फ्रिंस (बांग्ला कहानी) : सत्यजित राय
Frince (Bangla Story in Hindi) : Satyajit Ray
जयंत की ओर कुछ क्षणों तक ताकने के बाद मैं उससे सवाल किये बिना नहीं रह सका , 'आज तू बड़ा मरियल जैसा दिख रहा है?तबियत खराब है क्या ? जयंत अपने अनमनेपन को दूर हटाकर बच्चे की तरह हँस दिया और बोला , न ,तबियत खराब नहीं है बल्कि ताजगी ही महसूस कर रहा हूँ।सचमुच जगह अच्छी है ना ? तेरी तो जानी-पहचानी जगह है । पहले नहीं पता था कि एक जगह इतनी अच्छी है? भूल चुका था। जयंत ने एक लम्बी साँस ली, 'इतने दिनों के बाद धीरे-धीरे सब कुछ याद आ रहा है । बंगला पहले के जैसा ही है ,कमरों में भी कोई खास परिवर्तन नहीं किया गया है ,फर्नीचर भी पुराने ज़माने वाला ही है ।जैसे बेंत की यह टेबल और कुर्सियां ।
बेयरा ट्रे में चाय और बिस्किट ले आया।कुल मिलाकर अभी चार ही बजे है और धूप ढलने लगी है चायदानी से मैंने चाय डालते-डालते हुए कहा "कितने दिन बाद यहाँ आना हुआ?" जयंत ने कहा 'इकतीस साल के बाद।तब मैं 6साल का था।'
हमलोग जहाँ बैठे हैं वह है बूँदी शहर के सर्किट हाउस का बगीचा। आज सवेरे ही यहाँ पहुंचे है।जयंत मेरे बचपन का मित्र है । एक ही स्कूल और एक् ही कॉलेज में सहपाठी रह चुके हैं।आजकल वह एक अखबार के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करता है और मैं एक स्कूल में शिक्षक का काम।नौकरी, जीवन में अलगाव के बाद भी हमारी दोस्ती ज्यों की त्यों बनी है।हम लोगों ने बहुत पहले ही राजस्थान भ्रमण की योजना बनाई थी।दोनों को एक साथ छुट्टी मिलने में असुविधा हो रही थी । आज इतने दिनों बाद यह संभव हुआ है । साधारण इंसान राजस्थान आतें हैं तो पहले जयपुर ,चित्तौड़ और उदयपुर ही देखते हैं मगर जयंत पहले से ही बूँदी जाने का दबाव बना रहा था मैंने भी आपत्ति नहीं की क्योंकि बचपन में मैंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की बूँदी का किला कविता पढ़ी थी और उस किले को इतने दिनों बाद देखने का मौका मिला । ज्यादातर आदमी बूँदी नहीं आतें, लेकिन इसके माने ये नहीं है कि यहाँ देखने लायक कुछ नहीं है। ऐतिहासिक घटना की दृष्टि विचार किया जाए तो जोधपुर , चितौड़ का अधिक महत्त्व है लेकिन सौंदर्य के लिहाज से बूँदी किसी से कम नहीं है। बचपन में जयंत एक बार बूँदी आ चुका है इसीलिए उन पुरानी यादों को नए सिरे से मिलान के लिए उसके मन में इच्छा जोर मार रही थी। जयंत के पिता अमियदास गुप्त पुरातत्व विभाग में काम करतें थें ,इसीलिए बीच-बीच में उन्हें ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करना पड़ता था। इसी सिलसिले में जयंत भी बूँदी आया था।
सर्किट हाउस वास्तव में बहुत खूबसूरत है ।अंग्रेजों के ज़माने का है। सौ साल से कम पुराना ना होगा।
हम सुबह पहुँचने के बाद शहर का एक भ्रमण लगा चुके है । पहाड़ पर बूँदी का विख्यात किला है जिसे आज बाहर से देखा है कल हम अंदर जाकर देखेंगे। यहाँ आने पर मैंने एक बात नोटिस की है की जयंत आमतौर पर जितनी बातें करता है यहाँ उससे कम बात कर रहा है शायद बहुत पुरानी यादें उसके मन में लौट कर आ रहीं हैं।बचपन के किसी पहचाने स्थान में आने से मन उदास हो जाता है। और जयंत आम लोगों से अधिक भावुक है ।यह बात सभी को मालूम है।
हाथ की प्याली जयंत ने नीचे रखकर कहा , मालूम हैं शंकर !शुरू में जब मैं यहाँ आया था तो इन कुर्सियों पर मैं बाबू साहब की तरह पाँव मोडकर बैठा करता था । अब देख रहा हूँ कुरसियां लम्बाई- चौड़ाई में में बड़ी नहीं है।सामने जो drowing room है इससे दोगुना प्रतीत होता था। चाय पीना खत्म करके बागीचे में चहलकदमी करते-करते जयंत एकाऐक ठीठक कर बोला , देवदारु ! ....देवदारु का एक पेड़ उधर होना चाहिए था। यह कहकर वह तेजी से पेड़-पौधो के बीच से होता हुआ अहाते के कोने की ओर बढ़ गया। अचानक जयंत को देवदारु के पेड़ की बात क्यों याद आ गई? कुछ सेकंड के बाद उसका उल्लासित स्वर सुनाई दिया- है..इट्स हिअर । पेड़ की बात तुझे अचानक क्यों याद आ गई। जयंत ने कुछ् देर पेड़ को देखा उसके बाद आहिस्ता से सर हिलाकर बोला,' वह बात अब याद नही आ रही। किसी वजह से मैं उस पेड़ के पास गया था और वहाँ जाकर कुछ किया था। एक अंग्रेज....... अंग्रेज? नहीं, याद नही आ रहा ठीक से कुछ।
खाना खाने के बाद जयंत जब सोफे पर बैठा तो उसे धीरे धीरे पुरानी बातें याद आने लगी। उसके पिता जी किस सोफे पर बैठ कर चुरुट पिया करते थें, माँ कहाँ बैठकर स्वेटर बुनती थी किस टेबल पर पत्रिकाएं पड़ी रहती थी।..... अचानक से उसे पुतली की भी बात याद आ गई। पुतली का मतलब लड़कियों की डॉल नहीं। जयंत के मामा ने उसे स्विट्जरलैंड से उसे एक दस-बारह इन्च लम्बी पोशाक पहने एक् बूढ़े की मूर्ति उसे लाकर दी थी।देखने में वह एक छोटे जीवित आदमी की तरह लगती थी। भीतर कल कब्ज कुछ नहीं था मगर हाथ-पांव ,कमर सब ऐसे बने थे की इच्छानुसार उन्हें घुमाया-फिराया जा सके।चेहरे पर हमेशा एक हंसी तैरती रहती थी। सर पर एक पहाड़ी स्विस टोपी थी जिसपर पंख खुसे थे। इसके अलावा पोशाक में कहीं कोई त्रुटि नहीं थी -बेल्ट ,बटन, पाकेट,मोजा यहाँ तक कि जूते के बकल्स भी त्रुटि हीन थे।
पहली बार जब जयंत बूँदी आया था तो उसके मामा कुछ वक्त पूर्व ही विलायत से लौटकर आए थें और उन्होंने उसे वो पुतली दी थी । स्विट्जरलैंड के किसी गाँव में उन्होने किसी बूढ़े से खरीदी थी । बूढ़े ने मजाक में कहाँ था कि इसका नाम फ्रिन्स है किसी दूसरे नाम से पुकारोगे तो जवाब नहीं मिलेगा। जयंत ने कहा,' बचपन में मुझे कितने ही खिलौने मिले थे मगर मामा ने जब फ्रिन्स दिया तो मैं अपने सारे खिलोने भूल बैठा। रात-दिन उसी को लेकर पड़ा रहता यहाँ तक कि एक ऐसा वक्त आया कि मैं उससे घंटो बातें करने लगा।बात बेशक एक तरफ़ा रहती थी मगर फ्रिन्स के चेहरे पर एक ऐसी हंसी और आँखों में एक ऐसा भाव रहता था कि मुझे लगता वो मेरी बातें समझ लेता है । कभी-कभी मुझे ऐसा लगता कि मैं अगर बांग्ला कि बजाय जर्मन में बात कर पाता तो बातचीत एकतरफा ना होकर दोतरफा होती।अभी सोचता हूँ तो लगता हैं वो सब बचपना था मगर उन दिनों ये बात मेरे लिए यथार्थ जैसी थी। माँ और बाबू जी मना करते थें लेकिन मैं किसी की बातों पर कान ही नहीं धरता था। तब मैंने स्कूल जाना शुरू ही नहीं किया था तो फ्रिन्स को वक्त ना दे पाने का सवाल ही नहीं बनता था।
इतना कहकर जयंत चुप हो गया। घड़ी की और देखने पर पता चला कि 9:30 बज चुके हैं। हम सर्किट हाउस में लैंप जलाकर बैठे थे ।
मैंने पूछा , पुतली कहाँ गई?
पुतली को बूँदी लाया था ....यही टूट गई।
टूट गई? कैसे? मैंने पूछा। जयंत ने एक लम्बी साँस ली और बोला,'एक दिन हम बाहर बरामदे में बैठकर चाय पी रहें थे।पुतली को बगल में घास पर रख दिया था ।पास ही बहुत सारे कुत्ते जमा हो गए थें।तब जिस उम्र में मैं था मुझे चाय नहीं पीनी चाहिए थी लेकिन मैंने ज़िद करके चाय ले ली।चाय की प्याली अचानक तिरछी हो गई और मुझ पर थोड़ी सी गरम चाय गिर गई, मैंने बँगले के अंदर जाकर पैंट बदला और जब बाहर आया तो वहाँ पर पुतली नहीं थी।खोज-पड़ताल करने पर मैंने देखा सड़क के दो कुत्ते मेरे फ्रिंस को लेकर टगऑफवॉर खेल रहें हैं। चुकीं वह बहुत मजबूत चीज़ थी इसीलिए फटकर दो भागों में नहीं बटीं लेकिन उसका चेहरा क्षत-विक्षत हो गया और कपड़ा फट गया। यानि मेरे फ्रिंस का कोई अस्तित्व नहीं रह गया। He was dead. उसके बाद? जयंत की कहानी मुझे बहुत मजेदार लग रही थी। उसके बाद क्या ? नियमानुसार फ्रिंस की अंत्योष्ठी कर दी।
इसका मतलब?
उस देवदारु के नीचे उसे दफना दिया था,इच्छा थी ताबूत का इंतजाम करुँ क्योंकि विलायती आदमी था ना। कोई बक्सा भी होता तो काम चल जाता ,मगर बहुत खोजने पर भी कुछ ना मिला तो ऐसे ही दफना दिया। इतनी देर बाद देवदारु के पेड़ का रहस्य मेरे सामने था। दस बजे हम सोने चलें गए। एक खासे बड़े बेडरुम में अलग-अलग पलंग पर हमारे बिस्तर लगे थे।कलकत्ते में पैदल चलने का अभ्यास नहीं था इसीलिए थकावट के कारण लेटने के दस मिनट में ही मुझे नींद आ गई। तब रात कितनी हो चुकी थी पता नहीं, लेकिन किसी चीज़ की आवाज से मेरी नींद टूट गई।बगल की तरफ मुड़ने पर मैंने जयंत को बिस्तर पर बैठा पाया। उसकी बगल में टेबल लैंप जल रहा था जिसकी रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। जयंत के चेहरे पर घबराहट दिख रही थी। मैंने पूछा , क्या हुआ?तबियत खराब है क्या ? इस बात का जवाब ना देकर जयंत एक दूसरा ही सवाल कर बैठा , 'सर्किट हाउस में बिल्ली या चूहा जैसी कोई चीज़ है ? ' मैंने कहा,' रहे भी तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । मगर तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो? छाती पर चढ़ कर कोई चीज़ गई और मेरी नींद टूट गई। मैं बोला , चूहा आमतौर पर नाली से आता है । इसके अलावा मुझे यह नहीं मालूम कि वो खाट पर चढ़ता है कि नहीं । जयंत ने कहा , इससे पहले भी मेरी नींद टूट चुकी है तब खिड़की में खच-खच जैसी आवाज आ रही थी। अगर खिड़की से आवाज आयी है तो ज्यादा सम्भावना बिल्ली की हो सकती है। मगर.....
जयंत के मन का खटका दूर ही नहीं हो रहा था । मैंने पूछा,' रौशनी जलने पर किसी चीज़ पर नज़र पड़ी थी ?'
Nothing ! पर इतना जरूर है तुरंत बत्ती नहीं जलाई थी । शुरू में अचकचा उठा , थोड़ा डर गया रौशनी जलाने पर किसी चीज़ पे नज़र नहीं पड़ी। इसका मतलब अगर कोई चीज़ आयी होगी तो कमरे के अंदर ही होगी।
'सो, दरवाजा जबकि बंद है ....'। मैं तुरंत बिस्तर के नीचे उतर आया और घर के हर कोने मे,खाट के नीचे ,सूटकेश के पीछे पड़ताल की। कहीं कुछ नहीं मिला,जयंत ने धीमी आवाज देकर मुझे बुलाया 'शंकर!' मैं कमरे में लौट आया ,देखा जयंत अपनी रजाई के सफ़ेद खोल की तरफ देख रहा है ।मैं उसके पास गया तो उसने रजाई का कोना रोशनी में बढाकर कहा , 'देखो तो यह क्या है ?' मैंने झुक कर देखा तो उस पर कत्थई रंग की छोटी-छोटी गोल छापे थीं। मैंने कहा ,'बिल्ली की हो सकती हैं ? ' जयंत कुछ नहीं बोला , पता नहीं वह क्यों बहुत चिन्तित हो गया।
मैं बगल में ही हूँ ,मैंने उसे आश्वासन दिया और बत्ती बुझाकर फिर से लेट गया। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है जयंत ने जो कहा वो सपने में देखा है।बूँदी आने पर उसे पुरानी यादों ने घेर लिया है इसीलिए वो मानसिक तनाव में है। इसी से बिल्ली के चलने का सपना देखा होगा! रात में फिर कोई घटना घटी मुझे नहीं मालूम, जयंत ने भी कोई नया अनुभव नहीं बताया सुबह।लेकिन उसे देख कर इतना तय था कि वो रात में सही से सोया नहीं। मैंने मन ही मन तय किया कि मेरे पास जो नींद की टिकिया है आज रात जयंत को खिला दूँगा।
अपनी योजना के अनुसार नाश्ता-पानी कर के बूँदी का किला देखने चलें गए। जयंत का बचपना आनंद देखकर लग रहा था कि वो पुतली वाली बात भूल चुका है , वह एक-एक चीज़ देखता और चिल्ला उठता,' गेट के ऊपर वहीं हाथी है,यह वहीं चांदी का पलंग है और यह वहीं सिंघासन है......। मगर एक घण्टा बीतते-बीतते उसका उत्साह ठंडा पड़ गया। एक लम्बी कोठरी में चहलकदमी कर रहा था तभी याद आया जयंत मेरे पास नहीं है, वह कहाँ गया ? हमारे साथ एक गाइड था उसने बताया ,'बाबू छ्त पर गए हैं। ' दरबार घर देखकर जब मैं छ्त पर आया तो देखा जयंत अनमना सा खड़ा है। वह इतनी चिंता में डूबा हुआ था कि मैं उसके बगल में जाकर खड़ा हो गया लेकिन उसकी दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ अंत में मैंने उसका नाम लेकर पुकारा तो वह चौक उठा । 'तुझे क्या हुआ है ठीक-ठीक बता , इतनी खूबसूरत जगह पर भी तू मुँह सीकर रहेगा यह मुझसे बर्दाश्त नहीं।' जयंत ने बस इतना कहा तेरा देखना हो चुका, फिर अब .....! मैं अकेले होता तो थोड़ी देर और रुकता लेकिन जयंत की हालत देख सर्किट हाऊस लौटना पड़ा। हम दोनों चुपचाप गाड़ी के पिछले हिस्से में बैठे । जयंत के अंदर एक उत्तेजना दबी हुई थी जो उसके हाथों की हरकत से जाहिर हो रही थी। वह कभी खिड़की पर हाथ रखता, कभी गोद में , फिर उंगलियों को मटकाता या दांत से काटता। उसे छटपटाते देख कर मैं अशांति का अनुभव कर रहा था। दस मिनट तक यही सिलसिला चलता रहा तो मैं चुप नहीं रह सका कहा ,'अपनी दुश्चिंता मुझे बता दो ,हो सकता है तेरा कुछ उपकार हो जाए।'
जयंत ने सर हिलाकर कहा , कहने का कोई फायदा नहीं अगर कहूंगा भी तो तू यकीन नहीं करेगा ।
यकीन भले ना करुँ , लेकिन उस विषय पर तुझसे विचार-विमर्श तो कर सकता हूँ। कल रात फ्रिंस हमारे कमरे में आया था , रजाई पर उसके पैरों के ही निशान थे।इस बात पर मुझे जयंत के कंधो को झकझोरने के सिवा कोई दूसरा काम नहीं करना था जिसके दिमाग मे ऐसी अजीब धारणा जमकर बैठ गई है उसे क्या समझाया जा सकता है। फिर भी मैंने कहा, तूने उसे देखा था ?
नहीं! तब इतनी बात जरूर है जो चीज़ छाती पर चल रही थी वो चौपाया न होकर दुपाया थी , यह बात मैं साफ-साफ समझ रहा था।
सर्किट हाऊस के पास गाड़ी से उतरते समय यह जरूर तय किया कि जयंत को नर्व टॉनिक जैसी चीज़ भी दूँगा सिर्फ नींद की गोली से काम नहीं चलेगा। बचपन की एक साधारण स्मृति एक 37 साल के जवान को इतना परेशान करेगी यह नहीं होना चाहिए।
कमरे के अंदर आने पर मैंने कहा , 12 बज चुके हैं अब स्नान कर लेना चाहिए।
जयंत ने कहा, पहले तू हो आ। और फिर पलंग पर लेट गया। स्नान करते-करते मेरे दिमाग में एक विचार आया जयंत को स्वाभाविक स्थिति में लाने का यही एक उपाय है। जो विचार आया वह यह है कि अगर पुतली को किसी खास स्थान पर दफनाया गया है और उस जगह का पता है तो मिट्टी खोदने पर पुतली न सही लेकिन कुछ ना कुछ अंश को मिलेगा ही। कपड़े-लत्ते ज़मीन के तले तीस साल बाद नहीं रह सकते , लेकिन धातु की चीज़ जैसे- फ्रिंस के बेल्ट का बकलस, कोट के बटन , अगर बरकरार हों तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं। जयंत को अगर दिखाया जाय कि उसकी लाडली पुतली की केवल वे ही चीजें बची हुई हैं और बाकी सब मिट्टी में समां गई हैं तो हो सकता है उसके मन से यह उट-पटांग धारणा दूर हो जाए। अगर ऐसा नहीं किया जाए तो वह हर रोज़ अजीब-अजीब सपना देखेगा और सुबह उठकर कहेगा कि फ्रिंस मेरी छाती पर चल रहा था। इस तरह उसका दिमाग कहीं खराब ना हो जाए।
यह बात जब मैंने जयंत को कही तो लगा ,उसे मेरा विचार पसंद आया है ।कुछ देर तक खामोश रहने के बाद वह बोला,' खोदेगा कौन ? कुदाल कहाँ मिलेगा ? मैंने हंसकर जवाब दिया ,'जब इतना बड़ा बागीचा है तो माली होगा ही और माली रहने का मतलब है कुदाल भी है। उसे हम कुछ बख्शीश दे तो मैदान की थोड़ी सी ज़मीन खोदने में वह आनाकानी नहीं करेगा।'
जयंत तुरंत राजी हो गया । एक-दो बार जब और डांट पिलाई तो नहा-धो भी आया। खाना खाने के बाद हम बागीचे की तरफ के बरामदे में कुर्सी पर बैठ गये।हम दोनों के सिवा सर्किट हाऊस में कोई नहीं है। तीन बजने पर एक पगड़ीधारी आदमी हाथ में झारी लेकर बागीचे में आया। उम्रदराज आदमी है बाल , मूंछें और गलपट्टे सफ़ेद हो चुके है।
तुम कहोगे या मैं कहूँ? जयंत के सवाल पर मैंने अश्वासन की मुद्रा में हाथ उठाकर इशारा किया और कुर्सी छोड़कर सीधे माली के पास चला गया।
मिट्टी खोदने के प्रस्ताव पर शुरू में माली ने मुझे संदेह से देखा। समझ गया ऐसा प्रस्ताव इसके पहले किसी ने उसके सामने नहीं रखा। उसके 'काहे बाबू ' सवाल पर मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर मीठे स्वर में कहा 'कारण अगर न ही जानो तो हर्ज क्या है ?पांच रुपए बख्शीश दूँगा जो कह रहा हूँ कर दो। कहना न होगा कि इस पर माली सिर्फ राजी ना हुआ बल्कि दाँत निपोरकर सलामी ठोंकी और ऐसा भाव दिखाया जैसे वो हमारा ख़रीदा हुआ गुलाम हो।
बरामदे में बैठे जयंत को मैंने इशारे से बुलाया । निकट आने पर मैंने देखा ,उसका चेहरा अस्वभाविक तौर पर बुझा हुआ है । मुझे उम्मीद हुई खोदने पर पुतली का कुछ ना कुछ अंश मिल ही जाएगा। इस बीच माली कुदाल ले आया। हम तीनो देवदारु के पेड़ के नीचे आने लगे।
पेड़ के तने के लगभग डेढ़ हाथ दूरी की ओर इशारा करके जयंत बोला ,'यहीं'।
ठीक-ठीक याद है न ? मैंने पूछा। जयंत ने कुछ नहीं कहा बस माथे को हिलाकर हामी भरी। कितना नीचे गाढ़ा था ? एक बित्ता नीचे तो होगा ही!
माली बेझिझक उस जगह को खोदने लगा। खोदते-खोदते पूछा कि ज़मीन के नीचे कोई धन-दौलत है या नहीं ?अगर है तो उसे भी हिस्सा मिलेगा या नही ? यह बात सुनकर यद्यपि मैं हँस पड़ा लेकिन जयंत के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।अक्टूबर में बूँदी में गर्मी नहीं पड़ती लेकिन फिर भी जयंत के कॉलर का नीचे का हिस्सा भीग गया है । वह एकटक ज़मीन की ओर देखें जा रहा है। माली कुदाल चलाये जा रहा है , अभी तक पुतली का कोई निशान क्यों नहीं दिख रहा ?
एक मयूर की तेज आवाज सुनकर मैंने उधर सर घुमाया ,तभी जयंत के गले से एक अजीब चीख निकली और मेरी आँखे तत्क्षण उसकी ओर चली गयीं। दूसरे ही क्षण अपने कांपते हाथ को धीरे से बढाकर तर्जनी से गड्डे की ओर इशारा किया।
उसके बाद एक अस्वाभाविक स्वर में उसने पूछा, वह क्या चीज़ है? माली के हाथ से कुदाल गिर गई। ज़मीन की ओर देखने पर मैंने जो देखा उसके फलस्वरूप भय,विस्मय और अविश्वास से मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
देखा , गड्डे के अंदर धूल से भरा हुआ दस-बारह इन्च का एक सादा-समूचा नरकंकाल हाथ-पैर फैलाये चित पड़ा है।