एक झाँक देव शिशु (कहानी) : ज्योतिरींद्र नंदी

Ek Jhaank Dev Shishu (Bangla Story in Hindi) : Jyotirindra Nandi

साहब लोगों की मोटर कारें प्रायः बीच रास्ते में ही अटक जाया करती हैं। यंत्र ही तो हैं। यंत्र कोई मनुष्य तो है नहीं, कि मनमाफिक चला करे । अलावा इसके मनुष्य भी क्या नहीं अटकता है ? खूब अटकता है। मनुष्य के भीतरी कल-पुर्जों के बिगड़ जाने पर डॉक्टर बुलाना पड़ता है। एंबुलेंस लानी पड़ती है, अस्पतालों की दौड़-धूप लग जाती है; क्योंकि मनुष्य का जीवन बहुत मूल्यवान् है।

फिर भी साहब लोगों की एक-एक कार का मूल्य क्या कुछ कम है ? कल-पुर्जों के बिगड़ जाने पर कार जब बीच रास्ते में अचल हो जाती है, तब साहब लोग मनुष्यों की खोज करते हैं। अनेक मनुष्य आकर, अनेक हाथों का जोर लगाकर कार को ठेलते हैं। ठेलते-ठेलते उसे गैरेज में पहुँचाते हैं, जिसे कारों का अस्पताल कहते हैं।

प्रखर दुपहरी की वेला है यह । बीच रास्ते कार के अटक जाने पर साहब लगातार पसीने-पसीने हो रहे हैं । किंतु मनुष्य कहीं है ही कहाँ ? इस जगह चील-कौए भी तो कहीं नहीं दिखाई पड़ते । अन्य दिनों तो सड़क के किनारे लटके लैटरबॉक्स की छाया में एक देशी कुत्ता पड़ा पड़ा सोता रहता था। आज वह जगह भी सूनी है।

साहब चिंतित हुए। मुँह पर, विशेषकर आँखों में उद्वेग छा गया।

लाल लैटरबॉक्स की छाया में जब वह लाल देशी कुत्ता नहीं है तो मानना पड़ेगा कि वे सब भी आसपास में नहीं हैं। यह अनुभव करके साहब ने रूमाल से ललाट का पसीना पोंछा ।

उस कुत्ते का नाम है 'लालू'। उन सभी ने ही उसे यह नाम दिया है। कुत्ता उनका दोस्त है। लालू उन्हें छोड़कर कहीं एक मिनट भी नहीं रह सकता। लालू को छोड़ वे भी कहीं नहीं रह सकते । तो फिर ?

साहब आँखें घुमा-फिराकर इधर-उधर देखते हैं। इसी समय गरमी की भरी दुपहरी में वे सब साहब जिन्हें मन- ही-मन खोज रहे हैं—घेनू, नानू, हूदा, भोंदा, बेंदा, छोटका एवं उनके और भी कौन-कौन से साथी - चिल्ल-पों मचाते हुए हाइड्रांट (सड़क के किनारे के बंबू) से बहते पानी के पनाले के मटियाले पानी में छपक्-छपक् नहाते हैं । ही ही हँसते हैं, जिससे उनके दाँत दिखाई पड़ते हैं, चित्र-विचित्र - झाईं पड़े पीले दाँत, कीड़ा खाए दाँत, टूटे हुए दाँत ! दाँत हैं सबके ही। एक-एक के बत्तीस-बत्तीस दाँत । दाँतों से काट बैठें तो कितने ही दिनों के लिए खाट पकड़वा दें; किंतु किसी को भी काटते नहीं वे । नहाते हुए पानी छिटकारते हैं और बाकी समय धूल । ज्यादा-से- ज्यादा एक-दूसरे के शरीर पर थूक छिटकाते हैं, लेकिन अन्य किसी के ऊपर कभी नहीं थूकते । अपने में ही यह सब खेल खेलते हैं। बिना गंजी -कमीज के नंगे, खुले पेट- पीठ, उन्मुक्त देह, झाडू की तीलियों की तरह खोंचे-खोंचे खड़े बादामी बाल और धूप में जले रूक्ष शरीर को भिगो-भिगोकर, नंगे होकर जब वे स्नान करते हैं तो देखने लायक होते हैं।

आज वह जगह एकदम खाली है। साहब रुमाल से गरदन का पसीना पोंछते हैं। एक झुंड कौवे नाचते-नाचते हाइड्रांट के करीब आ गए हैं। वे सब नहीं हैं तो कौए ही जी भर नहा रहे हैं। यही तो बात है, गए कहाँ सब ? साहब गाड़ी से बाहर निकल आते हैं। सड़क के किनारे गुलमोहर की छाया में खड़े होकर अनुसंधानी आँखें घुमा-घुमाकर इधर-उधर देखते हैं।

तभी तो; साहब फिर सोचते हैं। इस समय कुली - मजदूर कहाँ मिलेंगे कि उनकी कार ठेलकर गैरेज में पहुँचा दें। कुली - मजदूर तो इस समय कारखानों में, रेलवे स्टेशनों पर, जहाज घाटों पर अथवा इस बाजार से उस बाजार तक व्यापारियों के गोदामों में बिखरे हुए हैं। माल चढ़ा रहे हैं, उतार रहे हैं। रास्ते की एक ऐंबेसडर कार ठेलने वे क्यों आएँगे? अतएव वे सब, नानू, घेनू, हूदा, भोंदा एवं उनके संगी-साथी, दोपहर, संध्या रात जब भी कोई मोटरगाड़ी अटक जाती है, सीटी बजाकर बुलाने पर वे सब दौड़े चले आते हैं। वे सब तभी दस पंद्रह, बीस हाथ लगाकर कार ठेलना शुरू कर देते हैं। इनमें से एक-एक की उम्र आठ, दस, तेरह वर्ष है, इससे अधिक नहीं। थोड़ा और बड़ा होने पर वे जवान मर्द होकर बाजार में, स्टेशन पर अथवा जहाज घाटों पर फैल जाएँगे और तब उन्हें पाया नहीं जा सकेगा।

भले ही उनके चिचके-पिचके शरीर हों, बगुले की ठोर की तरह लिक- लिके हाथ-पैर हों, मुरगे की चोंच की तरह पतले मेरुदंड हों, फिर भी वे मजे में कार को ठेल सकते हैं। जहाँ दो कुली से ही काम चल जाता है, वहाँ उनके तो एक झुंड की जरूरत होती है। साहब लोगों ने इसी से नाम रखा है, मनुष्यों के बच्चे होना तो खैर संभव ही नहीं - बस, केवल देवता ही जिनके बाप हो सकते हैं, ऐसे देवशिशु यानी कि जिन्हें अपने द्वारा पैदा किया हुआ माननेवाला कोई मनुष्य न हो वे देवता से उत्पन्न अनाथ आवारा 'एक झुंड आवारा बच्चे !' कहाँ से वे आए हैं ? कौन उनके पिता हैं? कौन माँ हैं? कुछ भी जबकि जाना नहीं जा सकता। यह एक झुंड आवारा बच्चे दस, बीस, पच्चीस हाथ लगाकर गड़गड़ करते कार को जब ठेलते रहते हैं, साहब स्टीयरिंग पर हाथ रखे आह्लादपूर्वक आँखें बंद किए बैठे रहते हैं और वे सब भी तब सीटी बजा-बजाकर गाना गाते हैं। उनके भी आहलाद की सीमा नहीं रहती। साहब लोगों की कार सड़क पर अटक जाने से वे बेहद खुश होते हैं। उसका कारण भी है। ऐसी अनमोल चमकदार कार चीज को जो वे छूने का अवसर पा गए हैं! केवल छू पाना ही क्यों ? कुछ क्षणों के लिए कार उनकी मुट्ठी में आ जाती है। केवल क्या वे उसे गैरेज में ही पहुँचा सकते हैं? चाहने पर भी वे उसे ठेल-ठेलकर मैदान में नीचे उतार सकते हैं। जंगल में घुसा सकते हैं । पोखरे के पानी में गिरा देने से भी उन्हें कौन रोक सकता है ? किंतु ऐसा क्या वे करते हैं? कभी नहीं । साहब आँख मूँदे बैठे रहते हैं। कार ठीक जगह पहुँच जाती है। गैरेज में पहुँचते ही रुक जाती है।

वैसे दिन-रात वे अवश्य ही कोई कम गाड़ियाँ नहीं देखते। उनके कानों को घिसती हुई, सिर को छूती हुई, बों-बों करती गाड़ियाँ भागती हैं। उत्तर से दक्षिण भागती हैं, तो पूरब से पश्चिम । दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे - हर समय गाड़ियाँ दौड़ती ही रहती हैं; क्योंकि सड़क ही उनका घर है। सड़क पर ही उनकी रसोई होती है । खाना-पीना, टट्टी-पेशाब सभी कुछ का आश्रयस्थल सड़क ही है; और यह सड़क ही उनके खेलने का मैदान भी है।

दोपहर के समय थोड़ा खालीपन होता है। गाड़ी घोड़ा कुछ कम चलते हैं। उस समय सिर के ठीक ऊपर सूर्य जलता रहता है। सड़क की पिच पिघलती रहती है। वे उसे कुछ भी नहीं गिनते । उत्तप्त पिघलती पिच के ऊपर पैरों के चट-चट शब्द गुँजाते वे परम आनंदपूर्वक कबड्डी खेलते हैं। किसी-किसी दिन आँख-मिचौनी खेलते हैं। विशेषकर जिस दिन रिम झिम बूँदें पड़ती हैं, उस दिन का तो कहना ही क्या ? सड़क पर छपा-छप पानी उछाल- उछालकर वे एक-दूसरे का हाथ पकड़ वृत्ताकार हो नाचते हैं । ही ही हँसते हैं। लालू नामक वह कुत्ता भी तब उनके संग मिलकर नाचता है। अपनी लाल जीभ बाहर निकालकर पूँछ हिला-हिलाकर इन आवारा बच्चों के चारों ओर अनवरत दौड़ता रहता है। उस समय तो वे ही सड़क के राजा होते हैं ।

किंतु आज वे सब कहाँ चले गए? एक भी नहीं दिखाई पड़ता ! बिगड़ी हुई कार के पास खड़े हो अत्यंत विवर्ण- मुख से साहब चिंता कर रहे हैं। हाइड्रांट के पानी में कौए नहा रहे हैं। एक कटी पतंग बिजली के तार में फँसकर चरखी की तरह चक्कर लगा रही है। यह सब देखते हुए साहब सोचते हैं- ' अपना यह राज्य छोड़ वे सब संभवतः अन्यत्र चले गए हैं।' इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता। फिर भी बीच-बीच में ऐसा होता है। यहाँ की खेल-कूद छोड़ वे पतिंगे पकड़ने इधर-उधर चले जाते हैं अथवा कभी कंधे-से-कंधा मिलाए गोलाकार खड़े होकर कहीं बंदर का नाच या भालू के खेल देखते हैं। खेल खत्म होते ही तुरंत लौट आते हैं। लौटते ही यदि वे किसी साहब को बिगड़ी कार लिये बीच सड़क पर खड़े हो आकाश-पाताल की चिंता करते देखते हैं, तब तो कुछ कहना ही नहीं। बिना देर किए ही कार को चारों से घेरकर पकड़ लेते हैं। तब ऐसा लगेगा, जैसे भौंरों का एक झुंड कार को गड़गड़ाते हुए लिये चला जा रहा हो ।

ऐसा होने पर भी भौरे की तरह वे हिंसक बिल्कुल ही नहीं हैं। काटना वे नहीं जानते, बल्कि काटने के स्थान पर बचाना ही उनका स्वभाव है । मैले, झिल्ली पड़े दाँतों को बाहर निकालकर वे केवल हँस सकते हैं। अपनी रक्त-शून्य, फीकी, बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े एकटक पृथ्वी की ओर ताकते हुए प्रसन्न हो सकते हैं। वे सभी कुछ देखकर खुश होते हैं। साहब लोगों की कार अटक गई है। यह देखकर जैसे आनंदित होते हैं, उसी प्रकार धूल, ऐराफेल्ट के चिकने कणों को उड़ाते हुए उनकी आँखों को कान बनाते सों-सों करती एक-एक कार जो भागी जा रही है, उसे देखकर भी वे कम आनंदित नहीं होते ।

और फिर साहब लोगों के घर के लड़के-लड़कियों को देखने पर ! विशेषकर जब उनकी अपनी उम्र के बच्चे फिट-फाट सजे हुए, किताबों के बैग, टिफिन के बक्से, पानी की बोतलें हाथ में झुलाते हुए स्कूल जाते हैं। सड़क के एक किनारे खड़े हो ये उन्हें देखते हैं। इन्हें ऐसा जान पड़ता है, जैसे कोई आश्चर्यजनक अतिशय रंगीन शोभायात्रा देख रहे हों । कैसे रंग-बिरंगे परिधान एक-एक बच्चे के शरीर पर होते हैं! दूध-छेना, माखन-मिश्री खाए हुए कमनीय समुज्ज्वल शरीर । जिस प्रकार साहब लोगों की चक-चक, झक-झक कारें छू पाने पर इनके आह्लाद की कोई सीमा नहीं रहती, उसी प्रकार बहुमूल्य पोशाक धारण किए अपनी उम्र के इन सुंदर शिशुओं को भी यदि वे छू पाते तो कृतार्थ हो जाते। किंतु वह तो कभी संभव नहीं होता। उनके साथ नौकर या दरबान रहते हैं। किसी-किसी के अभिभावक भी। इन बालक-बालिकाओं को छूने की चेष्टा करने पर पकड़े जाने पर ये भीषण रूप से धमकी खाते हैं, गाली- गलौज सुनते हैं। इसके अतिरिक्त सुंदर-सुंदर वस्त्र धारण किए हुए, दूध-मक्खन खाए हुए, माखन की मूर्ति से वे बच्चे भी इस ओर, इन सबकी ओर बिल्कुल भी देखना नहीं चाहते । आँख-से-आँख मिलते ही मुँह फेर लेते हैं, नाक सिकोड़ते हैं।

किंतु इसके लिए ये सब, उनके परवाह करने की चीजें नहीं हैं। रास्ते के ये आवारा बच्चे, कभी भी मन खराब नहीं करते, अभिमान नहीं करते, क्रोध नहीं करते | ये समझते हैं कि फटे-मैले-कुचैले तार- तार चिथड़े कपड़े जो इनके शरीर पर हैं, वह भी तो सभी के शरीर पर नहीं हैं । उन्मुक्त दिगंबर मूर्ति है इनकी। मलिन, घृणित हाथ, पाँव, नाखून और बाल हैं इनके । अन्न के लिए तरसती हुई जर्जर देह है। भौरे की भाँति मलिन, काला रंग है। साहब लोगों के बालक-बालिकाएँ अपने करीब इन्हें क्यों सटने देंगे? इसी से दूर से ही उन चमकते-दमकते बच्चों को देखकर ये प्रसन्न होते हैं । जब तक आँखें समर्थ होती हैं, ये उनकी ओर विस्मय - विमुग्ध हो देखते रहते हैं । कभी रिक्शे से, कभी कार पर चढ़कर ये आश्चर्यजनक बच्चे स्कूल जाते हैं। स्कूल से घर लौटते हैं।

और भी ललसाई असहाय चाहत भरी सतृष्ण नजरों जाने कैसे-कैसे सुंदर-सुंदर दृश्य वे देखते हैं । साहब लोगों की गृहिणियाँ, इन चमकते-दमकते चेहरोंवाले बच्चे-बच्चियों की माताएँ, आडंबरपूर्ण चमचमाती साड़ियाँ, जूता - सैंडिल, दमकते गहने पहने-नहीं, अनेक ऐसी होती हैं, जो गहना पसंद नहीं करतीं—हाथ में घड़ी पहनती हैं - रंग-बिरंगे बैग झुलाती टहलती हैं। जब वे घर से बाहर जाती हैं या बाहर से घूम-फिरकर घर लौटती हैं, तो उन्हें देखकर भी ये सब बेहद खुश होते हैं। इन गृहिणियों के साथ कितना कुछ होता है ! नई साड़ियों के पैकेट, कुरता, कमीज, पैंटों के पैकेट, संदेश (मिठाई) का डिब्बा, सेब - अंगूर के दोने और बच्चों के लिए भाँति-भाँति के खिलौने । इन आवारा बच्चों में इन विभिन्न पदार्थों को छूकर देखने के लिए बड़ा लालच उपजता है । यहाँ तक कि कभी-कभी तो छूने के लिए ये हाथ बढ़ा भी देते हैं तथा गृहिणियों के पीछे-पीछे काफी दूर तक चले जाते हैं । यदि वे पैदल चलकर जाती हों, तभी। यदि कारों पर जाती हैं तो ये कारों के पीछे भी दौड़ते हैं, पर कुछ देर में इन्हें ठहर जाना पड़ता है। हाथ सिकोड़ लेने पड़ते हैं । इनकी इस स्पर्धा पर महिलाएँ दाँत किटकिटाती हैं, आँखें लाल करती हैं। डाँटकर कहती हैं- “ भागो, भाग जाओ घिनौनो ! "

ऐसी स्थिति में ये सब खड़े हो जाते हैं । फिर भी मुँह नहीं लटकाते । मूर्खो की तरह केवल हँसते हैं और फटी-फटी आँखों से गृहिणियों के हाथों में पड़े साड़ी, जूतों के पैकेट, संदेश मिठाई के डिब्बे, फलों के ठोंगों, गुड़ियों एवं खिलौनों को देखते हैं। स्वच्छ, चमकदार चेहरोंवाली मोटी-सोटी माताएँ मुँह घुमाकर चली जाती हैं, किंतु तब भी उन्हें सबकुछ अच्छा ही लगता है । मानो और एक सुंदर शोभायात्रा देखने का आनंद पाते हों ! इनकी रक्त - शून्य फीकी आँखें कुछ क्षणों के लिए चमकदार हो उठती हैं और कुछ दूर तक रास्ते में इन बहुमूल्य गृहिणियों के पीछे दौड़ने का जो सुयोग ये पा गए हैं, इसी से परम तृप्त हो जाते हैं ।

एक दिन, केवल एक दिन ही, एक गृहिणी के हाथ की एक चीज छूने का सुयोग इन्हें मिला था। किंतु सभी को नहीं। दल के केवल एक व्यक्ति को । भोंदा को । एक दिन एक भद्र महिला रिक्शे पर चढ़कर घर लौट रही थी। साथ में बहुत सारे ठोंगे, डिब्बे और पैकेट लदे थे। कुछ गोदी में चँपे हुए थे, कुछ हाथों में पकड़े हुए थे । हठात् रिक्शे को एक झटका लग जाने से उनकी गोदी में का एक डिब्बा छिटककर सड़क पर गिर गया। संभवतः महिला इसका ध्यान ही नहीं कर पाई। रिक्शा जैसे टुनटुन घंटी बजाता जा रहा था, उसी तरह चला गया होता। किंतु भोंदा ने उस गिरी हुई वस्तु को देख लिया, तत्क्षण लपककर उस डिब्बे को उठा लिया और रिक्शे के पीछे दौड़ने लगा; साथ-ही-साथ चिल्लाने लगा-

“हेइ रिक्शा, ओ रिक्शावाला !” रिक्शा खड़ा हुआ । परम आह्लादपूर्वक मुख को अनेक प्रकार का बनाते हुए उस रंग-बिरंगे डिब्बे को महिला के हाथ में उसने पकड़वा दिया। डिब्बा पाकर वह महा आनंदित हुई। किंतु इतना होने पर भी, कि सड़क के एक छोकरे ने इतना बड़ा उपकार किया, यह समझते हुए क्या उन्होंने एक बार के लिए भी भोंदा के मुख की ओर देखा ? बिल्कुल नहीं। उस समय तो गोदी में अन्य और पाँच डिब्बों और ठोंगों के संग इस खोए हुए डिब्बे को यत्नपूर्वक ठीक से रखने में वह व्यस्त हो पड़ी थी और देखते-देखते ही रिक्शा उसे लेकर दूर चला गया।

महिला भले न देखे, किंतु भोंदा की ओर देखनेवाले बहुत सारे लोग थे । उसके सभी साथी उसे परमातुर हो देख रहे थे। सभी दौड़े आए और भोंदा को हाथ फैलाकर गोदी में उठाकर आकाश में ऊपर उछालकर कंधों पर बैठा लिया। उसे जी भरकर देखा। उस क्षण तो भोंदा एक दर्शनीय व्यक्ति हो गया था; क्योंकि साहब लोगों की एक गृहिणी का एक मूल्यवान् डिब्बा छूने का सौभाग्य उसे मिला था । ऐसा अवसर चेष्टा करने पर भी आज तक किसी और को अभी तक नहीं मिला था । सच, भोंदा भाग्यवान् है ! जिस हाथ से भोंदा ने सड़क पर गिरे डिब्बे को उठाकर महिला के हाथ में थमाया था, उस हाथ को लेकर न केवल साथियों में परस्पर छीना-झपटी होने लगी, बल्कि सभी भोंदा के उस हाथ को नाक के पास ले जाकर सूँघना चाहते थे । सचमुच भोंदा के हाथ में एक विशेष प्रकार की सुगंध बस गई थी। इस सुगंध से उनका कोई पूर्व परिचय नहीं था। भोंदा के हाथ को सूँघ सँघकर भी उनकी साध मिट नहीं रही थी।

" ओ भोंदा ! उस डिब्बे में क्या था, किस चीज का डिब्बा था वह ?"

“मैं क्या जानूँ? मैं भी तो सोच ही रहा हूँ । डिब्बा खोलकर तो मैंने देखा नहीं।" हँसते हुए भोंदा स्वयं अपना हाथ नाक के पास लाकर सूँघने लगा। उसके बाद पूरी साँझ उन्होंने सड़क के किनारे के कदंब वृक्ष की छाया में बैठकर इसी सोच-विचार में गुजार दी कि महिला के उस डिब्बे में संदेश मिठाई थी कि अमावट था अथवा साबुन वगैरह कुछ अन्य चीज ? साड़ी या जूते का डिब्बा यदि होता, तब तो आकार में कुछ और बड़ा होता, लंबा-चौड़ा होता, आदि-आदि।

किंतु फिर आज इस समय वे सब कहीं चले गए ? साहब मुँह उदास किए चिंतित खड़े हैं । गृहिणी को वचन दे आए थे कि कार लेकर जल्दी ही घर लौट आएँगे, तब दोनों जने मिलकर सिनेमा देखने जाएँगे ।

अब यदि इसीतरह बीच रास्ते कार पड़ी रह जाए ? अत्यंत चिंतित हो साहब नई सिगरेट सुलगाते हैं। नहीं, साहब नहीं जानते कि इस खरी दुपहरी में एक प्रगल्भ पुरवा हवा बह चली है। कार्तिक का महीना है। इस समय पुरवा हवा चलने की संभावना नहीं होती। किंतु कहते हैं न कि हवा की मरजी। कब किस दिशा की ओर बहेगी, कई बार उसका कोई ठीक ठिकाना नहीं होता ।

इससमय दरअसल हुआ क्या? यही पुरवा हवा एक आश्चर्यजनक सुवास उड़ाती ला रही थी। पहले तो वे – हूदा, भोंदा आदि समझ ही नहीं सके, यह किस वस्तु की मीठी मदमस्त कर देनेवाली सुगंध है। बाद में वे समझ पाए कि पूड़ी - कचौड़ियों के पकने की सुगंध है, मानो विशुद्ध गाय के घी में तल- तलकर हजारों-हजारों पूड़ियाँ कहीं पकाई जा रही हैं। तुरंत उन्हें याद आया कि बहुत दिन हुए उन सभी ने पूड़ी नहीं खाई। ‘कभी खाई भी हैं ' - यह भी याद नहीं कर सके। केवल सुना है। गरम-गरम पूड़ियाँ ! गरम हलुवा ! पूड़ी और मांस । पूड़ी और मछली की कलिया !

ऐसी वेला में आश्चर्यजनक घटना हुई। सोचने के साथ-साथ ही उनकी जीभ पर पानी आ गया । लार टपकने लगी और साथ-ही-साथ उन्हें प्रचंड भूख लग गई। भूख क्या लगी, मानो पेट में धू-धू कर आग जलने लगी। जलन का यह अहसास एकदम नया है । ऐसा और कभी नहीं हुआ। कितने ही लोगों को कितनी ही वस्तुएँ खाते वे देखते हैं। कितने ही मनुष्य अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थ खरीदकर ले जाते हैं, बराबर वे देखते हैं। सारा-का-सारा दिन वे रास्ते पर ही तो घूमते हैं। एक-एक दुकान पर न जाने पर ही तो घूमते हैं। एक-एक दुकान पर न जाने कितने प्रकार की खाने की चीजें सजी रहती हैं। उन्हें देखकर भी उनकी जीभ पर पानी नहीं आता। पेट में इस तरह की आग भी नहीं जलती । वे अपना मनमाना खेल खेलते रहते हैं। नंगे होकर हाइड्रांट के पानी में नहाते रहते हैं। इसके उसके शरीर पर पानी छिड़कते हैं, कीचड़ छिड़कते हैं और ही ही हँसते हैं। जिस तरह थोड़ी देर पहले एशफेल्ट के ऊपर कबड्डी खेल रहे थे।

हठात् सबकुछ उलट-पलट गया। सारा खेल थम गया। एक साथ ही सभी खड़े हो गए। जिस दिशा से सुगंध आ रही थी, उसी पूरब की ओर मुख घुमाकर खड़े हो गए। उनका साथी कुत्ता, जिसका नाम लालू है, उनकी देखा- देखी वह भी पूरब दिशा की ओर मुँह उठाकर भौंकने लगा था । अर्थात् इशारे से उसने बताया कि उसने भी वह गंध पाई है। लगता है, कुछ अधिक ही टेर पाई है; क्योंकि कुत्ते की प्राण-शक्ति अति प्रबल होती है। फिर एक सेकंड बाद ही लालू ने गरदन घुमाकर इन सभी अपने साथियों की ओर देखा, तत्पश्चात् पूरब की ओर दौड़ने लगा । लालू का इशारा नेनू, घेनू, हूदा, भोंदा आदि को समझने को कुछ बाकी नहीं रहा। उन सभी ने भी तुरंत लालू के पीछे-पीछे दौड़ना शुरू कर दिया। लगभग चौथाई मील दूर तक एक साँस में दौड़ते हुए जाते-जाते वे एक अत्यंत चाकचिक्यपूर्ण भवन के सामने खड़े हुए। भवन के सामने के प्रांगण में एक विशाल मंडप छाया हुआ है। अनेक लोग दल-के-दल उसमें प्रवेश कर रहे हैं। कतार - की - कतार मोटरगाड़ियाँ खड़ी हैं। गाड़ियों से साहब लोग उतर रहे हैं, उनकी धर्मपत्नियाँ उतर रही हैं, उनके बालक-बालिकाएँ उतर रहे हैं, फिर फाटक को पार करते हुए अंदर चले जा रहे हैं।

जान पड़ता है, सभी निमंत्रित हो भोजन करने आए हैं। क्या विवाह है ? जनवासा है ? यज्ञोपवीत है या श्राद्ध ? - कुछ तो निश्चय ही है। ऐसा न होने पर क्या इतने लोग खाने आते ? इतने सुंदर व्यंजनों की मदमाती सुगंध फैलती ? घेनू, नेनू, होंदा, भोंदा ने केवल पूड़ी-सब्जी की ही नहीं, अपितु मछली के विविध व्यंजनों, गोभी की रसदार तरकारी, चने की दाल, मछली और मांस की कलिया, पुलाव, चटनी तथा दही, रबड़ी, रसगुल्ला आदि की भुरभुरी गंध अनुभव की। लालू ने सबका पहले पता पाया। लंबी जीभ निकालकर वह होंठ पोंछ रहा था । उसे देख वे सब भी होंठ चाटने लगे। उनकी जठराग्नि पुनः नए रूप में धू-धू जल उठी। लालू की देखा-देखी सभी फाटक से सटकर खड़े होने गए। तभी दरबान एवं नौकर-चाकर 'हे हे' करके उन्हें खदेड़ने दौड़े।

"ऐ, इधर मत आओ, इधर नहीं, हटो, जाओ भागो।"

डरकर सभी पीछे हट गए। थोड़ी देर बाद फिर वे फाटक की ओर बढ़े। नौकर-चाकर पुनः दौड़े आए, "फिर तुम सब आ गए यहाँ, यदि कुछ खाना चाहते हो, कुछ पाने की इच्छा है तो घर के सामने से दूर हटकर खड़े हो, नहीं तो मारते-मारते ठंडा कर देंगे।"

नौकरों की फटकार सुनकर फिर वे उस ओर बढ़ने का साहस नहीं कर सके। कुछ देर तक रास्ते के उस ओर खड़े रहने के बाद वे सोच-विचारकर भवन के पीछे हट आए।

किंतु यह उनकी मौलिक सूझ नहीं थी। लालू ही उन्हें इधर रास्ता दिखाते ले आया था। अब तो भोंदा इत्यादि की आँखें ही जैसे फटी की फटी रह गईं। उन्होंने देखा, जूठे पुरवों, परइयों, (मिट्टी की तश्तरियों) और केले के पत्तों का पहाड़ जम गया है। ऐसा लगा, जैसे कई हजार आदमी अब तक खाना खा चुके हैं। अलावा इसके और भी खाएँगे। फाटक के सामने कारों पर कारें आकर रुक रही हैं। दल-के-दल साहब लोग, उनकी पत्नियाँ और बेटे- बेटियाँ गाड़ी से उतर रहे हैं। जो भी हो, जूठे पत्तल और मिट्टी के बरतन चाटने वे यहाँ नहीं आए हैं। उन्हें जरूर कुछ इंतजार करना होगा। दो-दो बार भगाए जाने पर भी अंततः नौकरों से यह आश्वासन मिला है कि अंत में उन्हें भी कुछ खाने को दिया जाएगा। साहब लोगों की तरह वे भी पूड़ी-सोहारी, मांस, पुलाव और कलिया का कुछ भाग पाएँगे। संभव है, कुछ कम पाएँ । फिर भी बिना मुँह जुठारे उन्हें लौटाया नहीं जाएगा। थोड़ा कम खाना पाने पर भी वे संतुष्ट हो जाते हैं।

किंतु इधर की जगह कैसी अँधेरी - सी है । होगी ही । केवल एक ही घर तो नहीं है । कम-से-कम दसों घर आसमान में गला ऊँचा उठाए खड़े हैं और इन कई घरों का यह पिछवाड़ा है। सभी घरों का जंजाल यहाँ आकर जमा हुआ है।

'कुछ वे पाएँगे अवश्य ।' भोंदा इत्यादि ने सोचा। उनका पाना उचित ही है। वे कोई बाहर के आदमी तो हैं नहीं । समझें तो इस मुहल्ले के लड़के हैं। साहब लोग, मालकिनें, उनके घर के बच्चे-बच्चियाँ, उनके सगे-संबंधी एवं साथी; भोंदा, हूदा के दल को रात-दिन रास्ता - घाट में देखते रहे हैं। चौबीस घंटे सड़क पर ही वे खेलते-कूदते रहते हैं। लालू भी बराबर इस मुहल्ले में घूमता रहता है। अतएव उसको भी कुछ पाने की आशा है। कोई दूसरा दिन होता तो इस क्षण तक तो लालू जूठे पत्तलों में मुँह डुबो देता, किंतु आज उसने ऐसा नहीं किया। उसी ऊँचे भवन की ओर मुँह उठाए खड़े होकर निरंतर पूँछ हिलाने लगा । इस तरह काफी कुछ समय बीत गया। धैर्यपूर्वक वे इंतजार कर रहे थे। कूड़े-कचरे के जंजाल के टीले के बीच खड़े होने से कुछ बुरा लग रहा हो, ऐसी भी बात नहीं। इस मुहल्ले का अनेक जंजाल वे उलटते-पुलटते ढूँढ़ते रहते हैं । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कभी-कभी मणिमुक्ता भी पा जाते हैं, जैसे कि नेनू एक दिन एक पूरी पावरोटी पा गया था। भले ही बासी थी। सूखकर चिपक गई थी और पीठ की ओर से पूरी तरह जली हुई थी, फिर भी थी तो पूरी रोटी । घेनू एक दिन ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक टूटी हुई अंगूर की लच्छी पा गया था, केवल कमी यही थी कि उसमें दाग लग गया था, नहीं तो अंगूर अच्छा ही था । हूदा एक बार बीयर की खाली एक बोतल पा गया, कितनी चमकदार थी वह देखने में ! विशुद्ध विलायती बोतल थी। दो दिन अपने पास रख लेने के बाद बोतलवाले को बेच देने पर हुदा ने पाँच पैसे पाए। क्या कोई कम लाभ हुआ ? उस दिन तो भोंदा एक प्लास्टिक की उतनी बड़ी गुड़िया पा गया। मुँह और पेट जरूर कुछ पिचक गए थे। इतने पर भी कितनी बड़ी गुड़िया थी ! इस प्रकार अनेक बार अनेक चीजें वे पा जाते हैं। बेंदा एक दिन स्प्रिंग कटी हुई टिन की मोटरगाड़ी (खिलौना) गंदगी का ढेर खोदते समय पा गया। किंतु सबसे ज्यादा अच्छी चीज मिली थी बेंदा के भाई मेंदा को । एक चेन लगी हुई गंजी! वैसे यहाँ-वहाँ कई जगह चूहे ने काट दिया था। इससे भी कोई हानि नहीं हुई । लगातार छह महीने तक में दा उस टकाटक लाल गंजी को पहन सका था । यद्यपि उसके शरीर के नाप से कुछ बड़ी थी। फिर भी ऐसी एक गंजी वह और कहाँ पाता ? कौन उसे देता ? इसी वजह से इस आशा में कि कुछ-न-कुछ वे पा जाएँगे, वे बराबर गंदगी के जंजाल को कुरेदते रहते हैं।

निश्चय ही आज का जंजाल केवल जूठे केले के पत्तलों और मिट्टी के गिलास, पुरवों आदि का है। उसमें कुरेदने लायक कुछ नहीं है। एक और भी विशेष बात है। भोजन की सुगंध एक वस्तु है और उच्छिष्ट- जूठन की गंध दूसरी वस्तु है। पत्तों पर लगी हुई कटी-फटी पूड़ियाँ, मांस का झोल, मछली के काँटे, चटनी, दही इत्यादि इतनी ही देर में जैसे सड़े से हो गए हैं और अत्यंत कुत्सित खट्टी शराब की दुर्गंध छोड़ रहे हैं।

इतना होने पर वे इस दुर्गंधपूर्ण आवर्जना के नाक के सामने होने पर भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस बीच कम-से-कम कई हजार कौए उड़ते हुए आकर जूठन के इस पहाड़ पर बैठ यह वह टटोलते हुए ठोंक- ठोंक खा रहे हैं। बहुत ज्यादा भोजन सामने छिंटा पड़ा था, इसी से कौओं के दल का भोजन समाप्त नहीं हो पा रहा था । जितना वे खा रहे हैं, उससे अधिक काँव-काँव चिल्ला रहे हैं। उनकी आवाज क्रमशः बढ़ रही थी। फलतः उत्सव मनानेवाले घर की बातें, चिल्ल-पों अच्छी तरह सुनाई नहीं पड़ रही थी, समझ में कुछ नहीं आ रहा था। इन आवारा बच्चों के एक- एक व्यक्ति के आठ, दस, बारह, तेरह वर्ष के जीवन में इस प्रकार के जंजाल के सामने खड़े होकर कौओं और कुत्तों का चिल्लाना सुनने का अवसर कोई कम नहीं पड़ा था । जहाँ भी जंजाल होगा, वहीं कौए और कुत्ते होंगे ही। इस शहर में तो है ही, पृथ्वी पर सर्वत्र ऐसा ही नियम है।

जो भी हो, एक ही स्थिति में, एक ही स्थान पर खड़े-खड़े दस पंद्रह, बीस मिनट - आधा घंटा बीत गया। उसके बाद भी वे खड़े रहे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अंततः उन्हें कुछ मिलना भी है कि नहीं ? इधर भूख के मारे पेट की शिरा - शिरा मुख में आ जाने के उपक्रम में थी। इसके साथ ही सभी की उल्टी आने, माथा दर्द करने, आँख के सामने अँधेरे छाने जैसी अवस्था हो गई। वे इस विषय पर सोचने-विचारने लगे कि पुनः घूम-फिरकर वे फाटक के सामने जा खड़े हों या नहीं ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। नौकरों के दाँत किटकिटाने और दरबानों की लाठी का दृश्य याद आते ही वे अपने इस उत्साह से निरस्त हो गए। वे इस निर्णय पर पहुँचे कि यही बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य होगा कि हम जहाँ हैं, वहीं रहकर प्रतीक्षा करें।

वाह-वाह ! यहाँ ठहरे रहने से भी उन्हें लाभ हुआ ही। अन्यथा साहब लोगों के घर की यह सब कीर्तियाँ देखने का अवसर वे पाते नहीं। पूड़ी के बदले जलते हुए सिगरेट का टुकड़ा उनकी खाली देह पर गिरा । यह देख वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। इतनी बड़ी इमारत में क्या राखदानी का अभाव है ? उन्होंने सोचा, 'हो भी सकता है, निमंत्रण खाने के लिए अनेक साहब लोग एक ही जगह पर इकट्ठा हुए हैं। मकान मालिक कितनी राखदानी इकट्ठी करेगा ?'

अतएव, साहब लोगों ने सोचा होगा कि रेलिंग से उछालकर जलते सिगरेट का टुकड़ा इधर के जंजाल की ओर फेंक देना बुद्धिमानी का कार्य होगा। भले ही साहब लोगों ने ऐसा मान लिया हो, किंतु साहब लोगों की गृहिणियाँ क्या कर रही थीं ? निमंत्रित करनेवाले इस प्रासाद में अनेक महिलाओं की भीड़ हो गई थी। लगता है, गले तक पूड़ी - मांस- दही और रसगुल्ला ठसाठस भरकर वे लगातार पान चबा रही थीं और थोड़ी-थोड़ी देर पर प्रासाद के पिछवाड़े की ओर के बरामदे में आकर जर्दा - सुरती और पान की पीक उगल रही थीं। पान की सुट्ठी नीचे फेंक रही थीं। सिगरेट के जलते टुकड़ों की आग से नानू के कंधे और बेंदा के पीठ के चमड़े पर फफोले पड़ गए। इस बार पान की पीक पड़ने से भोंदा के सिर के सारे बाल और अचानक ऊपर मुँह उठाकर देखते समय मेंदा के कपाल, गाल सभी लाल हो गए। देखने से ऐसा लगा, जैसे एक साथ ही तीन-तीन पिचकारियों से छूटता हुआ रंग आकर उन दोनों के शरीर पर पड़ गया हो ! इसके अतिरिक्त और होता ही क्या ? वस्तुतः तीन-चार गृहिणियाँ एक साथ ही पान की पीक और सुट्ठी फेंकती चली गईं, हालाँकि वे अच्छी तरह देख रही थीं कि नीचे बच्चों का एक झुंड इकट्ठा खड़ा है।

फिर भी इन आवारा बच्चों ने कोई गुस्सा नहीं किया। शुरू में थोड़ी देर वे अवाक् रह गए, उसके बाद फिर अवाक् भी नहीं हुए, बल्कि एक-दूसरे के मुँह की ओर देखकर बिना शब्द किए हँस रहे थे। उसके बाद भी और जो कांड घटित हुआ— अत्यंत अविश्वसनीय प्रकरण - भला, ऐसा किसी से कहा जाता है ? उनकी ही उम्र के दस- बारह वर्ष के बड़े-बड़े लड़के- जैसे कि उस प्रासाद में मूत्रालय का अभाव हो - इस ओर के बरामद में दौड़ते आकर पटापट पैंट की बटन खोलकर रेलिंग के छिद्रों से छपाछप पेशाब करने लगे। जानबूझकर भोंदा आदि का मुँह, कपाल लक्ष्य कर पेशाब किया। एक बार कर चुकने पर भी उनका मन नहीं भरा। दो बार, तीन बार, बार-बार घूम-घूमकर आकर साहबों के लड़के पतलूनों की बटन खोल रहे थे, पेशाब कर रहे थे, मानो अत्यंत आमोद-प्रमोदपूर्ण खेल खेल रहे हों !

यह सब देख-सुनकर एक बार तो भोंदा-बेंदा आदि की इच्छा हुई कि खूब जोर से ठठाकर हँसे । यद्यपि वे हँसे नहीं । हँसकर करते भी क्या ? तो फिर क्या मन के इस परिताप से वे रोने लगें ? रोने से भी क्या होता ? जो होना था, वही हुआ। वरन् जैसा कहा गया कि एक भारी लाभ ही उन्हें हुआ। वे परस्पर एक-दूसरे का मुँह ताक रहे हैं । जैसे कि एक व्यक्ति दूसरे से प्रश्न कर रहा हो कि क्या इसलिए जब ये साहब लोग महामूल्यवान् कारों पर चढ़कर घूमते हैं तो उन्हें देखकर हम सभी को इतना आनंद आता है ? सज-सँवरकर जब मालकिनें बाहर निकलती हैं तो उन्हें छूने के लिए, उनके करीब सटने के लिए हममें इतनी अकुलाहट - व्याकुलता होती है ? और स्कूलों में पढ़नेवाले उनके फूल जैसे सुकुमार लड़के-लड़कियों को, इन सुनहले चाँदों को आँख भरकर देखने की हम में इतनी साध होती है ?

"ओ बेंदा! कुछ बोलता क्यों नहीं ? भोंदा, कुछ तो जवाब दे ।" इस समय तो भोंदा, हूदा, बेंदा, घेनू किसी के मुँह में जैसे जबान ही नहीं - सभी एकदम निःस्तब्ध | उन्हें आभास हुआ, जैसे पूड़ी-मांस आदि की भूख एकदम खत्म हो गई है। अतः घर के पिछवाड़े और खड़े रहने का अब कोई प्रयोजन नहीं रहा। घर का पिछवाड़ा छोड़ मुख्य द्वार से घूमते हुए वे सड़क पर चले आए। फिर भी वहीं से हटकर आते समय और एक बड़ी घटना घट गई। नौकरों में से किसी ने हड़बड़ाकर दो कलसा गरम पानी ऊपर से नीचे उनकी ओर फेंक दिया। किसी और की देह पर तो पड़ा नहीं, पड़ा जाकर लालू की पीठ पर । गरमागरम छौंक लगने से लालू भयानक आर्तनाद करता हुआ काँय-काँय करने लगा। किंतु अपने साथियों की चुप्पी देख लालू भी तुरंत चुप मार गया। समझ गया कि यहाँ रोने-चिल्लाने से नहीं होने का। सड़क पर आकर भोंदा आदि की देखा-देखी - कुत्ता होने पर भी लालू सबकुछ समझता है- दाँत निकाल-निकालकर सबके साथ वह भी ही - ही हँसने लगा; क्योंकि भोंदा, नेनू, घेनू की भाँति वह भी चमकते आईने के घृणित मैले पृष्ठ भाग को आज देख आया । एक ही साँस में दौड़ते हुए वे अपनी जगह लौट आए।

बिगड़ी हुई गाड़ी को पास में छोड़कर साहब बीच सड़क पर लँगड़े की तरह खड़े हैं। उन्हें देखकर साहब के मुँह पर हँसी फूटी - " तुम सब बच्चे अब तक कहाँ थे ? तुम्हारी राह देखते-देखते साँझ हो गई । " एकदम काले शरीरोंवाले भौंरों के (इस) झुंड ने कार को तुरंत घेर लिया। साहब निश्चिंत हो, दरवाजा खोलकर भीतर घुस गए। दसों हाथों के धक्के से कार गड़गड़ाते हुए चलने लगी।

'तुम सब बातें करो। गाने गाओ। दूसरे दिनों क्या बातें नहीं करते, गाना नहीं गाते ? " - कार में बैठकर साहब अत्यंत आह्लादित स्वर में बोले ।

किंतु बात करने का समय कहाँ है ? गाना भी वे किस क्षण गाएँगे? वही जो हँसी शुरू हुई थी, अभी भी वे अनर्गल ही ही हँसते जा रहे हैं।

साहब ने खिड़की के बाहर गरदन निकाली - " आज तुम सबको क्या हो गया ?" उन्हें ऐसा लगा, आज गाड़ी अधिक जोरों से दौड़ रही है। वे आज अधिक जोर लगाकर ठेल रहे हैं।

सूर्य का ताप कम हो गया है। इस समय घरों, वृक्षों, लताओं की छाया बड़ी हो गई है । छायाओं को पकड़ती हुई कार दौड़ रही है। पक्षियों की चहचहाहट बढ़ रही है। धीरे-धीरे साहब को डर लग रहा है। आगे-आगे पूँछ उठाकर लालू दौड़ रहा है। लालू के पीछे-पीछे गाड़ी लेकर ये आवारा बच्चे परस्पर ठेला-ठेली करते हुए दौड़ रहे हैं।

"अरे, गैरेज तो आ गया देख रहा हूँ।” साहब व्याकुल होकर कार के भीतर से चिल्लाते हैं, "हाँ, गैरेज आ गया।"

गैरेज पीछे छूट जाता है । वे खिक् खिक् हँस रहे हैं।

" मेरा घर आ गया । आ गया। ओ, सुनो, रुको, खड़े हो ।" साहब लगातार चिल्लाते हैं, किंतु वे उनकी बात पर ध्यान नहीं देते। रुकते नहीं, ठहरते नहीं। साहब का घर पीछे छोड़ कार लिये भाग रहे हैं।

" तुम सब मुझे कहाँ ले जा रहे हो ?" साहब आर्तनाद कर उठे, “बताओ, भला मैं भी तो सुनूँ, कहाँ जाकर तुम सब रुकोगे ?"

"लालू जहाँ ले जाए। लालू जहाँ जाकर ठहरे।" हँसते हुए उन सबने उत्तर दिया। हँसते-हँसते वे जैसे टूट-टूट पड़ रहे हों।

"तुम सबों का मतलब है क्या ? ऐ नीचों के गिरोह !" किंतु नीचों का गिरोह कोई बात नहीं करता । पतले, लक- लक हाथ-पाँव, बगुले के ठोर की तरह के मेरुदंड ! एक-एक रत्ती के इनके शरीर में जैसे इस समय असुर का बल आ गया है। साँस टानते हुए उसे ठेलते जा रहे हैं, जैसे उनके लिए एक खेल हो ! मानो कार उनके हाथों का एक खिलौना है। तोड़-फोड़कर सत्यानाश करके ही छोड़ेंगे अथवा इनका मतलब इसे सड़क के उस तरफ खड्ड के भीतर फेंक देने का है ?

“ऐ. ऐ.” साहब कूदकर कार से बाहर हो जाना चाहते हैं। उससे पहले ही कुत्ता एक ही कूद में एक भारी खड्ड को लाँघ जाता है और कार अंत में एक बहुत बड़े इमली के वृक्ष के तने से टकराकर झन-झन करती हुई थम जाती है। इसका मतलब कि विंडसील का शीशा चूर-चूर हो गया, बोनट टूट-फूट गया; साहब का सिर थोड़ा फट गया, खून बहने लगा। रुमाल से सिर बाँधकर दबाए हुए वे कार से बाहर उतरे।

"आँय, " वे हाथ-पैर झटकते हुए गरज रहे हैं, “ऐ सूअरो के झुंड ! भिखमंगों के छोकरो ! तुम सबने साँप के पाँच पैर देख लिये हैं क्या? किस वजह से तुम लोगों का दिमाग खराब हुआ है ? बोलो, तुम सबको अभी पुलिस से पकड़वाता हूँ। "

वे खड़े रह जाते हैं। कुछ बोलते नहीं । डरकर भागते भी नहीं ।

"क्या हुआ था ? सुनूँ, भूख लगी थी ? मिजाज क्यों गरमा गया तुम्हारा ?"

साहब चिल्लाते जा रहे हैं।

डबडबाई आँखों से एक बार उन सभी ने साहब को देखा, तत्पश्चात् एक साथ ही हाउ - हाउ करके रोने लगे, सभी के सभी ।

  • बंगाली/बांग्ला कहानियां और लोक कथाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां