एक कैदी (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Ek Kaidi (Hindi Story) : Jainendra Kumar

मानव समाज के विधान और व्यवस्था की दृष्टि से व्यक्तियों को दो श्रेणियों में बाँटा- देखा जा सकता है - अनुकूल और प्रतिकूल । अनुकूल में फिर दो वर्ग हैं - एक जो कानून मनवाते हैं, दूसरे जो कानून मानते हैं। इस तरह के लोग समाज के रक्षक और आधार होते हैं। सभ्यता और संस्कृति इन्हीं पर टिकी होती है। समाज का अधिकांश भाग जब तक इन दोनों प्रकार के आदमियों को लेकर बनता है, तब तक समाज में अनुशासन और स्थिरता बनी रहती है।

किन्तु सत्य स्थिरता से घिरा नहीं है, न अनुशासन से परिबद्ध । काल भी सत्य ही है। काल, जो बनने और मिटने का आधेय है । अतः स्थिरता सिद्धि नहीं है, गति भी आवश्यक है । जीवन अस्तित्व से अधिक कर्म है। उन्नति, प्रगति, परिवर्तन आदि इसी जीवन की परिपूर्णता के अंग हैं।

इसलिए समाज में प्रतिकूल व्यक्ति की भी आवश्यकता है, उसकी उपयोगिता भी है। वह प्रतिकूल है, न वह शासक है, न शासित । विद्रोही उसे कहो तो कह सकते हो । शासक के मुँह लगने की चिन्ता भी उसे नहीं है। न पिचकर दब बैठना ही उसके मान की चीज है। वैसे व्यक्ति के लिए अदालत बैठी है । जेलखाना खड़ा है और पिनल-कोड में निर्णीत सजाएँ मुद्रित हैं। ऐसे लोग अव्यवस्था पैदा करते हैं । अन्ततः यही लोग उन्नति और प्रगति भी पैदा करते हैं।

जब मानव समाज में इस प्रकार के लोगों की अनुपात से अधिकता होती है, तब विप्लव और क्रान्तियाँ हुआ करती हैं । उनको 'अपराधी' संज्ञा से सुविधापूर्वक निर्दिष्ट किया जा सकता है। इन अपराधियों की भी दो श्रेणियाँ हैं - एक तो वे जो खुलकर अपराध करते हैं। वे अपराध करने को सत्याग्रह और फाँसी चढ़ने को शहादत कहते हैं। कानून तोड़ने को वे अपना धर्म तक बना लेते हैं। विद्रोह उनका कर्म- मार्ग है, विप्लव जीवन। वे ऐसे 'चोर' हैं जो सीनाजोर भी हैं। अपराधी खुल्लमखुल्ला बनकर वे समाज के नेता और इतिहास के उन्नायक बनते हैं। इस प्रकार के अपराधी पीछे आकर बहुधा शासक-श्रेणी में भी परिवर्तित होते देखे जाते हैं। अपनी अपराधवृत्ति के कारण तात्कालिक सरकारों द्वारा वे सदा दण्डनीय होते हैं । परन्तु अन्ततः अपनी उस अपराधवृत्ति में दुर्दमनीय उद्दण्डता एवं सत्यबोध के कारण इतिहास - मान्य पुरुष भी वे होते हैं ।

अपराधी श्रेणी का दूसरा भाग नैतिक अपराधी के नाम से पुकारा जाता है। यह भाग बहुधा ऐसा होता है जिसके लिए अपराधवृत्ति लगभग एक परिस्थितिक अनिवार्यता है। भूख से लाचार हो गये, तब चोरी कर ली; गुस्सा चढ़ आया, मार बैठे; ठानी तो लट्ठ लेकर फैसला कर डाला; कामोन्मादवश बलात्कार जैसा कृत्य कर गुजरे, आदि-आदि । पहले-पहल लाचारी में कुछ अपराध बन गया, फिर करते-करते उसकी बान-सी ही चल पड़ी। नैतिक अपराधी अधिकांश ऐसा ही व्यक्ति होता है। वह लगभग परिस्थितियों का शिकार होता है, विवश और अपराध के सम्बन्ध में लज्जित । सीनाजोर वह नहीं होता, बेचारा ही होता है। अपराध में उसे दुःख और क्षमा की आशा होती है। वह सीधा-सादा आदमी होता है । घर कुटुम्ब वाला होता है । अपने प्यारों को प्यार करता होता है, परायों से बेमतलब रहता है और जो उसका दुश्मन है बस उसका ही दुश्मन है। अपराध उसके भीतर न संकल्प की भाँति रहता है, न वृत्ति की भाँति । परिस्थितियों का तर्क ही उसे अपराध में ले जाता है। ऐसा बेचारा आदमी निम्न, हीन, तिरस्करणीय, नैतिक अपराधी गिना जाता है ।

दूसरा है जिसे अपने अपराध में गौरव है। वह अपने अपराध में क्षमाप्रार्थी नहीं, प्रत्युत हठी है, उसके सम्बन्ध में अपराध की अनिवार्यता तनिक भी प्रकट नहीं है। वह गुस्से की मदद से नहीं सिद्धान्त की मदद से हत्या करता है। पेट की जरूरत से नहीं, आदर्श की प्रेरणा से डाके डालता है। अपने या अपने कुनबे के लिए नहीं, जाने किस और बड़ी चीज का नाम लेकर कानून का सामना करने को आगे आता है, संक्षेप में वह कानून को तमाचा मारते हुए भी, उसी कानून के मुँह के सामने शहजोर बनता है। ऐसा आदमी नैतिक अपराधी नहीं, राजनैतिक अपराधी समझा जाता है ।

पहले प्रकार का आदमी तो कानून की मुट्ठी में अभियुक्त है - कैदी है। दूसरी तरह का आदमी यह होकर भी मानो सरकार का प्रार्थनीय होता है, और स्पृहणीय माना जाता है।

मुझमें ही भला और क्या बात थी ? यही तो कि जब मजिस्ट्रेट ने पूछा कि आपने यह किया, तब मैंने कहा, "हाँ, मैंने यह किया ।"

उसके बाद मैंने मजिस्ट्रेट के सामने अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे और भी बातें कहीं जिनमें एक यह भी थी कि मैंने कानून को तोड़ा क्योंकि वैसा न करना मेरे लिए बेइज्जती हो जाती। मुझे दुःख नहीं है कि मैंने वैसा किया और आप जो सजा देंगे उसे धन्यवादपूर्वक मैं ले लूँगा ।

यह कहना होगा कि इस शहजोरी के कारण मजिस्ट्रेट ने मुझे 'ए' क्लास दे दिया। आप जानते हैं कि कानूनी निगाह में आदमी आदमी सब बराबर हैं । किन्तु आप यह भी जान सकते हैं कि आदमी कभी न सब बराबर हुए हैं और न होंगे। वह आदमी ही क्या जो अपने को औरों से विशिष्ट न समझे ? और वह समझदारी क्या जो आदमी में फर्क करना न जाने ? और कानून के रक्षक लोगों को कभी भी अनसमझ नहीं समझा जा सकेगा। सच यह है कि आज हम यह आवश्यक समझते हैं कि कैदियों में श्रेणियाँ रहें और हम जैसे लोग 'ए', 'बी' क्लासों में रखे जाएँ । जेल में जब मैं उन कैदियों को देखता हूँ जिनको विधि ने न जाने अपनी किस उँघानींदी में इस दुनिया में मुझ जैसा ही आदमी बनने दिया है, तब सरकार की बनायी हुई इन 'ए' और 'बी' क्लासों का तथ्य मुझे सहज ही हृदयंगम हो जाता है।

हम लोगों का जेल में रहने का अहाता अलग है। अन्य कैदियों से हमें न मिलने-जुलने देने का ख्याल रखा जाता है, और न हम खुद उनसे मिलना चाहते हैं । हम लोग विशिष्ट हैं, और विशिष्टता का घेरा हमारे चारों ओर रहे, यह हमें भी अप्रिय नहीं लगता । अहाता छोटा-सा है और काफी उद्यम और खर्च करने के बाद हमने दो घण्टे सुबह दो घण्टे शाम को सड़क पर कुछ दूर टहल सकने के लिए अपने लिए आज्ञा प्राप्त कर ली है।

साफ, स्वच्छ, सफेद खद्दर के लिबास में पैर में चप्पल डाल, अध्यात्म और राजनीति की चर्चा चलाते और सड़क पर टहलते हुए हम देखते हैं कि और कैदी बड़ी श्रद्धा और बड़े धन्य भाग्य के साथ हमें देख रहे हैं। उन्हें मालूम है कि हम शहजादों से कम नहीं हैं; लेकिन फिर भी भारतमाता के लिए संकट उठा रहे हैं। हम उनके इस विस्मयापन्न आदरभाव को बस एक निगाह देखते हैं और झट अपनी अध्यात्म और राजनीति की चर्चा में और भी जोर से दिलचस्पी लेते हुए बढ़ते चले जाते हैं। इधर से उधर जाते हैं, उधर से - इधर आते हैं और... ।

कई रोज से एक कैदी को देख रहा हूँ। वह हमारे पास तक आकर भी दूर रह जाता है। संकोच भाव से वह हमें नमस्कार करता है और मानो यह अनुभव कर अपने आप लज्जित भी होता है कि हमने कहीं उसका नमस्करण देख लिया तो नहीं ! रंग गोरा है किन्तु गोरे से अधिक उसे पीला कहना चाहिए। रक्त उसकी देह में निरा- ही - निरा बस काफी है, व्यर्थ एक बूँद भी नहीं है । दुबला है और नीचे से उसकी टाँगें ज्यादा एक-दूसरे से दूर मालूम होती हैं। बाल बड़े-बड़े हैं, कढ़े हुए हैं और उनमें तेल पड़ा है। ऐसा लगता है, जैसे दमे का बीमार हो । एक बार तो वह सड़क के इतने किनारे आ गया कि सिवा इसके हमें दूसरा चारा न रहा कि हम उसे मालूम हो जाने दें कि उसका अभिवादन हमने देखा है । प्रत्युत्तर में जब उस अभिवादन की स्वीकृति भी हमने दी तब अतिशय धन्य - भाव से उसका मुँह खुल आया था और हमने देखा था कि उसके अगले दो दाँतों में सोने की कीलें लगी हुई हैं।

हम कभी बाहर आकर कुछ खेल भी खेला करते थे। उस समय भी वह कैदी इधर-उधर हमें देखता था। गेंद जब दूर चली जाती, तब वह दौड़कर उसे ले आता और मानों इस प्रकार हमारी तनिक सेवा कर पाने पर अपने को कृतार्थ अनुभव करता ।

लेकिन हममें एक ऐसा व्यक्ति है जो शब्द के परे अर्थ में उच्चवर्गीय नहीं है । उसकी बौद्धिकता की हममें से किसी पर धाक नहीं है, न उसके व्यवहार में वह वंशगत शालीनता है। लेकिन वह हम लोगों की टोली में सबसे अनिवार्य व्यक्ति है । उससे सबके बहुत से काम सधते हैं । यहाँ के उसके मित्र बन गये हुए लोगों की गिनती में बहुधा ऐसे हैं, जिन्हें भद्रजनों की श्रेणी में मरते दम तक न रख सकूँगा । गठकटों को, चोरों को, लुटेरों को- समाज की इस जूठन को बताइए हम लोग अपने निकट कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं ? लेकिन वह हमारा भद्र साथी, भद्र और अभद्र के बीच में जो गहरी रेखा है, मानों उसे देख पाता ही नहीं है। आयासपूर्वक उस रेखा का वह उल्लंघन करता हो, सो भी नहीं। ऐसा हो तो भी हम समझ सकते हैं। लेकिन उस कम पढ़े-लिखे हमारे साथी का हाल तो यह है कि उसे आदमी और आदमी के बीच की रेखा दिखाई तक नहीं देती है । उसकी ऐसी मोटी दृष्टि है।

हमारी अध्यात्म और राजनीति की चर्चा में उस कन्हैयालाल को तो हमने सदा पस्त ही देखा है। हमें यह भी सन्देह है कि उसकी मोटी बुद्धि में वे तात्त्विक बारीकियाँ प्रवेश भी पाती थी या नहीं।

एक दिन कन्हैयालाल ने टहलते समय उस कृशकाय व्यक्ति की ओर संकेत करके पूछा कि क्या मैं जानता हूँ कि वह कौन है ?

वह कैदी सदा की भाँति सकुचाता हुआ सड़क के एक ओर खड़ा था। उसने हमें नमस्कार किया था और हम सिर को स्वीकृति में तनिक झुका देकर फिर उसी प्रकार सड़क पर चलने में तल्लीन रहे थे ।

मैं कन्हैयालाल से कहा कि उस तरह के आदमियों को बिना जाने हमारा कोई विशेष काम तो रुका नहीं पड़ा है, तो भी कन्हैयालाल को उसके बारे में कुछ कहना हो तो कहें।

कन्हैयालाल ने कहा, "वह गढ़वाली है, पण्डित जी । "

मैंने साधारण भाव से कहा, "अच्छा!"

कन्हैयालाल बोला, "आपको सन् 30 की वह गढ़वाली सिपाहियों की घटना याद है न ? वही यह गढ़वाली है।"

तब मुझमें उस आदमी के प्रति दिलचस्पी जागी। मैंने उसकी ओर देखा । कन्हैयालाल के संकेत पर वह हमारी ओर बढ़ता आ रहा था । भय से वह भीत था और रह-रहकर पीछे की ओर देखता था। पास आकर उसने कहा, "वन्दे मातरम् ।"

मैंने भी किया, "वन्दे मातरम् । "

इस पर उसका रक्तहीन मुख खुल आया, और सोने की कील लगे दाँत दिखाई देने लगे। मानों वह विह्वल हो आया हो ।'

मैंने पूछा, "कहो भाई ! अच्छे हो ?"

उसने कहा, "जी हाँ । "

"बीमार हो क्या ?"

"जी नहीं।"

" फिर यह क्या हाल है ?"

तब उसने बताया कि इन दिनों तो वह अपने को बीमार नहीं कह सकता, पर जेल के उसके शुरू के ढाई साल बड़ी मुसीबत में बीते हैं। जी गया यही बहुत समझो। दो साल तक तो पेचिस ने ही दम नहीं लेने दिया । तिस पर जेलवालों ने भी कम सख्तियाँ नहीं की । यह उसका चौथा साल है। उसकी सजा यों पूरे दस वर्ष की लिखी है। पर दो साल छूट के मिल जाने की उम्मीद है, आगे भगवान जाने ।

यह कहते-कहते उसने कई बार पीछे घूम-घूमकर देख लिया । वह इस प्रकार शायद अपने पीछे आते हुए जमादार की टोह लेता था, उसकी परछाई दिखी कि वह भाग जाएगा। जैसे हवा के आने पर पत्ता काँपने को तैयार रहता है, ऐसा ही उसका हाल था ।

मैंने पूछा, “तुम्हारे बाल-बच्चे हैं ? "

उसने कहा, " हैं जी । "

"कभी तुमसे मिलने आते हैं ?"

उसने कहा, “जी नहीं, क्योंकि यह जगह बहुत दूर है। और नहीं आते यही अच्छा है, क्योंकि उनसे मिलकर चित्त का दुःख बढ़ता ही है। "

मैंने पूछा, "तुम्हें अपनी रिहाई का भरोसा है ?"

किन्तु इसी वक्त जल्दी से वह हमसे दूर हो गया। हमसे किनारा काट ऐसे बेगाने भाव से वह चल पड़ा कि मानों कभी उसने हमें देखा ही न हो। बात यह थी कि वह जमादार को इधर आते देख चुपचाप सरक गया था।

मैंने कन्हैयालाल की ओर देखा। मेरे मन में उस गढ़वाली को देखकर दर्द हुआ था। आज तो वह मेमना भी नहीं है इतना डरता है, किन्तु कभी वही गढ़वाली भी फौजी रहा होगा। उसमें कर्रापन कहाँ है ? निर्भीकता कहाँ है ? शरीर का बल और मन का साहस कहाँ है? ये सब उसमें से अब कहाँ उड़ गये हैं? यह दीन क्या कभी संकल्प का धनी भी था ?

हमने अपने सामने -सामने देखा कि जमादार बेजरूरत बेहूदी गालियाँ सुनाता हुआ उस कैदी को खदेड़कर ले जा रहा है, और वह कैदी खदेड़ा हुआ चुपचाप चला जा रहा है।

अगले रोज वह फिर मिला। इस बार शायद वह जमादार को चकमा देकर आया था, और तनिक स्थिर-भाव से हमसे बात कर रहा था। मुझे यह समझ में नहीं आता था कि वह कौन-सी बात हो सकती है जो इन लोगों में ऐसा संकल्प भर दे जिससे कि आदमी की जान लेना, जो इनके रोज का खेल होगा, उसी से विरत हो जावें क जान दे दें, पर निहत्थों पर गोली न चलाएँ। इन लोगों के मन में धर्म-नीति की ही कोई बात गहरी जाकर जम गयी होगी। यह एकदम असम्भव मालूम होता था । तब क्या राष्ट्र - प्रेम इन्हें छू गया ? किन्तु देश का प्रेम तो अपने मन के गहरे घाव केसंस्पर्श के द्वारा प्रेरक बनता है। अन्यथा वह क्या है ? तब वह ठेस क्या थी ?

मैंने यही बात पूछी। पूछा कि उन्हें गोली चलाने से इन्कार करने का परिणाम क्या मालूम नहीं था ? क्या उन्हें पता न था कि इस तरह अगर उनकी जिन्दगी बची भी, तो वह जेल में ही बीतेगी ?

उसने जो बताया, उसका आशय था कि मालूम था और नहीं भी मालूम था । वास्तव में परिणाम की भली प्रकार चिन्ता करने का अवकाश ही उनको न रहा था । क्या सब कुछ परिणाम देखकर ही करना होता है ? यह हो तो जीवन में दैवी क्या रहे ? जगत में ईश्वरीय फिर क्या ठहरे ? साहस तो फिर असिद्ध ही हो पड़ेगा - और तर्क से आगे होकर कुछ ज्ञेय और साध्य रहे ही नहीं । किन्तु नहीं, कुछ ऐसा होता है जो अनिवार्य होता है । अपने-आप में ही वह सत्य है और किसी भी फलाफल के विचार तर्क से उससे बचना नहीं हो सकता। वह इतना विराट और इतना भीतरी होता है। फिर भी इतना सूक्ष्म कि समझ पड़ सकता ही नहीं। फिर अपनी कहानी यों सुनाई -

उनके दस्ते को पेशावर बुला लिया गया था। शहर में जोश बहुत बढ़ गया था, और लोगों को दबा रखने के लिए फौज की जरूरत थी। दो बार गोली चल चुकी थी। सैकड़ों हताहत हुए थे, पर नगर का साहस बुझा न था । भीतर-ही-भीतर वह साहस सुलग रहा था और चमक भी उठता था। अधिकतर भीड़ के सामने हम लोगों को तैनात किया जाता था । हुक्म होता, हम बौछार छोड़ते और सामने की भीड़ में से जिन्हें गिरना होता गिर जाते, कुछ भाग जाते, और शेष तितर-बितर हो जाते थे । पर चन्द मिनटों में दूसरी जगह फिर भीड़ दिखाई देती थी। उस भीड़ में बड़े भी होते, बच्चे भी होते और बूढ़े भी होते । उनमें से कुछ को फिर वही गोलियों के घाट उतरना होता, तब भीड़ छँटती ।

हमें पेशावर में तैनात हुए चौथा रोज़ था । सबेरे आठ बजे से हम आये थे । और अब बारह बज गया था । छर्रों की छह बौछार हम छोड़ चुके थे और बीसियों आदमी उनसे भुन चुके थे। दोपहर के कारण अब सन्नाटा था। बाजार उजाड़ था, आदमी इक्का-दुक्का ही सड़कों पर आता-जाता दीखता था। अब हम अपने स्थान को लौटेंगे और तीसरे पहर फिर ड्यूटी पर आ जाएँगे। हम लोगों ने शहर की सड़कों और गलियों की गश्त की। हमारा काम था कि निश्चय कर लें कि सब जगह शान्ति है। कहीं पत्ता तो नहीं हिल रहा है। तीन-तीन की लाइन बाँधे कन्धे पर बन्दूकें रखे, बूटों की धमक से मार्च करते हुए हम लोग चले जा रहे थे।

जब गोली की बौछार छूटती है, तब क्या उसे यह फुर्सत रहती है कि देखे कि कौन मरने लायक है, और कौन नहीं मरने लायक ? उसकी चपेट में बालक वैसे ही आ सकता है जैसे कोई और। और सचमुच यह जानने का साधन कहाँ है कि यमराज को सब लोग - बालक, वृद्ध, स्त्री और पुरुष एक समान ही प्यारे नहीं हैं। सो बच्चे के पक्ष में पक्षपात करने का न वहाँ कारण था न अवसर ।

हम लोग चले ही जा रहे थे कि हमने देखा कि एक छोटी-सी दुकान है। वहाँ एक चपटा लकड़ी का तख्त सा पड़ा है। कुछ कपड़े लटक रहे हैं, कुछ फर्श पर प्रतीक्षा में फैले हैं। उस तख्त पर एक आदमी बिछा हुआ है। पास एक बच्चा बैठा है । बच्चा बरस सवा-बरस का होगा। उसने मुँह को लाल रंग रखा है। और उसके हाथ भी खून से लाल हैं। बच्चा बहुत खुश है और मानो उसे यह एक नया बढ़िया खेल मिला है। उसके पास नीचे बिछे हुए आदमी के सीने में पाँच जगह गोलियों के गहरे घाव हैं। उनमें से ताजा-ताजा खून बहकर बाहर आ रहा है। छाती खुली है और बच्चा उन घावों में बार-बार हाथ डालता है, अपने को ही उस लाल लहू से पोत रहा है। वह अपने को इस खूबसूरत और नये रंग से रँगा देखकर प्रसन्न है और ताजे लहू से भर-भर कर उन हाथों को कभी अपने मुँह पर फेरता है और कभी अपने कपड़ों पर। फिर अपनी खुशी को नीचे बिछे हुए अपने बाप के साथ बाँटने को ललककर वह खुशी से ताली बजाकर कहता है, "अब्बा, अब्बा !"

हम चल रहे थे, और चलते ही रहे। मानों हमने कुछ नहीं देखा। पर फिर भी दिखा ही । देखा कि वह आदमी अभी मरा नहीं है, मरने वाला है ! उसमें साँस है, क्योंकि लहू रह-रहकर अधिक रिस उठता है । बालक हँसकर और हाथ की ताली बजाकर कहता है, “अब्बा, अब्बा !" और बड़े उल्लास के साथ बाप की छाती के जख्मों में हाथ डालकर ताजे गोश्त के छिछड़े मुट्ठी में लाकर द्विगुणित उछाह से चिल्लाता है, "अब्बा, अब्बा !"

अब्बा अपलक बच्चे को निहार रहा है । वह मिनटों का मेहमान है। वह बालक की खुशी को देखकर खुश है। बालक उसके जख्मों में हाथ डालकर नया गोश्त निकालकर लाता है। पिता खुश है। वह मर रहा है, उसे अपार वेदना है - पर अपने मुँह से आह निकलने देकर बालक की खुशी को वह नष्ट नहीं कर सकता। मरते-मरते वह अपने बच्चे की आनन्द की घड़ियों को कम न होने देगा। इससे करवट भी न लेगा, न आह निकलने देगा, क्योंकि इससे बच्चा सहम न जाए ! असह्य पीड़ा में पड़ा बाप, निर्निमेष, बच्चे को देख रहा है, जो अब्बा के सीने के जख्मों के गढ़े के लहू से अपने को रँग- रँगकर प्रसन्नता से चिल्ला रहा है-

"अब्बा, अब्बा !"

हममें से सबने ही वह दृश्य देखा। बालक का लहू से सना उल्लास और पिता के वक्ष से निकलता हुआ लहू का ढेर और पिता की आँखों में छलक आयी हुई मत्यु की भीति, और जीवन की ममता देखते हुए हम रुके नहीं, चलते ही चले आये ! चुपचाप हम सब इसी प्रकार सड़क पर बूट बजाते हुए निकलते चले ही आये ।

अपनी जगह आ गये। पर कोई किसी से नहीं बोला, मानो मुँह में जीभ ही न रही थी। मन भारी था और शब्द असम्भव । सबने चुपचाप खाना खाया, सबने चुपचाप सब काम किया। काम में कुछ व्यतिरेक नहीं हुआ। तीसरे पहर फिर ड्यूटी पर आये और वही दुकान फिर रास्ते में पड़ी। बाप अब मर गया था और बच्चा पास ही सोया पड़ा था। दस्तेदार ने हमें वहाँ रोका और वह दुकान में गया। बच्चा शायद रोते-रोते सो गया था । तुरन्त वैसे ही मुँह और वैसे ही पाँव लौट आकर दस्तेदार ने जोर से दहाड़कर कहा - मार्च !

हम सब निःशब्द थे ।

उस रोज सब जगह शान्ति रही और गोली चलाने की आवश्यकता हमें न पड़ी।

उस दिन भर हमारे दस्ते में शायद ही कोई एक-दूसरे से बोला हो । रात को नींद भी किसी को न आती थी। रात के ग्यारह बजे, बारह बजे ! उस समय दस्तेदार हममें से पाँच को बुलाकर कहा, "भाइयो! क्या कहते हो ?"

कि तभी देखा दो-चार गालियाँ थप्पड़-सी आकर मेरे कानों पर बजीं ! मैंने देखा, जमादार ने आकर उस गढ़वाली की न सुनने योग्य गालियों और न सहने योग्य धक्कों - मुक्कों से मरम्मत करना शुरू कर दी है।

कुछ क्षण के लिए मुझे प्रतीत हुआ कि उस कैदी में जैसे कुछ विरोध का भाव उठा है। मानो वह कहनेवाला है कि मैं आदमी हूँ और जमादार को भी अपने को राक्षस नहीं बनना चाहिए। किन्तु वह भाव क्षण भर में ही उसके मुख पर से उड़ गया। और देखते-देखते वह अति दीन होता चला गया, वह हाथ जोड़कर कातर भाव से चिल्ला उठा। पर जमादार ने उस पर और भी जोर से डंडे जमाए ।

मैंने कहा, "जमादार ! "

किन्तु जमादार लात और डंडे की मार के जोर से तब तक उसे दूर ले जा चुका था।

कुछ देर यह सब मैं खड़ा खड़ा देखता ही रह गया। उसके बाद मैंने कहा, "चलो कन्हैयालाल । "

कन्हैयालाल ने कहा, "चलिए।"

चलते-चलते मैंने कहा, "अब भी क्या इनमें कुछ बचा है जिसे चलना शेष हो ? फिर क्यों ये लोग जेल में हैं, एक साथ ये मार ही क्यों नहीं दिये जाते ? यह सदयता हो !... "

कन्हैयालाल ने कहा कि माफी माँगने का रास्ता अब भी इनके सामने खुला है । इस पर कैदी ने इनकार किया है।

" तो अभी दम है !"

कन्हैयालाल ने कहा, “उसने माफी माँगकर न छूटने की कसम खाई है, और उसे पाप का और बिरादरी का डर है। इस भय का ही दम कह लीजिए ।

मैं चुप रह गया।

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