एक कोंकणी लेखक की मृत्यु (कोंकणी कहानी) : अना म्हांबरो

Ek Konkani Lekhak Ki Mrityu (Konkani Story) : Ana Mhambro

सुबह का समय था|

चादर का परदा हटाकर जैसे मोचेमाडकार नाटक का नट स्टेज पर आता है वैसे ही बादलों का पर्दा हटाकर सूर्य आकाश के सैट पर आकर लोगों को दस बजे का समय दिखा रहा था।

ऑफिस जाने का समय था, इसलिए लोग यहाँ-वहाँ जाते दीख रहे थे। पणजी शहर में उसी समय यह घटना घटी । प्राकृतिक नियम के अनुसार कोई भी कहीं भी गिर सकता है। एक गोरा-चिट्टा, युवा इन्सान लोगों के सामने ही गिरा। देखते-ही-देखते पचासों लोग जमा हो गये। सब एक-दूसरे से सवाल पूछने लगे---

“अरे ये कैसे गिरा ?”
“क्यों गिरा ?”
“फिसलकर गिरा कि धक्का लगकर गिरा ?”
“अभी गिरा कि बहुत समय हो गया ?”
“गिरा तो गिरा, यहाँ ही क्‍यों गिरा ?”

इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं थे। यह उस इन्सान की समझ में आ रहा था जो जमीन पर पड़ा था। इतने में किसी ने कहा, “अरे रे ! मर गया वह ।”

यह सुनते ही उस इन्सान ने मुश्किल से आँखें खोलीं और कहा--“अभी मैं मरा नहीं हूँ, पर मरने की राह पर हूं । उससे पहले मुझसे जो कुछ पूछना चाहते हो पूछ लो ।”

इतने में किसी ने उससे बड़े प्रेम से पूछा, “तुम कैसे गिरे ? या तुम्हें किसी ने गिराया ?”

उस इन्सान ने बड़ी नम्रता से कहा, “मैं मोटर से टकराया और गिर गया ।”
“किसकी मोटर ?”
“कैसी मोटर ?”

लोगों ने उससे पूछा। जवाब में उस इन्सान ने कहा, “मुझे एक कागज़ और पेन दो ।”

यह सुनते ही लोगों ने हल्ला मचाया ।
“पेन लाओ ! पेन लाओ !”
“कागज़ लाओ, कागज़ लाओ !”
कागज़ जमीन पर रखकर वह आदमी उस पर एक कार का चित्र बनाने लगा।

किसी ने कहा--“लड़के का हाथ काफी अच्छा है। अगर जिन्दा रहता तो अच्छा जित्रकार बनता ।”

चित्र की तरफ उंगली से संकेत करते हुए उसने कहा--“यह कार मुझसे टकराई और मैं गिर गया ।”

लोगों की भीड़ में एक वकील था। उसने पूछा--“तुम्हें कार ने धक्का दिया या तुम कार से टकरा गये ?”

यह सुनते ही उस आदमी ने अपने नेत्र बन्द कर लिये और लोगों की भीड़ कार के बारे में बतियाने लगी ।
“वह कार....की होगी ।”
“नहीं...की होगी ।”
“उसका रंग कैसा था ?”
“उसके रंग तो अलग-अलग होते हैं ।”
“फॉरिन की कारें अच्छी होती थीं, एक्सीडेण्ट हो भी, तो लोग मरते नहीं थे।”
“आजकल एक्सीडेण्ट बहुत होते हैं।”
“मेरे नाना इसी तरह मरे थे।”
“ये कारें भी पता नहीं किसने और क्यों बनाईं ?”
सब लोग दो मिनट के लिए चुप हो गये । फिर बोलने लगे---
“पर कार...उद्योगपति की होनी चाहिए।”
“अगर ऐसा है तो वह 'उनकी' होनी चाहिए।”
“नहीं 'इनकी' होनी चाहिए।”
“उनके पास कारें बहुत हो गई हैं।”
“उन्हें लोगों की परवाह नहीं है।”
“आजकल किसी को, किसी की भी परवाह नहीं है।”
“उस पर आजकल कारें बहुत महंगी हो गई हैं।”
“वैसे भी आजकल महँगाई का जमाना है।”

अन्त में सबने यह निर्णय दिया कि वह कार उस उद्योगपति की ही होगी। भीड़ में से एक आदमी आया और कहने लगा--
“तुम्हें जरा भी अकल नहीं है।”
“क्यों ?”
“वह कार उस उद्योगपति की नहीं हो सकती ।”
“तुम ऐसा कैसे कह सकते हो ?
“अरे, आज तक उसने बड़े-बड़ों को ही अपनी कार के नीचे गिराया है। सब को छोड़कर वह इस खुक्क आदमी को क्यों गिरायेगा ?”

लोगों को यह बात जँच गई। उन्होंने उस बात को वैसे ही छोड़ दिया। जो आदमी ज्ञमीन पर पड़ा है, उसका क्या करना चाहिए, उसकी चर्चा होने लगी। योजनाएँ बनने लगीं।

बहुत-से लोगों ने कहा उस आदमी को अस्पताल ले जाया जाय और उसके परिवार के सदस्यों को उसके 'निधन' का समाचार दे दिया जाए।

पर उसके घर समाचार लेकर जाएगा कौन ? यह तय कौन करेगा ? सबको परेशानी थी कि यह कौन है? जवाब किसी के पास नहीं था। उन लोगों की दयनीय स्थिति पर तरस खाकर उस आदमी ने फिर अपनी आँखें खोलीं और उनकी सहायता करते हुए वोला--“मैं एक कोंकणी लेखक हूँ । मेरा नाम ...है। मैं...रहता हूँ। मेरी पत्नी को समाचार पहुंचाएँ।” इतना कहकर उसने फिर आँखें फेर लीं।

देखते-ही-देखते 'फलाँ-फलाँ आदमी--कोंकणी लेखक गुजर गया, यह समाचार कोंकणीवादी जनता तक पहुँच गया। यह सुनते ही दुःख तो किसी को भी न हुआ था, फिर भी सबने शोक व्यक्त किया । थोड़े लोग, जहाँ कोंकणी लेखक गिरा था उस घटना-स्थल पर पहुंचे और उसे अस्पताल ले गये ।

डॉक्टर ने उस अर्ध-मृत कोंकणी लेखक की जाँच की और लेखक का भला चाहने वालों से कहा, “कार के साथ टकराना तो सिर्फ बहाना था। इसके शरीर में तो कोंकणी का विष घुल गया है और हृदय तक पहुँच गया है। ऑपरेशन करना पड़ेगा ।”
डॉक्टर ने ऑपरेशन किया, हृदय को खोला तो उसमें से “कोंकणी- कोंकणी ss” आवाज़ आ रही थी।
डॉक्टर ने कहा, “इसे रक्त देना पड़ेगा। इसके बावजूद भी ये कितना जिएगा इसका अन्दाजा लगाना मुश्किल ही है।”
“अगर ऐसा है तो उसे मरने दो ।” उन्होंने कहा ।

इसके मुताबिक डॉक्टर ने उसे मरने के लिए छोड़ दिया। मरने के पहले कोंकणी लेखक से अन्तिम इच्छा पूछी गई तो उस लेखक ने कहा--

“शणै गोंयबाब की किताब आल्बुकर्क ने गोवा कैसे जीता” के अन्तिम १३ पन्‍ने पढ़ें जाएँ।

तुरन्त व्यवस्था की गई उन पन्‍नों को सुनते-सुनते...उस लेखक ने अपने प्राण छोड़े ।
कोई उस लेखक के घर दौड़ा। लेखक की पत्नी घर पर थी। उसे उस आदमी ने बताया--“लेखक का एक्सीडेण्ट हुआ है।”
“ज़िन्दा हैं या गये ?”
“मर गये ।”
“अच्छा हुआ छूट गये ।”
"छूट गये ?”

“उन्हें इतनी अच्छी मौत मिलेगी सोचा तक नहीं था ।” लेखक की पत्नी ने उस आदमी से कहा, “मैं स्कूल जाकर बच्चों को ले आती हूँ। दोनों खाना खाने के बाद रोने बैठेंगे। तब उन्हें ले आना ।”

पर जैसे-जैसे लोगों को पता लगा वैसे-बैसे ही मर्द-औरतें रोते हुए, लेखक के घर पहुँचे । बेचारी पत्नी खाना न खा सकी, उसे भूखे पेट ही रोना पड़ा ।

लेखक की पार्थिव देह घर लाई गई। लोगों के दर्शनार्थ उसे दिन-भर रखा गया, पर उस कोंकणी लेखक को देखने ज़्यादा लोग नहीं आए। कुछ लोग कहने लगे--लेखक थे, बेचारे खाली पेट ही मरे ! कुछेक ने कहा, इतना समय जिन्दा कैसे रहे, यही सबसे बड़ा अचंभा है !

शाम को जब श्मशान-यात्रा आरम्भ होने वाली थी तब कोंकणी भाषा मण्डल ने अपने डेलीगेशन भेजे थे। बम्बई, मेंग्लोर, कोचीन के मण्डलों ने टेलीग्राम भेजे थे। दिल्ली से भी एक मण्डल ने टेलीग्राम भेजा था--

“मशहूर कोंकणी लेखक...के निधन का समाचार मिला, बहुत खुशी हुई । श्मशान-यात्रा सफल हो !”

मडगाँव से एक डेलीगेशन सुबह ही निकला। उनमें से एक ने कहा--“वहाँ जल्दी पहुँचकर हम क्या करेंगे? आराम से चलते हैं।” चलकर वे पणजी के लिए निकले, रास्ते में नाश्ता किया, चाय पी और शाम के छह बजे के मुहूर्त पर शव-यात्रा में शामिल होने पहुँच गये । (फोंडा में उन्होंने हिन्दी सिनेमा भी देखा !)

शव-यात्रा नाचते-गाते, बैंड-बाजे के साथ निकली। ढोल और शहनाई के स्वरों में लेखक को दूल्हे की तरह सजाया गया था--सिल्क का कुर्ता, माथे पर टीका लगाकर; वह एकदम सुन्दर दिखता था। उस अवस्था में अपने-आपको देख-कर, मृतक खुद खूश हो गया। अर्थी उठाने से पहले लेखक की पत्नी उठी, जी भर कर उसने अपने पति के अन्तिम दर्शन किये, बंदन किया और कहा--“इनका जीवन सफल हो गया, सात जन्मों के पुण्यों के कारण, इन्हें मृत्यु यथा-योग्य ही प्राप्त हुई ।”

उसके बाद वह सुर में रोने लगी और ताल पर क्रंदन करने लगी--“तुम तो गये...अब मुझे कौन सँभालेगा ?”

इतने में उसके सुर-में-सुर मिलाते हुए कोंकणीवाद्यों ने कोरस में कहा,“तुम चले गयेss अब कोंकणी का क्या होगा रेss ?”

शव को उठाने से पहले पत्नी घर में दौड़ी, एक कैसेट लाई, लोगों को कैसेट दी और कहा---“मेरे पति ने अन्तिम इच्छा व्यक्त करते हुए कहा था उनके शरीर को अग्निदाह देने से पहले यह कैसेट लोगों को सुनाई जाए ।”

"पुंडलीक वरदा हुss री विट्ठलss” के नाद-स्वरों में लोगों ने उसकी अर्थी उठाई। शहनाई के दुःखी स्वर गूंज रहे थे, ढोल बज रहा था, लोगों के चेहरों पर प्रसन्नता थी, दुःख की घटाएँ छँट रही थीं। सबसे आगे शव-यात्रा में बच्चे पटाखे छोड़ रहे थे, चन्द्रज्योति लगा रहे थे। अन्त में पटाखे फोड़ते हुए, दुःखी स्वरों-तालों के संगीत के साथ लेखक की शव-यात्रा श्मशान में पहुँची । लोगों ने चिता तैयार की । ब्राह्मणों ने मन्त्र पढ़े, कुछ बड़-बड़ाहट की और शव को चिता पर लिटाया। लेखक की कैसेट लगाई गई, लोग उसे ध्यान से सुनने लगे।

लेखक ने पहले अपने भाषण में कोंकणी का इतिहास कहा। उसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गीता और ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी कोंकणी में कैसे रची उसके बारे में बताया । उसके बाद “शणै गोंगबाब” की महानता का उल्लेख किया, अन्त में अपनी महानता का वर्णन किया--

लेखक की आवाज़ कैसेट के सहारे श्मशान में गूंज रही थी। अपने भाषण में उन्होंने आगे कहा--शणै गोंगबाब चल बसे, अब मैं भी जा रहा हूँ। मेरे मरणो- परान्त मेरी राख मांडोवी और जुवारी नदी में तथा गोवा के खेतों में बिखेरी जाय, अग्निदाह देने से पहले श्रीपाद रघुनाथ देसाई लिखित शब्दकोश की नौ प्रतियाँ मेरी छाती पर रखी जायें। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। हर साल अखबार में मेरी आत्मा की शान्ति के लिए तुम्हें इश्तहार देने पड़ेंगे।” इतना कहकर लेखक ने अपना भाषण खत्म किया।

कैसेट खत्म होते ही किसीने कहा--बजाओ रे बजाओ !” किसीने कहा---
“रोना शुरू करो, रोना शुरू करो !”

यह सुनते ही बजानेवालों ने बजाना और गानेवालों ने गाना तथा रोनेवालों ने रोना शुरू किया । इसी गड़गड़ाहट में लेखक के शव को अग्निदाह दिया गया ।

जब पार्थिव देह जल रही थी तब इस खर्चे का क्या किया जाय, उसकी चर्चा होने लगी। सबने राय दी कि कोंकणी भाषा मण्डल को सरकार की तरफ से अनुदान मिला है इसलिए उन्हीं को व्यय वहन करना चाहिए। जिन्होंने अपनी जेब से खर्च किये हैं उन्हें अपने वाउचर तैयार करके देने होंगे, तो ऑडिटर ऑब्जेक्सन नहीं करेंगे ।
सरकार की ओर से एक मंडल आया, उन्होंने कुणबी नृत्य किया ।

दूसरे दिन सब अखबारों में लेखक के निधन के समाचार उनकी तस्वीर के साथ छापे गये थे! (जो फोटो अखबार में दिया गया था उसमें मृतक की उम्र सिर्फ बारह साल की थी और वह हंस रहा था।) कई अखबारों में मृत लेखक का जो परिचय दिया गया था, उसमें उस लेखक ने कितने लोगों को फंसाया, उसका उल्लेख किया गया था। फिर भी लेखक सिद्धान्तवादी था क्योंकि उसने लोगों को पहले ही लिख-लिखकर बता दिया था ।

तीसरे दिन सब सम्पादकों ने मृतक के ऊपर अग्रलेख छापे। एक मराठी अखबार में अग्रलेख का शीर्षक दिया गया था--
“कोंकणी के दूसरे शेणवी गोवापन्त (शणै गोंयबाब) चल बसे ।”

उसी दिन विधानसभा में, विरोधी पक्षों के उम्मीदवारों ने 'गोवा में आजकल दुर्घटनाओं का अनुपात बढ़ रहा है' ऐसा कहकर सरकार की कार्य-प्रणाली की निन्‍दा की। उन्हें जवाब देते हुए मन्त्री महाशय ने कहा--“इसके बाद गोवा में ऐसी दुर्घटनाएँ नहीं होंगी; अगर होंगी तो उसमें कोंकणी लेखक मरेंगे नहीं, इस नीति के अनुसार कार्यवाई की जायेगी”---ऐसा आश्वासन भी दिया।

चौथे दिन पणजी, मडगाँव, म्हापसा, दिवघल, वास्को, पेडण्णे, केपें, काणकोण में शोकसभाओं का आयोजन किया गया । इन सब में पणजी की शोकसभा अनोखी थी। ज़्यादातर लोगों ने मृत लेखक की तुलना शणै गोंयबाब के साथ की । इसमें जो भाषण दिये गये उनका सार था--
“गुजर गये यह लेखक शणै गोंयबाब की ही तरह थे ।”
“उनसे थोड़े छोटे थे ।”
“थोड़े बड़े थे।”
“दोनों को तराजू में तौला जाय तो दोनों का वजन समान होगा।”

एक ने अपना भाषण दूसरों से हटकर किया। उसने कहा--“यह लेखक नेपोलियन की तरह ताकतवर था ।” इस बात पर सब लोगों ने तालियाँ बजाईं। इस शोकसभा के दौरान बारिश होने लगी । उसके साथ ही एक वक्‍ता ने उसी समय लेखक की मृत्यु पर और बारिश पर एक कविता लिख डाली--

आज आकाश रोता है
धरती भी फूटती है
रात-कीड़ों की साड़ी पहनकर
वृद्धा बेचारी पिस रही है
बेचारा लेखक चल बसा इसलिए बादल
अनवरत अश्रु बहा रहे हैं।

इसे सुनते ही दूसरों को भी कविता लिखने की प्रेरणा मिल गई। उन्होंने अपनी कविताएँ सुनाईं --

पहली :
बिना माँगे ही उसको
सब-कुछ दिया भगवान्‌ ने
घर दिया, उधार दिया
पत्नी दी, बच्चे दिये
और अब जाने के लिए
स्वर्ग जैसी मृत्यु भी दी
सचमुच
भगवान्‌ ने उसे सब-कुछ दिया ।

दूसरी :
गांधी तुम! नेहरू तुम!
चर्चिल तुम ! कैनेडी तुम!
हिटलर तुम ! मुसोलिनी तुम !
शेवरो तुम, विस्वण तुम !
चोर के चोर तुम!
मोर के मोर तुम!
यह तुम! वह तुम!
सबसे बड़े हो तुम!

उपरान्त इस मीटिंग में यजमान ने एक प्रस्ताव रखा, जिसे सबने तालियों से अनुमोदित किया था--

“माननीय...के जाने के बाद सिर्फ गोवा प्रदेश को ही नहीं, पर पूरे भारत देश को नुकसान हुआ है। यह नुकसान कितना है इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल ही है। जितना भी है वह नुकसान कभी भी पूरा नहीं हो सकता ।

परमेश्वर को यहाँ-वहाँ घूमते हुए अगर लेखक की आत्मा कहीं पर भी मिल जाए तो उसे शान्ति दे ।” (नहीं तो डर है कि वह हमारे गले को दबोचेगा ।)

अगले बारह दिन लेखक के परिवार में लोग शोक जताने आए । वे पहले पत्नी के प्रति दया जताते थे, बाद में बच्चों के प्रति दया की वर्षा करते थे, जैसे उन्हें दया आई वैसे भगवान्‌ को दया क्यों नहीं आई कहकर दोष देते थे। “कैसा निष्ठुर है रेss, यह ss भगवान्‌” ऐसे वाक्य बोलते। साधारणतया लोगों का रवैया देखकर ही, उस हिसाब से ही मृत लेखक की पत्नी ज़्यादा या कम रोती थी।

मृत लेखक के ससुर ने बारहवें दिन का संस्कार घर के मान-मरतबे के साथ किया। गोवा के सब प्रतिष्ठित लोगों के यहाँ न्योता भेजा गया--
“नमस्कार--

श्री...की कृपा से हमारे जमाई चि०+++ गत शनिवार को गुजर गए। उनका बारहवाँ हमने इस बुधवार को खूब धूम-धाम से मनाने का निर्णय लिया है। आप सब सपरिवार पधारकर उपकृत करें और मृतक की आत्मा की शांति के लिए आशीर्वाद दें ।
[आते समय भेंट लाएँगे तो स्वीकृत होगी।]

तुम्हारा--
+++

बारहवें के दिन लोग कतारों में आए । ब्राह्मणों, सुहागिन औरतों, निमन्त्रित लोगों का शोर था। उसमें एक था गोपालशणै झंजाल, उसकी पत्नी नकचढ़ी, कर्कशा थी। उसके तीन बेटे---एक लोफर, दूसरा झगड़ालू और तीसरा एक नम्बर का कुटिल था। इसके अलावा एक लड़की थी जो पगली और बेफिक्र थी। बारहवें में जितने लोग आए थे सबने लेखक के पिण्ड को देखकर उस पर चर्चा आरम्भ कर दी | कहा--

“यह पिण्ड कवि का नहीं दिखता ।”
“कथाकार का भी नहीं दिखता ।”
“कहानीकार का भी नहीं दिखता ।”
“तो फिर यह पिण्ड है किसका ?”
"किसी का भी हो ।”

कौओं के लिए उस पिण्ड को रखा गया, पर एक भी कौआ उसे छू नहीं रहा था। लोगों को शंका हुई कि उसकी कोई इच्छा बाकी रह गई है क्या ? उनकी पत्नी से पूछा गया तब उन्होंने झट से कहा--“उनकी (एक इच्छा बाकी रह गई थी।”
“कौन-सी ?”
“साहित्य अकादमी का पुरस्कार पाने की ।”
वहाँ जमी हुई कोंकणी भीड़ ने तत्काल निर्णय लिया--“वह पुरस्कार उन्हें अगले साल देंगे ।”
“पुरस्कार देंगे” सुनते ही कौआ आया और उसने चोंच से पिण्ड ग्रहण किया।

कौओ पिण्ड को लेकर पेड़ पर जा बैठा । उसने प्रसाद को ग्रहण किया; खाने के बाद वह डकार ले ही रहा था कि अजीब घटना घटी। वह कौआ छटपटाने लगा, पेड़ पर से नीचे गिरा और परलोक सिधार गया।
कौआ कैसे मर गया इस पर किसी ने भी कोई भी बाद-विवाद नहीं किया।

उन्होंने कहा--लेखक के ससुर व्यापारी हैं। चावल जमा करके ब्लैक का माल रखा होगा। उसी चावल को आज पकाया गया होगा | कौआ पहले ही बीमार था, शायद इसीलिए उस चावल को हज़म नहीं कर पाया और मर गया। इतना होने के बावजूद भी लोगों ने आराम से खाना खाया ।

साल खत्म होते-होते सब कोंकणी लोगों को उस लेखक की फिर याद आई। श्रद्धांजलि के रूप में, अखबारों में इश्तहार दिये गए। एक इश्तहार उनकी पत्नी और बच्चों ने भी दिया था---

“आपको भगवान्‌ के घर सिधारे हुए आज एक साल हुआ। गत ३६५ दिनों में एक भी दिन ऐसा नहीं आया, जिसमें आपकी याद न आई हो ।
आपकी वह रोनी सूरत आज भी हमें रुलाती है। परसों ही कोई कह रहा था आपको बनाने के बाद भगवान्‌ भी आपकी दूसरी प्रतिकृति बना नहीं पाया। आपको हमारे यहाँ भेजकर भगवान्‌ ने हमारा भाग्य चमकाया । हमारे भाग्य ही खराब कि हम आपको संभाल नहीं सके । आपके जाने के बाद हमारे घर का वफ़ादार कुत्ता भौंकता नहीं है। बिल्ली म्यांऊ-म्यांऊ नहीं करती है। आजकल तो रात को कीड़े-मकोड़े भी रोते नहीं हैं । बाग़ में अमरूद के पेड़ को अमरूद नहीं लगते, बेरी को बेर नहीं लगते, नारियल के पेड़ हवा में झूमते थे वे भी अब शान्‍त और स्थिर हो गए हैं। भगवान्‌ आपकी आत्मा को शान्ति दे !

--आपकी पत्नी और
आपके बेटे

उनके चाहनेवालों ने एक और इश्तहार दिया था। उसमें उस लेखक को बुरा- भला कहा गया था, गालियाँ दी गई थीं, फिर भी 'हमें आपकी याद आती है' ऐसा लिखा गया था।

कोंकणीवादी लोगों ने मडगाँव में एक मीटिंग रखी थी, जिसमें उसे श्रद्धांजलि दी गई थीं। मृतक की याद में क्या बनना चाहिए उसकी योजनाएँ बनने लगीं। सद्गत का पुतला बनाया जाय या उसके नाम से बड़ा टॉवर बनाया जाय, खेल शुरू किये जाएँ या भाषण रखे जाएँ, कुएँ खोदे जाएँ या रास्ते का नामकरण किया जाए, डाक टिकट निकाला जाय या मृतक के साम से अन्तरिक्ष में उपग्रह छोड़ा जाय--इन सबको लेकर बड़ी चर्चा हुईं। अलग-अलग लोग, अलग-अलग बात पर अपना मत प्रकट करने लगे। एक आदमी ने सबसे अलग बात कही, “हमें जिन्दा लोगों के बारे में सोचना चाहिए ।”
इस पर दूसरे ने कहा, “उनकी याद को शाश्वत बनाए रखने के लिए जितना जल्दी हो सके पैसा इकट्ठा करना चाहिए ।”

किसी ने कहा, “मृत लेखक की याद में एक ज्योति जलाई जाए और उसी के साथ चन्दा माँगा जाए।” सब लोगों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया ।
ज्योति मडगाँव से प्रज्वलित की गई। हज़ारों लोगों ने उसका स्वागत किया ।
भाषण दिये गए।
लोगों ने तालियाँ बजाईं ।
उसके बाद ज्योति कलंगुट पहुंची तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया।
उसके बाद ज्योति म्हापसा पहुँची, तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया।
उसके बाद ज्योति सांखली पहुँची तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया ।
उसके बाद ज्योति तेराकोल पहुंची, तब लोगों से उसका स्वागत किया।
उसके बाद ज्योति ने छलाँग लगाई और जहाँ-जहाँ पहुँची वहाँ भी लोगों ने उसका स्वागत किया ।

फिर ज्योति पणजी, फोंडा, केपें, रिवण, सांगें, काणकोण होकर वापस मडगाँव में पहुँची, तो लोगों ने फिर उसका हार्दिक स्वागत किया और उस ज्योति की यात्रा वहीं पर खत्म हुई ।

इस ज्योति के लिए ३४० लोगों ने काम किया। १८८ दिनों की यात्रा में २०१ स्थानों पर गए, तकरीबन ८५१ किलोमीटर रास्ते पर चले, ३५० सभाओं में उन्होंने भाषण दिये ।

उन्होंने ६८० वार खाना खाया और १२८० बार चाय-कॉफी पी । ३.५ लाख लोगों तक लेखक का सन्देश पहुँचाया और उसकी याद में ५ लाख रुपये जमा किये ।
इसी रकम से लोगों ने लेखक की मूरति बनाई जो नारियल के पेड़ जितनी लम्बी थी।

कोंकणी पर शोध करने के लिए एक शोधकर्ता गोवा में आया। नागेशी के शिलालेख को पढ़कर उसने, इसी जगह पर कुछ और शोध करने की सोची । यहाँ-वहाँ खुदाई प्रारम्भ की। उसे एक ताम्रपत्र मिला, जिस पर उस लेखक का मृत्यु-पत्र लिखा था। उस शोधकर्ता ने उस टुकड़े को कोंकणी-मण्डल को भेज दिया।
उस पर लिखा था :
“मेरी मिल्कियत के १०० भाग करना। उसमें से ५० भाग मेरी पत्नी और बच्चों को देना । ५० भाग कोंकणी को देना ।

उस शोधकर्ता ने वह मृत्युपत्र कोंकणीवादियों को दिखाया। उन्होंने इमरजेंसी मीटिंग बुलवाई। कोंकणी को ५० भाग मिले हैं, उसका क्या किया जाय ? किसे दिया जाए, इस पर विचार-विमर्श हुआ। प्रश्न सुलझा नहीं। सब कोंकणीवादियों ने अपना-अपना राग अलापा। जब लेखक की पत्नी को पता लगा तब उसने कोंकणी भीड़ को बुलाया और कहा, “वह मृत्युपत्र मेरे पास भेज दीजिए, मैं उसका सही अर्थ बताऊँगी।”

कोंकणीवादी मृत्युपत्र लेकर लेखक के घर गए। पत्नी ने पढ़ा, दो मिनट वह चुप रही। सब बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे । लेखक की पत्नी ने कहा-- “तो आप लोग मुझे बीस हजार रुपये कब दे रहे हैं ?”
“बीस हजार ?”

“उन्होंने ४० हजार का ऋण लिया था, उसे मैं चुका रही हूँ वही उनकी मिल्कियत है, इस्टेट है।”
कोंकणीवालों को आश्चर्य हुआ--लेखक को ४० हज़ार रुपये दिये किसने ?

[-यह कथा किसी जिन्दा या मुर्दा आदमी को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई है। एक निरर्थक कथा को लेकर ज़्यादा सोचने को आवश्यकता नहीं है। यह कथा किसी से सम्बन्धित नहीं है। अगर किसी ने भी इसे अपनी कथा समझा तो कथा के लेखक को बुरा लगेगा--लेखक ।]

(मोचेमाडकार=मोचेमाड गाँव का नाम है। वहाँ के लोग प्रसिद्ध नट कहलाते हैं। वे लोकनाट्य के अभिनेता हैं।
शणै गोंयबाब=कोंकणी साहित्य के मशहूर लेखक का नाम है ।
आल्बुकर्क=पु्र्तुगीज़ों से जीत लिये गोवा के भाग का गवर्नर ।
शेवरो, विस्वण=मछलियों के नाम)

(अनुवाद : चंद्रलेखा डिसूजा)

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