एक रंगबाज गाँव की भूमिका : फणीश्वरनाथ रेणु
Ek Rangbaj Gaanv Ki Bhumika : Phanishwar Nath Renu
सड़क खुलने और बस 'सर्विस' चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी "चालू" हो गए हैं...!
'ए रोक-के !
कहकर “बस' को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “बस' की देह पर दो थाप लगा देते ही गाड़ी चल पड़ती है - इस भेद को गाँव का बच्चां-बच्चा जान या है।
और मिडिल फेल करके गाँव-भर में सबसे बेकार बने छोकरे हाथ में एक 'एकसरसाइज - बुक' लेकर, चुस्त पैंट-बुश्शर्ट पहनकर दिन-भर, जहाँ तक जी चाहे, बस में बैठकर 'स्टुडेंटगिरी' कर आते हैं।
किन्तु, पिछलपाँक इलाके का रंगदा गाँव अचानक इतना “चालू” हो जाएगा-यह किसको मालूम था ?
सदर शहर से सड़क के द्वारा जुड़ जाने के बाद जब महानन्दा प्रोजेक्ट का काम शुरू हुआ, उसके पहले ही रंगदा गाँव के प्रोजेक्ट का “इन्स्पेक्शन बँगला” बन चुका था।
डाक बँगला या होटिल बँगला (हार्ल्टिंग बँगला) कहने पर रंगदा गाँव के गँवार भी हँसते हैं - “देखो “आइबी' को होटिल बँगला कहता है!”
आइबी के मकान बनने के पहले ही चारों ओर गुलमुहर के पेड़ों के छतनार हो चुके थे और कई तो फूलने भी लगे थे।
अब तो गुलमुहर फूलने के मौसम में दूर से - ही, रंगदा गाँव के आकाश की रंगीनी को देखकर लोग पहचान लेते हैं वह रहा लाल रंग का रंगदा गाँव !
रंगदा गाँव और इसके निवासियों को “चालू” करने का श्रेय रंगदा 'आइबी' और गुलमुहर के सैकड़ों पेड़ों को ही है।
दो साल पहले प्रोजेक्ट के चीफ इंजिनियर के साथ एक बंगाली दोस्त आएं थे।
उन्होंने दो-तीन दिनों तक बैलगाड़ियों में रंगदा गाँव के आस-पास चक्कर काटने के बाद अपने इंजिनियर मित्र से पूछा था-“गाँव का नाम पहले से ही रंगदा था या आप लोगों ने दिया है ?
एक ओर तीन पतली नदियों का संगम, दूसरी ओर बाँस के पुराने जंगल, तीसरी ओर कोसों फैली परती धरती। और, इसके मध्य बसा यह गाँव और आपका यह “आइबी'...हर नदियों में असंख्य कमल-फूल और आकाश में मँडराते नाना रंग वर्ण के प्रखेरुओं के झुंड...'की सुन्दर जायगा! (कैसी सुन्दर जगह !)...मैं बहुत 'इन्स्पायर' हूँ, सिंघजी। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने मुझे ऐसी जगह का पता दियां।”
इंजिनियर साहब के बंगाली दोस्त दो सप्ताह तक 'आइबी' में रहें।
कमरे में दिन - भर चुपचाप बैठकर लिखते थे और शाम को 'आइबी' के चौकीदार के बातूनी चाचा के साथ परमान नदी के तिमुहाने पर जाते थे।
कभी बॉस वन के आसपास चक्कर लंगाते और किसी दिन जीप लेकर प॑रती-मैदान की ओर चले जाते।
दो सप्ताह के बाद वे चले गए।
किन्तु, दो महीने के बाद ही 'धनकटनी' के दिनों-अगहन महीने के शुरू में ही-अपने पूरे दल-बल के साथ आ धमके तीन 'डिलक्स बस' में भरकर कलकत्ता के 'फिलिमवाले'! तब जाकर मालूम हुआ, कि इंजिनियर साहब के बंगाली दोस्त 'फिलिम' बनानेवाले डाइरेक्टर साहेब हैं।
पन्द्रह - बीस दिनों तक गाँव में किसी ने कोई काम नहीं किया। अगर किया भी तो मुफ्त में ही इतनी मजदूरी मिलती है कि उन्हें भ्रम होने लगता कि 'नोट' जाली तो नहीं !
आइबी के झकसू पासवान चौकीदार के बातूनी चाचा बेंगाई. पासवान को तो बजाप्ता 'पाट' ही दे दिया और देवी दुर्गाजैसी रूपवती लड़की से (अरे देखो-देखो सिनेमा की हिरोइन को लड़की कहता है?) रू-ब-रू बात कराकर फोटो लिया और जाते समय साथ-साथ कलकत्ता ले गया।
बेंगाई अब कलकत्ता में ही रहता है ।
बासमती मुसम्मात की बेटी जमुनिया की तस्वीर-पानी में पैठाकर, लिया साड़ी के साथ एक सौ रुपए को एंक नम्बरी नोट।...तेतरी दीदी की दीवार पर-हाथी-घोड़ा-मयूर-तोता और फूल आँके देखकर डाइरेक्टर साहब “लटूटू' हो गए-तेतरी दीदी के नंगे बेटे को ओसारे पर बैठाकर फोटो लिया...लौंडा रोए तो भी फोटो खिंचाता था और हँसता भी तो फोटो छापनेवाली मशीन-कुर्र-कुर्र-कुर्र फोटो छापती जाती!
सन्तूदास को काम मिलो था कि लाल झंडी देखते ही परमान के कुंड में ढेला फेंके । ढेला फेंकते ही हजारों-हजार पंछी पाँखें फड़फड़ाकर उड़ते, उड़ने लगते। उधर दनादन फोटो होता रहता। मँहगू की दो धुर जमीन का सरसों बर्बाद हुआ तो पाँच सौ रुपए हजनि में मिले।
जिस दिन वे लोगं जाने लगे-गाँव के लोग उदांस हो गए। बेंगाई पासवान ने _ सभी को भरोसा दिया था-“बाबू लोग बोलते हैं कि फिर आवेंगे। सचमुच, बेंगाई ने-ठीक हीं कहा था।
तीन-चार महीने के बाद, बेंगाई कलकत्ते से लौटा, तो गाँव के लीग पहले उसको पहचान ही नहीं सके।
बड़े-बड़े बाबू-बबूआन की तरह “धोती-अँगरखा” पहने, आँख पंर चश्मा ।
दो बक्सा कपड़ा ले आया था अपने भतीजे-भतीजी और नाती - पोतों के लिएं। बेंगाई बोला-“अरे भैया!
अपने रंगदा गाँव ने तो सिनेमावालों पर ऐसा रंग डाल दिया है कि अब इस गाँव में जो भी हो जाए, अचंरज. मत करना।
बंगाली बांबुओं ने कलकत्ता में जाकर रंगदा की इतनी . तारीफ शुरू कर दी कि मैं भी हैरत में पड़ गया। कहते थे - रंगदा गाँव के दूध पर ऐसी मोटी छाली पड़ती है, वहाँ की मछली-जैसा स्वाद कलककत्ते में कभी नहीं पाओगे।
और आदमी लोगों की भी तारीफ करते थे ।...सो, जान लो! इस बार दूसरे साहब आ रहे हैं। यह जग दूसरे 'सुभाव' के आदमी हैं। मगर घबड़ाने की बात नहीं।
यह भी भले आदमी है।
येर गीन खेला बनाएँगे-इसीलिए गुलमृहर और सेमल फूल के मौसम में आवेंगे।
मैं यहाँ से तार करूँगा और दूसरे ही दिन सभी दनादन पहुँचते जाएँगे। हाँ, अंक साहब हम लोगों के 'सिरुआ पर्ब' के धूमधाम और 'नन्हीं-मुन्ही नाच” की शूटिंग करेंगे।
अजी, शूटिंग का मतलब वही है जो फोटो छापने का। लेकिन दूसरे गाव का आदमी जो कुछ भी कहे-अपने गाँव के लोगों को इसका मतलब समझा दो । शूटिंग, हीरो, हिरोइन, कैमरा और लोकेशन.. 'सेबका 'अरथ' समझ लो ।...सरसतिया की माँ से कहो कि सरसतिया का नाम अब 'लक्ष्मी' रख दे। उसकी आँखों की छापी की वहाँ इतनी तारीफ हुई है कि इस कम्पनी के डाइरेक्टर साहब ने अपने खेला की 'लक्षमी' का काम सरसतिया से ही करवाने का फैसला किया है।...पाँच हजार! पूरा पाँच हजार !
बोल, सरसतिया की माँ ? अब भी बेंगाई पासवान को 'करमजरबा' कहेगी ?
नहीं - नहीं, अब बेंगाई को करमजरुआ या कामचोर कौन कह सकता है ?
सूरज पर कौन धूक सकता है ? दिन-भर खैनी खाकर 'बकर-बकर'” करनेवाले बातूनी बेंगाई की बात की इतनी कीमत! यह जो कुछ बोलता है, डाइरेक्टर साहेब॑ एक छोटी बही में 'चट' टीप लेते हैं।
कितना किस्सा-कहानी, कितना गीत-भजन, कितना फिकरा- मुहावरा...।
सिरुआ-पर्व के ठीक पाँच दिन पहले ही कलकतिया बाबू लोग पहुँच गए। दल में कुछ पुराने लोग थे, कुछ नए। पहलेवाली हिरोइन के साथ एक हिरोइन और आई है। गाँव गुलजार है!
सारे गाँव में सिरुआ-पर्व मनाने का खर्च कंम्पनीवालों ने दिया है। कोई घर ऐसा नहीं, जिसकी दीवारों पर तेतरी दीदी के हाथ में बने हुए फूल-पत्ते, हाथी-घोड़े न बने हों। तेतरी दीदी को भी डाइरेक्टर साहब कलकत्ता ले जाएँगे। कह रहे थे कि उसको सरकार से “बकसीस' दिलाएँगे।
एक बात और खास है, रंगदा गाँव में ।
इस जिले में बस इसी इलाके और गाँव में 'थारू-कोंच' जाति के लोग रहते हैं।
इसीलिए “पहरावे-ओढ़ावे' से लेकर 'पर्व-स्योहार' भी सभी के लिए नये लगते हैं।
औरतें पर्दा नहीं करतीं। स्वस्थ होती हैं !
नये डाइरेक्टर साहब ने सरसतिया का पहले बाँस बन की छाया में गाय के बछड़े के साथ दौड़ाकर “शूटिंग” लिया।
फिर, धान कूटते समय-ढेंकी के ताल पर गीत गाते हुए।
कलकत्ते से आई हुई छोटी हिरोइन के साथ झूला झूलते हुए ।
धन्य है। धन्य है तब से रंगदा गाँव इतना “चालू” हो गया है कि इस गाँव में सीधे कलकत्ते से महीने में चार-पाँच मनीआर्डर आते हैं। बेंगाई पासवान के अलावा सरसतिया औरं उसकी माँ, उसका बड़ा भाई भी कलकत्ता गया है। तेतरी दीदी की ख़ुशामद एक ओर उसका बाप करता है-दूसरी ओर उसका बूढ़ा ससुर भी दिन - रात आकर रोता-गाता है।
गाँव का रंग ही बदल गया है, तब से!
इसलिए, रंगदा गाँव के लड़के क्यों न अपने को रंगबाज कहें ?
असल में, इस गाँव के बारे में इतनी 'भूमिका' बाँधने की जरूरत आ पड़ी थी।
इस बार सरसतिया का छोटा भाई कलकत्ते से, होली के पहले घर आ रहा था। कटिहार जंक्शन पर पुलिसवालों को कुछ सन्देह हुआ, तो पकड़ लिया। पूछा-कहाँ घर ?
तो, जवाब दिया-रंगदा का 'रंगबाज' हूँ। यह रंगबाज क्या है?...तुम्हारे पास इतने पैसे कहाँ से आए ? तो, छोकरे ने सिगार सुलगाते हुए, लापरवाही से कहा-मैं हिरोइन का छोटा भाई हूँ-“रंगबाज' फिल्म का नाम सुना है? अभी यहाँ नहीं आया है ? आएगा तो देखिएगा ।
अबकि हमको भी '“चान्स” मिलनेवाला है।
पुलिसवालों ने उसको 'रंगबाज' अर्थात् गुंडा नक्सली समझकर चालान करना चाहा। किन्तु, उस लड़के ने “तार” देकर बेंगाई दास को गाँव से बुला लियो। और बेंगाई ने आकर अपने गाँव रंगदा की भूमिका बाँधी, तभी जाकर .उसको छुट्टी मिली ।
दरोगा ही नहीं, एस. पी. साहब के लड़के और लड़कियाँ भी उस दिन से बेंगाई की खुशामद कर जातें हैं-२ंगदा गाँव में आकर-“बेंगाई दादा! एक बार “चान्स” दिला दो। जिन्दगी-भर गुलामी कर दूँगा ।
बेंगाई दास किसी को भरोसा नहीं दे सकता है। कैसे दे सकता है ?
यह तो रंगदा गाँव की महिमा है कि आज बेंगाई दास की तस्वीर सिनेमा के अखबारों में छपती है।