एक था ठुनठुनिया (उपन्यास) : प्रकाश मनु

Ek Tha Thunthuniya (Hindi Novel) : Prakash Manu

1

सच...पगला, बिल्कुल पगला है तू!

एक था ठुनठुनिया। बड़ा ही नटखट, बड़ा ही हँसोड़। हर वक्त हँसता-खिलखिलाता रहता। इस कारण माँ का तो वह लाड़ला था ही, गाँव गुलजारपुर में भी सभी उसे प्यार करते थे।

गाँव में सभी आकर ठुनठुनिया की माँ गोमती से उसकी बड़ाई करते, तो पुलककर गोमती हँस पड़ती। उस हँसी में अंदर की खुशी छलछला रही होती। वह झट ठुनठुनिया को प्यार से गोदी में लेकर चूम लेती और कहती, "बस, यही तो मेरा सहारा है। नहीं तो भला किसके लिए जी रही हूँ मैं!"

गोमती के पति दिलावर को गुजरे चार बरस हो गए थे। तब से एक भी दिन ऐसा न गया होगा, जब उसने मन ही मन दिलावर को याद न किया हो। वह धीरे से होंठों में बुदबुदाकर कहा करती थी, "देखा, हमारा बेटा ठुनठुनिया अब बड़ा हो गया है! यह तुम्हारा और मेरा नाम ऊँचा करेगा।..."

ठुनठुनिया अभी केवल पाँच बरस का हुआ था, पर गाँव में हर जगह उसकी चर्चा थी। जाने कहाँ-कहाँ वह पहुँच जाता और अपनी गोल-मटोल शक्ल और भोली-भाली बातों से सबको लुभा लेता। सब गोमती के पास आकर ठुनठुनिया की तारीफ करते तो उसे लगता, अब जरूर मेरे कष्ट भरे दिन कट जाएँगे!

ठुनठुनिया अकेला होता तो माँ से भी खूब बातें करता। एक दिन उसने माँ से कहा, "माँ, माँ, सभी कहते हैं कि मैं लोगों को हँसाने के लिए पैदा हुआ हूँ। क्या यह सच है?"

"मैं क्या जानूँ, बेटा?" गोमती मंद-मंद मुसकराते हुए बोली।

"और माँ, लोग तो यह भी कहते हैं कि मैं इतना हँसोड़ हूँ कि हँसते-हँसते ही पैदा हुआ हूँ। क्या यह ठीक है माँ?"

"चल बुद्धू!" इस पर गोमती ने उसके सिर पर एक चपत लगा दी, "कोई हँसते-हँसते भी पैदा होता है...? तू तो बिल्कुल पगला है!"

"सच! पगला, बिल्कुल पगला!!" कहकर ठुनठुनिया ताली बजाकर हँसने लगा। हँसता रहा...हँसता रहा -बड़ी देर तक।

माँ ठुनठुनिया की मस्ती देखकर खुश थी। पर अंदर ही अंदर कहीं डर भी रही थी शायद। वह सोचती, 'हाय कितना भोला, कितना लाड़ला है मेरा बेटा! राम करे, कहीं आगे चलकर इसकी राह में कोई मुश्किल न आए।'

'मेरा तो यही अकेला बेटा है...लाड़ला! इसी के सहारे शायद बुढ़ापा पार हो जाए।' सोचते हुए गोमती की आँखों में रह-रहकर आँसू छलक आते।

2

मेले में हाथी

ठुनठुनिया अभी छोटा ही था कि एक दिन माँ के साथ होली का मेला देखने गया।

गुलजारपुर में होली के अगले दिन खूब बड़ा मेला लगता था, जिसमें आसपास के कई गाँवों के लोग आते थे। पास के शहर रायगढ़ के लोग भी आ जाते थे। सब बड़े प्रेम से एक-दूसरे से गले मिलते।

साल भर जिनसे मिलने को तरस जाते थे, वे सब इस मेले में मिल जाते थे। इसलिए सब उमंग से भरकर इस मेले में आते थे।

ठुनठुनिया अपनी माँ के साथ मेले में घूम रहा था कि तभी शोर मचा, "गजराज बाबू आ गए, गजराज बाबू आ गए!"

असल में बाबू गजराज सिंह गुलराजपुर गाँव के जमींदार थे। वे हर साल होली के इस मेले में हाथी पर बैठकर जरूर आया करते थे। हाथी पर बैठे-बैठे ही वे इस पूरे मेले की रौनक देखते थे।

गजराज बाबू को देखने के लिए आसपास काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। गजराज बाबू खासे भारी-भरकम थे। अच्छा-खासा डील-डौल, हाथी पर झूमते हुए आते तो देखने लायक दृश्य होता। सब देख रहे थे और नीचे से ही बाबू साहब का अभिवादन कर रहे थे।

ठुनठुनिया ने भी यह दृश्य देखा। देखकर उसकी बड़े जोर की हँसी छूट गई। बोला, "माँ, माँ देखो, हाथी के ऊपर हाथी...देखो माँ, हाथी के ऊपर हाथी!"

सुनते ही गोमती की सिट्टी-पिट्टी गुम। समझ गई, ठुनठुनिया गजराज बाबू की हँसी उड़ा रहा है। उन्होंने कहीं सुन लिया तो गजब हो जाएगा। यह सोचकर उसने ठुनठुनिया को डपटकर कहा, "चुप...चुप कर ठुनठुनिया!"

पर ठुनठुनिया पर भला क्या असर होना था इस जरा-सी डाँट का? वह और भी जोर से चिल्लाकर बोला, "वाह-वाह! मजा आ गया, हाथी पर हाथी! हाथी पर...!!"

सुनते ही जितने लोग वहाँ खड़े थे, सब ठहाका मारकर हँस पड़े।

बात गजराज बाबू तक भी पहुँच गई थी। वे खुले दिल के आदमी थे। एक पल के लिए तो उन्हें गुस्सा आया, फिर गुस्सा भूलकर वे भी सबके साथ-साथ हँसने लगे।

तभी उनके मन में आया, जरा उस बच्चे को देखना तो चाहिए जिसने यह एकदम सच्ची बात कह दी। सो गजराज बाबू उसी समय हाथी से उतरे और पूछा, "कौन-से बच्चे की आवाज थी?...भला किसने कही थी वह बात?"

लोगों ने समझा, अब ठुनठुनिया की आफत आ गई। सभी ठुनठुनिया से प्यार करते थे। इसलिए बात बनाते हुए कहा, "पता नहीं बाबू साहब, किसने कहा? वह लड़का शायद कहीं चला गया।"

"वाह! इतना भी नहीं जानते, मैंने कहा था, मैंने...कहा था, मैंने!" दूर से ही गोल-मुटल्लू ठुनठुनिया ने पूरे जोर से चिल्लाकर कहा, "क्यों, मैंने ठीक कहा?"

ठुनठुनिया की बात से बाबू गजराज सिंह का चेहरा एक क्षण के लिए फिर से लाल हो गया। मगर फिर उनकी हँसी छूटी, ऐसी कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गए। जैसे हँसी नहीं, हँसी की रंग-बिरंगी पिचकारी हो...कभी खत्म न होने वाली! यही हाल वहाँ मौजूद सभी लोगों का हुआ।

गजराज बाबू ने ठुनठुनिया को पास बुलाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "वाह रे लड़के, तूने आखिर सच्चाई कह ही दी।"

फिर दूसरे लोगों की ओर देखकर बोले, "होली पर इतने लोगों ने रंग-गुलाल लगाया, मजाक किया, पर हँसी नहीं आई। मगर इस लड़के ने ऐसी पिचकारी छोड़ी...कि उसके रंग उतरते ही नहीं। बस, समझो कि मजा आ गया!..."

फिर ठुनठुनिया से पूछा उन्होंने, "क्यों बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?"

"ठुनठुनिया!...मेरा नाम तो गुलजारपुर और आसपास के गाँवों में सब जानते हैं। आप नहीं जानते?" ठुनठुनिया ठुनककर बोला।

"ठुनठुनिया, वाह-वाह!...ठुनठुनिया, तेरे जैसा कोई नहीं।" कहते हुए गजराज बाबू ने अपनी जेब से दस रुपए का कड़क नोट निकाला। उसे ठुनठुनिया के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, "यह ले, मेरी ओर से कुछ खरीद लेना...मेरी ओर से होली का उपहार!"

उसके बाद गजराज बाबू हाथी पर बैठकर चल दिए। पर पीछे-पीछे लोगों ने कहा, "हाथी बाबू आए थे, हाथी बाबू गए!"

यानी ठुनठुनिया की वजह से गुलजारपुर गाँव के जमींदार बाबू गजराज सिंह का नाम अब 'हाथी बाबू' पड़ गया था।

ठुनठुनिया माँ का हाथ पकड़कर मेले में अब भी घूम रहा था। दस रुपए से उसने मलाई वाली कुल्फी खाई, दो बार चरखी वाला झूला झूला। फिर पीं-पीं बाजा और गुब्बारे लेकर घर लौटा।

रात सोने से पहले ठुनठुनिया ने माँ से कहा, "माँ, हाथी बाबू बहुत अच्छे हैं। हैं न?"

माँ मुसकराकर बोली, "बेटा, आगे से उन्हें गजराज बाबू ही कहना। होली का मजाक होली तक ही ठीक है।"

"अच्छा, माँ!" ठुनठुनिया बोला और जोरों से हँस पड़ा।

3

आहा रे, मालपूए!

एक बार ठुनठुनिया पड़ोस के गाँव केकापुर में अपने दोस्त गंगू से मिलने गया। गंगू ठुनठुनिया को देखकर उछल पड़ा। माँ से बोला, "माँ-माँ, देखो तो, ठुनठुनिया आया है, ठुनठुनिया!"

गंगू की माँ भी ठुनठुनिया को देखकर बहुत खुश हुई। वह मालपूए बना रही थी। बोली, "दोनों दोस्त मिलकर खाओ।...अभी गरमागरम हैं, झटपट खा लो, देर न करो।"

ठुनठुनिया ने पहले कभी मालपूए न खाए थे। उसने घी में तर मीठे-मीठे मालपूए खाए, तो उसे इतने अच्छे लगे कि एक-एक कर पाँच मालपूए खा गया। गंगू बोला, "तू कहे तो अंदर अम्माँ से और लेकर आऊँ?"

ठुनठुनिया का जी तो नहीं भरा था। उसका मन हो रहा था कि अभी दो-तीन मालपूए और खा लेता तो मजा आता। पर संकोच के मारे बोला, "नहीं-नहीं गंगू, और खाऊँगा तो पेट तन जाएगा।...बस, अब रहने दे।"

उसके बाद दोनों दोस्त नदी किनारे घूमने-टहलने निकल गए। नदी की रेत में उन्होंने खूब सारी छोटी-छोटी सीपियाँ बटोर लीं और उन्हें रूमाल में बाँध लिया। थोड़ी दौड़-भाग की। नाच-नाचकर गाने गए। फिर अपने-अपने खजाने लेकर गप्पें लड़ाते हुए वे वापस चल दिए।

पर ठुनठुनिया का मन अभी मालपूओं में ही अटका था। लौटकर उसने गंगू की माँ से कहा, "चाची, मालपूए बहुत अच्छे बने थे। मेरा तो मन करता है, बस मालपूए ही खाऊँ। दुनिया की कोई मिठाई इसके आगे टिकेगी ही नहीं।..."

कुंतो चाची हँसकर बोली, "बेटा, तू रोज आ जाया कर। मैं रोज तेरे लिए मालपूए बना दूँगी।"

ठुनठुनिया शरमा गया। बोला, "नहीं चाची, मैं तो बस तारीफ कर रहा था।"

ठुनठुनिया की सिधाई पर कुंतो की बड़े जोर की हँसी छूट गई। बोली, "क्यों, गोमती नहीं बनाती तेरे लिए मालपूए?"

"नहीं चाची, कभी नहीं बनाकर खिलाए! आज जाकर माँ से कहूँगा...।" ठुनठुनिया नाराजगी में एकदम गोलगप्पे जैसा मुँह बनाकर बोला।

"पर नाम न भूल जाना।" कुंतो हँसी, "मालपूआ बोलना, मालपूआ!"

"ठीक है चाची!" कहकर कुंतो चाची और प्यारे दोस्त गंगू से विदा लेकर ठुनठुनिया घर की ओर चल पड़ा।

रास्ते में भी ठुनठुनिया के मन में मालपूए ही चक्कर काट रहे थे। सोच रहा था, "आज घर जाते ही माँ से मालपूए बनवाऊँगा। और एक-दो नहीं, पूरे दर्जन भर खाऊँगा। तब मेरा जी भरेगा।"

पर तभी ठुनठुनिया के मन मे आया, अगर मैं मालपूए का नाम भूल गया तो? उसने सोचा, कविता की तर्ज पर मैं रास्ते भर गाता-गुनगुनाता चलूँगा, 'आह रे! मालपूआ, वाह रे, मालपूआ...पूआ ने पुआ, मालपूआ!' तब तो भूलने का कोई सवाल ही नहीं।

ठुनठुनिया इसी तरह अपनी धुन में 'आह रे मालपूआ, वाह रे मालपूआ' गाता-गुनगुनाता जा रहा था। तभी उसे एक घर के चबूतरे पर बैठी छोटी-सी, चंचल लड़की दिखाई दी। गौरी उसका नाम था। उसके हाथ में पिंजरा था, पिंजरे में तोता। वह उस तोते से खेल रही थी और लगातार बातें कर रही थी।

बातें करते-करते वह तोते को सिखा रही थी, "मिट्ठू, बोल राम-राम!...मेरे प्यारे रे सुआ, बोल दे न राम-राम!"

जब उस लड़की ने ठुनठुनिया को 'पूआ-पूआ, मालपूआ' चिल्लाते देखा, तो उसे बड़ा गुस्सा आया। नाक चढ़ाकर बोली, "अरे, तुम कैसे बुद्धू हो जी! यह तो सुआ है, सुआ, कोई तुम्हारा पूआ नहीं।...मगर तुम खामखा 'पूआ-पूआ' चिल्लाते जा रहे हो। मेरी तरह 'सुआ रे सुआ' नहीं बोल सकते?"

ठुनठुनिया ने सोचा, 'अरे, यह तो बड़ी गलती हो गई!' उसने उसी समय अपनी जीभ काट के कान पकड़े। अपने बोल बदल दिए और 'सुआ रे सुआ, वाह रे सुआ' कहता हुआ आगे चल दिया।

आगे एक बुढ़िया चरखा कात रही थी। उसके धागे का तार टूट गया था। वह उसे जोड़ने की कोशिश में पसीने-पसीने हो रही थी। ठुनठुनिया को 'सुआ रे सुआ' गाते देखा तो गुस्से में तमककर बोली, "अरे, बड़ा अभागा है तू! क्या सुआ-सुआ लगा रहा है? जैसे तूने कभी चरखा देखा ही नहीं!...अरे बेटा, न यह सुआ है, न सूई। यह तो चरखा है, चरखा। चरखा चर्रक-चूँ...! समझ गए न?"

ठुनठुनिया ने बड़ी समझदारी से सिर हिलाया। कान पकड़े कि आगे से वह गलती नहीं करेगा। और उसी समय "चरखा चर्रक-चूँ, चर्रक-चूँ...!" कहता आगे चल दिया।

आगे कुछ बच्चे लाइन लगाकर पीछे से एक-दूसरे को पकड़कर 'रेलगाड़ी...रेलगाड़ी' खेल रहे थे। खेलते-खेलते वे बोलते भी जा रहे थे, "चल्लम चल, चल्लम-चल...गाड़ी चल, चल्लम-चल, चल्लम...चल, गाड़ी चल!"

ठुनठुनिया को यह खेल इतना मजेदार लगा कि बड़ी देर तक वह बच्चों को छुक-छुक रेलगाड़ी खेलते ही देखता रहा। फिर आगे चला तो उसके होंठों पर खुद-ब-खुद बच्चों का ही यह गीत आ गया, "चल्लम चल, गाड़ी चल...हल्लम-हल, गाड़ी हल...!"

कुछ आगे ही ठुनठुनिया का घर था। घर पहुँचते ही ठुनठुनिया 'माँ...माँ' कहता गोमती से जा चिपका। बोला, "माँ, माँ, आज तो तुझे 'चल्लम-चल, हल्लम-हल' बनाकर खिलाना पड़ेगा। मैंने गंगू के यहाँ चल्लम-चल खाए तो इतने मजेदार लगे, इतने मजेदार कि क्या कहूँ!"

माँ हैरान होकर बोली, "पर बेटा, चल्लम-चल तो कोई चीज नहीं होती। मैं तेरे लिए बनाऊँ क्या?..."

"नहीं माँ, बनाना पड़ेगा। तू कभी मेरे लिए चल्लम-चल बनाती ही नहीं।" कहकर ठुनठुनिया रूठ गया।

गोमती पसोपेश में पड़ गई। बोली, "बेटा, तू खीर कहे तो बना दूँ। लड्डू-पेड़ा कहे तो बना दूँ। पूआ-मालपूआ कहे तो बना दूँ, पर यह निगोड़ी चल्लम-चल तो मुझे बनानी ही नहीं आती। मैंने तो इसका नाम ही...!"

गोमती आगे कुछ कहे, इससे पहले ही ठुनठुनिया उछलकर बोला, "अरे ओ माँ, याद आ गया -पूआ...पूआ, मालपूआ! बस, तू तो मालपूआ बना दे मेरे लिए, खूब घी में तर मीठे-मीठे मालपूए। चल्लम-चल को मार गोली!"

गोमती हँसती हुई बोली, "पर अभी तो तू चल्लम-चल बनाने के लिए कह रहा था रे ठुनठुनिया?"

"वह तो मैं भूल गया था माँ!" ठुनठुनिया शरमाकर बोला, "बस, अब तू देर न कर। जल्दी-जल्दी अच्छे-अच्छे मालपूए बना।"

माँ ने मालपूए बनाए तो ठुनठुनिया ने खूब छककर खाए। फिर जब वह अलसाकर खाट पर लेटा तो माँ ने पूछा, "अब बता, तेरे चल्लम-चल का किस्सा क्या है...?"

इस पर ठुनठुनिया ने रास्ते में जो-जो चीजें देखी थीं, सब बता डालीं। बोला, "माँ, मैं तो ठीक-ठीक गाना गाता हुआ आ रहा था। मगर...रास्ते में जो लोग मिले, उन्होंने भरमा दिया। मालपूआ उड़न-छू हो गया। उसकी जगह चल्लम-चल आ गया।"

सुनते ही गोमती हँसते-हँसते दोहरी हो गई।

उसकी हँसी की आवाज सुनकर पड़ोस की शीला चाची आ गई। बोली, "क्या बात है गोमती, आज तेरी हँसी रुकने में ही नहीं आती! और हाँ, मालपूए और चल्लम-चल का क्या किस्सा है? मुझे थोड़ा-थोड़ा तो सुनाई दिया, लेकिन पूरी बात समझ में नहीं आई...!"

इस पर गोमती ने शीला चाची को 'चल्लम चल' का पूरा किस्सा सुनाया, तो शीला चाची का भी हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया।

होते-होते शाम तक यह चल्लम-चल आँधी-तूफान की तरह पूरे गाँव में फैल चुका था। अब ठुनठुनिया जिधर भी निकलता, अड़ोस-पड़ोस की चाची-ताइयाँ उसे बुलाकर कहतीं, "आ रे ठुनठुनिया, तुझे चल्लम-चल बनाकर खिलाऊँ!" और ठुनठुनिया शरमाकर भाग खड़ा होता।

4

जंगल में बाँसुरी

ठुनठुनिया के घर के आगे से एक बाँसुरी बजाने वाला निकला। बाँसुरी पर इतनी प्यारी-प्यारी मीठी धुनें वह निकाल रहा था कि ठुनठुनिया तो पूरी तरह उसमें खो गया। वह सुनता रहा, सुनता रहा और फिर जैसे ही बाँसुरी वाला चलने को हुआ, ठुनठुनिया माँ के पास जाकर बोला, "माँ, ओ माँ, मुझे एक बाँसुरी तो खरीद दे!"

माँ से पैसे लेकर ठुनठुनिया ने बाँसुरी वाले से चार आने की बाँसुरी खरीदी और बड़ी अधीरता से बजाने की कोशिश करने लगा।

उसने बाँसुरी को होंठों के पास रखा। फिर उसमें जोर से फूँक मारकर बार-बार उँगलियाँ नचाते हुए, बाँसुरी बजाने की कोशिश की। पर वह बजी नहीं।...तब ठुनठुनिया ने और भी तेजी से उँगलियाँ नचाईं। ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर। सारे जतन कर लिए। पर बाँसुरी न बजनी थी, न बजी। ठुनठुनिया निराश हो गया।

इस पर बाँसुरी वाले ने हँसकर समझाया, "देखो ठुनठुनिया, ध्यान से देखो। बाँसुरी बजाते समय कहाँ हाथ रखना है, कैसे मुँह से फूँक मारनी है...ये सारी चीजें जाननी जरूरी हैं। अरे बुद्धू, यह भी एक कला है, कला! इसके लिए खूब अभ्यास चाहिए।"

अब के ठुनठुनिया ने बाँसुरी बजाई तो उसमें से थोड़ी-थोड़ी धुन निकली, भले ही वह कितनी ही अटपटी हो। उसके बाद ठुनठुनिया अकेले में कुछ देर बाँसुरी बजाता रहा। अब धुन कुछ साफ निकल रही थी, पर उसे ज्यादा मजा नहीं आया।

'क्यों न जंगल में जाकर बाँसुरी बजाने का अभ्यास करूँ? वहाँ ज्यादा अच्छा लगेगा।' ठुनठुनिया ने सोचा और जंगल की ओर निकल पड़ा।

जंगल में एक जगह नदी बहती थी। पास ही हरी-भरी घास थी। फूल, पेड़-पौधे भी थे। ठुनठुनिया वहीं घास पर बैठकर बाँसुरी बजाने लगा। धीरे-धीरे उसे रस आने लगा। मन में आनंद का झरना बह उठा। उसे लगा, 'अब बनी बात...अब बन गई! वाह जी वाह, अब इस बाँसुरी में से वही जादुई स्वर फूटा है, जो बाँसुरी वाले की अपनी बाँसुरी में था।'

यहाँ तक कि जंगल की हरी-हरी घास, फूल-फल, पेड़-पौधे सब सिर हिला-हिलाकर कह रहे थे, 'हाँ-हाँ ठुनठुनिया, अब बनी बात...अब बन गई! वाह, अब इस बाँसुरी में से वही जादुई स्वर फूटा है, जो बाँसुरी वाले की अपनी बाँसुरी में था।'

जब बाँसुरी बजाते हुए काफी देर हो गई, ठुनठुनिया थककर घास पर लेट गया। थोड़ी देर में ही उसे नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा। बाँसुरी अब पास की हरी घास पर पड़ी थी।

थोड़ी देर में ठुनठुनिया की नींद खुली तो उसने चौंककर इधर-उधर देखा, बाँसुरी नदारद थी। ठुनठुनिया सन्न रह गया, 'अरे, मेरी प्यारी बाँसुरी...! कौन ले गया उसे?'

ठुनठुनिया व्याकुल होकर चारों तरफ निगाहें घुमा रहा था। तभी अचानक उसकी निगाह सामने के पीपल के पेड़ की ओर गई। उस पेड़ के नीचे एक गिलहरी ठुनठुनिया की वही बाँसुरी थामे, बजाने की कोशिश कर रही थी।

जो भी हो, बाँसुरी में से हलकी-हलकी धुन निकल रही थी। इस पर हरे रंग का एक शरारती टिड्डा अपना नाच दिखा रहा था। दूर आम की डाली पर बैठी एक गौरैया यह सब देखकर तीखी चैं-चैं की आवाज कर रही थी।

"अरे-अरे, बाँसुरी ऐसे थोड़े ही बजाई जाती है! लाओ, मैं बजाकर दिखाता हूँ।" ठुनठुनिया बोला और गिलहरी से बाँसुरी लेकर वह खुद मगन होकर बजाने लगा।

ठुनठुनिया के बाँसुरी बजाते ही सचमुच जंगल में जादू हो गया। बहुत-सी गिलहरियाँ आईं और ठुनठुनिया के पास आकर मुग्ध आँखों से उसे देखने लगीं।

बहुत-सी चिड़ियाँ आईं और वहीं कतार बनाकर बैठ गईं। बड़े मजे से वे बाँसुरी सुन रही थीं। बहुत-सी मछलियाँ भी तट पर आ-आकर ठुनठुनिया की बाँसुरी की अनोखी धुन सुनने लगीं।

"आओ चलो, नौका-यात्रा करें। तुम वहीं अपनी बाँसुरी बजाना।" एक नन्ही गिलहरी ने कहा तो सबने खूब तालियाँ बजाईं। कहा, "वाह-वाह! इसमें तो खूब मजा आएगा।"

ठुनठुनिया नाव में बैठा तो गिलहरियाँ, गौरैयाँ, तोते और यहाँ तक कि हरा शरारती टिड्डा, सब उस नाम में आकर बैठ गए। नाव लहरों पर खुद-ब-खुद चल पड़ी। पानी पर ठुनठुनिया की बाँसुरी की धुन इतनी मीठी लग रही थी कि सारा जंगल मानो संगीत से सराबोर हो गया।

'रुन-झुन...जंगल में, बजी बाँसुरी रुनझुन रे...!' ठुनठुनिया की बाँसुरी का सुर हवा में हौले-हौले थरथराहट पैदा कर रहा था।

फिर थोड़ा आराम करने के लिए ठुनठुनिया ने बाँसुरी बजाना रोक दिया। बाँसुरी एक ओर रखकर वह नौका-यात्रा का आनंद लेने लगा। 'सामने पहाड़ों पर शाम के सूरज की झिलमिल-झिलमिल! दूर-दूर तक बिखरी लाली।...आहा, कैसा अद्भुत दृश्य है! आसमान में सुनहरी किरणों का सुंदर झूला सा बन गया है। काश, मैं इस पर झूल पाता तो कितना मजा आता, कितना...!'

ठुनठुनिया इसी कल्पना में खोया था कि तभी नाव जोर से हिली और एकाएक 'गुड़ुप' के साथ बाँसुरी पानी में...!

"ओह!" ठुनठुनिया उदास हो गया। उसकी इतनी अच्छी बाँसुरी! अब वह कैसे मिल पाएगी?

उसने नाव में बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर बाँसुरी पकड़ने की भरसक कोशिश की, पर वह उलटी धारा में बहकर तेजी से दूर निकल गई और किसी भी तरह हाथ नहीं आ रही थी। नाव में बैठी गिलहरियाँ, गौरैयाँ, तोते और यहाँ तक कि हरा शरारती टिड्डा भी उदास था -यह क्या, जंगल का खूबसूरत संगीत ही चला गया!

एक-दो तोतों ने कोशिश भी की कि बाँसुरी को चोंच में पकड़कर नाव में ठुनठुनिया के पास ले आएँ। पर बाँसुरी उनकी चोंच से बार-बार फिसल रही थी।

आखिर नाव किनारे लगी तो ठुनठुनिया गिलहरी, गौरैया, तोतों और हरे टिड्डे से विदा लेकर घर चलने के लिए तैयार हो गया। उसके चेहरे पर उदासी थी।

गिलहरियों में से बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक भोली-भाली गिलहरी रानी ने कहा, "तुम चिंता न करो ठुनठुनिया। कभी-कभी रामू मल्लाह यहाँ आता है। उससे कहकर हम तुम्हारी बाँसुरी जरूर पानी से निकलवा लेंगे। अगले इतवार को तुम आओगे तो तुम्हें मिल जाएगी।...तुम बिल्कुल दुखी मन होना ठुनठुनिया!"

पर अभी ठुनठुनिया घर की ओर कुछ कदम चला ही था कि अचानक उसे शोर सुनाई दिया, "मिल गई बाँसुरी, मिल गई! यह रही...अरे ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया!"

ठुनठुनिया उलटे पैरों दौड़ पड़ा और उसने देखा, एक अचरज भरा दृश्य! ढेर सारी मछलियाँ कतार-की-कतार आकर किनारे पर जमा हो गई थीं। उन्हीं के बीच में थी उसकी गुलाबी रंग की सुंदर-सी बाँसुरी! मानो कोई खूबसूरत कलाकृति हो। ये मछलियाँ ही आपस में मिलकर ठेलती-ठेलती उसे पानी के बीच से किनारे तक तक ले आई थीं।

धीरे-धीरे मछलियाँ बाँसुरी को किनारे की ओर लुढ़का रही थीं। लुढ़कते-लुढ़कते बाँसुरी एकदम किनारे पर आ गई, तो ठुनठुनिया ने झट आगे बढ़कर बाँसुरी उठा ली और नाचने लगा। उसकी खुशी देखकर गौरैयाँ, तोते, मछलियाँ, हरा टिड्डा और गिलहरियाँ सबके सब मिलकर नाचे, खूब नाचे!

फिर ठुनठुनिया सबको 'राम-राम' कहकर बाँसुरी बजाता हुआ मजे से घर की ओर चल दिया।

पीछे से उसे सुनाई दिया, "टा-टा...टा-टा!" हरा टिड्डा जोर-जोर से हँसता और नाचता हुआ उसे टा-टा कर रहा था।

5

आया...आया एक भालू!

एक दिन ठुनठुनिया जंगल में घूम रहा था कि उसे एक अनोखी चीज दिखाई दी। पास जाकर देखा, वह काले रंग का एक मुखौटा था जिस पर काले-काले डरावने बाल थे।

ठुनठुनिया को बड़ी हैरानी हुई, जंगल में भला यह मुखौटा कौन छोड़ गया? क्या किसी नाटक-कंपनी के लोग यहाँ से गुजरे थे और गलती से इसे यहाँ छोड़ गए। या फिर जंगल का कोई जानवर इसे शहर से उठा लाया और यहाँ छोड़कर चला गया?

जो भी हो, चीज तो बड़ी मजेदार है! ठुनठुनिया ने उस मुखौटे को उठाया और अपने चेहरे पर पहनकर देखा। मारे खुशी के चिल्ला उठा, "अरे रे, यह तो मुझे बिल्कुल फिट आ गया!"

ठुनठुनिया का मन हो रहा था, अभी दौड़कर घर जाए और शीशे के आगे खड़े होकर देखे कि यह अनोखा मुखौटा पहनकर वह कैसा लगता है? पर उसे तो उतावली थी, सो दौड़ा-दौड़ा गया नदी के किनारे। वहाँ पानी के पास सिर झुकाकर देखने लगा और सचमुच खुद अपनी शक्ल देखकर वह डर गया कि 'अरे, यह भालू कहाँ से आ गया?'

चौंककर वह दो कदम पीछे हट गया। फिर खुद-ब-खुद अपने इस रूप पर ठठाकर हँस पड़ा।

सिर्फ ठुनठुनिया की आँखें ही थीं, जिनसे वह थोड़ा-बहुत पहचान में आता था। वरना तो वह एकदम ऐसे बदल गया था, जैसे वह ठुनठुनिया न होकर अभी-अभी जंगल से भागकर आया कोई जंगली भालू हो।...कोई एकदम जंगली भालू!

अचानक ठुनठुनिया के मन में एक आइडिया आया और वह खुद अपनी सोच पर खुश होकर उछल पड़ा। उसने सोचा, 'अभी नहीं, मैं रात में यह मुखौटा पहनकर गाँव वालों के पास जाऊँगा, तब आएगा मजा!'

यह सोचकर ठुनठुनिया ने वह मुखौटा जतन से एक पुराने कपड़े में लपेटकर गाँव के पास वाले बरगद की डाल में छिपा दिया।

रात के समय ठुनठुनिया ने पेड़ की डाली से वह मुखौटा उतारा और पहन लिया। वह एक दोस्त से काले रंग के कपड़े भी माँग लाया था। उन्हें पहनकर वह चुपके से चलता हुआ गाँव की चौपाल तक आ गया और खूब झूमते हुए आगे बढ़ा। वहाँ दो-चार लोग बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे। उन्होंने एक भालू को झूमते-झामते पास आते देखा तो चिल्लाते हुए सिर पर पैर रखकर भागे।

फिर ठुनठुनिया आगे बढ़ा तो रामदीन चाचा नजर आ गए। वे घर के बाहर चारपाई डालकर सो रहे थे। ठुनठुनिया ने जाते ही हाथ से हिलाकर उन्हें जगाया। नींद खुलते ही काले रंग के विशालकाय भालू पर उनकी नजर पड़ी तो वे भी चीखते-चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए।...

अब तो पूरे गाँव में जगार हो गई। लोग चिल्लाकर एक-दूसरे से कह रहे थे, "पकड़ियोs रे, भागियो रे...पकड़ियोs रे, भागियो रे, भालूs आ गया, भालूsss! सब हाथ में एक-एक लाठी पकड़ लो और मिलकर चलो।...जरा एक आदमी आग जलाकर जलती मशाल पकड़ ले। आग देखकर भालू भागेगा, तब उसे दबोचना।"

ठुनठुनिया समझ गया, अब तो वह जरूर पकड़ा जाएगा। इसलिए उसने मुखौटा उतारकर झटपट कहीं छिपा दिया और फिर घूमता-घामता घर आकर सो गया।

सुबह ठुनठुनिया उठा तो गोमती ने कहा, "अच्छा हुआ बेटा, तू जल्दी आ गया और सो गया, वरना गाँव वालों पर तो कल बहुत बुरी बीती। सब रात भर जागते रहे।...एक बड़ा-सा जंगली भालू न जाने कहाँ से आ गया! गाँव में कितने ही लोगों ने उसे देखा पर कोई पकड़ नहीं पाया। अच्छा हुआ कि गाँव में जगार हो गई, नहीं तो क्या पता, एक-दो बच्चों को वह पकड़कर ही ले जाता और...!"

"ठीक है माँ, पर तेरे ठुनठुनिया का तो वह बाल बाँका नहीं कर सकता था।" ठुनठुनिया ने मंद-मंद हँसते हुए कहा।

"क्यों, ऐसा क्यों कह रहा है बेटा?" गोमती ने चौंककर कहा, "क्या तू जंगली भालू से भी बढ़कर है?"

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं?" ठुनठुनिया हँसा, "मैं ठुनठुनिया जो हूँ, ठुनठुनिया! माँ का लाड़ला बेटा। ऐसे बहादुर लड़के पर हमला करने की हिम्मत है भला किसी भालू या चीते की? मेरा तो कोई बड़े से बड़ा दुश्मन भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता।...फिर भालू तो बेचारा आलू माँगने लगता! मैं उसे आलू खिलाता और झट से पकड़कर पिंजरे में बंद कर लेता।"

गोमती ने सुना तो बलैयाँ लेते हुए बोली, "अच्छा बेटा, अगर वह भालू आता तो क्या तू उससे लड़ लेता?"

"क्यों नहीं माँ, क्यों नहीं! मैं तो एक झटके में उसका मुखौटा...!" कहते-कहते ठुनठुनिया रुक गया।

"कैसा मुखौटा, बेटा?" गोमती की कुछ समझ में नहीं आया।

"मुखौटा मतलब...मुँह!" ठुनठुनिया ने समझाया, "माँ, तेरे कहने का मतलब यह था कि जैसे ही वह भालू आता, मैं तो सबसे पहले उसका मुँह रस्सी से बाँध देता। फिर उस पर ठाट से वो सवारी करता, वो...कि बच्चू याद रखता जिंदगी-भर!"

फिर हँसता हुआ बोला, "और हाँ, माँ, मैं उस भालू पर बैठकर तेरी सात परिक्रमा करता, पूरी सात!"

"चुप...!" गोमती हँसकर बोली, "ज्यादा बढ़-चढ़कर बातें नहीं किया करते।"

और ठुनठुनिया अँगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ, ताकि अब चलकर गाँव वालों से रात भालू के आने की गरमागरम खबरें सुनकर पूरा मजा ले सके।

6

चाँदनी रात में नाच

जाने कितने दिनों तक गुलजारपुर में उस जंगली भालू की चर्चा चलती रही, जो लपकते-झपकते हुए गाँव की चौपाल पर आया था और वहाँ से रामदीन चाचा के घर की ओर गया। आखिर में सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम करता हुआ, वह गायब हो गया।

"गायब होने से पहले उसने बड़ा जबरदस्त नाच दिखाया था। और हाँ, उसके पैरों में चाँदी के बड़े-बड़े और खूबसूरत छल्ले भी थे, जो बिजली की तरह चम-चम-चम चमक रहे थे! अजीब-सी डरावनी छन-छन-छन और टंकार हो रही थी...!" गाँव के मुखिया ने कसम खाकर यह बात कही थी।

यों किसी-किसी का यह भी कहना था कि वह भालू नहीं, कोई राक्षस था जो जादू से भालू की शक्ल धारण करके आया था। किसी को उसमें भगवान् राम और हनुमान के बूढ़े मित्र जाम्बवान की छाया दिखाई दी। जबकि गंगी ताई का कहना था, "यह रावण था, रावण जो कलियुग में रूप बदलकर आया है। बड़ा भीषण संकट आ गया गुलजारपुर गाँव पर तो...!"

किसी को लगा कि वह भालू नहीं, सिर्फ भालू की डरावनी छाया थी। जरूर पड़ोसी गाँव के लोगों ने गुलजारपुर गाँव के लोगों को डराने के लिए कोई जादू-मंतर किया है!

किसी-किसी को इसके पीछे गाँव के मोटेराम पंडित जी का भी हाथ लगा, जो नाटक करने में बड़े उस्ताद थे। इसी नाटक के बल पर रात को दिन, दिन को रात साबित कर सकते थे। कभी उनकी पूरी नाटक मंडली थी। इधर कड़की के दिनों में नाटक मंडली तो नहीं रही, मगर दिल में नाटक की ख्वाहिश बची थी। तो हो सकता है कि उन्होंने ही...?

एक-दो ने कहा, "नहीं भाई, हमें तो लगता है, यह वही भालू है जो कुछ महीने पहले पड़ोसी गाँव के दो बच्चों को उठाकर ले गया। यहाँ भी आया तो इसी इरादे से था, पर अच्छा हुआ कि राम जी की कृपा से जगार हो गई।...तो एक बड़ी दुर्घटना होते-होते टल गई, वरना तो गाँव में किसी-न-किसी पर आफत आनी ही थी!"

ठुनठुनिया गौर से सबकी बातें सुनता और कभी इसकी, कभी उसकी बात पर हाँ-हूँ कर देता। असली बात बताकर क्या उसे लोगों से मार खानी थी!

मगर...आखिर एक दिन उस भालू-कांड की पोल खुल ही गई और उसे किसी और न नहीं, खुद ठुनठुनिया ने ही खोला। यह भी बड़ा अजीब किस्सा है।...बड़ा मजेदार!

असल में गुलजारपुर में हर साल सर्दियों में चाँदनी रात में गाने-बजाने का प्रोग्राम होता था। उसमें गाँव के जमींदार गजराज बाबू भी आते थे, साथ ही शहर के बड़े-बड़े लोग भी आते थे। इनमें अफसर, वकील, लेखक, कलाकार, प्रोफेसर, पत्रकार, नेता सभी होते थे। अच्छी रौनक लगती थी। तरह-तरह के मजेदार कार्यक्रम होते।

कोई गाने-बजाने का कार्यक्रम पेश करता तो कोई अनोखा नाच नाचकर दिखाता। पुराने लोकगीत और राग-रागिनियाँ गाई जातीं। नए-नए गीत भी खुद बनाकर पेश किए जाते। छोटे-छोटे मजेदार नाटक भी होते थे। कोई बाँसुरी, कोई ढोल, कोई तुरही बजाकर अपनी कला पेश करता। सबसे बढ़िया प्रोग्राम दिखाने वाले को इनाम भी दिया जाता।

ठुनठुनिया के मन में आया, 'मुझे भी इस बरस कुछ न कुछ करना चाहिए।' वह माँ के पास आकर बोला, "माँ-माँ, मैं भी इस बार चाँदनी रात वाले मेले में भाग लूँगा।"

"ठीक है बेटा।" गोमती ने कहा, "जिसमें तुझे खुशी मिले, वह कर।"

पर ठुनठुनिया कुछ ज्यादा ही उत्साह में था। बोला, "सिर्फ ठीक कहने से काम नहीं चलेगा माँ! आशीर्वाद दे कि इस साल मुझे ही पहला इनाम मिले।"

इस पर ठुनठुनिया की माँ ने हैरान होकर कहा, "अरे, चाँदनी मेले का पहला इनाम तुझे कैसे मिल सकता है बेटे?...तुझे तो इतना अच्छा नाच-गाना आता नहीं है। वहाँ तो एक से बढ़कर एक नचैया और धुरंधर कलाकार आएँगे। एक-से-एक अच्छे कार्यक्रम होंगे। लोगों के पास बहुत पैसा, बहुत साधन हैं, जबकि तेरे पास तो एक ढंग की पोशाक तक नहीं है, तो फिर...?"

"चिंता न कर माँ, मैं इस बार ऐसा नाच दिखाऊँगा और ऐसी बढ़िया पोशाक पहनकर दिखाऊँगा कि तू खुद चकरा जाएगी। हो सकता है, तू मुझे पहचान भी न पाए।" ठुनठुनिया ने हँसते हुए कहा।

"अच्छा, चल-चल, ज्यादा बातें न बना। भला ऐसा भी हो सकता है कि माँ अपने बेटे को ही न पहचान पाए!" गोमती ने हँसते हुए कहा।

"हो सकता है माँ, हो सकता है!" कहकर ठुनठुनिया नाचा। खूब मस्ती में नाचा और देर तक नाचता ही रहा। माँ हैरानी से उसे देख रही थी।

शाम के समय ठुनठुनिया घर से बाहर आकर खुले मैदान में टहलने लगा। फिर टहलते-टहलते उसके कदम गाँव के तालाब की ओर बढ़ गए। अचानक उसका ध्यान बरगद के उस पेड़ की ओर गया जिसमें ऊपर की घनी डालियों के बीच उसने भालू का मुखौटा छिपाकर रखा था।

"देखूँ, कहीं कोई उसे ले तो नहीं गया?" कहकर ठुनठुनिया एक मैले कपड़े में लिपटे उस मुखौटे को तलाशने लगा। एक पल, दो पल, तीन...और आश्चर्य कि वह वहाँ था! सचमुच बरगद की ऊँची डाली पर वह ज्यों-का-त्यों लिपटा पड़ा था।

ठुनठुनिया को अचंभा हुआ, 'क्या गजब है, भला किसी का ध्यान इधर गया ही नहीं! पर चलो, अब यही मेरे काम आएगा। समझो कि मेरा पहला इनाम पक्का!'

ठुनठुनिया ने उसी समय वह मुखौटा बगल में दबाया और अपने दोस्त मीतू के घर की ओर चल पड़ा। मीतू से उसे काली पोशाक और काले जूते लेने थे, वरना उसके बगैर खेल में पूरा मजा कैसे आता! भालू वाला काला मुखौटा भी ले जाकर उसने मीतू के पास रख दिया।

मीतू का बंगलानुमा बड़ा-सा तिमंजिला घर था। खुद मीतू का अपना कमरा भी बहुत बड़ा था। वहाँ से तैयार होकर आसानी से मेले में पहुँचा जा सकता था।

और सचमुच उस रात ठुनठुनिया ने जब भालू का मुखौटा, काले कपड़े और काले जूते पहनकर अपनी कला दिखाई तो वह कोई छोटा-मोटा नहीं, पूरा विशालकाय जंगली भालू ही लग रहा था।

पहले तो मीतू के कमरे में ही ठुनठुनिया दोस्तों के बीच अपनी नृत्य-कला का प्रदर्शन करता रहा। फिर दोस्तों के साथ ही अजब अंदाज में नाचता-कूदता, उछलता और किलकारियाँ भरता मेले में पहुँचा। सभी यह अनोखा भालू देखकर सहम गए और एक ओर छिटक गए।

इसके बाद ठुनठुनिया ने मंच पर अपना अनोखा नाच दिखाना शुरू किया। वह इतनी मस्ती से नाच रहा था कि सचमुच का भालू ही लगता था। उसका पैर उठाने, मटकने, गरदन हिलाने का अंदाज, सबमें ऐसी प्यारी कला थी कि लगता था, जंगल से अभी-अभी आकर कोई सचमुच का भालू अपना रंग बिखरा रहा है। उसकी हर अदा पर देखने वाले झूम-झूम उठते थे। गजराज बाबू और उनके दोस्त तो बार-बार 'वाह! वाह!' कर रहे थे।

मोटेराम पंडित जी कोई अनोखा नाटक करने की सोच रहे थे, पर ऐसे गजब के भालू-नाच के आगे तो उनकी हिम्मत भी जवाब दे गई।

ठुनठुनिया समझ गया कि उसका नाच जम गया है। अब तो उसने ठुमके लगा-लगाकर यह अनोखा गाना भी सुनाना शुरू कर दिया -

भालू रे भालू!

अम्माँ, मैं तेरा भालू!

अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,

ला खिला दे, ला खिला दे, दो-चार आलू!

अम्माँ, मैं नहीं टालू,

अम्माँ, मैं नहीं कालू,

अम्माँ, मैं तेरा भालू...!

जब ठुनठुनिया का नाच बंद हुआ तो देर तक चारों तरफ तालियाँ बजती रहीं। इसके बाद पूरी की पूरी भीड़ ने बिल्कुल ठुनठुनिया के भालू वाले अंदाज में ही नाचना और थिरकना शुरू कर दिया। सब मिलाकर गा रहे थे -

"भालू रे भालू! अम्माँ, मैं तेरा भालू!/ अभी-अभी चलकर जंगल से आया भालू,/ ला खिला दे, ला खिला दे दो-चार आलू!/ अम्माँ, मैं नहीं टालू,/ अम्माँ, मैं नहीं कालू,/ अम्माँ, मैं तेरा भालू...!" बड़ी देर तक सभा में यही नाच-रंग चला। आयोजकों की बहुत प्रार्थना के बाद लोग थमे।

इसके बाद और भी कार्यक्रम हुए। कई लोग तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़े और गहने पहनकर नाच दिखाने आए। अजीबोगरीब मुखौटों वाले नाच हुए। हँसी-मजाक से भरपूर नाटक भी हुए। पर ठुनठुनिया ने भालू बनकर जो मजा बाँध दिया था, उसका मुकाबला कोई और नहीं कर पाया।

और सचमुच भालू बनकर ठुनठुनिया इतना बदल गया था कि और तो और, खुद गोमती भी उसे नहीं पहचान पाई थी। पर बाद में जब ठुनठुनिया का नाम लेकर इनाम की घोषणा हुई और खुद गजराज बाबू ने अपने हाथ से उसे चाँदी की थाली और एक मैडल इनाम में दिया, तो गोमती ने पहचाना -अरे, तो यह ठुनठुनिया ही था, जो भालू बना हुआ था!

ठुनठुनिया को जो मैडल दिया गया, वह भी चाँदी का था। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था, 'गुलजारपुर का रत्न'। उस मैडल को एक सुंदर-से काले धागे में पिरोया गया था। गजराज बाबू के कहने पर ठुनठुनिया ने उस मैडल को गले में हार की तरह पहना, तो खूब जोर से तालियाँ बजी।

फिर ठुनठुनिया से गजराज बाबू ने कहा, "भई, ठुनठुनिया, तुम भी कुछ कहो!"

इस पर ठुनठुनिया ने कहा, "आप बड़े-बड़े लोगों के आगे मैं क्या कहूँ? समझ में नहीं आ रहा। हाँ, पुरस्कार पाकर मैं खुश हूँ। पर...मुझसे बढ़कर खुशी मेरी माँ को होगी। मैंने कल उससे कहा तो उसे यकीन नहीं हो रहा था। माँ का कहना था, 'रे ठुनठुनिया, तेरे पास तो ढंग की पोशाक तक नहीं है! तू भला कैसे इनाम जीतेगा?' पर अब उसने देख लिया होगा कि उसके बेटे की जो पोशाक है, उसका मुकाबला तो बेशकीमती रंग-बिरंगी पोशाकें भी नहीं कर सकतीं।..."

लोग हैरानी से ठुनठुनिया की बातें सुन रहे थे।

इसके बाद ठुनठुनिया ने कहा, "अगली बार अपनी कला और निखार सकूँ, आप सब इसका आशीर्वाद दीजिए।...हाँ, अपने एक अपराध की क्षमा आप सब लोगों से माँगता हूँ। अभी कुछ रोज पहले गाँव की चौपाल पर जो भालू आया था और जिसने गाँव के बहुत से लोगों के साथ-साथ चाचा रामदीन को भी डरा दिया था, वह सचमुच का भालू नहीं, मैं ही था। और मैंने यही पोशाक पहनी थी, जिसे देखकर सभी को भालू नजर आने लगा।...

"मगर यह पोशाक मुझे मिली कहाँ से, इसका भी एक किस्सा है।...यह पोशाक मुझे जंगल में एक पेड़ के नीचे मिली थी और मैंने सोचा, जरा देखूँ, इसे पहनकर मैं कैसा लगता हूँ? आप सबको मेरे कारण परेशानी हुई, इसके लिए माफी चाहता हूँ। पर सच तो यह है कि उसी दिन मेरे मन में आया कि अगर इस मुखौटे को पहनकर मैं 'भालू-नाच' नाचूँ तो इनाम जीत सकता हूँ। और आज सचमुच मेरा सपना पूरा हो गया..."

"हाँ, और एक बात गजराज बाबू जी से भी कहनी है। उनके हाथों से इनाम पाकर मुझे अच्छा लगा, पर उनसे पहली दफा मुझे यह इनाम नहीं मिला है।...कई बरस पहले होली मेले में उन्होंने मुझे दस रुपए का एक खरखरा नोट इनाम में दिया था, जिससे मैंने में खूब सारी चीजें ली थीं और पहली बार चरखी वाले झूले पर झूला था।...वह इनाम मुझे गजराज बाबू ने क्यों दिया, इसकी याद नहीं दिलाऊँगा, क्योंकि आप में से बहुत से लोग जानते ही हैं। गजराज बाबू को भी अब याद आ गया होगा कि मजाक-मजाक में उनका नाम 'हाथी बाबू' कैसे पड़ गया! अगर उन्हें बुरा लगा हो, तो उनसे भी मैं माफी माँगता हूँ।..."

ठुनठुनिया जब बोलकर मंच से उतरा तो देर तक पंडाल में तालियाँ बजती रहीं। गजराज बाबू ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया और खूब जोरों से पीठ थपथपाई।

इतने में गोमती भी वहाँ आ गई। ठुनठुनिया ने आगे बढ़कर माँ के पैर छुए तो मारे खुशी के उसकी आँखों में आँसू छलछला आए।

7

कंचों का चैंपियन

ठुनठुनिया गाँव के कई बच्चों को कंचे खेलते देखा करता था। इनमें सबसे खास था नीलू। कंचे खेलने में नीलू इतना होशियार था कि खेल शुरू होने पर देखते ही देखते सबके कंचे उसकी जेब में आ जाते थे। इसलिए बच्चे उसके साथ खेलने से कतराते थे। कहते थे, "ना-ना भाई, तू तो जादूगर है। पक्का जादूगर...! हमारे सारे कंचे पता नहीं कैसे देखते ही देखते तेरी जेब में चले जाते हैं?"

ठुनठुनिया बड़े अचरज से नीलू को कंचे खेलते देखकर मन ही मन सोचता था, 'काश, मैं भी नीलू की तरह होशियार होता!'

पर उसके पास तो कंचे थे ही नहीं, फिर वह भला नीलू से कैसे खेलता? और कैसे उस जैसा होशियार हो जाता?

एक दिन ठुनठुनिया दौड़ा-दौड़ा घर गया। माँ से बोला, "माँ-माँ, एक इकन्नी तो देना। कंचे लेने हैं।"

गोमती दुखी होकर बोली, "बेटा, आज तो घर में बिल्कुल पैसे नहीं हैं। वैसे भी तेरे सारे शौक पूरे हों, इतने पैसे हमारे पास कहाँ हैं! बस, किसी तरह गुजारा चलता रहे, इतना-भर ही मेरे पास है। आगे तू बड़ा होकर कमाने लगेगा तो...!" कहते-कहते माँ की आँखें गीली हो गईं।

"नहीं माँ, नहीं! एक इकन्नी तो आज मुझे दे दे, फिर नहीं माँगूँगा।" ठुनठुनिया ने जिद करते हुए कहा।

गोमती के पास उस समय मुश्किल से कुछ आने ही बचे थे। सोच रही थी कि यह पैसा घर की जरूरतों के लिए बचाकर रखा जाए। उसी में से निकालकर गोमती ने इकन्नी दी, तो ठुनठुनिया उसी समय ठुमकता हुआ भागा और इकन्नी के आठ नए-नकोर कंचे खरीद लाया।

कंचे लोकर उसने दोस्तों को दिखाए तो सभी की आँखें चमकनें लगीं। सुभाष, नीलू, अशरफ -सभी चाहते थे कि ठुनठुनिया बस उसी के साथ खेले। नए-नकोर कंचों की चमक सभी को लुभा रही थी।

पर ठुनठुनिया सोच में पड़ गया। बड़ी मुश्किल से वह माँ से एक इकन्नी माँगकर लाया। अगर खेल में ये सारे के सारे कंचे चले गए तो...? उसका दिल नहीं मान रहा था कि वह इन कंचों को इस तरह लुटा दे।

तभी उसे तरकीब सूझी। उसने नीलू से कहा, "नीलू, मैं तेरे साथ खेलूँगा। पर तू तो पक्कड़ है, मैं कच्चड़। पहले मुझे अच्छी तरह खेल सिखा दे! मैं फिर एक खेल सिखाने के बदले तुझे यह बड़ा वाला नीला, चमकदार कंचा दूँगा।"

सुनते ही नीलू खुश हो गया। वह उसी समय ठुनठुनिया को कंचे खेलना सिखाने लगा। नीलू को खेल के बहुत सारे दाँव-पेच आते थे। वह ठुनठुनिया को बताता जा रहा था। ठुनठुनिया ने खुद भी अपने हाथों से कंचे खेलकर बहुत कुछ सीख लिया। नीलू की चालों को भी समझ लिया। बड़ी देर तक नीलू और ठुनठुनिया कंचों का 'दोस्ती वाला मैच' खेलते रहे, जिसकी शर्त यह थी कि कोई किसी के कंचे लेगा नहीं। खेल के बाद दोनों एक-दूसरे के कंचे लौटा देंगे।

शाम हुई तो नीलू ने कहा, "वाह! ठुनठुनिया, तू तो अब खासा होशियार हो गया। ला मुझे दे, अब नीला वाला चमकीला कंचा!"

ठुनठुनिया ने झट नीला कंचा निकालकर नीलू के हाथ में पकड़ाया और खुश-खुश घर चला गया। अब उसके पास केवल सात कंचे थे। पर उसने सोच लिया था, इन सात कंचों में से एक भी मुझे कम नहीं होने देना।

अगले दिन सुबह ठुनठुनिया घर से निकला और मैदान में जाकर अकेला कंचे खेलने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसने अपना निशाना इतना पक्का कर लिया कि जिस भी कंचे को चाहता, उसी पर दूर से 'टन्न' निशाना लगा देता।

ठुनठुनिया एक दिन में काफी कुछ सीख गया था। फिर भी अकेले खेलकर उसने दूर-दूर के कंचों पर निशाना लगाना जारी रखा। कंचे एक-एक कर पिटते और नीलू का दिल बल्लियों उछल पड़ता। वह मन ही मन अपने को शाबाशी देता, 'यह हुई न बात!...वाह रे ठुनठुनिया, वाह!!'

नीलू आया तो हँसकर बोला, "अरे ठुनठुनिया, तू अकेला-अकेला क्यों खेल रहा है? क्या तुझे हारने का डर है?"

"नहीं! मैं तो सोच रहा हूँ, तुझे कैसे हराऊँ?" ठुनठुनिया हँसकर बोला।

"मुझे? तू...! तू मुझे हराने की सोच रहा है?" नीलू ने अचकचाकर कहा। ठुनठुनिया के तेवर आज उसे अजीब लगे।

"तो क्या तुम समझते हो कि तुम हमेशा, हर किसी से जीतते ही रहोगे?" ठुनठुनिया खूब जोरों से मुट्ठी के कंचे ठनठनाकर बोला।

इस पर नीलू को तो आग लग गई। "तो चल, हो जाए खेल शुरू!" उसने कंचे निकाल लिए और ठुनठुनिया को चुनौती देता हुआ खड़ा हो गया।

पर ठुनठुनिया भी आज पूरी तैयारी करके खेल में डटा था। शुरू में एक-दो कंचे हारा, पर अंत में आकर उसने खेल बराबर कर दिया। नीलू पसीने-पसीने हो गया। पर ठुनठुनिया तो पूरी मस्ती से खेल रहा था।

खेल के बाद ठुनठुनिया घर लौट रहा था तो नीलू ने कहा, "सचमुच ठुनठुनिया, तूने तो कमाल कर दिया!"

"अभी कहाँ। अभी तो मेरा कमाल तुम कल देखना। थोड़े ज्यादा कंचे घर से लेकर निकलना, वरना कहीं...!" कहर ठुनठुनिया खुश-खुश घर की ओर चल दिया।

अगले दिन ठुनठुनिया ने फिर सुबह-सुबह अकेले मैदान में जाकर दूर से कंचों पर निशाना लगाना और उन्हें पिल्ल में डालने का अभ्यास किया। नीलू आया तो हँसकर बोला, "ठुनठुनिया, लगता है, तूने तो कंचों का चैंपियन बनने की ठान ली है।"

"हाँ-हाँ, और क्या! आकर खेल तो सही।" ठुनठुनिया ने कहा। और उस दिन सचमुच नीलू को उसने बुरी तरह हरा दिया। उसके एक-दो नहीं, पूरे सात कंचे ठुनठुनिया की जेब में आ गए। एक जेब में उसके अपने सात कंचे थे, दूसरी में नीलू से जीते हुए सात कंचे। जितने भी बच्चे वहाँ आए, सबको ठुनठुनिया ने नीलू से जीते हुए कंचे दिखाकर कहा, "सुनो रे, सुनो, मेरे पास तो सात थे, चौदह कंचे हो गए। जिसे भी अपने कंचे दूने करवाने हैं, आकर मुझसे जादू सीख ले।"

ठुनठुनिया की बात सुनकर बच्चों ने हैरत से नीलू की ओर देखा। मगर वह तो पहले ही मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ था।

अब तो हालत यह थी कि नीलू मैदान में ठुनठुनिया को देखते ही भाग खड़ा होता और ठुनठुनिया वहीं से हँसकर कहता, "अरे भई चैंपियन, जरा रुको तो! अरे, सुनो...!"

ठुनठुनिया ने नीलू को तो जम के हराया, मगर दूसरे बच्चों के साथ वह खूब मजे से खेलता। जिन-जिनके कंचे जीतता, उनके बाद में वापस कर देता। इस पर सब बच्चे हँसकर नारा लगाते, "ठुनठुनिया जिंदाबाद!"

कुछ दिनों तक तो नीलू दूर-दूर, शरमाया-सा यह देखता रहा, फिर वह भी लालच छोड़कर इस खेल में शामिल हो गया। इस खेल की शर्त यह थी कि जो भी दूसरों के कंचे जीतेगा, वह बाद में ईमानदारी से वापस कर देगा।

ठुनठुनिया इतना पक्कड़ हो गया था कि सबसे ज्यादा कंचे वही जीतता और बाद में लौटा देता। सब बच्चों के साथ-साथ अब नीलू की भी आवाज सुनाई देती, "ठुनठुनिया, जिंदाबाद...!"

8

निम्मा गिलहरी से दोस्ती

गुलजारपुर में तालाब के किनारे एक बड़ा-सा बरगद का पेड़ था। ठुनठुनिया को वह अच्छा लगता था। उसी के नीचे बैठकर वह देर तक बाँसुरी बजाया करता था। बाँसुरी बजाते हुए ठुनठुनिया अपनी सुध-बुध खो देता था। उसकी आँखें बंद हो जातीं और दिल में रस और आनंद का झरना फूट पड़ता। बाँसुरी बजाते-बजाते कितनी देर हो गई, खुद उसे पता नहीं चलता था।

चमकीली आँखों वाली एक निक्कू सी गिलहरी बड़े ध्यान से ठुनठुनिया की बाँसुरी सुना करती थी। वह उसके पास आकर बैठ जाती और गोल-गोल कंचे जैसी चमकती आँखों से अपनी खुशी जाहिर करती। कभी-कभी ठुनठुनिया बुलाता तो धीरे-धीरे चलती, ठुमकती हुई उसकी गोद में आ जाती।

एक दिन केकापुर से ठुनठुनिया का दोस्त गंगू आया हुआ था। दोनों बरगद के पेड़ के नीचे बैठ, खूब सारी बातें कर रहे थे। न जाने कौन-कौन सी दुनिया-जहान की बातें! तभी उछलती-कूदती आ गई वही निक्कू सी गिलहरी। गंगू को बहुत अच्छा लगा। ठुनठुनिया की भी हँसी छूट गई। उसने पूछा, "तेरा नाम क्या है री गिलहरी?"

"निम्मा...! निम्मा गिलहरी!" गिलहरी ने सकुचाते हुए कहा।

"वाह! नाम तो तेरा निराला है, मेरी ही तरह!" कहकर ठुनठुनिया जी भरकर हँसा। फिर बोला, "अच्छा बताओ, निम्मा! क्या तुम्हें मेरी बाँसुरी अच्छी लगती है?"

"अच्छी! बहुत अच्छी।" निम्मा गिलहरी बोली, "पूरे जंगल में तुम्हारी संगीत की तरंगें भर जाती हैं। लगता है, संगीत की वर्षा हो रही है। मेरा मन करता है, तुम बजाते रहो और मैं सुनती रहूँ...बस, सुनती रहूँ। जंगल में हर कोई तुम्हारी तारीफ करता है। हिरन हो या भालू, सब सिर हिला-हिलाकर सुनते हैं और खुश होते हैं। कभी-कभी लगता है, काश! मैं भी तुम्हारी तरह बाँसुरी बजा पाती!"

"चाहो तो तुम भी सीख ले। कोई मुश्किल थोड़े ही है।" ठुनठुनिया बोला। फिर उसने पूछा, "तुम यहाँ कब से रह रही हो...?"

"यहाँ, इस बरगद के पेड़ पर?...पिछली सर्दियों से तो हूँ ही, पर लगता है, अब यह आसरा छूट जाएगा।" कहते हुए गिलहरी की आवाज में गहरा दर्द उभर आया था।

"क्यों?" ठुनठुनिया ने पूछा।

"इसलिए कि कुछ लोग हत्यारे हैं। वे सिर्फ थोड़े-से पैसों के लिए पेड़ों की हत्या करते हैं। वे नहीं जानते कि वे कितना बड़ा पाप कर रहे हैं।" दुखी स्वर में निम्मा ने बताया। फिर कहा, "ठुनठुनिया, तुम जरा एक तरफ छिप जाओ। वे दुष्ट लोग फिर इधर आ रहे हैं, जो इस पेड़ को काटकर बेच देना चाहते हैं। तुम छिपकर सुनना उनकी बातें!"

सुनकर ठुनठुनिया और गंगू दोनों को बहुत बुरा लगा। वे झटपट भागकर एक झाड़ी के पीछे छिप गए। वहीं से जब उन्होंने कुछ लोगों को वहाँ आते देखा और उनकी बातें सुनीं, तो उन्हें यकीन हो गया कि गुलजारपुर के इस पुराने, सुंदर पेड़ को काटने की पूरी तैयारियाँ हो चुकी हैं।

ठुनठुनिया के लिए वह पेड़ सिर्फ एक पेड़ नहीं, बल्कि दादा-परदादा की तरह था, जिसका आशीर्वाद पूरे गाँव पर बरसा रहता था। लेकिन कुछ लोगों के लिए तो वह महज आमदनी का एक जरिया ही था, जिसके लिए वे कुछ भी कर सकते थे।...कितना ही नीचे गिर सकते थे!

"लो भाई, पूरे एक हजार रुपए! सँभाल लो। सौदा पक्का रहा।...रात में हम काटने आएँगे। जमींदार को पता ही नहीं चलेगा। वैसे भी वह तो शहर में है, हम चुपचाप काटकर चले जाएँगे। लोग सोचेंगे, पुराना पेड़ है, अपने आप गिर-गिरा गया। मुखिया जी को तो हमने पैसे देकर अपने साथ मिला ही लिया है।" उनमें से एक घुटी-घुटी आवाज में कह रहा था और बाकी सिर हिला रहे थे।

जिसे पैसे मिले थे, वह गाँव का ही एक धूर्त व्यापारी चमनलाल था। उसने चुपके-से रुपए गिने और अपनी जेब में डाल लिए।

रुपए देने वाले मोटे, थुलथुल आदमी ने कहा, "आज ही रात में हम आएँगे। देखना, कोई टंटा न हो।"

"नहीं होगा, भाई बिल्कुल नहीं होगा। ठाट से काटो, जिम्मा मेरा...!" हलकी मूँछों और चिकने चेहरे वाले चमनलाल ने कहा तो सब एक साथ हँसे, "यह हुई न बात!" फिर वे वहाँ से चले गए।

चमनलाल और दूसरे लोगों की बात सुनकर ठुनठुनिया सन्न रह गया।

'ओह! मेरा यह प्यारा पेड़ कट जाएगा, जिससे तालाब की इतनी सुंदरता है तथा पूरे गाँव को छाया मिलती है?' ठुनठुनिया सोचने लगा, 'इस बरगद की शीतल छाया के कारण ही तो चिलचिलाती धूप और गरमी में भी यहाँ आकर बैठने का मन होता है। इसी के कारण तो मेरी बाँसुरी में इतना रस घुल गया है। इसने पूरे गाँव को जीवन दिया है। यहाँ होली, दीवाली और वसंत में जो मेला-ठेला जुड़ता है, उससे गाँव में कितनी रौनक रहती है! सिर्फ थोड़े से रुपयों की खातिर इस पेड़ की हत्या...?'

"नहीं निम्मा बहन, नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा!" ठुनठुनिया ने प्यार से गिलहरी की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे दिलासा दिया और गंगू के साथ एकाएक तेजी से दौड़ पड़ा। पीछे से उसे निम्मा गिलहरी की चटकीली आवाज सुनाई दी, "हाँ-हाँ, ठीक है ठुन-ठुनिया...हाँ-हाँ, चिक-चिक-चिक...!"

दौड़ते-दौड़ते दोनों गुलजारपुर से पाँच कोस दूर रायगढ़ पहुँच गए। अब तक अँधेरा हो चुका था। जमींदार गजराज बाबू अपनी हवेली के सामने बैठे हुक्का गुडग़ुड़ाते कुछ दोस्तों से बात कर रहे थे।

ठुनठुनिया को यों अचानक आया देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। पूछा, "क्यों रे ठुनठुनिया, क्या बात है?...सब खैरियत तो है न!"

ठुनठुनिया ने हाँफते हुए सारी बात बता दी। फिर कहा, "बाबू साहब, वह पेड़ जरूर बचा लीजिए। वह पेड़ तो गुलजारपुर गाँव की शोभा और शान है। कितने ही लोग उसकी शीतल छाया में मिल-जुलकर बैठते हैं। उससे सभी को शांति मिलती है। उसे कटने मत दीजिए। इसीलिए मैं गंगू के साथ...!"

"चिंता न कर ठुनठुनिया, उसे कोई नहीं काट पाएगा।" गजराज बाबू ने बुलंद आवाज में कहा। वे सारा माजरा समझ गए थे।

फिर वे उठे तो साथ ही उनके दोस्त भी उठ खड़े हुए। सभी मोटर में बैठे, साथ ही गंगू और ठुनठुनिया भी थे। रास्ते में थाने के आगे मोटर रोककर उन्होंने थानेदार से बात की और पुलिस के दो सिपाहियों को भी साथ ले लिया। उनकी मोटर अब तेजी से गुलजारपुर को ओर चल पड़ी थी।

अभी उस पेड़ को काटने का इरादा करके आए लोगों ने बस दो-चार कुल्हाड़ियाँ ही मारी होंगी कि इतनी ही देर में गजराज बाबू की मोटर वहाँ पहुँच गई। देखकर वे सब हक्के-बक्के रह गए। कुल्हाड़ियों की किरकिराती आवाज एकाएक रुक गई -थम्मss...!

गजराज बाबू ने सिपाहियों से कहा, "इन बदमाशों को पकड़कर थाने में बंद कर दो।"

उनमें से कुछ लोगों ने भागने की कोशिश की, पर आखिरकार वे भी पकड़ में आ गए। ठुनठुनिया और गंगू ने भी उन्हें पकड़ने में मदद की।

थोड़ी देर बाद मुखिया आया तो गजराज बाबू ने उसे भी खूब डाँटा। कहा, "अपने होश की दवा कीजिए बुलाकीराम जी। नहीं तो क्या पता, अगली बार आप भी जेलखाने में होंगे। कितनी हैरानी की बात है कि जिस गाँव में ठुनठुनिया जैसा समझदार बच्चा है, उसी में आप जैसा लालची आदमी भी है, जिसे गाँव वालों ने पता नहीं क्या सोचकर मुखिया बनाया। मुझे तो शर्म आ रही है आप पर...!"

मुखिया बुलाकीराम इस समय एक दयनीय प्राणी बना हुआ था। उसने गिड़गिड़ाकर किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर माफी माँगी।

तभी चमनलाल को भी बुलाया गया। धूर्त व्यापारी चमनलाल की मूँछें भी झुक गई थीं। सारी चतुराई नौ दो ग्यारह। सामने गजराज बाबू और पुलिस वालों को देखकर वह बुरी तरह काँप रहा था।

ठुनठुनिया इस बीच गौर से बरगद के उस बूढ़े पेड़ की ओर निहार रहा था। उसे लगा कि जैसे बरगद के पेड़ ने उसे चुपचाप आशीर्वाद दे दिया है, 'जीते रहो ठुनठुनिया, जीते रहो। ऐसे ही नेक काम करोगे तो एक दिन दुनिया में तुम्हारा नाम होगा...!'

गजराज बाबू अब वापस शहर चलने को तैयार हुए। मोटर में बैठने से पहले उन्होंने गंगू और ठुनठुनिया की खूब जोरों से पीठ थपथपाई। बोले, "आज तुम लोग न होते, तो सचमुच गुलजारपुर गाँव ही यह पुरानी निशानी खत्म हो जाती।...खत्म हो जाती गाँव ही यह आत्मा! पेड़ काटने वालों ने यह भी न सोचा कि यह बरगद तो गाँव के पुरखे की तरह है, जिसका आशीर्वाद सभी को मिलता है।"

गजराज बाबू यह कह रहे थे, तो निम्मा गिलहरी ठुमक-ठुमककर कभी गंगू, कभी ठुनठुनिया और कभी गजराज बाबू के चारों ओर चक्कर काट रही थी। ठुनठुनिया बोला, "बाबू साहब, धन्यवाद मुझे नहीं, इस निम्मा गिलहरी को दीजिए। मैं तो गंगू के साथ बातें करने और बाँसुरी बजाने में ही खोया हुआ था। इसी ने बताया कि कुछ लोग इस पेड़ को काटकर बेचने की साजिश कर रहे हैं और वे रात में इसे काटने आएँगे। इसका घर इसी पेड़ पर है, तो यह बुरी तरह परेशान थी।...बस, इसकी करुण पुकार सुनाई पड़ी। फिर मेरे प्यारे दोस्त गंगू का सहारा तो था ही, मैं दौड़ पड़ा!"

निम्मा गिलहरी ने जब ठुनठुनिया के मुँह से अपना नाम सुना, तो जोश में आकर वह ठुनठुनिया के ऊपर चढ़ती चली गई। मजे में उसके कंधे पर बैठकर हाथ हिलाती हुई बोली, "धन्यवाद ठुनठुनिया...धन्यवाद बाबू साहब! आप सबकी वजह से मेरा आसरा, मेरा घर खत्म होने से बच गया! मेरा तो पक्का यकीन है, इसी तरह हम एक-दूसरे की सुनें तो बड़ी-से-बड़ी आपदाओं से लड़ सकते हैं।"

कहकर गिलहरी झट से नीचे उतरी और फिर उछलती-कूदती पेड़ पर चढ़ गई।

गंगू और ठुनठुनिया के सिर पर फिर प्यार से हाथ फेरकर गजराज बाबू गाड़ी में बैठे और शहर की ओर चल पड़े। सिपाही एक अलग गाड़ी में हथकड़ियाँ पहने उन बदमाशों को जेल ले जा रहे थे।

उस दिन गंगू और ठुनठुनिया बुरी तरह थके हुए थे। पर पूरी रात वे सोए नहीं, बातें करते रहे। कभी गुलजारपुर के प्यारे बरगद, कभी निम्मा गिलहरी, कभी गजराज बाबू की बातें।...बातों में से और-और बातें निकलती जातीं!

गोमती ने प्यार से डाँटा, तब वे सोए।

9

नाम का चक्कर

अब तो सब ओर ठुनठुनिया का नाम फैल गया। सिर्फ गुलजारपुर में ही नहीं, आसपास के गाँवों में भी उसके नाम के चर्चे होने लगे। सब कहते, "भाई, ठुनठुनिया तो सबसे अलग है।...ठुनठुनिया जैसा तो कोई नहीं!"

पर कुछ लोग ठुनठुनिया को खामखा छेड़ते भी रहते थे। वे कहते, "ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया! जरा बता तो, तेरे नाम का मतलब क्या है?"

"मतलब क्या है...? अजी, ठुनठुनिया माने ठुनठुनिया!" ठुनठुनिया अपने सहज अंदाज में ठुमककर कहता।

"यह तो कोई बात नहीं हुई। ठुनठुनिया का तो कोई मतलब हमने सुना नहीं। इतना अजीब नाम तो किसी का नहीं है। ठुनठुनिया, तू ये नाम बदल ले।" छेड़ने वाले लोग ऊपर से चेहरा गंभीर बनाए रखते, पर अंदर-अंदर हँसते रहते।

ठुनठुनिया ने एक-दो को तो किसी तरह जवाब दिया। पर जब कई लोगों ने अदल-बदलकर यही बात कही तो वह चकरा गया। माँ के पास जाकर बोला, "माँ...माँ, मेरा ठुनठुनिया नाम सुनकर लोग हँसी उड़ाते हैं। तू यह नाम बदल दे।"

माँ हैरान होकर बोली, "अरे, तेरा कितना अच्छा तो नाम है बेटा! इतना प्यारा नाम तो किसी का नहीं। तू क्यों इसे बदलना चाहता है?"

इस पर ठुनठुनिया बोला, "माँ, ठुनठुनिया का कोई मतलब भी तो नहीं होता...!"

"देख ठुनठुनिया, मैं तुझे ठुनठुनिया कहकर बुलाती हूँ और तू दौड़ता हुआ मेरे पास चला आता है। मेरे लिए तो इतना की काफी है बेटा! और भला नाम का क्या मतलब होता है?" माँ ने कहा, "फिर भी अगर तुझे यह नाम अच्छा नहीं लगता, तो जा, शहर चला जा। वहाँ लोग जरा नए और अच्छे-अच्छे नाम रखते हैं। लोगों से उनका नाम पूछना। जो तुझे अच्छा लगे, वही नाम तेरा रख दूँगी।"

ठुनठुनिया को बात जँच गई। वह फौरन शहर की ओर चल दिया। एक जगह वह चौराहे पर खड़ा था। इतने में फटे कपड़ों में एक दीन-हीन भिखारी भीख माँगता हुआ आया। बोला, "एक पैसा दे दो बाबू!"

ठुनठुनिया के पास पैसे तो भला कहाँ थे। माँ ने अचार के साथ दो रोटियाँ बाँधकर दी थीं। ठुनठुनिया ने एक रोटी और थोड़ा-सा अचार भिखारी को दे दिया। भिखारी भूखा था। वहीं खड़े-खड़े खाने लगा। जब वह चलने लगा, ठुनठुनिया ने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है भाई?"

"नाम तो अशर्फीलाल है बाबू, पर...!" कहते-कहते भिखारी की आँखें डबडबा गईं।

ठुनठुनिया को बड़ा अजीब लगा। अभी वह सोच ही रहा था कि अब किससे उसका नाम पूछूँ, तभी एक ओर कुछ शोर-सा हुआ, "चोर, चोर, जेबकतरा...!"

ठुनठुनिया ने चौंककर देखा, एक बदमाश आदमी ने एक सेठ का बटुआ चुराने की कोशिश की थी। उसने सेठ जी की जेब से बटुआ निकाल लिया था, पर भाग पाता, इससे पहले ही लोगों ने उसे पकड़ लिया और खूब पिटाई की। बाद में सिपाही आया और उसके हाथों में हथकड़ी लगाने लगा।

ठुनठुनिया ने उस जेबकतरे के पास जाकर कहा, "भाई, बुरा न मानो तो क्या मैं तुम्हारा नाम जान सकता हूँ?"

जेबकतरा रुआँसा हो गया। बोला, "नाम का क्या करोगे बाबू जी? नाम तो हरिश्चंद्र है, पर किस्मत की बात है, चोरी-चकारी करके पेट भरना पड़ता है।...अब तो यही हमारी जिंदगी है!"

सुनते ही सब लोग आपस में कानाफूसी करने लगे, "अरे, देखो तो जरा, नाम तो है इसका हरिश्चंद्र और काम जेबकतरे का...ही-ही-ही!"

ठुनठुनिया का जी धक से रह गया। सोचने लगा -अरे, यह क्या चक्कर...?

इतने में ठुनठुनिया सेठ जी के पास गया। बोला, "माफ करें सेठ जी, आपका नाम जान सकता हूँ?"

"क्यों भई, तुझे मेरे नाम से क्या मतलब?" सेठ जी तुनक गए। गुस्से के मारे उनकी आँखें चश्मे से बाहर निकलने को हुईं। चश्मा गिरते-गिरते बचा।

ठुनठुनिया एकदम विनम्र स्वर में बोला, "बुरा न मानें सेठ जी, असल में मेरा नाम ठुनठुनिया है। मैं इस नाम को बदलना चाहता हूँ। किसी अच्छे से नाम की तलाश में शहर आया हूँ। इसलिए सभी से नाम पूछता जा रहा हूँ। शायद कोई ऐसा अच्छा नाम मिले जो...!"

सुनते ही सेठ जी कुछ शरमा-से गए। बोले, "भई, तब तो तुम्हें मेरा नाम बिल्कुल अच्छा न लगेगा। मेरा नाम है -छदामीमल।"

ठुनठुनिया का मुँह खुला का खुला रह गया। बोला, "अरे...!"

उसी क्षण ठुनठुनिया वापस घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में सोचता जा रहा था, 'वाह...वाह! नामों का भी अजब चक्कर है। छदामीमल इतना बड़ा सेठ निकला और अशर्फीलाल गली-गली भीख माँग रहा था। हरिश्चंद्र चोरी और जेब काटने के चक्कर में जेल की हवा खा रहा है।...भई, कमाल है...कमाल है! यहाँ तो दाल की जगह कंकड़, कंकड़ की जगह दाल है। अजब नाम का बवाल है!'

अपनी तुकबंदी पर उसे खूब मजा आया। अलबत्ता यही सब सोचते-सोचते ठुनठुनिया घर आ पहुँचा।

गोमती बेटे का इंतजार कर रही थी, बोली, "बेटा, मिला कोई अच्छा-सा नाम?"

"नहीं माँ, नहीं...! बहुत नाम सुने, पर मुझे तो कोई पसंद नहीं आया। उनसे तो मेरा ठुनठुनिया नाम ही भला है।" ठुनठुनिया ने ठुनककर कहा।

"हाँ रे हाँ ठुनठुनिया, यही तो मैं तुझसे कहती थी।" माँ ने प्यार से उसके गाल थपथपाते हुए कहा, "पर तेरी समझ में आता ही नहीं था। चल, अब मुँह-हाथ धोकर कुछ सुस्ता ले, थक गया होगा। मैं अभी तेरे लिए गरमागरम खाना बनाती हूँ।"

कहकर गोमती खाना बनाने में जुट गई और ठुनठुनिया कमरे में बड़े मजे में कलामुंडियाँ खाता हुआ जोर-जोर से गाने लगा -

ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया,

हाँ जी, हाँ जी...ठुनठुनिया,

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया

ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया,

देखो, मैं हूँ ठुनठुनिया!

हाँ जी, हाँ जी...ठुनठुनिया!

गोमती ने झाँककर कमरे में देखा तो ठुनठुनिया का गाना और नाटक देखकर बड़े जोर की हँसी छूट गई।

वह हँसती जाती थी और खाना बनाती जाती थी। बीच में न जाने कब वह भी गुनगुनाने लगी, "हाँ जी, हाँ जी ठुनठुनिया...ठुन-ठुन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया...!"

10

स्कूल में दाखिला

ठुनठुनिया का नाम तो चारों ओर फैल रहा था, पर उसकी शरारतें और नटखटपन भी बढ़ता जा रहा था। ठुनठुनिया की माँ गोमती कभी-कभी सोचती, 'क्या मेरा बेटा अनपढ़ ही रह जाएगा? तब तो जिंदगी-भर ढंग का खाने-पहनने को भी मोहताज रहेगा। एक ही मेरा बेटा है। थोड़ा पढ़-लिखकर कोई ठीक-ठाक काम पा जाए, तो मुझे चैन पड़े। कम से कम तब गुजर-बसर की तो मुश्किल न होगी।'

आखिर एक दिन ठुनठुनिया की माँ उसे लेकर गुलजारपुर के विद्यादेवी स्कूल में गई। स्कूल के हैडमास्टर थे सदाशिव लाल। ठुनठुनिया की माँ ने उनके पास जाकर कहा, "एक ही मेरा बेटा है मास्टर जी। जरा शरारती है, पर दिमाग का तेज है। आप उसका नाम अपने स्कूल में लिख लें, तो मुझे बड़ा चैन पड़ेगा। पढ़-लिखकर जरा ढंग का आदमी बन जाएगा।"

सदाशिव लाल थे तो भले, पर जरा सख्त स्वभाव के थे। उन्होंने कठोर निगाहों से ठुनठुनिया की ओर देखते हुए कहा, "क्यों रे ठुनठुनिया, थोड़ी गिनती-विनती जानता है क्या?"

इस पर ठुनठुनिया ने झट अपना बड़ा सा गोल-मटोल सिर हिला दिया, "नहीं!"

"और अ-आ, इ-ई...यानी वर्णमाला?" हैडमास्टर साहब ने जानना चाहा।

ठुनठुनिया ने फिर 'न' में सिर हिलाया। उसका ध्यान सामने अलमारी में उछल-कूद करते एक बड़े ही चंचल चूहे की तरफ था। चूहा था भी बहुत बड़ा...और अच्छा-खासा कलाकार। 'हाई जंप', 'लॉन्ग जंप' सबकी उसकी खासी अच्छी प्रैक्टिस थी। लिहाजा वह शरारती चूहा कभी चॉक के डिब्बे पर उछलता तो कभी मजे में डस्टर पर आ बैठता। फिर उछलता हुआ पास ही मोड़कर रखे गए हैडमास्टर जी के चार्ट और नक्शों के बीच घुस जाता और धमाचौकड़ी मचाने लगता।...ठुनठुनिया उसी को देख-देखकर मगन हो रहा था।

उधर हैडमास्टर साहब की कठोर मुद्रा देखी तो गोमती विनम्रता से प्रार्थना करती हुई बोली, "मुझ गरीब का तो यही सहारा है मास्टर जी। लड़का बुद्धि का तेज है, पर घर में कोई पढ़ाने वाला नहीं है, तो भला पाठ कैसे याद करता? अब आपके स्कूल में रहकर सब सीख जाएगा। बड़ा मेहनती लड़का है मास्टर जी। बड़ा सीधा भी है!"

"अच्छा, ठीक है...!" कहकर हैडमास्टर साहब ने एक फार्म निकाला। उसे भरते हुए पूछने लगे, "लड़के का पूरा नाम क्या है?"

"ठुनठुनिया...! बस यही नाम लिख लीजिए मास्टर जी!" गोमती बोली।

"और लड़के के पिता का नाम...?" हैडमास्टर साहब ने पेन को हाथ में लेकर पूछा।

"श्री दिलावर सिंह!" ठुनठुनिया ने कहा और एकाएक बड़ी तेजी से उछला, 'धम्म्...मss!'

"बाप रे...!" कमरे में जैसे तूफान आ गया हो!

ठुनठुनिया को मेढक की तरह इतनी तेजी से उछलते देखकर हैडमास्टर सदाशिव लाल ही नहीं, गोमती भी चकरा गई थी।

पर अगले ही क्षण "आ गए न बच्चू, पकड़ में!...बच के कहाँ जाओगे?" कहकर मगन मन हँसता ठुनठुनिया दिखाई पड़ा। उसके हाथ में एक बड़े-से चूहे की पूँछ थी और नीचे लटकता लाचार चूहा, तेजी से इधर-उधर हिलता छूटने की भरपूर कोशिश कर रहा था। मगर ठुनठुनिया के हाथ की मजबूत पकड़ से बेचारा छूट नहीं पा रहा था।

और उसी समय न जाने किस जादू या चमत्कार से काले रंग की एक 'पूसी कैट' भी वहाँ आ गई थी। शायद हैडमास्टर साहब के पीछे टँगे चार्ट से निकलकर -और मजे से जीभ लपलपा रही थी।...

हैडमास्टर साहब का कमरा पूरा अजायबघर बन चुका था।...काली बिल्ली की आँखों में किसी शिकारी जैसा चौकन्नापन था, मगर साथ ही खुद को बचाने की होशियारी भी। चूहे की आँखों में किसी न किसी तह बच निकलने और बिल्ली को धता बताने के वलवले थे।...बिना तीर-तलवार के घमासान लड़ाई चल रही थी और खतरा था कि कहीं जंगल से शेर, भालू, हिरन, कुत्ता, खरगोश सबके सब वहाँ न आ जाएँ।

ठुनठुनिया और अपने कमरे का यह विचित्र रूप देखकर हैडमास्टर साहब इस कदर सन्न रह गए कि सोच नहीं पा रहे थे, क्या करें क्या न करें? पर इतने में ही दो-तीन अध्यापक किसी काम से वहाँ आए और ठुनठुनिया का यह गजब का नाटक देखकर इतने जोरों से तालियाँ बजाकर और ठिल-ठिल करके हँसे कि सबके साथ-साथ हैडमास्टर साहब को भी मजबूरन हँसना पड़ा।

"बड़ी देर से उछल-कूद कर रहा था। देखिए हैडमास्टर साहब, मैंने पकड़ लिया न!" ठुनठुनिया ने बड़े गर्व से चूहे की ओर देखते हुए कहा। उसकी आँखों में खुशी की चमक थी।

चूहा अब भी उसी तरह नीचे की ओर लटका बुरी तरह उछल-कूद कर रहा था, लेकिन अपनी पूँछ ठुनठुनिया से छुड़ा नहीं पा रहा था। ठुनठुनिया की पकड़ ऐसी थी कि जैसे हाथ न हों, लोहे की सड़सी हो!

हैडमास्टर साहब किसी तरह अपने गुस्से को जज्ब करके बोले, "ठीक है ठुनठुनिया! अब इसे बाहर ले जाओ और मैदान की दूसरी तरफ ले जाकर छोड़ दो, ताकि यहाँ वापस न आ सके।...समझे? समझ गए न!"

ठुनठुनिया मैदान में चूहे को छोड़कर वापस आया, तो उसका दाखिले का फार्म भरा जा चुका था। हैडमास्टर साहब ने झटपट अपने दस्तख्त कर दिए और गोमती ने फीस के पूरे साढ़े पाँच रुपए जमा कर दिए।

हैडमास्टर साहब ने ठुनठुनिया से कहा, "आज ही किताबें-कॉपियाँ और बस्ता खरीद लो। कल से तुम्हारी पढ़ाई चालू...! और हाँ, स्कूल में शरारतें जरा कम करना, वरना बहुत पिटाई होगी।"

इस पर ठुनठुनिया ने गंभीर रहने की बहुत कोशिश की, फिर भी उसकी हँसी छूट ही गई, "ठी...ठी...ठी...!"

उसी दिन गोमती ने उसके लिए नई किताबें, कॉपियाँ, बस्ता खरीद दिया। जिसने भी सुना कि ठुनठुनिया स्कूल जाएगा, उसी ने हैरानी प्रकट की। पर ठुनठुनिया ने गर्व से कहा, "अजी, हैडमास्टर साहब मेरा दाखिला कर कहाँ रहे थे!...पर जब मैंने उन्हें एक बार में ही लपककर इत्ता बड़ा चूहा पकड़कर दिखाया, तो मान गए कि मैं लायक हूँ। बस, झट से मुझे दाखिल कर लिया।"

"ओहो, तो इसका मतलब यह है कि तुम्हें चूहे पकड़ने के लिए स्कूल में दाखिल किया गया है!" ठुनठुनिया के दोस्त मीतू ने कहा, तो ठुनठुनिया ने कुछ शरमाकर कहा, "ना जी ना, हमारा कोई यह मतलब थोड़े ही था!"

और फिर उसने दोस्तों को बिल्ली वाला अजीबोगरीब किस्सा भी सुनाया, "क्या नाम है, भाइयो, हमारे हाथा में था चूहा...बल्कि चूहे की पूँछ! बेचारा काँप रहा था।...और इधर आ गई पूसी कैट। जीभ लपलपा रही थी -आँखों में चमक! बड़ी मुश्किल से मामला टला, वरना तो हैडमास्टर साहब के कमरे में पूरा सर्कस...!"

11

क्लास में पहला दिन

स्कूल में दाखिला लेने के बाद ठुनठुनिया अगले दिन पहली कक्षा में पढ़ने गया। वहाँ मास्टर अयोध्या बाबू हिंदी पढ़ा रहे थे।

ठुनठुनिया कक्षा में जाकर सबसे पीछे बैठ गया और अपनी किताब खोल ली, पर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मास्टर जी क्या पढ़ा रहे हैं? पढ़ाते-पढ़ाते मास्टर जी का ध्यान ठुनठुनिया की ओर गया, तो उन्होंने उसकी ओर उँगली उठाकर पूछा, "क्या नाम है तुम्हारा?"

"जी, ठुनठुनिया...!" ठुनठुनिया ने खड़े होकर बड़े अदब से बताया।

"ठुनठुनिया! यह तो अजीब नाम है!" मास्टर अयोध्या प्रसाद कुछ सोच में पड़ गए। फिर उन्होंने पूछा, "अच्छा, ठुनठुनिया का कुछ मतलब भी होता है क्या?"

ठुनठुनिया मुसकराकर बोला, "मास्टर जी, पहले मैंने भी एक दिन यह बात सोची थी, जो आज आप कह रहे हैं। मैंने माँ से कहा, 'माँ-माँ, मेरा नाम बदलवा दो!' पर जब माँ के कहने पर मैं कोई अच्छा-सा नाम ढूँढ़ने के लिए शहर गया, तो बड़ा अजब नजारा देखा। वहाँ अशर्फीलाएल भीख माँग रहा था, हरिश्चंद्र जेब काटने के चक्कर में जेल जा रहा था, और छदामीमल शहर का बड़ा जाना-माना सेठ था। बस, तब से मास्टर जी, मुझे तो अपना ठुनठुनिया नाम ही पसंद है। इसका कोई मतलब हो या न हो...!"

सुनते ही मास्टर जी खुश हो गए।

"अरे! तुम तो बड़े समझदार हो। इतनी-सी देर में इतनी बड़ी बात कह दी!" मास्टर अयोध्या बाबू ने ठुनठुनिया की पीठ थपथपाते हुए कहा।

"और मास्टर जी, मैंने एक कविता भी बनाई है -अपने नाम की कविता। उसे सुनकर आप और भी खुश हो जाएँगे।" ठुनठुनिया ने जोश में आकर कहा।

"कविता? तुमने...?" मास्टर जी चौंके। फिर बोले, "अच्छा, जरा सुना तो ठुनठुनिया!"

और ठुनठुनिया ने उसी समय मगन होकर सुनाना शुरू किया और फिर साथ ही साथ मस्ती में ठुमकने भी लगा -

मैं हूँ नन्हा ठुनठुनिया!

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया,

ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया,

आज नहीं तो कल मानेगी

मुझको सारी दुनिया...

कि मैं हूँ ठुनठुनिया

अजी, हाँ, ठुनठुनिया!

ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया,

ठुनठुनिया, भई ठुनठुनिया...!

जैसे ही कविता पूरी हुई, पूरी क्लास में बड़े जोर की तालियाँ बजीं। बच्चे हँस रहे थे और ठुनठुनिया की कविता के साथ-साथ कविता सुनाने के अंदाज की खूब तारीफ कर रहे थे।

पहले दिन ही ठुनठुनिया क्लास का 'हीरो' बन गया। सबने समझ लिया था, ठुनठुनिया में सचमुच कुछ अलग है। हर बच्चा बड़े प्यार से उसकी ओर देख रहा था।

मास्टर अयोध्या बाबू ने ठुनठुनिया को गले से लगा लिया। बोले, "आज पहले ही दिन ठुनठुनिया, तूने तो मेरा दिल जीत लिया!"

12

मास्टर जी...चूहा!

मास्टर अयोध्या बाबू की शाबाशी ने सचमुच काम किया। अब ठुनठुनिया ने थोड़ा-थोड़ा पढ़ाई में मन लगाना शुरू किया। हालाँकि अब भी उसका ध्यान पढ़ाई से ज्यादा दूसरी चीजों पर रहता था। मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया को बड़े प्यार से समझाकर पढ़ाते। अ-आ, इ-ई...के बाद क-ख-ग...सब उन्होंने समझाया, याद कराया। किताब में एक-एक शब्द बोल-बोलकर पढ़ना सिखाया, फिर भी ठुनठुनिया हिंदी की किताब पढ़ने बैठता तो उसका ज्यादा ध्यान चित्रों पर ही रहता था।

चित्र थे भी गजब के। और एक से एक सुंदर। चूहा, बिल्ली, गधा, हाथी, भालू, हिरन, हंस, बगुला, पतंग, पेड़, गिलहरी, गुलाब...जैसे ये सच्ची-मुच्ची की दुनिया की चीजें और जानवर हों। मास्टर जी पढ़ाते तो चित्रों पर उनका जोर होता। कहते, "देखो, ग से गमला...! घ से घड़ी, ह से हंस...!"

एक दिन ऐसे ही समझा-समझाकर पढ़ाने के बाद मास्टर जी ने पूछा, "अच्छा, अब जरा पढ़कर तो सुनाओ ठुनठुनिया!"

पर ठुनठुनिया का ध्यान अभी तक किताब में बने हुए बिल्ली और चूहे पर था। चूहा अच्छी तरह मूँछें तानकर खड़ा था। खूब घमंड में -ऐन फिल्मी हीरो की तरह! यहाँ तक कि उसकी पूँछ भी बड़े अजब ढंग से उठी हुई थी। देखने में एकदम चुस्त और तेज-तर्रार। और बिल्ली दूर से उसे इस तरह घूर रही थी, जैसे अभी एक ही छलाँग मारकर दबोच लेगी।

बड़े गजब का दृश्य था। एकदम रोमांचक! बिल्ली ने अगर अभी छलाँग लगाई तो इस अकड़बाज अफलातून चूहे का क्या होगा, क्या...?

ठुनठुनिया देखता रहा, देखता रहा, देखता रहा। वह इंतजार कर रहा था, आखिर कब बिल्ली छलाँग मारकर चूहे को दबोची है और उसकी हेकड़ी का मजा चखाती है! पर ताज्जुब था, न चूहा अपनी जगह से हिलता था और न बिल्ली।...एकदम काँटे की टक्कर! वाह भई, वाह!!

तो कहीं बिल्ली इस हेकड़बाज चूहे से डर तो नहीं गई...?

उधर मास्टर अयोध्या बाबू को रह-रहकर इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि ठुनठुनिया ने उसकी बात ध्यान से सुनी तक नहीं। एकाएक वे जोर से चिल्लाकर बोले, "ठुनठुनिया रे ठुनठुनिया, तूने सुनी नहीं न मेरी बात! जल्दी से पढ़कर सुना, जो मैंने अभी-अभी समझाया है।"

अब ठुनठुनिया घबराकर किताब पर बने चित्रों की दुनिया से बाहर निकला, पर मन उसका वहीं अटका था।

मास्टर जी के पूछते ही उसने जोर से उछलकर कहा, "मास्टर जी, चूहा...! मास्टर जी...बिल्ली...!"

सुनते ही मास्टर अयोध्या प्रसाद समेत क्लास के सब बच्चों की हँसी छूट गई। एक-दो बच्चे तो झटपट उछलकर बेंच पर खड़े हो गए। उन्हें लगा, जरूर कहीं से क्लास में चूहा-बिल्ली आ गए हैं।

अजीब अफरातफरी सी मच गई।

मास्टर अयोध्या बाबू ने जोर से खिलखिलाकर कहा, "मास्टर जी न चूहा हैं, न बिल्ली! अब तू बैठ जा ठुनठुनिया। कल से अच्छी तरह पाठ याद करके आना। और हाँ, जब मैं पढ़ाता हूँ तो जरा ध्यान से मेरी बातें सुना कर, वरना इम्तिहान में भी बस चूहा-बिल्ली याद रहेंगे। और नंबर की जगह मिलेगा गोल-गोल अंडा!...समझ गया?"

इस पर पूरी क्लास फिर जोरों से हँसी। ठुनठुनिया ने हँसते-हँसते सिर नीचे झुका लिया और मन ही मन याद करने लगा, "क से कमल, ख से खरगोश, ग से गधा...!"

13

कहाँ गया खाना?

ठुनठुनिया जब स्कूल जाने के लिए घर से निकलता, तो उसकी माँ दोपहर में खाने के लिए या तो उसे अचार-रोटी देती या फिर केला-अमरूद। कभी-कभी मूँगफली या लाई-चने भी देती। आधी छुट्टी होने पर जो कुछ माँ टिफन में रख देती, उसे खाकर ठुनठुनिया झट खेलने चला जाता।

क्लास के दूसरे बच्चे भी ज्यादातर यही करते थे। पर क्लास में एक अमीर बच्चा था मनमोहन।...एकदम साहबजादा! वह सेठ दुलारेलाल का बेटा था। स्कूल में आधी छुट्टी में खाने के लिए वह घर से रोज नए-नए पकवान लेकर आता था। फिर एक-एक चीज निकालकर सबको दिखाकर ललचा-ललचाकर खाता। कभी कलाकंद, कभी रसगुल्ले, कभी दही-बड़े, कभी आलू की टिक्की...या गोभी के पराँठे। कभी पेठा और दालमोठ, कभी मक्खन और डबलरोटी!...

दो-एक बच्चे ललचाकर उससे माँग भी लेते। तब मनमोहन बड़ा अहसान करके थोड़ा-बहुत दे देता और फिर घमंड से भरकर अपने बढ़िया खाने की डींगें हाँकने लगता।

मनमोहन का एक ही दोस्त था, सुबोध। मनमोहन हर चीज बस उसी से बाँटकर खाता। दोनों खूब चटखारे लेते हुए खाते और बार-बार कहते जाते कि ऐसी कमाल की चीज शायद ही किसी ओर ने खाई हो!

ठुनठुनिया को ही नहीं, क्लास के सब बच्चों को यह बुरा लगता, पर आखिर कहें क्या!

एक दिन की बात है। मनमोहन सुबह से ही उछल-उछलकर कह रहा था, "सुबोध, आज मेरी माँ ने ऐसा बढ़िया खाना दिया है कि खाएगा तो तू भी याद करेगा।"

अगला घंटा गणित का था। पहाड़े याद करने के लिए पूरी क्लास बाहर गई थी। पहाड़े याद करने के बाद आधी छुट्टी की घंटी बजी। लौटकर सब बच्चे क्लास में आए और अपने-अपने टिफिन में से खाना निकालकर खाने लगे।

घमंड से भरे मनमोहन ने भी अपना चम-चम करता स्टील का बढ़िया टिफन निकाला और सुबोध को पास बुलाकर कहा, "आ जा सुबोध, आज मेरी माँ ने आलू के पराँठे और मटर-पनीर की सब्जी रखी है खाने के लिए...मजा आएगा। आ जा...आ जा झटपट!"

पर जैसे ही मनमोहन ने अपना टिफन खोला तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया, "अरे, यह क्या! मेरे इतने अच्छे आलू के पराँठे कहाँ गए और मटर-पनीर की सब्जी? बदले में किसी ने टिफन में भूसा भर दिया और मटर-पनीर की सब्जी की जगह गोबर कैसे आ गया?"

गुस्से में मनमोहन अपने बाल नोंच रहा था और जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहा था, "जिसने भी मेरे टिफिन में गोबर भरा है, उसे छोड़ूँगा नहीं, बिल्कुल छोड़ूँगा नहीं!"

'गोबर...! क्या सचमुच गोबर?' क्लास के सारे बच्चे हक्के-बक्के।

'ऐँ, भूसा और गोबर...!' सुनकर सब खूब हँसे।

अब तो हालत यह थी कि सारी क्लास खाना खा रही थी और सबको दिखाकर, ललचा-ललचाकर खाने वाले मनमोहन और सुबोध पैर पटक रहे थे। धमकी दे रहे थे, "जिसने भी हमारे बढ़िया-बढ़िया पराँठे चुराकर खाए हैं, उसे मास्टर जी से कहकर पिटवाएँगे।...और पिटवाएँगे ही नहीं, स्कूल से भी निकलवा देंगे। और देखना...और देखना...!"

अगले पीरियड में मास्टर भोलानाथ जी आए तो मनमोहन ने शिकायत की, "मास्टर जी, किसी चोर ने मेरा खाना चुराकर खा लिया है। बदले में मेरे टिफन में भूसा और गोबर भर दिया है।"

सुनते ही सब बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े। पीछे से एक शरारती बच्चे नटवरलाल ने चटखारे लेते हुए कहा, "अरे वाह! भूसा -हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी...!"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" मास्टर जी ने गुस्से में आकर कहा, "भूसा -हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी...! क्या मतलब है इस बात का?"

"मास्टर जी, यह मनमोहन और सुबोध रोजाना अपरा खाना निकालकर सबको ललचा-ललचाकर खाते हैं कि पूरी हाउ टेस्टी, अचार हाउ टेस्टी। इसी तर्ज पर मैंने कहा कि भूसा -हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी!..."

इस पर सब बच्चे फिर जोरों से हँसे। लेकिन मनमोहन रुआँसा हो गया। बोला, "मास्टर जी, लगता है, इसी ने मेरा खाना चुराया है, ऊपर से चिढ़ा भी रहा है!"

"नहीं मास्टर जी, चोर का मैंने पता लगा लिया है।...स्कूल के बाहर एक गधा खड़ा है। थोड़ी देर पहले मैंने उसे आलू के पराँठे और पनीर की सब्जी खाते देखा है। हो सकता है, यह खाना मनमोहन का हो। चलकर देख लिया जाए, तब तो यह पक्की तरह साबित हो जाएगा कि वह गधा ही चोर है।" ठुनठुनिया ने कहा।

मनमोहन ने बाहर जाकर देखा, वाकई गधा उसी के पराँठे खा रहा था। पास ही पनीर की सब्जी भी जमीन पर बिखरी पड़ी थी।

एक बच्चे ने हँसकर कहा, "गधे, ओ गधे! तुम खाना चुराने भी लगे?"

दूसरे बच्चे ने कहा, "और ऐसे स्वाद से खाने भी लगे?"

तीसरे बच्चे ने कहा, "खाना भी ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि अंग्रेजी ढंग का...हाउ टेस्टी!"

सुनकर मनमोहन कटकर रह गया। समझ गया, क्लास के सब बच्चे मेरे खिलाफ हैं। ज्यादा गरमी दिखने से किसी का कुछ बिगड़ेगा तो नहीं, उलटे मेरा मजाक बनेगा।

मनमोहन क्लास में आकर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। यही हालत सुबोध की थी। मास्टर जी तब तक पाठ पढ़ाने में लीन हो चुके थे। किसी को उसके टिफर की याद नहीं आई।

उस दिन मनमोहन और सुबोध भूखे ही रह गए। दोनों के पेट में बुरी तरह चूहे कूद रहे थे! पर क्लास के हर बच्चे की आँखों में उन्हें अपने लिए उपहास नजर आया, जैसे वे मन-ही-मन हँसकर उनसे बदला ले रहे हों।

अलबत्ता अगले दिन से मनमोहन और सुबोध की सबको दिखाकर ललचा-ललचाकर खाने की आदत खत्म हो गई। किसी ने कुछ कहा नहीं, पर सब जानते थे कि भूसे और गोबर वाला यह कमाल ठुनठुनिया का है।

मनमोहन और सुबोध ने मन-ही-मन तय कर लिया कि अब जरा ठुनठुनिया को ही देखना है, यह अपने को कुछ ज्यादा ही 'हीरो' समझने लगा है! पर...ऐसे नहीं, होशियारी से! पहले दूसरे बच्चों से दोस्ती करनी होगी, तब करेंगे ठुनठुनिया की ठिन-ठिन...!

जी हाँ, ठुनठुनिया की ठिन-ठिन!...और लो जी, उन्हें मौका भी मिल गया।

14

आह, वे फुँदने!

सर्दियाँ आईं तो ठुनठुनिया ने माँ से कहा, "माँ...माँ, मेरे लिए एक बढ़िया-सी टोपी बुन दे। सुंदर-सुंदर फुँदनों वाली टोपी। स्कूल जाता हूँ तो रास्ते में बड़ी सर्दी लगती है। टोपी पहनकर अच्छा लगेगा।"

गोमती ने बेटे के लिए सुंदर-सी टोपी बुन दी, चार फुँदनों वाली। ठुनठुनिया ने पहनकर शीशे में देखा तो उछल पड़ा, सचमुच अनोखी थी टोपी।

टोपी पहनकर ठुनठुनिया सारे दिन नाचता फिरा। अगले दिन टोपी पहनकर स्कूल गया, तो सोच रहा था, सब इसकी खूब तारीफ करेंगे। पर ठुनठुनिया की टोपी देखकर मनमोहन और सुबोध को बड़ी जलन हुई।

हमेशा वे ही क्लास में एक से एक सुंदर कपड़े पहनकर आते थे। 'भला ठुनठुनिया की क्या मजाल जो हमसे मुकाबला करे!' उन्होंने सोचा।

फिर ठुनठुनिया से पुराना बदला भी लेना था। 'ऐसा मौका क्या बार-बार आता है?' मनमोहन और सुबोध ने एक-दूसरे से फुस-फुस करके कहा, फिर अपने काम में जुट गए।...मनमोहन ने झट क्लास के आठ-दस बच्चों को टॉफी का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया। वे ताली बजा-बजाकर चिढ़ाने लगे, "देखो-देखो, ठुनठुनिया की अजीब-सी टोपी -चार फुँदनों वाली टोपी!...देखो-देखो, चार फुँदनों वाली अजीब टोपी!"

ठुनठुनिया ने सुना तो घबराया। यह क्या चक्कर? कहाँ तो वह नई टोपी पहनकर बेहद खुश था और कहाँ अब मुँह छिपाए फिरता था।

अब तो मजाक उड़ाने वालों में क्लास के और भी बच्चे शामिल हो गए थे। उन्हें भी मनमोहन ने टॉफियाँ खरीदकर दे दी थीं।

"देखो-देखो, अजीब-सी टोपी!...चार फुँदनों वाली अजीब-सी टोपी!" सब चिल्ला रहे थे। उन्हें यह मजेदार खेल मिल गया था, तो फिर भला पीछे क्यों रहते?

उस दिन ठुनठुनिया घर आया तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। आते ही माँ से बोला, "माँ-माँ, तुम मेरी टोपी का एक फुँदना काट दो। सब क्लास में मेरा मजाक उड़ा रहे थे कि देखो-देखो, चार फुँदनों वाली अजीब टोपी!"

गोमती ने बहुत समझाया कि बेटा रहने दो। एक-दो दिन में सब अपने आप शांत हो जाएँगे। पर ठुनठुनिया पर जिद सवार थी। बोला, "नहीं माँ, तुम एक फुँदना तो काट ही दो।...आज तो मेरा बड़ा मजाक उड़ा, बड़ा!"

अगले दिन ठुनठुनिया टोपी पहनकर गया, तो एक फुँदना कम देखकर बच्चों को और भी मजा आया। वे उसी तरह ताली बजा-बजाकर चिल्लाने लगे, "देखो-देखो, ठुनठुनिया की अजीब-सी टोपी -तीन फुँदनों वाली टोपी!"

अब तो ठुनठुनिया और भी परेशान हो गया। उसे बुरी तरह रोना आ रहा था। यह पता नहीं, कैसा चक्कर शुरू हो गया कि क्लास के सारे ही बच्चे तालियाँ पीट-पीटकर मजाक उड़ाते हैं।

घर आकर उसने माँ से जिद करके एक फुँदना और कटवाया। सोच रहा था, अब सब ठीक हो जाएगा। पर अब तो क्लास में और भी जोर से मजाक बना, "देखो-देखो, ठुनठुनिया की दो फुँदनों वाली अजीब-सी टोपी!...ओहो-ओहो, दो फुँदनों वाली टोपी!!"

"कभी देखी न सुनी दो फुँदनों वाली टोपी!..."

ठुनठुनिया का मन हुआ कि कानों पर हाथ रखकर घर भाग जाए। और घर आते ही उसने अम्माँ से कहकर एक फुँदने की और छुट्टी कराई। सोच रहा था, शायद अब इस आफत से छुटकारा मिलेगा! अब तो सिर्फ एक ही फुँदना...!!

मगर आफत इतनी जल्दी कैसे जाती? यहाँ तक कि जब एक फुँदना रह गया, तब भी ठुनठुनिया का खूब मजाक बना। हारकर उसने जिद करके माँ से वह भी कटवा लिया। सोचने लगा, 'देखूँ भला, अब कोई मेरा कैसे मजाक उड़ाएगा?'

पर मनमोहन और सुबोध तो साथ बच्चों के लगातार शह दे रहे थे। उन्हें भी मजेदार खेल मिल गया था। जब ठुनठुनिया बगैर फुँदने वाली टोपी पहनकर आया तो सब बड़े जोर से खिलखिलाए। ताली पीट-पीटकर चिल्लाने लगे, "देखो-देखो, ठुनठुनिया की अजीब-सी टोपी -बिना फुँदनों वाली टोपी!"

"हैं-हैं!...अच्छा! बिना फुँदने की टोपी!" कहकर सब बच्चों ने मिलकर ताली बजा दी।

ठुनठुनिया रोने-रोने को हो आया। बड़ी मुश्किल से उसने खुद को सँभाला। घर आकर माँ से बोला, "माँ-माँ, बच्चे तो आज भी मेरा मजाक उड़ा रहे थे। कह रहे थे, देखो-देखो, ठुनठुनिया की अजीब-सी टोपी -बिना फुँदने की टोपी!"

ठुनठुनिया को परेशान देख, गोमती ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "बेटा, तू चिंता ही क्यों करता है? लोगों को तो कुछ न कुछ बहाना चाहिए हँसने का। तू भी उनके साथ-साथ हँसना शुरू कर दे। वे अपने आप चुप हो जाएँगे।"

"अच्छा माँ...सच्ची? तू ठीक कह रही है न!" ठुनठुनिया को जैसे यकीन नहीं हुआ। माँ कुछ बोली नहीं। बस, चुपचाप ठुनठुनिया के माथे को चूम लिया।

और सचमुच बच्चे दो-चार दिन में ही शांत हो गए। जैसे टोपी वाला किस्सा एकदम खत्म हो गया हो। ठुनठुनिया अब खुश था। लेकिन कभी-कभी वह मन-ही-मन सोचता, 'कितने अच्छे थे वे चार फुँदने, बेकार ही माँ से कहकर कटवाए।'

15

मोटेराम पंडित जी

इसके कुछ बाद की बात है।...सर्दियाँ कुछ और बढ़ गई थीं। दाँत किट-किट कर पहाड़ा पढ़ते थे। खासकर सुबह और शाम के समय तो बर्फीली हवाएँ हड्डियों तक में धँसने लगतीं। और कवि लोग रजाई में घुसकर काँपते हाथों में कलम पकड़कर कविता लिखना शुरू करते, "आह जाड़ा, हाय जाड़ा!"

ऐसे ही बर्फीले जाड़े के दिन थे। एक बार ठुनठुनिया रात को घूमकर घर वापस आ रहा था। तभी अचानक गाँव के बाहर वाले तालाब के पास उसे जोर की 'धम्म्...मss!' की आवाज सुनाई दी। और इसके साथ ही, "बचाओs, बचाओss...!"

ठुनठुनिया दौड़कर तालाब के पास गया। चिल्लाकर बोला, "कौन है भाई, कौन है...?"

तभी मोटेराम पंडित जी की घबराई हुई, रोती-सी आवाज सुनाई दी, "अरे! ठुनठुनिया बेटा, तू है?...बेटा, मैं हूँ पंडित मोटेराम! तालाब में डूब रहा हूँ, मुझे बचाओ!"

"अरे पंडित जी, आप? रुकिए...रुकिए मैं आया...!!"

बस, ठुनठुनिया ने उसी समय आव देखा न ताव और फौरन तालाब में छलाँग लगा दी।...अँधेरी रात, हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता था। फिर भी ठुनठुनिया तो ठुनठुनिया ठहरा! मोटेराम पंडित जी की आवाज के सहारे तेजी से पानी में तैरता-दौड़ता, झट उनके पास पहुँच गया। मजबूती से उन्हें पकड़कर पूरी ताकत से किनारे की ओर खींचने लगा।

यों ठुनठुनिया आखिरकार मोटेराम पंडित जी को पूरी ताकत से किनारे पर खींचकर ले ही आया। मगर अब ठुनठुनिया बेचारा मारे सर्दी और थकान के बुरी तरह काँप रहा था। मोटेराम पंडित जी की हालत और भी खराब थी।

काफी देर बाद मोटेराम पंडित जी की हालत कुछ ठीक हुई और वे थोड़ा-थोड़ा बोलने लगे थे। ठुनठुनिया भी अब कुछ सँभल गया था। उसने कहा, "पंडित जी, आप कहें तो मैं आपको घर छोड़ आऊँ?"

"नहीं-नहीं बेटा, अब तो मैं ठीक हूँ, चला जाऊँगा।" पंडित जी धीरे से उठकर खड़े हो गए। बोले, "अच्छा हुआ बेटा, तुम समय पर आ गए, वरना आज तो भगवान् ही मालिक था।..."

"पर पंडित जी, यह हुआ कैसे? आप कैसे इस तालाब में फिसल गए। आप तो रोजाना इधर से आते हैं, पर...?" ठुनठुनिया ने पूछा।

इस पर मोटेराम पंडित जी बोले, "क्या बताऊँ बेटा! अँधेरी रात थी, तो आसमान में तारे खूब जोर से चमचमा रहे थे। देखकर मुझे बड़ा अच्छा लगा। मैंने सोचा, जरा आसमान में तारों की स्थिति का अच्छी तरह अध्ययन कर लूँ, ताकि आगे लोगों की जन्मपत्री बनाने और भाग्य बाँचने में मुझे आसानी रहे। तो मैं ऊपर आसमान में तारों की ओर देखकर चल रहा था। यह खयाल ही नहीं रहा कि नीचे तालाब भी है। बस, तारों की गणना करते-करते इतना लीन हुआ कि अचानक पैर फिसला और मैं पानी में।...आह, आज तो बड़ी बुरी बीती!"

कहकर मोटेराम पंडित जी कराहते हुए घर की ओर चले। पर चलते-चलते अचानक वे रुक गए। ठुनठुनिया की ओर देखकर बोले, "बेटा, तुमने मेरी बड़ी मदद की है, इसलिए तुम्हें मैं कुछ देना चाहता हूँ...किसी दिन घर आना। मैं तुम्हारी जन्मपत्री बना दूँगा। साथ ही पूरे जीवन का भाग्य बाँचकर एक कागज पर लिखकर तुम्हें दे दूँगा। आगे तुम्हारे काम आएगा।"

ठुनठुनिया हँसा। बोला, "रहने दीजिए पंडित जी, रहने दीजिए।"

"क्यों...क्यों रहने दूँ? अरे बावले, मैं तुमसे कोई फीस थोड़े ही लूँगा...?" मोटेराम पंडित जी ने अचकचाकर कहा, "तू डर क्यों रहा है?"

"नहीं पंडित जी, डर मुझे आपकी फीस का नहीं है।" ठुनठुनिया मुसकाराया, "डर इस बात का है कि जो आदमी खुद आसमान की ओर देखकर चलता है और जिसे धरती की इतनी खबर भी नहीं है कि कब उसका पैर तालाब में फिसला और तालाब में गिरकर वह हाय-हाय करने लगा, वह भला किसी दूसरे का भाग्य क्या बाँचेगा? और उससे किसी और को मिलेगा क्या? पंडित जी, मैं तो धरती की ओर देखकर चलता हूँ। मेरे पैर जमीन पर टिके हैं, मेरे लिए इतना ही काफी है। भाग्य-वाग्य जानने की मुझे कोई इच्छा नहीं है!...और फिर सच्ची बात यह है पंडित जी, कि जिसने ठुनठुनिया को बनाया, वही ठुनठुनिया की परवाह भी करेगा। बेकार परेशान होने से क्या फायदा?"

सुनकर मोटेराम पंडित जी शर्मिंदा हो गए। बोले, "अरे ठुनठुनिया, तू तो ऐसी बातें करता है कि अच्छे-अच्छों को जवाब न सूझे।...फिर भी एक बात तो मैं जरूर कहूँगा।"

"कहिए, पंडित जी, आपको क्या कहना है...?" ठुनठुनिया ने बड़े आदर से कहा।

"बस यही कि...अच्छा, बेटा ठुनठुनिया, भाग्य रहने दे, तू मेरा आशीर्वाद लेता जा! तू जिंदगी में बहुत बड़े-बड़े काम करेगा और बहुतों के काम आएगा।" मोटेराम पंडित जी ने आनंदविभोर होकर कहा।

"हाँ पंडित जी, यह ठीक है।...आपका आशीर्वाद मुझे जरूर चाहिए।" कहकर ठुनठुनिया ने सिर झुका दिया और मोटेराम पंडित जी का आशीर्वाद ले लिया।

फिर मुसकराता हुआ घर की ओर चल दिया। आज उसके पैरों में नई गति, नया उत्साह था।

16

खजाना बोल पड़ा

एक बार की बात, ठुनठुनिया रात में गहरी नींद सो रहा था। तभी माँ की आवाज आई, "ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया! लगता है, अपनी छत पर चोर आ गए हैं।"

सुनते ही ठुनठुनिया चौंका। झट उसकी नींद खुल गई। उसने ध्यान से छत से आ रही आवाजों को सुना। उसे अब कोई संदेह न रहा कि छत पर चोर ही हैं। घर में और तो कुछ सामान न था। हाँ, पर माँ के बरसों पुराने सोने के गहने तो थे। चोर उन्हीं को चुराने आए थे।

अब क्या किया जाए? ठुनठुनिया ने झट अपना दिमाग लगाया तो तरीका सूझ गया। उसने पहले धीरे से बुदबुदाकर कुछ कहा, जैसे मंत्र पढ़ रहा हो। फिर जोर से चिल्लाकर बोला, "माँ, ओ माँ, कल जो घर के आँगन की खुदाई से अंदर सोने का घड़ा निकला था, उसे तुमने ठीक से सँभालकर तो रख दिया न? देखो, अच्छी तरह याद कर लो। आजकल समय कुछ ठीक नहीं चल रहा। पता नहीं, कब घर में चोर आ जाएँ और...!"

गोमती की समझ में कुछ न आया, कौन-सा गड़ा हुआ खजाना? कौन-सा सोने का घड़ा?...उसे भला कहाँ छिपाकर रखना था? यह ठुनठुनिया को अचानक जाने क्या हुआ कि अजीब बहकी-बहकी बातें कर रहा है...!

पर ठुनठुनिया ने हाथ के इशारे से माँ को चुप रहने के लिए कहा और खुद ही उसी तरह जोर से बोला, "अच्छा माँ, अच्छा...! मैं समझ गया। अच्छी तरह समझ गया माँ! तूने उसे घर के बाहर वाले कुएँ में डाल दिया है। ठीक किया, बिल्कुल ठीक किया! वहाँ तक तो कोई चोर पहुँच ही नहीं सकता। कोई सोच भी नहीं सकता कि हमारे कुएँ के अंदर इतना बड़ा खजाना छिपा है, इतना बड़ा खजाना कि किसी आदमी को मिल जाए तो उसकी सात पीढ़ियाँ तर जाएँ...!"

ठुनठुनिया इतनी जोर से बोल रहा था कि चोरों को खूब अच्छी तरह से सुनाई दे गया। चोरों ने सुना तो सोचा, 'अब तो कुएँ पर ही धावा बोलना चाहिए। रातोरात खजाना लेकर चंपत हो जाएँगे, किसी को पता भी नहीं चलेगा।'

बस, थोड़ी ही देर में एक-एक कर तीनों चोर कुएँ में कूद गए। तीनों बार कुएँ से 'धप्प...!' की जोर की आवाज आई।

आवाज सुनते ही ठुनठुनिया अपनी माँ के साथ कुएँ के पास आ पहुँचा। उसके हाथ में लंबा-सा बाँस था। बोला, "माँ-माँ, मैं जरा देख लूँ कि हमारा खजाना अंदर सुरक्षित तो है न?"

माँ बोली, "रहने दे ठुनठुनिया। इतनी जल्दी क्या है, सुबह देख लेना।"

ठुनठुनिया ने कहा, "नहीं माँ, आजकल चोरों का कोई ठिकाना नहीं है। पता नहीं, कब किधर से आ धमकें। इसलिए अपनी चीज की अच्छी तरह खोज-खबर लेते रहना चाहिए।"

उसने बाँस को दो-तीन बार कुएँ के अंदर जोर-जोर से पटका। हर बार अंदर से कराहने की आवाज आती। गोमती बोली, "रहने दे बेटा, रहने दे! देख, कुआँ भी तुझसे रो-रोकर यही कह रहा है।...क्यों उसे परेशान कर रहा है?"

ठुनठुनिया थोड़ी देर के लिए रुका। फिर बोला, "माँ...माँ, खजाने का तो कुछ पता ही नहीं चल रहा। मैं जरा पास से भारी-भारी पत्थर लाकर फेंकता हूँ। खजाने पर बजेंगे तो जोर से टन्न की आवाज होगी। बस, मैं समझ जाऊँगा कि हमारा खजाना सुरक्षित है।"

"न...न...नहीं! ऐसा मत करना...मत करना।" ठुनठुनिया की बात पूरी होते ही कुएँ के भीतर से कराहती हुई आवाज सुनाई दी।

इस पर ठुनठुनिया जोर से चिल्लाकर बोला, "अरे माँ, यह क्या! यह तो अपना खजाना बोल पड़ा। अरे वाह-वाह, अपना खजाना बोल पड़ा!"

ठुनठुनिया की जोर की आवाज सुनकर आसपास के घरों में भी जगार हो गई। खजाने की बात पता चलते ही लोग उत्सुकता से भरकर दौड़े-दौड़े वहाँ आ गए। सब अचरज से भरकर बोले, "क्या बात है रे ठुनठुनिया?"

"कुछ खास नहीं!" ठुनठुनिया हाथ लहराकर बोला, "असल में इस कुएँ में हमने एक सोने का घड़ा और उसमें बड़ा भारी खजाना छिपा दिया था। आज वह खजाना अपने आप बोल पड़ा। अरे वाह, खजाना भी बोल पड़ा।...सचमुच ऐसा करिश्मा तो आज जीवन में पहली बार देखा! आप लोग भी देखिएगा, अभी मैं इस कुएँ में मोटे-मोटे पत्थर डालता हूँ तो खजाना कैसे बोलता है...!"

"न...न...न! मत डालो...कुएँ में पत्थर मत डालो ठुनठुनिया!" कुएँ से फिर वही कराहती हुई सी आवाज आई।

सुनकर ठुनठुनिया बड़े जोर से हँसा। बोला, "देखो भाई, देखो! खजाना बोला...खजाना वाकई बोल पड़ा!"

अब तक कुएँ के आसपास भारी भीड़ जमा हो गई थी। "कौन-सा खजाना, ठुनठुनिया? क्या चक्कर है भई? कहीं तुम कोई विचित्र नाटक तो नहीं कर रहे हो?" लोग आ-आकर पूछ रहे थे।

"तुम खुद ही झाँककर देख लो न...!" ठुनठुनिया हँसकर बोला, "तुम्हें खजाने की सूरत नजर आएगी।"

लोगों ने कुएँ में झाँककर देखा तो उन्हें एक-दो नहीं, पूरे तीन चोर दिखाई पड़े। वे हाथ जोड़कर कह रहे थे, "हमें मत मारिए...हमें बाहर निकालिए। अब हम कभी चोरी नहीं करेंगे।"

"मगर ये चोर कुएँ में घुसे कैसे?" लोगों ने पूछा तो ठुनठुनिया ने मजे में पूरी कहानी सुना दी। सुनते ही सब लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।

फिर उन चोरों को वहाँ मौजूद लोगों ने ही रस्सी डालकर बाहर निकाला। वे सभी से माफी माँगकर चले गए। लोग भी ठुनठुनिया के कमाल के दिमाग की तारीफ करते हुए अपने-अपने घरों में चले गए।

ठुनठुनिया माँ के साथ घर आया। और माँ कुछ कहती, इससे पहले ही वह चारपाई पर पड़कर खर्राटे भरने लगा।

17

उड़ी, उड़ी रे पतंग

ठुनठुनिया को सबसे मुश्किल काम लगता था पतंग उड़ाना। उसे आसमान में उड़ती हुई रंग-बिरंगी पतंगें देखना जितना अच्छा लगता था, उतनी ही परेशानी होती थी खुद पतंग उड़ाने में। जब भी वह हुचकी, पतंग-डोरी लेकर जोश से भरकर मैदान में पहुँचता तो या तो पतंग उससे उड़ती ही नहीं थीह या फिर उड़ाते-उड़ाते वह फट जाती थी। ठुनठुनिया उदास हो जाता था। सोचता, शायद मैं पतंग उड़ाना कभी न सीख पाऊँगा।

एक दिन ठुनठुनिया ने मन को पक्का कर लिया, चाहे जो हो, पतंग उड़ाना तो सीखना ही है।

उसने माँ से दो रुपए लिए। आठ आने की पतंग खरीदी, डेढ़ रुपए का माँजा। माँजा चरखी पर चढ़ाया और बस, पतंग तैयार करके घर के सामने वाले मैदान में आ गया। वहाँ वह पतंग उड़ाने की कोशिश करने लगा, पर पतंग थोड़ा-सा ऊपर जाती, फिर नीचे आ जाती। ठुनठुनिया साधने की कोशिश करता तो बुरी तरह फड़फड़ाने लगती थी।

ठुनठुनिया निराश हो गया। सोचने लगा, क्या करूँ, क्या नहीं! इतने में ही उसे मनमोहन अपनी खूब बड़ी-सी नीली पतंग और मंजा लिए आता हुआ दिखाई दिया। मनमोहन पतंग उड़ाने में उस्ताद था। सबसे ऊँची उसी की पतंग उड़ी थी और आसपास कोई उसकी पतंग नहीं काट पाता था।

ठुनठुनिया ने उसे पास बुलाकर कहा, "अरे मनमोहन, मेरी पतंग तो उड़ ही नहीं रही। जरा ठीक से छुड़ैया तो देना भाई...!"

मनमोहन ने बेमन से छुड़ैया दी, पर ठुनठुनिया पतंग सँभाल ही नहीं पाया। वह फिर चक्कर काटकर जमीन पर आ गिरी।

"तुम जरा एक बार उड़ा दो न इसे! फिर तो मैं खुद साध लूँगा।" ठुनठुनिया ने मनमोहन से अनुरोध किया।

"ना जी, ना, मुझे अपनी पतंग उड़ानी है, देर हो रही है। अगर तुमसे पतंग नहीं उड़ती, तो क्या जरूरी है कि तुम उड़ाओ ही।...तुम दूसरों को देखो और मजा लो। कोई जरूरी तो नहीं कि हर आदमी हर काम कर ले!" कहकर मनमोहन अपनी पतंग और चरखी लेकर आगे चल दिया।

ठुनठुनिया अपना-सा मुँह लेकर रह गया। आज उसे अपने आप पर जितना गुस्सा आ रहा था, उतना पहले कभी नहीं आया था। 'हाय रे मैं! एक जरा-सी पतंग नहीं उड़ा सकता। मैं सचमुच किसी काम का नहीं हूँ।...ठलुआ, एकदम ठलुआ!' कहकर ठुनठुनिया अपने आपको धिक्कार रहा था।

ठुनठुनिया का चेहरा उतर गया था और वह उदास-सा खड़ा था। इतने में उसे रामदीन चाचा आते दिखाई दिए। पास आकर बोले, "क्यों रे ठुनठुनिया, कुछ परेशान-सा लग रहा है?"

ठुनठुनिया ने जब से रामदीन चाचा को भालू बनकर डराया था, तब से वह शर्म के मारे उनसे नजरें चुराता था। पर रामदीन चाचा ने आज खुद आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया, तो ठुनठुनिया समझ गया कि उन्होंने उस दिन वाली शरारत के लिए उसे माफ कर दिया है।

रामदीन चाचा के पूछने पर ठुनठुनिया ने बेझिझक होकर अपनी परेशानी बताई तो वे बोले, "ला दे मुझे पतंग, इसमें क्या मुश्किल है!"

रामदीन चाचा ने पतंग-डोरी अपने हाथ में ली और ठुनठुनिया को छुड़ैया देने के लिए कहा। छुड़ैया देते ही पतंग हवा में उड़ी और उड़ते-उड़ते आसमान में यह जा और वह जा। ठुनठुनिया देखकर तालियाँ बजा-बजाकर नाचने लगा।

रामदीन चाचा न सिर्फ पतंग को शानदान ढंग से उड़ा रहे थे, बल्कि साथ-ही-साथ ठुनठुनिया को पतंग उड़ने के गुर और बारीकियाँ भी समझाते जा रहे थे। शुरू में छुड़ैया देने के बाद पतंग को कैसे साधना है...फिर ऊपर जाने पर कहाँ ढील देनी है, कहाँ डोर खींचनी है। पतंग एक तरफ झुकने लगे, तो क्या करना है? कोई पतंग पेंच लड़ाने आए, तो कैसे बचना है...या फिर पेंच लड़ाकर दूसरे की पतंग कैसे काटनी है? एक-एक कर सारी बातें रामदीन चाचा ने बड़े प्यार से समझाईं।

"ले, अब तू खुद उड़ा।" कहकर रामदीन चाचा ने पतंग की डोर ठुनठुनिया को पकड़ा दी।

पहले तो ठुनठुनिया को लगा कि वह पतंग को सँभाल नहीं पाएगा। पतंग जरा-सा एक ओर झुकती तो उसे लगता, अब गिरी, अब गिरी! पर रामदीन चाचा बीच-बीच में बढ़ावा देते, "ठुनठुनिया, जरा ढील तो दे...शाबाश, बहुत अच्छे! अब खींच, अब जरा इधर को झुका, ऐसे...!" और ठुनठुनिया को लगता, 'अरे वाह! मैं पतंग उड़ा सकता हूँ...सचमुच उड़ा सकता हूँ।'

ऐसे ही काफी देर ठुनठुनिया पतंग उड़ाता रहा तो रामदीन चाचा बोले, "अरे! अब तो तू होशियार हो गया। मैं अब चलूँ!"

ठुनठुनिया बोला, "रुको चचा, अभी पतंग उतारते समय दिक्कत आएगी, तब तुम्हीं सँभालना। बस, थोड़ी देर और उड़ा लूँ, फिर उतारते हैं।"

अभी ये बातें चल ही रही थीं कि रामदीन चाचा चौंके। बोले, "ठुनठुनिया, होशियार! देख तो, यह नीली पतंग आ रही है पेंच लड़ाने को! लगता है, मनमोहन की पतंग है।"

ठुनठुनिया डरकर बोला, "अब तो पतंग तुम्हीं सँभालो चाचा। मनमोहन तो खासा उस्ताद है। मेरी पतंग बचेगी नहीं।"

"अरे, बचेगी कैसे नहीं!" रामदीन चाचा बिगड़कर बोले, "हम जो तेरे साथ हैं। भला किस माई के लाल की हिम्मत है कि तेरी पतंग को काट गिराए। बस, तू हिम्मत से उड़ाए जा और जैसा मैं कहूँ, वैसा कर।"

इससे ठुनठुनिया को बड़ी हिम्मत बँधी। बोला, "ठीक है चाचा, अब मैं घबराऊँगा नहीं, चाहे कुछ हो जाए।"

और सचमुच रामदीन चाचा जो-जो दावँ-पेंच बताते, ठुनठुनिया झट से उन्हें आजमा लेता और यों उसकी पतंग बड़े आराम से बल खाते हुए उड़ी जा रही थी।

जब मनमोहन की नीली पतंग काफी पास आ गई तो रामदीन चाचा बोले, "ठुनठुनिया, होशियार! अब यही खतरे का समय है। तू जरा-सी अपनी पतंग को मनमोहन की पतंग के नीचे ले आ। और फिर होशियारी से घिस्सा देकर डोर काट दरे। जल्दी कर, वरना फिर तेरी पतंग गई।..."

ठुनठुनिया ने सचमुच बड़ी चुस्ती दिखाई और मनमोहन की पतंग के पास आते ही, नीचे से इतनी होशियारी से और इतनी जल्दी उसका माँजा काट दिया कि मनमोहन तो कुछ समझ ही नहीं पाया। उसने जब अपनी पतंग को कटकर दूर जाते देखा तो हक्का-बक्का हाकर बोला, "ओह!"

मनमोहन की समझ में नही आ रहा था कि ठुनठुनिया को आज कौन-सा जादू मिल गया कि मुझ जैसे उस्ताद की उसने पतंग काट डाली। उधर खुद ठुनठुनिया को समझ में नहीं आ रहा था कि उसे हुआ क्या है!

मजे की बात तो यह है कि मनमोहन की पतंग कटते ही ठुनठुनिया को घेरने के लिए एक के बाद एक चार पतंगें आईं। जब तक सब सोच रहे थे कि भला ठुनठुनिया जैसे नौसिखिए से क्या पेंच लड़ाना! पर ठुनठुनिया ने जब मनमोहन को पटकी दी तो उससे दो-दो हाथ करने के लिए एक के बाद एक चार पतंगें आईं। और ठुनठुनिया पर कुछ ऐसा जादू सवार हुआ कि उसने कोई पंद्रह मिनट के भीतर एक-एक कर चारों को धूल चटा दी।

हालाँकि टिंकू की साँप जैसी लहरीली, काली पतंग काटने में उसे पसीने आ गए! पतंग क्या थी, बिल्कुल साँप की तरह झपटती और फुफकारती थी। एकदम साँप की तरह कहीं से भी 'सर्र' से निकल आती थी, 'सर्र' से चली जाती थी।...खुद ठुनठुनिया घबरा रहा था। पर उस पतंग को भी आखिर उसने काट ही दिया।

देखने वाले गुस्से और अचरज के मारे होंठ चबा रहे थे, पर ठुनठुनिया के मन में जरा भी घमंड नहीं था। उत्साहित होकर बोला, "रामदीन चाचा, यह मेरा नहीं, सब तुम्हारा ही कमाल है। पता नहीं, ऐसे बढ़िया गुर तुमने कहाँ से सीखे कि देखो तो, सब पानी माँग रहे हैं!"

इतने में मनमोहन अपनी चरखी पकड़े हुए, सिर झुकाए वहाँ से निकला। उसे उदास देखकर ठुनठुनिया बोला, "मनमोहन, जरा इधर तो आओ।"

मनमोहन पास आया और झेंप मिटाने के लिए बोला, "अरे ठुनठुनिया, तुम तो इतनी अच्छी पतंग उड़ाते हो। सुबह झूठ-मूठ ही मुझसे कह रहे थे न कि मुझे पतंग उड़ाना नहीं आता!"

"सचमुच सुबह तक नहीं आता था। यकीन करो, यह तो रामदीन चाचा ने सिखाया है...!" ठुनठुनिया ने रामदीन चाचा की ओर इशारा करते हुए रोमांचित स्वर में कहा।

मनमोहन को यकीन नहीं हुआ। बोला, "एक दिन में तुम कैसे इतने बड़े उस्ताद हो गए?"

"यही तो खुद मुझे ताज्जुब है!" ठुनठुनिया बोला, "बस, रामदीन चाचा के पास कमाल के गुर हैं। उन्होंने ही मुझे यह कला सिखा दी। खैर! आओ, अब मिलकर पतंग उड़ाएँ।"

रामदीन चाचा बोले, "ठीक है, अब तुम दोनों मिलकर पतंग उड़ाओ। मैं चला।"

और सचमुच ठुनठुनिया और मनमोहन मिलकर पतंग उड़ाने लगे तो दोनों को खासा आनंद आया। ठुनठुनिया ने हुचकी सँभाली और मनमोहन ने उसकी पतंग से एक-एक कर तीन पतंगें और काट डालीं। फिर एक पतंग और आई, तारे जैसी शक्ल वाली, जो बड़ी तेजी से चक्कर काट रही थी। उससे ठुनठुनिया ने पेंच लड़ाया और जीत गया।

अब तक अँधेरा हो चुका था। ठुनठुनिया के कहने पर मनमोहन ने धीरे-धीर पतंग उतारी और माँजा लपेटकर दोनों वापस चल दिए।

ठुनठुनिया ने देखा, उसकी पतंग किनारे से थोड़ी फट गई है। डोर भी एक-दो जगह घिस्सा लगने से कमजोर हो गई थी। पर यह भी कमाल था कि पतंग कटी नहीं। ठुनठुनिया ने प्यार से अपनी पतंग को चूम लिया। बोला, "वाह, आसमान में ठुनठुनिया का झंडा लहरा दिया, आज तो इस छबीली ने!"

देखकर मनमोहन खूब ठठाकर हँसा। दोनों अब पक्के दोस्त बन गए थे।

18

नए दोस्तों के साथ नौका-यात्रा

अगले दिन मनमोहन शाम के समय छिद्दूमल की बगिया में सुबोध से मिला, तो वह वाकई एक बदला हुआ मनमोहन था। उसने मन ही मन कुछ गुन-सुन करते हुए सुबोध से कहा, "वाकई ठुनठुनिया में है कुछ-न-कुछ बात!"

"कैसी बात, कौन-सी बात?...मैं भी तो सुनूँ।" सुबोध को हैरानी हुई। वह पहली बार मनमोहन से ठुनठुनिया की तारीफ सुन रहा था।

"बस, जादू ही समझो...!" अब के मनमोहन ने जरा और खुलकर कहा।

"अरे! कुछ बता न, पूरी बात क्या है?" सुबोध थेड़ा चिढ़ गया।

तब मनमोहन ने कल की पूरी घटना बता दी। फिर बोला, "सुबोध, मुझे तो अब भी यकीन नहीं आ रहा कि यह जादू हुआ कैसे? यही ठुनठुनिया था जो पतंग देखते ही काँपता था। इससे-उससे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाकर कहता था कि यार, जरा पतंग तो उड़ा दे...यार, जरा छुड़ैया ही दे दे! मगर कल पहली बार इसने पतंग उड़ाई और पहले ही दिन क्या कमाल दिखाया  एक-एक कर जाने कितनी पतंगें काट डालीं। मेरी पतंग तो काटी ही, रामेसर, लखिया, मानबहादुर, बबलू, टिंकू सब रो रहे थे कि अरे, जरा-से ठुनठुनिया ने यह कमाल कर दिखाया, जिसे हम अपने आगे चींटी भी नहीं समझते थे। पतंग तो हमने भी सीखी, मगर पहले ही दिन यह कमाल! हो न हो, कुछ जादू तो है इस गोलू-मटोलू ठुनठुनिया के पास...!"

"बेकार ही उससे दुश्मनी मोल ली।" सुबोध बोला, "उसे खामखा चिढ़ाकर हमें क्या मिला!"

"मैं भी यही सोच रहा हूँ।" मनमोहन ने कहा। फिर हँसकर बोला, "ठुनठुनिया बातें ऐसी मजेदार करता है कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाएँ।"

"हाँ, मैं समझता हूँ, उसके दिल में कोई खोट नहीं है।" सुबोध ने पहली बार अपने मन की बात कही।

"अब देखो न, मैंने तो कल हद दर्जे तक उसके साथ बदतमीजी की।" मनमोहन बोला, "उसकी पतंग उड़ाकर देने से इनकार किया। फिर जान-बूझकर उसकी पतंग काटनी चाही...पर जब मेरी पतंग कट गई तो वह उलटा मुझे बुलाकर कहता है कि आ मनमोहन, इधर आ। हम लोग मिलकर पतंग उड़ाएँगे।" उसके शब्द आत्मग्लानि से भरे थे।

इस बात से मनमोहन ही नहीं सुबोध भी रीझ गया और मनमोहन के साथ-साथ वह भी ठुनठुनिया की जमकर तारीफ करने लगा। फिर बोला, "सच्ची बात तो यह है, हमीं ने ठुनठुनिया को खासा तंग किया। याद है, चार फुँदने वाली टोपी? बेचारे के सारे फुँदने कटवाए..."

अभी ये दोनों बातें कर ही रहे थे कि कहीं से घूमता-टहलता ठुनठुनिया आया। मनमोहन हँसकर बोला, "हम तेरा ही गुणगान कर रहे थे।"

"अच्छा...? वाह रे वाह, मैं!" ठुनठुनिया हँसा।

फिर तो खूब बातें चल निकलीं। बहुत-से गिले-शिकवे थे, बह गए। तीनों गले मिले और पिछली बातें भुलाकर पक्के दोस्त बन गए। तीनों गली के नुक्कड़ पर एक पेड़ के सहारे खड़े खूब खिलखिलाकर बातें कर रहे थे। एक-एक कर ढेरों पुराने किस्सों पर किस्से याद आ रहे थे और न हँसी रुकने में आती, न बातें।

इतने में ही मीतू भी आ गया, जो बिल्कुल ठुनठुनिया के घर के पास रहता था और बड़े मनमौजी स्वभाव का था। बातें बनाने और चुटकुले सुनाने में उस्ताद था। दोस्तों पर मुश्किल आती, तो कुछ भी करने को तैयार रहता था।

अब तो चारों की पक्की दोस्ती हो गई। वे मिलकर रहते, मिलकर स्कूल जाते, शाम को मिलकर खेलते। मनमोहन का अकड़ूपन एकदम गायब हो चला और ठुनठुनिया के साथ रहकर उसने भी सीख लिया था कि सबके साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए।

कुछ दिन बीते। फिर एक दिन की बात है। इतवार का दिन था। चारों दोस्त घर के पास वाले मैदान में इकट्ठे हुए और मिलकर लँगड़ी कबड्डी खेलने लगे।

इस बीच बादल घिर आए थे। बड़ी ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। मीतू ने सुझाव दिया, "जरा देखो तो, मौसम कितना अच्छा है! चलो जंगल में चलें। नदी के किनारे-किनारे घूमेंगे, बड़ा मजा आएगा।"

और बस चारों दोस्त उछलते-कूदते और बीच-बीच में दौड़ लगाते हुए, जंगल की तरफ चल दिए। सभी मस्ती के रंग में थे।

भागते-दौड़ते वे नदी के किनारे पहुँचे और नदी की रेत पर मजे से खेलने और उछलने-कूदने लगे। ठुनठुनिया ने रेत पर एक के बाद एक पचासों दफा ऐसी-ऐसी कलामुंडियाँ खाकर दिखाईं कि सभी दोस्त झूम उठे। फिर पकड़म-पकड़ाई का खेल शुरू हो गया। और वो भागमभाग हुई...वो भागमभाग और पेड़ की डालियों से उछल-कूद, कि सभी पसीने-पसीने। सभी की बुरी तरह हँफनी छूट रही थी।

आखिर बुरी तरह थककर वे आम के बगीच में सुस्ताने के लिए बैठे। ठुनठुनिया और सुबोध ढेर सारे आम तोड़ लाए। उन्हें नदी के पानी में धोकर सभी चूसने लगे। फिर गपशप भी शुरू हो गई।

ठुनठुनिया बोला, "अगर आज मेरे पास बाँसुरी होती तो एक से एक बढ़िया सुर निकालकर दिखाता। तुम लोगों को खूब मजा आता।"

इस पर मनमोहन बोला, "कोई बात नहीं। अगली बार आना तो बाँसुरी साथ लाना। जंगल में बाँसुरी की आवाज खूब गूँजती है। सुनकर सचमुच मजा आता होगा...!"

सुबोध ने सुझाव दिया, "बाँसुरी नहीं है तो क्या हुआ? आज अपन नौका-यात्रा की करते हैं।"

मीतू ने नदी की ओर देखकर कहा, "नाव तो यहाँ है, पर नाव चलाने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा।"

"तो क्या हुआ?" ठुनठुनिया बोला, "नाव मुझे चलाना आता है। बस, कहीं से चप्पू मिल जाएँ।"

इतने में सुबोध चप्पू ढूँढ़ लाया। बोला, "अजीब बात है, ये चप्पू किसी ने झाड़ियों के बीच छिपाकर रखे हुए थे, ताकि किसी को नजर न आएँ।"

"मगर किसने किया होगा ऐसा!...और मल्लाह गया कहाँ?" ठुनठुनिया थोड़ा परेशान होकर सोचने लगा।

"अरे, किसी ने छिपाकर रखे हैं, इससे हमें क्या! बस, चप्पू तो मिल गए न! अब मजे से नाव चलाएँगे और नौका-यात्रा का पूरा मजा लेंगे।" सुबोध अपनी तरंग में था।

"चलो भई ठुनठुनिया और मीतू...तुम लोग चप्पू सँभालो। हो जाओ तैयार!" मनमोहन ने कहा।

और सचमुच नदी की लहरों पर नौका इस तरह मजे से हिचकोले लेते हुए चलने लगी, जैसे किसी सपने की दुनिया में ले जा रही हो। फिर नदी की ठंडी-ठंडी हवा का अपना आनंद था। लग रहा था, यह सुहानी हवा चारों के शरीर को नरम उँगलियों से गुदगुदा रही है।

चारों दोस्तों के मन खुशी से थिरक रहे थे। कभी वे आपस में जोर-जोर से बातें करने लगते और कभी उमंग में आकर कोई सुर छेड़ देते। सोच रहे थे, ऐसी मस्ती क्या रोज मिलती है?

मीतू को एक प्यारी-सी कविता याद आई। बोला, "सुनो भाई सुनो, यह हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय की कविता है। जाने-माने फिल्मी अभिनेता, मगर कविताएँ भी क्या गजब की लिखी हैं! सुनकर तुम्हारा जी भी खुश हो जाएगा।" और वह उछल-उछलकर गाने लगा -

नाव चली, नाव चली

नानी की नाव चली,

नानी की, नानी की

नानी की, नाव चली...

मीतू गाता तो सारे दोस्त जोर-जोर से कविता की पंक्तियाँ दोहराने लगते। पूरे जंगल में मानो कविता के सुर गूँज रहे थे, "नानी की नाव चली...नानी की नानी की नानी की नाव चली...!"

"मैं तो पहली बार इस नदी पर नौका-यात्रा कर रहा हूँ। मुझे पता नहीं था, यहाँ इतना अच्छा लगता है।" मनमोहन हँसकर बोला, तो ठुनठुनिया खूब मजे में ठठाकर हँसा और उसने अनोखा सुर छेड़ दिया, "हेऽऽऽ...हे...हे...हे...! राम जी की नौका, राम जी का चप्पू, खेवनहार ठुनठुनिया रे...हेऽऽ हेऽऽ...!"

"देखो भाई ठुनठुनिया, आराम से चलाओ -आराम से! गिरा न देना। कहीं नाव उलट गई तो...!" मनमोहन को थोड़ा डर लग रहा था।

"कैसे उलट जाएगी?" ठुनठुनिया हँसकर बोला, "कोई मजाक है! और उलट भी गई, तो खुद को बाद में बचाऊँगा, पहले तुम सभी को...! आखिर मेरा नाम इसीलिए तो ठुनठुनिया है।"

इस पर चारों दोस्त एक साथ खिलखिलाकर हँसे। यह हँसी भी चारों ओर बिखर गई। लगा, नदी और उसकी तरंगें भी साथ-साथ हँसी हैं। और जंगल की हवा भी...!

"तुम कभी उधर गए हो? उधर...नदी पार! क्या है दूसरी तरफ?" मनमोहन ने अचानक ठुनठुनिया से पूछा।

"मैं तो कभी गया नहीं।" ठुनठुनिया बोला, "वैसे यहाँ से देखो तो एकदम सन्नाटा-सा लग रहा है। बिल्कुल सूना-सूना...! दूर-दूर तक खेत भी नहीं हैं!"

बहरहाल चारों दोस्तों की नौका-यात्रा बड़े आनंद और उत्साह के साथ चल रही थी। ठुनठुनिया बहुत अच्छा मल्लाह है, यह जल्दी ही सब दोस्तों का पता चल गया। इसलिए शुरू में तो सबको डर लग रहा था, फिर डर काफूर हो गया, मजा आने लगा।

"यार मनमोहन, लगता है, यह नौका चलती रहे, चलती रहे!" सुबोध तरंग में आकर बोला। शरारती हवा बार-बार उसके बालों से खेल रही थी और बाल माथे पर आ जाते। सुबोध झटके से उन्हें पीछे करता और हँसता।

"अ-हा-हा, कितनी शीतल हवा! हम धरती पर हैं कि स्वर्ग में...?" मीतू ने कहा तो सारे दोस्त फिर एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़े। सचमुच पानी की छुवन से मन में कितना जीवन, कितना उल्लास भर जाता है, सभी महसूस कर रहे थे।

मीतू को एक पुराना गाना याद आ गया और उसने सुर छेड़ दिया, "ए हो...रेs, ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में...सागर मिले कौन-से जल में...कोई जाने ना, ओ हो रेss, ताल मिले नदी के जल में...!"

गाना इतना सुरीला था कि चारों का मन उसी में अटक गया। लग रहा था, धरती हो, नदी का पानी या आकाश, सब ओर खुशी की तरंगें बिखरी हुई हैं। छप-छपाछप-छप करती अनगिनत तरंगें। सब ओर एक ही सुर -"ए हो रेs...ओ हो रेs...ए हो रेss...!"

19

रहस्यमय गुफा

नौका-यात्रा करते चारों मित्र नदी के दूसरे किनारे पर पहुँचे, तो एक क्षण के लिए सहम गए। सचमुच सब ओर सन्नाटा पसरा हुआ था -एक अजब तरह की सुनसान शांति।...पत्ता भी हिले तो आवाज हो! ऐसा चुप-चुप...चुप-चुप...चुप-चुप सन्नाटा।

"मैं तो आज तक कभी इधर नहीं आया।" ठुनठुनिया ने गौर से इधर-उधर देखते हुए कहा।

"हाँ...और मैं भी!" मीतू बोला, "देखो तो, कितना सन्नाटा है। डर-सा लग रहा है। दूर-दूर तक कोई आदमी नहीं...!"

"हम जंगल के बारे में सुना करते थे। असली जंगल तो यह है, पहाड़ी चट्टानों के बीच!" मनमोहन ने उन विशालकाय घने पेड़ों की ओर देखते हुए कहा, जिनकी वजह से दिन में भी यहाँ अँधेरा लग रहा था।

"कहीं कोई जंगली जानवर आ गया तो...?" सुबोध ने सहमकर कहा।

"अरे, जानवर चाहे कोई भी हो, तुम चुपचाप अपनी राह पर चलते जाओ, बगैर डरे, तो वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।" ठुनठुनिया ने समझाया।

तब तक सुबोध को भी एक काम की बात याद आ गई। बोला, "मेरा एक दोस्त कह रहा था कि डरना नहीं चाहिए। अगर तुम बाघ की भी आँख में आँख डालकर देखो तो वह डरकर भाग जाएगा। हाँ, पर अगर तुम डरे, तो मरे!"

अभी वे नौका को वहीं छोड़, इसी तरह धीरे-धीरे बातें करते हुए आगे बढ़े ही थे कि ठुनठुनिया को दूर एक पहाड़ी गुफा दिखाई दे गई। बोला, "देखो-देखो, पहाड़ के बीच वह गुफा। चारों ओर पेड़ों से घिरी हुई है, मगर फिर भी यहाँ से दिखाई दे रही है...!"

"चलो, चलते हैं। वहाँ शायद कोई रहता हो।" मनमोहन ने कहा तो चारों दोस्तों के पैर उधर ही बढ़ गए।

"और अगर..." सुबोध ने धीरे से फुसफुसाकर कहा, "वहाँ कोई शेर हुआ तो....?"

इस बात से सबके कदम ठिठक गए। पर ठुनठुनिया हिम्मत के साथ बोला, "अरे! शेर हुआ तो क्या! शेर की गंध तो दूर से ही पहचान में आ जाती है। शेर हुआ तो हम सब चुपके-चुपके लौट आएँगे।"

चलते-चलते वे गुफा के पास पहुँचे। वे गुफा के अंदर झाँककर देखना चाहते थे। पर उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि गुफा का मुँह तो एक भारी पत्थर रखकर बंद कर दिया है। उसके आसपास खूब सारी जंगल की कँटीली झाड़ियाँ रख दी गई हैं, ताकि किसी का ध्यान इस गुफा की ओर न जाए।

"इसका मतलब तो यह है कि गुफा के अंदर कोई नहीं है।" ठुनठुनिया ने उत्साह के साथ कहा, "चलो दोस्तो, अंदर चलकर देखते हैं।"

बड़ी मुश्किल से गुफा के मुँह पर रखे भारी पत्थर और कँटीली झाड़ियाँ हटाकर गुफा का रास्ता खोला गया। बाहर से ही गुफा को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि गुफा का मुँह सँकरा है, पर अंदर वह काफी चौड़ी है।

चारों दोस्त सावधानी से बिना पैरों की आवाज किए चुपके-चुपके अंदर की ओर बढ़े। उन्होंने इशारे से एक-दूसरे को समझा दिया था कि कुछ बोलना नहीं है। बस, चुपचाप सब कुछ देखना है। वे भीतर से कुछ सहमे हुए भी थे। सोच रहे थे, पता नहीं क्या कुछ देखने को मिल जाए? पर थोड़ा भीतर जाने पर ही उनका भय खत्म हो गया। इसलिए कि वह गुफा एकदम खाली थी। चारों उसमें इधर-उधर निगाह घुमा रहे थे, हालाँकि कहीं कुछ नजर नहीं आया।

पर अचानक मीतू चौंका। गुफा में चहलकदमी करते हुए एक पत्थर के नीचे उसे नीले रंग के कुछ कागज दबे हुए मिले। लग रहा था, इन्हें छिपाने के लिए ही ऊपर पत्थर रख दिया गया है।

मीतू ने झट से वे कागज बाहर निकाले तो चारों दोस्त दौड़कर वहाँ इकट्ठे हुए। मनमोहन ने इशारा किया, 'देखो, देखो, यह भारत का नक्शा बना है!'

चारों मित्रों को हैरानी हुई कि जितने भी नीले रंग के कागज थे, सभी पर भारत का नक्शा बना हुआ था। उन सभी नक्शों पर तारीखें पड़ी थीं। सब पर लाल स्याही से कुछ खास जगहों पर निशान लगाए गए थे। साथ ही अजब-सी भाषा में हाशिए में जगह-जगह कुछ लिखा हुआ था, जो बिल्कुल पढ़ने मे नहीं आ रहा था।

गुफा में रोशनी बहुत कम थी, फिर भी अब धीरे-धीरे दीवारें और आसपास की चीजें कुछ साफ दिखाई देने लगी थीं। ठुनठुनिया ने देखा कि गुफा की दीवारों पर कुछ अजीब-से चित्र बने हैं। उनके नीचे अजीब-सी भाषा में कुछ लिखा हुआ है। ये ही चित्र उन नक्शों के पीछे भी बने थे और उन पर भी यही सब लिखा हुआ था।

'इनका मतलब क्या है?' किसी को यह ठीक-ठीक समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन इतना तय था कि यह रहस्यमय गुफा अब उनके लिए इतनी रहस्यमय नहीं रह गई थी। साफ लग रहा था कि यहाँ कोई गुप्त षड्यंत्र चल रहा है। जरूर किसी दुश्मन देश के जासूस यहाँ छिपकर मीटिंग करते हैं। हो सकता है, पूरे देश में उथल-पुथल फैलाने के लिए आतंकवादी योजनाएँ यहाँ बनती हों। शायद...

ठुनठुनिया बोला, "मुझे तो भारी गड़बड़ लग रही है। जरूर यह देश के दुश्मनों का अड्डा है। ओफ, कैसी जगह ढूँढ़ निकाली उन्होंने?"

मनमोहन ने कहा "जरूर ये दुश्मन के जासूस होंगे। मैंने एक किताब पढ़ी थी, उसमें लिखा था। दुश्मन के जासूस किस तरह भेद लेकर फिर षड्यंत्र करते हैं। देख रहे हो न, भारत का नक्शा? उस पर जगह-जगह लाल स्याही से निशान...! जरूर देश पर आतंकवादियों के हमले की योजना इसमें छिपी है। यानी अलग-अलग दिनों में अलग-अलग जगहों पर हमले या विस्फोट...! जरूर कुछ ऐसा ही है।"

"हो सकता है, ये लोग रात में यहाँ छिपकर योजना बनाते हों और दिन में अपना काम करने के लिए इधर-उधर निकल जाते हों।" मीतू ने कहा।

"चलो, अब जल्दी से चलें।" सुबोध बोला, "वरना इन लोगों को शक हो सकता है।"

मीतू ने नीले कागजों में से एक कागज उठाया और चुपके से जेब में डाल लिया। बाकी कागज उसने उसी तरह पत्थर के नीचे दबे रहने दिए।

फिर चारों दोस्त झटपट बाहर आए। उसी तरह गुफा के दरवाजे पर पत्थर रखा, झाड़ियाँ भी जस की तस रख दीं और फिर नौका लेकर चल पड़े। शाम हो जाने से पहले ही वे दूसरे किनारे पर सुरक्षित पहुँच जाना चाहते थे।

रास्ते में ठुनठुनिया ने कहा, "कुछ-न-कुछ तो करना होगा। क्यों न थाने जाकर पुलिस को बता दें!"

"पर पता नहीं, वे हमारी बात पर विश्वास करेंगे भी कि नहीं?" मनमोहन ने कहा, "उलटे बात और फैल जाएगी। तब तक ये लोग यहाँ से डेरा उठाकर कहीं और चल पड़ेंगे।"

"तो चलो, गजराज बाबू के यहाँ चलते हैं।" ठुनठुनिया ने सुझाया, "वे जरूर कुछ-न-कुछ करेंगे। उन्हें हम सारी बात बता देंगे। वे हमारे साथ पुलिस थाने चलेंगे तो पुलिस भी कुछ-न-कुछ जरूर करेगी।"

"हाँ-हाँ, ठीक...बिल्कुल ठीक!" सभी को ठुनठुनिया की यह बात जँच गई।

आखिर चारों दोस्त नदी पार करते ही तेज कदमों से रायगढ़ की ओर चल दिए। शहर आते ही वे गजराज बाबू की हवेली की ओर बढ़े। गजराज बाबू ने उन्हें परेशान देखा तो हड़बड़ाकर कहा, "क्यों ठुनठुनिया, सब ठीक तो है न? आज लगता है, तुम फिर किसी परेशानी में घिर गए हो!"

"बाबू साहब, बात तो ठीक है।" ठुनठुनिया बोला, "पर यह परेशानी मेरी नहीं, हम सबकी है। और अगर जल्दी ही कुछ न किया गया, तो कल कुछ भी हो सकता है।"

"अच्छा, ऐसी क्या बात हो गई?" गजराज बाबू चौंके। बोले, "भीतर आओ, तसल्ली से सारी बात बताओ।"

इस पर ठुनठुनिया ने शुरू से लेकर आखिर तक सारी बात बता दी। उस रहस्यपूर्ण पहाड़ी गुफा का पूरा ब्योरा दिया और बताया कि उसमें ऐसे कागज हैं जिनमें देश का नक्शा बना है। उन पर अजीब-सी भाषा में कुछ लिखा है और लाल स्याही से बीच-बीच में गोल निशान बने हैं। लगता है, यह देश के किसी दुश्मन का काम है, जो हमारे देश के अलग-अलग शहरों में हमले...या विस्फोट...!

अभी ठुनठुनिया यह बता ही रहा था कि मीतू ने झट जेब से कागज निकालकर दिखा दिया। बोला, "बाबू जी, यह लीजिए कागज। ऐसे ढेरों कागज वहाँ हैं। सबमें अलग-अलग निशान लगे हैं, अजीबोगरीब चित्र भी बने हैं। मैं उनमें से बस एक उठा लाया हूँ, ताकि किसी को ज्यादा शक...!"

वह कागज देखते ही गजराज बाबू गंभीर हो गए। बोले, "सचमुच, यह तो देश के दुश्मनों का काम है, एक साथ देश के कई हिस्सों में हमला करने की योजना बन रही है। संसद, प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट -एक साथ हर जगह बम-विस्फोट करने की योजना! ये लोग तो बहुत शातिर अपराधी लगते हैं...बहुत भयंकर!"

उसी समय गजराज बाबू ने कपड़े पहने और बच्चों को साथ लेकर थाने की ओर चल दिए। थानेदार ने सारी बात सुनी तो भौचक्का रह गया। कुछ सोचते हुए बोला, "हो सकता है, उन लोगों के पास अति-आधुनिक हथियार हों। हम उनका मुकाबला कैसे करेंगे?"

आखिर में आनन-फानन में पास के मिलिट्री कैंप तक खबर भेजी गई। सेना के जवानों ने आधी रात के समय नदी पार करके गुफा को चारों ओर से घेर लिया और पूरी मोरचेबंदी कर ली। अब तक आतंकवादी लौटकर गुफा के अंदर छिप चुके थे। उन्होंने अंदर से गोलियाँ चलाकर सेना के जवानों का मुकाबला करना चाहा।...बम-विस्फोट की धमकी दी! पर सुबह होते-होते वे सब पकड़ लिए गए। पता चला कि बच्चों का अंदेशा एकदम सही था। वे पड़ोसी देश के जासूस ही थे, जो भारत में आतंक पैदा करने के लिए भेजे गए थे।

अगले दिन 'नव प्रभात' अखबार में सेना के द्वारा पकड़े गए आतंकवादियों के फोटो छपे, तो साथ ही ठुनठुनिया और उसके दोस्तों के भी। उस रहस्यमय गुफा की पूरी कहानी भी लिखी गई थी, जिसे ठुनठुनिया और उसके दोस्तों ने खोज निकाला था।

गजराज बाबू और मिलिट्री के अधिकारियों का भी बयान छपा कि अगर ये चारों नन्हे दोस्त समय पर सूचना न देते, तो कुछ भी हो सकता था।

सेना के अधिकारियों ने चारों नन्हे मित्रों को वीरता का सर्टिफिकेट देने के साथ-साथ एक-एक हजार रुपए का खास इनाम भी दिया। एक बड़ी-सी सभा हुई, जिसमें गजराज बाबू ने ठुनठुनिया और उसके दोस्तों की पीठ ठोंकते हुए कहा, "ये चारों नन्हे दोस्त गुलजारपुर का गौरव हैं। हमें इन पर नाज है!"

सभा के बाद ठुनठुनिया ने आकर माँ के पैर छुए, तो माँ ने प्यार से उसका माथा चूमकर कहा, "जुग-जुग जिओ बेटे...आज मैं सचमुच बहुत खुश हूँ रे ठुनठुनिया!"

20

रग्घू खिलौने वाला

ठुनठुनिया की तारीफ तो सब ओर से हो रही थी, पर उसकी एक मुश्किल भी थी। पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था। पढ़ाई के अलावा बाकी सब चीजें अच्छी लगती थीं। इधर-उधर घूमना-घामना, खेल-कूद, ड्राइंग, गपशप, किस्से-कहानी हर चीज में उसे मजा आता था। बस, पढ़ाई के नाम पर उसकी जान सूखती थी।

माँ कभी-कभी आजिज आकर कहती, "बेटा, पढ़-लिख लेता तो तेरा जीवन सुधर जाता। मुझे भी चैन पड़ता।"

ठुनठुनिया हँसते हुए जवाब देता, "माँ, पढ़ाई खाली किताबों से थोड़े ही होती है। मैं तो जीवन की खुली पाठशाला में पढ़ना चाहता हूँ। वहाँ नई-नई बातें सीखूँगा। किताबों में रोज वही-वही बातें पढ़ना क्या अच्छा लगता है?"

इस तरह ठुनठुनिया स्कूल की पढ़ाई तो कर ही रहा था, साथ ही साथ जब भी मौका मिलता, घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़ता। या फिर इधर-उधर जो भी नई चीज दिखाई पड़ती, उसे सीखने की कोशिश करता था।

एक दिन शाम के समय वह घूमने के लिए निकला। दीवाली को कुछ ही दिन बाकी थे। इसलिए बाजार में खूब चहल-पहल थी। ठुनठुनिया भीड़ में आसपास की चीजें देखता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था।

अचानक उसका ध्यान खिलौनों की एक दुकान की ओर गया। खिलौने तो उसने खूब देखे थे। पर इतने सुंदर, कलात्मक और रंग-बिरंगे खिलौने वह पहली बार देख रहा था। लग रहा था, जैसे अभी बोल पड़ेंगे।...और चिड़ियाँ-तोते तो ऐसे सजीव कि बस अभी उड़ना ही चाहते हैं।

ठुनठुनिया की आँखें जैसे उन खिलौनों से ही चिपक गईं। देखकर उसका मन भरता ही न था। पास ही खिलौने वाला भी खड़ा था। वह बड़े ध्यान से ठुनठुनिया की ओर देख रहा था।

ठुनठुनिया से रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, "ये इतने सुंदर-सुंदर खिलौने तुम बनाते हो भाई?"

"हाँ!" खिलौने वाले ने मुसकराकर कहा, "लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?"

सुनकर ठुनठुनिया के पाँव वहीं ठिठक गए। उसने पूछा, "जरा बताओ तो भाई, तुम खिलौनों में जान कैसे डालते हो? ये तो बिल्कुल असली मालूम पड़ते हैं...!"

इस पर गले में गमछा डाले अधेड़ खिलौने वाला हँसा। बोला, "बेटा, ये क्या इतनी छोटी बात है, जो मैं जरा देर में बता दूँ?...कभी घर आओ तो खुद देख लेना, कैसे बनाता हूँ मैं ये खिलौने!" और फिर उसने अपने गाँव का पता बता दिया। कहा, "पास के गाँव द्वारकापुरी में रग्घू खिलौने वाले का घर पूछ लेना। सब जानते हैं मुझे। कोई भी बता देगा।"

अगले दिन इतवार था। ठुनठुनिया सुबह-सुबह गाँव द्वारकापुरी की ओर चल पड़ा। वहाँ रग्घू खिलौने वाले का घर पूछा, तो सचमुच कोई मुश्किल नहीं आई। रग्घू इस समय खिलौनों पर रंग करने में लगा था। ठुनठुनिया को देखा तो बोला, "आओ, पास बैठकर देखो, खिलौनों पर रंग कैसे करते हैं!"

ठुनठुनिया बड़े गौर से रग्घू को खिलौनों पर रंग करते देखता रहा। फिर बोला, "तुम्हारे पास एक और ब्रश होगा भाई? मैं भी रंग करके देखता हूँ।"

रग्घू हँसकर बोला, "क्यों नहीं? जितने ये खिलौने पड़े हैं, यह सबकी सब चिड़ियाँ हैं। इनकी पूँछ पर नीला रंग करना है। वो पड़ा है नीला रंग। पास में ब्रश भी है। फटाफट कर डालो।"

ठुनठुनिया शुरू में झिझक रहा था। हाथ काँपते थे, पर जल्दी ही उसकी कला निखर आई।...और सचमुच ठुनठुनिया ने एक के बाद एक मिट्टी की चिड़ियों में रंग भरना शुरू किया तो रग्घू पुलकित हो गया। खुशी से छलछलाती आवाज में बोला, "तुम तो बड़े काबिल हो बेटा। पहले दिन से ही कितने अच्छे रंग भरने लगे!"

"तुम सिखाओगे तो सीख जाऊँगा, रग्घू चाचा।" ठुनठुनिया ने कहा, और फिर और भी होशियारी से रंग भरने में जुट गया।

रग्घू ने देखा, ठुनठुनिया ने तो सचमुच उसे भी मात दे दी थी। इतने अच्छे रंग भरे थे कि खुद रग्घू के भरे हुए रंग उसके आगे हलके जान पड़ते थे।

अब तो रग्घू ने खिलौने बनाने की कला की सारी बारीकियाँ ठुनठुनिया को समझानी शुरू कीं। उसे हर चीज के बारे में खूब जमकर बताया कि पहले मिट्टी कैसे तैयार की जाती है...उसे अच्छी तरह गूँधकर कैसे साँचे से खिलौने बनते हैं। फिर उन्हें आँच में कैसे पकाया जाता है। खिलौने पर एक के बाद एक तरह-तरह के रंग किए जाते हैं...फिर रंग सूखने पर कैसे सावधानी से टोकरे में डालकर बाजार ले जाकर बेचना होता है।...वगैरह-वगैरह।

"पैसे तो इस कला में कोई ज्यादा नहीं आते ठुनठुनिया, पर मन का आनंद बहुत है।" रग्घू ने कहा, "हमारे घर तो पुरखों से यह कला चलती आई है। दादा जी बहुत अच्छे खिलौने बनाते थे और बापू का तो जवाब ही नहीं! उसके हाथों में तो ईश्वर की दी हुई कोई नियामत ही थी। मैं चाहूँ भी तो वैसे सुंदर खिलौने नहीं बना सकता। हाँ, याद पड़ता है, एक दिन बापू ने कहा था, 'रग्घू, तू खिलौने छोड़कर कोई और काम कर। इस कला की अब इज्जत नहीं रही। पैसे भी नहीं हैं। फिर तू करेगा क्या, खाएगा क्या...!' पर मैंने कहा, नहीं बापू, मुझे तो अच्छा लगता है, खिलौने बनाना। जब तक जान में जान है, यही काम करूँगा। फिर चाहे पैसे मिलें, न मिलें।"

सुनकर ठुनठुनिया ने कहा, "रग्घू चाचा, अगर तुम कहो तो मैं भी तुम्हारी मदद करूँ। एक से दो भले। हो सकता है, यह काम कुछ और अच्छा चमक जाए।"

रग्घू चाचा ने बड़े ढंग से ठुनठुनिया को सिखाया -पहले आसान-आसान चिड़ियाँ, तोते, मोर, बतख...फिर दूसरे खिलौने। ठुनठुनिया की उँगलियों में पहले इतनी लोच न थी, पर खिलौने बनाने सीखे तो हाथों में भी लय आती गई। खुद उसके अंदर से जैसे अनोखी खुशी, अनोखा प्रकाश फूट पड़ा था।

और सचमुच जब ठुनठुनिया ने खिलौने बनाने शुरू किए, तो रग्घू चाचा की छाती शीतल हो गई। बोले, "बस, तू अब यह कला सीख गया! तू चाहे तो अब अलग से भी यह काम कर सकता है। तेरे खिलौने तो मुझसे भी ज्यादा बिकेंगे।"

"नहीं रग्घू चाचा, मैं तो तुम्हारी ही मदद करूँगा। तुमसे यह कला सीखी है, तो तुम मेरे गुरु हुए। अभी तो मैं कोई गुरुदक्षिणा भी कहाँ दे पाया?" कहते-कहते ठुनठुनिया की आवाज भर्रा गई।

ठुनठुनिया के साथ ने रग्घू चाचा में सचमुच नई जान डाल दी। ठुनठुनिया ने रग्घू चाचा के साथ मिलकर नए-नए रंग-डिजाइन के खिलौने बनाने शुरू किए, तो जैसे खिलौनों की एक नई रंग-बिरंगी दुनिया ही बस गई।

ठुनठुनिया का खिलौने बेचने का अंदाज भी नायाब था। जोकर जैसी एक लंबी ऊँची-सी टोपी पहनकर वह आता और बच्चों से हँस-हँसकर कहता, "अले-अले-अले, मेले प्याले बच्चो! अपने जैसे प्याले-प्याले खिलौने ले लो, खिलौने...!" सुनते ही बच्चों की हँसी छूट जाती। वे उसी समय घर की ओर दौड़ पड़ते, ताकि जल्दी से पैसे लाकर खिलौने खरीद लें। बच्चों से ठुनठुनिया इतने प्यार से बातें करता कि हर बच्चे से उसकी दोस्ती हो जाती। जिस गली में वह जाता, बच्चों की भीड़ लग जाती। सब उससे बातें करने के लिए तरसते।

इसी तरह ठुनठुनिया जब शहर में जाकर चौराहे के पास खड़ा होकर सुरीला गाना गाकर आवाज लगाता, तो देखते-ही-देखते बाजार की सारी भीड़ उसके इर्द-गिर्द जमा हो जाती। सब ठुनठुनिया से हँसी-मजाक करते, खूब बातें करते और झटपट दो-चार खिलौने खरीद लेते। बात की बात में ठुनठुनिया के सारे खिलौने बिक जाते और वह उसी तरह सुरीला गाना गाते हुए रग्घू चाचा के घर की ओर चल पड़ता।

रग्घू चाचा के आगे ठुनठुनिया जब पैसों की थैली निकालकर रखता तो वे गद्गद होकर कहते, "ओ ठुनठुनिया! तू तो सचमुच कोई जादूगर है, जादूगर!" और वे उन पैसों में से एक-एक के पाँच सिक्के निकालकर ठुनठुनिया की हथेली पर रख देते।

ठुनठुनिया हँसकर पैसे जेब में डाल लेता। फिर कहता, "हाँ चाचा, मैं हूँ तो जादूगर, पर यह जादू मैंने सीखा तो तुम्हीं से है।"

और यों रग्घू चाचा और ठुनठुनिया दोनों के जीवन में सचमुच कुछ नए रंग छा गए थे। ये रंग जीवन के रंग थे...सच्ची खुशी के रंग!

गोमती भी खुश थी। हर दिन एक-एक रुपए के पाँच सिक्के ठुनठुनिया बिला नागा माँ के आगे रख देता। माँ हँसकर कहती, "तेरी कमाई के ये रुपए मैं अलग संदूकची में रखती जा रही हूँ रे ठुनठुनिया! बड़ा होने पर तेरी बहू भी तो लानी है।...ये पैसे तब काम आएँगे।"

सुनकर ठुनठुनिया शरमा जाता। फिर अपनी झेंप मिटाने के लिए जोर से कहता, "जल्दी खाना लाओ न माँ! भूख लगी है।"

21

नाच-नाच री कठपुतली

एक दिन ठुनठुनिया रग्घू खिलौने वाले के यहाँ से घर आ रहा था कि रास्ते में एक जगह उसे उसे भीड़ दिखाई पड़ी। पास जाकर उसने पूछा तो किसी ने बताया, "अरे भई, अभी यहाँ कठपुतली का खेल होगा। जयपुर का जाना-माना कठपुतली वाला मानिकलाल जो आया है। ऐसे प्यारे ढंग से कठपुतलियाँ नचाता है कि आँखें बँध जाती हैं। जादू-सा हो जाता है।..."

सुनकर ठुनठुनिया अचंभे में पड़ गया। कई साल पहले एक बार उसने कठपुतली का खेल देखा था। उसकी हलकी-सी याद थी। सोचने लगा, 'क्यों न आज जमकर कठपुतली के खेल का आनंद लिया जाए!'

और सचमुच जब मानिकलाल की सारी तैयारी हो गई और कठपुतली का खेल शुरू हुआ, तो ठुनठुनिया पर जैसे नशा-सा हो गया था। खेल इतना रोमांचक था और कठपुतलियों के नाच में ऐसी गजब की लय थी कि लोग बार-बार तालियाँ बजाते थे। इनमें ठुनठुनिया की तालियों की आवाज अलग से और दूर तक सुनाई देती थी।

दर्शकों का उत्साह देखा तो गुलाबी फूलदार पगड़ी पहने, बड़ी-बड़ी काली मूँछों वाला मानिकलाल भी जोश में आ गया। वह ऐसे-ऐसे कमाल के खेल दिखाने लगा, जिन्हें वह बस कभी-कभार बड़े-बड़े लोगों के आगे ही दिखाया करता था। इनमें राजा लक्खू शाह और अपने रूप पर गर्व करने वाली रानी मानवती की कथा तो बड़ी ही अनोखी थी। सतखंडे महल में रहने वाली भोली-भाली राजकुमारी चंपावती और उसकी सात सहेलियों की कथा भी कमाल की थी। हर कथा में कठपुतलियों का अलग-अलग तरह का नाच था।

इसी तरह राजा रज्जब अली और दुष्ट मंत्री दुर्जन की कथा में तलवारों की 'झन-झन, झन-झन' दूर तक गूँज रही थी और उनकी लड़ाई देखकर सब 'वाह! वाह!' कर रहे थे। रुनक-झुनक नाचती कठपुतलियाँ नाच-नाच में चुपके से ऐसे अपना हाव-भाव, प्यार और गुस्सा प्रकट करती थीं कि जैसे ये कठपुतलियाँ नहीं, जिंदा इनसान हों। बीच-बीच में मानिकलाल कभी-कभी दो ऐसे सुरीले बोल बोल देता कि पूरे खेल में जान पड़ जाती।

ठुनठुनिया ने कठपुतली का यह अनोखा खेल देखा, तो रग्घू चाचा के खिलौने और उनकी रंग-बिरंगी दुनिया एकदम भूल गया। वे खिलौने चाहे कितने ही सुंदर हों, पर चलते तो न थे। पर ये कठपुतलियाँ तो ऐसे रुनक-झुनक नाचती हैं कि देखकर पत्थरदिल आदमी भी 'वाह! वाह!' कर उठे। सो ललचाकर बोला, "भाई मानिकलाल, तुम्हारी उँगलियों में तो जादू है। मुझे भी सिखा दो यह अनोखा खेल!"

मानिकलाल अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों में हँसकर बोला, "क्यों नहीं ठुनठुनिया! पर यह कोई दो-एक दिन का काम तो है नहीं। महीनों साथ रहना पड़ेगा। साथ रहते-रहते खुद ही सीख जाओगे। और फिर हमारे साथ-साथ पूरे देश की यात्रा भी कर लोगे, क्योंकि हमारा तो यह हिसाब है, आज दिल्ली, तो कल बनारस, परसों कलकत्ता...!"

"अरे वाह! तब तो मुझे और भी अच्छा लगेगा। मैं घूमने-घामने का तो बहुत शौकीन हूँ। मानिक भाई, मैं जरूर चलूँगा तुम्हारे साथ।" ठुनठुनिया की आँखों में चमक उमड़ आई।

ठुनठुनिया ने कह तो दिया, पर अंदर-अंदर सोच रहा था, 'रग्घू चाचा को मेरा कितना सहारा है! इस तरह अधर में छोड़ देने पर उन्हें कितना दु:ख होगा। और फिर माँ! क्या माँ मुझे घर छोड़कर शहर-शहर भटकने की इजाजत देती? वह तो यही कहेगी कि कठपुतली का खेल दिखाना है तो यहीं रहकर सीख और दिखा। इसके लिए घर छोड़ने की भला क्या दरकार?'

माँ की उदासी की कल्पना करके ठुनठुनिया का दिल बैठने लगा।

घर आकर उसने माँ से डरते-डरते कहा, "माँ, माँ, जयपुर का मशहूर कठपुतली वाला मानिकलाल अपनी कठपुतलियाँ लेकर आया है। ऐसे नचाता है कठपुतलियों को कि आँखें बस वहीं बँध जाती हैं।"

"अच्छा बेटा, तो तू भी देख आ एक बार जाकर।" गोमती ने लाड़ से भरकर कहा।

"देख तो लिया माँ! आज देखकर ही तो आ रहा हूँ।" कहकर ठुनठुनिया एक बार फिर देखे हुए खेल के बारे में माँ को बताने लगा।

"अच्छा, अच्छा! चल, अब तुझे भूख लगी होगी। हाथ-मुँह धो। मैं अभी खाना तैयार करती हूँ।" गोमती ने बड़े दुलार से कहा।

ठुनठुनिया हाथ-मुँह धोकर खाना खाने लगा, पर आज खाने में उसका मन नहीं लग रहा था। सोच रहा था, कैसे माँ से कहूँ कि मैं मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ जाना चाहता हूँ। सुनकर उसे कितना दु:ख होगा? माँ तो एक दिन मेरे बगैर नहीं रह सकती। फिर जब चला जाऊँगा तो पीछे...?

आखिर हिम्मत करके ठुनठुनिया ने माँ से कह ही दिया, "माँ...माँ, मेरी इच्छा है कि मैं भी कुछ दिन मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ-साथ शहर-शहर घूमूँ। नए-नए लोगों से मिलना हो जाएगा। कठपुतली नचाने का खेल भी सीख जाऊँगा।"

सुनकर गोमती एक पल के लिए बिल्कुल खामोश हो गई। जानती थी, ठुनठुनिया चंचल स्वभाव का है। पर वह उसे छोड़कर यहाँ-वहाँ कठपुतली का खेल दिखाते हुए भटकता रहेगा, इस कल्पना से ही उसे दु:ख हुआ।

"बेटा, छोड़ इन चक्करों को! जरा तू ढंग से पढ़-लिख लेता तो...!" गोमती ने कहा तो उसके अंदर का सारा दु:ख और निराशा उसके शब्दों में ढलकर बाहर आ रही थी। एक गहरी साँस लेकर बोली, "सच पूछो तो मुझे यह भी पसंद नहीं था कि तू पढ़ाई छोड़कर रग्घू चाचा के साथ ख्लिौने बनाने के काम में लग जाए। पर इतनी तो तसल्ली थी कि तू आँख के आगे था। रोज कम-से-कम तुझे देख तो लेती थी। और अब...! चल...तेरी मर्जी!" कहते-कहते गोमती की आँखें भर आईं और आवाज भर्रा गई।

"माँ, तू चिंता न कर। मैं कुछ-न-कुछ ऐसा सीखकर आऊँगा कि हमारे दिन खुशी-खुशी बीतेंगे। सारी मुश्किलें खत्म हो जाएँगीं।" कहकर ठुनठुनिया ने माँ को ढाढ़स बँधाया।

सुनकर माँ के मुख से काफी देर तक कोई बोल न निकला। फिर बोली, "अच्छा बेटे, तू जहाँ भी हो, वहाँ से चिट्ठी लिखते रहना। उसी के सहारे जीती रहूँगी।"

इसके बाद ठुनठुनिया ने रग्घू चाचा के पास जाकर उनसे भी इजाजत माँगी। रग्घू चाचा सुनकर एक क्षण के लिए तो सन्न रह गए। फिर बोले, "ठीक है ठुनठुनिया, जैसी तेरी मर्जी!...वैसे भी मिट्टी के पुरानी चाल के इन खिलौनों से तो कोई कमाई आजकल होती नहीं। प्लास्टिक के और न जाने कहे-काहे के खिलौने चल गए हैं। कोई कह रहा था, चीन के बने ख्लिौने आजकल आने लगे हैं, बाजार उनसे पट गया है। वही लोग बच्चों के लिए खरीद रहे हैं।

"पर कठपुतली का खेल अब भी बाबू लोग चाव से देखते हैं। तू सीख लेगा तो चार पैसे कमाकर किसी तरह गुजर-बसर कर लेगा। और फिर इस खेल में जगह-जगह घूमना-फिरना होगा। अलग-अलग लोग मिलेंगे। अलग-अलग पानी और मिट्टी का स्वाद...! कुछ न कुछ नया सीखकर ही आएगा।"

कहते हुए रग्घू चाचा की आँखें नम थीं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने आँसुओं को छिपाया।

"रग्घू चाचा, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ!" ठुनठुनिया बोला, "मेरा एक दोस्त है -गंगू। केकापुर का गंगू। एकदम सीधा-सच्चा है। मेहनती भी है। आजकल थोड़ी तंगी में है। पूछ रहा था कि क्या रग्घू चाचा मुझे भी खिलौने बनाना सिखा देंगे? वो आपके पास ही रहेगा! सीखेगा, काम भी करेगा। रग्घू चाचा, अगर आप कहें तो...!"

और रग्घू चाचा की 'हाँ' सुनते ही ठुनठुनिया केकापुर की ओर दौड़ पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने गंगू को बताया, "गंगू...ओ गंगू, तेरे लिए काम खोज लिया है!"

गंगू ठुनठुनिया की बात सुनकर इतना खुश हुआ कि उछल पड़ा। अगले दिन ही उसने द्वारकापुरी में रग्घू चाचा के पास जाने का फैसला कर लिया।

और ठुनठुनिया को लगा, उसकी यात्रा का महूर्त तो अब निकला है!

और अगले दिन ठुनठुनिया मानिकलाल के साथ आगरा की यात्रा पर रवाना हो गया। वहाँ राजा की मंडी में एक बड़े सेठ ने अपने पोते के जन्मदिन पर कठपुतली का खेल दिखाने के लिए उसे बुलाया था। ठुनठुनिया साथ गया और रास्ते में मानिकलाल से बात करके उसने इस खेल के खास-खास गुर सीख लिए।

सेठ की कोठी पर पहुँचने से पहले एक खाली मैदान में सेट तैयार करके मानिकलाल ने ठुनठुनिया को कठपुतली नचाना सिखाया। ठुनठुनिया जल्दी ही सीख गया कि किस तरह डोरियाँ खींचने से कठपुतलियाँ आगे-पीछे दौड़ती, उछलती-कूदती हैं। यों जल्दी ही वह कठपुतली के दो-चार खेल सीख गया, बल्कि अपनी ओर से हर खेल में वह कुछ-न-कुछ नया नाटक जोड़ देता। इससे खेल में नया रंग आ जाता।

कभी-कभी वह मुँह से ही घुँघुरुओं की झंकार जैसी आवाज निकालने लगता। ऐसा लगता, जैसे सचमुच के ही घुँघरू बज रहे हैं, बड़ी मीठी झंकार के साथ। कभी पक्षियों की चीं-चीं, चूँ-चूँ, पिहु-पिहु और क्याऊँ-क्याऊँ जैसी आवाज निकालता तो कभी सुरीले ढंग से किसी गाने के बोल निकालता हुआ कुछ नया ही रंग जमा देता।

मानिकलाल ने ठुनठुनिया का यह रंग, यह अंदाज देखा तो खुश होकर बोला, "वाह ठुनठुनिया! तू तो इस खेल में बहुत आगे जाएगा। कहे तो यह मैं तुझे कोरे कागज पर लिखकर दे दूँ।..."

सेठ किरोड़ीमल ने पहले भी कई बार मानिकलाल का कठपुतली का खेल देखा था। हर बार खासा इनाम देकर वह अपनी खुशी जाहिर करता था। पर इस बार ठुनठुनिया के आ जाने से खेल में जो नया जोश और रस पैदा हो गया था, उसने सेठ किरोड़ीमल को एकदम रिझा लिया। सेठ जी ने ठुनठुनिया की खूब पीठ ठोंकी और मानिकलाल तथा ठुनठुनिया के आगे अपनी थैली का मुँह खोल दिया।

"यह क्या...!" सौ-सौ के पाँच नोट देखकर ठुनठुनिया हक्का-बक्का।

"ले ले ठुनठुनिया, ले ले। सेठ जी खुश हैं। हम उनकी खुशी में शामिल होंगे, तो उन्हें अच्छा लगेगा।" मानिकलाल ने समझाया तो ठुनठुनिया ने नोट जेब में डाले। तभी एकाएक माँ का चेहरा उसकी आँखों के आगे आया। आँखें छलछला गईं।

अब तो मानिकलाल के कठपुतली के खेल की मशहूरी दिन दूनी, रात चौगुनी होने लगी। मानिकलाल का इतना नाम सुना तो वे सेठ, व्यापारी और जमींदार लोग जिन्होंने बरसों पहले उसका खेल देखा था, अब फिर से बुलाकर खेल देखने की इच्छा प्रकट करने लगे। पहले मानिकलाल को खेल दिखाने के बाद बीच-बीच में दो-चार दिन खाली भी बैठना पड़ता था। पर अब तो हालत यह थी कि उसे एक ही दिन में तीन-तीन, चार-चार खेल दिखाने पड़ते थे। जब बड़े शहरों में नुमाइशें लगतीं, तब भी उसे खेल दिखाने के लिए बाकायदा इज्जत से बुलाया जाता था।

कभी-कभी तो राजधानी में नेता और मंत्री लोग भी अपनी-अपनी कोठियों में मानिकलाल को खेल दिखाने के लिए बुला लेते। ऐसे मौकों पर ठुनठुनिया बात की बात में झट से कोई नया, मजेदार नाटक रच देता और कठपुतली के खेल का ऐसा रंग जमाता कि सभी प्रसन्न हो उठते। कभी-कभी ये कठपुतलियाँ सचमुच की जनता बन जातीं। तब वे नेताओं के काम और चरित्र पर ऐसी फब्तियाँ कसतीं और भ्रष्ट नेताओं को ऐसे फटकारतीं कि लोग हैरान रह जाते।

परदे के पीछे बैठा ठुनठुनिया साथ ही कोई-न-कोई ऐसा गीत छेड़ देता कि जनता के दु:ख की आवाज उसके गीतों में ढल जाती। तब खेल के बाद नेता को कहना पड़ता, "हमें मालूम है कि हमारी जनता दुखी और बेहाल है। ठुनठुनिया ने हमारा ध्यान खींचा। हम जल्दी ही लोगों का दु:ख दूर करने के लिए कुछ करेंगे...!"

ऐसे खेलों में ठुनठुनिया को खास इनाम मिलता। और मानिकलाल का घर-बार तो धन-समृद्धि से छन-छन करने लगा। दिल का वह उदार था। इसलिए जब खूब पैसा मिलता तो वह ठुनठुनिया को उदारता से देता। ठुनठुनिया ने एक अच्छा-सा संदूक खरीद लिया था, जिसमें मानिकलाल और दूसरों से इनाम में मिले रुपए रखता जाता था। आसमानी रंग के उस संदूक पर हमेशा एक बड़ा-सा अलीगढ़ी ताला लटका रहता।

ठुनठुनिया सोचता, 'जब घर जाऊँगा तो माँ के लिए खूब अच्छे-से कपड़े और दूसरी चीजें ले जाऊँगा। देखकर माँ कितनी खुश होगी!'

पर घर जाने का मुहूर्त अभी आया ही न था। और ठुनठुनिया कठपुतलियों की कला में इतना उलझा कि सब कुछ भूल गया।

22

फिर एक दिन

सचमुच ये ऐसे दिन थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पंख लगाकर उड़ते हैं। मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ रहते हुए ठुनठुनिया भी मानो सपनों की दुनिया में उड़ा जा रहा था।

यों तो मानिकलाल का पहले भी खूब नाम था, पर ठुनठुनिया के साथ आ जाने पर तो उसकी कठपुतलियों में जैसे जान ही पड़ गई। अब तो उसकी कठपुतलियाँ नाचती थीं, तो सचमुच की कलाकार लगती थीं। दूर-दूर से उसे कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए न्योते मिल रहे थे। बड़े-बड़े लोग उसे बुलाते और मुँह माँगे पैसे देने को तैयार रहते।

ठुनठुनिया भी अपने खेल में रोज कुछ-न-कुछ मजेदार दृश्य जोड़ देता है, जिससे हर दिन खेल नया लगा और उसमें रोज एक नया रंग आता। ठुनठुनिया की यह कला मानिकलाल को भा गई। वह कहता, "ठुनठुनिया, मुझे तो लगता है इस कठपुतली के खेल का असली मालिक और डायरेक्टर भी तू ही है।"

ठुनठुनिया कहता, "वाह जी मानिक जी, वाह! मैंने तो आपसे ही यह कला सीखी है।...आप मुझे शर्मिंदा न करें!"

जवाब में मानिकलाल मुसकराकर कहता, "ठुनठुनिया, सीखी तो है यह कला तुमने मुझसे ही, पर तुमने उसे वहाँ तक परवान चढ़ा दिया, जहाँ तक का मैंने भी न सोचा था।"

एक दिन मानिकलाल रायगढ़ के नवाब अलताफ हुसैन की कोठी पर अपना खेल दिखा रहा था। और खेल की डोर ठुनठुनिया के हाथ में ही थी। मानिकलाल ने इशारों-इशारों में ठुनठुनिया से कह दिया था, 'ठुनठुनिया, आज अपनी कला का जितना जादू दिखाना है, दिखा ले। नवाब साहब हमारे पुराने मुरीद हैं। कलाओं की बारीक पहचान रखने वाले और कद्रदान हैं। अगर खुश हो गए तो...!'

और ठुनठुनिया एकाएक अपने पूरे जोश में आ गया। उसके मन में कठपुतली के खेल की जो-जो नायाब कल्पनाएँ थीं, अब एक-एक कर वह नायाब खजाना बाहर आने लगा। ठुनठुनिया का जादू आज सिर चढ़कर बोल रहा था। नवाब साहब कभी मुँह से बजाय गए उसके घुँघरुओं के संगीत, कभी उसके लचकदार बोलों वाले सुरीले गाने, कभी उसकी कठपुतलियाँ नचाने की लोचदार कला और यहाँ तक कि कभी-कभी तो उसकी मीठी मुसकान और खुशदिली पर निसार होकर इनाम पर इनाम दिए जा रहे थे।

नवाब साहब के खूब बड़े आँगन में, जिसमें कोई सौ-डेढ़ सौ लोग बैठे थे, कठपुतलियों ने ऐसे इंद्रधनुषी रंगों की बारिश कर दी थी कि हर कोई उसमें भीग-सा रहा था। परदे की ओट में उनकी बेगम, बेटियाँ, बहुएँ और सहेलियाँ बैठी थीं। वे भी बार-बार तालियाँ बजा-बजाकर और मीठी हँसी की झंकार से ठुनठुनिया की खूब हौसला अफजाई करतीं। ठुनठुनिया हर बार खेल में कोई-न-कोई ऐसा अनोखा नाटकीय मोड़ ले आता कि लोग साँस रोककर देखने लगते कि अब आगे क्या होगा...क्या होगा...?

ऐसे ही उसके एक खेल के क्लाइमेक्स पर राजा रज्जब अली अपने दुश्मन बाज अली से भिड़ते हुए, बिल्कुल तलवार की नोक पर आ टिके थे। और अब कुछ भी हो सकता था, कुछ भी -कि अचानक खुदा के फजल से वे बचकर आ गए। फिर घोड़े पर बैठ, वो जम के तलवारबाजी करने लगे कि मानो बिजलियाँ-सी छूटती थीं...!!

ठुनठुनिया के खेल की इस नाटकीयता की नवाब साहब जी भरकर तारीफ कर रहे थे। कह रहे थे, "कठपुतली के खेल बहुत देखे, पर ऐसा आनंद पहले कभी न आया।...ओह, जान अधर में अटकी ही रही, जब तक रज्जब अली को ठीक-ठाक हालत में, एकदम सलामत वापस आते न देख लिया!"

उन्होंने बड़ी गहरी मुसकान के साथ मानिकलाल से कहा, "मानिकलाल, याद रखो, हर साल तुम इन्हीं दिनों खेल दिखाने रायगढ़ जरूर आअेगे। और अगर तुम नहीं आए, तो जरूर मेरी तबीयत खराब हो जाएगी और मैं तुम पर नालिश कर दूँगा...!"

मानिकलाल हँसते हुए सिर झुकाकर बोला, "हुजूर, आपका हुक्म सिर माथे!"

नवाब साहब के आँगन में बैठकर ठुनठुनिया का खेल देखने वाले दर्शकों में अयोध्या बाबू भी थे। शुरू में कुछ देर तक उन्हें समझ में ही नहीं आया कि कठपुतलियाँ नचाने की यह सारी जादूगरी ठुनठुनिया की है। फिर उन्हें ठुनठुनिया की एक झलक दिखाई दे गई। उसे लचकदार बोलों वाला एक सुरीला गाना गाते हुए भी उन्होंने सुना, जिसमें 'ठुन-ठुन, ठुन-ठुन, ठुनठुनिया...ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया, हाँ जी, कहता साधो ठुनठुनिया...!' जैसी लाइनें भी शामिल थीं।

अयोध्या बाबू ने झट से पहचान लिया कि यह गला और ये सुरीले बोल तो ठुनठुनिया के ही लगते हैं।

ठुनठुनिया की इस कला से अयोध्या बाबू भी मोहित हो गए। पर मन-ही-मन उन्हें एक कचोट भी महसूस हुई। वे सोचते थे, पढ़-लिखकर ठुनठुनिया कुछ ऐसा काम करे कि उसकी माँ का दु:ख कुछ हलका हो। ठुनठुनिया के घर से जाने और उसके पीछे गोमती की हालत का भी उन्हें अंदाजा था। वे सोच रहे थे, 'कुछ भी हो, आज मैं ठुनठुनिया को अपने साथ ले जाऊँगा, उसकी माँ के पास। बेचारी अभागिन माँ उसे देखकर कितनी खुश होगी...!'

जैसे ही कठपुतली का खेल खत्म हुआ, नवाब साहब ने मंच पर आकर एक बार फिर ठुनठुनिया और मानिकलाल की कला की तारीफ के पुल बाँधे। कहा, "जैसे मैंने साँस रोककर देखा, आपने भी देखा होगा। ठुनठुनिया की कला की क्या तारीफ करूँ कि उसके खेल में वाकई कठपुतलयाँ जिंदा हो जाती हैं। पर...चिंता न करें। अब आप लोग हर साल इस खेल का एक बार तो जरूर आनंद लेंगे। मानिकलाल से मैंने वादा ले लिया है।..." इतना कहकर उन्होंने नोटों से भरी एक थैली मानिकलाल की ओर बढ़ा दी।

खूब तालियाँ बजीं, खूब।...फिर जितने लोग कठपुतली का खेल देखने आए थे, सभी को केवड़ा मिली ठंडाई पिलाई गई। स्वादिष्ट ठंडाई का आनंद लेने के बाद मुँह में खुशबूदार पान का बीड़ा दबाकर दर्शक धीरे-धीरे चलने को तैयार हुए।

पर मास्टर अयोध्या बाबू के पैर तो मानो जमीन से ही चिपके हुए थे। वे न आगे बढ़ पा रहे थे, न पीछे...! तभी उन्हें अपना निर्णय याद आया। वे तेज कदमों से चलते हुए फौरन परदे के पीछे पहुँचे और एकाएक ठुनठुनिया के आगे जा खड़े हुए।

मास्टर अयोध्या बाबू को यों सामने देख ठुनठुनिया तो हक्का-बक्का रह गया। जैसे सब ओर अजीब धुआँ ही धुआँ छा गया हो, और अब कुछ नजर न आ रहा हो! समझ नहीं पाया, क्या कहे क्या नहीं?

फिर इस हालत से उबरकर बोला, "मास्टर जी, आपको यहाँ देखकर जी जुड़ा गया। मैं तो आपको बहुत याद करता रहा। शायद ही कोई दिन गया हो, जब मैंने आपको याद न किया हो, पर...।"

इस पर मास्टर जी बोले, "पगले, मुझसे भी ज्यादा तो तुझे याद करना चाहिए था अपनी माँ को। बेचारी न जाने किस उम्मीद पर अभी तक जिए जाती है। सोचती है, मेरा बेटा कुछ लायक बनेगा तो दु:ख-संकट कट जाएगा। पर तूने तो एक चिट्ठी तक नहीं डाली। यह खबर भी नहीं ली कि वह जीती भी है या नहीं...?"

सुनते ही ठुनठुनिया की आँखों के आगे से परदा हट गया। बेचैन होकर बोला, "माफ कीजिए मास्टर जी, यह खेल ही ऐसा है कि इसमें डूबो तो आगे-पीछे का कुछ होश ही नहीं रहता। मैंने खुद कई बार सोचा है कि मानिकलाल से महीने भर की छुट्टी लेकर घर जाऊँ, पर बस टलता ही गया। आपको पता है मास्टर जी, कैसी है मेरी माँ?"

"अब तुम खुद चलकर देखना।" मास्टर अयोध्या बाबू बोले, "चल अभी इसी वक्त मेरे साथ, नहीं तो अपनी माँ को जीती न देखेगा। वह बहुत ज्यादा बीमार है।"

ठुनठुनिया सुनकर जैसे सन्न रह गया। उसने मानिकलाल से कहा तो पहले तो वह सकपकाया, फिर एकदम ममतालु होकर बोला, "जाओ, जरूर जाओ। यहाँ का तो जैसे भी होगा, मैं सब सँभाल लूँगा। तुम्हारी बूढ़ी माँ को तुम्हारी कहीं ज्यादा जरूरत है!"

मानिकलाल के हाथ में नोटों की थैली थी, जो अभी-अभी नवाब अलताफ हुसैन ने दी थी। उसमें पूरे पाँच हजार रुपए थे। वह थैली ठुनठुनिया को पकड़ाकर मानिकलाल बोला, "ठुनठुनिया, जा, घर जाकर माँ की सेवा कर। पगले, माँ से बढ़कर इस दुनिया में कोई और नहीं है। पैसे की चिंता न करना। और जरूरत हो तो लिखना। मैं चिट्ठी मिलते ही भेज दूँगा...!"

ठुनठुनिया ने नोटो की वह थैली ली और अपना संदूक झटपट तैयार किया। उसी में सब कुछ रखकर संदूक हाथ में ले लिया। मास्टर जी के पीछे-पीछे चल दिया।

23

घर आया बेटा

जिस समय मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया का हाथ पकड़े हुए घर आए, गोमती की हालत बुरी थी। पिछले सात-आठ दिन से उसे बुखार आ रहा था, जो उतरने का नाम न लेता था। अब तो कमजोरी और चक्कर आने के कारण उसका उठना-बैठना भी मुहाल था। बस, चारपाई पर पड़ी रहती थी सारे-सारे दिन। थोड़ी-थोड़ी देर बाद पानी मुँह में डाल लेती। अभी दो-तीन रोज पहले डॉक्टर से दवाई तो लाई थी, पर खाने का मन ही न होता था। एकाध पुड़िया खाई, बाकी दवाई उसके सिरहाने पड़ी थी।

शरीर से ज्यादा पीड़ा और कष्ट उसके मन में था। रह-रहकर सोचती थी, 'एक ही बेटा है। वो भी जाने किन-किन चक्करों में फँसा हुआ है। इतनी भी परवाह नहीं कि माँ जिंदा भी है या मर गई? इसी ठुनठुनिया पर कितनी आस लगाए बैठी थी, पर...!'

सोचते ही गामती की आँखों से आँसू टप-टप टपकने लगे।

आज दिन-भर उसने कुछ नहीं खाया था। केवल अपने लिए खाना बनाने का मन ही न होता था। वैसे भी कभी-कभी पड़ोस की शीला चाची के यहाँ से आ जाता तो एकाध रोटी खा लेती, नहीं तो भूखी ही रहती थी।

मास्टर अयोध्या बाबू के साथ बेटे को आते देखा तो गोमती को पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। फिर सारे शरीर में झुरझुरी-सी छा गई। एकाएक उसकी आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे। वह खुद नहीं जानती थी कि ये आँसू दु:ख के हैं या खुशी के। शायद खुशी ही ज्यादा थी।...पर इनमें कहीं दुखी मन की यह आह और शिकायत भी थी कि "बेटा ठुनठुनिया, तूने अपनी माँ का अच्छा खयाल रखा। कहा करता था -माँ, माँ, तुझे मैं कोई कष्ट न होने दूँगा। पर देख, तूने खुद क्या किया?"

गोमती ने कहा नहीं, पर उसके चेहरे पर गहरे दु:ख और विह्वलता के भाव थे। रह-रहकर छलकते आँसू जैसे सारी कहानी कह रहे थे। फिर उसके शरीर की जो हालत थी, उसे देखकर ठुनठुनिया सिहर उठा। बोला, "माँ, माँ, तू ठीक तो है ना?...ऐसी कैसे हो गई?"

गोमती ने कुछ कहा नहीं, बस उसे अपनी छाती से चिपका लिया और गीले स्वर में बोली, "मैं ठीक हूँ बेटा। बस, तू वादा कर कि मुझे छोड़कर अब कहीं नहीं जाएगा। वरना...मैं अब तुझे न मिलूँगी!"

"मैं वादा करता हूँ माँ...मैं वादा करता हूँ, तुझे छोड़कर कहीं न जाऊँगा!" कहता-कहता ठुनठुनिया रो पड़ा।

फिर बोला, "माँ, तेरा सपना था कि मैं खूब पढ़ूँ-लिखूँ...पढ़-लिखकर कुछ बनूँ! मैं वादा करता हूँ कि अब मैं खूब दिल लगाकर पढूँगा। तेरी याद हर रोज आती थी माँ, पर मैं सोचता था, खूब पैसा कमाकर ले जाऊँ, ताकि तेरे कष्ट मिट जाएँ। ये तो मास्टर जी एक दिन मिल गए और मुझे घर ले आए, वरना तो माँ, मैं तुझे खो देता...!"

अब गोमती का ध्यान मास्टर अयोध्या प्रसाद जी की ओर गया। बोली, "मास्टर जी, आपने सचमुच मेरे प्राण बचा लिए। मेरा बेटा घर लौट आया, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।"

24

बदल गई राह

बस, उसी दिन से ठुनठुनिया का जीवन बदल गया।

गोमती की तबीयत तो ठुनठुनिया को अपनी आँखों के आगे देखते ही ठीक होनी शुरू हो गई थी। और दूसरे-तीसरे दिन वह बिल्कुल ठीक हो गई। पर ठुनठुनिया के भीतर जो उथल-पुथल मच गई थी, वह क्या इतनी जल्दी ठीक हो सकती थी!

ठुनठुनिया को लगता, माँ की इस हालत के लिए वही जिम्मेदार है। उसे इस तरह माँ को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहिए था। फिर पढ़ाई-लिखाई भी जरूरी है। उसके बगैर काम नहीं चलेगा -यह बात भी उसके भीतर बैठने लगी।

"माँ, चिंता न कर। अब मैं खूब जी लगाकर पढूँगा और अच्छे नंबर लाकर दिखाऊँगा।" ठुनठुनिया ने कहा तो गोमती की आँखों में अनोखी चमक आ गई। उसने ऊपार आसमान की ओर देखकर हाथ जोड़े और मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि बेटा आखिर सही राह पर आ गया।

और सचमुच ठुनठुनिया ने जैसा कहा था, वैसा ही कर दिखाया। फिर से वह स्कूल जाने लगा था। स्कूल के रजिस्टर में उसका नाम कट गया था। मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया को साथ लेकर हैडमास्टर सदाशिव लाल के पास गए और सारी कहानी कह सुनाई। हैडमास्टर साहब ने फिर से उसका नाम लिख लिया। कहा, "अब तो मेहनत से पढ़-लिखकर कुछ बनकर दिखाओ, तो मैं अपने पास से तुम्हें वजीफा दूँगा। लौटकर घर के रास्ते पर आए हो, तो यह रास्ता अब कभी छोड़ना नहीं।"

सुनकर ठुनठुनिया की आँखें छलछला आईं। उसे लगा कि अब अपना संकल्प पूरा करने का समय आ गया है। मानो कोई सामने खड़ा हाथ के इशारें से उसे बुला रहा हो, 'ठुनठुनिया आ, अब इस नई राह पर आ। कुछ बनकर दिखा।'

ठुनठुनिया को शुरू में मुश्किल आई। अध्यापक क्लास में क्या पढ़ा रहे हैं, उसे कुछ समझ में ही नहीं आता था। पर वह घर आकर किताब खोलकर वही पाठ बार-बार पढ़ता तो चीजें साफ हो जातीं। खुद-ब-खुद पूरा पाठ उसे याद हो जाता। फिर भी कोई मुश्किल आती, तो मास्टर अयोध्या बाबू रात-दिन मदद करने के लिए तैयार थे।

धीरे-धीरे ठुनठुनिया पढ़ाई में इस कदर डूब गया कि उन शरारतों का उसे बिल्कुल ध्यान ही न था, जिनमें उसका पूरा समय गुजरता था। यहाँ तक कि कुछ समय के लिए तो खेल-कूद, गपशप और घुमक्कड़ी भी छूट गई।

स्कूल के हैडमास्टर सदाशिव लाल जी और सभी अध्यापक अब ठुनठुनिया कर तारीफ करते हुए कहते, "देखा, ठुनठुनिया ने अपने आपको कितना बदल लिया! बाकी बच्चे भी चाहें तो इससे सीख ले सकते हैं।"

अब तो क्लास में अध्यापक के सवाल पूछने पर सबसे पहले खड़े होकर जवाब ठुनठुनिया ही देता था, जबकि इससे पहले हालत यह थी कि ठुनठुनिया सबसे नजरें बचाए क्लास की सबसे पीछे वाली सीट पर चुपचाप बैठा रहता, जैसे पढ़ाई से उसका कोई वास्ता ही न हो। ठुनठुनिया का यह नया रूप देखकर सभी अध्यापक उसकी हिम्मत बढ़ाते। मास्टर अयोध्या बाबू तो बार-बार कहा करते थे, "ठुनठुनिया, तुम चाहो तो फर्स्ट आ सकते हो। बस, इसी तरह मेहनत करते रहो। कोई मुश्किल आए तो दौड़कर मेरे पास आ जाना, हिचकना मत।"

और कोई साल-डेढ़ साल की ठुनठुनिया की मेहनत रंग लाई। हाईस्कूल का नतीजा आया तो उसे यकीन नहीं आया। वह फर्स्ट डिवीजन में पास हुआ था। यहाँ तक कि गणित और विज्ञान में उसकी विशेष योग्यता भी थी।

"फर्स्ट!...ठुनठुनिया फर्स्ट!..."

"हाँ-हाँ, एकदम...फर्स्ट!...सुन लिया न ताई?"

अब तो गोमती के घर बधाइयों का ताँता लग गया। गोमती के सूखे चेहरे पर पहली बार थोड़ी मुसकान दीख पड़ी। उसे लगा, जीवन में पहली बार उसने थोड़ा सुख देखा-जाना है। जैसे ही ठुनठुनिया स्कूल से लौटकर आया और उसने यह खबर सुनाई, गोमती सोचने लगी -आज बेटे को क्या बनाकर खिलाऊँ कि उसका जी खुश हो। बोली, "ठहर ठुनठुनिया, तेरे लिए सूजी का हलुआ बनाती हूँ।"

गोमती हलुआ बनाने के लिए उठी ही थी कि पड़ोस की शीला चाची आ गई। हाथ में बड़ा-सा बरतन था। उसमें दही-बड़े थे। बोली, "कहाँ है ठुनठुनिया? उसे आज मैं आज अपने हाथ से दही-बड़े खिलाऊँगी।"

ठुनठुनिया को उसने अपने हाथों दही-बड़ा खिलाया और फिर शीला चाची और गोमती ने भी दही-बड़े खाए। सूजी का मीठा हलुआ खाया। लग रहा था, घर में जैसे कोई त्योहार हो।

ठुनठुनिया उसी दिन पड़ोस के एक विद्यार्थी से इंटरमीडिएट की पुरानी किताबें ले आया। वह अगले दिन से इंटरमीडिएट की पढ़ाई में खूब जोश से जुट जाना चाहता था। एक दिन भी आखिर क्यों खराब किया जाए? उसे लगा, वह जो प्यारा-सा आदमी उसके सामने खड़ा है, हाथ का इशारा करके उसे बुला रहा है। हँसकर कह रहा था कि 'ठुनठुनिया, तुम एक सीढ़ी चढ़ गए। अब बस, एक सीढ़ी और! देखना, तुम्हारे आगे रास्ते खुलते चले जाएँगे...!'

यही तो ठुनठुनिया का भविष्य था। उसके भविष्य की उम्मीदों से छल-छल करती आवाज...!! ठुनठुनिया ने उसे अच्छी तरह पहचान लिया था।

25

स्कूल का वार्षिक उत्सव

धीरे-धीरे समय आगे बढ़ा। ठुनठुनिया अब बारहवीं कक्षा में था और बड़ी तेजी से बोर्ड की परीक्षा की तैयारी में जुटा था। अब वह पहले वाला ठुनठुनिया नहीं रह गया था। उसमें गजब का आत्मविश्वास आ गया था। उसने तय कर लिया था कि 'मंजिल पाकर दिखानी है। तभी मेरी माँ को सुख-शांति मिलेगी। जीवन-भर इसने इतने कष्ट झेले, कम-से-कम अब तो कुछ सुख के दिन देख ले।'

इसी बीच एक दिन हैडमास्टर साहब ने ठुनठुनिया को बुलाया। कहा, "ठुनठुनिया, अगले महीने स्कूल का सालाना फंक्शन होना है। मुख्य अतिथि होंगे कुमार साहब! वे यहाँ की बहुत बड़ी कपड़ा मिल 'कुमार डिजाइनर्स' के मैनेजर हैं। वे बहुत पढ़े-लिखे और समझदार आदमी हें। बढ़िया कला और कलाकारों की बड़ी इज्जत करते हैं। हमारे स्कूल को भी खुले हाथों से मदद देते हैं। मैं चाहता हूँ, इस फंक्शन में तुम भी कोई अच्छा-सा कार्यक्रम पेश करो, जिसे लोग हमेशा याद करें!"

ठुनठुनिया इस समय पूरी तरह अपनी पढ़ाई में डूबा हुआ था! रात-दिन बस पढ़ना, पढ़ना। खाने-पीने तक का होश नहीं। यहाँ तक कि सपने भी उसे इसी तरह के आते...कि वह परीक्षा हॉल में बैठा तेजी से लिखता जा रहा है। तभी समय खत्म होने का घंटा बजा, मगर...उसका आखिरी सवाल अभी अधूरा है और वह पसीने-पसीने! फौरन नींद खुल जाती और वह हक्का-बक्का सा रह जाता।

पर हैडमास्टर साहब के कहने पर उसने एक बिल्कुल नए ढंग के, खासे जोरदार नाटक की तैयारी शुरू की। वह नाटक एक नटखट शरारती बच्चे के जीवन पर था, जो दुनिया-जहान की न जाने कैसी-कैसी चक्करदार गलियों और अजीबोगरीब रास्तों पर यहाँ-वहाँ भटकने के बाद आखिर घर लौटता है। और तब घर उसे 'आओ मेरे बिछुड़े हुए दोस्त...!' कहकर बाँहों में भर लेता है। नाटक का नाम था, 'घर वापसी'। इस नाटक में ठुनठुनिया ने बेशक अपनी शरारतों की पूरी कहानी कह दी थी।

सालाना फंक्शन में ठुनठुनिया ने गीत-संगीत और अपनी सुरीली बाँसुरी बजाने का कार्यक्रम भी पेश किया था। पर सबसे ज्यादा जमा उसका नाटक ही। ठुनठुनिया का यह नाटक इतना मर्मस्पर्शी और दिल को छू लेने वाला था कि देखने वालों की आँखें भीग गईं। कुमार साहब भी इस कदर प्रभावित हुए कि कार्यक्रम खत्म होने के बाद उन्होंने ठुनठुनिया को एक सुंदर-सी घड़ी और पेन का सेट भेंट किया। फिर कहा, "ठुनठुनिया, जैसे ही तुम्हारे बारहवीं के इम्तिहान खत्म हों, अगले दिन मेरे पास आ जाना। मुझे फैक्टरी में तुम्हारे जैसे एक मेहनती और बुद्धिमान लड़के की जरूरत है।"

उस समारोह के लिए मंच-सज्जा और परदों के कपड़ों की रंगाई आदि का काम ठुनठुनिया ने इतने कलात्मक रूप से किया था कि आने वाले मेहमानों की आँखें बार-बार उन्हीं पर टिक जाती थीं। कुमार साहब ने भी उनकी खूब तारीफ की थी।...खूब! और उनकी पारखी निगाहों ने तभी ठुनठुनिया की 'छिपी हुई कला' को पहचान लिया था।

26

हाँ, रे ठुनठुनिया...!

ठुनठुनिया बारहवीं की परीक्ष देकर कुमार साहब के पास पहुँचा तो उसका दिन धुक-धुक कर रहा था। उसके मन में अजब-सा संकोच था। वह सोच रहा था, 'फंक्शन की बात कुछ और है। पता नहीं, कुमार साहब अब मुझे पहचानेंगे भी कि नहीं?'

पर कुमार साहब तो जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे। उसे पास बैठाकर चाय पिलाई और फिर अपने साथ ले जाकर पूरी फैक्टरी में घुमाया। फैक्टरी की एक-एक मशीन और उनके काम के बारे में बड़े विस्तार से बताया। आज की दुनिया में डिजाइनिंग के नए-नए तरीकों के बारे में बताया, जिसमें बहुत कुछ नया था तो साथ ही सदियों पुरानी सीधी-सरल लोककला का रंग-ढंग भी शामिल था।

ठुनठुनिया चुपचाप गौर से सुनता जा रहा था। कुमार साहब की बातें उसे किसी जादू-मंतर जैसी लग रही थीं। कुछ समय बाद उसने कुमार साहब से चलने की इजाजत माँगी। पर उन्होंने हाथ के इशारे से उन्हें रोका और अपने पी.ए. अशोक राज को आवाज लगाई।

थोड़ी ही देर में अशोक राज एक टाइप्ड कागज लेकर आया, तो ठुनठुनिया अचरज में पड़ गया -'क्या नियुक्ति-पत्र...? वाकई!'

हाँ, वह नियुक्ति-पत्र ही था।

कुमार साहब ने झट से उसके हाथ में नियुक्ति-पत्र थमाया और कंपनी के डिजाइनिंग डिपार्टमेंट में उसे असिस्टेंट प्रोड्यूसर बना दिया।

ठुनठुनिया शुरू में थोड़ा हड़बड़ाया हुआ-सा रहा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि फैक्टरी में कैसे काम करना है? कैसे लोगें से मिलना और बात करनी है? हाँ, उसके दिमाग में कपड़ों के एक से एक नए और आकर्षक डिजाइन आते। जब वह कुमार साहब को उनके बारे में बताता तो वे मुसकराकर उसकी पीठ थपथपाने लगते।

जल्दी ही ठुनठुनिया काम करने का तरीका समझ गया। उसके मन में जो नक्शे और डिजाइन बनते थे, वे जब असलियत में कपड़ों पर उभरकर सामने आते, तो कभी-कभी कुछ भूल-गलतियाँ भी होतीं। पर ठुनठुनिया जल्दी ही उन्हें सुधार लेता। वह सोचता था कि उसके मन में जो नए-नए, रंग-बिरंगे और खूबसूरत डिजाइन आते हैं, वे कपड़ों पर भी ज्यों-के-त्यों उभर आएँ। कुछ समय बाद वह इस काम की बारीकियाँ और गुर सीख गया तो जैसा डिजाइन वह चाहता था, हू-ब-हू वैसा ही कपड़े पर उतारकर दिखा देता।

यह उसकी नई जिंदगी का पहला सफल मंत्र था। और अब रास्ते खुलने लगे थे।

फैक्टरी में ठुनठुनिया से जलने और टाँग खींचने वाले भी कुछ लोग थे। पर हर ओर ठुनठुनिया की इतनी तारीफ हो रही थी कि उनकी कुछ चलती नहीं थी। फिर कुमार साहब का तो पूरा साथ और विश्वास था ही। कोई डेढ़-दो साल ही गुजरे होंगे कि ठुनठुनिया तरक्की करता-करता 'कुमार डिजाइनर्स' का सहायक मैनेजर बन गया।

एक दिन ठुनठुनिया ने कुमार साहब को रग्घू चाचा और गंगू के बारे में बताया। फिर कहा, "वे लोग मिलकर बेजोड़ खिलौने बनाते हैं। रग्घू चाचा की उँगलियों में तो अनोखा हुनर है। अब गंगू को भी उन्होंने सिखा दिया है।...क्या उन्हें हम साथ नहीं ले सकते?"

"क्यों नहीं, हम एक नया विंग शुरू करते हैं, 'अवर हैरिटेज'। इसमें रग्घू चाचा के बनाए भारतीय खिलौने भी होंगे। उन्हें हम देश-विदेश में बेचेंगे, ताकि रग्घू चाचा और गंगू की गरीबी दूर हो सके!" कुमार साहब ने मुसकराते हुए कहा, तो ठुनठुनिया खुशी के मारे उछल पड़ा।

और सचमुच कुमार साहब ने जो कहा, उसे कर दिखाया। फैक्टरी का नया विंग 'अवर हैरिटेज' शुरू हो चुका था। उसके संचालन का पूरा जिम्मा ठुनठुनिया पर था। और उसी को यह तरीका निकालना था कि कैसे कामयाबी से उसे दुनिया-भर में फैलाया जाए? वह रात-दिन इसी काम में जुटा था।

अब फैक्टरी में ठुनठुनिया की इज्जत बढ़ गई थी। कुमार साहब तो हर बात में उसकी तारीफ करते थे। कभी-कभी वे हँसकर कहते, "ठुनठुनिया, मुझे खुशी होगी, अगर तुम यों ही तरक्की करते-करते मेरी जगह आते, मेरी कुर्सी पर बैठते!"

ठुनठुनिया सिर झुकाकर कहता, "बस, कुमार साहब, बस...मुझे अब और शर्मिंदा न करें।"

अब ठुनठुनिया को फैक्टरी में ही रहने के लिए एक अलग क्वार्टर मिल गया। माँ भी ठुनठुनिया के साथ ही रहती थी। वह कभी-कभी खीजकर ठुनठुनिया से कहा करती, "जल्दी से तू अपने लिए बहू ला, तो मुझे काम-काज से छुट्टी मिले।...अब मैं भी तो बूढ़ी हो रही हूँ।"

और ठुनठुनिया कहता, "माँ, मैं तो बस इतना ही चाहता हूँ, जो भी लड़की आए, वह तेरी खूब सेवा करे। तुझे खुश देखकर ही मुझे खुशी मिलेगी।"

फैक्टरी में भी कभी-कभी फंक्शन और नाटक होते, तो ठुनठुनिया के अंदर का वही पुराना ठुनठुनिया फिर से जाग जाता। कभी देशभक्ति का नाटक 'आहुति' खेला जाता, तो कभी हँसी-मजाक से भरपूर 'हँसोड़ हाथीराम गए बारात में' जैसी अलबेली नाटिकाएँ। कभी-कभी गीत-संगीत से भरपूर 'वसंत बहार' जैसी नाटिकाएँ भी होतीं जिनमें ठुनठुनिया के अभिनय के साथ-साथ सुरीले गले का कमाल भी देखने को मिलता।

और एक बार तो ठुनठुनिया ने कुमार साहब से पूछकर मानिकलाल को भी फैक्टरी में कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए बुला लिया था। मजे की बात यह थी कि खेल खाली मानिकलाल ने नहीं, बल्कि मानिकलाल और ठुनठुनिया दोनों ने मिलकर दिखाया। मानिकलाल ने ठुनठुनिया को भी अपने जैसी ही गुलाबी पगड़ी पहना दी थी और दोनों गुरु-चेले ऐसे जँच रहे थे कि जो भी देखता तो बस देखता ही रह जाता।

आखिर खेल शुरू हुआ और उसमें नाचती हुई कठपुतलियों की लय-ताल ही नहीं, कथाएँ और नाटक भी ऐसे कमाल के थे कि जिस-जिसने भी देखा, उसने यही कहा, "जीवन में पहली बार कठपुतलियों का ऐसा खेल देखा और उसे इस जीवन में तो मैं भूलने से रहा।"

और ठुनठुनिया का रंग नायाब ही था! बहुत दिनों बाद लोगों ने ठुनठुनिया के चेहरे पर वही मस्ती, वही ठुनकती हँसी और उसकी आवाज में सुर-लय का वही तरन्नुम देखा कि दूर-दूर तक हवाओं में उसकी गूँजें फैलती जा रही थीं, "ठुनठुनिया जी, ठुनठुनिया...! ठुन-ठुन, ठुन-ठुन ठुनठुनिया...ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया...साधो, मैं हूँ ठुनठुनिया!!"

सुनकर लोग इतने मुग्ध थे कि सभी के मुँह खुले के खुले रह गए।

ठुनठुनिया का नाम दिनोदिन चमक रहा था और उसे प्यार करने वाले लोग सब तरफ थे। कोई छोटे-से-छोटा मजदूर हो या बड़े-से-बड़ा अफसर, सब ठुनठुनिया के आगे अपना मन खोलकर रख देते और ठुनठुनिया सबके सुख-दु:ख में ऐसे दौड़-दौड़कर मदद करता था, जैसे वह दूसरों का नहीं, खुद उसका काम हो।

रग्घू चाचा और गंगू ही नहीं, मनमोहन, सुबोध, मीतू सबके सब ठुनठुनिया के कहने पर 'अवर हैरिटेज' में आ गए। उसका नया नाम अब 'भारतीय कला परंपरा' रख दिया गया है। ठुनठुनिया ने सभी के लिए उनकी पसंद का काम ढूँढ़ निकाला। दिन भर काम और शाम को सभी मिलकर कभी बैडमिंटन, कभी वालीबॉल, कभी कबड्डी खेलते। या फिर मौसम अच्छा हो तो खूब मजे में नाचते और गाने गाते। ठुनठुनिया का सबसे प्यारा गाना था, "ये दोस्ती, हम नहीं छोड़ेंगे...!"

गोमती ने रजुली नाम की लड़की ठुनठुनिया के लिए देख ली थी और जल्दी ही उनकी शादी होने वाली थी।

कभी-कभी कुमार साहब हँसकर कहा करते, "अरे, शादी से पहले अपना नाम तो बदल ले रे ठुनठुनिया!...वरना हमारी बहू क्या कहेगी?"

इस पर ठुनठुनिया घर आए कुमार साहब के आगे चाय का कप रखकर, पुरानी यादों में खो जाता। फिर बताने लगता, "इस नाम के साथ मेरी जिंदगी की लंबी कहानी जुड़ी है कुमार साहब! सुख-दु:ख की एक लंबी कहानी...और वैसे भी यह नाम मुझे भी पसंद है, मेरी माँ को भी। तो फिर भला रजुली को क्यों न पसंद होगा?"

फिर वह एकाएक माँ की ओर देखकर पूछ लेता, "क्यों माँ, तुझे पसंद है न मेरा नाम? मतलब...मतलब, ठुनठुनिया!"

"हाँ-हाँ, रे ठुनठुनिया...!" माँ हँसकर कहती तो साथ ही ठुनठुनिया भी ठिनठिनाकर हँस देता।

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