गरीब-हृदय : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

Gareeb-Hridaya : Vishvambharnath Sharma Kaushik

भाद्रपद की दोपहर का समय था। फूलपुर ग्राम के एक खेत में कुछ स्त्री-पुरुष काम कर रहे थे। इनमें से अधिकांश चमार जाति के थे। खेत के निकट ही कुछ दूरी पर एक महुए के वृक्ष की छाया में एक अधेड़ व्यक्ति बैठा तंबाकू मल रहा था। अकस्मात् खेत में से एक वृद्धा चमारिन निकलकर बस्ती की ओर चली। उसे जाते देखकर तंबाकू मलनेवाले ने पुकारा, “कहाँ जाती हो?”

वृद्धा कुछ ठिठककर बोली, “जरा पानी पी आऊँ, अभी आती हूँ।”

“आज तुम्हें बहुत प्यास लग रही है, क्या बात है?”

वृद्धा बोली, “क्या कहूँ भैया, तीन-चार दिन से जी अच्छा नहीं है, रात को बुखार हो आता है, जाड़ा बहुत लगता है। अन्न अच्छा नहीं लगता। पानी पीते-पीते दिन बीतता है।”

“ऐसी बात है तो एक डोल भर के खेत की मेंड़ पर रख लो, बार-बार गाँव जाती हो, काम का हरजा होता है।” उस व्यक्ति ने तंबाकू फटफटाते हुए कहा।

“कोई लाकर रख दे तो हो सकता है, मुझमें तो इतना बूता नहीं है, जो कुएँ से डोल भरकर यहाँ लाऊँ।” इतना कहकर वृद्धा चल दी।

“अबकी जितना पानी पीना हो, पी आना या डोल-कलसा भरवाकर ले आना। अब मैं नहीं जाने दूँगा।” वृद्धा चुपचाप चली गई।

वह व्यक्ति तमाखू फाँककर अपने आप ही बोला, “जब जी अच्छा नहीं है, तब मजूरी करने काहे को आई?”

इसी समय एक युवक उधर से निकला। उसने उस व्यक्ति की बात सुनकर पूछा, “किसका जी अच्छा नहीं है, ठाकुर!”

ठाकुर युवक की ओर देखकर किंचित् मुसकराते हुए बोला, “अरे भइया! वही डायन है, मँहगुवा की अम्माँ। बुखार आता है, फिर भी मजूरी करने दौड़ी आई। सवेरे से दस दफे पानी पीने जा चुकी। हमारे काम का हरजा होता है, मजूरी मुफ्त की थोड़े ही देनी है। हम चाहते हैं, आज शाम तक खेत निका जाए।”

“कितने आदमी निका रहे हैं?”

“आठ आदमी हैं!”

“तब तो शाम तक हो जाना चाहिए।”

“होगा कैसे नहीं, न होगा तो मजूरी भी नहीं दूँगा।”

“इस बार तुम्हारी खेती अच्छी है, ठाकुर।”

“हाँ, अभी तो अच्छी हुई है, घर में कुछ आवे तब जानें। रब्बी क्या कुछ कम थी, पर पानी ने चौपट कर दी।”

“हाँ, यह तो ठीक बात है। कट-मड़कर खैरसल्ला से घर में आ जाए तो सब अच्छा है, नहीं तो कुछ भी नहीं।”

“खड़े काहे को, बैठ जाओ, किसी काम से जा रहे हो क्या?”

“नहीं काम तो कोई नहीं, ऐसे ही घूम-फिर रहा हूँ।”

“तो बैठो, हवा खाओ।”

युवक ठाकुर के सामने बैठ गया।

“तुम्हारे खेत तो सब निका गए।”

“हाँ, हमारा तो सब काम खत्म है, इसी से तो मस्त घूम रहे हैं।”

“हमारा काम भी दो-तीन दिन में हो जाएगा। आज यह खेत हो जाएगा। एक खेत और रह गया, सो परसों तक वह भी हो जाएगा।” अधेड़ व्यक्ति ने कहा।

इसी समय वृद्धा आती हुई दिखाई पड़ी। वह बहुत धीरे-धीरे आ रही थी। अधेड़ व्यक्ति बोला, “देखो, ससुरी कैसी जनवासी चाल चल रही है। जरा जल्दी पैर उठाओ चौधराइन। कुछ बताशे नहीं बिछे हैं, जो फूट जाएँगे।” पिछला वाक्य ठाकुर ने चिल्लाकर चौधराइन से कहा।

“बीमार तो मालूम होती है।”

“होगी ससुरी बीमार। हम तो पूरा काम लेंगे, तब मजूरी देंगे। बीमार थी तो मजूरी करने क्यों आई?”

“मजूरी न करे तो खाए क्या? घर की अकेली ठहरी, दूसरा कोई कमाने-धमाने वाला नहीं है।”

“भइया की बातें! इसके पास रकम है, पर कंजूस इतनी है कि बैठकर नहीं खा सकती।”

“रकम तो क्या होगी।”

“तुम मानते नहीं। गाँव में चाहे जिससे पूछ लो।”

“रकम है, तो इतनी तकलीफ क्यों सहती है?”

“मैंने बताया न कि कंजूस परले सिरे की है। प्राण दे देगी, परंतु बैठकर नहीं खाएगी।”

“होगी रकम, अपने को क्या करना है।”

इतनी देर में वृद्धा इन दोनों के निकट आ गई। युवक ने पूछा, “काकी, कुछ तबीयत खराब है क्या?”

वृद्धा बोली, “हाँ बेटा, चार दिन से रोज जूड़ी आ जाती है। अन्न चलता नहीं, पानी पी-पीकर दिन काटती हूँ।”

“जब तबीयत अच्छी नहीं है तो काम करने नाहक आई।”

“काम न करूँ तो बेटा खाऊँ क्या? गाँव में कोई रोटी का टुकड़ा देनेवाला तक नहीं है। क्या करूँ, भगवान् भी सुध नहीं लेते। चोला छूट जाए तो जंजाल से छुट्टी मिले।”

अधेड़ व्यक्ति बोला, “जंजाल काहे का? अकेला दम है, न बेटा, न बेटी। आगे नाथ न पीछे पगहा, फिर भी जंजाल!”

“बुढ़ापे में जब हाथ-पैर नहीं चलते और कोई रोटी देनेवाला नहीं होता तो अपना चोला ही जंजाल हो जाता है, भइया!”

इतना कहकर वृद्धा खेत के भीतर घुस गई।

युवक बोला, “तुम तो कहते हो, इसके पास रकम है। जिसके पास रकम होगी, वह इतनी तकलीफ कभी न उठाएगा।”

“अब तुम न मानो तो इसका क्या इलाज है?”

युवक थोड़ी देर तक बैठा रहा, तत्पश्चात् उठकर चल दिया।

+++

सूर्यास्त का समय था। वही युवक शौच से निवृत्त होने के लिए गाँव के बाहर जा रहा था। सहसा उसके कानों में किसी के चीत्कार कर रोने का शब्द आया। युवक ठिठक गया और कान लगाकर सुनने लगा। कुछ क्षणों तक सुनने पर अपने ही आप बोला, “यह तो चौधराइन काकी की आवाज है, जान पड़ता है कि ठाकुर से कुछ झगड़ा हुआ।” यह कहता हुआ युवक उसी ओर चला।

खेत के सामने पहुँचकर उसने देखा कि वृद्धा चौधराइन भूमि पर बैठी चीत्कार कर रो रही है। सामने वही अधेड़ ठाकुर और चार-पाँच अन्य मजदूर खड़े हैं। पास पहुँचकर युवक ने पूछा, “क्या हुआ काकी, काहे रोती हो?”

वृद्धा युवक को देखकर और उसका सहानुभूतिपूर्ण प्रश्न सुनकर और जोर से रोने लगी।

युवक ने ठाकुर से पूछा, “क्या मामला है, ठाकुर?”

ठाकुर कर्कश स्वर में बोला, “इसके कारण मेरा खेत आज रह गया। इसने दिनभर यों ही काटा, जरा भी काम नहीं किया। दोपहर को तुम्हारे सामने यह पानी पीकर कितनी देर में आई थी। तुम तो उस समय मेरे पास ही बैठे थे।”

वृद्धा रोना बंद करके आर्त स्वर में बोली, “बेटा मनोहर! मैंने दिनभर जी तोड़कर काम किया। ये सब देखनेवाले हैं, इनसे पूछ लो। हाँ, चार-पाँच बेर पानी पीने जरूर गई थी। यहाँ पानी नहीं मिला तो गाँव जाना पड़ा। यहाँ पानी का इंतजाम होता तो काहे को जाती। सो अब ठाकुर कहते हैं कि मजूरी नहीं मिलेगी। खेत बाकी रह गया तो उसका दोष मेरे ऊपर धरते हैं। खेत नहीं हुआ तो मैं क्या करूँ? कुछ मैं अकेली तो थी नहीं और सब लोग भी तो थे। मैं तो यहाँ तक कहती हूँ कि पानी पीने में सब मिलाकर घंटा-दो घंटा लगा होगा, सो दो घंटे मैं और काम कर दूँगी, पर खेत फिर भी नहीं होगा। मजूरी की मजूरी नहीं देते और ऊपर से तीन-चार थप्पड़ मारे। मैं अनाथ हूँ, इसलिए चाहे जो कोई मार-पीट ले, जो आज मेरे कोई होता तो ठाकुर की मजाल थी जो हाथ लगा लेते।”

इतना कहकर वृद्धा ने पुनः रोना आरंभ किया। ठाकुर बोले, “तेरा कोई होता तो क्या कर लेता? ससुरी फैल मचाती है।”

इतना कहकर ठाकुर ने एक थप्पड़ मारा और पुनः दूसरा मारने को हाथ उठाया ही था कि मनोहर ने लपककर ठाकुर का हाथ पकड़ लिया और कहा, “बस ठाकुर, बहुत हुआ, बूढ़ी और बीमार औरत को मारते हो। बड़े शरम की बात है। और यह बेचारी ठीक तो कहती है, आज इसके कोई होता तो तुम इसे इस प्रकार पीट सकते थे?”

ठाकुर ने बिगड़कर कहा, “तुम क्यों बीच में टिपर-टिपर करते हो? तुमसे क्या मतलब?”

“मतलब क्यों नहीं है। यह अनाथ है तो क्या मार डालोगे? ऐसा अँधेर! आखिर कुछ तो काम किया है? दिनभर में आधे दिन तो किया है। आधे ही दिन की मजदूरी दो? एक तो मजूरी न देते हो और ऊपर से मारते हो।”

“इसकी वजह से हमारा खेत रह गया, नहीं तो आज हो जाता।”

“ऐसा नहीं हो सकता कि इसकी वजह से खेत रह गया। क्यों भई, क्या कहते हो, इसकी वजह से खेत रह गया?”

एक मजदूर बोला, “नहीं, सो बात तो नहीं है। खेत तो आज हो ही नहीं सकता था। यह कितना काम करती? पूरा काम करती तो बिसुआ, दो बिसुआ और हो जाता, पर खेत तो अभी चार-पाँच बिसुआ रह गया। इतना काम यह अकेले नहीं कर सकती थी।”

“हमने तो ठाकुर से बहुतेरा कहा भइया, पर ठाकुर नहीं मानते। यही कहते हैं कि इसकी वजह से खेत रह गया। अब बताओ, हम क्या करें?”

मनोहर ने कहा, “वाह, ठाकुर साहब! वाह! खूब न्याय किया। यह दो-चार दफे पानी पीने गई तो तुम्हें मजूरी दाब लेने का बहाना मिल गया। उचित तो यह था कि यदि इसने कुछ कम काम भी किया था तो पूरी मजूरी दे देते। यह गरीब है, अनाथा है। इसको यदि दो-चार पैसे फालतू भी दे दोगे तो कुछ गरीब नहीं हो जाओगे।”

ठाकुर बोले, “मेरे पास इतना फालतू पैसा नहीं है, जो हरामखोरों को खिलाऊँ। तुम बड़े दयावान हो तो तुम्हीं दे दो।”

“मुझे देना होगा तो तुमसे पूछने नहीं आऊँगा। अच्छा, अब उसे कुछ देते हो या नहीं?”

“न दूँगा तो क्या करोगे?”

“ठाकुर, अब अधिक बात मत बढ़ाओ, नहीं तो ठीक न होगा। चुपचाप इसकी मजूरी दे दो। घंटे-दो घंटे के दो-चार पैसे तुम्हें काटना हो तो काट लो, समझे?”

मनोहर ने आरक्त नेत्रों से उपर्युक्त वाक्य कहे। मनोहर यथेष्ट हृष्ट-पुष्ट था। ठाकुर साहब अधेड़ होने के साथ ही साथ दुबले-पतले थे। अतएव मनोहर से रार बढ़ाना उन्होंने उचित नहीं समझा। टेंट से दस पैसे निकालकर उन्होंने बुढ़िया के सामने भूमि पर फेंक दिए और कहा, “छह पैसे मैंने काट लिये।”

मनोहर ने घृणापूर्वक कहा, “ठीक है! काकी पैसे उठा लो और घर चलो, जो मिला सो सही।”

बुढ़िया पैसे उठाकर चली। साथ-साथ मनोहर भी चला। बुढ़िया बोली, “बेटा, ये पैसे तुम्हारी बदौलत मिले, नहीं ठाकुर एक पैसा भी न देते। भगवान् तुम्हें दूध-पूत से सुखी करें।”

मनोहर बोला, “काकी, अब जब तक जी अच्छा न हो, कहीं काम पर न जाना। रोटी की चिंता मत करना। मैं अपने घर से रोज ​भिजवा दिया करूँगा।”

वृद्धा ने अवाक् होकर कृतज्ञतापूर्ण छलछलाते हुए नेत्रों से मनोहर को देखा।

मनोहर बोला, “घर पहुँचा आऊँ?”

“नहीं बेटा, चली जाऊँगी। बड़ी दया की बेटा। गाँव में तो कोई बात पूछनेवाला भी नहीं है।”

वृद्धा आशीर्वादों की झड़ी लगाती हुई गाँव की ओर चली और मनोहर गाँव के बाहर की ओर। +++

मनोहर के विवाह के दिन निकट थे। विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। वृद्धा चमारिन उस दिन से इतनी बीमार हो गई कि फिर उठ न सकी। मनोहर उसकी खोज-खबर लेता रहता था। एक दिन संध्या समय एक चमार मनोहर को बुलाने आया। बोला, “चौधराइन ने आपको बुलाया है।”

मनोहर ने पूछा, “क्या हाल है?”

“हाल तो खराब है, भइया! अब अधिक नहीं चलेगी। हमें तो ऐसा मालूम होता है कि आज की रात पार होना ही कठिन है। आगे राम जाने।”

“अच्छा चलो, मैं आता हूँ।”

थोड़ी देर में मनोहर चौधराइन के पास पहुँचा। चौधराइन एक कोठरी में भूमि पर कथरी-गुदड़ी बिछाए पड़ी थी। सिरहाने पानी-भरा हुआ एक मैला-सा घड़ा रखा था। एक कोने में चूल्हे के पास चार-पाँच लोहे और पीतल के बरतन रखे थे। चौधराइन बहुत दुर्बल और अशक्त हो गई थी। मनोहर ने उसके पास खड़े होकर पुकारा, “काकी!” बुढ़िया ने आँख खोलीं। आँखें फट गई थीं। मनोहर को देखकर उसने क्षीण स्वर में कहा, “बेटा मनोहर!”

मनोहर बोला, “हाँ, काकी! मैं हूँ। कैसा जी है?”

“अब तो बेटा चल-चलाव है। अच्छा है! भगवान् ने सुध ले ली। इस अंत समय में तुमने बड़ा साथ दिया बेटा। नहीं तो भूखी-प्यासी तड़प-तड़पकर मर जाती।”

मनोहर के नेत्रों में पानी भर आया। बुढ़िया दम लेकर पुनः बोली, “सुना है, तुम्हारा ब्याह होनेवाला है?”

“हाँ, काकी होनेवाला तो है।”

“बस, यही एक साध रह गई। तुम्हारी बहू का मुँह देखकर मरती तो अच्छा था, पर भगवान् की मरजी नहीं।”

बुढ़िया पुनः कुछ क्षणों तक दम लेकर बोली, “जहाँ इतना किया बेटा, वहाँ थोड़ा सा काम और कर देना।”

“बोलो!”

बुढ़िया ने अपना सिरहाना टटोलकर एक पोटली निकाली और मनोहर की ओर बढ़ाई। मनोहर ने पोटली लेकर कहा, “इसमें क्या है?”

“खोलकर देखो।”

मनोहर ने पोटली खोली। उसमें पंद्रह रुपए नकद तथा पैर के चाँदी के कड़े का एक टुकड़ा था। मनोहर ने पूछा, “इसे क्या करूँ?”

“पंद्रह रुपए हैं, इनमें मेरी किरिया-करम करा देना। इसी समय के लिए बचाकर रखे थे।”

“और यह कड़े का टुकड़ा?”

“इसे बेचकर अपनी बहू के पैरों का कोई गहना लेकर मेरी तरफ से मुँह दिखाई दे देना। साध तो यही थी कि मैं अपने हाथों देती, पर जैसी भगवान् की इच्छा।”

“इसकी क्या जरूरत है, काकी! मैं यह सब तुम्हारे ही काम में लगा दूँगा।”

“ऐसा न करना, बेटा! नहीं मेरी आत्मा दुःखी होगी। यह मैं जानती हूँ बेटा, कि भगवान् का दिया तुम्हारे पास सबकुछ है। मैं तुम्हें क्या दे सकती हूँ। मैं खुद तुम्हारे टुकड़े खा रही हूँ। पर बेटा, भगवान् ने भी सुदामा के तंदुल ले लिए थे। मेरे लिए तुम भी भगवान् का रूप हो। जिसके मन में दया-धर्म है, वह भगवान् का ही रूप है। सो बेटा, सुदामा के तंदुल समझकर इसे ले लो और बहू के पैरों का गहना लेकर मेरी तरफ से दे देना। बेटा! मैं नीच हूँ, तुम्हारी जूती हूँ, इससे तुम्हें मेरी बात अच्छी न लगती होगी, यह मैं जानती हूँ, पर बेटा क्या कहूँ, मेरी यह साध है। साध पूरी हो जाएगी तो आत्मा सुखी होगी।”

इतना कहते-कहते बुढ़िया की दम उखड़ गई और वह हाँफने लगी।

मनोहर ने अश्रुपूरित नेत्रों से गद्गद स्वर में कहा, “अच्छा काकी, जैसी तुम्हारी इच्छा। जैसा तुम कहती हो, वैसा ही करूँगा।”

“भगवान् तुम्हें दूध-पूत से सुखी रखें। अब मैं सुख से मरूँगी।”

कोठरी के बाहर आकर मनोहर ने उस चमार से, जो उसे बुलाने गया था, कहा, “देखो, आज रात में इसके पास रहना, हटना नहीं। आज रात पार होना कठिन है।”

उस रात में चौधराइन का देहांत हो गया। विवाह के कुछ दिनों उपरांत मनोहर अपनी पत्नी तथा चचाजात भाई के साथ एक पर्व पर शहर में गंगा-स्नान करने गया और उस कड़े के टुकड़े के बदले में उसने अपनी पत्नी के लिए पाजेब खरीद ली।

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