एक शांत नास्तिक संत प्रेमचंद (संस्मरण) : जैनेंद्र कुमार
Ek Shant Nastik Sant Premchand (Sansmaran) : Jainendra Kumar
मुझे एक अफसोस है, वह अफसोस यह है कि मैं उन्हें पूरे अर्थों में शहीद क्यों नहीं कह पाता हूँ, मरते सभी हैं, यहां बचना किसको है! आगे-पीछे सबको जाना है, पर मौत शहीद की ही सार्थक है, क्योंकि वह जीवन की विजय को घोषित करती है। आज यही ग्लानि मन में घुट-घुटकर रह जाती है कि प्रेमचन्द शहादत से क्यों वंचित रह गये? मैं मानता हूँ कि प्रेमचंद शहीद होने योग्य थे, उन्हें शहीद ही बनना था।
और यदि नहीं बन पाए हैं वह शहीद तो मेरा मन तो इसका दोष हिंदी संसार को भी देता है।
मरने से एक सवा महीने पहले की बात है, प्रेमचंद खाट पर पड़े थे। रोग बढ़ गया था, उठ-चल न सकते थे। देह पीली, पेट फूला, पर चेहरे पर शांति थी।
मैं तब उनकी खाट के पास बराबर काफी-काफी देर तक बैठा रहा हूँ। उनके मन के भीतर कोई खीझ, कोई कड़वाहट, कोई मैल उस समय करकराता मैने नहीं देखा, देखके तो उस समय वह अपने समस्त अतीत जीवन पर पीछे की ओर भी होंगे और आगे अज्ञात में कुछ तो कल्पना बढ़ाकर देखते ही रहे होंगे लेकिन दोनों को देखते हुए वह संपूर्ण शांत भाव से खाट पर चुपचाप पड़े थे। शारीरिक व्यथा थी, पर मन निर्वीकार था।
ऐसी अवस्था में भी (बल्कि ही) उन्होंने कहा- जैनेन्द्र! लोग ऐसे समय याद किया करते हैं ईश्वर। मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई है।
शब्द हौले-हौले थिरता से कहे गए थे और मैं अत्यंत शांत नास्तिक संत की शक्ति पर विस्मित था।
मौत से पहली रात को मैं उनकी खटिया के बराबर बैठा था। सबेरे सात बजे उन्हें इस दुनिया पर आँख मीच लेनी थीं। उसी सबेरे तीन बजे मुझसे बातें होती थीं। चारो तरफ सन्नाटा था। कमरा छोटा और अँधेरा था। सब सोए पड़े थे। शब्द उनके मुंह से फुसपुसाहट में निकलकर खो जाते थे। उन्हें कान से अधिक मन से सुनना पड़ा था।
तभी उन्होंने अपना दाहिना हाथ मेरे सामने कर दिया, बोले-दाब दो।
हाथ पीला क्या सफेद था और पूला हुआ था, मैं दाबने लगा।
वह बोले नहीं, आँख मींचे पड़े रहे। रात के बारह बजे ' हंस' की बात हो चुकी थी। अपनी आशाएँ, अपनी अभिलाषाएँ, कुछ शब्दों से और अधिक आँखों से वह मुझपर प्रगट कर चुके थे। ' हंस' की और साहित्य की चिंता उन्हें तब भी दबाए थी। अपने बच्चों का भविष्य भी उनकी चेतना पर दबाब डाले हुए था। मुझसे उन्हें कुछ ढारस था।
अब तीन बजे उनके फूले हाथ को अपने हाथ में लिए मैं सोच रहा था कि क्या मुझ पर उनका ढारस ठीक है। रात के बारह बजे मैने उनसे कुछ तर्क करने की धृष्टता भी की थी। वह चुभन मुझे चुभ रही थी। मैं क्या करूँ? मैं क्या करूँ?
इतने में प्रेमचन्द जी बोले, जैनेन्द्र! बोलकर, चुप मुझे देखते रहे। मैने उनके हाथ को अपने दोनों हाथों से दबाया। उनको देखते हुए कहा, आप कुछ फिकर न कीजिए बाबूजी। आप अब अच्छे हुए और काम के लिए हम सब लोग हैं ही।
अब मुझे देखते, फिर बोले-आदर्श से काम नहीं चलेगा। मैने कहना चाहा...आदर्श, बोले-बहस न करो। कहकर करवट लेकर आँखें मींच लीं।
उस समय मेरे मन पर व्यथा का पत्थर ही मानो रख गया। अनेकों प्रकार की चिंता-दुश्चिंता उस समय प्रेमचन्द जी के प्राणों पर बोझ बनकर बैठी हुयी थी। मैं या कोई उसको उस समय किसी तरह नहीं बटा सकता था। चिंता का केन्द्र यही था कि 'हंस' कैसे चलेगा? नहीं चलेगा तो क्या होगा? 'हंस' के लिए तब भी जीने की चाह उनके मन मं थी और ' हंस' न जियेगा, यह कल्पना उन्हें असह्य थी, पर हिन्दी-संसार का अनुभव उन्हें आश्वस्त न करता। 'हंस' के लिए न जाने उस समय वह कितना झुककर गिरने को तैयार थे।
मुझे यह योग्य जान पड़ा कि कहूं ...' हंस' मरेगा नहीं, लेकिन वह बिना झुके भी क्यों न जिये? वह आपका अखबार है, तब वह बिना झुके ही जियेगा। लेकिन मैं कुछ भी न कह सका और कोई आश्वासन उस साहित्य-सम्राट को आश्वस्थ न कर सका।
थोड़ी देर में बोले -गरमी बहुत है, पंखा करो। मैं पंखा करने लगा। उन्हें नींद न आती थी, तकलीफ बेहद थी। पर कराहते न थे, चुपचाप आंख खोलकर पड़े थे।
दस पंद्रह मिनट बाद बोले-जैनेन्द्र, जाओ, सोओ।
क्या पता था अब घड़ियां गिनती की शेष हैं, मैं जा सोया। और सबेरा होते-होते ऐसी मूर्छा उन्हें आयी कि फिर उनसे जगना न हुआ।
हिंदी संसार उन्हें तब आश्वस्त कर सकता था, और तब नहीं तो अभी भी आश्वस्त कर सकता है। मुझे प्रतीत होता है, प्रेमचन्द जी का इतना ऋण है कि हिन्दी संसार सोचे, कैसे वह आश्वासन उस स्वर्गीय आत्मा तक पहुंचाया जाये।