गदर के बाद (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Gadar Ke Baad (Hindi Story) : Jainendra Kumar

सन्, '57 में हिन्दुस्तान ने लाल दिन देखे ! तब धरती पर खून बहा और आसमान पर उछल-उछल आया। उन्हीं दिनों की बात है-

1

जेल के कैदी छुड़ाकर, डाकखाना फूँककर और ऐसे ही और काम करके मेरठ की चिनगारी दिल्ली में आ गयी है। यहाँ जो बहुत दिनों से भड़क उठने लायक सामान इकट्ठा किया जा रहा था, वह अब भड़क उठने को तैयार हो रहा है।

... थ् इन्फैण्ट्री के अफसरों को फौज ने जवाब दे दिया। उन्हें भाग जाना चाहिए, नहीं तो उनकी खैर की फौज जिम्मेदार नहीं। अभी भाग जाने का वक्त है। जैसे बने जान बचा लें, नहीं तो आग लग पड़ी तो ठीक ठिकाना नहीं रहेगा।

यह चेतावनी लेकर... थ् के कर्नल... बंगले पर आये । वक्त पर खबर मिल गयी है। उससे जरूर फायदा उठा लेना चाहिए। वह अब भागने की तैयारी में लगे । लेकिन... लेकिन मिसेज ? वह कहाँ गयीं ? उन... पादरी के यहाँ गयी होंगी। बच्चा भी उनके साथ है । सोचा- वहाँ से उन्हें झटपट लाकर भाग चलें ।

लेकिन तभी एक आर्टिलरी के एडजुटेण्ट घबराए - से बँगले में आये ।

"ओह कर्नल ! यों मत बैठो, भाग चलो ! बलवाई बढ़ रहे हैं... तक आ गये हैं।"

उस तक की बात सुनकर तो कर्नल हताश हो गये। तो अब पादरी के यहाँ पहुँचा नहीं जा सकेगा। बीच में बलवाई मिलेंगे। क्या किया जाए ?

एडजुटेण्ट ने ताड़ लिया- " क्यों तुम्हारी... ?"

"उस... पादरी के गयी मालूम होती हैं। "

" ओ वहाँ ! वहाँ का तो रास्ता रुका हुआ है।"

एडजुटेण्ट के मशवरे ने अन्त में काम दिया और उनकी निज की सहज बुद्धि प्रस्तुत और तत्पर ने भी । हाँ, देखो एक जान के पीछे दो जानें क्यों गँवाई जाएँ ? वह बच गयीं तो अच्छा ही है, उधर वह ढूँढ़ने जाकर खतम हो गये तो कुछ बात न हुई ।

इस तरह एडजुटेण्ट, कर्नल और कुछ अँग्रेज और मेमें जो बन सका समेट- समाटकर और जो बचे, उन्हें परमात्मा के और अपनी प्रार्थना के ऊपर छोड़कर खैर मनाते - मनाते भाग चले।

2

पादरी के यहाँ जब मिसेज... को... थ् इन्फैण्ट्री के बागी हो जाने की खबर मिली तो वह पति की सोच में व्यग्र हो उठीं। न जाने क्या हो गया हो ! एक नेटिव नौकर को साथ लेकर बँगले पर पहुँचीं। राह में, हवा में किसी उपद्रव की मर्मराहट सी तो जान पड़ी, पर उपाधि कोई सामने नहीं आयी।

लेकिन बँगला खाली था ।

तब बच्चे को छाती से चिपटाकर, जो बड़ी-बड़ी आँखों से यह सब देख रहा था, जिधर पता मिला वह गये हैं-उधर ही चल दीं।

3

.... चौधरी ने अँग्रेजी फौज में नौकरी की थी। पर खून बहाना अपना काम बनाना उसे अखरने लगा। उसने वह नौकरी छोड़ दी। खून तो पवित्र चीज है, वह क्या उस तरह बहाने के लिए है ? वह देने के लिए है, लेने के लिए नहीं। ऐसी ही भारी-भारी बातें सोच-सोचकर वह गम्भीर बन गया। उसकी गम्भीरता का आस-पास अजीब दबदबा फैल गया। लोग उससे दहशत खाने लगे। क्योंकि वह कम बोलता था और बोलता था तब ऐसे मानों वह बात उसकी विधाता भी नहीं टाल सकेगा। ऐसी आत्म- दृढ़ता के आगे सबको सहम जाना पड़ता था। फिर असल बात थी यह कि वह बहुत सादा रहता था। माँस खाना छोड़ दिया था और किसी को नहीं सताता था । न किसी से लाग-लपेट रखता था, न खास मुहब्बत और मुरौत्व, और न किसी का डर। बात टालते और बदलते उसे कभी किसी ने न देखा। जब कहता खरी कहता और उस पर से डिगने का नाम न लेता । चाहे बुरी लगे, चाहे अच्छी; चाहे दुश्मन हो चाहे दोस्त । उसके इस दो टूक स्वभाव से ही लोग दहशत खाते थे ।

लेकिन इधर दो साल से उसमें और भी परिवर्तन हो चला। वह और भी चुप रहने लगा। उसकी आवाज में मानो दृढ़ता अब वज्र- कठोर होकर बजने लगी। मानो मन-ही-मन वह एक संकल्प, एक उद्देश्य, एक चाह, एक कर्तव्य की सिद्धि की बात सोच रहा है और उसके योग्य सामर्थ्य बटोर रहा है। एक सन्देह था जो पक्का हो गया, और सन् '57 के दिन आने से दो महीने पहले से उसने फिरंगियों की नीति पर कुछ शब्द कहने शुरू कर दिये। एक दल भी बनाया जो वक्त पर काम आने को था।

उस दल के काम और चौधरी के पलटा खाने का दिन आया। कहें, चौधरी की परख का दिन आया । सन् '57 की आग फूटी और उससे चौधरी एकदम फुंक पड़ा।

पैंतालीस बरस का होगा, और जवानों में दर्शनीय था ।

चौधरी और उसके दल से लोग थर्राने लगे, अँग्रेज भी, हिन्दुस्तानी भी । क्योंकि प्रसिद्ध था— दल का एक - एक आदमी अँग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से निकाल बाहर करने की शपथ खाये हुए है और हिन्दुस्तानी उसके सामने मनमानी न करने पाते थे।

लेकिन गुस्सा हद नहीं जानता। उसके साथी अँग्रेजों से गुस्से से जलते थे । पर चौधरी में गुस्सा न था । कहें, उसमें प्रेम था । इसलिए वह हद भी जानता था । और जोकर गुजरना है सो भी।

4

एक गौरांग युवती हिरन - सी सहमती, चारों ओर मानों आपत्ति की टोह लेती हुई, बच्चे को कई कपड़ों की तहों में लपेटकर उसे कसकर छाती से चिपकाए हुए... पुरे में घुसी - मानों मौत के मुँह में घुसी।

थक रही है। मुँह पर कातर भाव फैला है। प्यासी है, थोड़ा पानी चाहती है, बच्चे को लिटाने को थोड़ी छाँह, और जरा- बिल्कुल जरा-सा ढाढ़स। क्योंकि उसे बड़ा डर लग रहा है। चारों तरफ एक खोखले शून्य में एक विलक्षण त्रास भरा है जो उसके कान में रह-रहकर आशंका की सूचना दे जाता है।

चली आ रही है दूर से - धूप में, रास्ते - बे - रास्ते, इस नन्हे से बच्चे के बाप को ढूँढ़ती हुई, इस भयंकर भय और आशंका में से अपनी राह बनाती हुई ... ।

आज पुरे के आदमी आनन्द में हैं। जिसको अब तक सिर पर देखा था, उसे पैरों में लथेड़ेंगे और खुश होंगे। फिर उसे रास्ते लगाकर दूसरे को ढूँढ़ेंगे और उसकी भी वही गति बनाएँगे। जो-जो उन पर राज्य करने का दम्भ किया, उन सबकी ऐसी ही दुर्गति करेंगे। इसी बदले की बात सोच-सोचकर वे मानों सुख पा रहे हैं । यह दाद खुजलाने से मिलनेवाला, कुत्ते को सूखी हड्डी चूसने से मिलनेवाला सुख है। वैसा मजा कहीं नहीं। ऐसे ही स्वात्मघातक बदले के भाव - सुख में आज वह... पुरा मस्त हो रहा है।

5

"देखो, वह कौन आ रहा है ?” – कहकर कहनेवाले ने एक बड़े भेद की हँसी हँस दी, सुनने वाला समझ गया । वह भी मानो स्वीकृति में हँसा । यह बात और यह हँसी इससे उसे और उससे इसे, सबमें फैल गयी। और वह पन्द्रह-बीस आदमियों का गुट, मानों सर्वसम्मत, एक समझौते पर आ गया । तभी इनमें से रहमत ने सैन दी, पास बैठे लड़के खचेडू को उसने पहचाना और वह चला गया । दम भर में खचेडू अपनी पार्टी को लेकर आनेवाले के स्वागत के लिए चला। पार्टी में सात से तेरह वर्ष तक के लड़के हैं, आठ-दस होंगे। कोई लंगोटा ही बाँधे है, किसी-किसी ने धोती पर कुर्ता भी लटका रखा है। किसी के हाथ में ठीकरा है- उसे ही बजाता चला जा रहा है, कोई बगल ही बजाता है, कोई मुँह से ही बाजे का काम ले रहा है।

वानर सेना के इस यथार्थ एडीशन ने कई तरह की आवाजें निकालकर उस महिला का स्वागत किया ।

एक कहता, "आयी हैं मेम साहब!"

सब बोलते हैं, “खुशियाँ मनाओ खूब !"

एक, "क्या खूब आयी हैं वो । "

कोरस, "क्या पड़ रही है धूप ? आदि आदि । "

वह नीचे धरती देखती देखती चलने लगी। उसके दोनों ओर यह वानर दल बँट गया। वैसा ही तुकांत या अतुकांत गीत और वैसे ही कंकरी फेंककर छेड़-छाड़ आदि जारी रही।

जहाँ वे आदमी बैठे थे, वहीं आयी वह - "पानी - तोड़ा। प्यासा - बेबी । - रअम बाबू!”

एक बात कह दें। जैसे अब अपनी गर्ज से हिन्दुस्तानी अँग्रेजी सीख लेते हैं, वैसे ही तब अँग्रेज अपनी गर्ज से हिन्दुस्तानी जान रखते थे। तब बहुत कम ऐसे श्वेतांग होते थे जो हिन्दुस्तानी समझ या बोल न सकते थे। बात यह थी कि तब तक अँग्रेजी से हिन्दी और हिन्दी से अँग्रेजी बनाकर समझा देनेवाले किराये के बाबू लोगों का सम्प्रदाय बढ़ने नहीं पाया था ।

महिला ने दोहराया - " खोदा के वास्ते । "

उस समय सबने एक-दूसरे की ओर देखा । रहमत ने आगे बढ़कर कहा—

"लाओ बच्चे को, मैं देता हूँ इसे पानी ।"

रहमत के घनी काली दाढ़ी है। मक्खी फँस जाये तो जीती न निकले। सिर पर ताजी की दूब से बाल हैं। ओठों पर लकीर-सी मूँछें हैं, जिनके सिरों पर दो पूँछ लटक रही हैं। सब मिलाकर वह एक भयानक जन्तु दीख पड़ता है । आँखें पत्थर के हनुमान में जड़ी जैसी गोल-गोल तरेड़ खाती हुई भट्ठी-सी जल रही हैं। महिला डरी।

पर बच्चा कैसा नन्हा-भोला है । उसको प्यार करने के सिवा कोई कुछ कर ही नहीं सकता ! उसने बच्चे को लपेटों में से खोला ! कैसा वह नीली-नीली बड़ी- बड़ी आँखें फाड़कर देख रहा है रहमत को, लौट लौटकर अपनी 'अम्मा' को ! झट उसने फिर ‘मम्मा' के घोंसले में दुबक रहने का प्रयत्न किया। रहमत के पास वह जाना नहीं चाहता। तब रहमत ने हाथ बढ़ाया। महिला ने जरा जोर लगाकर 'बेबी, वाटर! बेबी वाटर!' कहते हुए बच्चे को उन रहमत के फैले हाथों में थमा दिया ।

रहमत ने कहा - "लालू !”

लालू उठा।

"वहाँ जाओ। उस जगह... हाँ ठीक... अब लो।" कहकर रहमत ने बच्चे को उछाला। आकाश में गुड़ी-मुड़ी खाता हुआ वह चला। लपक लिया तब उसे लालू ने। अब तो यही खेल चला। बच्चा इस हाथ से उस हाथ, और उस हाथ से इस- गेंद की तरह से उछाला जाने लगा। धीरे-धीरे उन लोगों ने अपने बीच का फासला भी बढ़ाना शुरू किया। देखना यही था कि आखिर कौन चूकता है !

मेम इस वक्त अपना सारा जीवन आँखों में लाकर बच्चे को देख रही है- वह गया, ओह कितना ऊँचा !... गिरा गिरा !... आह... ! वह लपक लिया ! इस तरह उसके प्राण मर-मरकर जी रहे हैं, जी-जीकर मर रहे हैं। इस मौत और जीवन के अन्तराल को उसके प्राण एक क्षण में न जाने कितनी बार आर-पार कर जाते हैं ! इस व्यथा को कौन जानेगा ?

वह अब लालू बच्चे को उछालने को है ।...' हें हें' वह एक चीख देकर दौड़ी - रहमत ने बढ़कर उसकी कलाई पकड़ ली।

"कहाँ जाती है !"

तभी लालू ने बच्चा उछाल दिया। तभी एक गरज सुन पड़ी। " क्या है ?"

तभी सब-कुछ ठहर गया। सब स्तब्ध हो गया। बच्चे को किसी ने न लपका- वह आकाश में चक्कर खाता हुआ पत्थरों पर गिरा, सिर खुल गया और उसका नन्हा- सा प्राण हवा में मिल गया। तभी खिड़की में से चौधरी झाँका-" क्या है ? ठैरो। "

रहमत ने हाथ छोड़ दिया। महिला बौखलाई खड़ी हो गयी। लालू भूला-सा वहीं का हो रहा। और सब भी वहीं चित्र - लिखे से रह गये ।

महिला सन्न ! - अब यह और क्या !

चौधरी आया - देखा, अपने ही लोग हैं जिनके चेहरों पर शरारत है, और जिस पर अब दहशत आ छायी है और एक तरफ भयभीत त्रस्त, पीत मानों कब्र से उठकर आयी एक इंगलिश महिला है । आँखें फटी हैं, और कुछ देख नहीं रही हैं। उसने चिल्लाकर कहा—“कम्बख्तो, यहाँ यह मर्दूमी कर रहे हो ? डूब मरो ! एक औरत पर हाथ! हिन्दुस्तानी होकर ! तभी इस लड़ाई में लड़ोगे ? हिन्दुस्तान को तुम्हारे यह पाप न जाने कब तक भुगतने होंगे !"

तभी उसने देखा - पास ही कुछ और है जो तरबूज- सा खिला पड़ा है और लालू भूत-सा बन रहा है। उसने लालू को गौर से देखा, फिर बच्चे के नन्हे से शव के पास दौड़ गया। झुका - बालक की आँखों में खून न आया था, उनमें विश्वास भरा था, और वे हँसने को उद्यत थीं!

वह एकदम उछलकर खड़ा हो गया, आँखें अंगारा हो गयीं, फिर गीली हो गयीं, और हौलनाक आवाज में कहा । वह आवाज गूँजती थी पर खोखली थी, हुक्म से अधिक उसमें दिल की चोट थी, तीखी से अधिक वह भारी थी ।

–“ओ, लालू के बच्चे, बदनसीब ! सुनता है ? इस बच्चे के माँस की चटनी फिर घर जाकर बनाना। बड़ी अच्छी लगेगी, तू तर जाएगा जन्म-जन्म को।" फिर महिला के पैरों की ओर संकेत करते हुए कहा - "अरे, आँखें क्या फाड़ता है अभागे ! इस माई के पैरों में गिर । शायद कुछ भला हो जाए !"

बच्चे की माँ के सामने बच्चे का शव पड़ा है - आह ! लाल-लाल लहू कैसे गाढ़ा उसमें से निकलकर जम गया है ! नन्हे से सिर में इतना सारा लहू कहाँ से आ गया ? अभी छाती से चिपटकर पानी माँग रहा था, अभी पत्थरों पर पड़ा सिर फोड़कर दिखला रहा है! माँ मानों जब तक रहेगी, यहीं खड़ी खड़ी इस खिले सिर को देखती रहेगी।

लालू ने सिर माँ के पैरों में किया पर आँसू न ला सका। तब चौधरी ने रहमत को ललकारा, जिसके मुँह पर पाप साफ लिखा था - " और क्यों रहमत तुझे खुदा से खौफ नहीं है। नहीं जानता, ऐसे कामों से तुझे क्या मिलेगा ? चल तू भी माई से माफी माँग ले, नहीं तो कह रखता हूँ, तुझे एक मिनट को चैन नहीं मिलेगा।"

किन्तु रहमत को इसमें देर लगी । चौधरी को आवेश हो आया। उसने रहमत का सिर पकड़ माँ के पैरों में डाल दिया। रहमत का सिर तो पैरों में गिरा पर दिल दहल उठा । पर चौधरी का खौफ था- बोला नहीं, चुप रहा।

अन्त में चौधरी स्वयं उस महिला के पैरों पड़कर रोया - " उठो माई, इस पाप की एवज हम सब और हमारा यह हिन्दुस्तान देगा। पर पाप को जितना कम कर सकूँगा, जरूर करूँगा ! माई, मेरे घर चलो, अब भी हैं जो सच्चे हिन्दुस्तानी हैं। जो स्त्रियों की और माँओं की कदर जानते हैं, और जो अतिथि की सेवा करना जानते हैं।"

तब माँ, मानों स्वप्न में चौधरी के पीछे-पीछे चल दी। चौधरी ने मुड़कर सबसे कहा—“ चौधरी को तुम सब जानते हो। कभी ऐसा मत करना। तुम जानते नहीं, हमारी लड़ाई कैसी है? ऐसी बातों में हमारी हार है। मेरे लिए जीत और हार कुछ नहीं, यही जीत और यही हार है। तुम जानते नहीं, चौधरी एक फिरंगी औरत को बचाने में मर जाएगा - और इसी में उसकी जीत होगी। जाओ, पर याद रखो मेरी बात !"

6

कैसे बहादुरशाह पकड़ा गया, कैसे उसके दो बच्चों का खून पिया गया - अलंकार में नहीं, चुल्लुओं में पिया गया, किस तरह अँग्रेजों की अमलदारी फिर हो गयी, फिर किस तरह शान्ति फैली, और किस तरह फाँसियाँ दी गयी, और किस तरह और बहुत से ढके और उघड़े काम किये गये - इन सब बातों से हमारा सम्बन्ध नहीं ।

लेकिन वह इंगलिश महिला चौधरी के घर स्वस्थ रही। उसकी सेवा में किसी तरह की कमी या उपेक्षा नहीं हुई, और चौधरी ने अपनी तलवार में जंग भी न लगने दी। अपने अतिथि सत्कार और अपनी तलवार, अपने बाजुओं की ताकत और अपनी दृढ़ता का चौधरी ने पूरा उपयोग किया।

किन्तु अँग्रेज़ फतहयाब हुए और चौधरी मरा नहीं । वह मौत को प्यार नहीं करता था। प्यार करता था वह जिन्दगी से और ज़िन्दगी की उपयोगिता से। रास्ते में मौत आती थी तो वह मानो उसकी जिन्दगी का ही एक काम था ।

दिल्ली में अँग्रेजों का शान्ति स्थापना का काम चल दिया- जो शान्ति फाँसी के तख्तों के बराबर और खून से सानकर स्थापित की जाने वाली थी- और चौधरी अपने उसी पुरे में, उसी दृढ़ता, उसी प्रतिज्ञा को लेकर रहने लगा।

लेकिन घर में जाकर कहा - "माई, तुम्हारे लोग अब दिल्ली में हैं । यहाँ जब तक मैं हूँ, तब तक तुम्हें कुछ फिकर नहीं। पर मेरा ही क्या है ? तुम्हारे लोग मुझे दुश्मन समझते हैं, मैं उन्हें दुश्मन समझता हूँ। इससे अच्छा है तुम वहीं चली जाओ!" महिला ने बड़े हर्ष से यह स्वीकार किया ।

एक रोज रथ में बैठकर उस महिला को चुपचाप 'सिविल लाइन्स' में लाकर छोड़ दिया गया।

उसी रात को मकान घेर लिया गया और वह गिरफ्तार कर लिया गया।

7

एक ने कहा - "ओह, माई डियर!"

दूसरे ने कहा - " डियरी, माई डार्लिंग !"

और दोनों बिछुड़ गये।

कर्नल को खोयी पत्नी मिली। जिसे कब्र में गाड़ चुका था, वही मानो कब्र से उठकर चली आयी। और पत्नी को गया प्राण मिला।

इस सुखद मिलन में प्रेम का ज्वार उमड़ा, और एक बार सब कुछ - वह बच्चे की स्मृति और चौधरी की कृतज्ञता भी उसी में डूब गयी ।

इस दृश्य को यों ही छोड़ दो - छोड़ो मत, इन दुखियों को मिल लेने दो, हँस लेने दो, रो लेने दो, अपनी-अपनी सुना लेने दो ।

इतने तुम हमारी एक बात सुनो। कर्नल अब कर्नल नहीं है। एक मार्शल कोर्ट के मजिस्ट्रेट हैं, न्यायाधीश हैं।

राजधर्म का पहला नियम है कि शासन से न्याय अलग होकर, ऊपर होकर रहे । शासन की निरंकुश होने की ओर वृत्ति होती है। अधिकार मद है। अधिकार की आदत अधिक अधिकार माँगती है। न्याय उस पर अंकुश रखे। शासन न्याय के प्रति उत्तरदायी रहे, और शासन न्याय की माँग और न्याय के हुक्म को पूरा करे और उसके नियम की मर्यादा में रहे। राजतन्त्र के तान्त्रिकों के निमित्त राज्य के सभा गुरु - Legislators विधान बनाकर देते हैं। शासक और शासित दोनों के लिए वह विधान एक है, एक- सा है। और वह विधान फिर न्याय संस्था के संरक्षण में आ जाता है । वह संस्था आँख रखे कि मर्यादा टूटे नहीं; शासन शक्ति में स्थान- भेद के अतिरिक्त मनुष्य-भेद न होने पाए; मानवीय समानता उनमें बनी ही रहे; शासन दायित्व रहे, वह हक न बने, आदि ।

किन्तु, यह साधारण बात है। विशेष बात यह है कि " आपत्ति काले मर्यादा नास्ति ।' जब मर्यादा नहीं रखनी हो, तोड़नी हो, तब आपत्ति - काल बुला लेना चाहिए। शक्ति के लिए यह सहज है। बुलाने की बात दूर नहीं है। मर्यादा तोड़ी, आपत्ति - काल था। आपत्काल न होता, मर्यादा टूटती ही कैसे ? टूटी, इससे प्रमाणित है कि टूटनी चाहिए थी ।

यह तर्क शक्ति का है और आपत्ति में शक्ति का राज्य न हो तो धरती विध्वंस हो जाए। इस शक्ति - राज्य का नाम है, "मार्शल ला" । अर्थात् 'कानून, शक्ति की मुट्ठी में ।' तब न्याय को आले में बैठा दिया जाता है, राजधर्म, नीतिधर्म आदि-आदि धर्मशास्त्रों को भगवद्भजन करने दिया जाता है।

और ऐसा कोई करता नहीं, ऐसा करना पड़ ही जाता है 'चाहिए' का प्रश्न नहीं है । नहीं चाहिए, यह कौन नहीं कहता, पर शान्ति का उत्तरदायित्व कभी-कभी माँगता है - लहू बहाओ । सो उन्हें लहू बहाना पड़ता है। हम तुम शान्ति के महान उत्तरदाताओं की दिक्कत क्या जानें ? इससे हमें चाहिए हम कुछ न बोलें, अस्तु ।

तो ऐसा ही आपत्काल था । इसलिए कर्नल एक मार्शल कोर्ट के मजिस्ट्रेट की कुर्सी पर है। जिन्होंने अब तक तलवार का ही काम किया है, उनके हाथ में अब न्याय की कलम आयी है। अब तक मारने का काम किया था अब जिलाने का काम आया है, क्योंकि वास्तव में न्याय का काम जिलाने का है। न्याय दया के समीप है, क्रूरता से उतना नहीं। लेकिन मुमकिन हो सकता है खास हालातों में न्याय का यह काम ही बदल जाए, जिलाने की जगह और कुछ हो जाए। शायद यही वजह थी । तब तो हमें यह मानना पड़ेगा कि कर्नल उपयुक्त न्यायाधीश थे ।

अब तक शायद पत्नी को या रिश्तेदारों को खत लिखने के अतिरिक्त कलम को इन्होंने ज्यादा नहीं चलाया था, ज्यादा नहीं तंग किया था। न दिमाग को ही सोच- सोचकर परेशान किया था। अब जो सूक्ष्म निर्णय के जोखिम का यह काम सिर पर आ गया, तो कर्नल ने उसे भी उसी घाट पर उतारना शुरू किया। अब तक तलवार लेकर कर्नल ने ऐसी अपनी आदत डाली थी-आया काटकर फेंका, खतम, फिर दूसरा... यही आदत उन्होंने इस काम में भी बिना रोक- हिचकिचाहट बरती ।

8

इतनी बात कहने के बाद अब वहाँ पति-पत्नी के पास चल सकते हैं। ज्वर उतर चुका है और बातों में बहुत रस या बहुत आह नहीं है । पत्नी ने कहा-

“They've killed, but herd, my child—our child, don't spare them, my dear."

(उन्होंने मेरे - हमारे बच्चे को मार डाला है। उन्हें छोड़ना मत ! )

"Nor I will' dearie."

(न - कभी नहीं, प्रिये । )

“There my love, thats' good!”

(बस - बस यही तो, कैसे अच्छे हो तुम !)

जब ऐसा प्रोत्साहन प्राप्त हो तो काम तेजी से निकले - इसमें अचरज क्या ?

उन्हीं शीघ्रतावादी प्रोत्साहन प्राप्त कर्नल मजिस्ट्रेटी की हाजिरी में आप उपस्थित हैं।

पते- नाम-धाम की रूखी कार्रवाई हो चुकी है। अब लालू हाजिर हुआ है ।

हाजिर तो हो गया, पर ठूंठ-सा खड़ा रह गया। चौधरी को देखा - फिर बोल न निकल सका।

इस पर न्यायमूर्ति के मुख से लालू के लिए जो शब्दावली मुखरित हुई, उसे हम यहाँ न दे सकेंगे। पर लालू की जीभ में से जैसे किसी ने जान खींच ली हो- वह बोल नहीं सकता। न्यायमूर्ति ने आठ बेंत का हुक्म सुनाया ।

तब आया रहमत। बड़ी हिम्मत बाँधकर बोलने लगा - "अजी, एक मेम साहब को बेइज्जत...।''

" रहमत के बच्चे, झूठ... ! " - चौधरी दहाड़ा। तभी हथकड़ियाँ मजबूत कर दी गईं, दो-एक सिपाहियों ने जंजीरों में झटके भी दिए। किसी ने चौधरी के बदन पर अपनी ताकत का भी जोर आजमाया, और जज साहब ने फरमाया - "चुप, सू... '

लेकिन जंजीर कितनी ही कस लो, और गाली कितनी ही गरजा लो, रहमत अब बोल सकता नहीं ।

" क्या है, बोलता क्यों नहीं ?"

"कुछ नहीं, हुजूर।"

पाँच बेतों का इनाम इसे भी बोल दिया गया।

तब चौधरी ने कहा, “क्या कहलवाते हो इन बेचारों से जो है, सो मैं कहता हूँ। बात कुछ बड़ी भी तो नहीं है। मैं तुम लोगों को यहाँ नहीं चाहता। तुम लोगों का राज मैं नहीं मानता। यह तुम्हारी मजिस्ट्रेटी ही नहीं मानता। तुम अँग्रेज हो, अपने देश में रहो। हम हिन्दुस्तानी हैं, हम यहाँ रह रहे हैं । तुम्हारे यहाँ जगह नहीं है, कम है - अच्छी बात है, तो फिर यहाँ रहो, पर आदमियों की तरह से रहो । यह तुम्हारी सिर पर चढ़ने की आदत कैसी है? सो ही हम नहीं चाहते, ऐसे जब तक रहोगे, तब तक हम तुम्हारे खिलाफ रहेंगे। भाई बनकर रहोगे, बराबर-बराबर के । गोरेपन की ऐंठ में न रहोगे तो हम भी तुमसे ठीक बरतेंगे और फिर देखें कौन तुम्हारा बाल भी छू सकता है । पर वैसे ? –न, दम में दम है तब तक तुम्हारे दुश्मन रहेंगे। बस, और क्या कहलवाते हो ?"

"वह मेम की बेइज्जती... ।”

चौधरी ने टूटकर कहा - " बस करो, बस । बस, तुम अभी हिन्दुस्तान की आन नहीं समझते। अपने-सा ही सबको समझते हो - तभी ऐसी बात कह गये। अब से ऐसा न कहना – खबरदार, नहीं तो खता खाओगे। हिन्दुस्तानी, सच्चे हिन्दुस्तानी, कपूतों की बात छोड़ दो, स्त्री पर कभी हाथ नहीं उठाते। स्त्री को माँ समझते हैं । समझे, हे अँग्रेज, खूब समझ लो । "

तब उसे बच्चे की उस माँ की याद आ गयी। सोचा- कह दूँ उस बात को । अगर सच न समझेगा तो अभागा है, सच समझेगा तो अच्छा ही होगा। लेकिन न... ऐसी बात क्या याद करने की होती है ? की नहीं कि कुएँ में डाली - याद भी नहीं ध्यान भी नहीं। इसलिए उसने आगे कुछ न कहा ।

तो अब दो बातें हुईं - बेइज्जती की बात और बलवे की बात । पहली पर पच्चीस कोड़े, दूसरी पर फाँसी ।

फाँसी ही है तो कोड़े क्यों ? पहले हम भी चकराए। फिर समझ में आ गया कि अलग-अलग जुर्मों की दो सजाएँ हैं। फाँसी ही सिर्फ हुई तो पहली सजा के दण्ड के बिना ही मुजरिम चला गया और कानून का पेट नहीं भरा। इसलिए कानून के पेट के लिए दोनों सजाएँ अलग-ही-अलग दी जानी जरूरी हैं। ठीक, बहुत ठीक।

अभी बहुत को निपटाना है, फिर जज साहब को टेनिस खेलने जाना है, और वह इन्तजार करती होंगी। इसलिए चौधरी को तुरन्त ले जाया गया।

9

जैसे बहुत बड़ी दावत होती है न! कढ़ाए चढ़ते हैं, झटपट - झटपट काम होता है, सब- के-सब काम में लग जाते हैं। पूरियाँ बिल पायी नहीं कि कढ़ाओं में छोड़ी गयीं और सिक नहीं पातीं कि फिर और! कढ़ाए गर्म ही रहते हैं। वैसे ही अब शान्ति स्थापना होगी। इसके उपलक्ष्य में यमदेव की खूब बड़ी दावत की जा रही है। खूब चुस्ती से काम हो रहा है। आदमी पकड़े नहीं गये, कि चढ़ाए नहीं गये। एक ही साँचा है...फाँसी। आया कि उसी की मोहर लगा दी। अब पेड़ों पर सैंकड़ों फाँसियाँ चढ़ी हुई हैं। खाली हो पाती हैं कि और आदमी पहुँचते हैं। पहुँचे कि चढ़े। खूब गर्म बाजार है। मालूम नहीं यम महाराज के भोज की यह तैयारी कब तक चली। अगर यमदेव सन्तुष्ट न हुए हों, तो हम चुनौती देकर कह सकते हैं भोज करने वालों की इसमें ज़रा त्रुटि नहीं।

कोड़े लगना देखा है ? नहीं, तो देखने की एक खास चीज नहीं देखी, देखिए !

वह टिकटी है। और वह चौधरी टिकटी पर बँधा है। हाथ ऊपर और पैर नीचे चौड़ा रहे हैं । दिगम्बर है। मुँह उसका हमसे दूसरी ओर है। है तो हो, पर हम जानते हैं वह जरूर वैसा ही है जैसा हमेशा रहता है ।

कुछ दयालु लोग और कुछ दर्शक लोग दृश्य को देखने और मजा लेने चारों ओर इकट्ठे हैं।

कोड़े और कोड़े लगाने वाले में भी विशेषता है। कोड़ा कई रोज से भीगा हुआ है, आजमाया हुआ है। यह नहीं हो सकता कि चोट कच्ची बैठे, या कोड़ा टूट जाए ! अब वह आदमी भी साधारण नहीं है। इस हुनर का काफी अभ्यस्त है। पिछले कई रोज़ से अभ्यास ताजा करता रहा है। ऐसे पैंतरे बदलकर ऐसे सपाक से कोड़ा मारता है, कि क्या मजाल जो गलत बैठे और भरपूर जोर से न बैठे।

वह देखिए, ठीक पैतरों से वह बढ़ा मानो टूर्नामेंट में एक प्रतिद्वन्द्वी है । मानो अपने खेल के दाँव-पेंच दिखा रहा हो। बढ़ा... बढ़ा... वह आया बढ़ के । कोड़ा बराबर हवा में सनसनाता चक्कर खा रहा है। कैसा सर्राटा है, जैसे डसने से पहले साँप की जीभें लम्बी होकर सरसराती चक्कर काट रही हों ! देखते हैं न ! वह खुला नितम्ब- भाग आप? वह देखिए ।

वे तीनों चारों जीभें आईं, मांस के अन्दर मानो जा धँसीं । अब घुसकर बाहर निकल आयी हैं, और वहीं जोंक जैसी चिपक बैठी हैं। लेकिन नहीं, आप भूलते हैं । कोड़ेवाला तो कोड़ा लेकर चला गया है, वहीं अपने प्रस्थान के स्थान पर, यह उभरन तो खाल की ही है। खाल ही नीली पड़कर उभर आयी है।

इसी तरह कोड़े पड़े, खून निकल आया... उछलकर पड़ा कोड़ेवाले के मुँह पर । कुर्ते की बाँह से उसने उसे पोंछ लिया। कैसा वीर है ।

तब दयालु सज्जनों की दयालुता का अवसर आया। फिनायल से भीगा कपड़ा उन्होंने आहत भाग पर बिछा दिया, जिससे खून उचटे नहीं और घावों को जल्दी आराम हो जाए।

बस बहुत हुआ, आइए, चलिए। हमारा जी खराब होता है। हम नहीं ठहर सकते।

हाँ, क्या पूछा? बेहोश हो जाए तो ? कुछ नहीं । दयालुओं की दयालुता इसे अपने उपचारों द्वारा शेष कोड़े खाने के लिए फिर होश में लाएगी !

अब आप कहते हैं, यह व्यवस्था बड़ी पक्की - पूरी है ! है न? कचाई कहीं न मिलेगी !

10

सोफे पर आधा लेटकर पति ने पूछा - " तुमने बताया नहीं, तुम कहाँ-कहाँ रहीं ?"

गुलूबन्द की बुनाई की सलाइयों को फन्दे में अटका छोड़कर, आँखें ऊपर उठाकर पत्नी ने कहा- " तुमने भी तो नहीं बताया। "

इस पर पति ने अपनी सारी बीती कह सुनाई। फिर पत्नी ने कहा- "मुझे तो ज्यादा नहीं कहना। तुम यहाँ नहीं मिले, तो मैं तुम्हारी तलाश में चली । चलते- चलते... पुरे में पहुँची। खैर मानो, मैं वहाँ बच गयी। ओह बच्चा तो... बच्चा तो वहीं पटककर मार दिया गया! मेरा न जाने क्या होता, पर चौधरी...।"

"चौधरी ?" उत्सुक प्रश्नवाचक स्वर में पति ने दोहराया ।

"हाँ चौधरी... पुरे का।"

"... चौधरी... पुरे का ?"

"हाँ...तो ?”

"चौधरी ! उसने क्या किया ?"

"उसने मुझे बचाया। जिन्होंने मेरे साथ ठीक सलूक नहीं किया था, उन्हें मेरे पैरों डाला। खुद मेरे पैरों गिरकर मुझे 'माँ' कहा। और अपने यहाँ रखा, बड़ी अच्छी तरह रखा।"

"ओह!"

" क्यों क्या बात है ?"

वह क्या बताए ? कुछ नहीं बता सकता ।

" बोलते नहीं ? तुम्हें क्या हो गया ?"

तब बड़े क्षोभ से उसने कहा- "ओह! मैंने उसे फाँसी दे दी !"

"फाँसी !"

वह चीख मारकर मूर्च्छित हो पड़ी ।

11

फाँसी की जगह वह आयी है। लाशें ठेलों पर लादी जा रही हैं, जैसे बोरे लादे जाते हैं, उतनी ही परवाह या लापरवाही से, बल्कि उपेक्षा भाव ज्यादा ही है, क्योंकि लाशें बोरों से ज्यादा हैं।

महिला ने हुक्म दिया—" ठहरो!" अंग्रेज महिला का आज्ञोल्लंघन, उस समय कौन था जो कर सके !

काम रुक गया। महिला ने एक-एक लाश देखी। आखिर चौधरी का शव मिला। उसे अपनी गाड़ी में रखा। बंगले पर आयी । लाश देखी - आँखें निकली हुई हैं, लहू से बदन लाल और चिपकना हो रहा है, पर चेहरे पर अब भी सिकुड़न नहीं है, जैसे उसकी आत्मा में एक भी सिकुड़न नहीं थी ।

बँगले पर लाश को खास कमरे में ले आया गया। ईरानी कालीन खून के धब्बे से लाल होता जा रहा है। इसकी उसे परवाह न हुई। कहा - "जॉन ! सुनो। इधर आओ। इसकी क्रिया ठीक तौर पर करनी होगी, और सब खर्च तुम्हें करना होगा । सुना ? करोगे ?"

जॉन ने सम्मतिसूचक सिर हिला दिया ।

"अच्छा, अब इनके पैरों में सिर नवाओ। यह देवता आदमी था । घबड़ाओ नहीं, जिन्दा होता तो मैं नहीं कहती। मर गया है तो पूज्य से अधिक है। विश्वास रखो, विश्वास रखो, उसके पैरों में सिर नवा रहे हो, जो तुमसे ऊँचा था, पक्का था और परमात्मा को प्यारा था।"

कर्नल ने सिर पैरों में नवा दिया।

"जॉन ! अब मैं जाती हूँ। औरों के पाप का प्रायश्चित इसने किया, तुम्हारे पाप का प्रायश्चित मुझे करना होगा। जाती हूँ, अच्छा है, चले जाने दो। रोकोगे तो भी न रोक सकोगे।"

कर्नल ने देखा - कुछ है, जो उससे नहीं दबेगी, जिसके खिलाफ बोलने की उसे हिम्मत नहीं। जो कुछ देवी -सी है और जिसके सामने सिर नवा लेना ही कर्नल का धर्म है। वह चुप हो रहा। वह चली गयी।

जहाँ चौधरी का शव जला था, वहीं जमुना किनारे कई साल तक एक झोंपड़ी रही। कहते हैं यहाँ एक पगली तपस्विनी रहती थी, जिसका काम कभी हँसना और कभी रोना था। इस हँसने और रोने का कोई क्रम न था । वह किसी से नहीं बोलती थी। मालूम नहीं कैसे रहती थी और क्या खाती थी ! यह रंग में इतनी सफेद थी कि लोग उसे यमुना तीर की संरक्षिका प्रेतात्मा समझकर उससे दूर-दूर रहते थे ।

तब एक दिन वह झोंपड़ी नहीं रही, और न वह पगली ही फिर देखी गयी !

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