Film Aur Sahitya (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
फिल्म और साहित्य (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
हमने गत मास के ‘लेखक’ में ‘सिनेमा और साहित्य’ शीर्षक से एक छोटा लेख लिखा था, जिसको पढ़कर हमारे मित्र श्री नरोत्तमप्रसाद जी नागर, संपादक ‘रंग भूमि’ ने एक प्रतिवाद लिख भेजने की कृपा की है। हम अपने लेख को ‘लेखक’ से यहाँ नकल कर रहे हैं, ताकि पाठकों को मालूम हो जाए कि हमारे और नरोत्तमप्रसाद जी के विचारों में क्या अंतर है। पाठक स्वयं अपना निर्णय कर लेंगे। नागर जी का मैं कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने उस लेख को पढ़ा और उस पर कुछ लिखने की जरूरत समझी। वह खुद सिनेमा में सुधार के समर्थक हैं और बरसों से यह आंदोलन कर रहे हैं , इसलिए इस विषय में उन्हें सम्मति देने का पूरा अधिकार है। हम उसके प्रतिवाद को भी ज्यों-का-त्यों छापते हैं।
‘लेखक’ में प्रकाशित हमारा लेख
अक्सर लोगों का खयाल है कि जब से सिनेमा ‘सवाक’ हो गया है, वह साहित्य का अंग हो गया, और साहित्य-सेवियों के लिए कार्य का एक नया क्षेत्र खुल गया है। साहित्य भावों को जगाता है, सिनेमा भी भावों को जगाता है, इसलिए वह भी साहित्य है। लेकिन प्रश्न होता है – कैसे भावों को? साहित्य वह है जो ऊँचे और पवित्र भावों को जगाये, जो सुन्दरम् को हमारे सामने लाये। अगर कोई पुस्तक हमारी पशु-भावनाओं को प्रबल करती है, तो हम उसे साहित्य में स्थान न देंगे। पारसी स्टेज के ड्रामों को हमने साहित्य का गौरव नहीं दिया। इसीलिए कि ‘सुन्दरम्’ का जो साहित्यिक आदर्श अव्यक्त रूप से हमारे मन में है, उसका वहाँ कहीं पता न था। होली और कजली और बारहमासे की हजारों पुस्तकें आए-दिन छपा करती हैं, हम उन्हें साहित्य नही कहते। वह बिकती बहुत हैं, मनोरंजन भी करती हैं, पर साहित्य नहीं हैं। साहित्य में भावों की जो उच्चता, भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुंदरता की जो साधना होती है, वह हमें वहाँ नहीं मिलती। हमारा खयाल हे कि हमारे चित्रपटों में भी वह बात नहीं मिलती। उनका उद्देश्य के बल पैसा कमाना है। सुरुचि या सुंदरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। वह तो जनता को वही चीज देंगे जो वह माँगती है। व्यापार व्यापार है। वहाँ अपने नफे के सिवा और किसी बात का ध्यान करना ही वर्जित है। व्यापार में भावुकता आई और व्यापार नष्ट हुआ। वहाँ तो जनता की रुचि पर निगाह: रखनी पड़ती है और चाहे संसार का संचालन देवताओं ही के हाथों में क्यों न हो, मनुष्य पर निम्न मनोवृत्तियों का राज्य होता है। अगर आप एक साथ दो तमाशों की व्यवस्था कर-एक तो किसी महात्मा का व्याख्यान हो, दूसरा किसी वेश्या का नग्न नृत्य, तो आप देखेंगे कि महात्मा जी तो खाली कुरसियों को अपना भाषण सुना रहे हैं और वेश्या के पंडाल में तिल रखने को जगह नहीं। मुँह पर राम-राम मन में छुरी वाली कहावत जितनी ही लोकप्रिय है, उतनी ही सत्य भी है। वही भोला-भाला ईमानदार ग्वाला, जो अभी ठाकुरद्वारे से चरणामृत लेकर आया है, बिना किसी झिझक के दूध में पानी मिला देता है। वही बाबूजी, जो अभी किसी कवि की एक सूक्ति पर सिर धुन रहे थे, अवसर पाते ही एक विधवा से रिश्वत के दो रुपये बिना किसी झिझक के लेकर जेब में दाखिल कर लेते हैं। उपन्यासों में भी ज्यादा प्रचार, डाके और हत्या से भरी हुई पुस्तकों का होता है। अगर पुस्तकों में कोई ऐसा स्थल है जहाँ लेखक ने संयम की लगाम ढीली कर दी हो तो उस स्थल को लोग बड़े शौक से पढ़ेंगे, उस पर लाल निशान बनाएँगे, उस पर मित्रों से बहस-मुबाहसे करेंगे। सिनेमा में भी वही तमाशे खूब चलते हैं जिनसे निम्न-भावनाओं की विशेष तृप्ति हो। वही सज्जन, जो सिनेमा की कुरुचि की शिकायत करते फिरते हैं, ऐसे तमाशों में सबसे पहले, बैठे नजर आते हैं। साधु तो गली-गली भीख माँगते हैं, पर वेश्याओं को भीख माँगते किसी ने देखा होगा। इसका आशय यही नहीं कि भिखमंगे साधु वेश्याओं से ऊँचे हैं – लेकिन जनता की दृष्टि में वे श्रद्धा के पात्र हैं। इसीलिए हर एक सिनेमा प्रोड्यूसर, चाहे वह समाज का कितना बड़ा हितैषी क्यों न हो, तमाशे में नीची मनोवृत्तियों के लिए काफी मसाला रखता है, नहीं तो उसका तमाशा ही न चले। बंबई के एक प्रोड्यूसर ने ऊँचे भावों से भरा हुआ एक खेल तैयार किया, मगर बहुत हाय-हाय करने पर भी जनता उसकी ओर आकर्षित न हुई। ’पास’ के अंधाधुंध वितरण से रुपये तो नहीं मिलते। आमन्त्रित सज्जनो और देवियों ने तमाशा देखकर मानों प्रोड्यूसर पर एहसान किया और बखान करके मानों उसे मोल ले लिया। उसने दूसरा तमाशा जो तैयार किया, वह वही बाजारू ढंग का था और वह खूब चला। पहले तमाशे से जो घाटा हुआ, वह इस दूसरे तमाशे से पूरा हो गया। जिस शौक से लोग, शराब और ताड़ी पीते हैं, उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते। ‘साहित्य’ दूध होने का दावेदार है सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है। जब तक साहित्य अपने स्थान से उतरकर और अपना चोला बदलकर शराब न बन जाए, उसका वहाँ निर्वाह नहीं। साहित्य के समाने आदर्श हैं, संयम है, मर्यादा है। सिनेमा के लिए इनमें से किसे वस्तु की जरूरत नहीं। सेंसर बोर्ड के नियंत्रण के सिवा उस पर कोई नियंत्रण नही। जिसे साहित्य की ‘सनक’ है, वह कभी कुरुचि की ओर जाना स्वीकार न कर मर्यादा की भावना उसका हाथ पकड़े रहती है, अतः हमारे साहित्यकारों के लिए जो सिनेमा में हैं, वहाँ केवल इतना ही काम है कि वह डाइरेक्टर साहब के लिखे हुए गुजराती, मराठी या अंग्रेजी कथोपकथन को हिन्दी में लिख दें। डाइरेक्टर जानता है कि सिनेमा के लिए जिस ‘रचना-कला’ की जरूरत है वह लेखकों में मुश्किल से मिलेगी, इसलिए वह लेखकों से केवल उतना ही काम लेता है जितना वह बिना किसी हानि के ले सकता है। अमेरिका और अन्य देशों में भी साहित्य और सिनेमा में सामंजस्य नहीं हो सका और न शायद हो ही सकता है। साहित्य जन-रुचि का पथ-प्रदर्शक होता है, उसका अनुगामी नहीं। सिनेमा जन-रुचि के पीछे चलता है जनता जो कुछ माँगे वही देता है। साहित्य हमारी सुंदर भावना को स्पर्श करके हमें आनंद प्रदान करता है। सिनेमा हमारी कुत्सित भावनाओं को स्पर्श करके हमें मतवाला बनाता है और इसकी दवा प्रोड्यूसर के पास नहीं। जब तक एक चीज की माँग है, वह बाजार में आयेगी। कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह जमाना बहुत दूर है जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जाएगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीजों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है।
हिन्दी के कई साहित्यकारों ने सिनेमा पर निशाने लगाए, लेकिन शायद ही किसी ने मछली बेध पाई हो। फिर गले में जयमाल कैसे पड़ती? आज भी पंडित नारायणप्रसाद ’बेताब’, मुंशी गौरीशंकरलाल अख्तर, श्री हरिकृष्ण प्रेमी, मि. जमनाप्रसाद काश्यप , मि. चंद्रिकाप्रसाद श्रीवास्तव, डॉ. धनीराम प्रेम, सेठ गोविन्ददास, पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र आदि सिनेमा की उपासना करने में लगे हुए हैं। देखा चाहिए, सिनेमा इन्हें बदल देता है या ये सिनेमा की कायापलट कर देते हैं।
श्री नरोत्तमप्रसाद जी की चिट्ठी
श्रद्धेय प्रेमचंद जी,
‘लेखक’ में आपका लेख ‘फिल्म और साहित्य’ पढ़ा। इस चीज को लेकर ‘रंगभूमि’ में अच्छी-खासी कंट्रोवर्सी चल चुकी है। रंगभूमि के वे अंक आपको भेजे भी गए थे। पता नहीं, आपने उन्हें देखा कि नहीं। अस्तु। आपने सिनेमा के संबंध में जो कुछ लिखा है, वह ठीक है। साहित्य को जो स्थान दिया है, उसे भी किसी का मतभेद नहीं हो सकता। निश्चय ही सिनेमा ताड़ी और साहित्य दूध हैं पर इस चीज को जेनेरलाइज करना ठीक न होगा-सिनेमा के लिए भी और साहित्य के लिए भी। साहित्य भी इस ताड़ीपन से अछूता नहीं है। सिनेमा को मात करने वाले उदाहरण भी उसमे मिल जायेंगे-एक नहीं अनेक – और ऐसे व्यक्तियों के, जिनको साहित्यिक संसार ने रिकग्नाइज किया है। और तो और, पाठ्य कोर्स तक में जिनकी पुस्तकें हैं। अपने समर्थन में महात्मा गांधी के वे वाक्य उद्धृत करने होंगे क्या, जो कि उन्होंने इंदौर साहित्य सम्मेलन के सभापति की हैसियत से कहे हैं? लेकिन प्रत्यक्षेक्रिम् प्रमाणम्। यही बात सिनेमा के साथ है। सिनेमा के साथ तो एक और भी गड़बड़ है। वह यह कि वह बदनाम है। आपके ही शब्दों में, “भिखमंगे साधु वेश्याओं से अच्छे न होते हुए भी श्रद्धा के पात्र हैं। श्रद्धा के पात्र हैं इसलिए टालरेबुल हैं या उतने विरोध के पात्र नहीं हैं, जितनी कि वेश्याएँ।” इसी तर्क-शैली को लेकर आप सिद्ध करते हैं कि सिनेमा ताड़ी है और साहित्य दूध। ताड़ी ताड़ी है और दूध दूध। आपने इन दोनों के दर्मियान एक वैल सेड एंड वैल डिफाइंड लाइन आफ डिफरेंस खींच दी है।
मेरा आपसे यहाँ सैद्धान्तिक मतभेद है। मेरा खयाल है कि यह विचारधारा ही गलत है, जो इस तरह की तर्क-शैली को लेकर चलती है। कभी जमाना था, जब इस तर्क-शैली का जोर था, सराहना थी, पर अब नहीं है। इन चीज़ों को हमें उखाड़ फेंकना ही होगा।
एक जगह आप कहते हैं – “साहित्य का काम जनता के पीछे चलना नहीं, उसका पथ-प्रदर्शक बनना है।” आगे चलकर साधुओं और वेश्याओं की मिसाल देते हैं। साधु वेश्याओं से अच्छे न होते हुए भी जनता की श्रद्धा के पात्र हैं। यहाँ आप जनता की इस श्रद्धा को अपने समर्थन में आगे क्यों रखते हैं?
आपने जो साहित्य के उद्देश्य गिनाए हैं, उन्हें पूरा करने में सिनेमा साहित्य से कहीं आगे जाने की क्षमता रखता है। यूटिलिटी के दृष्टिकोण से सिनेमा साहित्य से कहीं अधिक ग्राह्य है, लेकिन यह सब होते हुए भी सिनेमा की उपयोगिता कुपात्रों के हाथों में पड़कर दुरुपयोगिता में परिणत हो रही है। इसमें दोष सिनेमा का नहीं, उनका है जिनके हाथ में इसकी बागडोर है। इनसे भी अधिक उनका है जो इस चीज को बर्दाश्त करते हैं। बर्दाश्त करना भी बुरा नहीं होता, यदि इसके साथ मजबूरी की शर्त न लगी होती। गले में जयमाल पड़ने वाली बात भी बड़े मज़े की है – “कितने ही साहित्यिकों ने निशाने लगाए पर शायद ही कोई मछली बेध पाया है। जयमाल गले में कैसे पड़ती?” बहुत खूब। जिस चीज के लिए साहित्यिकों ने सिनेमा पर निशाने लगाए, वह चीज क्या उन्हें नहीं मिली – अपवाद को छोड़कर? आप या कोई साहित्यिक यह बताने की कृपा करेंगे कि सिनेमा में प्रवेश करने वाले साहित्यिकों में से ऐसा कौन है, जिसके सिनेमा-प्रवेश का मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रंग में रंगना रहा हो? क्या किसी भी साहित्यिक ने सिंसीयरली इस ओर कुछ काम किया है? फिर जयमाल गले में कैसे पड़ती? माना कि साहित्य-संसार में जयमाल और सम्राट् की उपाधियाँ टके सेर बिकती हैं; लेकिन सभी जगह तो इन चीजों का यही भाव नहीं है। पहले सिनेमा-जगत् को कुछ दीजिए; या यों ही गले में जयमाल पड़ जाये? या सिर्फ साहित्यिक होना ही गले में जयमाल पड़ने की क्वालीफिकेशन है?
आप बंबई में रह चुके हैं। सिनेमा-जगत् की आपने झांकी भी ली है। आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं कि हमारे साहित्यिक भी, अपनी फिल्मों में निर्दिष्ट रुचि का समावेश करने में किसी से पीछे नहीं रहे हैं – या, कहें कि आगे ही बढ़ गये हैं। औरों को छोड़ दीजिए, वे साहित्यिक भी, जो कि एक तरह से कंपनी के सर्वेसर्वा हैं, अपनी फिल्म में दो सौ लड़कियों का नाम रखने से बाज न आये, जो कि बजिद थे, कि तालाब से पानी भरने वाले सीन में हीरोइन अंडरवियर न पहने, हीरो आये, उससे छेड़खानी करे और उसका घड़ा छीनकर उस पर डाल दे। बदन पर अंडरवियर नहीं, वस्त्र भीगे, बदन से चिपके, और नग्नता का प्रदर्शन हो। यह सूझ उन्हीं साहित्यिकों में से एक की है जिनके कि आपने नाम गिनाए हैं।....लेकिन मुझे यह कहना चाहिए कि इसमें साहित्यिक का दोष जरा भी नहीं है।....और ऐसी ब्लैक-सीप मैंटेलिटी साहित्यिक क्या और सिनेमा क्या, सभी जगह मिल जायेगी।
आपने अपने लेख में होली, कजली और बारहमासे की पुस्तकों का जिक्र किया है। इन चीजों को साहित्य नहीं कहा जाता या साहित्यिक इन्हें रिकग्नाइज नहीं करते, यह ठीक है। लेकिन उनका अस्तित्व है और जिस प्रेरणा या उमंग को लेकर अन्य कलाओं का सृजन होता है, उन्हीं को लेकर ये होली, कजली और बारहमासे भी आये हैं। लेकिन आपका उन्हें अपने से अलग रखना भी स्वाभाविक है – यूटिलिटी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से। इसी तरह क्या आपने कभी यह जानने का कष्ट किया है कि सिनेमा जगत् में क्लासेज एंड मॉसेज – दोनों की ही ओर से कौन-कौन सी कंपनियों, कौन कौन से डाइरेक्टरों और कौन-कौन से फिल्मों को रिकग्नाइज्ञ किया जाता है? भारत की मानी हुई या सर्वश्रेष्ठ कंपनियां कौन-सी हैं, यह पूछने पर आपको उत्तर मिलेगा – प्रभात, न्यूथिएटर्स और रणजीत। डाइरेक्टरों की गणना में शांताराम, देवकी बोस और चंदूलाल शाह के नाम सुनाई देंगे। तब फिर आपका, या किसी भी व्यक्ति का, जो भी फिल्म या कंपनी सामने आ जाये, उसी से सिनेमा पर एक स्लैशिंग फतवा देना कहाँ तक संगत है, यह आप ही सोचें। यह तो वही बात हुई कि कोई आदमी किसी लाइब्रेरी में जाता है। जिस पुस्तक पर हाथ पड़ता है, उसे उठा लेता है। और फिर उसी के आधार पर फतवा दे देता है कि हिन्दी में कुछ नहीं है, निरा कूड़ा भरा है। क्या आप इस चीज को ठीक समझते हैं?
अब दो-एक शब्द आपके मादक या मतवालावाद पर भी। पहली बात तो यह कि केवल यूटिलिटेरियन एंड्स की दृष्टि से लिखा गया साहित्य ही साहित्य है, ऐसा कहना ठीक नहीं। ऐसी रचना करने के लिए साहित्यिक से अधिक प्रोपेगेंडिस्ट होने की जरूरत है। इतना ही नहीं, इन एंड्स को पूरा करने के लिए अन्य साधन मौजूद हैं, जो साहित्य से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं। तब फिर, साहित्य के स्थान पर उन साधनों को प्रिफरेंस क्यों न दिया जाये? इसे भी छोड़िए। यूटिलिटेरियन एंड्स को अपनाने में कोई हर्ज नहीं। उन्हें अपनाना चाहिए ही। लेकिन क्या सचमुच में सेक्स- अपील उतना बड़ा हौआ है, जितना कि उसे बना दिया गया है? क्या सेक्स-अपील से अपने आपको, अपनी रचनाओं को, पाक रखा जा सकता है? पाक रखना क्या स्वाभाविक और सजीव होगा? अपवाद के लिए गुंजाइश छोड़कर मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि आप किसी भी ऐसी रचना का नाम बतायें, जिसमे सेक्स-अपील न हो। सेक्स अपील बुरी चीज नही है, वह तो होनी ही चाहिए। लोहा तो हमें उस मनोवृत्ति से लेना है, जो सेक्स-अपील और सेक्स-परवर्शन में कोई भेद नहीं समझती।
अब सिनेमा-सुधार की समस्या पर भी। यह समझना कि जिनके हाथ में सिनेमा का बागडोर है, वे इनीशिएटिव लें भारी भूल होगी। यह काम प्रेस और प्लेटफॉर्म का है, इससे भी बढ़कर उन नवयवुकों का है, जो सिनेमा में दिलचस्पी रखते हैं। चूँकि मैं प्रेस से संबोधित हूँ और फिलहाल एक सिनेमा-पत्रिका का संपादन कर रहा हूँ इसलिए मैंने इस दिशा में कदम उठाने का प्रयत्न किया। लेखकों तथा अन्य साहित्यिकों को एप्रोच किया। कुछ ने कहा कि सिनेमा सुधार की जिम्मेदारी लेखकों पर नहीं। अपने लेख पर दिए गए ‘लेखक’ के संपादक का नोट ही देखिए। कुछ इसे असंभव-सा, बताकर छोड़ दिया। सिनेमा सुधार की आवश्यकता को तो सब महसूस करते हैं सिनेमा का विरोध भी जी खोलकर करते हैं, पर क्रियात्मक सहयोग का नाम सुनते ही अलग हो जाते हैं। सिर्फ इसलिए कि सिनेमा बदनाम है और यह चीज हमारे रोम-रोम में धँसी हुई है कि ‘बद अच्छा बदनाम बुरा’। क्या यह विडंबना नहीं है? इस चीज को दूर करने में क्या आप हमारी सहायता न करेंगे?
यह सब होते हुए सिनेमा-सुधार के काम को आगे बढ़ना चाहते हैं। नवयुवक लेखकों के सिनेमा ग्रुप की योजना के लिए जमीन तैयार हो चुकी है, हम विस्तृत योजना भी शीघ्र प्रकाशित कर रहे हैं। इसके लिए जरूरत होगी एक निष्पक्ष सिनेमा पत्र की। जब तक नहीं निकलता तब तक काफी दूर तक ‘रंगभूमि’ हमारा साथ दे सकती है। मेरा तो यह निश्चित मत है और मैं सगर्व कह सकता हूँ कि इस लिहाज से ‘रंगभूमि’ भारतीय सिनेमा-पत्रों में सबसे आगे है। मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि आप ‘रंगभूमि की आलोचनाएँ’ जरूर पढ़ा करें। पढ़ने पर आपको भी मेरे – जैसा मत स्थिर करने में जरा भी देर न लगेगी, इसका मुझे पूर्ण निश्चय है।
आशा है कि आप भी सिनेमा-ग्रुप को अपना आवश्यक सहयोग देकर कृतार्थ करेंगे।
आपका
नरोत्तमप्रसाद नागर
श्री नरोत्तमप्रसाद जी की चिट्ठी का उत्तर
नागर जी ने हमारे सिनेमा-संबंधी विचारों को ठीक माना है, केवल हमारा जेनरेलाइज करना अर्थात् सभी को एक लाठी से हाँकना उन्हें अनुचित जान पड़ता है। क्या वेश्याओं में शरीफ औरतें नहीं हैं? लेकिन इससे वेश्यावृत्ति पर जो दाग है वह नहीं मिटता। ऐसी वेश्याएँ अपवाद हैं, नियम नहीं।
साधुओं और वेश्याओं में मौलिक अंतर है। साधु कोई इसलिए नहीं होता { वह मौज उड़ाएगा और व्यभिचार करेगा, हांलाकि कुछ ऐसे साधु निकल ही आते हैं, जो परले सिरे के लुच्चे कहे जा सकते हैं। साधु हम ज्ञान-प्राप्ति या मोक्ष या जन-सेवा के ही विचार से होते हैं। इस गई-गुजरी दशा में भी ऐसे साधु मौजूद हैं जिन्हें हम महात्मा कह सकते हैं। वेश्याओं के मूल में दुर्वासना, अर्थ-लोलुपता, कामुकता और कपट होता है। इससे शायद नागर जी को भी इंकार न हो।
सिनेमा की क्षमता से मुझे इंकार नहीं। अच्छे विचारों और आदर्शों के प्रचार में सिनेमा से बढ़कर कोई दूसरी शक्ति नहीं है, मगर जैसा नागर जी खुद स्वीकार करते हैं, वह कुपात्रों के हाथ में है और वह लोग भी इस जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते, जो उसे बर्दाश्त करते हैं, अर्थात् जनता । मुझे इसके स्वीकार करने में जरा आपत्ति नहीं। यही तो मैं कहना चाहता हूँ। सिनेमा जिनके हाथ में है, उन्हें आप कुपात्र कहें, मैं तो उन्हें उसी तरह व्यापारी समझता हूँ, जैसे कोई दूसरा व्यापारी। और व्यापारी का काम जन-रुचि का पथ-प्रदर्शन करना नहीं, धन कमाना है। वह वही चीज सामने रखता है, जिसमे उसे अधिक से अधिक धन मिले। एक फिल्म बनाने में पचास हजार से एक लाख तक बल्कि इससे भी ज्यादा खर्च हो जाते हैं। व्यापारी इतना बड़ा खतरा नहीं ले सकता। गरीब का दिवाला निकल जाएगा। साहित्यकार का मुख्य उद्देश्य धन कमाना नहीं होता, नाम चाहे हो। हमारे ख्याल में साहित्य का मुख्य उद्देश्य जीवन को बल और स्वास्थ्य प्रदान करना है। अन्य सभी उद्देश्य इसके नीचे आ जाते हैं। हजारों साहित्यकार केवल इसी भावना से अपना जीवन तक साहित्य पर पर कुर्बान कर देते हैं। उन्हें धेला भी इससे नहीं मिलता। मगर ऐसा शायद ही कोई प्रोड्यूसर अवतरित हुआ हो, और शायद ही हो, जिसने इस ऊँची भावना से फिल्में बनाई हों। आप फरमाते हैं, सिनेमा में जाने वाले साहित्यिकों में ऐसा कौन था, जिसका मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रंग में रंगना रहा हो? हम जोरों से कह सकते हैं, कोई भी नहीं। वहाँ का जलवायु ही ऐसा है कि बड़ा आदर्शवादी भी जाए, तो नमक की खान में नमक बनकर रह जाएगा। वही लोग, जो साहित्य में आदर्श की सृष्टि करते हैं सिनेमा में दो सौ वेश्याओं का नंगा नाच करवाते हैं। क्यों? इसलिए कि ऐसे धंधे में पड़ गए हैं, जहाँ बिना नंगा नाच नचाये धन से भेंट नहीं होती। मैं आदर्शों को लेकर गया था, लेकिन मुझे मालूम हुआ कि सिनेमा वालों के पास बने-बनाये नुस्खे हैं, और आप उन नुस्खों के बाहर नहीं जा सकते। वहाँ प्रोड्यूसर यह देखता है कि जनता किस बात पर तालियाँ बजाती है। वही बात वह अपनी फिल्म के दायरे के बाहर समझता है। और फिर सारा भेद तो एसोसिएशन का है। वेश्या के मुख से वैराग्य या निर्गुण सुनकर कोई तर नहीं जाता। रही उपाधियों के टके सेर की बात। हमारे खयाल में सिनेमा में वह इससे कहीं सस्ती है जहाँ अच्छे वेतन पर लोग इसीलिए नौकर रखे जाते हैं, जो अपने ऐक्टरों और ऐक्ट्रेसों-की तारीफ में जमीन-आसमान के कुलाबे मिलायें। मैं यह नहीं कहता कि होली या कजली त्याज्य हैं और जो लोग होली या कजली गाते हैं वह नीच हैं और जिन भावों से प्रेरित होकर होली और कजली का सृजन होता है वह मूल रूप से साहित्य की प्रेरित भावनाओं से अलग हैं। फिर भी वे साहित्य नहीं हैं। पत्र-पत्रिकाओं को भी साहित्य नहीं कहा जाता। कभी-कभी उसमे ऐसी चीजें निकल जाती हैं जिन्हें हम साहित्य कह सकते हैं। इसी तरह होली और कजली में भी कभी-कभी अच्छी चीजें निकल जाती हैं, और वह साहित्य का अंग बन जाती हैं, मगर आमतौर पर ये चीजें अस्थाई होती हैं और साहित्य में जिस परिष्कार, मौलिकता, शैली, प्रतिभा एवं वैचारिक गंभीरता की जरूरत होती है, वह उसमे नहीं पाई जाती। देहातों में दीवारों पर औरतें जो चित्र बनाती हैं, अगर उसे चित्रकला कहा जाए तो शायद संसार में एक भी ऐसा प्राणी न निकले जो चित्रकार न हो। साहित्य भी एक कला है और उसकी मर्यादाएँ हैं। यह मानते हुए भी कि श्रेष्ठ कला वही है जो आसानी से समझी और चखी जा सके, जो सुबोध और जनप्रिय हो, उसमे ऊपर लिखे हुए गुणों का होना लाजमी है। आपने सिनेमा-जगत् में जिन अपवादों के नाम लिए हैं, उनकी मैं भी इज्जत करता हूँ और उन्हें बहुत गनीमत समझता हूँ, मगर वे अपवाद हैं जो नियम को सिद्ध नहीं करते। और हम तो कहते हैं, इन अपवादों को भी व्यापारिकता के सामने सिर झुकाना पड़ा है। सिनेमा में इंटरटेनमेट वैल्यू साहित्य में इसी अंग से बिल्कुल अलग है। साहित्य में यह काम शब्दों, सूक्तियों या विनोदों से लिया जाता है। सिनेमा में वही काम मारपीट, धर-पकड़, मुँह चिढ़ाने और जिस्म को मटकाने से लिया जाता है।
रही उपयोगिता की बात। इस विषय में मेरा पक्का मत है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सभी कलाएँ उपयोगिता के सामने घुटने टेकती हैं। प्रोपेगेंडा बदनाम शब्द है, लेकिन आज का विचारोत्पादक, बलदायक, स्वास्थ्यवर्द्धक साहित्य प्रोपेगेंडा के सिवा न कुछ है, न हो सकता है, न होना चाहिए, और इस तरह के प्रोपेगेंडा के लिए साहित्य से प्रभावशाली कोई साधन ब्रह्मा ने नहीं रचा, वर्ना उपनिषद् और बाइबिल दृष्टांतों से न भरे होते।
सेक्स-अपील को हम हौआ नहीं समझते, दुनिया उसी धुरी पर कायम है, लेकिन शराबखाने में बैठकर तो कोई दूध नहीं पीता। सेक्स -अपील की निंदा तब होती है, जब वह विकृत रूप धारण कर लेती है। सुई कपड़े में चुभती है तो हमारा तन ढँकती है, लेकिन देह में चुभे तो उसे जख्मी कर देगी। साहित्य में भी जब यह अपील सीमा से आगे हो जाती है, तो उसे दुषित कर देती है। इसी कारण हिन्दी प्राचीन कविता का बहुत बड़ा भाग साहित्य का कलंक बन गया है। सिनेमा में वह अपील और भी भयंकर हो गई है, जो संयम और निग्रह का उपहास है। हमें विश्वास नहीं आता कि आप आजकल के मुक्त प्रेम के अनुयायी हैं। उसे प्रेम कहना तो प्रेम शब्द को कलंकित ही करना है – उसे तो छिछोरापन ही कहना चाहिए।
अंत में हमारा यही निवेदन है कि हम भी सिनेमा को इसके परिष्कृत रूप में देखने के इच्छुक हैं, और आप इस विषय में जो सराहनीय उद्योग कर रहे है उसको गनीमत समझते हैं। मगर शराब की तरह यह भी यूरोप का प्रसाद और हजार कोशिश करने पर भी भारत-जैसे देश में उसका व्यवहार बढ़ता ही जा रहा है। यहाँ तक कि शायद कुछ दिनों में वह यूरोप की तरह हमारे भोजन में शामिल हो जाए इसका सुधार तभी होगा जब हमारे हाथ में अधिकार होगा, और सिनेमा-जैसी प्रभावशाली सद्विचार और सद्व्यवहार की मशीन कला-मर्मज्ञों के हाथ में होगी, धन कमाने के लिए नहीं, जनता को आदमी बनाने के लिए, जैसा योरुप में हो रहा है। तब तक तो यह नाच तमाशे की श्रेणी से ऊपर न उठ सकेगा।
[‘हंस’, जून 1935]