एक ज़ाहिदा, एक फ़ाहिशा (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Ek Zahida Ek Fahisha (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उस की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर हम हर रोज़ क़रीब क़रीब दस बारह घंटे साथ साथ रहते।
वो अपने रिश्तेदारों से ख़ुश नहीं था इस लिए जब भी वो बात करता तो कभी अपने बड़े भाई की बुराई करता और कहता सग बाश बिरादर-ए-खु़र्द बाश। और कभी कभी घंटों ख़ामोश रहता, जैसे ख़ला में देख रहा है मैं उस के इन लम्हात से तंग आकर जब ज़ोर से पुकारता “जावेद ये क्या बे-हूदगी है।”
वो एक दम चौंकता और माज़रत करता “ओह सआदत भाई माफ़ करना अच्छा तो फिर क्या हुआ”
वो उस वक़्त बिलकुल ख़ाली-उल-ज़हन होता मैं कहता “भई जावेद देखो मुझे तुम्हारा ये वक़तन फ़वक़तन मालूम नहीं किन गहिराईयों में खो जाना बिलकुल पसंद नहीं मुझे तो डर लगता है। एक दिन तुम पागल हो जाओगे।”
ये सुन कर जावेद बहुत “हँसा पागल होना बहुत मुश्किल है सआदत”
लेकिन आहिस्ता आहिस्ता उस का खलाएँ देखना बढ़ता गया और उस की ख़ामोशी तवील सुकूत में तबदील होगई और वो प्यारी सी मुस्कुराहट जो इस के होंटों पर हरवक़्त खेलती रहती थी बिलकुल फीकी पड़ गई।
मैंने एक दिन उस से पूछा “आख़िर बात क्या है तुम ठहरे पानी बन गए हो हुआ क्या है तुम्हें? मैं तुम्हारा दोस्त हूँ ख़ुदा के लिए मुझ से तो अपना राज़ न छुपाओ।”
जावेद ख़ामोश रहा। जब मैंने उस को बहुत लॉन तान की तो उस ने अपनी ज़ुबान खोली। “मैं कॉलिज से फ़ारिग़ हो कर डेढ़ बजे के क़रीब आऊँगा। उस वक़्त तुम्हें जो पूछना होगा बता दूंगा।”
वाअदे के मुताबिक़ वो ठीक डेढ़ बजे मेरे यहां आया। वो मुझ से चार साल छोटा था। बेहद ख़ूबसूरत। इस में निस्वानियत की झलक थी। पढ़ाई से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस लिए मैं आवारागर्द था लेकिन वो बाक़ायदगी के साथ तालीम हासिल कररहा था।
मैं उस को अपने कमरे में ले गया जब मैंने उस को सिगरेट पेश किया तो उस ने मुझ से कहा “तुम मेरे रोग के मुतअल्लिक़ पूछना चाहते थे?”
मैंने कहा “मुझे मालूम नहीं रोग है या सोग, बहर हाल तुम नॉर्मल हालत में नहीं हो तुम्हें कोई न कोई तकलीफ़ ज़रूर है।”
वो मुस्कुराया , “है इस लिए कि मुझे एक लड़की से मुहब्बत होगई है।”
मुहब्बत! मैं बौखला गया जावेद की उम्र बमुश्किल अठार बरस की होगी ख़ुद एक ख़ूबरू लड़की के मानिंद उस को किस लड़की से मुहब्बत हो सकती है, या होगई है, वो तो कुंवारी लड़कियों से कहीं ज़्यादा शर्मीला और लचकीला था। वो मुझे से बातें करता, तो मुझे यूं महसूस होता कि वो एक दहक़ानी दोशीज़ा है जिस ने पहली दफ़ा कोई इश्क़िया फ़िल्म देखा है। आज वही मुझ से कह रहा था कि मुझे एक लड़की से मुहब्बत होगई है।
मैंने पहले समझा शायद मज़ाक़ कर रहा है मगर उस का चेहरा बहुत संजीदा था। ऐसा लगता था कि फ़िक्र की अथाह गहराईयों में डूबा हुआ है। आख़िर मैंने पूछा, “किस लड़की से मुहब्बत हो गई है तुम्हें?”
उस ने कोई झेंप महसूस न की “एक लड़की है ज़ाहिदा हमारे पड़ोस में रहती है, बस उस से मुहब्बत होगई है उम्र सोला बरस के क़रीब है बहुत ख़ूबसूरत है और भोली भाली चोरी छिपे उस से कई मुलाक़ातें हो चुकी हैं उस ने मेरी मुहब्बत क़बूल कर ली है।”
मैंने उस से पूछा “तो फिर इस उदासी का मतलब क्या है जो तुम पर हर वक़्त छाई रहती है।”
उस ने मुस्कुरा कर कहा “सआदत तुम ने कभी मुहब्बत की हो तो जानो मुहब्बत उदासी का दूसरा नाम है हर वक़्त आदमी खोया खोया सा रहता है इस लिए कि उस के दिल-ओ-दिमाग़ में सिर्फ़ ख़याल-ए-यार होता है मैंने ज़ाहिदा से तुम्हारा ज़िक्र किया और उस से कहा कि तुम्हारे बाद अगर कोई हस्ती मुझे अज़ीज़ है तो वो मेरा दोस्त सआदत है।”
“ये कहने की क्या ज़रूरत थी?”
“बस, मैंने कह दिया और ज़ाहिदा ने बड़ा इश्तियाक़ ज़ाहिर किया कि मैं तुम्हें उस से मुलाऊं। उसे मेरी वो चीज़ पसंद है जिसे मैं पसंद करता हूँ बोलो, चलोगे अपनी भाबी को देखने।”
मेरी समझ में कुछ न आया कि उस से क्या कहूं उस के पतले पतले नाज़ुक होंटों पर लफ़्ज़ भाबी सजता नहीं था।
“मेरी बात का जवाब दो”
मैंने सरसरी तौर पर कह दिया “चलेंगे ज़रूर चलेंगे पर कहाँ?”
“उस ने मुझ से कहा था कि कल वो शाम को पाँच बजे किसी बहाने से लौरंस गार्डन आएगी आप अपने प्यारे दोस्त को ज़रूर साथ लाईएगा अब तुम कल तैय्यार रहना बल्कि ख़ुद ही पाँच बजे से पहले पहले वहां पहुंच जाना। हम जिमखाना कलब के इस तरफ़ लॉन में तुम्हारा इंतज़ार करते होंगे।”
मैं इनकार कैसे करता, इस लिए कि मुझे जावेद से बेहद प्यार था मैंने वाअदा कर लिया लेकिन मुझे उस पर कुछ तरस आरहा था मैंने उस से अचानक पूछा “लड़की शरीफ़ और पाकबाज़ है ना”
जावेद का चेहरा ग़ुस्से से तिमतिमाने लगा। “मैं ज़ाहिदा के बारे में ऐसी बातें सोच सकता हूँ न सुन सकता हूँ तुम्हें अगर उस से मिलना है तो कल शाम को ठीक पाँच बजे लौरंस गार्डन पहुंच जाना ख़ुदा हाफ़िज़”
जब वो एक दम उठ कर चला गया तो मैंने सोचना शुरू किया। मुझे बड़ी नदामत महसूस हुई कि मैंने क्यों उस से ऐसा सवाल किया जिस से उस के जज़्बात मजरूह हुए आख़िर वो उस से मुहब्बत करता था। अगर कोई लड़की किसी से मुहब्बत करे तो ज़रूरी नहीं वो बद-किर्दार हो।
जावेद मुझे अपना मुख़लिस तरीन दोस्त यक़ीन करता था यही वजह है कि वो नाराज़ी के बावजूद मुझ से ब्रहम न हुआ और मुझ को जाते हुए कह गया कि वो शाम को लौरंस गार्डन आए।
मैं सोचता था कि ज़ाहिदा से मिल कर मैं उस से किस क़िस्म की बातें करूंगा बे-शुमार बातें मेरे ज़ेहन में आईं लेकिन वो इस क़ाबिल नहीं थीं कि किसी दोस्त की महबूबा से की जाएं मेरे मुतअल्लिक़ ख़ुदा मालूम वो उस से क्या कुछ कह चुका था यक़ीनन उस ने मुझ से अपनी मुहब्बत का इज़हार बड़े वालहाना तौर पर क्या होगा ये भी हो सकता है कि ज़ाहिदा के दिल में मेरी तरफ़ से हसद पैदा होगया हो क्योंकि औरतें अपने आशिकों की मुहब्बत बटते नहीं देख सकतीं। शायद मेरा मज़ाक़ उड़ाने के लिए उस ने जावेद से कहा हो कि तुम मुझे अपने प्यारे दोस्त से ज़रूर मिलाओ।
बहरहाल मुझे अपने अज़ीज़ तरीन दोस्त की महबूबा से मिलना था उस तक़रीब पर मैंने सोचा, कोई तोहफ़ा तो ले जाना चाहिए रात भर ग़ौर करता रहा आख़िर एक तोहफ़ा समझ में आया कि सोने के टॉप्स ठीक रहेंगे अनारकली में गया तो सब दुकानें बंद, मालूम हुआ कि इतवार की तातील है लेकिन एक जौहरी की दुकान खुली थी। उस से टॉप्स ख़रीदे और वापस घर आया। चार बजे तक शश-ओ-पंज में मुबतला रहा कि जाऊं या न जाऊं। मुझे कुछ हिजाब सा महसूस हो रहा था लड़कियों से बे-तकल्लुफ़ बातें करने का में आदी नहीं था, इस लिए मुझ पर घबराहट का आलम तारी था।
दोपहर का खाना खाने के बाद मैंने कुछ देर सोना चाहा मगर करवटें बदलता रहा टॉप्स मेरे तकीए के नीचे पड़े थे। ऐसा लगता था कि दो दहकते हुए अंगारे हैं उठा ग़ुस्ल किया। इस के बाद शैव फिर नहाया और कपड़े बदल कर बड़े कमरे में क्लाक की टिक टिकट सुनने लगा।
तीन बज चुके थे। अख़बार उठाया मगर उस की एक ख़बर भी न पढ़ सका अजब मुसीबत थी। इश्क़ मेरा दोस्त जावेद कर रहा था और मैं एक क़िस्म का मजनूं बन गया था।
मेरा बेहतरीन सूट रैंकन का सिला हुआ मेरे बदन पर था। रूमाल नया। शो भी नए मैंने ये सिंघार इस लिए किया था कि जावेद ने जो तारीफ़ के पुल ज़ाहिदा के सामने बांधे हैं कहीं टूट न जाएं।
साढे़ चार बजे में उठा अपनी रेले की सब्ज़ साईकल ली और आहिस्ता आहिस्ता लौरंस गार्डन रवाना होगया जिमखाना कलब के उस तरफ़ लॉन में मुझे जावेद दिखाई दिया वो अकेला था उस ने ज़ोर का नारा बुलंद क्या मैं जब साईकल पर से उतरा तो वो मेरे साथ चिमट गया, कहने लगा “तुम पहले ही पहुंच गए बहुत अच्छा किया ज़ाहिदा अब आती ही होगी मैंने उस से कहा था कि मैं अपनी कार भेज दूँगा मगर वो रज़ामंद न हुई। तांगे में आएगी।”
जावेद के बाप की एक कार थी। बेबी ऑस्टन, ख़ुदा मालूम किस सदी का मॉडल था ज़्यादा तर ये जावेद ही के इस्तिमाल में आती थी। लौरंस गार्डन में दाख़िल होते वक़्त ये अजूबा-ए-रोज़गार मोटर देख ली थी। मैंने उस से कहा “आओ बैठ जाएं”
लेकिन वो रज़ामंद न हुआ मुझ से कहने लगा “तुम ऐसा करो बाहर गेट पर जाओ एक ताँगा आएगा जिस में एक दुबली पतली लड़की स्याह बुर्क़ा पहने होगी तुम तांगे वाले को ठहरा लेना और इस से कहना जावेद का दोस्त सआदत हूँ उस ने मुझे तुम्हारे इस्तिक़बाल के लिए भेजा है।”
“नहीं जावेद मुझ में इतनी जुर्रत नहीं”
“लाहौल वला जब तुम नाम बता दोगे तो उसे चूँ करने की भी जुर्रत नहीं होगी तुम्हारी जुर्रत का सवाल ही कहाँ पैदा होता है यार, ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसी चीज़ होनी चाहिए जिसे बाद में याद कर के आदमी महज़ूज़ हो सके जब ज़ाहिदा से मेरी शादी हो जाएगी तो हम आज के इस वाक़े को याद कर के ख़ूब हंसा करेंगे जाओ मेरे भाई वो बस अब आती ही होगी”
मैं जावेद का कहना कैसे मोड़ सकता था। बादल-ए-नख़्वास्ता चला गया और गेट से कुछ दूर खड़ा रह कर उस तांगे का इंतिज़ार करने लगा जिस में ज़ाहिदा अकेली काले बुर्के में हो।
आधे घंटे के बाद एक ताँगा अंदर दाख़िल हुआ जिस में एक लड़की काले रेशमी बुर्के में मलबूस पिछली नशिस्त पर टांगें फैलाए बैठी थी।
मैं झेंपता, सिमटता डरता आगे बढ़ा और तांगे वाले को रोका उस ने फ़ौरन अपना ताँगा रोक लिया मैंने उस से कहा “ये सवारी कहाँ से आई है”
तांगे वाले ने ज़रा सख़्ती से जवाब दिया “तुम्हें इस से क्या मतलब जाओ अपना काम करो”
बुरक़ापोश लड़की ने मुहीन से आवाज़ में तांगे वाले को डाँटा “तुम शरीफ़ आदमियों से बात करना भी नहीं जानते”
फिर वो मुझ से मुख़ातब हुई “आप ने ताँगा क्यों रोका था जनाब”
मैं हकला के जवाब दिया “जावेद जावेद मैं जावेद का दोस्त सआदत हूँ आप का नाम ज़ाहिदा है ना।”
इस ने बड़ी नरमी से जवाब दिया “जी हाँ! मैं आप के मुतअल्लिक़ उन से बहुत सी बातें सुन चुकी हूँ”
“उस ने मुझ से कहा था कि मैं आप से इसी तरह मिलूं और देखूं कि आप मुझ से किस तरह पेश आती हैं वो उधर जिमखाना कलब के पास घास के तख़्ते पर बैठा आप का इंतिज़ार कर रहा है”
उस ने अपनी निक़ाब उठाई अच्छी ख़ासी शक्ल सूरत थी मुस्कुरा कर मुझ से कहा “आप अगली नशिस्त पर बैठ जाईए मुझे एक ज़रूरी काम है अभी चंद मिनटों में लूट आयेंगे आप के दोस्त को ज़्यादा देर तक घास पर नहीं बैठना पड़ेगा।”
मैं इनकार नहीं कर सकता था। अगली नशिस्त पर कोचवान के साथ बैठ गया ताँगा असैंबली हाल के पास से गुज़रा तो मैंने तांगे वाले से कहा “भाई साहब यहां कोई सिगरट वाले की दुकान हो तो ज़रा देर के लिए ठहर जाना मेरे सिगरेट ख़त्म होगए हैं।”
ज़रा आगे बढ़े तो सड़क पर एक सिगरेट पान वाला बैठा था। तांगे वाले ने अपना ताँगा रोका। मैं उतरा। तो ज़ाहिदा ने कहा “आप क्यों तकलीफ़ करते हैं ये तांगे वाला ले आएगा।”
मैंने कहा “इस में तकलीफ़ की क्या बात है और इस पान सिगरेट वाले के पास पहुंच गया एक डिबिया गोल्ड फ्लेक की ली एक माचिस और दो पान जब पाँच के नोट से बाक़ी पैसे लेकर मुड़ा तो कोचवान मेरे पीछे खड़ा था उस ने दबी ज़बान में मुझ से कहा “हुज़ूर इस औरत से बच के रहिएगा।”
मैं बड़ा हैरान हुआ “क्यों?”
कोचवान ने बड़े वुसूक़ से कहा “फ़ाहिशा है इस का काम ही यही है कि शरीफ़ और नौ-जवान लड़कों को फांसती रहे मेरे तांगे में अक्सर बैठती है।”
ये सुन कर मेरे औसान ख़ता हो गए मैंने तांगे वाले से कहा “ख़ुदा के लिए तुम इसे वहीं छोड़ आओ जहां से लाए हो कह देना कि मैं उस के साथ जाना नहीं चाहता इस लिए कि मेरा दोस्त वहां लौरंस गार्डन में इंतिज़ार कररहा है”
तांगे वाला चला गया मालूम नहीं उस ने ज़ाहिदा से क्या कहा मैंने एक दूसरा ताँगा लिया और सीधा लौरंस गार्डन पहुंचा, देखा जावेद एक ख़ूबसूरत लड़की से महव गुफ़्तुगू है। बड़ी शर्मीली और लजीली थी में जब पास आया तो उस ने फ़ौरन अपने दुपट्टा से मुँह छिपा लिया।
जावेद ने बड़ी ख़फ़्गी आमेज़ लहजे में मुझ से कहा “तुम कहाँ ग़ारत हो गए थे तुम्हारी भाबी कब की आई बैठी हैं।”
समझ में न आया क्या कहूं सख़्त बौखला गया इस बौखलाहट में ये कह गया “तो वो कौन थीं जो मुझे तांगे में मिलीं?”
जावेद हंसा “मज़ाक़ न करो मुझ से बैठ जाओ और अपनी भाबी से बातें करो ये तुम से मिलने की बहुत मुश्ताक़ थीं।”
मैं बैठ गया और कोई सलीक़े की बात न कर सका इस लिए कि मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर वो लड़की या औरत मुसल्लत हो गई थी जिस के मुतअल्लिक़ तांगे वाले ने मुझे बड़े ख़ुलूस से बता दिया था कि फ़ाहिशा है।
(28 मई 1954 ईः)