एमडेन (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Emden (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

राव को जब शहर के सबसे वृद्ध व्यक्ति का सम्मान मिला, तब उनकी उम्र नब्बे और एक-सौ-पाँच के बीच कहीं थी। उसने बहुत दिनों से समय की गिनती करना बंद कर दिया था और जन्मदिन से चिढ़ने लगा था, खासतौर से अस्सीवें जन्मदिन के बाद, जब न जाने कहाँ-कहाँ से उसके परिजन दल बनाकर आये और तमाम तरह के धार्मिक अनुष्ठानों से उसे गुजारा, और बाजे-गाजे के साथ उसका सार्वजनिक उत्सव भी मनाया। इसके धार्मिक अनुष्ठान इतने ज्यादा थे कि उन्हें पंद्रह दिन तक चारपाई पर पड़े रहना पड़ा। इसमें उनके सिर पर बहुत-सा ठंडा पानी, जिसके लिए कहा गया कि देश भर की नदियों से लाया गया है, डाला गया और कई दिन तक जबरदस्ती उपवास कराया गया, जबकि बाहर से आये लोग तरह-तरह के माल उड़ाते रहे। अंत में वे थककर इतने चूर हो गये कि सबके साथ बैठकर फोटो खिंचवाना भी भारी पड़ गया। वे कुर्सी पर बैठते ही लुढ़कने लगे, जिससे फोटोग्राफर को परेशानी होने लगी। वह बार-बार काले कपड़े के भीतर से सिर निकालकर कहता, 'स्टेडी प्लीज, और कोई नतीजा न निकलने पर उसने बिना फोटो खींचे लौट जाने की धमकी दी, तब कुछ लोगों ने पीछे खड़े होकर उन्हें सीधा किये रखा। ग्रुप में कुल मिलाकर पचहत्तर के करीब लोग थे जो सब किसी-न-किसी तरह उनकी ही संतानें थे। फोटोग्राफर ने जोर डाला कि इन्हें बाँट कर दो फोटो लिये जायें, नहीं तो प्लेट में जितनी जगह है उसमें वे सब एक एक बिंदी से ज्यादा दिखायी नहीं देंगे और किसी को भी पहचाना नहीं जा सकेगा। इसका मतलब यह हुआ कि कुछ देर आराम करने के बाद उन्हें दोबारा इस सम्माननीय कुर्सी पर बैठना पड़ेगा। जब उन्होंने इतने लंबे-चौड़े कार्यक्रमों पर परेशानी प्रकट की, तब उनसे कहा गया कि 'ये अनुष्ठान आप के स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है'।

इस पर उन्होंने टिप्पणी की कि उन्हें तो यही लगता है कि इन सबसे उनकी जिंदगी कम ही होगी, बढ़ेगी नहीं, तो उनकी एक बेटी ने, जो खुद साठ पार कर चुकी थी, उन्हें ऐसी अशुभ बात मुँह से निकालने के लिए डाँट पिलायी, और कहा कि ये सब आपकी भलाई के लिए ही कर रहे हैं।

जब तक वे इस समारोह के काम-धाम से मुक्त हुए और जब तक दो भागों में खींचा गया फोटो दीवाल पर लगने के लिए तैयार हुआ, घर शांत हो चुका था और पहले जितने ही लोग उसमें रह गये थे-यह संख्या बीस के लगभग थी, तीन लड़के और उनके परिवार, उनके बच्चे-कच्चे, भतीजे,भतीजियाँ इत्यादि। मकान के दाहिने हिस्से में उनका अपना कमरा था जिसे उन्होंने पिछली शताब्दी में स्वयं डिजाइन किया और बनवाया था। विनायक स्ट्रीट के बगल में जमीन खरीदने वालों में वह पहले व्यक्ति थे, जो उन दिनों में बड़ी हिम्मत का काम समझा जाता था, क्योंकि यह ऐसा सुनसान इलाका था जहाँ चोर दिन-दहाड़े अपना काम करके जंगल में भाग जा सकते थे लेकिन कुछ समय बाद यहाँ लोग आकर बसने लगे और इसे रत्नपुरी का नाम दिया गया।

राव के आंरभिक वर्ष कबीर स्ट्रीट में व्यतीत हुए थे। जब वे अपने पैरों पर खड़े होने लायक हुए और शान-बान से जिंदगी बिताने का विचार करने लगे, तो सबसे पहले उन्होंने कबीर स्ट्रीट का अपना मकान बेच दिया और रत्नपुरी में रहने चले गये। इस समय तक उनकी दूसरी पत्नी चार कन्याओं को जन्म दे चुकी थीं, और चौथी लड़की की शादी हो चुकी थी। वे पहली बीबी की संतानों के साथ इस मकान में आये जिनके भिन्न-भिन्न उम्रों के लड़के-लड़कियाँ कुल मिलाकर संख्या में आठ थे। पत्नी के मामले में उनका भाग्य अच्छा नहीं था, उनके चाचा जो परिवार के सब लोगों की कुंडलियाँ बनाते और पढ़ते थे, कहते थे कि इसके सातवें घर में मंगल है, और उसके कोप को कम करने वाला कोई दूसरा ग्रह उस घर में नहीं है, इसलिए कोई भी पत्नी जिंदा नहीं रहेगी। तीसरी शादी और उससे हुए कई बच्चों के बाद उन्हें भी विश्वास हो गया कि मंगल के कोप से उनका छुटकारा नहीं है। उन्होंने घर की बढ़ती जनसंख्या का कोई हिसाब नहीं रखा यह उनकी चिंता का विषय ही नहीं था-उनके बेटे परिवार को चलाने और उसके सभी सदस्यों की देखभाल करने में पूरी तरह सक्षम थे। वे परिवार के सब मामलों से अलग होते गये और जब उनका अस्सीवाँ जन्मदिन मनाया गया तब इस घर में एक ही छत के तले रहने वालों में से किसी भी बच्चे या रिश्तेदार का न नाम जानते थे और न उसे शक्ल से पहचानते थे।

उनका अस्सीवाँ साल उनके पारिवारिक जीवन में एक महत्वपूर्ण अवसर था। उनकी शारीरिक क्षमताएं कम हो रही थीं और वे बड़ी आसानी से सभी चिंताओं से स्वयं को मुक्त कर सकते थे। उनकी दार्शनिकता इन समस्याओं को आसानी से स्वीकार कर लेती थी, 'अगर मैं कम देखने या कम सुनने लगा तो यह अच्छा ही है। इससे कुछ नुकसान नहीं हुआ। मेरे पैरों में अभी इतनी ताकत है कि जहाँ चाहूँ जा सकू और मैं बिना किसी की मदद के नहा-धो सकता हूँ खाना मुझे अच्छा लगता है और मैं उसे पचा भी लेता हूँ।' यद्यपि घर में डायनिंग टेबिल थी लेकिन उन्हें भोजन-गृह के एक कोने में हमेशा की तरह पटले पर बैठकर भोजन करना ही पसंद था। उनका हर काम अपने आप चलता रहता था, उन्हें कुछ माँगना नहीं पड़ता था, क्योंकि उन्हें कब और क्या चाहिए, इसका सबको पता था, और कोई बहू या भतीजी या पोते-पोती की कोई लड़की अपने आप उनका काम कर देती थी। वे न टिप्पणी करते, न सवाल करते, विशेष रूप से सवाल इसलिए भी नहीं करते थे क्योंकि उसके उसके जवाब में कोई उनके बायें कान में इतनी जोर से बोलता कि उनके पर्दे फटने लगते थे-हालांकि वे अगर दायें कान में बोलते तो उन्हें आसानी से समझ में आ जाता था। लेकिन कोई जो भी करे, वे चिंता नहीं करते थे। वे पूरी तरह जिंदगी से रिटायर हो चुके थे। उन्होंने जीवन भर अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए कड़ा परिश्रम किया था और परिवार के भरण-पोषण का पूरा इन्तजाम किया था-दो हिस्सों में बँटे उनके पारिवारिक फोटो का हर व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उनकी सहायता से ही खड़ा हुआ था। उनके नाती-पोतों में से कई जीवन के विभिन्न अवसरों में उनका विशेष प्रिय हुआ करता था, लेकिन अब वे इतने बदल गये थे कि पहचान में नहीं आते थे, और उनके नाम तो ये ही उनके बोलने की सबसे बड़ी बाधा थे-हर नाम जबान पर आता तो था पर समय पर पूरी तरह कभी याद नहीं आता था। यह प्राकृतिक स्थिति मनुष्य को कुछ ऐसा बना देती है कि वह बड़बड़ाता या हकलाता-सा लगता है और कोई भी वाक्य पूरी तरह बोल नहीं पाता। लेकिन यह स्थिति भी उन्हें स्वीकार थी क्योंकि इससे उनका दिमाग बुढ़ापे में भी साफ रहता था, उसमें कोई उलझन नहीं पैदा होती थी।

दोपहर के बाद जब वे खाना खाकर आराम कर चुकते,तो वे बड़ी सहजता से और सफाई से सोच-विचार कर सकते थे, दिनभर में यह समय उनका सबसे अच्छा समय होता था। इस समय वे उठते और काफी का बड़ा प्याला पीते जो इनके पास ठीक तीन बजे उनकी देखभाल करने वाला कोई व्यक्ति दरवाजे के पास एक छोटी-सी तिपाई पर रख जाता था। काफी पीने के बाद उनमें कुछ स्फूर्ति आती और वे उत्तरी खिड़की के पास आराम-कुर्सी पर बैठते और सवेरे का अखबार उठाते, जिसे तब तक सब लोग पढ़ चुकते थे और जिसे उनकी काफी के पास ही रख दिया जाता था। उसे आँखों के एकदम पास लाकर वे पढ़ सकते थे, बस कुर्सी के पट्टे से बँधे सिल्क के कपड़े से चश्मे को एकाध बार पोंछना पड़ता था-इस तरह आराम से बैठकर कुछ आधा पढ़ते और आधा सोचते रहते थे। राजनीतिज्ञों और लड़ाने वाले नेताओं के शब्द उन्हें बासे लगते थे-इतिहास के आंरभ से ये लोग एक ही भाषा में बोलते चले आये हैं उनकी आँखें अखबार के कालमों को ऊपर से नीचे तक सरसरी नजर से देख जातीं, कभी किसी विज्ञापन पर उनकी नजर ठहर जाती-'ये तरह-तरह की फैन्सी चीजों पर लोगों का पैसा खर्च करवाने के साधन हैं '-कभी मरने वाले लोगों की सूची पर-जिनमें उन्हें किसी परिचित का नाम नहीं मिलता था। लेकिन अखबार के आखिरी पने पर एक स्तंभ उनका ध्यान जरूर खींचता-जिसमें मद्रास की किसी सभा में धार्मिक या दार्शनिक विषय पर दिये गये किसी भाषण की रिपोर्ट होतीं, ये रिपोर्ट बहुत संक्षित होतीं, लेकिन ईश्वर उनके अवतार और अच्छे और बुरे के संबंध में उनके विचारों को ताजा करने के लिए पर्याप्त होती थीं। इस पर वे कुछ समय आँखें बंद करके विचार करते,फिर अखबार को बाकायादा मोड़कर वहीं रख देते, जहाँ से बाद में उसे कोई उठा ले जाता था।

जब घड़ी में चार बजने की आवाज होती, तो वे उठते और शाम की सैर के लिए निकल जाते। अपनी जीवन-चर्चा का यह भाग वे बहुत सोच-विचार कर आयोजित करते। हाथ-मुँह धोकर वे एक लंबी कमीज पहनते, जो उनके घुटनों तक आती थी, सफेद धोती पहनते, कंधे पर एक कढ़ा हुआ शाल लपेटते और घड़ी तथा छाता उठाकर बाहर निकल पड़ते। जब वे हॉल से गुजरते तो कोई न-कोई आवाज लगाकर उन्हें जरूर सावधान करता, ' ध्यान से जाना। टार्च ले ली है ? ज्यादा मत घूमना। जल्दी लौट आना।' वह सिर हिलाकर आगे बढ़ जाते। बाहर निकलने के बाद वे बहुत ध्यान से एक-एक कदम रखते पहले छड़ी से टोह ले लेते कि जमीन कैसी है। जिंदगी में उनका अकेला उद्देश्य था गिरने से बचना। एक भी कदम गलत पड़ा तो जिंदगी खत्म हो जायेगी। दीर्घ-जीवन तभी संभव था जब शरीर का सीधापन और मन का संतुलन बनाकर रखा जा सके। इस बाधा के कारण एक तो उनकी चाल बहुत धीमी हो गयी थी और दूसरे वे निश्चित मार्ग पर ही शाम की सैर कर सकते थे।

गेट पार करके वे सड़क के बिलकुल बायें चलते हुए विनायक स्ट्रीट और कबीर लेन पार करके मार्केट रोड पर आ पहुँचे। यहाँ का शोर-शराबा, यातायात और भीड़भाड़ उन्हें बहुत पसंद थी-वे यहाँ रुककर दुकानों और हर वक्त वहाँ आनेजाने वालों को देखते रहते। वे कभी-कभी खरीददारी भी करते-इससे पहले उन्होंने घर के किसी बच्चे के लिए एक ड्राइंग की कापी और क्रेयान रंगों का सेट खरीदा था। अपने लिए वे हमेशा एक ही ब्राड का टूथ पाउडर खरीदते थे- उनके दाँत अभी तक साबुत थे। जिसके लिए वे मार्केट रोड के छोर पर चेट्टियार की दुकान पर रुकते-यहाँ से सड़क एलामन स्ट्रीट की ओर मुड़ जाती थी। जब वे इस दुकान के सामने से गुजरते, दुकानवाला बड़े जोश से उनका स्वागत करता, 'आप कैसे हैं, सर? घर ले जाने के लिए कुछ चाहिए?" राव अपना सिर हिलाकर सड़क पार कर लेते-इस स्थान पर पहुँचकर वे घर की दिशा में मुड़ जाते-इस पूरी सैर में उन्हें दो घंटे लगते। साढ़े छह बजे से पहले वे अपने घर में फाटक पर पहुँच जाते, पूरी सैर में उन्हें टार्च का कभी उपयोग नहीं करना पड़ता-इसे वे कमीज की जेब में सावधानी के ख्याल से रखते, फिर भी अगर अचानक सूर्य में ग्रहण लग जा या रात जल्दी पड़ जा।

दोनों तरफ की उनकी सैर बड़े आराम से बिना किसी घटना से गुजर जाती, हालांकि मार्केट गेट पर सड़क पार करते हुए उन्हें डर भी लगता-जहाँ फोटोग्राफर जयराज बड़ी जारदार आवाज में उनका स्वागत करता, 'ग्रेन्डमास्टर, सड़क पार करने में मैं आपकी मदद करूं?" राव इस प्रकार की बात को अनसुना कर सड़क पार कर जाते, उन्हें यहाँ की भीड़ में किसी से टकराने से बचने के लिए अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करना पड़ता था और जयराज जैसों की बात सुनने का उनके पास समय नहीं होता था। उनके निकल जाने के बाद जयराज, जो गप्प लड़ाने का शौकीन था, बेंच पर बैठे अपने ग्राहकों से कहता, 'इनकी उम्र देखो! भीड़ में इस तरह चलते हैं जैसे जवान हों। कम-से-कम एक सौ दस साल के होंगे। इतनी हिम्मत दिखाना भी ठीक नहीं है। इनके घरवाले इन्हें इस तरह निकलने क्यों देते हैं? इनकी परवाह ही नहीं करते। आजकल कहीं कोई सुरक्षा नहीं है। इतनी लारियों, साइकिलों और आटोरिक्शों के बीच...कभी कुछ हो जायेगा... और क्या?'

'कौन है ये ?' कोई सवाल करता-लेकिन वह शहर के लिए नया आदमी होता, जो अपनी फोटो में फ्रेम लगने का इन्तजार कर रहा होता।

'हम इन्हें एमडेन - कहते थे। जब हम बच्चे थे, इनसे बहुत डर लगता था। ये कबीर स्ट्रीट पर कहीं रहते थे। खूब लम्बे और तगड़े, साइकिल पर खाकी वर्दी पहने, लाल पगड़ी और कई मेडल सीने पर लगाये निकलते थे। हम पहले इन्हें पुलिस इंसपेक्टर समझते थे और नहीं जानते थे कि यह वर्दी एक्साइज डिपार्टमेन्ट की है। लेकिन व्यवहार ये पुलिसवाले की ही तरह करते थे-अगर किसी की कोई बात पसंद न आती तो गुर्राकर उसका पीछा करते और छड़ी से टुकाई कर देते। हम तब लड़के थे और दल बनाकर सड़कों पर घूमते-फिरते थे, और अगर ये देख लेते तो सबको डाँटकर घर भेज देते। एक दफा इन्होंने हमें स्कूल के पास आदम स्ट्रीट पर पेशाब करते देख लिया-लड़के वहीं पेशाब करते थे-तो ये चिल्लाते हुए हमारे पास आये, चार लड़कों को पकड़कर इतना झकझोरा कि सबकी हड़ियाँ दर्द करने लगीं। फिर हमको हेडमास्टर के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया और उस पर भी बरसे, 'तुम क्या करते हो, हेडमास्टर? लड़कों को इस तरह पढ़ाया जाता है? तुम चाहते हो, ये सब गटर के कीड़े बन जायें। ? तुम इन पर नजर क्यों नहीं रखते और स्कूल में ही एक शौचालय क्यों नहीं बनवा देते!" हेडमास्टर कुर्सी छोड़कर काँपता हुआ उठ खड़ा हुआ और इसकी छड़ी देखकर डर भी गया। अरे, अपने दिनों में इन्होंने ऐसे कितने ही काम किये हैं। सब इनसे डरते थे। अपने इस व्यवहार के कारण यह पुलिस के अफसर भी हो सकते थे, लेकिन इनका काम शराब की दुकानों पर चेकिंग करना ही था और मालूम है, शाम तक ये कितना पैसा बना लेते थे? कम-से-कम पाँच सौ रुपये, यानी महीने में पंद्रह हजार। इतना तो गवर्नर की भी तनख्वाह नहीं थी। इसी की बदौलत रत्नपुरी में इतना शानदार मकान बना लिया और बाल-बच्चों को अच्छे ढंग से पढ़ा-लिखा लिया। अरे, ये लोग कितना घमंड करते थे! फिर पकड़े जाने से ये बाल-बाल बचे-रिश्वतखोरी का कोई राष्ट्रीय इनाम हो तो उसके ये ही हकदार होंगे। जब इन्हें नौकरी से निकाला गया, तब कहा यह गया कि अपनी इच्छा से रिटायर हुए हैं। इससे इन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ क्योंकि इन्होंने दस पीढ़ियों के लिए दौलत जमा कर ली थी। एमडेन ही कहा जा सकता है ऐसे आदमी को... और क्या! कई शादियाँ की, और लगता है खुद ही एक के बाद एक हर एक को चाट गये। उनके अलावा भी बहुतों पर नजर रखते थे... हा, हा! जब हम लड़के थे, शहर में इन्हीं की चर्चा थी। हममें से कई चुपचाप रात में इन पर जासूसी करते थे कि कहाँकिन गलियों में जाते हैं- बड़ा मजा आता था। नसों और स्कूल की टीचरों जैसी औरतों के प्रति, जो अकेली होती थीं, इनका बहुत झुकाव था, और साँड़ की तरह ये उनमें विचरते थे। एमडेन और किसे कहते हैं।...' जयराज हाथों से फोटो कतरता जाता या फ्रेम बनाता रहता और जबान से ये सब किस्से सुनाता जाता। जब उसका काम खत्म होता, तभी यह कहानी भी खत्म होती। अंत में वह ग्राहक से कहता, 'इसके पाँच रुपये हुए, तुम्हारे लिए स्पेशल रेट लगाया है क्योंकि तुम मेरे लिए कृष्ण जी का चित्र लाये थे जिनका मैं भक्त हूँ और जो मेरे परिवार के देवता हैं। इसमें मैंने जो चूड़ियाँ लगायी हैं, उनका पैसा भी चार्ज नहीं किया है।'

राव अपने जरूरी कागज-पत्र एक अलमारी में रखते थे जिस पर ताला लगा होता था और उसकी चाबी एक-दूसरे कबर्ड में जिसमें उनके कपड़े और दूसरी जरुरी चीजें रखी होती थीं, नीचे बिछे कागजों के भीतर छिपाकर रखते थे, और इस दूसरे कबर्ड की चाबी भी कहीं और छिपाकर रखी जाती थी, जिससे इन दोनों कबडों तक, जिनमें उनके जीवन के सब राज छिपे थे, किसी की पहुँच न हो सके। कभी-कभी किसी दोपहर को, जब उनमें कुछ शक्ति होती और दिमाग साफ होता, तो वे आराम-कुर्सी से उठते, दरवाजा भीतर से बंद करके पहला कबर्ड खोलते, उसमें से कागजों के नीचे से चाबी निकालते, फिर उससे दूसरा कबर्ड खोलकर अपने कागज-पत्र-करारनामे, डायरियाँ, रेकार्ड और वसीयत निकालते।

आज उन्होंने दस मिनट में सारा अखबार खत्म कर दिया और अपने प्रिय आखिरी पन्ने पर पहुँच गये जिसमें पुनर्जन्म संबंधी एक भाषण में बताया गया था कि क्यों कोई व्यक्ति अपने कर्मों के फलानुसार, जिस स्थिति में वह है, जन्म लेता है। राव को इस भाषण से बोरियत ही महसूस हुई क्योंकि कर्म के दर्शन और नैतिकता की बातों से वे खूब परिचित थे। लेकिन अभी चार नहीं बजे थे, उनका पढ़ना आज काफी जल्दी खत्म हो गया था। इसलिए अखबार पढ़ना खत्म करने के समय और सैर के लिए बाहर निकलने के समय के बीच आधे घंटे का समय उन्हें खाली मिल गय। वे कुर्सी से उठे, अखबार को सावधानी से मोड़कर दरवाजे के बाहर स्टूल पर रखा, फिर दरवाजा भीतर से बंद किया-बहुत चुपचाप, क्योंकि अगर इसकी आवाज बाहर सुनायी देगी तो सब उसके पास आकर कहने लेगेंगे, 'भीतर से बंद मत कीजिए," क्योंकि उन्हें डर लगा रहता था कि यदि बंद कमरे में उनकी मृत्यु हो गयी तो भीतर आने के लिए दरवाजा तोड़ना पड़ेगा। लोग उनकी मृत्यु से इतने पेरशान क्यों रहते थे, क्योंकि अमर तो कोई नहीं है...।

उन्होंने कबर्ड खोला और साथ-सुथरे बंडलों में बंधे भीतर रखे कागजों पर नजर डाली-सबसे ऊपर वाली शेल्फ में उनकी सरकारी नौकरी के शुरू से लेकर 'स्वैच्छिक रिटायरमेंट' तक के पूरे रेकार्ड थे। ये धूल भरे पीले कागजों में लिपटे हुए रखे थे, वे कबर्ड को कसकर बंद कर देते थे लेकिन पता नहीं कहाँ से, शायद उसकी महीन सँधों से, यह धूल उनमें पहुँच ही जाती थी। वे इन्हें छूने से भी डरते थे क्योंकि ऊँगलियों में धूल लग जाने से उन्हें जुकाम हो सकता था। उन्हें कोई आदमी चाहिए था जो इन्हें नष्ट कर देता, आग में जलाना बेहतर होता-लेकिन भरोसे का आदमी कहाँ से लाया जाये ? नौकरी के आखिरी दिनों की सरकारी चिट्ठियाँ और कागजात कोई दूसरा पढ़े, यह वे नहीं चाहते थे-वे नहीं चाहते थे कि जाने। सरकार का वह सेक्रेटरी तो उनके खून का प्यासा हो उठा था-जिसकी वजह थे गुमनाम-पत्र और पीठ पीछे की गयी चुगलियाँ। उस वक्त एक ही आदमी ने उनका साथ दिया था-उनका प्रथम सहायक, उसका नाम और अब वह कहाँ रहता है, यह याद नहीं आ रहा था-अच्छा आदमी था वह; अगर वह यहाँ होता तो वे उसी को यह अलमारी साफ करने और इसके कागजात जलाने का काम देते। उस पर विश्वास किया जा सकता था, और यदि उससे कहा जाता तो वह जलाये गये कागजों की राख भी वापस कर देता। लेकिन वह था कौन ? उन्होंने अपना सिर थपथपाया-जैसे इससे उनके दिमाग की मशीन फिर काम करने लगेगी...।

फिर उनकी आँखें दूसरी शेल्फ की तरफ मुड़ीं। उन्होंने इस पर प्यार से हाथ फेरा-इसमें उनकी संपत्ति और उनकी मृत्यु के बाद किस प्रकार उसका बँटवारा करना है, ये सब कागजात थे। घर में किसी को इनकी जानकारी नहीं थी, न वे इनके पास फटकने की हिम्मत कर सकते थे। उन्हें अपने वकील को बुलाना चाहिएअरे, क्या नाम था उसका ?-और किसी दिन ये सब बातें करना चाहिए। लेकिन शायद वह भी मर-खप गया होगा। अब शहर में कोई भी परिचित नहीं बचा।... खैर, जो हो, किसी को भेजकर, अगर वह अभी जिन्दा है, तो उसे बुलवाना चाहिए। यह काम गुप्त ढंग से करना होगा। लेकिन कैसे? जैसे भी हो।

अब उनकी आँखें जिस शेल्फ की ओर मुड़ीं, उसमें बहुत से पैकेटों में रसीदें, बिल और डायरियाँ रखी थीं। कई वर्षों तक वे नियमित डायरी रखते रहे, जिसमें हर पन्ने पर उस दिन की घटनाएँ और कोई विचार लिखा होता था। वह हमेशा 'मैचलेस' नाम की डायरी ही खरीदते थे, जिसका आकार भी सही था, हर पन्ने पर लाइनें खिंची थीं और कवर ऐसा बटनदार था जिसे जब चाहे आसानी से खोलकर कोई भी पन्ना देखा जा सकता था। शहर के मुख्य बाजार का मैचलेस स्टेशनरीमार्ट इसका निर्माता था। हर दिसंबर के आखिरी दिन वे यहाँ आते और चार रुपये देकर डायरी खरीदते-यह कीमत जरा ज्यादा ही थी लेकिन चीज को देखते हुए सही थी. और अक्सर दुकानवाला इसकी कीमत लेने से भी इनकार कर देता, क्योंकि इससे ज्यादा कीमत का वह कोई लाभ उठाना चाहता होगा। अगर किसी गरीब का कुछ भला हो तो राव कोई सरकारी लाभ किसी को देना गलत नहीं समझते थे। इस शेल्फ में करीब तीस डायरियों का भंडार जमा था ज्यादा इसलिए नहीं क्योंकि जीवन में एक समय उन्होंने डायरी लिखना बंद कर दिया था लेकिन इनमें उनके दैनंदिन जीवन का सार और चिंतन लिखा हुआ था। इन्हें भी मृत्यु से पहले अग्निदेवता की भेंट चढ़ाना सही होगा।

वे डायरियों के सामने खड़े कुछ सोचते रहे। उनके ढेर में हाथ डालकर एक, जो भी हाथ आयी, डायरी निकाली, तौलिया से उस पर लगी धूल साफ की और कुसों पर बैठकर उसके पन्ने पलटने लगे। इक्यावन साल पुरानी थी यह डायरी। कुछ पन्ने देखने के बाद उन्हें काली रोशनाई में खुद अपने बना-बनाकर लिखे शब्द पढ़ने में कठिनाई महसूस होने लगी तो उन्होंने सोचा कि इसे वापस रख दें, और उनका सैर के लिए जाने का समय भी हो रहा था। फिर, उन्होंने सोचा कि आज के दिन उस साल क्या हुआ था, यह देखा जाये.। उन्होंने दीवाल पर लगे कलेन्डर पर नजर डाली, आज 20 मार्च थी। उन्होंने डायरी खोली और शुरु के पन्नों को पढ़ने लगे। उस जमाने में उनका जीवन कितना व्यस्त रहता था, सवेरे से शाम तक परिवार, दफ्तर, अपने निजी, काम-ही-काम थे। उनकी आँखों में दर्द-सा होने लगा तो उन्होंने लम्बे-लम्बे पैराग्राफ छोड़कर छोटे पैराग्राफ देखना शुरू किया।

इक्यावन साल पहले के इसी तारीख के पन्ने पर सिर्फ चार लाइनें दर्ज थीं : 'एस. के साथ ज्यादा नरमी बरती... इस औरत को तो अच्छा सबक सिखाया जाना चाहिए...।" इनसे एक याद उभरने लगी और उन्हें किसी दूसरे पर अपने चिल्लाने की आवाज भी सुनायी देने लगीं-आगे की लाइनों में लिखा था कि उन्होंने क्या किया। 'उसकी अपनी भलाई के लिए ही उसे खूब मारा और लौट पड़ा। अब उससे कभी नहीं मिलेगा. मैं यह जिम्मेदारी कैसे ले सकता हूँ? उसे 'एफ़ेयर' तो करना ही था, डांसिंग गल जो ठहरी! सोचता हूँ-वापस लौटने से पहले उसे ताले में बंद कर देना चाहिए था...?'

उन्होंने इसे फिर ध्यान से पढ़ा। सोचने लगे कि कौन थी यह। 'एस' अक्षर से नाम याद नहीं आया। इस अक्षर से शुरू नाम वाली किसी औरत को वे नहीं जानते थे। जिन औरतों से उनका मिलना होता था, यह उनमें से कोई भी हो सकती थी...।

वे बहुत ध्यान देकर इस समस्या पर विचार करने लगे। जोर लगाने से उनके कुछ याद आने लगी। चेट्टियार स्टोर्स से. याद आया, मार्केट रोड की तरफ जाते हुए. और रात को बहुत देर से वापस लौटते समय भी सामने की दुकान में रोशनी जलती रहती थी, इसका मतलब हुआ कि मार्केट रोड से निकलने वाली सँकरी दूर पैदल चलने के बाद कई गलियों में मुड़कर उसके घर पहुँचते थे... कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर दरवाजा आता था, जिसमें पीतल के कुंदे लगे थे, जिसको खटखटाने पर, यदि वह इन्तजार करती होती, तो दरवाजा फौरन खुल जाता था और मेरे भीतर घुसते ही एकदम बंद भी हो जाता था, कि कहीं पड़ोसी न देख लें. और आधी रात को वापस लौटते थे। लेकिन यहाँ वे हफ्ते में दो ही दिन जाते थे, जब भी खाली समय मिलता...।

उसका नाम,... नहीं, याद नहीं आ रहा था, लेकिन उसकी रूपरेखा हल्की-सी ध्यान आ रही थी, गोरी, गुलगुली, प्यार और जैस्मिन की खुशबू से भरी! अब उसे निश्चय हो गया कि यही औरत थी वह, वह दूसरी नहीं जो इसी की तरह गुलगुली और खुशबूदार, उसी के आस-पास कहीं रहती भी थी... उसे गुस्से से भभककर तमाचा मारना याद आया। यह जवान बहुत गरम और गुस्सैल रहा होगा... वह कोई और रहा होगा, वे खुद नहीं। उन्हें घर तो याद नहीं आया... लेकिन उसके सामने एक कुआँ और एक नारियल का पेड़ था। फिर अचानक उनके दिमाग में कौंध गया कि गली का नाम था-गोकुलम।

वे उठे और डायरी ताले में बंद करके उसकी चाभी यथास्थान छिपाकर रख दी। फिर हाथ-मुँह धोये, कपड़े बदले, सेंडल पहने और छड़ी और छाता हाथ में लेकर उन्होंने ताजगी महसूस की। उन्होंने तय किया कि आज वे सैर के निश्चित मार्ग से आगे जायेंगे और नारियल के पेड़ के सामने वाले मकान और उसके पीतल के छल्ले लगे दरवाजे की तलाश करेंगे। चेट्टियार स्टोर्स से आगे उसी रास्ते पर चलेंगे आँख वहाँ पहुँचेगे, और एस... यदि जीवित हुई और दरवाजे पर खड़ी मिली तो उससे बातचीत करेंगे... और सीढ़ी पर चार कदम वे शायद न चढ़ पायें लेकिन वे उसे सड़क पर ही खड़े रहकर कोई छोटा-सा उपहार भी देंगे। वह नीचे उतरकर उपहार ले लेगी। मुझे उसे तमाचा नहीं मारना चाहिए था... यह उनकी क्रूरता थी। उन्हें ईत्र्या नहीं करनी थी.। उन्हें अपने व्यवहार पर दुख होने लगा। उस स्त्री ने जरूर उससे अच्छा व्यवहार किया होगा और सुख भी बहुत दिया होगा-नहीं तो आधी रात तक वे उसके पास क्यों टिकते ?

जब वे फर्श पर टैप-टैप करते हुए बाहर निकलने लगे, तब हमेशा की तरह किसी ने कहा, 'टार्च ले ली है ?... आज देर से जा रहे हैं। अपना ध्यान रखना।

'आज वे कुछ उत्तेजित थे। रास्ते में जो दुकानवाला उन्हें देखकर टिप्पणी करता था, आज उनके कदमों में नयी जान देखकर चकित हुआ, बोला, 'सर, गुड डे टु यू, सर!' साइकिल की दुकानवाले मणि ने कहा, 'आज बहुत जल्दी लग रहे हैं, सर! धीरे चलिये, सड़क सब जगह खुदी पड़ी है।'

राव ने सिर उठाकर देखा और सिर हिलाया। उनहें कुछ सुनायी तो नहीं पड़ा लेकिन मणि ने क्या कहा होगा, यह समझ लिया। उसे यह लड़का अच्छा लगता था। यह उस आदमी का पड़पोता था, जो उसके साथ एलबर्ट मिशन स्कूल में पढ़ता था। उसका नाम था... हमेशा की तरह उसे यह नाम भी याद नहीं आया।... कोई राय या शंकर या ऐसा ही कोई और नाम था उसका। क्या मुसीबत है.याद ही नहीं आता! खैर, चलो आगे बढ़े। हमेशा की तरह वे सड़क के बायें किनारे पर चलते रहे। मणि के कहे अनुसार चाल धीमी कर दी-उन्हें अपना आना-जाना किसी को पता नहीं चलने देना चाहिए, और इस तरह तेज तेज चलना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे हँफनी चढ़ जाती है।

वे जगन्स स्वीट्स मिठाईवाले की दुकान पर रुके। आज कोई नया चेहरा पेढ़ी पर था। बच्चे सामने भीड़ लगाये और हाथ में पैसे लिये खड़े थे, और यह या वह मिठाई माँग रहे थे। उन्होंने रास्ता घेर रखा था। उन्होंने दुकानवाले का ध्यान खींचने के लिए छड़ी फर्श पर जोर-जोर से पटकी, तो उसने सिर उठाकर पूछा, 'क्या चाहिए आपको ?" उन्होंने छड़ी दिखाकर बच्चों को भगा दिया और आगे बढ़कर तरह-तरह की रंगीन मिठाइयों पर नजर डाली। सोचने लगे, काश, वे पहले की तरह जितना चाहते, आज भी खा सकते। लेकिन अब चाहें जितना खाकर उनकी जान पर बन आ सकती थी- आज तो कम खाना और स्वाद पर कसकर लगाम लगाये रखना ही उनकी जिंदगी चलाये रख सकता है। उन्होंने पूछा, 'ताजा क्या बनाया है?' दुकानवाले ने जवाब दिया, 'हम रोज ताजा माल ही बनाते हैं। कल बनी कोई चीज नहीं है...।" राव को सुनायी तो नहीं दिया लेकिन क्या कहा गया होगा, यह वे समझ गये। कम सुनायी पड़ना जाहिर न हो, इसलिए तुरंत बोले, 'जलेबी पैक कर दो, तीन रुपये की।' फिर पैसे ध्यान से गिने, दुकानवाले को दिये, जलेबी का पैकेट हाथ में पकड़ा, फिर उसे नाक के पास ले गये-सँघने से तो कोई नुकसान नहीं होगा, और इसके खिलाफ कोई डॉक्टरी राय भी नहीं है-उसकी सोंधी खुशबू का मजा लिया, और अपनी राह पर आगे बढ़े। चेट्टियार स्टोर्स के पास पहुँचकर वे एक क्षण रुके और दाहिनी तरफ देखा-'हाँ यह वही सड़क है।' कुछ चाहिए?"

उन्हें इससे परेशानी हुई। ये लोग मुझे अकेला क्यों नहीं छोड़ देते? फिर दुकान से एक लड़का उनका आर्डर लेने आया। उसे देखकर उन्होंने पूछा, 'यह सड़क कहाँ जाती है?'

'अगली सड़क को...,' लड़के ने जवाब दिया, लेकिन लगा कि वे इस जवाब से संतुष्ट हो गये। लड़के ने फिर पूछा, 'आपके लिए क्या लाऊँ?"

'कुछ नहीं।' राव को गुस्सा आया, ये लोग समझते हैं कि उन्हें हर वक्त कुछन-कुछ खरीदना है। उन्होंने जलेबी का पैकेट अपने सीने से लगा लिया और छतरी, जो बाँह से लटक रही थी, उसे भी सँभाला। लेकिन लड़का उन्हें कुछ बेचे बिना हटना नहीं चाहता था इसलिए उन्होंने पूछा, 'संदल वाला साबुन है?' उन्हें याद आया कि एस. को या जो भी नाम हो उसको, यह साबुन बहुत पसंद था। लड़के ने झटपट साबुन ला दिया। इसे हाथ में लेकर उनकी पुरानी यादें फिर ताजा हो आयीं। उनका ख्याल था कि एस. के शरीर से जैस्मिन की खुशबू आती है, लेकिन अब समझ आया कि वह खुशबू संदल की थी। कई दफा सँघकर उन्होंने इसे जेब में रख लिया। लड़के ने पूछा, 'और कुछ लाऊँ, सर ?'नहीं, अब तुम जाओ,' कहकर राव आगे बढ़े और मार्केट रोड पार कर गये।

अपनी याद के सहारे वे चेट्टियार स्टोर्स के आगे चौराहे की तरफ चलने लगे। यहाँ से एक सड़क समान्तर जाती थी, वहाँ बायीं तरफ मुड़कर वे आगे बढ़े, फिर दायें मुड़कर एक गली में आ गये, फिर बायें, फिर पीठ की तरफ, लेकिन गोकुलम स्ट्रीट नजर नहीं आयी। फिर कुछ दूर आगे बढ़ने पर देखा कि एक मोची सड़क के किनारे बैठा काम कर रहा है। उसके पास रुककर उसका ध्यान खींचने के लिए छड़ी कई दफा जमीन पर पटकी, और उसके सिर उठाते ही सवाल किया, 'गोकुलम स्ट्रीट किधर से जायें?'

पहले तो मोची ने सिर हिला दिया, फिर उनसे छुटकारा पाने के लिए किसी भी दिशा में इशारा कर दिया और अपने काम में लग गया।

'इस सड़क पर कोई नारियल का पेड़ है?' इसके जवाब में मोची ने फिर उसी तरफ इशारा कर दिया और अपना काम करता रहा। राव गुस्से से बुड़बुड़ाये, 'घमंडी... भिखारी।' 'पुराने दिन होते तो...' यह सोचते हुए वे आगे बढ़े। उन्हें उम्मीद थी कि परिचित स्थान पर वे पहुँच जायेंगे। उन्होंने राह चलते कई लोगों से पूछा लेकिन लाभ नहीं हुआ। कहीं कोई नारियल का पेड़ नहीं दिखायी दे रहा था। उन्हें विश्वास था कि यही वह जगह है जहाँ वे आते थे, लेकिन अब सब कुछ बदल गया था। पुरानी पीढ़ियों के जो लोग गोकुलम स्ट्रीट और नारियल के पेड़ को जानते होंगे, वे सब गुजर चुके थे, और नयी पीढ़ी को किसी पुरानी बात का ज्ञान नहीं था। उनमें से वे ही अकेले बचे थे।

सूरज ढलने लगा था, इसलिए अब वे सावधानी से कदम रखने लगे। उन्हें कुछ डर भी लगा, इसलिए वे बार-बार जमीन पर छड़ी ठोंककर देखने भी लगे, कि कहीं किसी गड़े में न फिसल जायें। इस तरह आगे बढ़ने में उन पर बहुत जोर पड़ता था और उन्हें लगा कि इस तरह तो वे मार्केट रोड पर फिर नहीं पहुँच पायेंगे।

उन्हें चिंता सताने लगी और इस खोज-यात्रा के लिए वे अपने को कोसने लगे। अगर कोई दुर्घटना हो गयी तो परिवार के लोग उन्हीं को दोषी ठहरायेंगे। उन्हें अपने कष्ट से इतनी परेशानी नहीं हो रही थी, जितनी इससे कि लोग उनको दोष देंगे।

इसलिए वे और ज्यादा सँभल-सँभलकर चलने लगे। उनकी लड़खड़ाती चाल देखकर राह चलते मुस्कराते और फब्तियाँ भी कसते थे। एक जगह पहुँचकर उनकी छड़ी फर्श पर किसी मुलायम चीज में घुसती लगी, और एक कुत्ता, जो वहाँ धूलमिट्टी में चुपचाप पड़ा सो रहा था, अचानक उछलकर जोर जोर से भौंकने लगा।

राव चौंककर इतनी तेजी से उछले, जैसे पिछले बहुत से सालों से नहीं उछले थे, लेकिन भाग्य अच्छा था कि गिरे नहीं, हालाँकि हाथ में पकड़ा जलेबी का पैकेट वहाँ से निकलकर कुत्ते के सामने जा पड़ा। कुत्ते ने लपककर उसे उठा लिया और धन्यवाद में पूँछ हिलाते हुए चला गया।

राव ने असहाय होकर कुत्ते की तरफ देखा, फिर सोचने लगे, 'हो सकता है, एस. ने ही यह नया जन्म लिया हो...।"

(एमडेन जर्मनी का युद्धपोत था जिसने 1916 में मद्रास पर हमला किया था। उसके बाद यह शब्द बहुत कठोर और शक्तिशाली व्यक्ति का पर्याय बन गया। )

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