एक था भाई एक थी बहन : वियतनामी लोक-कथा
Ek Tha Bhai Ek Thi Behan: Lok-Katha (Vietnam)
वियतनाम की पहाड़ी तलहिटयों में कहीं रहते थे एक भाई और एक बहन। भाई बाईस वर्ष और बहन सात वर्ष की। दोनों ही आपस में एक दूसरे पर आश्रित थे।
वियतनाम की पहाड़ी तलहिटयों में कहीं रहते थे एक भाई और एक बहन। भाई बाईस वर्ष और बहन सात वर्ष की। दोनों ही आपस में एक दूसरे पर आश्रित थे। कुछ समय गुजरने पर एक दिन जब उनकी झोंपड़ी के पास से होता हुआ एक ज्योतिषी गुजरा तो युवक ने उस ज्योतिषी के पास पहुंच कर अपना भाग्य व भविष्य जानने की जिज्ञासा प्रगट की। ज्योतिषी ने उसके आग्रह पर उसके हाथ और मस्तक की रेखाएं देखीं तथा अपने पोथी−पत्रा निकाल कर कुछ विचारा और बताया, 'युवक! तेरे जीवन में एक सबसे बड़ी घटना यह होगी कि तू अपनी बहन से ही विवाह कर लेगा। मेरी यह बात ब्रह्मा की लकीर है युवक!... इसे कोई शक्ति मिटा नहीं सकती। यह सुनते ही युवक एक महान आशंका से थरथरा उठा। इसी भीषण चिंता में उसकी दो रातें बिना सोये बीत गईं, पर समस्या का समाधान न दिखाई पड़ा। किन्तु अचानक एक दिन वह अपनी बहन को जंगल में ले गया और मौका पा कर, जब वह उसकी और पीठ किये खड़ी थी, तभी वह उसके कंधे पर कुल्हाड़े से एक कठोर प्राण घातक वार करके लैंगसन की ओर भागा और जंगल में जा कर अदृश्य हो गया। बहन की एक भयानक लम्बी लड़खड़ाती, दर्दनाक चीख गूंजी तो गूंजती चली गई।
समय गुजरा। स्थितियों ने करवट ली। उसके सामने कुछ नये−नये समयवृत्त आये। बात आई गई हो गई। युवक के मस्तिष्क को अब कुछ−कुछ परिश्रान्ति का अहसास होने लगा। किन्तु उसकी बहन की वह पीडि़त करने वाली चीख जब तब अचानक आ कर उसके मस्तिष्क को झकझोर−झकझोर जाती थी। और वह उस स्मृति से सिहर उठता, आंखें मीच लेता और कानों में उंगलियां ठूंस लेता। उसे लगता कि उसकी बहन की चीख, उसके कुल्हाड़े के आघात की स्मृति, उसे चारों ओर से कौंध−कौंध कर अपने में समेटे ले रही है। अंत में इस सबसे मुक्ति पाने के लिए उसने एक व्यापारी की कन्या से विवाह कर लिया और उसी आनंद के पीछे अपनी अतीत की कटुस्मृतियों पर पर्दा डालने का प्रयत्न करने लगा।
जब उसे ज्योतिषी की अशोभनीय भविष्यवाणी की याद आती तो वह उस पर एक उपेक्षापूर्ण हंसी हंस देता, कि उसने अपनी युक्ति एवं सामर्थ्य से भाग्य की रेखा पलट दी है− मिथ्या बना दी है। सचमुच ईश्वर की कृपा से उसे एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ और उसका वैवाहिक जीवन कुछ और सरस व सुदृढ़ हो कर प्रसन्नता पूर्वक गुजरने लगा।
एक दिन जब वह कहीं बाहर से घर लौटा तो देखा कि आंगन में पीछे मुंह किये उसकी पत्नी अपने केश सुखा कर कंघी कर रही थी। जब पत्नी ने अपनी गर्दन पर लटकते केशों को ऊपर की ओर झटका तो युवक की निगाह उसकी गर्दन से सटे हुए एक बहुत बड़े घाव पर उलझ गई। और उसके विभ्रांत मस्तिष्क से धीरे−धीरे एक चित्र उसके चैतन्य के समक्ष उभर आया और उसने तुरन्त अपनी आंखें मीच लीं।
कानों पर हाथ धर कर उसे ढक लिया। और होठों में मंद−मंद रहस्यमय ढंग से मुस्कराते हुए उसने अपनी पत्नी से बड़े मधुर स्वर में पूछा, 'गर्दन पर यह घाव कैसे लगा था तुम्हें?'
पत्नी ने लज्जित और संकोच भरे शब्दों में अपनी कहानी यूं सुनाई− मैं अपने पिता की सगी बेटी नहीं हूं, बल्कि गोद ली हुई हूं। मैं भाई के साथ रहती थी। अब तो इन बातों को गुजरे पंद्रह वर्ष हो गये हैं। एक दिन मेरा भाई मुझे जंगल की ओर ले गया और मुझे मार डालने की नीयत से मुझ पर कुल्हाड़े का वार कर दिया। पर कुछ फरार डाकुओं ने मुझे बचा लिया। वे डाकू जंगल में इधर−उधर छिपे हुए थे। फिर एक सौदागर ने मुझे गोद ले लिया। उस सौदागर की सगी बेटी कहीं गुम हो गई थी। अब आप मुझे यहां देख रहे हैं। पता नहीं चला बेचारा भाई अब कहां और किस हालत में होगा। पता नहीं वह मुझे क्यों मार डालना चाहता था? हम दोनों में तो बहुत अधिक प्यार था, जान से भी ज्यादा!' कह कर वह सिसकियां ले−ले कर रोने लगी।
उस आदमी− नहीं−नहीं उसके भाई ने उसे पुचकारा तो, ढाढस बंधा कर चुप तो कराया, किन्तु उसी दिन से वह जिस भी चीज पर नजर डालता था उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। दिखाई पड़ता था तो खून! और कुल्हाड़ा!... और अगर कुछ सुनाई पड़ता था तो वह भी हृदय विदारक एक चीख!
दूसरे दिन वह पत्नी से एक काम के लिए जाने को कह कर घर से जो बाहर निकला तो फिर मुड़कर घर नहीं लौटा। अब उसकी पत्नी रोज शाम को अपने बच्चे को गोद में लिए ऊंची पहाड़ी पर चढ़कर दूर−दूर तक आंखें फाड़−फाड़ कर, उचक−उचक कर निहारती कि कहीं वह आ तो नहीं रहा है। क्षितिज के छोर पर जाकर उसकी दृष्टि पसर जाती। पर उसे आ कर भय से सिहराती व्याकुल सूनी−सूनी हवा और दिख पड़ जाता केवल निराश एवं मनहूस फैला हुआ क्षितिज। कहीं भी उसके पति की छाया तक न दिखती। कहीं से भी प्यारे पति की जानी पहचानी आवाज न मुखरित होती। हां, कभी गूंज−गूंज जाती थी पक्षियों व फाख्तों की तीखी और हूक जाने वाली सीटियां।
और एक शाम। वह फिर उसी पहाड़ी पर चढ़ गई और अपने पति को निहारती−निहारती खड़ी−खड़ी पत्थर हो गई। उसका आने वाला पति तो आज भी नहीं लौटा है। वह अपनी पथराई आंखों से उसे अब भी वहीं खड़ी−खड़ी निहार रही है। उसकी पथराई आंखें आज भी वियतनाम की उसी पहाड़ी पर से क्षितिज की ओर टकटकी लगाए किसी का पथ निहार रही हैं।
(अनुवादकः स्व. घनश्याम रंजन)