एक उदास पेंटिंग की कहानी (कहानी) : प्रकाश मनु

Ek Udaas Painting Ki Kahani (Hindi Story) : Prakash Manu

1

उस दिन श्रीराम कला केंद्र के ‘बुक कॉर्नर’ पर किसी ने धीरे से पीठ पर हाथ रखा और मैंने पीछे मुड़कर देखा तो खुशी से भरी चीख सी निकल गई—“अरे, नीरजा!”

नीरजा हँसी। एक मीठी-मीठी सी हँसी—“हाँ जी, फिलॉसफर।”

मैं कितनी दफा उससे कह चुका हूँ कि मेरा न फिलॉसफी से कोई लेना-देना है और न उन खास किस्म के अकादमिक विचारों से जिन्हें विमर्श आदि-आदि कहते हैं! मैं तो बस ठेठ और एकसार सा लेखक हूँ जो लिखता है। बस लिख लेता है, क्योंकि लिखे बगैर नहीं रह सकता!

पर जवाब में नीरजा की वही बिंदास सी हँसी—मेरे धुर्रे उड़ाती हुई!

झूठ क्यों कहूँ शुरू-शुरू में उसके आभिजात्य से बड़ी चिढ़ सी थी। और उसे मैं प्रकट करने का कोई न कोई बहाना ढूँढता था। फिर जब उसने कविताएँ लिखना बंद करके पेंटिंग्स शुरू कीं और उनमें एक अदद काली बिल्ली अकसर नजर आने लगी तो मैंने बेहद कड़वी हँसी और तंज के साथ उसका मजाक उड़ाया।

मैंने सोचा नीरजा अब उखड़ेगी पर उसने मुझे अहसास कराया कि मुझमें शायद यही है जो उसे सबसे ज्यादा पसंद है।...कि इसमें अपने आसपास या भीतर-बाहर सब कुछ तोड़ने...सब कुछ तोडफ़ोड़ देने और फिर कुछ बनाकर, फिर सब कुछ तोड़-फोड़ देने की दुर्दांत ध्वंस-इच्छा छिपी हुई है! इसे आप सभ्य, चिकने-चुपड़े लोग अराजकता या सिनिसिज्म कहकर भले ही खिल्ली उड़ाएँ, मगर नीरजा इसे जानती थी, समझती थी बल्कि कहिए कि सिर्फ वही समझती थी। और आज जबकि वह चली गई है, मैं कह सकता हूँ, नीरजा मेरी ‘ध्वंसेच्छा’ को ही सबसे ज्यादा प्यार करती थी। और मैं...सच्ची बताऊँ तो मुझे भी पुरुष-सत्ता या इस पूरे समाज के प्रति उसका तंज या कटूक्तियाँ सुनकर ही मजा आता था, फिर चाहे उनमें कभी-कभी मुझ पर सीधा, एकदम सीधा वार ही क्यों न हो।

ये चीजें, मैं समझता हूँ, भाषा में...दुनिया की किसी भी भाषा में लिखी नहीं जा सकतीं। तो भी, कोशिश करता हूँ—करनी पड़ेगी, क्योंकि कहानी असल में नीरजा की है! उस नीरजा की जो बस, राह चलते मुझे मिली तो थी, और जब मिली तो...

मुश्किल से छह या आठ महीनों में ही हम इतने ज्यादा एक-दूसरे से परच गए थे कि एक-दूसरे की खूबियाँ और एक-दूसरे की कमजोर नसें भी अच्छी तरह जानने लगे थे। जब चाहते, एक-दूसरे को तिलमिला देते। जब चाहे आसमान पर पहुँचा देते।

2

“सुधाकर, तुम्हारे भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा है। मैं उसके धमाके, विस्फोट, गरम लावा हर क्षण महसूस करती हूँ—तुम्हारी बातों में!” ऐसे ही एक दिन बहुत गंभीर और भावविह्वल होकर उसने कहा था।

वह आरामकुर्सी पर पीठ टिकाकर बैठी थी और उसकी आँखें, उसकी उत्सुक, अधीर लेकिन कुछ-कुछ चौकन्नी आँखें देखते-देखते मेरे माथे पर टँग गईं।

“वह तो बल्कि तुममें है, गो कि वह एक शांत ज्वालामुखी है। तुम कहती नहीं हो नीरजा, मगर तुममें...तुममें कुछ कर गुजरने का हौसला कहीं ज्यादा है। मैं तो बस जलता ही रहता हूँ। और सिर्फ जलने से, जलते ही चले जाने से क्या होता है अगर...!”

“अगर...तुम जैसा हौसला और पुख्तगी न हो! मैं तो...बस अधपागल, मूरख, नासपीटा—कहो, कहो न! पूरी करो अपनी बात।”

नीरजा हँसी, ऐसी हँसी जिसे हम-तुम सिर्फ विज्ञापनों में ही देखते हैं।

फिर मैंने काँप-काँपकर उखड़े-पुखड़े शब्दों में अपनी बात पूरी करनी चाही तो मेरे होंठ कुछ टेढ़े-मेढे़, अजीब और हास्यास्पद हो गए।

ऐसे क्षणों में न जाने क्या होता कि नीरजा की आँखों में हलकी-हलकी भाप सी उड़ने लगती। अपने खूबसूरत लंबे केशों को लगभग मेरे कंधों और छाती पर छितराते हुए, वह मेरे कंधे पर सिर रखकर कुछ ऐसा कहती जो ज्यादा समझ में तो न आता, पर इतना जरूर उससे पता चलता कि हम सहयात्री हैं किसी और ही दुनिया के!

उद्वेगों और मेरे भीतर की छटाक-पटाक पर वह कभी-कभी मीठी चुप की उँगली भी लगा दिया करती थी, जैसे उबलते हुए ज्वालामुखी का लावा सिर्फ एक कौतुकी स्पर्श से थाम लिया गया हो! फिर वह हँस देती, एक ऐसी हँसी, जिसकी उपमा फिलवक्त मैं नहीं बता सकूँगा। हाँ, हँसते-हँसते उसके होंठ ही नहीं, आँखें भी मीठी शहदीली हो जाती थीं और गाल सुर्ख गुड़हल की तरह लाल, सुर्ख लाल। बस, इतना ही याद है!

ऐसे ही हँसते-हँसते उसने एक बहुत गाढ़े, जुनूनी सपने में, जब मैं कहानी पूरी करने के बाद मस्ती से कुलाँचें भर रहा था, खेल-खेल में मेरे हाथ से पैन छीना और बड़े ‘धीरजवान’ अक्षरों में इस कहानी का शीर्षक बदलकर छोटा कर दिया था—‘एक उदास पेंटिंग की कहानी’। मेरे होंठ प्रतिरोध के लिए खुले ही थे कि मोहतरमा, यह तो मेरी कहानियों के शीर्षकों जैसा शीर्षक नहीं है, तो उसने हँसकर मेरे होंठों पर फिर वही गुपचुप उँगली रख दी थी—“शीs!...चुप! अब यही चलेगा।” और सच्ची-मुच्ची घोड़े की अलमस्त टापें वहीं थम गई थीं!

‘एक उदास औरत की कहानी और एक काली बिल्ली’—अपनी समझ से मैंने जो यह खासा लंबा और प्रयोगात्मक नाम सोचा था—उसकी यों पलभर में छुट्टी, एकदम छुट्टी हो गई।

तो यह तो रही शीर्षक की कहानी।

अब अगली कहानी, यानी...? जी नहीं, ताजमहल पर गाने वाला जादुई संगीतकार यानी नहीं! मुझे उससे क्या लेना-देना। मेरे भीतर के गरीब ताजमहल के झुलसे हुए पत्थरों ने तो सिर्फ नीरजा का गाना ही सुना है—गो कि वह कभी गाती नहीं। और वह अगर कभी गाए तो मुझे पक्का यकीन है, वह बहुत बेसुरा गाएगी।

...मगर वह गाती है। गाती नहीं, कूकती है। बल्कि मेरे मन की डालों को तो उसी ने कूक-कूककर पागल किया है। वह गाती है क्योंकि वह नीरजा है। या शायद सच यह है—क्योंकि वह नीरजा है इसलिए गाती है। मुझ जैसे औघड़ बसंत ने, जो कुछ न होकर भी बहुत कुछ होने के अपने दंभ और दर्प और पागलपन से कभी बाहर निकला ही नहीं, पहलेपहल उसी का गाना सुना था। और सुनते ही लगा था कि हाँ, कुछ है! कुछ न कुछ तो है, जिससे यह दुनिया अपनी सारी कमीनगियों और आपाधापी के बावजूद मुलायम है, मीठी है, दिलकश है। सिर से लेकर पैर के हलके गुलाबी तलुओं तक लयात्मक है, ठीक नीरजा की तरह!

नीरजा मेरी कौन लगती थी? नीरजा मेरे लिए क्या है? मेहरबानी करके ऐसे सवाल न पूछिए। मुझे इनका जवाब देने में भयानक दिक्कत आती है, बल्कि दिक्कत...? सच तो यह है कि मेरी नसें चटचटाने लगती हैं। फिर भीतर वही टूट-फूट शुरू हो जाती है, वही ‘दगड़-रगड़ दन्न...न!’ और वही सब जिससे मैं बचना चाहता हूँ। मुझे तो सिर्फ इतना ही पता है कि अचानक मेरे जीवन में हवा के झोंके की तरह चली आई नीरजा कोई थी, जिससे मुझे बचाने की भरसक कोशिश उसने की और खुद को मुझ पर पूरी तरह फैलकर छा जाने दिया। मुझे ‘अपनी दुनिया’ में खींचकर ले जाने की हरचंद कोशिश की...असफल हुई और चली गई।

कई बरसों से उससे मेरी मुलाकात नहीं हुई। इसीलिए मैंने ‘थी’ कहा कि नीरजा मेरी कौन लगती थी? पर वह है, मेरे इर्द-गिर्द...बल्कि मेरे हर तरफ है, मेरी साँस-साँस में। जब चाहूँ, मैं उसे छू सकता हूँ, वह मुझे! वह एक दिन अंतत: दिल्ली छोड़कर शिमला चली गई, तब भी...

वहाँ से सिर्फ एक मुँह चिढ़ाती हुई चिट्ठी ढाई-तीन लाइनों की उसकी आई है—एक ‘टालू’ पोस्टकार्ड! ‘न’ से बदतर।

लेकिन यह मैं कभी नहीं भूल पाया, आज तक—कि वह है। मैं जब चाहूँ उसे छू सकता हूँ, उससे बोल-बतिया सकता हूँ, इसीलिए वह है।

नीरजा एक साथ मेरा अतीत, मेरा वर्तमान भी है। और भविष्य...?

3

मंडी हाउस की उस संक्षिप्त सी मुलाकात के बाद जब मैंने अपने कंधे पर उसका नरम हाथ महसूस किया था, और उसने बड़े सीधे और सादा लफ्जों में चाय ऑफर की थी कुछ घटा था। बेमालूम सा कुछ। हालाँकि वह नाकुछ ही था। और हम कुछ पढ़ी हुई किताबों, निजी सनकों और अपनी अच्छी-बुरी आदतों पर बात करते रहे थे। बातें, बातें और बातें, जिनका कोई ओर-छोर न था। और पहली बार महसूस किया कि बातों में कुछ ऐसी मिठास भी होती है कि लगता है, वे कभी खत्म ही न हों!

जब हम उठे, शाम घिर आई थी और अँधेरे और रोशनी की शहतीरों का ‘खेल’ चालू हो गया था।

और उधर मेरे भीतर एक ही नाटक चालू था—सवालों और सवालों और सवालों का खेल!

नीरजा इस कदर मेरे चारों तरफ क्यों है? उसकी एक-एक शब्द को पीती हुई उत्सुक, अधीर लेकिन बहुत-बहुत चौकन्नी आँखें। उसके बालों की खुशबू...और उससे भी बढ़कर उसकी बातों की खुशबू! यह क्यों है, यह क्या...? मैंने अपने आपसे पूछा था।

सवालों और सवालों और सवालों का जंगल। यानी कि आप देखिए कि यह क्या होता है कि मैं उस निहायत भद्र महिला की उच्च कुलीन संभ्रांतता से बेहद-बेहद नफरत करते हुए, साहित्य अकादमी के बाहर जो काली, कद्दावर पुश्किन की मूर्ति है न, उसके ठीक नीचे की घास से अदावत करती हलकी नीली बुँदकियों वाली उसकी कीमती सफेद साड़ी पर ठठाकर हँसते हुए—कहना चाहता था कि—‘नीरजा हमारे रास्ते अलग-अलग हैं।’ मगर कह गया कुछ और!

कुछ और! जिसके लिए मुझे कामायनी की श्रद्धा के ‘नील परिधान बीच सुकुमार...’ और रघुवीर सहाय के ‘एक रंग होता है नीला...’ की दुनिया में जाना पड़ा था।

जो कहा था, उसका एक-एक शब्द अब भी पूरे उतार-चढ़ाव के साथ, यहाँ तक कि उस पर नीरजा की सलज्ज प्रतिक्रिया यानी उसके चेहरे की पूरी ‘अरुण-अरुण’ भाव-भंगिमा तक मुझे अब भी ज्यों की त्यों याद है। पर माफ कीजिए, अपनी कुछ बुनियादी मानव-दुर्बलताओं की वजह से, मैं उन्हें लिख नहीं पा रहा। असल में अब आपसे क्या छिपाना, नीरजा ने ही मुझे इस सबके लिए रोका था। और जाने क्यों जहाँ उसने मुझसे ही पैन उधार माँगकर, मेरे ही पैन से ‘न’ की लकीर फेर दी, वहाँ ‘हाँ’ लिखने की हिम्मत मुझमें अब भी नहीं है!

मगर...इस खेल के पीछे कोई और भी खेल था! यानी हम अपनी तरह से खेलते हैं और प्रकृति अपना विराट हरियाला हाथ फैलाकर हमें उस पर धरपटक करती, अपनी तरह से खिलाने लगती है—कोई और, कोई और ही खेल! मिट्टी के राजा-रानी या कपड़ों की रंग-बिरंगी थिगलियों से बने गुड्डे-गुड़िया वाला।

क्या ‘यह जो प्रकृति है’ यह भी कुछ सोचती है? सोचकर खिलाती है हमें खेल? कौन जाने! लेकिन फिर नीरजा! उसके पास आने और धीरे-धीरे रेशा-रेशा मुझ पर छा जाने की वजह?...क्या सिर्फ इसलिए कि नीरजा चित्रकार है और नीले और मटमैले रंगों के मिश्रण से कुछ ऐसे शोकपूर्ण या उदास किस्म के चित्र बनाया करती थी जिनमें मेरी खास दिलचस्पी थी? लेकिन चित्रकार या चितेरियाँ बहुत होती हैं इस दुनिया में, मगर वे सब की सब नीरजाएँ तो नहीं होतीं?...हो भी कैसे सकती हैं! नीरजा तो एक होती है—बमुश्कित एक—हर किसी की जिंदगी में! आप अपना दिल टटोलिए साहब! और फिर एक दिन वह ऐसे चली गई जैसे कभी थी ही नहीं। क्या यह भी प्रकृति के उस दुर्दांत खेल का ही कोई अदेखा, अनिवार्य हिस्सा है?

तो फिर उसके शब्दों की वह खुशबू जो मेरे इर्द-गिर्द बिखरी हुई है, और उसके उन लहरीले साँप जैसे खूबसूरत बालों की खुशबू जो उसने विमुग्ध तंद्रा की हालत में कभी मेरे कंधे पर छितराए थे, और वे उठी हुई उत्सुक, अधीर, मगर बहुत-बहुत चौकन्नी आँखें...जिनमें किसी एक अनाविल क्षण में सृष्टि का समूचा विस्मय समा गया था! और उससे छूट निकलने की कोशिश में अचानक मैं चीखा था—मैं कहाँ हूँ...? कहाँ!

बहरहाल, यह तो बाद की बात है और इसे बार-बार दोहराने से फायदा भी क्या? मुझे तो उन दिनों की कथा-कहानी चाहिए, जब नीरजा को मुझसे, मुझे नीरजा से मिले बगैर चैन ही न था। हालाँकि हमारी बातें कोई बहुत ‘सॉफ्ट...सॉफ्ट...’ या मुलायम और नशीली किस्म की नहीं होती थीं। मौका पड़ने पर हम एक-दूसरे को खूब जली-कटी सुनाने से भी न चूकते। मगर इस जली-कटी का भी अपना मजा था। कुछ दिनों तक कान में ऐसे छेदते हुए तीखे, तल्ख बल्कि गरम भाप की तरह जलाते शब्द न पड़ते, तो कान शिकायत करने लगते, ‘कुछ गड़बड़ है, कहीं कुछ बड़ी गड़बड़...!’ और फौरन हम दीवानावार हाथ फैला-फैला एक-दूसरे को ढूँढना शुरू कर देते! ताकि...ताकि गालियाँ...!

उफ, गालियाँ! जिंदगी की कितनी बड़ी जरूरत हैं वे, अगर सच्ची हों!

4

उन्हीं दिनों का किस्सा है, जब कई दिनों तक ‘भीतर की पुकार’ पर नीरजा से मुलाकात नहीं हुई, तो ‘ट्रांस’ ने पहले हलकी ‘टिक-टिक, टिक-टिक’ करके बताया फिर एकाएक अलार्म बजाकर सावधान कर दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ है, सुधाकर! कहीं कुछ बड़ी गड़बड़!

इस तरह के ‘लाल गूँजदार सिग्नल’ एक के बाद एक आ रहे थे तथा भय और चिंता के मारे मेरा गला सूख रहा था। मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ता जा रहा था और दवाएँ काम नहीं आ रही थीं। मित्रों ने चिट्ठियाँ लिख-लिखकर ‘डिप्रेशन’ की दवाएँ सुझाईं, जिन्हें वे स्वयं आजमा चुके थे और जो हर तरह से ‘खतरे’ और ‘आफ्टर इफेक्ट’ वगैरह से मुक्त थीं। मगर वे चिट्ठियाँ मेज पर पड़ी-पड़ी धूल खाती रहीं, मैंने उनकी ओर देखा तक नहीं। और बार-बार दुखी और कातर होकर भीतर-बाहर की हर चीज, हर शै से पूछता, ‘ओ री प्रकृति, ओ! तेरे खेल में यह गड़बड़ कहाँ से हुई? तू बता न, कि यह जो नीरजा है, यह जो, यह जो...!!’

फिर एक दिन पता चला कि वह बीमार है! ओह! मैं विचलित हो उठा—नहीं-नहीं, नीरजा से मिलना ही चाहिए और ऐसे कष्टकारी क्षणों में तो जरूर!

मैं ग्रेटर कैलाश, उसके घर गया तो वह शरीर से नहीं, मन से बीमार नजर आई। खुद में डूबी-डूबी, खोई-खोई, उदास। मैं सोचने लगा—इतना उदास नीरजा को पहले कब देखा था? यह तो सबको पेट भरकर हँसाती और खुशियाँ लुटाती थी, फिर...क्या हुआ उसे?

नीरजा के माथे पर हाथ लगाया, तो उसकी आँखें खामखा गीली होती चली गईं, “नहीं, बुखार तो अब उतरा हुआ है। ठीक हूँ!”

“सच...?” मैंने मुसकराकर देखा उसकी ओर तो सोचा नहीं था कि वह इस कदर टूट जाएगी।

“मैं बहुत अकेली हूँ, बहुत। कभी-कभी तो खुद को खत्म तक कर लेने की इच्छा होती है।”

“ऐसी बात करोगी तो मैं भाग जाऊँगा। चलो, उठो, मुँह धोओ।”

उठकर नीरजा गई तो मैंने कमरे में इधर-उधर नजर डाली। कोने में एक कैनवस था। कैनवस पर अधबना चित्र!...

कुछ और आँख गड़ाकर देखा तो लगा, कोई स्त्री है। तो क्या सेल्फ पोट्र्रेट? हाँ-हाँ, वही। गहरी नीलिमा के भीतर एक औरत...धुँधले अक्स!

...पलटकर नीरजा को देखा, जो अभी-अभी मुँह धोकर पलंग पर आकर बैठी थी, तो किसी विस्मय की तरह पाया कि जो रंग सेल्फ पोट्र्रेट में हैं, वे ही किसी न किसी तौर पर नीरजा में भी! कुछ रंग तो पहले ही नीरजा की नीली साड़ी और चिट्टे चेहरे पर उछल आए थे और कुछ कैनवस के रंग भी उसकी साड़ी पर ता-ता-थैया कर रहे थे। हालाँकि इतनी अस्त-व्यस्त साड़ी और इतनी अस्त-व्यस्त मन:स्थिति में मैंने नीरजा को शायद ही कभी देखा हो।

“हाँ, लेकिन अलग ढंग का। मैं असल में एक उदास औरत का—अपने भीतर की उदास औरत का चित्र बनाना चाहती थी। कुछ-कुछ इंप्रेशनिस्टिक किस्म का चित्र, जिसे तुम हिंदी वाले क्या बोलते हो—प्रभाववादी? यही न!”

“वह तो मैं समझ ही गया था।” मैं हँसा, “लेकिन यह रोग तुम्हें लगा कब?”

“बहुत पहले...दरअसल, शुरू-शुरू में मैं आर्टिस्ट ही बनना चाहती थी। मुझे यामिनी राय और नंदलाल बसु बेहद पसंद थे कभी। फिर छूट गया, जब से साहित्य का चस्का लगा!” नीरजा हँसी है। बड़ी ही फीकी, बेनूर हँसी।

“कभी बताया नहीं पहले?” मैं गंभीर दिखने की भरसक कोशिश करता हूँ।

“तुमने कभी अपने बारे में कुछ कहने का मौका ही कब दिया?” नीरजा कह रही थी तो उसकी नजरों के ‘तंज’ का पीछा करते-करते मेरी आँखें भी एक मधुबनी पेंटिंग पर चली जाती हैं। भीड़ में एक औरत...भीड़ में चीखती हुई एक मामूली औरत। हालाँकि आसपास के वातावरण को गौर से देखें तो रामलीला का दृश्य भी बनता है और चीखती हुई औरत सीता बन जाती है। परंपरा के बाहर की एक और सीता। मधुबनी पेंटिंग में आधुनिकता का हस्तक्षेप!...फिर भी मामला कहीं गड़बड़ाता नहीं लगता। कमाल तो है ही! नीचे नजर डालता हूँ—नीरजा, 1970

“मगर...अब दोबारा से! अचानक इतने बरसों बाद...!” टुकड़ों-टुकड़ों में मैं अपना आश्चर्य जताता हूँ।

“नहीं, अचानक नहीं! मैं...दरअसल तैयारी तो मैं कर ही रही थी। और तैयारी क्या? तैयार तो असल में अपने मन को करना होता है। मैं उसी कोशिश में थी। सुधाकर, असल में तो मैं इतना ढेर सारा अकेलापन महसूस कर रही थी, इसलिए...!” कहते-कहते उसने रूमाल निकाला, माथे का पसीना पोंछा और कैनवस के अधूरे चित्र को देखते-देखते उसमें ऐसी खो गई, मानो वह उसी का एक हिस्सा हो। उसी से पैदा होकर उसी में विलीन हो जाना चाहती हो। और मैं...मैं कोई नहीं, मैं कुछ भी नहीं।”

“कहाँ हो तुम? नीरजा...नीरजा तुम्हें क्या हो गया है?” मैंने चीखना चाहा, पर लगा, आवाज गले से निकल ही नहीं रही।

“महीने, डेढ़ महीने तक लगता है, मैं इसी पेंटिंग में बिजी रहूँगी। और तब तक बाहर निकलना बंद।”

“मेरा आना भी...?” मैंने पूछा तो शरारत से था, मगर अचानक कोई तार टूट सा गया और मैं उदास हो गया।

“ओ, नहीं...यह तुम क्या कह रहे हो?” उसने बुरा सा मुँह बनाया। फिर जैसे सपने से जागते हुए कहा, “अरे भई, तुम्हारे लिए चाय तो रह ही गई। ठहरो, अभी... अभी लाई।”

“नहीं-नहीं, रहने दो।” मैं जल्दी से जल्दी उठ जाना चाहता था।

“क्यों?” नीरजा विकल हो उठी।

“तुम्हारा इतना उदास-उदास चित्र पीने के बाद अब चाय...? नहीं-नहीं, कुछ दिनों तक तो इस चित्र को ही पिऊँगा चाय की जगह।” असल में नीरजा के आभिजात्य से मैं कुछ आक्रांत हो गया था और यह सब अब ‘अझेलनीय’ होता जा रहा था।

“दुष्ट...!”

नीरजा चाय बनाकर लाई, तब तक मैं कैनवस पर की अधीर औरत से संभाषण करता रहा। दूर-दूर तक अनंत नीलेपन के बीच एक औरत। बहुत उदास, नीले भूरेपन से करीब-करीब ढकी एक औरत। चेहरा हलकी सी लंबाई लिए हुए गोल, शरीर भरा-भरा। मगर एक बुझा-बुझापन उस पर इस कदर हावी है कि लगता है, जरा सी कोई बात करो तो अभी-अभी रो देगी...

और जब वह चाय बनाकर लाई, तो जाने क्यों मुझे लगा कि चाय के कप में वही अधूरी औरत तैर रही है।

“मैं इसे पूरा किए बगैर रह नहीं सकती सुधाकर, मैं...मैं शायद पागल हो जाऊँगी इसके बगैर!”

“मगर...यह तो करीब-करीब पूरी ही है।” मैंने गौर से उसे देखते हुए कहा।

“हाँ...है, मगर इसमें वो बात नहीं सुधाकर, वो...जो मैं लाना चाहती थी।” चाय के कप में तैरती अधूरी औरत अब इतरा रही थी।

चाय पीकर मुझे चुपके से उठ आना बेहतर लगा। लेकिन उठकर बाहर जाने लगा तो नीरजा ने धीमे से कहा, “खाना खाकर जाना। मैंने लछमो से कह दिया है। अब तक बना लिया होगा।”

5

हम बाहर पेड़ों के झुरमुट के बीच बाँस के टट्टर से बनी हवादार कुटिया में जाकर बैठ गए। वहाँ पेड़ के तनों को काटकर बनाए गए ठोस आकारों वाले स्टूल थे। जाने क्यों वे मुझे जँचे नहीं। लगा कि यह पेड़ों का अपमान है। क्या मेनका गांधी से पूछा जाए? मैं सोचता हूँ।

थोड़ी देर में सुरजू—लछमो का बेटा, खाना रख गया। उम्र कोई सोलह-सत्रह साल। काला आबनूसी रंग, नीरजा की किसी ताजा पेंटिंग की तरह। मुझे हँसी आई।

खाने में आलू-गोभी, रायता, फुलके, दाल-चावल, पापड़...खाना खाते समय नीरजा ज्यादातर लछमो और सुरजू की बातें करती रही। वे कोठी के पीछे बने ‘आरामदायक’ सर्वेंट क्वार्टर में बरसों से रहते आ रहे थे। यही था नीरजा का असली परिवार।...

उसी क्षण नीरजा की जिंदगी के एक और अभिन्न हिस्से से परिचय हुआ, यह एक काली बिल्ली थी जिसकी आँखों में बड़ी डरावनी चमक थी। कम से कम मैं उसे देखकर डर गया। लेकिन नीरजा जब उसे गोदी में लेकर प्यार कर रही थी और साथ-साथ खिलाने भी लगी तो लगा—नहीं, इससे डरने की तो कोई बात नहीं।

खाना खाने के बाद एक प्लेट में सौंफ और सुपाड़ी के टुकड़े आ गए। साथ ही एक छोटा-सा खिलौनानुमा सरौंता भी, जिससे नीरजा सुपाड़ी के बने टुकड़ों को और बारीक कतरती जाती थी। सुपाड़ी चबाते हुए नीरजा किसी बात पर हँसी तो मैंने नोट किया आज पहली बार, उसके दाँत बरसों से सुपाड़ी खाते आ रहे हैं।

इस बात की बड़ी साफ पहचान वहाँ अंकित थी! फिर भी मैंने पूछ लिया, “कब से शौक है इसका?”

“सुपाड़ी का...?”

“हाँ...!”

“बहुत पुराना...बहो...त पुराना!” नीरजा ने हँसते हुए कहा, “थोड़े दिन पान का नशा रहा। पान मसाले का भी। मगर...बात बनी नहीं। आप कह सकते हैं, सुपाड़ी को लेकर मेरे मन में कुछ-कुछ वह है जिसे शास्त्रों में अव्यभिचारी प्रेम कहते हैं।”

“ओह...!”

“ओह क्या...?”

“यूँ ही...यूँ ही कुछ याद आया गया!”

“माँ खाती थीं, उन्हें सदा से खाते हुए देखा। अकसर खाना खाने के बाद...या फिर शाम को। घर से बाहर निकलते वक्त भी जरूर चबाती जाती थीं।” नीरजा ने बताया, शायद बात जारी रखने के लिहाज से।

अचानक मैंने पूछ लिया—एक प्रश्न, जिसे मैं बहुत दिनों से भीतर खूँटी पर अटकाए हुए था, “नीरजा, तुमने कभी बताया नहीं अपने बारे में? इतनी बड़ी कोठी में अकेली रहती हो। डर नहीं लगता?”

“डर...?” नीरजा की भौंहें कुछ-कुछ तन गईं, “डर किस बात का...मुझे कोई खा जाएगा?”

लेकिन उसकी भंगिमा जो थी और जो एक मंद-मंद सी शरारत उसके होंठों पर खेल रही थी, उससे साहस थोड़ा खुला।

“नीरजा, माफ करना!” मैंने कहा, “मैं नहीं जानता, मुझे यह सवाल पूछना चाहिए या नहीं, लेकिन...शायद तुम्हें समझने के लिए यह है। तुमने...नीरजा, विवाह नहीं किया?”

“नहीं।”

“कोई विशेष कारण था इसके पीछे या...?”

“नहीं।”

“तो फिर...?”

“बस, नहीं किया! मुझे नहीं समझ में आता, औरत का विवाह करना ही क्यों सहज बात समझी जाती है इस दुनिया में? विवाह करने की तरह विवाह न करना भी तो सहज हो सकता है।” नीरजा के स्वर में कुछ झुँझलाहट है।

“सवाल औरत और मर्द का नहीं है नीरजा।” अपनी बात को थोड़ा साफ करते हुए मैंने कहा, “लेकिन हमारे समाज में आज भी...उन स्त्री-पुरुषों की बात छोड़ दो जिनका किन्हीं कारणों से विवाह नहीं हो सका, इसके अलावा कोई भी औरत या मर्द अगर विवाह नहीं करता और अपनी इच्छा से विवाह नहीं करता, तो उसका व्यक्तित्व कुछ न कुछ खास तो होता ही होगा।”

“उतनी खास तो मैं वैसे ही हूँ, विवाह कर लेती तो भी यकीनन होती।” नीरजा भौंहों में हँसी।

“होतीं,” मैंने टोका, “मगर इतनी नहीं। मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ, क्योंकि पति की इच्छा भी कहीं न कहीं तो उसे बाधित करती है। बल्कि अब तो...” उसकी आँखों से सीधे देखते हुए मैंने कहा, “मैं साफ-साफ कह सकता हूँ, तुम्हारे विवाह न करने का कारण भी यहीं कहीं, इसके आसपास है नीरजा! तुम अपनी इच्छा को हर हाल में सबसे ऊपर रखना चाहती हो और किसी की इच्छा के हिसाब से जीवन जीने, किसी की इच्छा के अनुसार ढल जाने के खयाल से ही तुम्हें दहशत होने लगती है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारे विवाह न करने का यही कारण होगा नीरजा!”

सुनकर नीरजा इस कदर सीरियस हो गई कि मुझे आशंका हुई, “मैंने कुछ गलत कहा नीरजा?”

“नहीं।” वह अब भी जैसे कहीं और थी, कुछ और सोच रही थी। फिर इस घेरे से निकलते हुए उसने कहा, “सुधाकर, तुम थोड़े-थोड़े साइकोपैथ भी मालूम पड़ते हो। चीजों को इस ढंग से सुलझा देते हो कि...!” एक निरर्थक सी हँसी हँसते हुए उसने कहा, “अब यही देखो, मेरे मन में यह बात साफ-साफ इस ढंग से पहले कभी नहीं आई। हालाँकिअब पीछे देखती हूँ तो लगता है, कारण तो कुछ-कुछ इसी तरह का रहा होगा।”

फिर उसकी पूरी कहानी पता चली, “पिता फौज में थे। लेफ्टिनेंट कर्नल। कोई बयालीस बरस के थे, तब चीन के साथ युद्ध में उनकी मौत हुई। और उसके बाद ससुराल में माँ पर सास और जेठानी के भीषण अत्याचार का जो सिलसिला चला, उसमें पहले से ही दुखी माँ और दुखी हुई, टूटी। मैं अकेली माँ की संतान थी। तब दस-ग्यारह बरस की रही होऊँगी। सब देखती थी हालाँकि कह कुछ नहीं सकती थी। कोई चार-पाँच बरस इसी नरक में कटे। फिर माँ ने अपने बचे-खुचे आत्मविश्वास को बटोरकर अलग होने का फैसला किया। संपत्ति को लेकर झगड़े हुए।

“...ससुराल वालों ने सोचा, अकेली औरत है, कहाँ तक लड़ेगी? लेकिन मेरी माँ कमजोर और असहाय बना देनी वाली स्थितियों में रहती हुई भी भीतर से दिलेर थी। शेरनी कह लो! उसने अपने हक की लड़ाई लड़ने का फैसला किया। सुधाकर, कैन यू बिलीव, बारह साल तक मुकदमा चला। पूरे बारह साल...! और इन बारह सालों में उसने न जाने कितनी बार कोर्ट-कचहरी की धूल खाई। वकील के हाथों परेशान हुई...। लेकिन जितनी वह परेशान होती गई, उसका आत्मविश्वास उतना ही बढ़ता गया। वह किसी कटखनी बिल्ली की तरह सख्त और कठोर होती गई। और आखिर वह जीती। यह कोठी माँ ने खुद अपने सामने बैठ-बैठकर बनवाई है।...बस, आखिर के कुछ बरस ही उसकी जिंदगी में चैन के थे। अब तो उसे गुजरे भी पूरे चौदह बरस हो गए हैं और मुझे लगता है, कल की ही बात है...।”

6

सरौंते से सुपाड़ी का एक छोटा टुकड़ा काटकर नीरजा ने मुँह में रखा। फिर एक टुकड़ा मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, “अब सोचती हूँ तो बार-बार एक यही विचार आता है सुधाकर, कितनी मजबूत थी मेरी माँ, लेकिन देखते ही देखते क्या से क्या हो गई थी! इतनी कमजोर कि मैं चाहती तो उसे अपनी गोद में लेकर घर भर में घुमाती रहती। अकसर उस पर इतना प्यार आता कि मैं उसका सिर अपनी गोदी में रखकर किसी बच्ची की तरह घंटों दुलारती और बातें करती रहती...”

मैंने सुपाड़ी का टुकड़ा मुँह में डाल लिया। नीरजा अभी तक अतीत के धुँधलके में थी, माँ के साथ, “और सच बात तो यह है सुधाकर कि शादी न करने का फैसला इसलिए किया कि जो माँ की नियति है, वह मेरी नियति न हो। आखिर क्या सुख पा लिया इस कमजोर और जर्जर औरत ने शादी करके? मैं अकसर अपनी माँ को देखकर सोचा करती थी। हालाँकि शुरू-शुरू में विवाह नहीं किया तो इसलिए कि माँ को सँभालने की चिंता रहती थी। वह बीमार रहती थी और इतनी कमजोर हो गई थी कि अपने पहले वाले रूप की छाया भर नजर आती थी। मुझे बेहद प्यार था अपनी माँ से, लेकिन मैं अकसर सोचा करती—जिससे मेरा विवाह होगा, उसे भी होगा क्या? और माँ के प्रति मेरा प्रेम उसे अखरेगा नहीं, इसकी क्या गारंटी है? और सुधाकर मैं दुनिया की हर चीज को छोड़ सकती थी, लेकिन माँ को नहीं...हरगिज नहीं!”

पता नहीं कितनी देर तक नीरजा अतीत की स्मृतियों को बिलोती रही।

फिर सब कुछ थिर सा हो गया। लॉन की हरी घास के तिनकों से लेकर पीलेपन से लदे, सामने के अमलतास के पत्तों और आसमान के प्याजी बादलों तक। पर मेरे भीतर धक-धक थी—नीरजा...अकेली...?

“माँ ने जोर नहीं दिया कभी विवाह करने को?” मैंने बत्तमीजी से सवाल की नोंक फिर वहीं सरका दी, जहाँ से वह बच निकलना चाहती थी।

“नहीं, वह तो दुखी थी मुझे लेकर!” नीरजा जैसे न बताना चाहते हुए भी खीजकर बता रही थी, “चाहती थी कि शादी करके मैं सैटल होऊँ तो उसे चैन मिले। लेकिन यह भी अच्छी तरह जानती थी कि मैं जिद्दी हूँ, करूँगी अपने मन की ही। वह चाहती थी, मैं उससे उतना प्रेम न करूँ। आखिर जाने वाले का कोई कब तक साथ दे सकता है?...लेकिन मैं उसके बगैर रह ही नहीं सकती थी। आज भी जब वह नहीं है, इस घर में माँ की स्मृतियाँ ठीक माँ की तरह ही रहती हैं।”

कुछ देर बाद उसकी आवाज में एक अडोल धीरज और ठहराव आ गया, हद है भई!

“यह लछमो उन्हीं के समय से है। सुरजू यहीं, इसी घर में पैदा हुआ। माँ गई तो दो-ढाई बरस का था।...” और नटखट सुरजू की पूरी कहानी बताने के बाद कुछ रुककर साँस लेते हुए कहा, “उसे पढ़ाती-लिखाती हूँ। कभी-कभी कुछ और बच्चे भी आ जाते हैं, उन्हें चित्रकला सिखाती हूँ। और जितना सिखाती हूँ उससे अधिक सीखती भी हूँ। समय कट जाता है...”

“ओह...!” मैंने सिहरन सी महसूस की।

“क्यों, इतनी लंबी ओs...ह किसलिए...?”

“वैसे ही...?”

“मुझ पर दया आ रही है?” नीरजा हँसी, मगर भौंहों में!

मैं भौचक्का—यह स्त्री है या...बला? “यह जीवन जितना तुम समझ रही हो, उससे कहीं कठोर है नीरजा! कहीं आगे चलकर तुम्हें पछतावा न हो...कभी सोचा है इस बारे में?” मैं पता नहीं किस झोंक में कह जाता हूँ।

“जितना तुम देख रहे हो सुधाकर, उससे अधिक कठोरताएँ देखी हैं मैंने।” नीरजा अचानक सीरियस हो गई, “हँसती हूँ तो इसका यह मतलब तो नहीं कि मैं कठोर होना नहीं जानती या भीतर से सख्त नहीं हूँ। मेरे जैसी हर औरत बहुत जल्दी जीवन के सब रंग और मुद्राएँ देख लेती है। ठीक वैसे ही, जैसे तुम्हें दिखाई पड़े या नहीं, मेरे जैसी औरत के भीतर एक श्मशान भी होता है जिसमें से लगातार चिताओं के जलने का धुआँ निकलता रहता है। किसी फैक्टरी की चिमनी की तरह...काला, कड़वाहट भरा!”

कुछ देर बाद थोड़ा सँभल गई, “इतने-इतने दुखदायी प्रसंग हैं सुधाकर, मैंने उन्हें कभी लिखा नहीं। उन कहानियों का किसी से जिक्र भी नहीं किया। लेकिन जो चित्र मैं इधर बनाना चाह रही हूँ, शायद उन कहानियों को कहें। शब्दों में नहीं, रंगों और रेखाओं की भाषा में!”

“यह तो अच्छा है नीरजा। मैं समझता हूँ, एक अच्छा रास्ता निकाल लिया तुमने जीने का। लेकिन नीरजा, क्या तुम्हें कभी पछतावा नहीं होता? कोई जरूरी तो नहीं कि जो माँ के साथ हुआ, वही कुछ तुम्हारे हिस्से भी...”

“छोड़ो यार, मैं अब पचास के आसपास होने को आई। अब मुझमें रह ही क्या गया है?”

नीरजा के भीतर से अचानक फिर वही पहले वाली नीरजा—एक बिंदास औरत, जिससे पहलेपहल मंडी हाउस में मिला था, निकली और उछलती हुई धम से सामने आ बैठी। और अब वह मुझे समझा रही है, “एक राज की बात कहूँ सुधाकर—और यह तुम्हें कोई और बताएगा नहीं सिवा मेरे—कि पचास के आसपास पहुँचते-पहुँचते औरत और मर्द का फर्क गायब हो जाता है और वे सिर्फ ‘नरदेही’ रह जाते हैं। और उनके सोच-विचार का ढंग एकदम बदल जाता है—एकदम!”

कहते-कहते उसका जोरदार ठहाका हवा में गूँजा।

“सत्य वचन महाराज। आज तो आपने पंडित-पुरोहितों की तरह ज्ञान के बोझ से लाद दिया।”

“अब तो चाहती हूँ कि...” नीरजा ने छद्म गंभीरता की मुद्रा चिपकाई, “बाकी का जीवन भी इसी तरह शिष्यों को, बुद्धुओं, अज्ञानियों को ज्ञान का प्रवचन देते-देते बीत जाए। इसी से मुक्ति है—मेरी भी, दूसरों की भी!”

“तुम संतोषी माता टाइप की कोई चीज बनने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? इसमें नाम भी है, नामा भी।”

“हाँ, सोच रही हूँ आजकल सीरियसली...!”

“किसी पी.एस. या प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत हो तो मेरे नाम पर विचार किया जाए।” मैंने प्रस्ताव किया।

“स्वीकार...!” नीरजा का हाथ अभय की मुद्रा में उठ गया। फिर उसके ‘चरणों की धूलि’ लेने का सुनहरा मौका भला मैं कैसे गँवाता?

लेकिन जब चलने लगा तो नीरजा सच में गंभीर हो आई, “सुनो सुधाकर, कभी-कभी आते रहो!...वादा करो कि आओगे। मुझे सचमुच तुम्हारी ही जरूरत पड़ेगी उस गड्ढे से बाहर आने के लिए जिसे यकीन करो, मैंने खुद अपने लिए नहीं खोदा था। मगर वह है, इस बात से इनकार कैसे करूँ?”

कह रही थी नीरजा तो उसकी पालतू बिल्ली कहीं से आई और लड़ियाकर गोद में बैठ गई। अब नीरजा उसके पंजे को हाथ में लेकर गुदगुदी कर रही है।

वही काली बिल्ली, वही आँखें...भयानक रूप से चमकीली! पर मुझे इस समय वह कुछ-कुछ प्यारी लगी।

वापस लौट रहा था तो मन में एक बड़ी प्यारी सी कल्पना आई—यह बिल्ली जो नीरजा की गोद में है, धीरे-धीरे उसकी गोद से सरकती हुई उसकी पेंटिंग्स में समाती जा रही है। और मुझे लगने लगा, अगली बार आऊँगा तो नीरजा की ‘एक उदास औरत’ की गोद में काली बिल्ली जरूर होगी।

7

और सचमुच अगली बार—शायद कोई दस-पंद्रह दिन बाद ही नीरजा के यहाँ गया, तो जैसा मैंने सोचा था, ‘एक उदास औरत’ की गोद में वही काली बिल्ली थी।

हालाँकि पता नहीं क्यों, काली बिल्ली को मैं या मुझे काली बिल्ली कुछ ज्यादा पसंद नहीं आए। और देखते ही देखते, आपको यकीन नहीं आएगा—वही काली बिल्ली नीरजा और मेरे बीच एक काली, अभेद्य दीवार बनती चली गई।

कई बार मैंने खुद से पूछा है, क्या यह विराट, सचेतन प्रकृति का कोई अजीब, अबूझा, रहस्यपूर्ण या ऊधमी खेल था? क्या काली बिल्ली को लेकर मेरे मन में कोई अंधविश्वास या बचपन की कोई ग्रंथि काम कर रही थी?...या फिर काली बिल्ली की वे आँखें, जो मुझ पर लोहे की गरम सलाखों जैसी गिरी थीं, उस वक्त जब मैं नीरजा के बहुत पास खड़ा, उसके कंधे और चिबुक को छूकर विदा माँग रहा था—क्या उन आँखों में कुछ ऐसा था कि मैं डर और सिहर गया था और मैं नीरजा से, नीरजा मुझसे दूर होती चली गई थी।...और इससे भी बढ़कर सवाल यह (मैं बहुत डरते-डरते भाइयो, यह सवाल पूछ रहा हूँ, इसलिए कि आप मुझे सच्ची-मुच्ची पागल न समझ बैठें) कि...नहीं-नहीं, काली बिल्ली, नहीं, कारण कुछ और हो। कुछ और...एकदम अबूझा और विस्मयजनक।

पर जाने क्यों मुझे लगता है, हालाँकि इसका कोई तर्क मेरे पास नहीं है, कि कारण इन्हीं में से कोई था, खासकर वह जो मैंने अपने अंत में बताया है, यानी काली बिल्ली की आँखें...! हाँ-हाँ, ये काली बिल्ली की आँखें ही हैं जिन्होंने हमें, यानी मुझे और नीरजा को अलगाया, बल्कि कुछ ही समय में दो अलग किनारों पर पटक दिया। बस, वह अपनी काली बिल्ली को बहुत-बहुत पसंद करती थी और मैं नहीं करता था। इस बात से भी आपको यकीन नहीं आएगा, रिश्तों के बड़े-बड़े और मजबूत पुल टूट सकते हैं। मैं तो, अगर आप इजाजत दें तो—यह भी कहने को तैयार हूँ कि दिल्ली की ग्रेटर कैलाश जैसी पॉश कॉलोनी में इतनी अच्छी भव्य कोठी को लावारिस छोड़कर नीरजा के शिमला चले जाने की वजह भी यहीं कहीं होगी।

यानी फिर वही काली बिल्ली! अब सुधी पाठको, उस काली बिल्ली को आप प्रतीक मानते हैं या जिंदगी की ठोस हकीकत—यह मैं फिलहाल आप ही पर छोड़ता हूँ।

बस, आप यही समझ लीजिए कि नीरजा के बालों और बातों की बड़ी धीमी-धीमी सी महक और उसकी उठी हुई उदास, अधीर और कुछ-कुछ चौकन्नी आँखों के दुर्निवार आकर्षण के बावजूद बरसों से उससे मेरी मुलाकात नहीं हुई। और न अब उसकी कोई उम्मीद ही रह गई है। तो जनाब, आप अब इजाजत दें। किस्सा यहीं खत्म करता हूँ, क्योंकि इसे इससे ज्यादा और बढ़ाने की कूवत मुझमें नहीं है।

हाँ, आप चाहें—और आपका भी कोई ऐसा किस्सा हो जिसे आपने सात परतों में छिपाकर रखा हो और कभी-कभी बटुआ खोलकर देख लेते हों, तो उसे सुविधानुसार कहानी के बिलकुल शुरू, बीच या अंत में कहीं जोड़ लें। मुझे सचमुच कोई आपत्ति न होगी।

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