गाड़ीवान (नेपाली कहानी) : इन्द्र सुन्दास
Gaadivan (Nepali Story) : Indra Sundas
अर्धरात्रि में-वह ठण्ड का महीना, बहुत दिनों से बगैर तेलवाले आवाज़दार चक्कों वाली बैलगाड़ी बगुवा गाँव पार कर सदा ही कोयला, लकड़ी लेकर जाती थी। रात्रि दो बजने से पहले ही इन चक्कों की आवाज़ सुनाई देती थी। पहाड़ के बाड़े में रहते समय गीत गा-गाकर और रामायण के दो-चार श्लोक मिलाकर तामांग गीत गुनगुनाकर अँधेरी रात में रहते हुए घी और मही काफी खाया था और गाय के थन से ही दूध पिया था तो वह हृष्ट-पुष्ट हो गया था। नदी के किनारे कुश्ती और पत्थरफेंक मुकाबले में भाग लेकर वह बहुत ही बलवान बना था। इतना कि पूरे बैल को कंधे पर उठाकर दौड़ सकता था। दो मन वजन को बिना रस्सी पीठ पर लादकर रेस के घोड़ के समान दौड़ सकता था।
पहाड़ के हलेसी से बातों ही बातों में आसाम जाने वाले बड़े लोगों के साथ गुन्द्री बाज़ार देखने की लालसा में भागकर आया था, इतने दिनों की पैदल यात्रा उसे कुछ भी न लगी। एक तो वह बलवान, उस पर दार्जिलिंग देखने की ख्वाहिश। थकान उसे महसूस ही न हुई। सोमाना, सुके, घूम पार करते ही अनेक मजेदार घर, कोठी, जंगवीर का हिटो, स्टेशन, रेलगाड़ी, पटरी, हवा गाड़ी (मोटर गाड़ी) जैसी आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखता हुआ वह गुन्द्री बाजार आ पहुँचा। एक पल तो चारों ओर रोशनी देखकर सचमुय में ही स्वर्ग पहुँचने का आभास हुआ। पर उसे दो चीज़ों से अधिक डर लगा। एक तो पतली पटरियों में बड़े-बड़े फलाम की गाड़ियों का चलना और दूसरे, हवादार चक्कों के ऊपर आदमियों को साथ बिठाकर छोटे घरों का दौड़ना। घुमावदार (गोलाकार) रास्तों से उन गाड़ियों के अपने ऊपर आ चढ़ने का भय था या कुछ और कि वह आँखों को बन्द कर दोस्तों को कसकर पकड़ लेता था। दोस्तों के पीछे रहकर उसने चौक बाज़ार की दुकानों में बहुत चीजों को देखा और दंग रह गया। इसके बाद आसाम जाने वाले,अपना-अपना सामान लेकर सिलिगुड़ी के लिए चल दिये तो साइँला भी उनके पीछे लग गया। चलते-चलते सुनादा के उस पार वाले चटकपुर पहुंचे तो रात हो गई। सभी ने वहीं के डाक-बँगलों में रात गुजारने का निश्चय कर लिया।
चटकपुर शुरू से ही गाड़ीवानों का गाँव है। बाघगौंड़ा पर उतारे गये कोयला, लकड़ी आदि जगह-जगह पहुँचाकर जो पैसा मिलता उसी से ये लोग अपना और परिवार का पेट पालते हैं। वैसे तो दु:ख इनका साथ कभी नहीं छोड़ता फिर भी बेफिक्र होकर ये लोग दिन गुजारते हैं। थोड़ी-बहुत तकदीर वाले, पुराने और विश्वसनीय होने पर गाड़ीवान से कोयले वाला सरदार तक अपना दर्जा बढ़ा लेते हैं। उन्हीं बँगलों के पास ही बूढ़े खड़का का घर था। वह गाँव का सबसे बड़े-बूढ़ा था। गाड़ी हाँकते ही उसकी उमर गुजरी थी। हाल ही में उसे कोयले वाला सरदार बनने की ख्वाहिश हुई तो वह अपनी गाड़ी का भार किसी एक को सौंप देना चाहता था। भाग्य से आज वही मौका हाथ लगा था। कारण, वह इन बातों को सोच ही रहा था कि बँगलों में परदेसियों को देखा जो पहाड़ी गीत गा रहे थे। बूढ़ा वहाँ जाकर सबसे बात करने लगा। बातों ही बातों में साइँला का जिक्र हुआ तो बूढ़े ने उसे देखते ही पसन्द कर लिया। आदमी हृष्ट-पुष्ट और भोला-भाला भी। बूढ़े ने सोचा कि बताने और सिखाने से यह होशियार तो होगा ही साथ में काम का भी। बूढ़े ने बात छेड़ी, दोस्तों ने भी मशवरा दिया तो भारी हृदय के साथ साइँला उनसे अलग होकर चटकपुर में ही रह गया।
महीना-बीस दिन तक बूढ़े ने खुद ही गाड़ी हाँकना, रेल या गाड़ी के आने पर एक डोर खींचना, भारी डलवाना जैसी आवश्यक जानकारियाँ देकर उसे योग्य गाड़ीवान बना दिया और खुद बन गया नया सरदार। साइँला भी दूसरों के सहारे गाड़ी हाँकने लगा। बलवान और भोला होने से सब उसको चाहने लगे। रहते-रहते साइँला चालाक बन गया। मुगलान (हिन्दुस्तान) की हवा ने उसे छू लिया।' सब उसे पहचानने लगे-रास्ते का महाजन, ठेकेदार आदि। उसका डर भाग गया। संगत से आदमी बदल गया। गाँव में आधी रात तक जुआ, ताश खेलता रहता, रास्ते में गाड़ी रोककर छोटेमोटे जुए में पैसा खर्च करने लगा। मोटरगाड़ी-चालकों को आँखें दिखाने लगा, कहीं किसी ने कुछ कहा तो साइँला खुकुरी लेकर उस पर झपटता। आदमी कच्चा था इसलिए मोटरवाले उससे डरने लगे। उसे देखते ही यह तो मूर्ख है' कहकर अपनी गाड़ी रोकते और उसे रास्ता दे देते। भोला, सहज साइँला अब बहुत बदल चुका था। वह अपनी ताकत पर घमण्ड करता, बूढ़े खड़का को भी अनसुना कर देता।
दशहरा आया, त्योहार आया,साइँला ने खूब चाड मनाया, देउसो1 खेला, नाचते हुए यह गाना गाया-
"फूल का जीवन तो बार-बार,
पर यह जीवन बस एक बार।"
दीपावली उसने खूब मजे से मनाई।
उसके बाद शीतकाल आया। सुबह के समय ओस के कारण पहाड़, जंगल, रास्ता सब सफेद दिखाई पड़ता है। सुबह की ठण्ड में बैल अकड़ जाते हैं इसलिए गाड़ीवान लोग आधी रात में ही गाड़ी बाज़ार पहुँचाते हैं। साइँला भी अपनी आवाज़दार गाड़ी लेकर हल्ला मचाता, सोये लोगों को जगाता. बाज़ार पहुँच जाता था। गाड़ी के रास्ते के दोनों ओर श्मशान था तो भूत-प्रेतों के बहुत चर्चे होते थे। रास्ते में आने वाला हुसेल नाला भूत-प्रेतों का निवासस्थान कहा जाता था। और यह बात साइँला को भी मालूम थी। एक रात रोज़ की तरह अकेले गाड़ी हाँकते वक्त जब वह वहाँ पहुँचा तो बैल 'ब्वाँ, ब्वाँ' करके रुक गये थे। साइँला को बहुत डर लगा था, दिल धड़कने लगा-'आदमी जितना भी बलवान क्यों न हो, भूत-प्रेत के डर से कौन बच सका है।' उसका डर और बढ़ गया, कारण नाले से एक सफेद आकृति निकली और देखते ही देखते उसने एक भयानक स्वरूप धारण कर लिया। यह देख साइँला चिल्लाया, पर वह आकृति न जाने क्या थी कि उसकी ओर ही आने लगी,साइँला बेहोश होकर लुढ़क गया। बाद में जब होश आया तो खुद को गाड़ी सहित बाज़ार में पाया। इस हादसे के बाद साइँला अकेले चलने से कतराने लगा। पर हफ्ता-दस दिन बार फिर आधी रात में गाड़ी हाँकने का या बाज़ार ले जाने का काम मिला। इस बाद उसके साथ एक दूसरा गाड़ीवान भी गाड़ी लेकर जाने वाला था। रात को खाना खाने के बाद साइँला ने इधरउधर की बातों से सबको बहुत हँसाया। बूढ़ा खड़का तो रूठ भी गया।
सब अपने-अपने घर चले गये, साइँला बैल साधने लगा। साथी गाड़ीवान भी चलने की तैयारी करने लगा। पुरानी बातों को सोचकर साइँला का एक बार तो न जाने का मन हुआ पर दोस्त के रहते उसका डर कम हुआ। दोस्त को आगे लगाकर खुद पीछे गीत गाते हुए वह गाड़ी हाँकने लगा। जब तक गीत चलता रहा वह डर से मुक्त था। बीच-बीच में दोस्त को देख लेता जो अपनी ही धुन में गाडी हाँक रहा था। बहुत दिनों के बाद साइँला गाड़ीवान के गीत सभी ने सुन लिये। बगुवा गाँव पार करने के पश्चात् दोस्त की गाड़ी बेहिसाब गति से तेज दौड़ने लगी, साइँला दंग रह गया। उसका गीत भी बन्द हो गया। उसी पुराने हुसेल नाले पर पहुंचने से पहले दिल में कँपकँपी पैदा कर देने वाली एक आवाज़ सुनाई दी मानो पति के मरने पर कोई औरत ऊँचे स्वरों मरा रहा हा। उसका डर बढ़ गया, दिल तेजी से धड़कने लगा। एक पल में ही वह आवाज़ बन्द हुई। चारों ओर शून्य, बैल आगे नहीं बढ़े। दोस्त से मिलने के लिए साइँला ने बैलों की पूँछ मरोड़कर उन्हें आगे बढ़ाया। उसका दोस्त तो उसी पुल पर ही गाड़ी थामकर उसका इन्तज़ार कर रहा था। साइँला ने बहुत पुकारा पर कोई जवाब नहीं। उसे शंका-सी हुई। नजदीक ले जाकर गाड़ी रोकी, उसकी धड़कनें तेज हो गईं, मुँह न खुल सका, सारा शरीर गरम हो गया। उसके दोस्त के स्थान पर देखने में डरावनी, विशाल, भयानक रूपवाली आकृति सामने खड़ी थी। साइँला चिल्लाकर बेहोश होकर गिरा तो बैल भी साथ ही उलट गये।
सुबह हुई। मोटर गाड़ी वालों और दूधवालों ने पुल के ऊपर भरी वजन से लदी हुई गाड़ी के पास ही एक जोड़ी बैल और एक गाड़ीवान को मृत पाया। सब ओर हल्ला मच गया। खड़का बूढ़ा और दूसरे गाड़ीवानों ने भी यह खबर सुन ली। सब दौड़कर वहाँ पहुँच गये। साइँला और दो बैल मरे पड़े थे, सबको बहुत दुःख हुआ। बूढ़े खड़का की आँख से आँसू गिरने लगे। सब समाप्त हो गया। नाले के भूत ने ही इनको मारा है-सबको विश्वास हो गया। अब रहा साइँला का शव उठाने का काम, तो कोई आगे नहीं आया। न ही साइँला के खास दोस्त, न ही दूसरा कोई। खड़का अवाक रह गया।
साइँला बिजात का था। उसके शव को सिर्फ उसके ही जातवाले उठा सकते थे, दूसरे नहीं। उसकी जात के दो आदमी मिल गये पर उन्हें मजूरी चाहिए थी। भारतवर्ष के स्वतन्त्र वातावरण में पले-बढ़े थे, किसी की क्यों सुनते। खड़का बूढ़ा फसाद में पड गया, धर्म-संकट में पड़ गया। एक तरफ जनम से मिला हुआ संस्कार, छूत-अछूत का नियम जीवन-भर मानता रहा था और आज दूसरी तरफ मानव धर्म का आह्वान। वह पक्का था, जात को मानता था, पुराने विचारों वाला आदमी था, पर एक इन्सान का हृदय छिपा हुआ था उसके सीने में।
सूर्य ढल गया। एक कौवा 'काँय-काँय' करके सामने वाले पेड़ से उड़ गया। बूढ़े खड़का ने एक लम्बा सॉस लिया और अपने कुलदेव का ध्यान कर एक बार अनन्त आसमान को देखा। उसने खुद अपने हाथों से साइँला का दाह-कर्म किया, वह भी रात में भूत रहने वाले उसी नाले में।
साइँला का शव खरानी हो गया। बूढ़े खड़का ने उस पर आँसू बहा दिये। चारों ओर शान्त है, नीरव है, सप्तमी के चाँद ने यह दृश्य उसी पेड़ की आड़ में से देखा।
1 नेपाली रिवाज।
अनुवादक-प्रेमकुमार छेत्री