एक जोड़े के बदले, बारह जोड़े जुताई के बैल : कोंकणी/गोवा की लोक-कथा
Ek Jode Ke Badle Barah Jode Jutai Ke Bail : Lok-Katha (Goa/Konkani)
एक थी बुढ़िया। उसका एक बेटा था। वह सदा हल लिये खेत पर जाता था और बुढ़िया उसके लिए कॉँजी बनाकर ले जाती थी।
एक दिन हुआ यों कि बेटा हमेशा की तरह हल लिये खेत चला गया और बुढ़िया ने काँजी बनाई। काँजी के साथ खाने के लिए कुछ चाहिए था न! उसने जल्दी से थोड़ी चटनी निकाली, उसमें दो काली मिर्च के दाने डाले और पीसने बैठ गई। पीसते-पीसते काली मिर्च का एक दाना झट से उड़ा और कहने लगा—
“माई, भइया के लिए काँजी मैं ले जाऊँगा!...भइया के लिए काँजी मैं लेकर जाऊँगा!”
“हाँ-हाँ बेटा, ले जाना...।” कहते हुए बुढ़िया ने कटोरी में चटनी निकाली, मटकी में काँजी डाल दी, दोनों बरतन वहीं रखे और सीधे अंदर चली गई। काली मिर्च के दाने ने क्या किया कि काँजी वाली मटकी सिर पर रखे वह खेत पर पहुँचा, जहाँ बुढ़िया का बेटा हल चला रहा था।
“भइया, हल मैं जोतता हूँ, तुम कॉँजी खा लो! भइया, हल मैं जोतता हूँ, तुम काँजी खा लो!”
तब भइया काँजी खाने बैठे और काली मिर्च का दाना लगा हल जोतने।
हुआ यों कि वहाँ से एक पंडित और पंडिताइन जा रहे थे। उनके यहाँ कई गायें थीं, परंतु दुबली-पतली और कमजोर। दान में मिली हुई। तो बुढ़िया के बेटे के इन हृष्ट-पुष्ट बैलों पर पंडिताइन की नजर अटक गई। उसे लगा कि बैल अपने आप हल जोतते हैं। काली मिर्च के दाने का हल जोतना दिखाई देता भी कैसे?
पंडिताइन ने पंडित से कहा, “अजी देखिए, ये बैल किसके हैं? कोई भी तो नहीं है यहाँ, फिर भी देखिए, कैसे बैल खेत की जुताई कर रहे हैं! हम उन्हें अपने यहाँ ले चलते हैं।”
“अरे नहीं, वे हमारे नहीं हैं। लोगों के हैं, लोग हमें पीटेंगे।”
“कुछ नहीं होगा। हम ले जाते हैं उन्हें।”
पंडिताइन की इस बात पर पंडितजी राजी हुए और दोनों लगे बैलों को हाँकने।
“चल, चल घर चल!” कहते हुए बैलों को लेकर दोनों घर चल दिए।
थोड़ी देर बाद काँजी खत्म कर भइया खेत में आए तो देखा कि वहाँ बैल नहीं हैं। बहुत ढूँढ़ने पर भी बैल नहीं मिले। अब क्या करते? सिर पर हाथ रखकर रोते हुए घर लौटे। काली मिर्च का दाना भी भइया के पीछे-पीछे घर लौटा।
“माई, बैल खेत से गायब हैं। शायद कोई ले गया है!”
उसने सारी खबर बुढ़िया को बताई। खबर सुनकर बुढ़िया ने काली मिर्च के दाने को बहुत डाँटा।
डाँटा तो काली मिर्च के दाने ने कहा, “ठीक है, पंडित और पंडिताइन हमारे बैल ले गए हैं न, देखना, मैं एक जोड़े के बदले बारह जोड़े जुताई के बैल लेकर आऊँगा उनके यहाँ से!”
इतना कहते हुए काली मिर्च का दाना चल दिया। तो रास्ते में उसकी भेंट हुई चिकालो मछली से। उसने कहा—
“अरे भाई काली मिर्च के दाने, आज इतनी हड़बड़ी में कहाँ जा रहे हो?”
“एक जोड़े के बदले बारह जोड़े जुताई के बैल लाने!”
“मैं भी आ जाऊँ?”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं!”
चिकालो और काली मिर्च का दाना चल दिए। रास्ते में मिले लोमड़ भइया कहने लगे—“आज काली मिर्च का दाना, चिकालो दादा कहाँ जा रहे हो?”
“एक जोड़े के बदले बारह जोड़े बैल लाने!”
“मैं भी आ जाऊँ?”
“हाँ-हाँ, आ जाओ!”
तीनों चल दिए। इतने में मिली केकड़ी मौसी।
“आज काली मिर्च का दाना, चिकालो दादा और लोमड़ भइया कहाँ जा रहे हो?”
“एक जोड़े के बदले बारह जोड़े जुताई के बैल लाने!”
“मैं भी आ जाऊँ?”
“हाँ-हाँ, आ जाओ तुम भी!”
चारों ने अपना रास्ता पकड़ा। थोड़ा आगे निकल जाने पर उनकी मुलाकात हुई काईजी से। उन्होंने भी वही सवाल पूछा और अपने आपको उनके साथ शामिल किया। थोड़ा आगे जाने पर उन्हें सोटा भइया मिले और आगे जाने पर मिले बाघ मामा।
सातों जन पंडितजी की गौशाला में जा घुसे, तो क्या देखते हैं...पंडितजी ने बैलों को गौशाला में बाँध रखा है और खुद जाकर घर में सोए हैं। हालाँकि पंडिताइन की नींद हराम है। उन्हें इस बात की चिंता खाए जा रही है कि कहीं बैलों को कोई लेने न आ धमके, वे बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती जा रही हैं।
गौशाला में दादा के बैलों को देख काली मिर्च का दाना खुश हुआ। कहने लगा, “मैं और लोमड़ भइया मिलकर बैलों को खोल देते हैं।”
बाघ मामा कहने लगे, “मैं पिछले दरवाजे पर ठहरता हूँ।”
केकड़ी मौसी तेलहड़ी में जा बैठी और चिकलोजी दादा चूल्हे में। सोटा भइया सामनेवाले दरवाजे पर जा खड़े हुए और काईजी गुसलखाने में।
बाघ मामा और लोमड़ भइया के आने की भनक लगते ही गायें गौशाला में छटपटाने लगीं। बछड़े रँभाने लगे। गायें रँभाने लगीं। शोर सुनकर पंडिताइन झट से उठी और लगी पंडितजी को जगाने।
“अजी देखिए, गौशाला में कोई आया है?”
“आ गया, तुमसे कहा था न कि दूसरों की गायें नहीं लानी चाहिए?”
“अब हम क्या करेंगे?”
“करेंगे क्या, पहले दीया जलाओ!”
दीया मिलता है, तो दियासलाई की डिब्बी नहीं मिलती। पंडिताइन टटोलती हैं चूल्हे के पास पहुँची और जाकर आग फूँकी। तभी चिकलोजी कुछ इस तरह उड़े कि पंडिताइन की आँखें राख से भर गईं।
“आ...आँखें फूटीं मेरी...मेरी आँखें फूट गई...!”
पंडिताइन चिल्लाने लगीं। आँखें मलती हुई खड़ी हुई। सोचा, आँखों में थोड़ा तेल डाल लूँ। उसने तेलघड़ी में हाथ डाला, तभी केकड़ी ने उनका हाथ पकड़ा। तो फिर शोर!
“ऊ माँ...उई माँ!”
पंडितजी ने आव देखा न ताव। सीधे पिछवाड़े की तरफ चल दिए, तो बाघ ने हौवा किया, पंडितजी ने कपड़ों में ही पेशाब कर दिया।
“अरे दीया जलाओ! दीया जलाओ!”
“दीया कहाँ से जलाऊँ, यहाँ किसी ने मेरा हाथ पकड़ रखा है!”
पंडितजी काँपते हुए सामने की ओर आए, सोटा भइया थोड़े ही पीछे रहनेवाले थे! पीट-पीटकर पंडितजी की कमर तोड़ डाली।
इस तरफ पंडिताइन आँखों पर पानी के छींटे मारने जो गुसलखाने गई तो काई पर पैर फिसलकर गिर पड़ी।
पंडिताइन चिल्ला रही थी कि में फिसल गई हूँ और पंडितजी शोर मचा रहे थे कि मेरी कमर टूट गई! ऐसा चिल्लाना, रोना-धोना कि क्या बताएँ!
उस तरफ काली मिर्च के दाने और लोमड़ भइया ने पंडितजी की गौशाला में बँधी सारी गौओं को खोल दिया। दादा के बैलों को भी खोला और जल्दी से उन्हें लेकर बाहर आ गए।
सभी गौओं को लेकर दादा की गौशाला के पास पहुँचे, तभी काली मिर्च के दाने ने कहा, “भइया, देखिए, एक जोड़े जुताई के बैलों की जगह मैं बारह जोड़े जुताई के बैल लाया हूँ!”
ले जाकर सभी को रस्सी से बाँध दिया। गौशाला में इतनी सारी गौऔं को देख भइया खुश हुए। “शाबाश!” उन्होंने काली मिर्च के दाने से कहा।
तत्पश्चात् काली मिर्च के दाने ने बाघ भाइया, लोमड़ भाइया, चिकलोजी दादा, काईजी, सोटा भाइया, केकड़ी मौसी आदि के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और पूछा, “मैं इस सब के बदले में आप लोगों को क्या दूँ?”
सभी ने कहा, “हमें कुछ नहीं चाहिए भई, काले मिर्च के दाने! तुम्हारे बैल तुम्हें मिले, हमें सबकुछ मिल गया!”
पर बाघ भइया और लोमड़ भइया ने कहा, “हमें एक दुबला सा बैल दो भाई!”
काली मिर्च के दाने ने बुढ़िया के बेटे से एक दुबला–पतला बैल लेकर उन्हें दिया।
सभी अपने-अपने घर चले दिए तो बाघ भइया और लोमड़ भइया ने क्या किया, बैल को लेकर जंगल में गए और उसको मारकर उसका गोश्त पकाया। लोमड़ भइया स्वभाव से धूर्त था, उसने बाघ से कहा—
“भइया, तुम गोश्त कैसे खाओगे? बूढ़े हो गए न तुम? तुम एक काम करो, बढ़ई के यहाँ जाकर दाँत की धार तेज कराओ! नहीं तो तुम हिड्डयाँ वैगरह तोड़ नहीं पाओगे!”
बाघ भइया को बात ठीक जान पड़ी। वे बढ़ई के यहाँ चले गए। दाँत की धार तेज कराई।
इधर लोमड़ भइया ने क्या किया कि जिस प्रकार के बरतन में गोश्त पकाया था, वैसे ही बरतन में पानी उबालकर रख दिया। नाले पर जाकर गोलाकार चकमक के पत्थर ढूँढ़ लाया। उन पत्थरों को लाल होने तक आग में तपाया और बाघ
भइया का इंतजार करने लगा।
बाघ भइया ने आते ही लोमड़ भइया को बाहर बैठा देखकर पूछा—
“क्यों लोमड़, हो गई तैयारी?”
“हाँ भइया!”
“खा लें?”
“हाँ भइया।”
“चलो जाकर बैठते हैं पीढ़े पर!”
“हाँ, बैठ जाते हैं!”
दोनों रसोईघर में दाखिल हुए। रसोईघर में पहुँचते ही लोमड़ कहने लगा, “भइया, तुम बूढ़े हो गए हो न, हाथ से खाने की तकलीफ तुम क्यों उठाते हो? मुँह खोलो, मैं अच्छे गोश्त के टुकड़े निकालकर तुम्हारे मुँह में डाल देता हूँ!”
बाघ भइया ने पीढ़े पर बैठकर चौड़ा मुँह खोला। लोमड़ ने गोस्त बताकर गरम पत्थर बाघ के मुँह में डाल दिए और शोरबे नाम (gravy) पर डाल दिया उबला हुआ पानी।
बाघ भइया बेचारे उफ तक न कर सके! उन्होंने तड़पते हुए दम तोड़ दिया और लोमड़ भइया ने अकेले सारा गोश्त डटकर खाया।