गांधीजी की शॉल (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Gandhiji Ki Shawl (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
चार दिन हो गए, पर शॉल का पता नहीं लगा। सेवकजी ने रेलवे स्टेशन पर पूछताछ की, डिब्बे में साथ बैठे एक परिचित यात्री से पूछा, पर पता नहीं लगा। पुलिस में रिपोर्ट और अखबार में विज्ञप्ति छपाने पर सोचा, पर लगा कि गांधीजी की दी हुई पवित्र शॉल थी, उसे पुलिस और अखबारी मामलों में फंसाने से उसकी पवित्रता नष्ट होगी। कोई चाबियों का गुच्छा या सूटकेस तो था नहीं। पूज्य गांधीजी की शॉल थी।
सेवकजी हर दिन की तरह दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बैठे थे। शून्य में देख रहे थे। सड़क पर कितने ही परिचित निकल गए। सेवकजी ने किसी को नहीं बुलाया। और दिन होता, तो वे परिचित को देखते ही वहीं से बैठे-बैठे जयहिंद उछालकर उसे रोकते।
बड़ी चौड़ी मुस्कान से जाते, उसका हाथ पकड़ लेते और घोर आत्मीयता से कहते- ऐसे नहीं हो सकता। आप बिना चाय के नहीं जा सकते। ’ पकड़कर भीतर ले जाते, चाय बुलाते अलमारी से एक फाइल निकालते, जिसमें वे अखबारी कतरनें लगी थीं, जिसमें उनका नाम छपा था। इनमें वह कतरन भी थी, जिसमें उनके बचपन में खो जाने पर पिता ने उनकी खोज में विज्ञप्ति छपाई थी। एक-एक कर सब कतरने वे बताते और बीच-बीच में अपनी राष्ट्र, समाज सेवाओं का उल्लेख करते जाते। वे बताते कि किस सन् में किस नेता के साथ जेल में थे। परिचित उठने का उपक्रम करता तो सेवकजी आग्रह से उसका हाथ पकड़कर कहते-‘बस! एक मिनट और। मैं आपको अपने जीवन की सबसे मूल्यवान, सबसे पवित्र वस्तु बतलाता हूं।
‘अलमारी में से तह की हुई एक हल्के नीले रंग की शॉल निकालते और आरती के थाल की तरह सामने करके, भाव विभोर हो कहते- ‘यह शॉल मुझे पूज्य गांधीजी ने दी थी। मेरे विवाह में वे स्वयं आशीर्वाद देने आए थे। हम दोनों के सिरों पर हाथ रखकर हमसे बोले- ‘तू मेरा बेटा नहीं, यह मेरी बेटी है।’ ‘खिलखिलाकर हंस पड़े बापू और यह शॉल हम दोनों को ओढ़ा दी। आज वे नहीं हैं...’ वे आंख बंद कर लेते और भाव तल्लीन हो जाते। परिचित अगर समझदार होता, तो इस स्थिति का लाभ उठाकर बिना जयहिंद किए ही झटपट निकल भागता। कोई परिचित उस सड़क के बिना उन कतरनों और उस शॉल को देखे, निकल नहीं सकता था। आज चार दिनों से लोग बेखटके निकल रहे थे। सेवकजी उन्हें नहीं छेड़ते थे। सोचते - उस घर में अब किसको क्या बुलाएं, जिसकी श्री ही चली गई है।
टाउन हॉल में शाम को सभा की घोषणा करता हुआ लाउडस्पीकर लगा तांगा निकला। सेवकजी के मन में उमंग की लहर उठी। पर लगा कैसे जाऊं। शॉल जो खो गई।
हर सभा में वे गांधीजी की शॉल ओढ़कर जाते। मंच पर अंतिम वक्ता के बाद खड़े होकर कहते- ‘मुझे भी इस विषय पर दो शब्द कहना है।’ माइक पर वे बोलते- मैंने जो कुछ सीखा गांधीजी के चरणों में बैठकर। वे मुझे पुत्रवत स्नेह करते थे। मेरे विवाह में वे स्वयं आशीर्वाद देने आए.....और पूरा किस्सा। मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान, सबसे पवित्र निधि है। सभा में लोग जानते थे कि सेवकजी अवश्य आएंगे और शॉल के बारे में बताकर बैठ जाएंगे। एक सभा में वे इस विषय पर आ ही रहे थे कि सभापति ने घंटी बजा दी। हड़बड़ाकर बैठने लगे, तभी किसी मसखरे ने आवाज लगाई- ‘सेवकजी! आप शॉल के बारे में बताना भूल गए।’ लोग हंस पड़े। पर सेवकजी ने सहज भाव से कहा- जब प्रसंग उठाया ही गया है, तो बताना मेरा धर्म है और फिर पूरा वाकया...।
सेवकजी उस पीढ़ी के थे, जिसने जवानी के आरंभ में सोच लिया था कि जीवन-भर देश की स्वतंत्रता के लिए संग्राम करेंगे। पर स्वतंत्रता पहले आ गई, जीवन शेष रहा। अब क्या करें? यह तो सोचा ही नहीं था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क्या करेंगे? जिन्होंने सोच लिया था, वे सरकार चलाने लगे। कुछ विरोधी दल में आ गए। जो जीत न सके, सरकार में नहीं जा सके। वे बड़ी उलझन में आ गए। हारा हुआ राजा रनिवास में जाता है।
सेवकजी अध्यात्म में आ गए। पर वहां मन नहीं लगा। वे लौट आए। पर अब क्या करें? वे पूरे जोर से सोच रहे थे। शॉल जीवन शक्ति ले गई। किसलिए जिएं? जिएं, तो करें क्या? ऐसे जीने से मर जाना अच्छा! एक विचार उनके मन में सहसा आया और उसके आवेग से वे खड़े हो गए। चप्पल पहनी और दूर सदर कोने में कपड़ों की एक दुकान पर गए और वैसी ही शॉल खरीद ली। मन ही मन समाधान कर लिया- वस्तु सत्य नहीं है, भावना सत्य है। अब समस्या खड़ी हुई कि उसका नयापन कैसे मिटे? सेवकजी ने उसे पानी में डुबाकर सुखाया, उससे फर्श साफ किया, दो-तीन दिन उसे ओढ़कर सोते रहे। अत्याचार से उसकी चमक-दमक गायब हो गई। प्रफुल्लता लौट रही थी, पर ज्योंही वे प्रसन्न होते, आशंका कूद पड़ती कि लोग समझ न जाएं?
शाम की सभा तय थी। कई दिन बाद सेवकजी सभा की तैयारी में थे। कुर्ता और धोती निकाले, शॉल निकाली। मंच पर बैठे धुकधुकी लगी- कोई भेद न जान ले। कोई सहज ही देखता तो कांप जाते इन्होंने शॉल का रहस्य भांप लिया। अंतिम वक्ता के बाद खड़े हुए। बोले, ‘मुझे इस विषय पर दो शब्द कहना है।’ उन्होंने माइक पकड़ लिया था। दिल धड़क रहा था और हाथ कांप रहे थे। आज पैरों को स्थिर करने का प्रयत्न करना पड़ रहा था। बोलना शुरू किया ‘मैंने जो कुछ सीखा है, गांधीजी से... ये शॉल उन्होंने मुझे दी थी। बापू स्वयं...”
पहली पंक्ति में बैठा एक आदमी उठकर खड़ा हो गया और बोला, ‘क्यों झूठ बोलते हैं सेवकजी? यह शॉल तो बिल्कुल नई है और मिल की है। भला गांधीजी मिल की शॉल देते?’ सभा में हंसी हुई, सेवकजी के पैर डगमगाए, माइक पर पकड़ ढीली हुई और वे वहीं बैठ गए।