गडोलना (कहानी) : हंसराज रहबर

Gadolana (Hindi Story) : Hansraj Rahbar

गडोलना चौखट के करीब खूंटी पर लटक रहा था और विजय इधर-उधर दौड़ता फिरता था । उसकी दृष्टि गडोलने पर जा पड़ी और वह उसे उतारने के लिए जिद करने लगा ।

एक महीने पहले जब उसने गडोलना छोड़ कर बिना किसी सहारे के अपने आप आगे डग भरा था, तो उसकी माँ एक दम खिल उठी थी और आंखों में उल्लास भर कर पड़ोसिन को पुकारा था - "बहन जी ! बहन जी ! ! ज़रा इधर आना ।"

बच्चे आम तौर पर दस ग्यारह महीने, अधिक हुआ तो साल भर के होकर चलना सीख जाते है; लेकिन विजय पौने दो साल का हो गया, उसने अभी तक चलना नही सीखा था। जब वह घिसट-घिसट कर आगे सरकता तो मां का मन दुख और विषाद से भर जाता और यह दुःख उस समय और भी अधिक हो जाता, जब पड़ोसिन विजय को पंगला कह कर पुकारती, मां सोचने लगती - "क्या वह वाकई पंगला है ? क्या उसके जीवन में वह दिन कभी नहीं आएगा, जब वह अपने पांव पर खड़ा होकर चलेगा ? उसकी ननद का हर एक बालक साल भर का हुआ नहीं कि चलने लग जाता है । सामने वाली शान्ति की लड़की विजय से छ: महीने छोटी है, लेकिन खूब चलती है और हाथों को मटका कर नाच दिखाती है । फिर उसका विजय क्यों नहीं चलता ? वह सचमुच पंगला तो नहीं ? क्या वह बैसाखियों के सहारे चला करेगा ? शायद बैसाखियों की भी आवश्यकता न पड़े, वह उम्र भर घिसटता ही रहे ।

घिसटता ही रहे :- कितना भयंकर था यह विचार । क्या उस ने अपूर्ण जिन्दगी को जन्म दिया था ? माँ का दिल कांप उठता था। जी में आती थी कि पड़ोसिन से साफ-साफ कहदे कि बहन तुम उसे पंगला न कहा करो । ऐसी बात सुन कर मेरा मन दुखता है । वैसे कहने को वह कई बार कह भी चुकी थी - "नहीं बहन, मेरा लाल पंगला नहीं है । बीमार रहा है, टांगें तनिक कमजोर है । शरीर में जान आने दो, खूब चलेगा, खूब दौड़ेगा ।"

एक कारण और भी था, जिसे कहते हुए संकोच होता था, लेकिन वह स्वयं जानती थी कि दूसरा बच्चा पेट में जल्द पड़ गया । छातियों का दूध सूख गया । विजय साल भर का भी होने नहीं पाया था कि मुन्नी उत्पन्न हो गई थी । अपने पहले के ही लाल को न वह दूध पिला सकी और न पालन पोषण ही ढंग से कर सकी । माँ के दूध में बल रहता है जो बच्चे को सुन्दर और स्वस्थ बनाता है । जब वह लोरी देकर उसे अपने स्तनों से दूध पिलाती है, तो वह पीते ही पीते उसके शरीर का अंग बन जाता है । बाहर के दूध में यह अद्भुत चमत्कार कहां । विजय ने आज तक बाहर का ही दूध पिया है । बंधा तुला । क्या बनता है। इससे मां बेचारी के तो वश की कोई बात ही नहीं थी । यदि वह उसे अधिक नहीं पिला सकी, तो उसकी किस्मत में इतना ही लिखा होगा ।

इन सब बातों से मां को तसल्ली न होती । बेटे का पंगलापन, उसे अपना पंगलापन जान पड़ता और विजय को घिसटता देखकर जैसे उसका मन रोने लगता । वह उसे दोनों हाथों से पकड़ कर खड़ा करती । पुचकार दुलारकर उसे अपने पांव पर खड़ा करती । खड़ा होना बच्चे को भी भला लगता और वह मुस्करा देता । माँ प्रसन्न होती और स्नेह भरी लोरी देती । - "चल मेरे राजा ठुमक ठूं चल मेरे राजा ठुमक ठूं !” लेकिन राजा चलने की बजाय मुँह बिसोर देता । माँ के सहारे के बावजूद कमजोर टाँगे शरीर को संभाल न सकती और वह उसके हाथों से निकल कर धरती पर लेट जाता जैसे माँ का दुलार उसे पसन्द न हो, जैसे विरोध भाव से कह रहा हो कि अब चलना मेरे वश का रोग नहीं है, तो मुझे तुम क्यों नाहक परेशान करती हो ।

चलना और मुँह बिसोरना साथ-साथ चलता रहा । आखिर एक दिन माँ का सहारा लेकर वह आप ही आप अपनी कमजोर टांगों पर उठ खड़ा हुआ । माँ का मन खुशीसे नाच उठा, जैसे आज उसे विश्वास हो गया कि उसका लाल लंगड़ा नहीं, पंगु नहीं । वह चल सकेग उसकी टाँगों में इतनी शक्ति है कि वह दौड़ता हुआ संसार के एक छोर से दूसरे तक जा सकेगा । मां ने असीम ममता और स्नेह से उसे गोद में उठाया, मुँह चूमा, और फिर उसे दीवार के सहारे खड़ा कर दिया । जब पीठ दीवार से लगा कर माँ ने उस के हाथ छोड़े तो विजय एकदम चकित रह गया । उसका नन्हा सा मन उल्लास और आश्चर्य से भर गया। यह क्या "नई एकदम नई बात !" उसने अपने जीवन में बहुत बड़ा मरहला तय किया था । उसे अब माँ के सहारे की आवश्यकता नहीं थी । वह भूमि से ऊंचा उठ गया था । उसने दोनों हाथ जोर-जोर से हिलाए और ताली सी बजाता हुआ मुस्करा कर माँ की ओर देखने लगा ।

"चल ! आगे बढ़, पकड़ मुझे " मां ने हाथ बढ़ा कर उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा दी । लेकिन विजय के निर्बल शरीर में इतना बल नहीं था कि वह दीवार का सहारा भी छोड़ दे । दीवार के सहारे भी वह कुछ मिनट ही खड़ा रह सका । फिर थक कर धम से पृथ्वी पर गिर पड़ा । और रोने लगा ।

माँ ने उठा कर उसका मूँह चूमा और लोरी देकर चुप करा दिया ।

और माँ ने देखा कि उसके बाद विजय स्वयं ही दीवार के सहारे खड़ा होने की इच्छा प्रकट करता है । जब माँ उसे खड़ा कर देती तो वह प्रसन्न होता और लगातार कई मिनट तक उसी प्रकार खड़ा रहता । धीरे २ उसने शरीर को यों हरकत देना आरम्भ की, जैसे वह दीवार को छोड़ कर आगे बढ़ना चाहता हो । दौड़ कर मां की गोद में आ जाने की इच्छा रखता हो ।

इस बीच में यह गडोलना अचानक उसके जीवन में आ गया । उसका ताया, गांव से मिलने आया था । जब वह बाजार में से गुजर रहा था, तो उसे विचार आया कि विजय के लिए कोई उपहार ले चले ।

वह बिसाती की दुकान पर खड़ा सोच रहा था कि कौन सा खिलौना खरीदा जाए । यकायक उसके मस्तिष्क में भाई के ताजा पत्र के ये शब्द उभर आए कि विजय अब दीवार के सहारे खड़ा होने लगा है और आशा है कि जल्दी चलना भी सीख जाएगा, और उसकी दृष्टि गडोलने पर जा पड़ी । विजय ने ताया के इस उपहार का स्वागत किया । और उसने गडोलने को नन्हें हाथों में थाम कर दीवार का सहारा छोड़ दिया । शरीर का दबाव पड़ते ही पहिए हरकत में आए और गडोलना आगे चल पड़ा । विजय को भी उसके साथ आगे बढ़ना पड़ा, लेकिन सन्तुलन ठीक न रख सका, इसलिए लड़खड़ा कर गिर पड़ा । जाने गिरने में उसे क्या आनन्द आया कि वह खिलखिला कर हँस पड़ा और गडोलने को पकड़ कर दोबारा उठने का यत्न करने लगा ।

उसने कई बार गडोलने के साथ चलने की कोशिश की कई बार सन्तुलन खोया, गिरा और फिर उठ कर चलने लगा। उसके असफल प्रयत्न पर माता-पिता दोनों प्रसन्न होते थे और दोबारा यत्न करने के लिए उसे प्रोत्साहित करते थे, हर तरह बढ़ावा देते थे। कई दिनों के सतत संघर्ष के बाद विजय को सफलता प्राप्त हुई । उसे सन्तुलन कायम करने का ढंग आ गया और वह गडोलने के साथ आगे बढ़ने लगा । अब भी उसका पांव जम कर नहीं पड़ता था और गिरने का खतरा रहता था। लेकिन उसे खेल में आनन्द आता था और वह साहस और हिम्मत से कदम आगे बढ़ाता था । माँ, बड़े ही स्नेह और चाव से उसे ताकती रहती, गति-विधी का निरीक्षण करती और अपने लाल के बढ़ते हुए कदम को बहुत ध्यान से देखती । एक दिन विजय ने गडोलने को उठा कर दहलीज के पार रखा, वह लड़खड़ाया ओर गिरते २ सम्भल गया ।

"शाबाश !"

माँ ने उसके साहस को दाद दी और जब पति दफ्तर से लौटकर आया तो बेटे के इस नई मुहिम सर करने की दास्तान बड़े ही चाव और प्यार के साथ उसे सुनाई और कहा कि विजय जब गडोलना छोड़ कर अपने आप चलना आरम्भ करेगा, तो मैं मुहल्ले भर में कलाकन्द बाँटूंगी ।

कलाकन्द बाँटूंगी । अर्थात् सारे संसार में घोषित करूँगी कि मेरा विजय पंगला नहीं है, वह चल सकता है, दौड़ सकता है और मैंने सर्वांग, सम्पूर्ण जिन्दगी को जन्म दिया है ।

जिन्दगी जो कदम एक बार आगे बढ़ा लेती है, फिर उसे पीछे नही हटाती । विजय अब गडोलने के साथ घूमता था । उसे उठा कर इधर-उधर पटकता था, जब कोई मोड़ घूमता था, तो मुस्कराता था । उसने फिर कभी दीवार का सहारा लेकर खड़ा होने की इच्छा प्रकट नहीं की, जैसे उसे खड़ा रहने से जीवन की जड़ता से नफ़रत हो गई थी। वह घूमना चाहता था, दौड़ना चाहता था, और इस घूमने, दौड़ने में गडोलना उसके काम आता था । उसे इधर- उधर पटकने में आनन्द आता था । लेकिन एक दिन - एक दिन उसने गडोलने को बिल्कुल ही अलग फेंक दिया और वह खुद अपने ही पाँव पर आगे बढ़ गया। मां यह दृश्य देखकर उल्लास से भर गई । खिल उठी । और उसने पड़ोसिन को पुकारा:-

"बहन जी ! बहन जी !! देखो विजय चल रहा है ।"

लेकिन बहिन जी के आते २ विजय फिर गिर पड़ा वह ज्यादा देर तक अपने आप को न संभाल सका । मां ने गड़ोलना आगे बढ़ाया । वह उसे लेकर फिर उठा, फिर चलने लगा, लेकिन वह सहारे से मुक्त हो जाना चाहता था । उसने अपने पाँव पर चल कर देख लिया था । सहारा लेकर चलने की अपेक्षा उसे बिना सहारा चलना अधिक अच्छा लगा था, जिन्दगी जो कदम आगे बढ़ा चुकी थी, उसे पीछे नहीं हटाना चाहती थी । विजय ने फिर गडोलना छोड़ दिया और वह फिर अपने ही पांव पर चलने लगा ।

"बधाई हो, तुम्हें । ला, मंगवा मिठाई ।”

"वह दफ्तर से आयें, तो तुरन्त मंगवाती हूँ ।"

दूसरे दिन कलाकन्द बाँटकर माता पिता ने जीवन की इस विजय का जश्न मनाया और जश्न मनाने में मुहल्ले वाले भी शरीक थे । माँ जिस के हाथ पर कलाकन्द रखती थी, वह बधाई देता था और माँ का मन हर्ष और गर्व से नाच उठता था ।

एक दो दिन में गडोलने की आवश्यकता ही न रह गई । विजय अब बिना किसी सहारे के भाग दौड़ सकता था ।

गडोलना एक महीने से खूटी पर लटक रहा था । विजय को कभी उसका ख्याल तक नहीं आया । आज अचानक दृष्टि जा पड़ी तो वह उसे उतार देने के लिए जिद करने लगा । माँ ने गडोलना उतार दिया और कहा - "शैतान !"

शैतान ने गर्वोन्मुख चंचलता से गडोलने को थाम लिया । उसे एक कदम आगे धकेला और एक अजीब बेपरवाही से एक ओर पटक कर आप ही आप हंसने लगा ।

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