एक विवाह : संतोख सिंह धीर
Ek Vivah : Santokh Singh Dhir
मेरे एक दोस्त के भाई का विवाह था। यह बात सन् पचास−साठ के आसपास की है। यह कोई बहुत ज्यादा समय तो नहीं हुआ है, पर हमारी रीति रिवाजों पर तब कुछ ज्यादा ही सामंतवादी प्रभाव थे। वैसे अभी भी ये प्रभाव बहुत गहरे हैं।
इसके अलावा दूसरी बात व्यक्तिगत भी होती है। मध्यकाल में भी कोई ऐसे विचारों को निकलने पर आ जाता है, और कोई आज के युग में भी विचारों की जजीरों में ही जकड़ा रह सकता है। इनको निषेधने वाला सूरमा है। दूसरा, चलो कायर तो नहीं, जन साधारण अवश्य दें। पहला नये रास्तों को तलाश करने वाला है, दूसरा है बने बनाये रास्तों पर चलने वाला। पहले वाले को समाज से प्रोत्साहन नहीं मिलता, दूसरे को कुछ साधारण सी वाह वाहा दी जाती है। जिस पर भी, जो कुछ पहला है, दूसरा उस जैसा कुछ कभी भी नहीं हो सकता।
इनमें मेरे दोस्त का पिता पहला आदमी था। इसलिये वह सूरमा था। उसने इस विवाह में सामंतवादी घिसी−पिटी रस्में एक ओर सरका दीं, और उसने असीम बहादुरी का सबूत दिया।
विवाह लुधियाने में था। जाना दोराहा मंडी से था। फासला कुल सोलह मील। केवल इतनी दूरी के लिए ना बस का कोई अधिक खर्च था ना किसी टैक्सी या कार का। पर प्रश्न खर्च का नहीं था, नया रास्ता निकालकर उस पर चलने का था। रेलगाड़ी रोज दोराहे से लुधियाना जाती थी। वैसे भी वे रोज लुधियाना जाते ही रहते थे। आज भी वह रेलगाड़ी से लुधियाना जा सकते थे। आखिर यह कौन सी बात है? लोगों ने यूं ही छोटी सी बात का बतंगड़ बना लिया था। बड़ी बात को छोटी करो। फिर यह है भी छोटी बात। एकदम किसी की व्यक्तिगत बात। इसमें किसी को दखल देने की क्या जरूरत।
ठीक है, बारातें रेल गाड़ियों में भी जाती हैं। सौ-सौ, दो−दो सौ डिब्बे के डिब्बे बुक करवा कर। पर नहीं, यहां यह सब नहीं हुआ। हालांकि केवल सोलह मील का रास्ता था। यह सब भी हो सकता था। पर नहीं, करना ही नहीं था। आमतौर से टिकट लेकर लुधियाना जाना था। जैसे रोज जाया जाता है। आखिर बात ही क्या है यह?
केवल सोलह मील तक ज्यादा आदमी ला जाना भी मुश्किल नहीं था। पर नहीं, नहीं ले जाने थे। क्यों ले कर जाते? पहले बारातें− जाती थीं तो उनके साथ बहुत सारे आदमी जाने का कोई मतलब हुआ करता था। पुरानी राहें हुआ करती थीं। वनों से ढंके घिरे रास्ते। बारातें पैदल या रथ गाड़ियों से जाती थीं। रास्ते में चोर−डाकू बारातें लूट लेते थे। साथ में लोग होते थे तो उनका मुकाबला करते थे। अब वे बातें नहीं रहीं। अब चोर डाकुओं को लूटने के लिए वनों आदि की जरूरत नहीं रही। अब तो भरे बाजारों में भी लोग लूट लिये जाते हैं। इसलिए बारात बिलकुल नहीं थी। दस आदमी भी नहीं थे। केवल मैं और मेरा दोस्त ही बारात में गये थे। तीसरा दूल्हा तो था ही था। मेरे दोस्त का पिता घर में ही बैठा रहा। 'क्या करूंगा मैं जाकर, तुम दोनों जाओ और लड़के को ब्याह लाओ!'
हमने टिकट खरीदे और गाड़ी में जा बैठे। दूल्हे के गुलाबी पगड़ी बांध दी थी। गोटे के तार भी कुछ सिर पर सज रहे थे। सामंतवाद का सभी कुछ तो उखाड़ फेंकने वाला नहीं है। अच्छी बातें तो अवश्य ही अपनाई जाने वाली होती हैं।
मेरे दोस्त के पिता ने यह साफ कह दिया था कि विवाह में कोई किसी तरह का लेन−देन नहीं होगा। ना टूम−छल्ला होगा, और न दान−दहेज। बस हम जायेंगे और लड़की को ले जायेंगे। बारात नहीं होगी। बस, दो−एक आदमी हम बारात में आयेंगे। विवाह बिलकुल सादे ढंग से और बिना आडम्बर के होगा। पर लड़की वाले समझे कि ऐसा तो कहा ही जाता है, करना सब कुछ पड़ता है। इसलिए उनकी ओर से सारे कामों की पूरी तैयारी की गई थी।
गाड़ी अपने समय के अनुसार लुधियाना पहुंच गई। बारात के स्वागत के लिये पच्चीस−तीस लोग स्टेशन पर इकट्ठा थे। पर बारात कहां थी? पर जब उन्होंने हम तीनों को देखा तो ऐसे उनका उत्साह काफूर हो गया। 'हैं, केवल तीन जने! उसमें भी एक तो दूल्हा ही है। दस बाराती भी नहीं हैं! हम तो पचास−साठ की प्रतीक्षा कर रहे थे।'
दस पंद्रह तांगे उन्होंने बुक किये हुये थे। पंद्रह बीस आदमियों वाला बैंड बाजा भी आया था। इन सबका अब वह क्या करें?
एक तांगा रखा गया। शेष सभी को जवाब देना पड़ा। तांगे वाले खुद ही यह सब देख कर मुस्कराये थे।
बैंड बाजा रखा गया। वैसे यह अजीब सी बात थी। बैंड के पीछे केवल एक तांगा चला जा रहा हो। बैंड के पीछे जितनी लम्बी बारात हो, उतना ही अच्छा लगता है। बैंड भी साधारण नहीं था। बढ़िया वर्दी वाला था। क्या किया जा सकता था।
हमें भी वह महसूस हुआ। जब हम केवल तीन ही थे तो हमारा इस प्रकार जुलूस नहीं निकलना चाहिए था। हमें तो केवल साधारण तरीके से ही लेकर जाना चाहिये था। पर कौन मानने वाला था। बारात की तरफ से कम संख्या में जाना तो हमारे बस की बात थी पर बाजा बजे या न बजे, यह हमारे बस के बाहर के बात थी। हमने यह भी कहा कि हम बाजे वालों की उनकी रकम दे देते हैं, पूरी रकम दे देते हैं, और ये पैसे लड़के वाले ही देते भी हैं, पर वे बाजा न बजवाएं। उनको पैसे ही चाहिए ना। पैसे लें और चले जायें। पर वह नहीं माने। एक बात पर हम अपनी मर्जी से आये हैं तो एक बात अब उनकी हमें भी माननी पड़ेगी। फिर विवाह वाले घर के पास लोग−बाग बारात आते हुये भी देखना चाहते हैं। बाजे के बिना बारात कैसी?
हमें यह बात माननी पड़ी। हम एक तांगे में तीनों जने बैठ गये। हमारे आगे दूल्हा बैठा था। पीछे में और मेरा दोस्त। जेल रोड़ की तरफ जाना था। यह अच्छा हुआ कि चौड़े बाजार की ओर से हो कर नहीं जाना था। पर जेल रोड की ओर जाना भी कोई भली बात नहीं था। लोग हमें देखते और मुस्कुरा देते। केवल एक तांगा! आगे बैंड बाजा, पीछे भी स्वागत करने वाले काफी लोग हैं, पर बारात......
बारात बड़ी हो तो हर बाराती चाहता है कि देखने वाले उसे देखें। हम थे कि चाहते थे कि हमें कोई भी न देखे। पर लोग थे कि जान−जान कर हमें देखना चाहते थे। कि यह बाराती कौन हैं जो केवल तीन ही जने हैं। इसके आगे इतना बड़ा बाजा क्यों बज रहा है? क्या वह इस योग्य हैं कि इतना बड़ा बाजा इनके आगे बजे?
घर के पास पहुंच गये। यहां एक चौराहा था। दाहिनी ओर एक मकान के ऊपर विवाह का घर था। और बाईं ओर, एक स्कूल में, हमारे लिये जनवासा था। आज शनिवार था। हम शाम को आये थे। कल इतवार शाम को विदा हो जाना था। बारात बड़ी होगी इस आशा में स्कूल का प्रबंध किया गया था। वरना हम तीन को उतारने में कोई समस्या नहीं थी। किसी की भी बैठक में ठहराये जा सकते थे।
अब हम चाहते थे कि हमें फौरन हमारे फेरे पर पहुंचा दिया जाये और जलूस न निकाला जाये। बहुत लज्जित हुये थे। यह रास्ता बहुत बड़ा नहीं था, पर बाजे के पीछे धीरे−धीरे ही तांगा बढ़ रहा था। पर नहीं, अभी कसर बाकी थी। विवाह के घर के सामने हम चौक में आ गये थे। वहां बहुत से लोग हमें देखने के लिए इकट्ठा थे। क्योंकि हम बाराती थे और हमारे साथ दूल्हा भी था। इसीलिए हम अच्छी तरह से देखे जाने योग्य थे।
यहां तांगा रुका और बाजा बजने लगा। लोगों की भीड़ हमें उचक−उचक कर देख रही थी। इधर−उधर छज्जों में से भी, औरतें और मर्द ताक रहे थे। अब कोई चारा नहीं था। हम थोड़े ही सही, मगर ताके जाने के काबिल तो थे ही। क्योंकि हम बाराती थे।
आखिर हमें जनवासे पर उतार दिया गया।
साठ−सत्तर खाटें यहां आंगन में खड़ी थीं। टब था, साबुन थे, दातून का बंटल और अन्य जरूरी सामान थे। हमने केवल तीन खाटें आंगन में डाल लीं थी। शेष वैसी ही खड़ी रहीं।
रात को रोटी खाने गये। फिर आगे−आगे बाजा था। हमारे लिये ये बाजा बहुत मुसीबत बना हुआ था। बाजे के पीछे चलते हुए हम अच्छे नहीं लग रहे थे। अगर हम अधिक संख्या में होते तो ठीक था। बाजे वाले बहुत और बारात... केवल तीन जने। जमाने से निराली बात थी। लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही थी। इसलिए वे मुस्कुराते थे।
अगले दिन फेरे पड़ने थे। उस दिन फिर हमें बाजे के पीछे जाना था। बाजा ही मुसीबत थी। बिना बाजे के जाना हमें खराब नहीं लगता। आम लोगों की तरह ही हम आते−जाते रहते− चाहे देखते या नहीं। पर बाजा हमें आम लोगों से अलग कर देता और हम आम लोगों का ध्यान खींचने लग जाते। हमें बहुत शर्म लगती।
हमें तो तकलीफ केवल बाजे के कारण हो रही थी, जलूस जैसा निकलने के कारण और इस तकलीफ के कारण हममें सच्चाई भी बहुत थी, कम लोग आये हैं तो बाजे की क्या जरूरत है जबकि पहले से ही सब कुछ बता दिया गया था, पर दूसरी और दूसरी तरह की तकलीफ थी। वहां वह तकलीफ थी कि हम कम संख्या में क्यों आये हैं। और यह तकलीफ बहुत दूर तक पहुंची हुई थी।
लड़की का बाप यह सुन कर कि बारात आई ही नहीं हैं, केवल तीन लोग हैं, और उनमें भी एक दूल्हा है, सिर धुन कर बैठ गया और फिर लेट गया और ऊपर से चादर ओढ़ ली। केकई भी खटपाटी लेकर क्यों न लेटी होगी, जैसे वह लेटा हुआ था। मुंह भी ढका हुआ था और पैर भी ढके हुये थे। सामने दरवाजे के बाहर आंगन में, फेरे के लए प्रबंध था। लगता था जैसे उसमें सांस खत्म हो गई है। एक अंतर अवश्य था, ऊपर सफेद चादर के स्थान पर खाकी चादर पड़ी थी। अन्यथा वह एक लाश की तरह पड़ा था।
जब हम आये, तब भी वह उसी तरह पड़ा था, फेरे पड़ते समय भी वह उसी तरह पड़ा रहा। शायद वह बताना चाहता था कि देखो, बारात में कम लोगों के आने का उसे कितना दुःख है। वह मरे के बराबर है। इज्जत ही नहीं रही जब उसकी आस पास में!
यह बात हालांकि उसके हम में भी थी। वह कोई बहुत खाता−पीता या धन कुबेर नहीं था। एक छोटे से स्कूल में एक छोटा सा अध्यापक था। पर यह संस्कार थे जो उसे यमदूतों की तरह दबाये पड़े थे। कितने शक्तिशाली थे ये यमदूतों से संस्कार!
इस बात से मेरे दोस्त का पिता बहुत बहादुर था। उसके पास उस किस्म का कोई पाप नहीं आया था। उसकी गर्दन अब तो और भी ऊंची और तनी हुई थी।
कुछ दिनों के बाद जब दोनों कुनबे इकट्ठे हुए तो दोनों में कुछ इस प्रकार का वार्तालाप हुआः लड़की वाला बोला, 'सरदार जी आप क्यों नहीं आये? ना ही आपने बारात भेजी, मेरी बहुत बदनामी हुई!'
'मुझे आकर क्या करना था? फिर बारात काहे के लिए भेजता, जैसी बात हुई थी उसके अनुसार हमें काम करना था। और उसी के अनुसार किया गया। बदनामी काहे की हो गई? यह बताओ कि तुमने खटपाटी क्यों ओढ़ ली थी आखिर खटपाटी पड़ जाने की इसमें कौन सी बात थी?'
'आखिर पास−पड़ोस का भी तो ध्यान रखना ही पड़ता है!'
पास पड़ोस क्या है? आप मेरे, और मैं आपका पड़ोसी हम स्वयं ही एक दूसरे से डरते चले जा रहे हैं।'
मेरे दोस्त का पिता वैसे तो आम आदमी जैसा ही था, पर बात बहुत ऊंची कही थी। उसकी इस दलील के आगे समधी निरुत्तर हो गया था।
(अनुवादकः स्व. घनश्याम रंजन)