फेल तरकीब : हिमाचल प्रदेश की लोक-कथा

Fail Tarkeeb : Lok-Katha (Himachal Pradesh)

फेल तरकीब- एक गांव के बुढ़ा और बुढ़ी जितने परिश्रमी थे उनकी बहू उतनी ही निठल्ली थी। हर समय काम में रत बुढा-बुढी को वह अनदेखा कर देती थी। किन्तु खाने-पीने और सोने की वह बहुत शौकीन थी, उसके बुजुर्ग सास-ससुर बहुत परेशान रहते थे। एक दिन दोनों ने चूल्हे के पास बैठकर खूब सोच-बिचार कर तरकीब बनाई। इस तरकीब से शायद बहू रास्ते पर आ जाए।

अपनी तरकीब के अनुसार प्रातः-प्रातः बहू के कमरे के बाहर जोर-जोर से बहसने लगे।

पुत्र की अम्मा, मैं झाड़ू देता हूं तुम और काम कर लो। झाड़ू को जोर से बरामदे पर पटकते बहू को सुनाते बूढ़े ने अपनी बुढ़िया से कहा।

नां जी, आपकी उम्र है झाड़ू देने की। लोग क्या कहेंगे, घर में दो-दो औरतें है और बुजुर्ग को सफाई-बुहारी को लगाया है? आप कुछ और करिए मैं झाड़ू देती हूं। बुढी सासु ने जोर से कहा।

ना ना, पुत्र की अम्मा, तुम्हें पशुओं की भी टहल करनी है। मैं ही आज झाड़ू देता हूं। भीतर बाहर और ये आंगन ही तो है। बुढ़े ससुर ने भी बहू को सुनाते कहा।

ऊ-आं करते और उवासी लेती बहू जगी, फिर वह बिस्तर पर ही लेटे बोली आप लोग बहस क्यों कर रहे हैं। सासु जी को आज झाड़ू देने दीजिए, आपने कल दे देना। बहू ने थोड़ा ऊंचे स्वर में कहा और जम्हाई लेकर करबट बदल ली। कम्बल ओढ़ कर फिर सो गई।

बुढा-बुढी देखते रह गए। उन्हें पक्का विश्वास था कि बहू शर्म-लिहाज करे झाड़ू देने आ जाएगी। इस तरह धीरे-धीरे सूत में आ जाएगी। पर जी, बहू तो पक्का चिकना घड़ा थी। सयाने सास-ससुर की तरकीब काम न आई। उन्होनें सोचा कि जो ढीठ ही हो उसके क्या मांस काटना। बेचारे स्वंय ही काम पर लग गए थे।

(साभार : कृष्ण चंद्र महादेविया)

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