे निकालने लगे-"क्या उसने कोई बच्चा जना है?"
बच्चे के बारे में सुनते ही उस किसान के चेहरे का पीलापन और बढ़ गया। उसकी ठुड्डी लटक-सी गई। एक ठण्डी साँस खींचकर कहा, "हज़रत, अगर मेरे कोई बच्चा हुआ होता, तो में राजा के समान होता।"
"हूँ किस आशय से मेरे पास आए हो?" मुफ्ती साहब ने बात को संक्षिप्त करने का प्रयत्न करते हुए पूछा। ऐसा लगता था कि या तो वह किसान की लम्बी कहानी सुनने के लिए तैयार नहीं थे, या वह किसानों के झगड़ों और समस्याओं को इतना अधिक समझते थे कि एकाध वाक्य सुनते ही सारी कहानी समझ जाते हों।
"हजरत, मैं क्या अर्ज करूँ?" किसान कहानी को संक्षिप्त करने लगा"जनाब, कहने का मतलब यह है कि बीस-एक दिन पहले मेरी पत्नी को एक रेशिखान नामक बदमाश फुसलाकर ले गया।"
"क्यों फुसलाकर ले गया? तुमने कुछ नहीं पूछा?" मुफ्ती साहब ने तकिये के सहारे आराम से बैठते हुए पूछा।
“जी हाँ, पूछा। मगर वह किसी मुफ्ती साहब की रिवायत बता रहा है, जिसके मुताबिक अपनी पत्नी से मेरा निकाह टूट गया है।
मुफ्ती साहब ने ज्यों ही अपने अतिरिक्त किसी और मुफ्ती की बात सुनी तो उनका खून खौल उठा। उन्होंने तकिये का सहारा छोड़ दिया। उनकी आँखें गुस्से से चमक उठी और चेहरा लाल मिर्च जैसा हो गया। वह बोले, "तुम्हें अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहिए। सुनते हो? पत्नी तुम्हारी है। उस पर तुम्हारे अतिरिक्त किसी और का अधिकार नहीं है। असल में जब तक शरअ की सीमा तय नहीं होती, वह बदमाश और उसके संरक्षक-मुफ्ती ऐसे ही गरीबों की पत्नियों को हड़पने की ताक में रहेंगे।' मुफ्ती साहब यह सब एक ही साँस में बोल गए।
मुफ्ती साहब की यह बात सुनकर किसान की जान में जान आई। वह इतना प्रसन्न हुआ जैसे मुफ्ती साहब के तकिये के सहारे बैठने से उसको अपनी पत्नी पुनः प्राप्त हो गई हो। उसने जाने की तैयारी की तो मुफ्ती साहब ने कहा, “अरे मुश्टण्डे! मशवरा देने का खर्चा ही दे देते! मैं माँगता तो नहीं, क्योंकि तुम गरीब हो; मगर एक कानून की किताब खरीदनी है, तुम्हीं लोगों को शरअ के कानून बताने के काम आती है।'
किसान ने लोई के अन्दर ही अपनी कमीज़ की जेब में हाथ डाला और पाँच रुपये का नोट मुफ्ती साहब के सामने रखते हुए बोला, “गरीब की ओर से केवल इतना ही स्वीकार करें।" कहकर वह चल दिया।
“अब्दुल अरे अब्दुल!' “जनाब, क्यों बुलाया?" नौकर दौड़ते-दौड़ते उनके पास पहुंचा।
“मैंने कहा, यह पाँच रुपये का नोट ले लो। ज़रा देख आओ, वह रहमान कुली की बीवी है या उसकी भाभी?"
मुझे लगा जैसे आला गिर रहा है तो मैं डरकर उठ बैठा। मेरे कान बज उठे थे। जब मुझे पूरी तरह होश आया तो मुझे याद आया कि मैं 'नामदार' होटल में बुखारी के पास गर्मी सेंकने के लिए घुस आया था और मुझे कुर्सी पर ही झपकी-सी आ गई थी। मैंने आँखें खोली तो वहाँ पर दो व्यक्तियों को देखा। एक कोई मजदूर जैसा था जो चिथड़े लपेटे हुए था। दूसरा एक हट्टा-कट्टा जवान सोफे पर आराम से बैठा था। उस जवान का चेहरा आग की तरह लाल था और मजदूर को संबोधित करके कह रहा था, "तुम लोगों को अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहिए। सुनते हो? कारखाना तुम्हारा है। उस पर तुम्हारे अतिरिक्त किसी और का अधिकार नहीं है। असल में जब तक समाजवादी व्यवस्था स्थापित नहीं होगी, ये पूंजीपति और उनके नेता इसी भाँति मजदूरों का खून चूसते रहेंगे।
मजदूर उनकी बातों से प्रसन्न हुआ और ज्यों ही वह जाने लगा, हट्टा-कट्टा जवान बोल उठा, “तुम्हारे पास दो-एक रुपये होंगे न? सोचा, कुछ खा लूँ। सुबह मैं बिना खाये-पिये घर से निकला हूँ। तुम लोगों की समस्याएँ सुनीं और इन्हीं में डूबा रहा, खाने-पीने का होश न रहा।
मजदूर ने जेब में हाथ डाला और दो रुपये का नोट उसकी ओर बढ़ाया। इसके जाने के बाद उसने अपने बालों पर हाथ फेरा और होटल के एक बैरे को आवाज दी, "बैरा ए बैरे! आधा पैग सोलन हिस्की।"
और में सोचने लगा कि गरीब की जोरू का क्या होगा?
(अनुवाद : डॉ. ओंकार कौल)