एक गधे की आत्मकथा (उपन्यास) : कृष्ण चन्दर

Ek Gadhe Ki Aatmkatha (Novel in Hindi) : Krishen Chander

1. इसके पढ़ने से बहुतों का भला होगा

महानुभाव ! मैं न तो कोई साधु संन्यासी हूं, न कोई महात्मा-धर्मात्मा। न श्री 108 स्वामी गहम गहमानन्द का चेला हूं, न जड़ी बूटियों वाला सूफी गुरमुखसिंह मझेला हूं। न मैं वैद्य हूं, न कोई डाक्टर। न कोई फिल्म स्टार हूं, न राजनीतिज्ञ। मैं तो केवल एक गधा हूं, जिसे बचपन के दुष्कर्मों के कारण समाचार पत्र पढ़ने का घातक रोग लग गया था। होते-होते यह रोग यहां तक बढ़ा कि मैंने ईंटें ढोने का काम छोड़कर केवल समाचार-पत्र पढ़ना आरम्भ कर दिया। उन दिनों मेरा मालिक धब्बू कुम्हार था, जो बाराबंकी में रहता था। (जहां के गधे बहुत प्रसिद्ध हैं) और सैयद करामतअली शाह बार एट ला की कोठी पर ईंटें ढोने का काम करता था। सैयद करामतअली शाह लखनऊ के एक माने हुए बैरिस्टर थे, और अपने पैतृक नगर बाराबंकी में एक आलीशान कोठी स्वयं अपनी निगरानी में बनवा रहे थे। सैयद साहब को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था।

 इसलिए अपनी कोठी का जो भाग उन्होंने सबसे पहले बनवाया, वह उनकी लाइब्रेरी का हाल तथा रीडिंग-रूम था, जिसमें वह प्रातःकाल आकर बैठ जाते। वह बाहर बरामदे में कुर्सी डालकर समाचार पत्र पढ़ते और ईंटें ढोने वालों की निगरानी भी करते रहते। उन्हीं दिनों मुझे समाचार पत्र पढ़ने का चस्का पड़ा। होता अधिकतर यों था कि इधर मैंने एक उठती हुई दीवार के नीचे ईंटें फेंकीं, उधर भागता हुआ रीडिंग-रूम की ओर चला गया। बैरिस्टर साहब समाचार पढ़ने में इतने लीन होते कि उन्हें मेरे आने की खबर तक न होती और मैं उनके पीछे खड़ा होकर समाचार-पत्र का अध्ययन शुरू कर देता। बढ़ते-बढ़ते यह शौक यहां तक बढ़ा कि बहुधा मैं बैरिस्टर साहब से पहले ही समाचार पत्र पढ़ने पहुँच जाता। बल्कि प्रायः ऐसा भी हुआ है कि समाचार-पत्र का पहला पन्ना मैं पढ़ रहा हूं और वह सिनेमा के विज्ञापनों वाले पन्ने मुलाहिज़ा फरमा रहे हैं। मैं कह रहा हूं-ओह ! ईडन, आइजन हावर, बुल्गानिन फिर मुलाकात करेंगे और वह कह रहे हैं-अहा !

 हज़रतगंज में दिलीप कुमार और निम्मी की नई फिल्म आ रही है। मैं कह रहा हूं-चः चः ! सिकंदरिया की हवाई दुर्घटना में बारह मुसाफिर मर गए ! और वह कह रहे हैं-बाप रे बाप ! सोने का भाव फिर बढ़ गया है। बस, इसी प्रकार हमारा यह सिलसिला चलता रहता, यहां तक कि मेरा मालिक ईंटें गिनकर और मिस्त्री के हवाले करके वापस आ जाता और मेरी पीठ पर ज़ोर से एक कोड़ा मारकर मुझे ईंटें ढोने के लिए ले जाता, लेकिन बैरिस्टर साहब मुझे कुछ न कहते। दूसरे फेरे में जब मैं वापस आता, तो वह स्वयं समाचार पत्र का अगला पन्ना उठाकर मुझे दे देते और यदि मैं पूरा पढ़ चुका होता, तो भीतर लाइब्रेरी से कोई पुस्तक निकाल लाते और ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना शुरू कर देते। यह जो मैं पढ़ना और बोलना सीख गया हूं, तो इसे सैयद साहब का ही चमत्कार समझिए या उनकी कृपादृष्टि, क्योंकि सैयद साहब को समाचार पत्र पढ़ते हुए उन पर टिप्पणी करने की बुरी आदत थी। यहां जिस स्थान पर वह कोठी बनवा रहे थे, उन्हें कोई व्यक्ति ऐसा न मिला, जिससे वह ऐसी बहस कर सकते। यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने काम में व्यस्त था।

 बस, मैं एक गधा उन्हें मिला। परन्तु इसमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। वास्तव में वह केवल बातचीत करना चाहते थे। किसी से अपने मन की बातें कहना चाहते थे। गधे की बजाय एक खरगोश भी उनकी संगति में रहता तो महापण्डित बन जाता। सैयद साहब मेरे प्रति बड़ा स्नेह प्रकट करते थे और प्रायः कहा करते थे, ‘‘अफसोस, तुम गधे हो, अगर आदमी के बच्चे होते, तो मैं तुम्हें अपना बेटा बना लेता !’’ सैयद साहब के कोई सन्तान न थी। खैर साहब ! करनी भगवान की यह हुई कि एक दिन सैयद करामतअली शाह की कोठी तैयार हो गई और मेरे मालिक को और मुझे भी वहां के काम से छुट्टी मिल गई फिर उसी रात धब्बू कुम्हार ने ताड़ी पीकर मुझे डंडे से खूब पीटा और घर से बाहर निकाल दिया और खाने के लिए घास भी न दी। मेरा दोष यह बताया कि मैं ईंटें कम ढोता था और समाचार पत्र अधिक पढ़ता था, और कहा-मुझे ईंटें ढोने वाला गधा चाहिए, समाचार पत्र पढ़ने वाला गधा नहीं चाहिए।

रात भर भूखा प्यासा मैं धब्बू कुम्हार के घर के बाहर शीत में ठिठुरता रहा। मैंने निश्चय कर लिया कि दिन निकलते ही सैयद करामतअली शाह की कोठी पर जाऊंगा और उनसे कहूंगा कि ईंटें ढोने पर नहीं तो पुस्तकें ढोने पर ही मुझे नौकर रख लीजिए। शेक्सपियर से लेकर बेढब मूज़ी तक मैंने प्रत्येक लेखक की पुस्तकें पढ़ी हैं, और जो कुछ मैं उन लेखकों के सम्बन्ध में जानता हूं, वह कोई दूसरा गधा नहीं जा सकता। मुझे पूरी आशा थी कि सैयद साहब तुरन्त मुझे रख लेंगे, लेकिन भाग्य की बात देखिए कि जब मैं सैयद साहब की कोठी पर पहुंचा तो मालूम हुआ कि रातों रात कोठी पर फसादियों ने हमला किया और सैयद करामतअली शाह को अपनी जान बचाकर पाकिस्तान भागना पड़ा।

 फसादियों में लाहौर के गंडासिंह फल विक्रेता भी थे, जिनकी लाहौरी दरवाजे के बाहर फलों की बहुत बड़ी दुकान और माडल टाउन में एक आलीशान कोठी थी। इस हिसाब से एक अलीशान कोठी उन्हें यहां भी मिलनी चाहिए थी, सो भगवान की कृपा से उन्हें सैयद करामतअली शाह की नई बनी बनायी कोठी मिल गई। जब मैं वहां पहुंचा तो गंडासिंह लाइब्रेरी की समस्त पुस्तकें एक-एक करके बाहर फेंक रहे थे और लाइब्रेरी को फलों से भर रहे थे। यह शेक्सपियर का सेट गया और तरबूज़ों का टोकरा भीतर आया ! ये गालिब के दीवान बाहर फेंके गए और महीलाबाद के आम भीतर रखे गए ! यह खलील जिबरान गए और खरबूजे आए ! थोड़े समय के बाद सब पुस्तकें बाहर थीं और सब फल भीतर। अफलातून के स्थान पर आलू बुखारे, सुकरात के स्थान पर सीताफल ! जोश के स्थान पर जामुन मोमिन के स्थान पर मोसम्बी, शेली के स्थान पर शहतूत, कीट्स के स्थान पर ककड़ियां, सुकरात के स्थान पर बादाम, कृश्न चन्दर के स्थान पर केले और ल. अहमद के स्थान पर लीमू भरे हुए थे।

 पुस्तकों की यह दुर्गत देखकर मेरी आंखों में आंसू आ गए और मैं एक-एक करके उठाकर अपनी पीठ पर लादने लगा। इतने में गंडासिंह अपनी फलों की लाइब्रेरी से बाहर निकल आए और एक नौकर से कहने लगे-इस गधे की पीठ पर सारी पुस्तकें लाद दो और एक फेरे में न जाएं तो आठ-दस फेरे करके ये सब पुस्तकें एक लारी में भरकर लखनऊ ले जाओ और नखास में बेंच डालो। अतएव गंडासिंह के नौकर ने ऐसा ही किया। मैं दिन भर पुस्तकें लाद लादकर लारी तक पहुंचाता रहा और जब शाम हो गई और अन्तिम पुस्तक भी लारी तक पहुंच गई, तब कहीं गंडासिंह के नौकर ने मुझे छोड़ा। मेरी पीठ पर उसने ज़ोर का एक कोड़ा जमाया और मुझे लात मार कर वहां से भगा दिया। मैंने सोचा-जिस शहर में पुस्तकों तथा महापण्डितों का ऐसा अनादर होता हो, वहां रहना ठीक नहीं। इसलिए मैंने वहां से प्रस्थान करने का संकल्प कर दिया। अपने शहर के दरो दीवार पर हसरत भरी निगाह डाली, घास के दो चार तिनके तोड़कर मुंह में रखे और दिल्ली की ओर चल खड़ा हुआ। सोचा दिल्ली स्वतंत्र भारत की राजधानी भी है और कला, विद्या राज्यों तथा राजनीति का केन्द्र भी। वहां किसी न किसी प्रकार गुज़ारा हो जाएगा।

2. करना प्रस्थान गधे का बाराबंकी से और जाना दिल्ली तथा वर्णन उस सुन्दर नगरी का ।

उन दिनों दिल्ली चलो का नारा प्रत्येक छोटे बड़े व्यक्ति की जबान पर था। और एक तरह से मैं भी इसी नारे से प्रभावित होकर दिल्ली जा रहा था। परन्तु यह मालूम न था कि रास्ते में क्या विपत्ति आएगी। रास्ते में एक स्थान पर मैंने देखा, एक मुसलमान बढ़ई शरअई दाढ़ी रखे हुए एक छोटी सी गठरी बगल में दबाए, एक छोटे से गांव से भागकर सड़क पर आ रहा था। मैंने सहानुभूति प्रकट करते हुए उसे अपनी पीठ पर सवार कर लिया और तेज़-तेज़ कदमों से चलने लगा, ताकि उस गांव के फसादी उसका पीछा न कर सकें। और हुआ भी यही, मैं बहुत आगे निकल गया और मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ कि चलो, मेरे कारण एक निर्दोष की जान बच गई। इतने में क्या देखता हूं कि बहुत से फसादी रास्ता रोके खड़े हैं।
एक फसादी ने हमारी ओर देखकर कहा-देखो, इस बदमाश मुसलमान को ! न जाने किस बेचारे हिन्दू का गधा चुराए लिए जा रहा है।  मुसलमान बढ़ई ने अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा, मगर किसी ने एक न सुनी। उसे फसादियों ने मौत के घाट उतार दिया। मुझे एक फसादी ने बांध लिया औए अपने घर की ओर चला।

जब हम आगे बढ़े तो रास्ते में मुसलमानों के कुछ गांव पड़ते थे। यहां पर-कुछ एक दूसरी ओर के फसादी आगे बढ़े। एक ने कहा-देखो, यह बेचारा गधा किसी मुसलमान का मालूम होता है, जिसे यह हिन्दू फसादी घेरे लिए जा रहा है। उस बेचारे ने भी अपनी जान बचाने के लिए बहुत कुछ कहा लेकिन किसी ने एक न सुनी और उसका सफाया हो गया और मैं एक मौलवी साहब के हिस्से में आया, जो मुझे उसी रस्सी से पकड़कर अपनी मस्जिद की ओर ले चले। रास्ते में मैंने मौलवी साहब के आगे बहुत अनुनय विनय की :
मैं-हज़रत ! मुझे छोड़ दीजिए।
मौलवी-यह कैसे हो सकता है ? तुम माले-गनीमत हो।

मैं-हुजूर ! मैं माले गनीमत नहीं हूं। गनीमत यह है कि मैं एक गधा हूं वरना अब तक मारा गया होता।
मौलवी-अच्छा, यह बताओ, तुम हिन्दू हो या मुसलमान ? फिर हम फैसला करेंगे।
मैं-हुजूर, न मैं हिन्दू हूं न मुसलमान। मैं तो बस एक गधा हूं और गधे का कोई मज़हब नहीं होता।
मौलवी-मेरे सवाल का ठीक-ठीक जवाब दो। मैं-ठीक ही तो कह रहा हूं। एक मुसलमान या तो हिन्दू गधा हो सकता है, लेकिन एक गधा मुसलमान या हिन्दू नहीं हो सकता।

मौलवी-तू बहुत बदमाश मालूम होता है। हम घर जाकर तुझे ठीक करेंगे। मौलवी साहब ने मुझे मस्जिद के बाहर एक खूंटे से बांध दिया और स्वयं भीतर चले गए। मैंने मौका गनीमत जाना और रस्सी तोड़कर वहां से निकल भागा। ऐसा भाग, ऐसा भागा कि मीलों तक पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब मैंने यह निश्चय कर लिया कि इन संकीर्ण हृदय व्यक्तियों के झगड़े से एक गधे का क्या सम्बन्ध ! अब मैं न किसी हिन्दू की सहायता करूंगा, न मुसलमान की अतएव अब मैं दिन भर किसी वृक्ष की घनी छाया में पड़ा रहता या किसी जंगल अथवा मैदान में घास चरता रहता और रात होने पर अपनी यात्रा शुरू कर देता। इस प्रकार चलते-चलते बड़ी मुश्किल से कहीं छह सात महीनों के बाद दिल्ली पहुंचा। दिल्ली के भूगोल का वर्णन संक्षिप्त रूप से करता हूं, ताकि दिल्ली आने वाले यात्री मेरी जानकारी से पर्याप्त लाभ उठा सकें और धोखा न खाएं।

3. दिल्ली का भूगोल

इसके पूर्व में शरणार्थी, पश्चिम में शरणार्थी, दक्षिण में शरणार्थी और उत्तर में शरणार्थी बसते हैं। बीच में भारत की राजधानी है और इसमें स्थान-स्थान पर सिनेमा के अतिरिक्त नपुंसकता की विभिन्न औषधियों और शक्तिवर्धक गोलियों के विज्ञापन लगे हुए हैं, जिससे यहां की सभ्यता तथा संस्कृति की महानता का अनुभव होता है। एक बार मैं चांदनी चौक से गुज़र रहा था कि मैंने एक सुन्दर युवती को देखा, जो तांगे में बैठी पायदान पर पांव रखे अपनी सुन्दरता के नशे में डूबी चली जा रही थी और पायदान पर विज्ञापन चिपका हुआ था, असली शक्तिवर्धक गोली इन्द्रसिंह जलेबी वाले से खरीदिए !’ मैं इस दृश्य के तीखे व्यंग्य से प्रभावित हुए बिना न रह सका और बीच चांदनी चौक में खड़ा होकर कहकहा लगाने लगा। लोग राह चलते-चलते रुक गए और एक गधे को बीच सड़क में कहकहा लगाते देखकर हंसने लगे।

 वे बेचारे मेरी धृष्ट आवाज पर हंस रहे थे और मैं उनकी धृष्ट सभ्यता पर कहकहे लगा रहा था। इतने में एक पुलिस के संतरी ने मुझे डण्डा मारकर टाउन हाल की ओर ढकेल दिया। इन लोगों को मालूम नहीं कि कभी-कभी गधे भी इन्सानों पर हंस सकते हैं।

दिल्ली में आने वालों को यह याद रखना चाहिए कि दिल्ली में प्रवेश करने के बहुत से दरवाज़े हैं। दिल्ली दरवाज़ा, अजमेरी दरवाज़ा, तुर्कमान दरवाज़ा इत्यादि। परन्तु आप दिल्ली में इनमें से किसी दरवाज़े के रास्ते भीतर नहीं आ सकते। क्योंकि इन दरवाज़ों के भीतर प्रायः गायें, भैंसें, बैल बैठे रहते हैं या फिर पुलिसवाले चारपाइयां बिछाए ऊंघते रहते हैं। हां, इन दरवाज़ों के दायें-बायें बहुत सी सड़के बनी हुई हैं, जिन पर चलकर आप दिल्ली में प्रवेश कर सकते हैं। अंग्रेजों ने दिल्ली में भी एक इंडिया गेट बनाया है, लेकिन इस गेट से भी गुज़रने का कोई रास्ता नहीं है। दरवाजे के ईर्द-गिर्द घूम-फिरकर जाना पड़ता है। संभव है, दिल्ली के घरों में भी थोड़े दिनों में ऐसे दरवाज़े लग जाएं; फिर लोग खिड़कियों में से कूदकर घरों में प्रवेश किया करेंगे।

दिल्ली में नई दिल्ली है और नई दिल्ली में कनाटप्लेस है। कनाटप्लेस बड़ी सुन्दर जगह है। शाम के समय मैंने देखा कि लोग लोहे के गधों पर सवार होकर इसकी गोल सड़कों पर घूम रहे हैं। यह लोहे का गधा हमसे तेज़ भाग सकता है, परन्तु हमारी तरह आवाज़ नहीं निकाल सकता। यहां पर मैंने बहुत से लोगों को भेड़ की खाल के बालों के कपड़े पहने हुए देखा है। स्त्रियां अपने मुँह और नाखून रंगती हैं, और अपने बालों को इस प्रकार ऊंचा करके बांधती हैं कि दूर से वे बिल्कुल गधे के कान मालूम होते हैं। अर्थात् इन लोगों को गधे बनने का कितना शौक है, यह आज मालूम हुआ।
कनाटप्लेस से टहलता हुआ मैं इंडिया गेट चला गया। यहां चारों ओर बड़ी सुन्दर घास बिछी थी और उसकी दूब तो अत्यंत स्वादिष्ट थी। मैं दो तीन दिन से भूखा तो था ही, बड़े मजे से मुंह मार-मारकर चरने लगा। इतने में एक ज़ोर का डंडा मेरी पीठ पर पड़ा। मैंने घबराकर देखा, एक पुलिस का सिपाही क्रोध भरे स्वर में कह रहा था:
‘‘यह कमबख्त गधा यहां कैसे घुस आया ?’’

मैंने पलटकर कहा, ‘‘क्यों भाई, क्या गधों को नई दिल्ली में आने की मनाही है ?’’
मुझे बोलता देखकर वह सटपटा गया। शायद उसने आज तक किसी गधे को बोलते नहीं सुना था। फटी-फटी आंखों से मेरी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसका आश्चर्य कुछ कम हुआ, तो मुझे रस्सी में खींचकर थाने ले चला। थाने में ले जाकर उसने मुझे कान्स्टेबल के सामने जा खड़ा किया।
हेड कान्स्टेबल ने बड़े आश्चर्य से उसकी ओर देखकर कहा, ‘‘इसे यहां क्यों लाए हो, रामसिंह ?’’
रामसिंह ने कहा, हुजूर ! यह एक गधा है।’’
‘‘गधा तो है, यह तो मैं भी देख रहा हूं, मगर तुम इसे यहां क्यों लाए हो ?’’
‘‘हुजूर, यह इंडिया गेट पर घास चर रहा था।’’

‘‘अरे, घास चर रहा था तो क्या हुआ ! तुम्हारी बुद्धि तो कहीं घास चरने नहीं चली गई ? इसे यहां क्यों लाए ? लेकर जाकर कांजी हाउस में बंद कर देते। इस बेज़बान जानवर को थाने में लाने की क्या ज़रूरत थी।’’
रामसिंह ने रुकते-रुकते मेरी ओर विजयी दृष्टि से देखकर कहा, ‘‘हुजूर यह बेजबान नहीं है, यह बोलता है !’’ अबकी हेड कान्स्टेबल बहुत हैरान हुआ, लेकिन पहले तो उसे विश्वास न आया; फिर बोला, ‘‘रामसिंह तुम्हारा दिमाग तो ठीक है।’’
‘‘नहीं, यह बिलकुल ठीक कहता है, हेड कान्स्टेबल साहिब !’’ मैंने धीरे से सिर हिलाकर कहा।

हेड कान्स्टेबल अपनी सीट से उछला, मानो उसने कोई भूत देख लिया हो। वास्तव में उसका आश्चर्य अनुचित भी नहीं था, क्योंकि नई दिल्ली में ऐसे तो बहुत लोग होंगे जो इन्सान होकर गधों की तरह बातें करते हों लेकिन एक ऐसा गधा, जो गधा होकर इन्सानों की सी बात करे, हेड कान्स्टेबल ने आज तक देखा सुना न था। इसलिए बेचारा चकरा गया। उसकी समझा में न आया कि क्या करे। आखिर सोच-सोचकर उसने रोजनामचा खोला और रपट दर्ज़ करने लगा।
उसने मुझसे पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम ’’
‘‘गधा।’’
‘‘बाप का नाम ?’’
‘‘गधा।’’
‘‘दादा का नाम ?’’
‘‘गधा।’’
‘‘यह क्या बकवास है ?’’ हेड कान्स्टेबल ने क्रोधपूर्वक कहा, ‘‘सबका एक ही नाम है ! यह कैसे हो सकता है। अब मुझे देखो, मेरा नाम ज्योतिसिंह है।
मेरे बाप का नाम प्यारेलाल था। मेरे दादा का नाम जीवनदास था। हमारे यहां नाम बदलते रहते हैं। तुम ज़रूर झूठ बोलते हो।’’

ज्योतिसिंह मुझे सुन्देह की नज़रों से देखने लगा।
मैंने कहा, ‘‘हुजूर ! मैं झूठ नहीं बोलता, सच कहता हूं कि हमारे यहां नाम नहीं बदलते। जो बाप का नाम होता है, वही बेटे का, वही पोते का।’’
‘‘इसके क्या लाभ ?’’ ज्योतिसिंह ने पूछा।
‘‘इससे वंशावली मिलाने में सुविधा होती है। उदाहरणस्वरूप क्या आप मुझे अपने परदादा के परदादा का नाम बता सकते हैं ?’’ मैंने ज्योतिसिंह से पूछा।

‘‘नहीं।’’ ज्योतिसिंह ने अफसोस प्रकट किया।
‘‘मगर मैं बता सकता हूं। आपके यहां वह आदमी बड़ा खानदानी समझा जाता है, जो आप से चार सौ, छह सौ आठ सौ, सोलह सौ साल पहले के अपने पुरखे का नाम बता सके। देखिए, मैं आपको आज से सोलह सौ क्या, सोलह लाख साल पहले के अपने पुरखे का नाम बता बताता हूं-श्री गधा ! बोलिए, फिर क्या हम गधे आपसे बेहतर खानदान के हुए या नहीं ?’’
ज्योतिसिंह ने बड़े ध्यान से मेरी ओर देखा। उसका सन्देह और बढ़ गया। उसने धीमे स्वर में रामसिंह के कान में कानाफूसी करते हुए कहा, ‘‘मुझे यह शख्स बड़ा खतरनाक मालूम होता है। हो न हो, यह कोई विदेशी जासूस है, जो गधे के लिबास में नई दिल्ली के चक्कर लगा रहा है !’’

रामसिंह ने कहा, ‘‘हुजूर ! मैं तो समझता हूं, इसकी खाल उतरवा कर देखना चाहिए, भीतर से खुफिया जासूस निकल आएगा। फिर हम इसे फौरन गिरफ्तार कर लेंगे।’’
ज्योतिसिंह ने कहा, ‘‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो। लेकिन इसके लिए सब इन्सपेक्टर चाननराम की आज्ञा लेना बहुत जरूरी है। चलो, इसे उनके सामने ले चलें।’’
मेरे कान में भी कुछ भनक पड़ गई थी, लेकिन मैं कान लपेटे चुप रहा और उन दोनों के साथ भीतर के कमरे में सब इन्सपेक्टर चाननराम के सामने चला। चाननराम की मूंछें बिच्छू के डंक की तरह खड़ी थीं और उसका सुर्ख चेहरा हर समय तमतमाया रहता था। चाननराम को आज तक किसी ने हंसते या मुस्कराते हुए नहीं देखा था, इसलिए लोग उसे एक योग्य पुलिस अफसर समझते थे। चाननराम ने उनकी पूरी बात सुनकर मेरी ओर घूरकर देखा और कहा, ‘हूं ! तो तुम पाकिस्तान के जासूस हो ?’’

मैं चुप रहा।
चाननराम ने ज़ोर से मेज में मुक्का मारकर कहा, ‘‘समझ गया, तुम रूस के एजेण्ट हो।’’
मैं फिर भी चुप रहा।
चाननराम ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘कमबख्त ! बदमाश ! कम्युनिस्ट ! मैं तुम्हारी हड्डी-पसली एक कर दूंगा, वरना जल्दी बताओ तुम कौन हो ?’’
यह कहकर चाननराम मुझे मुक्कों, लातों और ठोकरों से मारने लगा। मारते-मारते जब वह बिल्कुल बेदम हो गया तो मैंने ज़ोर से एक दर्द भरी आवाज़ की। आवाज़ करते ही वह रुक गया और पहले मेरी ओर आश्चर्य से देखकर और फिर अत्यन्त क्रोध से ज्योतिसिंह और रामसिंह की ओर देखकर बोला, ‘‘अरे, यह तो बिलकुल गधा है। और तुम कहते हो, यह कोई विदेशी जासूस है। तुम मुझसे मज़ाक करते हो, मैं अभी तुमको डिसमिस करता हूं।’
रामसिंह और ज्योतिसिंह दोनों भय से थरथर कांपने लगे। हाथ जोड़कर बोले, ‘‘हुजूर ! अभी यह बाहर के कमरे में बोल रहा था। साफ-साफ बोल रहा था ! बिलकुल इन्सानों की तरह।’’

‘‘तुमने सपना देखा होगा या काम करते-करते तुम्हारा दिमाग खराब हो गया होगा। जाओ, इस गधे को मेरे सामने से ले जाओ ओर कांजी-हाउस में बन्द कर दो। अगर तीन चार दिन में इसका मालिक न आए तो नीलाम कर देना।’’
मैं खुशी-खुशी बाहर आया। मेरी चाल काम कर गई। अगर मैं बोलता तो वे लोग निश्चय ही मेरी खाल उधेड़कर देखते कि भीतर कौन है ?
इसके बाद तीन-चार दिन तो क्या एक हफ्ते तक कोई मालिक न आया। फिर मुझे नीलाम कर दिया गया। अबके मुझे रामू धोबी ने खरीद लिया जो यमुनापार कृष्णनगर में रहता था।

4. जाना यमुनापार रामू धोबी के घर और मुलाकात करना गधे का म्युनिसिपल कमेटी के मुहर्रिर से

रामू धोबी किसी ज़माने में मोहल्ला सुईवालान में रहता था, लेकिन जब उसके बहुत से ग्राहक पाकिस्तान जा बसे और जो शेष रह गए वे इतने निर्धन हो गए कि स्वयं अपने हाथों कपड़े धोने लगे, तो रामू धोबी भी वहां से निकलकर यहां यमुनापार कृष्णनगर में आ बसा। यहां मुझे बहुत बड़ा परिश्रम करना पड़ा। रामू सुबह उठते ही कपड़ों की गठरियां मेरी पीठ पर लादकर चल देता और यमुना के किनारे पानी में खड़ा होकर ‘छुआ छू’ शुरू कर देता। दोपहर को उसकी पत्नी खाना लेकर आती थी और कुछ धुले हुए कपड़े मेरी पीठ पर लादकर लोहा करने ले जाती थी।

मैं दिन भर यमुना किनारे घास चरता रहता या पुल पर से गुज़रते लोगों को देखता रहता। दिन ढले रामू फिर मेरी पीठ पर कपड़े लादकर और स्वयं भी सवार होकर वापस घर चला आता और मुझे एक खूंटे से बांधकर, मेरे सामने घास डालकर थका हारा चारपाई पर पड़ जाता। सुबह से शाम तक कुछ इसी प्रकार जीवन व्यतीत होता था-एक खूंटे से दूसरे खूंटे तक; घर से घाट और घाट से वापस घर तक। बीच में न कोई पुस्तक आती, न ही कोई समाचार-पत्र। संसार में क्या हो रहा है ? विज्ञान किसे कहते हैं ? सिनेमा क्या होता है ?

सभ्यता तथा संस्कृति, नृत्य तथा सौन्दर्य, इन सब बातों से मेरा तथा रामू का जीवन बिल्कुल खाली था। मैं तो खैर एक गधा था, लेकिन मैं देख रहा था कि रामू और उसके घर वाले और उसके कमरे के आस-पास रहने वाले लगभग एक सा जीवन बिल्कुल मेरे जैसा जीवन व्यतीत करते थे। कितने अच्छे, अच्छे कपड़े उन लोगों के यहां से धुलने को आते थे! सुन्दर छींटे, सुकोमल फूलदार के और बादलों की तरह उड़ते हए दुपट्टे। लेकिन रामू की पत्नी या उसकी बेटी के लिए एक भी कपड़ा ऐसा नहीं था। शाम को जब जमुना से लौटते तो प्रतिदिन सड़क के किनारे एक नये बने हुए सिनेमा के बाहर दर्शकों की भीड़ देखते, लेकिन रामू केवल सिनेमा के सुन्दर विज्ञापनों को देखकर और एक आह भरकर आगे बढ़ जाता । उसका जी तो चाहता था कि प्रतिदिन सिनेमा देखे और उसके साथ-साथ दूसरे धोबियों का भी यही जी चाहता था लेकिन जब वे अपनी जेब में इतने पैसे देखते कि या तो टिकट आ जाए या आटा, तो विवश होकर आटा ले आते। कभी-कभी कोई मनचला आटा छोड़कर सिनेमा का टिकट खरीद लेता तो उस दिन घर में बड़ा हंगामा होता था। एक बार रामू ने भी ऐसा ही किया था। उस दिन न केवल उसने ताड़ी पी बल्कि सिनेमा का टिकट भी खरीद लिया। वह मुझे अपने एक मित्र तांगे वाले के हवाले करके भीतर चला गया था।

सिनेमा हाल के बाहर तीन चार तांगे खड़े थे, जिनके घोड़े हिनहिनाकर एकदूसरे से बातचीत कर रहे थे, एक घोड़ा, जिसका रंग मुश्की था और माथा सफेद और जो किसी प्राइवेट तांगे का घोड़ा था और इसलिए जरा अभिमानी दिखाई देता था; दुसरे तांगे के घोड़े से कह रहा था, "मेरा मालिक मार-धाड़ की फिल्में बहुत पसन्द करता है। ऐसी फिल्म देखकर जब बाहर निकलता है तो खूब जोरों से तांगा चलाने लगता है। मुझे याद है, एक बार सिनेमा से वापस आते हुए उसने भरे बाजार में मुझे सरपट दौड़ाना शुरू कर दिया, जैसा कि उसने फिल्म में देखा था। कई आदमी घायल हो गये थे और एक बच्चा अस्पताल में मर भी गया था। लेकिन मेरा मालिक बहत अमीर है। किसी न किसी तरह उसने साबित कर दिया कि वह शराब के नशे में धुत था, इसलिए केवल जुर्माना देकर छूट गया।" "दूसरा घोड़ा बोला, "मेरे तांगे पर दो औरतें आई हैं। वे केवल यह देखने आई हैं कि मधुबाला ने कौन-से फैशन के कपड़े पहने हैं। बल्कि एक औरत ने तो अपने बटुवे में से पेंसिल और कागज निकालकर दूसरी औरत को दिखाया कि वह किस तरह हाल के अन्दर बैठे-बैठे मधुबाला के नये पहनावे का नमूना उतारेगी।"

तीसरा घोड़ा बोला, "मेरा मालिक बड़ा इज्जतदार है। वह हफ्ते में एक दिन यहां अपनी प्रेमिका को, जो एक गरीब कपड़ा रंगने वाले की बीवी है, सिनेमा दिखाने लाता है। वह अगर चाहे तो उसे नई दिल्ली के अच्छे से अच्छे सिनेमा में ले जा सकता है। मगर उसे अपनी इज्जत का बहुत ख्याल है।" मैंने झिझककर (क्योंकि वे बड़ी ऊंची जाति के घोड़े थे) मगर जरा साहस करके उन घोड़ों की बातचीत में भाग लेते हुए पूछ ही लिया, “क्यों जी, यह सिनेमा क्या होता है?"

मेरा प्रश्न सुनकर उन तीनों घोड़ों ने बड़ी घृणा से मेरी ओर देखा, जैसे कहना चाहते हो- 'गधा ही है न आखिर इसके दूसरे ही क्षण वे तीनों हिनहिनाकर हंस पड़े और मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना फिर अपनी बातों में लीन हो गए।

मुश्की घोड़े ने घण्टी की आवाज सुनकर कहा, “इण्टरवल हो रहा है शायद।"
जब सिनेमा समाप्त हो गया तो रामू धोबी ताड़ी के नशे में बेसुध मेरी पीठ पर लदा हआ उसी नई फिल्म के गीत गाता हआ, जो अभी-अभी उसने देखी थी, घर की ओर चला। इससे पहले वह मुझे घर का रास्ता बताता था; आज मुझे बताना पड़ा। कई बार तो रामू गिरते-गिरते बचा। आखिर किसी न किसी प्रकार मैं उसे सम्भालकर घर ले गया, जहां उसकी यह हालत देखकर उसकी पत्नी ने उसकी खूब मरम्मत की, क्योंकि रामू की फिजूलखर्ची के कारण आज घर में चूल्हा नहीं सुलगा था और बच्चे भूख से बिलख-बिलखकर सो गये थे। पति-पत्नी में खूब लड़ाई हुई।

पत्नी कह रही थी, "तुमने ताड़ी क्यों पी? सिनेमा क्यों देखा? जानते नहीं थे, यह सब कुछ करोगे तो घर में चूल्हा नहीं जलेगा?" और रामू हाथ हिलाहिलाकर, सिर झुका-झुकाकर कह रहा था, “खूब जानता था मगर मजबूर था। दिमाग में हर रोज कपड़े इस तरह छुआ-छू करते हैं कि मालूम होता है, दिमाग इनके शोर से फट जाएगा। ऐसे वक्त में ताड़ी पीने को जी चाहता है, ताकि वह शोर सुनाई न दे। सिनेमा क्या हर रोज देखता हूँ? कसम ले लो, आज छः महीने बाद गया हूं-बिल्कुल मजबूर होकर। जी चाहता था। इस गन्दी गली की मोरियों की बू सूंघते-सूंघते परेशान हो गया, इसलिए वहां चला गया। क्या बुरा किया? वहां एक सुन्दर घर देखा। सुन्दर कपड़े, सुन्दर नाच, साफ-सुथरे बच्चे। औरतें ऐसी जो हमारे मुहल्ले में तो नजर ही नहीं आती।" रामू की पत्नी ने जोर से एक धप जमाई, "मुआ! घर भर को भूखा रखकर तमाशा देखता है।"

रामूने कहा, "मैं भी तो भूखा रहा हूं। सच कहता हूं, पेट की भूख बुरी बला है। लेकिन कभी-कभी कोई दूसरी भूख भी ऐसी जाग पड़ती है कि रहा नहीं जाता। क्या हुआ जो धोबी हं। आखिर हूं तो इन्सान ही। पेट की भूख के सिवा और भी भूख लगती है; ऐसी कि मन भीतर ही भीतर भट्टी की तरह सुलगने लगता है।"

उस रात मुझे घास नहीं मिली। मगर मैं स्वयं भूखा रहकर भी सोचने लगा कि रामू ठीक कहता है। रामू कोई मेरी तरह गधा तो है नहीं, जिसे केवल कपड़े ढोने और दो वक्त के चारे से ही काम हो। रामू आखिर एक इन्सान है, जिसे पेट की भूख के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की भूखों से वास्ता पड़ता है। अच्छे कपड़े की भूख, सुन्दर आकृति देखने की भूख, सुन्दर क्षितिज देखने की भूख। कई बार जमुना के किनारे घास चरते-चरते मैंने जमुना के पानी में सूरज के सोने को घुलते हुए देखा है और उसके असीम सौन्दर्य से उन्मत्त भी हुआ हूं लेकिन मैंने यह भी देखा है कि ठीक उसी समय बेचारा रामू गर्दन झुकाएँ कमर तक पानी में डूबा हुआ, उस क्षितिज के सौन्दर्य से विमुख हो कपड़ों को बराबर कूट रहा है...और उसे बिल्कुल मालूम नहीं कि उसके आस-पास सौन्दर्य का कितना बड़ा भण्डार लुटा जा रहा है। मैं एक गधा होकर इस सौन्दर्य से प्रभावित हो सकता हूं, लेकिन रामू एक मनुष्य होकर भी इससे आनन्दित नहीं हो सकता। आश्चर्य है, इस जीवन में, इस समाज में, आज भी लाखों-करोड़ों मनुष्यों के जीवन गधों से भी तुच्छ हैं।

उस रात मुझे स्वयं भूखा रहकर इस प्रकार के बहुत से ख्याल आए लेकिन इसके बाद बहुत दिनों तक वहां टिकने को न मिला। ऐसा नहीं कि मैंने बिना जाने-बूझे वहाँ से भाग जाने का प्रयत्न किया हो; हालांकि वहां मुझे बहुत कष्ट था-एक तो समाचार-पत्र पढ़ने को नहीं मिलता था; कई दिनों से किसी पुस्तक की शक्ल तक नहीं देखी थी। जमुनापार आमतौर पर जिन लोगों से वास्ता पड़ता था, वे स्वयं इतने निर्धन थे कि पुस्तकें नहीं खरीद सकते थे। बहुत से लोग मूढ और अनपढ़ थे। यहां प्रायः गाली-गलौज, झगड़ा आदि होता रहता था। धोबियों के मोहल्ले में, जहां मैं रहता था, प्रतिदिन किसी न किसी बात पर लड़ाई होती थी। क्रोध धोबी के गधे पर उतरता था या फिर अपने बीवी-बच्चों पर। दोष किसका होता था? शायद उन परिस्थितियों का, जिन्होंने अच्छे-भले मनुष्य को पशु बना दिया था। अब आप परिस्थितियों को डण्डे से तो नहीं पीट सकते। यह हिंसा होगी। तो चलिए, घर के गधे को ही पीट लीजिए। कानून आपको इसकी आज्ञा देता है। रामू के यहां, प्रत्यक्ष है, मुझ जैसे पढ़े-लिखे गधे को बहुत कष्ट झेलने पड़े। फिर भी मैंने उसका साथ नहीं छोड़ा; क्योंकि रामू एक दैयानतदार धोबी था। सुबह से शाम तक घर चलाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता था। ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ने को जी नहीं चाहता था। मगर करनी भगवान् की यह हुई कि एक दिन रामू जमुना में कपड़े धो रहा था, एक मगरमच्छ ने उसकी टाँग खींच ली। रामू ने अपने आपको छुड़ाने की बहुत कोशिश की। दोपहर का समय था। पुल के ऊपर से सैकड़ों मुसाफिर गुजर रहे थे। एक रेलगाड़ी गुजर रही थी। पुलिस के सन्तरी भी पुल के नाके पर खड़े थे। रामू ने बहुतेरा शोर मचाया, लेकिन मगरमच्छ ने एक न सुनी। वह रामू को घसीटकर गहरे पानी में ले गया।

रामू के ग्राहकों को रामू के मरने का अफसोस तो जरूर हुआ, लेकिन कपड़ों के खो जाने का उससे भी अधिक हुआ, क्योंकि रामू और मगरमच्छ की लड़ाई में बहुत-से कपड़े नदी में बह गए थे। कई एक ग्राहकों ने तो रस्मी अफसोस के तुरन्त बाद रामू की पत्नी से कपड़ों के लिए तकरार शुरू कर दी-'रामू बहुत अच्छा धोबी था, मगर हमारी 'शिफान' की साड़ी कौन-सी बुरी थी। और वह नई, साटन की सलवार जो अभी-अभी गुलजार टेलर मास्टर से सिलवाई थी, कहां है वह? जरा वह मैले कपड़ों की गठरी तो खोलो!

मुझे उन लोगों की वह हालत देखकर बहत दुःख हुआ। हम गधों में भी यदि कोई मर जाता है, तो हम उसके बीवी-बच्चों से ऐसा व्यवहार नहीं करते।

कुछ दिनों में ही रामूकी पत्नी और उसके तीन बच्चों की हालत बिगड़ गई। उसके घर में खाने को कुछ नहीं था। फाके पर फाके लग रहे थे। धोबी मोहल्ले के सरपंच ने, जो एक समय रामू की नौजवान पत्नी पर आंख रखता था, थोड़ा-सा आटा और दाल रामू के घर भिजवा दिया। शाम को वह स्वयं भी ताड़ी पीकर आ गया और रामू की पत्नी से कहने लगा कि वह उसके घर चली चले।

रामू की पत्नी ने उसे खूब फटकारा, गालियां देकर घर से निकाल दिया और सिर पकड़कर रोने लगी। मैंने उसे दिलासा देते हए कहा, "मालकिन! घबराती क्यों हो? सब ठीक हो जाएगा।"

रामू की पत्नी ने जब मुझे बोलते हुए सुना तो पहले तो उसे विश्वास न आया, पर जब मैंने वही बात दोबारा कही तो आश्चर्य से उसकी आंखें फटी की फटी रह गई, क्योंकि नई दिल्ली से आने के बाद आज तक मैंने किसी मनुष्य से उसकी बोली में बात नहीं की थी और रामू के यहां तो इस प्रकार की बातचीत का प्रश्न ही पैदा न हो सकता था। लेकिन अब, जब रामू की पत्नी ने मुझे मनुष्य की तरह बात करते हए सुना, तो बिल्कुल घबरा गई। आखिर बड़ी मुश्किल से मैंने किसी न किसी प्रकार समझाया कि इसमें कोई विशेष बात नहीं है। यह कोई चमत्कार नहीं है। विशेष परिस्थितियां थीं, जिनमें मैंने मनुष्यों की बोली सीख ली।

मैंने रामू की पत्नी से कहा, “मालकिन! बेशक मैं गधा हूं, लेकिन इतने दिनों तक तुम्हारे घर का नमक खाया है। अब तुम चिन्ता न करो। तुम घर में इन तीनों बच्चों को लेकर बैठो। मैं बाहर जाता हूं और देखता हूं, क्या हो सकता है।"

"अब क्या हो सकता है?" रामू की पत्नी ने कहा, "कोई मदद नहीं करेगा। हम गरीब आदमी है।"

“गरीब हैं तो क्या हुआ," मैंने किंचित् गौरव से कहा, "अब राज्य हमारा है। जीवन हमारा है। समाज हमारा है। अब हम स्वतन्त्र है; जो चाहे कर सकते हैं। तुम चिन्ता न करो। अवश्य ही कुछ न कुछ हो जाएगा। मैं आज ही तुम्हारी सहायता के लिए म्युनिसिपल कमेटी में प्रार्थना-पत्र लेकर जाता हूं।"

कृष्णनगर की म्युनिसिपल कमेटी का मुहर्रिर अपने एक मित्र और हेडक्लर्क के साथ मेज पर रजिस्टर रखे और रजिस्टर पर ताश के पते फैलाए विचित्र प्रकार के मूड में बैठा था। मैं धीरे से उसके पीछे जा खड़ा हुआ और धीमे से बोला, "हजूर, बड़ी मुसीबत है।"

वे लोग ताश खेलने में इतने मगन थे कि उन्होंने सब सुनी अनसुनी कर दी। केवल मुहर्रिर ने, शायद यह समझकर कि मैं उसका कोई मित्र हूं जो उसके पीछे खड़ा खेल देख-देखकर सहानुभूति प्रकट कर रहा था, मेरी ओर देखे बिना कहा, "हां भाई, देखो न अजीब मुसीबत है, कोई चाल समझ में नहीं आती। अगर यह (अपने पते की ओर संकेत करके) फेंकता हूं तो रंग कट जाएगा और अगर यह (दूसरा पता दिखाकर) चलता हूं तो इससे बड़ा पता अभी तक नहीं निकला और अगर यह (तीसरा पत्ता दिखाकर) चलता हूं...."

मैंने बात काटकर कहा, "वह रामू धोबी मर गया।" "मरने दो यार," मुहर्रिर ने क्रोध से चिल्लाकर कहा, "यहां अपना हुक्म का बादशाह मरा जा रहा है, तुम धोबी को चीख रहे हो।" फिर एकाएक वह मेरी ओर मुड़ा और अपने पीछे किसी मनुष्य की बजाय एक गधे को खड़ा पाया, तो एकदम लाल-पीला होकर चपरासी से बोला, "अब क्या गधे भी हमारे दफ्तर में घुसने लगे? निकालो इस कम्बख्त को बाहर!"

चपरासी ने डण्डा मारकर मुझे बाहर निकाल दिया। वे लोग फिर ताश खेलने लगे। मैं फिर थोड़ी देर के बाद म्यूनिसिपल कमेटी के मुहर्रिर के पास जा खड़ा हुआ। धीरे से दोनों लम्बे कान जोड़कर उसे नमस्ते की और बड़े दु:खभरे स्वर में कहा, "हजूर, वह रामू धोबी...."

मुहर्रिर ने मुड़कर मुझे देखा। वह कुछ ऐसा बदमाश आदमी था कि जो बोलते गधे से भी प्रभावित न हुआ। ऐसा मालूम होता था जैसे जीवन भर बोलते गधों ही से उसका पाला पड़ता रहा है। उसने मेरी ओर देखकर बड़े रौबीले स्वर में कहा, "जल्दी बोलो, क्या काम है?"

"निवेदन यह है माई-बाप, कि सेवक रामू धोबी का गधा है। राम धोबी तीन दिन हुए जमुना घाट पर कपड़े धोते-धोते एक मगरमच्छ के हमले का शिकार हो गया। उसकी बीवी और बच्चे भूखे हैं।"

"तो मैं क्या कर सकता हूँ?" मुहर्रिर ने चिल्लाकर कहा, "मैंने कोई अनाथालय नहीं खोल रखा!"

मैंने कहा, "हजूर, घाट पर धोबियों से टैक्स लेते हैं। पुल पर से जब कोई गधा या बैल याँ कोई और जानवर सामान उठाए गुजरता है, तो आप उससे चुंगी लेते हैं। आप इतने सारे महसूल और कस्टम वसूल करते हैं और एक गरीब धोबी के भूखे बीवी-बच्चों के लिए कोई प्रबन्ध नहीं कर सकते?"
"क्यों प्रबन्ध करें? धोबी को मगरमच्छ ने मारा है, हमने नहीं।"

"वाह! यह भी खूब रही! और वह जो आप घाट का टैक्स वसूल करते हैं, वह किसलिए? घाट-टैक्स आप वसूल करें और फिर अगर उसी घाट पर कोई धोबी किसी मगरमच्छ का शिकार हो जाए तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? हम कहां जाकर हर्जाना वसूल करेंगे, क्योंकि अगर म्युनिसिपल कमेटी घाट का टैक्स लेती है तो मगरमच्छ से बचाव का प्रबन्ध भी उसको करना पड़ेगा।"

मुहर्रिर बड़ा चालाक था। बोला, धोबियों को चाहिए, दरिया में रहकर मगरमच्छ से वैर मोल न लें, वरना उनका वही हाल होगा, जो रामू धोबी का हुआ।"
मैंने कहा, "आप बात तो उड़ाइये नहीं, साफ-साफ बताइये, आप इस मामले में क्या कर सकते हैं?"

मुहर्रिर ने देखा, मैं किसी तरह उसका पीछा छोड़ने पर तैयार नहीं, तो उसने जरा नर्म होकर कहा, "भाई, जहां यह घटना हुई है, वह इलाका हमारे इलाके में नहीं है। जमुना का घाट तो दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के पास है। दिल्ली शहर टाउनहाल में जाओ-चलो भाई पत्ता।"

वे लोग ताश खेलने में लीन हो गये और मैंने जमुनापार जाने की ठान ली।
पुल पार करते समय सन्तरी ने मुझे रोका। बोला, “ओ आवारागर्द गधे। किधर जाता है।"
"टाउनहाल।" मैंने कट से उत्तर दिया। "तेरा मालिक कहां है?" सन्तरी ने मुझे घूरकर पूछा। मैंने कहा,
“मेरा मालिक कोई नहीं है। आज से मैं आजाद हूँ।"
सन्तरी बोला, "यह कैसे हो सकता है? आजादी का मलतब यह थोड़े ही है कि मालकियत भी खत्म हो गई। तेरा कोई न कोई मालिक जरूर होगा, जिसका तू हुक्म मानता है।"
मैंने पूछा, “अच्छा बता तेरा मालिक कौन है, जिसका तू हुक्म मानता है।"
"हेड कान्स्टेबल।"
"और हेड कान्स्टेबल का मालिक कौन है?"

"इन्स्पेक्टर" सन्तरी ने बिगड़कर कहा, "और कौन हो सकता है? इन्स्पेक्टर से ऊपर डी. एस. पी., डी. एस. पी. से ऊपर सुपरिण्टेण्डेण्ट पुलिस। इस तरह यह सिलसिला वजीर तक है।"
"वजीर का मालिक कौन है?"
“वजीर को स्टेट बैंक से तनख्वाह मिलती है, इसलिए स्टेट बैंक उससे बड़ा हुआ।"
“और स्टेट बैंक से बड़ा कौन है?"
"स्टेट बैंक में रुपया होता है न," सन्तरी ने क्रोध से कहा, "इतना भी नहीं समझते, स्टेट बैंक से बड़ा रुपया हुआ।"
"अच्छा, तो रुपये से बड़ा कौन है?"

"रुपये से बड़ा कौन है?" सन्तरी ने मेरा प्रश्न सुनकर सिर खुजलाया। कुछ क्षणों तक चुप रहा, फिर मेरी ओर देखकर बोला, "रुपये से बड़ा कौन है, यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया। तुम बता सकते हो?" सन्तरी ने मुझसे पूछा।

"मैंने कहा, "मैं तो एक गधा हूँ। इस कठिन प्रश्न का उत्तर कैसे दे सकता हूँ? हां, अगर तुम मुझे टाउनहाल जाने दो-क्योंकि मैं रामू धोबी की विधवा पत्नी के सम्बन्ध में रुपये की सहायता के लिए वहां जा रहा हूँ-वहां जाकर अगर मुझे पता चल गया कि रुपये से बड़ा कौन है, तो तुम्हें वापस आकर जरूर बता दूंगा।"

"जरूर?" सन्तरी ने बड़ी अधीरता से पूछा।
“जरूर," मैंने वायदा करते हुए कहा, "मगर तुम इतने बेचैन क्यों नजर आते हो?"
सन्तरी ने कहा, “क्योंकि अगर मुझे पता चल जाए कि रुपये से बड़ा कौन है, तो मैं उसके यहां नौकरी कर लूंगा।"

"आदमी होशियार मालूम होते हो।" मैंने सन्तरी की प्रशंसा करते हए कहा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ जमुना के इस पार आ रहा। घण्टों भटकने के बाद आखिर टाउनहाल मिल ही गया। टाउनहाल के भीतर घुसते ही मैंने सोचा कि अब किसी छोटे-मोटे मुहर्रिर या क्लर्क से बातचीत करने में समय नष्ट नहीं करूंगा। सीधे चलकर कमेटी के चेयरमैन से मिल लेना चाहिए और अब के रौब डालने के लिए अंग्रेजी में बात करना ठीक होगा। यह सोचकर मैं सीधे इन्क्वायरी में घुस गया और क्लर्क से बड़ी मंजी हुई अंग्रेजी में बात करते हुए पूछा, "चेयरमैन साहब का दफ्तर किधर है?"

इन्क्वायरी क्लर्क एक गधे को अंग्रेजी बोलते देखकर भौंचक्का रह गया। तुरन्त अपनी सीट पर से उठकर खड़ा हुआ और बड़े सभ्य स्वर में बोला, "हजूरा पन्द्रह नम्बर का कमरा है। ऊपर लिफ्ट से चले जाइए।" उसने एक चपरासी मेरे साथ कर दिया। चपरासी ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा तो सही, मगर चुप रहा। चपरासी ने मुझे लिफ्टमैन के हवाले किया। लिफ्टमैन ने बड़ी शिष्टतापूर्वक लिफ्ट का दरवाजा खोला।
मैंने लिफ्ट में प्रवेश करते हए देखा, लिफ्ट के भीतर लिखा था, 'छः व्यक्तियों के लिए'। लेकिन उस समय मैं अकेला ही उसमें सफर कर रहा था। लिफ्टमैन ने बाकी आदमियों को बाहर ही रोक दिया था। जीवन में पहली बार-मुझे अनुभव हआ कि एक गधा बराबर है छः आदमियों के। लिफ्टमैन ने ऊपर जाकर लिफ्ट रोकी। मैं सीधा दुलती चलता हआ चेयरमैन के दफ्तर के बाहर पहुंच गया और बाहर बैठे चपरासी से बड़े रौबीले स्वर में बोला, "साहब से कहो, मिस्टर डंकी ऑफ बाराबंकी पधारे हैं।

5. मुलाकात करना गधे का दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के चेयरमैन से और क्रुद्ध होना चेयरमैन का और बुलाया जाना फायर बिग्रेड इंजन का

चपरासी का संकेत पाते ही मैं कमरे के भीतर चला गया और जोर से 'गुडमार्निग' झाड़ दी। मुझे भय था कि यदि हिन्दुस्तानी भाषा में बातचीत की तो बिल्कुल गधा समझा जाऊंगा। दिल्ली के दफ्तरों के संक्षिप्त अनुभव से मैं जान गया था कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी यहां अंग्रेजी भाषा का राज्य है। आप जब तक उर्दू या हिन्दी में बातचीत करते रहेंगे, दफ्तर के लोग ध्यान नहीं देंगे, लेकिन ज्योंही अंग्रेजी दांत दिखाएंगे त्योंही पलटकर आपकी बात सुनेंगे, जैसे आप सीधे ननिहाल से चले आ रहे हों; और बात सुनते समय ऐसी मोहिनी मुस्कराहट उनके चेहरे पर होगी जैसे काम आपको उनसे नहीं, उन्हें आपसे है।

चेयरमैन साहब का रंग सांवला, कद नाटा और चेहरा बड़ा गम्भीर था। उनकी आंखों से ऐसी चालाकी और दूरदर्शिता टपकती थी जो कम से कम पांच-छ: इलेक्शन लड़ने के बाद ही आंखों में आ सकती है। आदमी बड़े घाघ थे, इसलिए एक गधे को कमरे में आते देखकर केवल क्षण भर के लिए चौंके फिर तुरन्त सम्भल गए और इस प्रकार बातचीत करने लगे, जैसे आयुभर अंग्रेजी बोलने वाले गधों से ही उन्हें काम पड़ता रहा हो।

"तशरीफ रखिये।" उन्होंने मुस्कराकर कहा। मैंने कहा, “अगर मैं तशरीफ रखूंगा, तो आपकी यह आरामकुर्सी टूट जाएगी, इसलिए खड़ा ही रहूँगा।"

चेयरमैन साहब मुस्कराए क्योंकि मैंने ठीक बात कही थी। क्षणभर के बाद फिर बोले, "आपको यह स्वांग भरने की क्या जरूरत थी! आप सीधे-सादे कपड़ों में भी मेरे पास आ सकते थे।” मैंने कहा, “हुजूर यह स्वांग नहीं वास्तविकता है।"

“खैर, अपना-अपना शौक है।" चेयरमैन ने किंचित कुद्ध होकर कहा, "मैं कौन होता हूँ बोलने वाला और जब से यहां दिल्ली में एक महाशय ने दिन में लालटेन और घण्टी लेकर इलेक्शन लड़ा है, मैंने हर प्रकार का आक्षेप करना छोड़ दिया है। आप भी चाहें तो गधे का स्वरूप धरकर इलेक्शन लड़ सकते हैं। अगर इस तरह आपको अधिक वोट मिलते हैं तो क्या हानि है?"

मैंने कहा, "हजूर ! मैं कोई बहरूपिया नहीं है। सचमुच एक गधा हूं। मेरी बात का विश्वास कीजिए।"
चेयरमैन साहब को और भी विश्वास नहीं आया। बोले, “छोड़िए इन बातों को। मैं आज तक छः इलेक्शन लड़ चुका हूं और कभी हार नहीं खाई। मैं सब जानता हूं। खैर, आप बताइये आपकौन-से वार्ड से आए हैं?" "जी अभी तो कृष्णनगर घाट से आ रहा हूं।"

"तुम!" चेयरमैन ने सिर हिलाकर कहा और अपनी चंदिया के गिर्द सफेद बालों पर इस तरह हाथ फेरा, जिस तरह फिल्म 'गृहस्थी' में दुखिया बाप किसी विपत्ति में घिर जाने पर फेरता है: "तो आप कृष्णनगर वार्ड से खड़े हए हैं। अच्छा बताइये, कौन-सी पार्टी ने आपको खड़ा किया है-कांग्रेस ने, जनसंघ ने, प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी ने, कम्युनिस्टों ने मेरा मतलब यह है कि आप किस पार्टी के उम्मीदवार हैं?"

मैंने कहा, "जी, मैं तो आपकी कृपादृष्टि का उम्मीदवार हूँ।" चेयरमैन साहब मुस्कराए। समझ गए, किसी बहुत चालाक आदमी से पाला पड़ा है। बोले, “अब आप बनिए नहीं। साफ-साफ बताइए, क्या काम है? अगर मुझसे कुछ हो सका, तो जरूर करूंगा। मगर एक शर्त है। अगर आप इलेक्शन जीत गए तो चाय की पार्टी...."

“देखिए....." मैंने टोकना चाहा, लेकिन वे बोलते ही चले गए, "चाहे किसी पार्टी की ओर से जीतें, चेयरमैन के पद के लिए वोट मुझी को देना होगा। लाइए हाथ, लाला सन्तरामजी!" उन्होंने हाथ मांगा। मैंने अपना कान आगे बढ़ाया। चेयरमैन साहब ने जोर से मेरा कान दबाया तो उन्हें मालूम हुआ कि यह तो सचमुच गधे का कान है। किसी बहरूपिये का लिबास नहीं है। बहुत घबराए। सिगार उनके मंह से छूटकर मेज पर कागजों में जा गिरा। दूसरे ही क्षण कागजों में आग लग गई।

"देखिए," मैंने क्षमा याचना करते हुए कहा, “मैं तो कब से कह रहा हूं, मैं एक गधा हूँ। मगर आप मेरी सुनते ही नहीं।"
चेयरमैन ने आग बुझाते हुए क्रोधवश कहा, "मैं आपको लाला सन्तराम समझा था-कृष्णनगर का कांसी उम्मीदवार।" मैंने पूछा, "क्या मैं आपको लाला सन्तराम दिखाई देता हूं?"

वे बोले, "कुछ लोग बाहर से गधे दिखाई देते हैं, कुछ लोग भीतर से गधे होते हैं। मैंने समझा, सम्भव है, आप भीतर-बाहर दोनों ओर से गधे हों तो मुझे अपनी चेयरमैनशिप के लिए बहुत जल्दी वोट मिल जाएगा। लेकिन ओह! तुमने मेरा कितना समय नष्ट किया है!"
मैंने कहा, “आपने मेरी बात तो सुनी नहीं। मैं तो यहां रामु धोबी के गरीब बीवी-बच्चों ...."

चेयरमैन ने घण्टी बजाते हुए कहा, "इस समय तुम मुझसे कोई बात न करो, चाहे दिल्ली के सारे धोबी मर जाएं। देखते नहीं हो; कैसी आग लगी है?"

आग सचमुच भड़क रही थी। चेयरमैन ने घण्टी बजाई। जल्दी से फायर ब्रिगेड वालों को टेलीफान करवाया। मैंने भी कमरे से बाहर निकलकर, बरामदे में खड़े होकर हांक लगाई। थोड़े समय के बाद ही टन-टन की आवाजों के साथ फायर ब्रिगेड के दो इंज्जन आ पहुंचे। उन लोगों ने सबसे पहले तो मुझे वहां से लात मारकर निकाला, फिर ऑग बुझाने लगे। मैंने सोचा, यहां रहूँगा तो सम्भव है आग लगाने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाऊं। तुरन्त वहां से सरपट भागा और सीढ़ियों के नीचे आकर दम लिया क्योंकि अब लिफ्ट काम नहीं कर रही थी। नीचे आकर इन्क्वायरी में एक बूढे परन्तु अत्यन्त हितैषी क्लर्क से जान-पहचान हुई। उसे रामू की पूरी कथा सुनाई। बूढे क्लर्क की आंखों में आंसू आ गए। उसने अत्याचारी समाज, क्रूर जीवन-व्यवस्था और पूंजीवाद को लाखों गालियां सुनाने के बाद धीमे से मेरे कान में कहा, "अगर तुम दो रुपये मुझे दो तो मैं तुम्हारा प्रार्थनापत्र लिखकर पुनर्वास-विभाग के दफ्तर में सहायता के लिए भिजवाए देता हूँ ।"

मैंने कहा, "मैं तो धोबी का गधा हूँ-न घर का न घाट का। मेरे पास दो रुपये कहां? और फिर तुम जानते हो, दो रुपये में दो मन घास आती है, छः सेर बाजरा, तीन सेर चावल।"

"लेकिन दमे का एक ही इंजेक्शन आता है।" क्लर्क ने बड़ी उदासीनता से खांसते हुए कहा, “और मुझे दमे का रोग है। हर रोज एक इंजेक्शन लेना पड़ता है । बूढा क्लर्क उदासीनतापूर्वक खांसता रहा और मैं वहां से सटक आया।

6. निराश होकर लौटना गधे का म्युनिसिपल कमेटी से और जाना पुनर्वास-विभाग के दफ्तर में और मुलाकात करना एक अलौकिक सुन्दरी से

पूछते-पूछते आखिर मैं पुनर्वास के दफ्तर में पहुंच ही गया। दफ्तर में घुसते ही एक बहुत बड़ा सजा हुआ कमरा नजर आया, जिसके बीचोंबीच एक बहुत बड़ी तिपाई पर एक बड़े गुलदान में सुन्दर फूल खिले हुए थे। एक कोने में टेलीफोन एक्सचेंज लगा था, जिसके पास एक अत्यन्त सुन्दर लड़की अपने नाखून रंगने में लीन थी। टेलीफोन एक्सचेंज की मेज पर लिपिस्टिक और क्रीमपाउडर की डिबियां इस प्रकार बिखरी पड़ी थीं कि मैंने सोचा, मैं गलती से पुनर्वास के दफ्तर में आने के बजाय मैक्स फैक्टर की दुकान में घुस आया हूं। अतएव क्षमा मांगकर मैं वापस लौटने को था कि लड़की ने अपनी बड़ी-बड़ी पलकें उठाकर बड़ी प्यारी नजरों से मेरी ओर देखते हुए कहा, “यस प्लीज!"

मैंने झिझकते हुए कहा “मैं सहायता के लिए आया हूं।"
लड़की ने स्विच दबाया। टेलीफोन पर बोली, "रामलुभाया! एक आदमी तुमसे मिलने आया है।"

टेलीफोन बिगड़ा हुआ था या जाने क्या बात थी, जो कुछ भी हो, सुनने वाले और सुनाने वाले दोनों की आवाजें टेलीफोन पर स्पष्ट सुनाई दे रहीं थीं। जब लड़की ने रामलुभाया से कहा कि एक आदमी तुमसे मिलना चाहता है तो उधर से आवाज आई,"मैं इस समय लस्सी पी रहा हूँ, उसे फर्स्ट क्लर्क के पास भेज दो।"
लड़की ने अपने होंठों पर लिपिस्टिक लगाई और फर्स्ट क्लर्क को टेलीफोन किया।
"कौन?" उधर से आवाज आई। "मैं हूँ निर्मला।"
"हाय मेरी जान!" फर्स्ट क्लर्क ने उधर से मैंस की तरह आह भरी। "सुनो।" निर्मला बोली, "एक बेचारा गरीब...."

फर्स्ट क्लर्क ने कहा, "यहां सभी गरीब आते हैं। तुम सुनाओ, तुम्हारी आवाज इतनी प्यारी क्यों है? जी चाहता है, सुनता ही चला जाऊं। निर्मला! निम्मी!! आज शाम को सिनेमा...."

लड़की ने टेलीफोन बन्द कर दिया। उसके बाद उसने अपने गालों पर गाजा लगाया और अब के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट को टेलीफोन किया। डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट ने कहा "नहीं, मिस निर्मला! इस समय मेरे पास कोहार्ट के शरणार्थी सरदार दरबारासिंह, मिलिट्री काण्ट्रैक्टर बैठे हैं। बेचारों का सब कुछ लुट गया। इस समय इनके एक लाख के क्लेम की पड़ताल कर रहा हूं। उन्हें आगे किसी दूसरे के पास भेज दो। मैं तो इस समय बहुत मसरूफ हूँ।"
"बहुत अच्छा," कहकर लड़की स्विच गिराने वाली थी कि उधर से आवाज आई "हैलो निर्मला!" “जी!" "भई, वह साड़ी तुम्हें पसन्द आई?" डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट पूछ रहा था। "जी, वही पहने हुए हूं!" निर्मला जरा शोखी से बोली और स्विच गिरा दिया। उसके बाद आईने में उसने अपना मुंह देखा, मुस्कराई, चेहरे पर पाउडर लगाया और स्विच दबाकर सुपरिण्टेण्डेण्ट को टेलीफोन किया।

"जी देखिए," लड़की बोली। उधर से आवाज आई, "हाय किस तरह देखूँ तुमको। टेलीफोन पर तुमको कैसे देखें, यहां आ जाओ ना?"
निर्मला खिलखिलाकर हंस पड़ी। बोली, "एक गरीब आदमी सहायता के लिए...."

"अरे हम भी तो किसी की सहायता के पात्र हैं।" सुपरिण्टेण्डेण्ट उधर से इन्द्र-सभा के स्टाइल में बोला। निर्मला ने जरा बनकर और तनकर कहा,
"देखिए, यह दफ्तर का समय है और...."

"तुमने खूब याद दिलाया," सुपरिण्टेण्डेण्ट उधर से बोला, "अभी-अभी दफ्तर में हुक्म आया है कि दफ्तर में काम करने वाली औरतें अगर शादी करेंगी तो उन्हें किसी समय भी नौकरी से अलग किया जा सकता है। बोलो, अब क्या कहती हो?"
निर्मला बोली, "मैंने शादी का इरादा छोड़ दिया है।" उधर से सुपरिण्टेण्डेण्ट ने सन्तोष का सांस लिया। बोला, “वह फिलिप्स का रेडियो सेट...."
“जी धन्यवादा मिल गया। मगर आप दो मिनट के लिए इस गरीब से बात कर लीजिए।"
"कौन है?"
"एक गधा।"

सुपरिण्टेण्डेण्ट ने जोर का एक कहकहा लगाया, "तुम भी खूब मजाक करती हो! खैर, भेज दो उसे भीतर। अगर गधा न हुआ तो भी उसके दोनों कान खींचकर उसे गधा बना दूंगा।"

"जाइए," लड़की ने एक नाखून मुंह में दबाते हए मेरी ओर बड़ी चंचल नजरों से देखते हए कहा, कुछ इस प्रकार कि यदि गधे की बजाय मैं आदमी होता तो अवश्य ही उस पर आशिक हो जाता।

सुपरिटेंडेंट मुझे देखकर पहले तो खूब हंसा, फिर उसने टेलीफोन उठाकर निर्मला के इस क्रियात्मक मज़ाक की प्रशंसा की। फिर वह ज़रा आगे आया और मेरा कान पकड़कर बोला, "बोलिए मिस्टर डंकी ! अब मैं क्यों न आपको लात मारकर दफ्तर से बाहर निकाल दूं?" मैंने कहा, "आप मुझे नहीं निकाल सकते। इसलिए कि मैं आपके पास एक प्रार्थना-पत्र लेकर आया हूं।"

सुपरिटेंडेंट आश्चर्यवश लगभग मूर्छित हो गया। आखिर बड़ी कठिनाई से बोला, "फिर कहिए, फिर कहिए, आप क्या कह रहे हैं ?" मैंने दुहराया।

आखिर बड़ी मुश्किल से यह बात उसकी समझ में आई कि मैं सचमुच बोलता हूं। कहने लगा, "आपकी वार्ता-शैली तो मुझसे भी अच्छी है।"
"इसलिए कि मैं लखनऊ के आस-पास का हूं और आप शायद पंजाब के हैं ?"
“जी हां", सुपरिटेंडेंट बोला, "मैं पिंड दादन खां का हूँ।" कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, “फरमाइए, क्या काम है ?"
"देखिए', मैंने कहा, "मैं सहायता मांगने आया हूँ।" "आप शरणार्थी हैं" "नहीं तो।
"तो फिर आप यहां क्या करने आए हैं।"
सुपरिटेंडेंट ने ज़रा खफा होकर कहा। "सहायता के लिए आया हूं."
"यहाँ केवल शरणार्थियों की सहायता की जाती है, जो पाकिस्तान से लुट-लुटाकर आए हैं।"
"और अगर कोई हिन्दुस्तान में ही लुट जाए तो वह सहायता के लिए कहां जाए?"

“यह तो मैं नहीं बता सकता।" सुपरिटेंडेंट ने और भी खफा होकर कहा, "कम से कम इस विभाग में तो आप नहीं आ सकते, कोई और घर देखिए।"
सुपरिटेंडेंट ने घंटी बजाई। चपरासी ने मुझे बाहर निकाल दिया।
बाहर निकलते हुए फिर मुझे वही अलौकिक सुन्दरी मिल गई। मुझे निराश देखकर बोली, "क्यों, काम नहीं बना ?"
मैंने पूरी बात कह सुनाई।

बोली, “सुपरिटेंडेंट ठीक कहता है। तुम अगर पाकिस्तान से आए होते, तो चाहे गधे ही क्यों न होते, तुम्हें यहां से सहायता मिल जाती। अब तुम्हें डिपार्टमेंट ऑफ लेबर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज में जाना पड़ेगा।"
"कहां पर है ?"

उस अलौकिक सुन्दरी ने दयावश मुझे पूरा पता दे दिया और मैं धन्यवाद कहकर पुनर्वास-विभाग से निकला और लम्बे-लम्बे डग भरता मजदूरों के विभाग की ओर चला गया।

7. जाना गधे का डिपार्टमेंट ऑफ लेबर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज़ में और मुलाकात करना श्री पी. क्यू. रंगाचारी और वाई, जेड. सुब्रह्मण्यम से

पी. क्यू. रंगाचारी तमिलनाडु का रहने वाला था, संस्कृत बनारसी पण्डितों की तरह बोलता था और अंग्रेज़ी आक्सफोर्ड के प्रोफेसरों जैसी: हिन्दी, हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के जोशीले भाषणकर्ताओं की-सी और उर्दू मौलाना अबुलकलाम आज़ाद जैसी। वह दस भाषाएं जानता था और दस और सीख रहा था। उसने अपना जीवन एक साधारण क्लर्क के रूप में शुरू किया था। आज वह डिपार्टमेंट ऑफ लेबर एण्ड इण्डस्ट्रीज़ में डिप्टी सेक्रेट्री के पद पर विराजमान था। प्रत्येक मामले में मीन-मेख निकालने में वह ऐसा सिद्धहस्त था कि उसके शासनकाल में हर फाइल दस वर्ष तक विभिन्न दफ्तरों और मेज़ों के चक्कर लगाती थी, और जब तक उसकी तरक्की न हो जाए, फाइल भी आगे तरक्की नहीं कर सकती थी। अपने इसी कानूनी मीन-मेख के कारण वह डिप्टी सेक्रेट्री के पद पर पहुंचा था और अब ज्वायंट सेक्रेट्री बनने के स्वप्न देख रहा था-हो जाएगा। पी. क्यू. रंगाचारी जैसे व्यक्ति कभी नहीं रुक सकते। उनके दफ्तर की सारी फाइलें रुक जाएं लेकिन वे स्वयं कभी नहीं रुक सकते।

पी. क्यू. रंगाचारी ने बड़े ध्यान से और बड़े धैर्य से मेरा प्रार्थना-पत्र पढ़ा। कागज़ पर पेंसिल से कुछ लिखता रहा। आखिर जब सब सुन चुका तो उसने अपने मित्र ज्वायंट सेक्रेट्री वाई. जेड. सुब्रह्मण्यम् को बुलाया जो उसी की तरह तमिलनाडु का रहने वाला था और पच्चीस भाषाओं, दस पूंजीपतियों और दो मंत्रियों को बहुत अच्छी तरह जानता था।

पी. क्यू. रंगाचारी ने कहा, “वाई.जेड. ! सुनो, यह बड़ी कठिन समस्या है।"

"क्या ?" वाई.जेड. सुब्रह्मण्यम् मेरी ओर बड़े ध्यान से देखते हुए बोला। "एक धोबी मर गया है और यह उसका गधा हमसे हरजाना मांगता है।"
"फिर"

रंगाचारी बोला, "कानून की दृष्टि से एक गधा किसी विभाग में प्रार्थना-पत्र नहीं दे सकता और हम उसके प्रार्थना-पत्र का कोई नोटिस नहीं ले सकते, क्योंकि गधा इन्सान नहीं है। और अदालत इन्सानों की बात सुनती है, गधों की नहीं।"

मैंने कहा, "बात मेरी घास की नहीं है, आपकी बुद्धि की है। रामू की बीवी और बच्चे भूखे हैं। क्यों...? अगर सरकार उस धोबी-घाट की ठीक तरह से रक्षा करती तो आज वह यों न मरता।"

वाई.जेड. सुब्रह्मण्यम ने कहा, “हां, पी.क्यू., इस बात पर विचार करो। यों सोचो कि यह प्रार्थना-पत्र, जिस पर राम की बीवी का अंगूठा लगवाया जा सकता है, स्वीकार किया जा सकता है-फिर?"

पी.क्यू. बोला, "फिर दूसरी बात पर विचार करो। मान लिया कि एक गधा धोबी के कुटुम्ब का सरपरस्त बन सकता है। हमने बड़े-बड़े कुटुम्बों में इससे बड़े गधों को सरपरस्त बनते देखा है। यह तो मुझे पढ़ा-लिखा गधा मालूम होता है, लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या यह धोबी मजदूर है?"
"कदापि नहीं!"

वाई.जेड. सुब्रह्मण्यम ने सिर हिलाकर कहा। मैंने कहा, “धोबी अगर मजदूर नहीं तो क्या है? बेचारा सुबह से शाम तक आठ घण्टे की बजाय बारह घण्टे काम करता है, तब जाकर उसे दो वक्त की रोटी नसीब होती है।"

"लेबर एक्ट की धारा इक्यावन के अनसार मजदूर वह है, जो कारखाने में काम करे। क्या तुम धोबी घाट को करखाना कह सकते हो, सुब्रह्मण्यम?"

"कदापि नहीं, रंगाचारी! यह धोबी तो मजदूर हो ही नहीं सकता। इसलिए न इसे हर्जाना मिल सकता है, न प्रावीडेण्ट फंड न सहायतास्वरूप कुछ रुपया किसी खाते में से दिया जा सकता है, न कोई मुकदमा खड़ा हो सकता है।"

"तो फिर?" रंगाचारी सुब्रह्मण्यम् का मुंह देखने लगा और सुब्रह्मण्यम् रंगाचारी का और मैं उन दोनों का।

एकाएक उन दोनों के मन में एक ही विचार आया और वे दोनों प्रसन्नतावश उछल पड़े। मैं भी प्रसन्नतावश उछल पड़ा कि अब बेचारे रामू धोबी की फैमिली का कुछ भला हो जाएगा।

"मगर एक बात विचार करने की और है," रंगाचारी बोला, "अगर यह धोबी मजदूर नहीं है, तो फिर कौन है? इसकी कानुनी हैसियत स्पष्ट होनी चाहिए। नहीं तो धोबी प्रतिदिन घाट पर मरते रहेंगे और हमारे लिए विपत्ति खड़ी करते रहेंगे।"

सुब्रह्मण्यम् बोला, "मेरे विचार में इस गधे का प्रार्थना-पत्र करने फाइल चला देनी चाहिए।" रंगाचारी ने मेरे हाथ से प्रार्थना-पत्र ले लिया। मैंने उसके दोनों हाथ अपने दोनों कानों में लेकर कहा, “धन्यवाद रंगाचारी महोदय! हजार बार, लाख बार धन्यवाद। आपने एक गरीब धोबी के बीवी-बच्चों को मरने से बचा लिया। मैं इस प्रार्थना-पत्र का फैसला सुनने कब आऊं?"

रंगाचारी ने सुब्रह्मण्यम् की ओर देखा, सुब्रह्मण्यम् ने रंगाचारी की ओर। आखिरकार रंगाचारी बोला"फाइल तो आज ही चलनी शुरू तो जाएगी, तीसरे दर्जे के क्लर्क से पहले दर्जे के क्लर्क तक आएगी। फिर हर मेज पर इसकी नोटिंग होगी। फर्स्ट क्लके से डिप्टी सपरिण्टेण्डेण्ट तक और डिप्टी सपरिण्टेण्डेण्ट से पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट तक प्रत्येक व्यक्ति अपनी राय देगा। यह राय चलते-चलते मेंजों पर से गुजरती हई मेरे पास आएगी। मैं डिप्टी सेक्रेटरी हूँ । मेरे पास से ज्वायंट सेक्रेटरी के पास जाएगी। ज्वायंट सेक्रेटरी से फर्स्ट सेक्रेटरी के पास। फर्स्ट सेक्रेटरी उसे डिप्टी मिनिस्टर के पास ले जाएगा। मगर समस्या बड़ी टेढ़ी है। प्रश्न राम धोबी के मर जाने का इतना नहीं है; प्रश्न यह है कि धोबी मजदूर हो सकता या नहीं? सम्भव है, इस सम्बन्ध में कामर्स मिनिस्ट्री से निर्णय कराने की आवश्यकता पड़े । फिर यह प्रश्न भी है कि अगर धोबी मजदूर है, तो मोची मजूदर क्यों नहीं? कुम्हार मजूदर क्यों नहीं? अगर एक रामू को हर्जाना मिलेगा तो लाखों-करोड़ों के लिए स्टेट बैंक कहां से हर्जाना लाएगा! इसके लिए फिनान्स डिपार्टमेण्ट से भी पूछना पड़ेगा। सम्भव है, फिनान्स डिपार्टमेण्ट इस मूल प्रश्न को प्रधानमन्त्री के सामने रखे और प्रधानमन्त्री पार्लीयामेण्ट में इस प्रश्न को रखें। सम्भव है, इस प्रश्न पर हमारे विधान की किसी धारा में परिवर्तन भी हो जाय।" रंगाचारी ने अपनी उँगलियों पर गिनते हुए मुझसे कहा, "मेरे विचार में अगर तुम दस साल के बाद आओ तो उस समय तक इस फाइल का कोई न कोई फैसला जरूर हो जाएगा।"

"तब तक राम के बीवी-बच्चे क्या करें?" रंगाचारी ने कहा, "हम विवश हैं, कानून के हाथों बिल्कुल विवश है; यों हमारी पूरी-पूरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है।"

सुब्रह्मण्यम् बोला, "मैं समझता हूँ, रंगाचारी, समस्या वास्तव में यह नहीं है कि धोबी मजदूर है या नहीं। वास्तविक समस्या यह है कि राम को किसने मारा?"
"एक मगरमच्छ ने!" मैंने क्रोध से चिल्लाकर कहा।

बूढ़े क्लर्क के मूर्खतापूर्ण चेहरे पर एक विचित्र-सी मुस्कराहट आई: बोला. "एक धोबी ने एक मछली को खा लिया है, तो क्या हआ? बहुत से धोबी मछली खाते हैं। न खाएं तो हमारा यह डिपार्टमेण्ट कैसे चलें?"

मैंने कहा, “धोबी ने नहीं, मगरमच्छ ने धोबी को खा लिया है।" वह बोला, "धोबी ने नहीं,मगरमच्छ ने मछली को खाया है? अच्छा!

अच्छा! तो इसमें शिकायत की क्या बात है? बहुत से मगरमच्छ मछलियां खाते हैं; न खाएं तो जिन्दा कैसे रहें?"
मैंने जोर से चिल्लाकर कहा, “सुनो, मछली नहीं मगरमच्छ।" वह बोला, "अच्छा, एक मगरमच्छ।"
मैंने उसे समझाते हुए कहा, “और एक धोबी। याद रखो एक धोबी, एक मगरमच्छ।"

वह बोला, “एक धोबी, एक मगरमच्छ, आगे चलो।" मैंने कहा, "वह धोबी घाट पर कपड़े धोता था।" वह बोला, "अच्छे कपड़े धोता था?"

मैंने चिल्लाकर कहा, "अच्छे धोता था या बुरे धोता था, तुम्हें इससे क्या मतलब?"

वह बोला, "मेरा धोबी बहुत बुरे कपड़े धोता है। अगर तुम कहो तो मैं तुम्हारे धोबी को...." मैंने सटपटाकर कहा, “तुम पूरी बात नहीं सुनोगे?"

वह बोला, “अच्छा सुनाओ। एक धोबी, एक मगरमच्छ। वह धोबी घाट पर कपड़े धोता था, फिर?" मैंने कहा, "इतने में एक मगरमच्छ आया, उसने धोबी की टांग पकड़ी।" "क्या पकडी? जरा ऊंचा बोलो.मैं कम सुनता हूँ ।" "टांग! टांग!" मैंने चिल्लाकर कहा। “मुर्गी की?" क्लर्क खुशी से चिल्लाया। "मुर्गी की नहीं, धोबी की टांग।"

"धोबी की टांग मैंने कभी नहीं खाई।" बूढे क्लर्क ने शोक प्रकट करते हुए कहा, "कैसी होती है?"

मैंने बिल्कुल झल्लाकर कहा, “मैंने धोबी की टांग नहीं खाई। मगरमच्छ आया। जब बेचारा धोबी कपड़े धो रहा था, वह पकड़कर धोबी को खा गया। समझे?"

"हां। हां। अब समझ गया। क्लर्क ने सिर हिलाकर कहा, "धोबी कपड़े धोता था। इतने में मगरमच्छ आया और धोबी के कपड़े खा गया।" मैंने उसकी ओर बड़े क्रोध से देखा और अगली खिड़की की ओर बढ़ गया। यहां पर अधेड़ आयु का एक एंग्लो-इण्डियन अपने गंजे सिर पर नीली नाड़ियों का उभरा हआ जाल लपेटे बैठा था। उसकी नाक से मालूम होता था कि इस समय भी थोड़ी-सी पिए हुए है। बड़ी शिष्टतापूर्वक मुझे मिला। कहने लगा-
"फर्माइए! मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?"

मैंने दिल में सोचा, कहीं यह भी बूढ़े क्लर्क की तरह गड़बड़ा न जाए, इसलिए बहुत धीरे-धीरे पूरा वृत्तान्त सुनाऊंगा। मैंने कहा, "सुनिए! एक मगरमच्छ है।"

'एंग्लो-इण्डियन महोदय की आंखें चमक उठीं। बोला, "हां, किधर है?" मैंने कहा, "जमुना घाट पर।" वह बोला, "जमुना पर तो बहुत से घाट हैं, मगर वह कहां है?"

एंग्लो-इण्डियन महोदय सब कुछ नोट करता जाता था। मैंने सोचा, अब मुझे अपने मतलब का व्यक्ति मिल गया। मन-ही-मन मैंने भगवान के गुण गाए। मैंने कहा
"कृष्णनगर के पास। रेल के पुल के नीचे।" एंग्लो-इण्डियन ने नोट करके पूछा, “कितना लम्बा-चौड़ा है?"
"क्या, घाट?
"घाट नहीं, मगरमच्छ।" एंग्लो-इण्डियन बोला।
मैंने कहा, "मैंने देखा तो नहीं, मगर लोग कहते हैं तीस फुट से कम नहीं था।"

"हां," एंग्लो-इण्डियन की ऑखें और भी चमक उठीं। अब तो उसके गाल भी चमक रहे थे, "तीस फुट, वाह! वाह!! क्या तुम मुझे उस स्थान पर ले जा सकते हो?"

"हां, ले जा सकता हूँ ।" "हम साथ में अपनी राइफल ले चलेंगे।" वह प्रोग्राम बनाते हुए बोला। "राइफल किसलिए?"

"मगरमच्छ के शिकार के लिए।" एंग्लो-इण्डियन मेरी ओर आश्चर्य से देखकर बोला, "तुम मगरमच्छ के शिकार के लिए ही आए थे न!"

मैंने कहा, "नहीं। बात यह है कि उस मगरमच्छ ने एक धोबी को खा लिया है। उसके बीवी-बच्चों की सहायता के लिए मैं यहां...."

"ओह!" एंग्लो-इण्डियन का दिल बुझ गया। उसकी आंखों की चमक भी बुझ गई। बिल्कुल कारोबारी और दफ्तरी स्वर में बोला "मैं मगरमच्छ का शिकार तो कर सकता हूँ , मगर रामू के लिए कुछ नहीं कर सकता। सारी! हमारे विभाग से धोबियों का कोई सम्बन्ध नहीं।"

मैंने बिल्कुल तंग आकर कहा, "तो मैं कहां जाऊं? तुम्हारे विभाग से धोबियों का कोई सम्बन्ध नहीं और किसी दूसरे विभाग का मगरमच्छों से कोई सम्बन्ध नहीं, तो फिर उसका सम्बन्ध किससे है? यह कैसे पता चल सकता है?

एंग्लो-इण्डियन ने बड़े ध्यान से और बड़ी सहानुभूति से मेरी ओर देखा और पछा। "क्या तुम मरने वाले के सम्बन्धी हो?" "नहीं, मैं तो बस उसका गधा हूं।"

"फिर भी इतनी सहानुभूति जताते हो!" एंग्लो-इण्डियन मेरी ओर चौकना होकर देखने लगा। “देखो, मैं तुम्हें मशवरा देता हं। आजकल के जमाने में किसी से इतनी सहानुभूति करना खतरे से खाली नहीं है।"

मैंने कहा, “तुम मुझे यह मशवरा न दो, यह बताओ कि मेरी प्रार्थना कौन सुनेगा?"

एंग्लो-इण्डियन सोच में पड़ गया और पेंसिल चबाने लगा। पेंसिल चबाते-चबाते बोला-

"मामला मगरमच्छ का है। मगरमच्छ का अदालत से कोई सम्बन्ध नहीं, वरना तम इस कत्ल के सिलसिले में अदालत में जा सकते थे। मगरमच्छ का सम्बन्धे चिड़ियाघर से अवश्य है। तुम चाहो तो चिड़ियाघर जा सकते हो। मगर चिड़ियाघर वाले क्या करेंगे? उनके यहां पहले से बहत से मगरमच्छ मौजूद हैं। फिर चिड़ियाघर वालों का धोबी से क्या सम्बन्ध है? चिडियाघर के जानवर कपड़े तो पहनते ही नहीं।"

"हां," एकाएक वह प्रसन्नता से उछल पडा और अब के मैंने उसके चेहरे पर वही प्रफुल्लता देखी जो कुछ समय पूर्व मैं रंगाचारी और सुब्रह्मण्यम् के चेहरे पर देख आया था।

वह बोला, “एक तरकीब समझ में आई है।"

"क्या ?"

"सुनो! धोबी का सम्बन्ध साबुन से है और साबुन के आयात-निर्यात का सम्बन्ध कामर्स डिपार्टमेण्ट में हैं। फिर धोबी का सम्बन्ध कपड़ों से है और कपड़ों का सम्बन्ध फिर कामर्स डिपार्टमेण्ट से है। देखो! तुम सीधे कामर्स मन्त्री के पास चले जाओ। उसके सामने रामू धोबी की पूरी विपदा रख दो। अगर वह चाहता होगा कि धोबी कपड़े धो-धोकर फाइते रहें और इस प्रकार लोग नये-नये कपड़े पहनने पर विवश होते रहें, तो वह इस सम्बन्ध में अवश्य तुम्हारी सहायता करेगा।"

8. जाना गधे का मनसुखलाल, कामर्स मिनिस्टर, की कोठी पर और बयान करना रामू की दुःखगाथा और दिलासा देना कामर्स मिनिस्टर का तथा उल्लेख उसकोठी का-

मित्रो! मैं उस कोठी का उल्लेख करूं, जो चारों ओर से सुन्दर बाग-बगीचों से घिरी हुई थी। पेड़ों की शाखाएं फलों से लदी झुकी जाती थीं और सड़कों के किनारे-किनारे ऐसे रंगीन फूल खिले थे कि आंखों में, मुझ गधे की आंखों में भी ठण्डक पड़ती थी और लॉन पर ऐसी हरी-हरी सुगन्धित घास थी कि अगर एक सौ गधे भी हर रोज चरते रहें तो भी कभी समाप्त न हो। न जाने यह मन्त्री की कोठी के भीतर इतनी उम्दा घास क्यों होती है! जाने इसका सम्बन्ध मन्त्री से है या किसी गधे से! मगर मैंने तो इन आलीशन कोठियों के भीतर अपने सिवा कोई गधा नहीं देखा। दिल को बहुत दुःख हआ कि इतनी उम्दा घास केवल मनुष्य के पांव तले रौंदी जाती है और किसी काम नहीं आती। सच है, अभी इस संसार में मोटर वालों का राज है, गधे वालों का राज नहीं-जैसे कुम्हार का, धोबी का, मोची का, घसियारे का अर्थात् उन समस्त लोगों का जो गधे रखते हैं, अन्यथा घास का यों अनादर न होता। खैर, आपको मझ गधे से या घास से क्या मतलब? आपको तो केवल इस कथा से मतलब है, सो कहता हं-जब मैं मन्त्री महोदय की कोठी के भीतर पहुंचा तो वे लाल पत्थर से बने एक छोटे-से फव्वारे के इर्द-गिर्द टहल रहे थे। उनके बच्चे लॉन पर कलाबाजियां खा रहे थे और सामने बरामदे में दो औरतें फूलदार साड़ियां सुखाने के लिए रस्सी पर टांग रही थीं। अर्थात् बड़ा सुन्दर दृश्य था। मैंने मनसुखलालजी को दोनों कान जोड़कर नमस्कार किया, जिसका उत्तर उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बड़ी नमता से दिया। वे अपनी धोती की लांग ठीक करते हुए बोले, “सों छे!"

मैंने कहा, "मुझे जुकाम नहीं है।"

वे क्षमा मांगते हए बोले, “मैंने आपको अपने देश अहमदाबाद का समझा था।"

मैंने कहा, “जी नहीं, मैं तो उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूं।" वे बोले, "अच्छा, वह जो बिहार से आगे है न?"

मैंने कहा, "जी हां, अगर आप बिहार से इधर आएं तो आगे आता है और इधर से बिहार जाएं तो पहले आता है।"

मनसुखलालजी हंसने लगे। बोले, “तुम रंग रूप से गधे दिखाई देते हो, मगर हो नहीं, भाई साहब।"

मैंने कहा, नहीं भाई साहब! मैं वाकई गधा हूं। विश्वास न हो तो मेरे कान ऐंठकर देख लीजिए।"

मनसुखलालजी ने मेरे कान ऐंठे तब जाकर उन्हें विश्वास आया। बोले, “अब कहो, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?"

मैंने कहा, "मनसुखलालजी! मुझे अपने लिए तो घास का एक तिनका भी नहीं चाहिए। मैं रामू धोबी के सम्बन्ध में आया हूं।" और फिर रामू धोबी का पूरा किस्सा बयान कर दिया।

यह बात मैं यहां सबके सामने स्पष्ट रूप से कहंगा कि मनसखलालजी का व्यवहार मुझसे अत्यन्त शिष्टतापूर्ण था। कहीं एक बार भी उन्होंने मुझ पर यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे किसी मनुष्य से नहीं किसी गधे से बात कर रहे हैं, लेकिन इन सब बातों के बावजद उनका उत्तर इन्कार में था। कहने लगे-

भाई! अगर मामला केवल साबन का होता, अर्थात धोबियों को साबन सस्ते दामों पर मिलने का प्रश्न होता, तो मैं इस पर विचार कर सकता था। यदि प्रश्न यह होता कि धोबियों को कलफ लगाने के लिए पाउडर महंगा मिलता है तो मैं उस पर इयटी कम कर सकता था। यदि धोबियों को यह शिकायत होती कि मिलों से जो कपड़ा आता है वह इतना नाकस होता है कि दो-चार बार पत्थर पर कूटने से फट जाता है, तो या तो मैं कारखाने वालों को ताड़ना कर सकता था कि वे मोटा कपड़ा बुर्ने, या धोबियों को कपड़ा कूटने के लिए नर्म पत्थर सप्लाई कर सकता था। मगर यहां प्रश्न बिल्कुल दूसरा है। यहां प्रश्न यह है कि एक गरीब धोबी मर गया है। उसके बीवी-बच्च्चे दीन, दरिद्र तथा भूखे हैं। वे कोई काम नहीं जानते। कोई उनका अभिभावक नहीं है। अब वे लोग करें तो क्या करें? यह समस्या ऐसी है जिसका समाधान कोई बड़े से बड़ा मन्त्री भी नहीं कर सकता।"

"क्यों ?"

मनसुखलालजी इधर-उधर देखकर बोले, “यह हमारी केन्द्रीय सरकार की मूल समस्या है। इसका समाधान सिवाय हमारे प्रधानमन्त्री के और कोई नहीं कर सकता।"

"तो क्या आपका मतलब है..." मैंने आश्चर्य से अपने दोनों कान जोड़कर पूछा, "तो क्या आपका मतलब है, मुझे इस काम के लिए....” मैंने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

मनसुखलाल ने धीरे से सिर हिलाकर कहा, "हां, तुम्हें इस काम के लिए पण्डित जवाहरलाल नेहरू के पास जाना होगा।"

9. जाना गधे का प्रधानमन्त्री की कोठी पर और मुलाकात करना पण्डित जवाहरलाल नेहरू से और खफा होना बाग के माली का-

मैंने लोगों से सुन रखा था कि पण्डितजी से मुलाकात का समय सुबह साढ़े सात-आठ बजे से पहले का है। उसके बाद जो मुलाकातियों का तांता शुरू होता है तो फिर किसी समय भी एक-आध मिनट के लिए बात करना असम्भव होता है। यही सोचकर मैं उस दिन रात भर जागता और विभिन्न रास्तों से घूम-फिरकर पण्डितजी की कोठी तक पहुंचने का प्रयत्न करता रहा। कोई छ: बजे के लगभग मैं उनकी कोठी के बाहर था। सन्तरियों ने मेरी ओर लापरवाही से ताका। शायद मैं उन्हें बिल्कुल मामूली गधा नजर आया होऊंगा। पहले तो मैं दीवार से लगकर धीरे-धीरे घास चरता रहा और धीरे-धीरे दरवाजे की ओर सरकता रहा। जब मैं दरवाजे के बिल्कुल निकट पहुंच गया तो सन्तरियों ने हाथ उठाकर लापरवाही से मुझे डराया जैसे आम गधों को डराया जाता है। मैंने सारी स्कीम पहले से सोच रखी थी। उनके डराते ही मैंने कुछ यह प्रकट किया कि मैं बिल्कुल डर गया हूं। अतएव उछला और सीधा कोठी के भीतर हो लिया। सन्तरी मेरे पीछे भागे। वे पीछे-पीछे और मैं आगे-आगे। जब मैं बाग तक पहुंचा तो सन्तरियों ने एक गधे का वहां तक पीछा करना व्यर्थ समझकर माली को आवाज दे दी कि वह मुझ गधे को बाहर निकाल दे; और यह कहकर वे बाहर गेट पर जा खड़े हए, जहां ड्यूटी थी।

माली ने मुझे घूरकर दखा। उस समय वह एक खरपी लिए गलाब की झाड़ियों के इर्द-गिर्द की घास साफ कर रहा था। उसने जब अपना काम बढ़ते देखा तो उसे बहत क्रोध आया। चुपके से वह झाडियों के पास से उठा और भीतर अपने क्वॉर्टर से कोई मजबूत-सा डण्डा लेने चला गया। इतने में मैंने देखा कि पण्डितजी बाग के बीचों-बीच सड़क पर टहलते हुए गुलाब के पौधों की ओर जा रहे हैं। मैंने यह अवसर उचित समझा और हिरन की तरह एक चौकड़ी भरी और पण्डितजी के पीछे-पीछे हो लिया। मैंने धीमे से कहा, "पण्डितजी!"

पण्डितजी आश्चर्य से मेरी ओर मुड़े। जब उन्हें वहां कोई व्यक्ति दिखाई न दिया तो फिर आगे बढ़ने लगे।

मैंने फिर कहा, “पण्डितजी!"

अब पण्डितजी ने जरा तीखी चितवन से पीछे देखा और बोले, “मैं भूतों में विश्वास नहीं रखता।"

मैंने कहा, "विश्वास कीजिए, मैं भूत नहीं हूं, एक गधा हूं।"

जब पण्डितजी ने मुझे बोलते देखा तो उनका क्षण भर पहले का आश्चर्य हर्ष में परिवर्तित हो गया। बोले-

"मैंने इटली के एक गधे के बारे में पढ़ा था जो अलजबरे के प्रश्न तक हल कर सकता था लेकिन बोलने वाला गधा आज ही देखा। मनुष्य का विज्ञान क्या कुछ नहीं कर सकता! बोलो क्या चाहते हो? मेरे पास अधिक समय नहीं है।"

मैंने कहा, "आपसे पन्द्रह मिनट के लिए एक इण्टरव्यू चाहता हूं, सोचता है, कहीं आप इसलिए इन्कार न कर दें कि मैं एक गधा हूं।"

पण्डितजी हंसकर बोले, "मरे पास इण्टरव्यू के लिए एक से एक गधा आता है, एक और सही। क्या फर्क पड़ता है! शुरू करो।"

मैं शुरू करने वाला था कि इतने में माली दर से डण्डा लिए भागता हआ नजर आया। मैंने माली की ओर देखा, फिर पण्डितजी की ओर। पण्डितजी समझ गए। उन्होंने हाथ के इशारे से माली को रोक दिया और स्वयं टहलने लगे। मैंने रामू धोबी की दुःख भरी कहानी संक्षिप्त शब्दों में सुना दी। पण्डितजी बहुत प्रभावित हएँ। कहने लगे, "इस मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती, मगर मैं अपनी जेब से सौ रुपया दे सकता हूं।"

यह कहकर उन्होंने जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और मेरे लम्बे कान के भीतर उड़स दिया।

मैंने कहा, "पण्डितजी! स्वर्गीय किदवई भी इसी प्रकार दान दिया करते थे। इससे सैकड़ों लोगों का भला तो जरूर हो जाता है लेकिन है तो दान ही।" बोले, "दान तो है।"

मैंने कहा, "दान बन्द होना चाहिए। हर भारतवासी का यह अधिकार होना चाहिए कि जब वह मरे तो उसके बाद राज्य उसके बीवी-बच्चों का निर्वाह का प्रबन्ध करे। स्वतन्त्रता के मूल सिद्धान्तों में से एक यह होना चाहिए।"

"सिद्धान्त तो ठीक है," पण्डितजी बोले, "लेकिन सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने के लिए खून-पसीना एक करने की जरूरत है। इसके लिए बहुत कम लोग तैयार होते हैं। वैसे तुम्हारी तरह लोग क्रान्ति की बातें बहत करते हैं। लेकिन रामू धोबी की विधवा को पेंशन देने के लिए राष्ट्र के पास इससे कहीं अधिक राष्ट्रीय धन होना चाहिए, जितना आजकल उसके पास है। इस राष्ट्रीय धन को बढ़ाने के लिए हमने पंचवर्षीय योजना बनाई है, जिसके आधार पर देश-भर में काम हो रहा है, लेकिन लोगों में वह उत्साह नहीं जिसकी मुझे उनसे आशा थी।"

मैंने कहा, लोगों में आपके प्रति असीम आदर है। आपकी बताई गई योजनाओं से अत्यन्त लगाव है। आपका हर आदेश उनके सिर-माथे पर होता है। आप संसार भर में शान्ति स्थापित करने के लिए जो प्रयत्न कर रहे हैं, उनसे न केवल भारत के लोग बल्कि समस्त देशों के लोग आपसे स्नेह करने लगे हैं।"

पण्डितजी मुस्कराए, बोले, “गधे होने के बावजूद तुम बातें अच्छी बना लेते हो।"

मैंने कहा, "आज मैं संसार के एक महान राजनीतिज्ञ के सामने खड़ा है। जाने फिर कभी ऐसा अवसर मिले, न मिले। इसलिए क्यों न अपने मन की बात आपसे कह डालूं! पण्डितजी, आपकी वैदेशिक नीति की सफलता सर्वमान्य है। राष्ट्रीय जीवन में भी आपकी स्वदेश-भक्ति, जन-मित्रता और राष्टीय सेवा से इन्कार नहीं किया जा सकता। जो कोई ऐसा करेगा, मुँह की खाएगा। इस थोड़े से समय में ही आप भारत को जिस शिखर पर ले गए हैं. उससे आपके कन्धों की मजबूती का पता चलता है। लेकिन पण्डितजी क्या यह काफी है? एक राष्ट्र, एक बड़ा राष्ट्र, शूरवीर राष्ट्र, भारत जैसा राष्ट्र कब तक एक व्यक्ति के सहारे चलेगा? क्या आप विश्वास से कह सकते हैं कि यदि आपने अपने शासन में उचित परिवर्तन न किए तो आपके बाद भारत की वही दशा न होगी जो अशोक और अकबर के बाद हुई थी?"

"अशोक और अकबर बादशाह थे। आज भारत में जनतन्त्र है।" पण्डितजी ने मुझे याद दिलाया।

"केवल वोट से जनतन्त्र नहीं होता। आज भारत में जो राज्य हैं, मैं उसे अधिक से अधिक नेहरू के आत्मबलिदान के नाम से पुकार सकता है। आत्म बलिदान सदैव व्यक्तिगत होता है। वह केवल एक व्यक्ति की ओर देखता है और जब वह व्यक्ति....न रहे तो फिर क्या होगा? पण्डितजी! मुझे इससे बहुत भय आता है।"

"मैं इस प्रश्न का उत्तर पहले दे चुका हं।" पण्डितजी ने कहा, "मैं नहीं समझता कि मेरे प्यारे देश की जनता मेरे बाद कोई इतना बड़ा नेता उत्पन्न नहीं कर सकती, जो परिस्थितियों को सम्भाल सके। मुझे अपनी जनता पर भरोसा है।"

"आपका भरोसा अनुचित नहीं, लेकिन इसे व्यवहार में लाने के लिए, भारतीय जनता की रचनात्मक शक्तियों को जगाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं है कि इसके लिए अभी से कदम उठाया जाए? क्षमा कीजिएगा पण्डितजी! मुझे आपके सरकारी अधिकारियों में कोई रामू धोबी, कोई जम्मन. चमार, कोई ढोंदू मिल-मजदूर नजर नहीं आता। कार वाले बहुत नजर आते हैं। गधे वाला एक भी नजर नहीं आता। अगर राष्ट्रीय धन को बढ़ाना है, अगर राष्ट्रीय योजनाओं को उत्तरोत्तर सफल बनाना है, अगर आप चाहते हैं कि देश को उन्नति दिन दूनी रात चौगुनी हो, तो इस राज्य-प्रणाली को बदलना होगाऊपर से नीचे तक। जनता के समस्त स्तरों को ऊपर से नीचे तक प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा और एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार का निर्माण करना पड़ेगा जिसमें देश की पूरी जनता-पूंजीपतियों से कांग्रेसियों तक और कांग्रेसियों से साम्यवादियों तक सब शामिल हों। केवल ऐसी सरकार ही देश में उत्साह की लहर दौड़ा सकती है। आज जो काम दस या पन्द्रह वर्ष में, बहुत-सी आर्थिक हानि और बहुत-सी रिश्वतखोरी के साथ होता है, कम से कम हानि और कम से कम रिश्वतखोरी और कम से कम समय में पूरा हो जाएगा। काम की गति बहुत बढ़ जाएगी क्योंकि जनता हर स्तर पर राज्य-अधिकारियों में मौजूद होगी। इस समय मजदूरों से लेकर राज्य-मन्त्रियों तक की ऐसी संगठित सरकार की अत्यन्त आवश्यकता है।"

पण्डितजी मुस्कराए, बोले, "मैंने सोचा था, तुम मेरा इण्टरव्यू लोगे। मालूम होता है, तुम इण्टरव्यू लेने नहीं देने आए हो।"

मैं घबराकर चुप हो गया। बात सच कही थी उन्होंने।

मुझे चुप देखकर बोले, "नहीं-नहीं, कहो-कहो, मैं तो हमेशा से विद्यार्थी रहा हूँ। एक गधे से भी कुछ न कुछ सीख सकता हूं।"

"मैंने कहा, "मैं आपको क्या सिखाऊंगा! सूरज के सामने चिराग क्या जलेगा। लेकिन मैं चूंकि एक गरीब आदमी का गरीब गधा हूं। जीवन भर भूख का शिकार रहा हूं, मुझे मालूम है कि जो दर्द आपके दिल में मौजूद है, वह हमारी दशा को, हमारी प्रतिदिन की दशा को देखकर ही आपके दिल में पैदा होता है। इसलिए जो बात आप कहते हैं, वह मानो हमारे दिल से निकलती है। लेकिन मुसीबत यह है कि आपके और हमारे बीच जो बाड़ लगाई गई है, जो मशीनरी खड़ी की गई है, वह अत्यन्त प्रतिक्रियावादी, मन्द गति से चलने वाली, बल्कि प्रायः आपकी अवज्ञा करने वाली है। इसलिए इस मशीनरी के भीतर जो शक्तियां काम करती हैं, वह हमारे विचारों की विरोधी हैं। अब तक जो काम होता है, वह आपके भय से होता है। यदि अभी से इसके लिए प्रबन्ध न हुआ तो जब आप हमारे बीच न होंगे उस समय यह भय भी नहीं रहेगा और वे लोग अपनी मनमानी कर गुजरेंगे।"

"तुम्हारा मतलब मेरे साथियों से है?"

मैंने कहा, "जो साथी आपने लिए हैं जो आपकी 'सेकण्ड लाइन ऑफ डिफेन्स' है, ये आयु में और नेतृत्व में आपसे भी बहुत बूढ़े हैं और शायद आपसे बहुत पहले भुगत जायेंगे। मगर मेरा मतलब उन लोगों से नहीं है, मेरा मतलब एक संगठित राष्ट्रीय सरकार की स्थापना से है। केवल ऐसी सरकार ही आगामी बीस-तीस वर्ष में भारत को आगे ले जा सकती है, जिसमें पूरे का पूरा राष्ट्र अपने विभिन्न वर्गों तथा तत्वों के साथ राष्ट्रीय हित तथा उन्नति के लिए सम्मिलित हो।"

पण्डितजी ने कहा, "मैं नहीं मानता कि सरकार की मशीनरी मेरा साथ नहीं देती, कोई उदाहरण दो।"

मैंने कहा, "जितने उदाहरण चाहे ले लीजिए। आप अपनी योजना में प्राइवेट सेक्टर को कम और पब्लिक सेक्टर को अधिक रखना चाहते हैं, मगर प्राइवेट सेक्टर बढ़ रहा है और प्राइवेट सेक्टर में भी विदेशी धन बढ़ रहा है। जूट, चाय, बैंक-धन के अतिरिक्त अभी-अभी पच्चीस करोड़ रुपये की लागत से दो तेल की रिफाइनरियां खुली हैं।"

"हम उन पर पूरा कंट्रोल करेंगे।" पण्डितजी ने क्रोध से कहा।

"अगर एंग्लो-ईरान कम्पनी की तरह हमारा हाल हुआ तो ? कहीं ऐसा न हो कि उसे कंट्रोल करते-करते हमारा प्रधानमंत्री भी डाक्टर मुसद्दिक की तरह क्षीण हो जाए।"

"तुम बिलकुल गधे हो। पण्डितजी ने क्रुद्ध होकर कहा, "तुम पुराने क्लासिकल क्रांतिकारियों की-सी बातें करते हो। भारत की विशेष परिस्थितियां नहीं देखते। यहां की जनता की विशेष मनोवृत्ति का अध्ययन नहीं करते। इनकी शांतिप्रियता तथा अहिंसा के प्रति गहरे प्रेम के प्रमाण नहीं देखते। यहां भारत में, काम धीरे-धीरे होगा। धीरे-धीरे समाज का ढांचा बदलेगा। धीरे-धीरे राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का रूप बदलेगा। धीरे-धीरे इनमें सामाजिक लचक उत्पन्न होगी, जो एक माडर्न समाज की विशेषता है। यह सब काम एक दिन में नहीं हो सकता। भारत में क्रांतिवादी शक्तियां भारत के विशेष राष्ट्रीय स्वभाव में समाकर और रच-बसकर ऊपर उभरेंगी। बाहर का पैबंद नहीं लगेगा। मैं तुमसे साफ-साफ कहे देता हूं, गधे ! धीरे-धीरे सब काम होगा।"

"तब तक रामू की बीवी का क्या होगा ? उन बच्चों का क्या होगा, जिन्हें इस देश में नौकरी नहीं मिलती, काम नहीं मिलता, जो विवश होकर इस देश से बाहर चले जाते हैं। फिर इस देश की बढ़ती हुई बेकारी का क्या होगा? हर प्रदेश के आंकड़े देखिए: अभी थोड़े दिन हुए उत्तर प्रदेश की सरकार ने स्वीकार किया था कि उसके प्रदेश में बेकारी बढ़ रही है।"

"मेरे पास कोई छू-मन्तर नहीं है कि एक दिन में भारत की दशा बदल डालूँ। ऐसा आज तक किसी देश में नहीं हुआ है। पच्चीस-तीस साल से पहले देश की दशा इतनी जल्दी नहीं बदल सकती। हर देश का इतिहास यही कहता है। खून-पसीना एक कर देने से राष्ट्रीय धन तथा शक्ति बढ़ती है।" फिर मेरी पीठ पर हाथ रखकर बोले, “तूने पन्द्रह मिनट से अधिक ले लिए। अब मैं जाता हूं।"

मैंने कहा, "पंडितजी ! आपसे एक निवेदन है। सम्भव है इंग्लैंड में आपने गधों की सवारी की हो, लेकिन भारत में तो मैंने नहीं सना कि आप गधे की पीठ पर सवार हुए हों। मेरा अहोभाग्य होगा अगर आप..."

पण्डितजी ने मुझे अपना वाक्य पूरा नहीं करने दिया। उचककर मेरी पीठ पर बैठ गए और कुछ समय तक मुझे बाग के इर्द-गिर्द ऐसा दौड़ाया, ऐसा दौड़ाया कि मेरी सांस फूल गयी। आखिर मैंने हार मान ली, "भगवान के लिए, पण्डितजी, अब तो उतर जाइए।" मैंने बार-बार कहा।

वह हँसकर एकदम उतर पड़े, “अब बता ! मन्द गति से चलने वाला कौन है ?"

इसके बाद वह मेरी ओर से मुड़े और मैंने देखा कि बरामदे में कुछ विदेशी दूत और दो-एक फोटोग्राफर टहल रहे थे और पण्डितजी की गधे की सवारी करने के फोटो ले रहे थे। दो-एक सेक्रेटरी लोग बड़ी परेशानी से टहल रहे थे। नेहरूजी मेरी पीठ थपकाकर उधर चले गए। जाते-जाते मुझसे कह गए, “उस धोबिन को वह सौ का नोट ज़रूर पहुंचा देना।"

मैं बड़े गौरव से दुलकी चाल चलता हुआ पण्डितजी की कोठी से बाहर निकला। क्यों न हो, आखिर भारत के प्रधानमंत्री से मुलाकात करके आया था-बाहर आते ही मुझे प्रेस के नुमाइन्दों और फोटोग्राफरों ने घेर लिया।

10. घेर लेना गधे को प्रेस के नुमाइन्दों का और लेकर जाना उसे कांस्टीट्यूशन क्लब में और उल्लेख गधे की प्रेस कांफ्रेंस का-

प्रधानमंत्री की कोठी से बाहर निकलते ही मैंने अपने-आपको संसार का अत्यन्त प्रसिद्ध गधा पाया। क्षण-भर पहले में एक अत्यन्त अप्रसिद्ध गधा था, जो सड़कों पर प्रार्थना-पत्र लिए मारा-मारा फिरता था। लेकिन प्रधानमंत्री से भेंट होते ही मानो मेरा भाग्य बदल गया। जब मैं कोठी से बाहर निकला तो दरवाजे के बाहर प्रेस के नुमाइन्दों और फोटोग्राफरों का एक समूह जुटा था। तिल धरने को जगह न थी। मेरे फोटो पर फोटो लिए जा रहे थे। आखिर वे लोग मुझे घेर-धारकर कांस्टीट्यूशन क्लब ले गए, ताकि मेरा इंटरव्यू लें।

कांस्टीट्यूशन क्लब में प्रेस के नुमाइन्दों ने मुझ पर प्रश्नों की बौछार कर डाली।

"प्रधानमंत्री से आपकी क्या-क्या बातें हुई?" एक नुमाइन्दे ने पूछा।

मैंने कहा, "कुछ घास के बारे में, कुछ गुलाब के फूलों के बारे में।"

दूसरा नुमाइन्दा बोला, “आप हमें उड़ा रहे हैं। साफ-साफ बताइए न; किस विषय पर बातचीत हुई।"

लेकिन मैं कहां उनकी बातों में आने वाला था। मैंने कहा, "कुछ धोबियों के बारे में, कुछ उनके गधों के बारे में, कुछ नई नसल के गधों के बारे में, जो आजकल भारत में तैयार हो रहे हैं।"

तीसरा नुमाइन्दा बोला, "विलायती गधों के बारे में भी कोई चर्चा हुई ?"

मैंने कहा, "हां ! जब पण्डितजी विलायत में पढ़ते थे तो अक्सर गधों की सवारी किया करते थे। उन दिनों उन्हें हर्टफोर्डशायर के गधे बहुत पसन्द थे।"

प्रेस के नुमाइन्दों की पेन्सिलें बराबर चल रही थीं लेकिन साफ मालूम होता था कि जिस बात की उन्हें मुझसे आशा थी, वह पूरी नहीं हो रही थी। मुझे उन बेचारों पर बहुत दया आई। आखिर मुझे घोषणा करनी पड़ी।

"माननीय महिलाओं तथा सज्जनों ! (क्योंकि प्रेस के नुमाइन्दों में कई महिलाएं भी थीं) आपको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी कि भारत में मैं वह अकेला गधा हूं, जिसे आज पण्डित जवाहरलाल नेहरू को अपनी पीठ पर सवार करने का गौरव प्राप्त हुआ है।"

यह घोषणा सुनते ही बहुत-से नुमाइन्दे प्रसन्नतावश उछल पड़े। उन्हें अपने समाचार-पत्र के लिए पहले पन्ने की हेडलाइन मिल गई थी। मैं कल्पना ही कल्पना में समाचार पत्रों की हेडलाइनें तैरती हुई देखने लगा। इतने में किसी ने मुझे कान से झंझोड़कर चौंका दिया। यह अमरीकी पत्रिका 'लाइफ' का नुमाइन्दा था। उसके साथ 'न्यूयार्क टाइम्स', 'लन्दन टाइम्स' और 'मानचेस्टर गार्जियन' के नुमाइन्दे भी मौजूद थे।

'लाइफ' का नुमाइन्दा बोला, “हे मिस्टर ! तुम तो हमारे फ्रांसिस से भी बढ़ गए !"

"फ्रांसिस कौन है ?"

"बोलने वाला खच्चर है। मैट्रोगोल्डबिन मेयर की फिल्मों में काम करता है, लेकिन उसे कभी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका कि संसार के किसी महान नीतिज्ञ से भेंट कर सके।"

"न्यूयार्क टाइम्स" के नुमाइन्दे ने 'लाइफ' के नुमाइन्दे को कोट के कालर से पकड़कर कहा, “हे भाई ! मैं तुमसे कहता हूं, अगर हमारे फ्रांसिस का और इस भारतीय गधे का साझा इण्टरव्यू लिया जाए और उसे अमेरिका के टेलीविज़न पर प्रसारित किया जाए तो...."

'लाइफ' का नुमाइन्दा यह अछूती तजबीज़ सुनकर खुशी से उछल पड़ा। बोला, "अभी केबल-तार करता हूं कि वे लोग फ्रांसिस को चार्टर्ड हवाई जहाज़ द्वारा भारत भेज दें। भगवान साक्षी है, मज़ा आ जाएगा।"

'मानचेस्टर गार्जियन' के नुमाइन्दे ने ज़रा कटु स्वर में कहा, “मगर भई, ज़रा इसके राजनैतिक विचार तो मालूम कर लें। बड़ा काइयां गधा मालूम होता है।"

'लन्दन टाइम्स' के नुमाइन्दे ने रायल कमीशन के किसी सदस्य की तरह बोलते हुए कहा, "ऐ मिस्टर डंकी ! व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध में तुम्हारे क्या विचार हैं ?"

मैंने कहा, "हर गधे को घास चरने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।"

“और co-existence (सह-अस्तित्व) के सम्बन्ध में ?"

मैंने कहा, "हर गधे को चाहिए कि स्वयं भी जिए और दूसरों को भी जीने दे। कम से कम गधे तो इस नियम का पालन करते हैं, मैं मनुष्यों की बात नहीं करता।"

“जातीय भेद-भाव के सम्बन्ध में तुम्हारे क्या विचार हैं ?"

मैंने कहा, "हम गधों में किसी प्रकार का जातीय भेद-भाव नहीं है। गधा काले बालों वाला हो या भूरे बालों वाला, उसका माथा सफेद हो या काला, उसकी खाल धारीदार हो या बेधारीदार, हमारे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे समाज में सब गधे बराबर हैं।"

"समाज में सब गधे बराबर हैं।" मानचेस्टर गार्जियन' के नुमाइन्दे ने इस दिलचस्पी से न्यूयार्क टाइम्स' और 'लाइफ' के नुमाइन्दों की ओर देखा जैसे कह रहा हो, “देखो! मैं तुमसे कहता नहीं था, पहले इसके विचार मालूम कर लो।"

'लाइफ' वाले ने 'न्यूयार्क टाइम्स' वाले से कहा, "मेरे विचार में अब फ्रांसिस को बुलाने का कोई लाभ नहीं है।"

'मानचेस्टर गार्जियन' के नुमाइन्दे ने पूछा, "महाशय! यह पूर्व और पश्चिम में जो ठण्डा युद्ध छिड़ा हुआ है, उसके सम्बन्ध में भी तो मुंह से फूल झाड़िए।"

मैंने कहा, "हम गधों में कभी कोई ठण्डा या गर्म युद्ध नहीं होता। वास्तव में हम गधे लोग, जैसा कि आप मनुष्यों को मालूम होगा, युदध से घोर घृणा करते हैं। आपने प्रायः देखा होगा, घास के एक ही प्लाट पर दर्जनों गधे एक साथ चरते हैं और कभी कोई लड़ाई नहीं होती। हमारी समझ में नहीं आता, आखिर मनुष्य इस तरह एक साथ क्यों नहीं चर सकते! फिर आपने यह भी देखा होगा कि विभिन्न रंगों तथा जातियों वाले गधे मिल-जुलकर ईटें ढोते हैं और एक नया मकान बनाने में सहायता करते हैं। अब मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मनुष्य, विभिन्न रंगों तथा जातियों वाले मनुष्य, क्यों मिलजुलकर एक नया कारखाना या एक नया संसार नहीं बना सकते?"

"और पञ्चशील के सम्बन्ध में?"

इस पर 'लन्दन टाइम्स' के नुमाइन्दे ने घृणा से मुंह मोड़कर 'मानचेस्टर गार्जियन' के नुमाइन्दे से कहा, "पूछना बेकार है। इस गधे पर नेहरू का जादू चल चुका है। अच्छा हुआ कि यह गधा बांडुंग कान्फ्रेंस में नहीं था, वरना जाने क्या उपद्रव मचाता!"

वे तीनों मुझे छोड़कर चले गए।

उनके जाने के बाद और बहुत से प्रश्न हुए-विभिन्न विषयों पर जिनका उत्तर देने का मैंने पूरा प्रयत्न किया अर्थात् जहाँ तक गधे से उत्तर बन सकता था।

यह प्रेस कान्फ्रेंस कोई डेढ घण्टे तक जारी रही। उसके बाद सब नुमाइन्दे अपनी-अपनी रिपोर्ट देने अपने दफ्तरों को चले गए, क्योंकि आज उन्हें एक नया शोशा हाथ आया था। इतनी लम्बी-चौड़ी कान्फ्रेंस के बाद मैं भी पसीने से लथ-पथ था और थक गया था। मैंने सोचा कि राम की विधवा के घर जाने से पहले जमुना में नहाना चाहिए, तबीयत हल्की हो जाएगी और थकावट भी दूर हो जाएगी। यह सोचकर मैं कान्स्टीट्यूशन क्लब से बाहर निकला कि एक भारी-भरकम लेकिन नाटे कद के आदमी ने जो एक बहुत उम्दा धोती और बहुत उम्दा सफेद अचकन पहने हुए था, मुझे सम्बोधित करते हुए कहा- 'क्षमा कीजिए, आप ही वे गधे हैं, बोलने वाले गधे, जिन्हें हमारे प्रधानमन्त्री से एक स्पेशल इण्टरव्यू मिला है?"

"जी हां।"

नाटे कद के आदमी ने मुझे सिर पांव तक देखा। कुछ देर चुप रहा, फिर मानो अपने आपको सम्भालकर बोला, “अगर कष्ट न हो तो इस समय का खाना गरीबखाने पर खाइए। मेरी कोठी यहां कान्स्टीट्यूशन क्लब से बहुत निकट है-बरजूटिया महल।"

"मगर यहां से कैसे चलेंगे?" मैंने एक जंभाई लेकर पूछा, “मैं बहुत थका हुआ हूँ"

"मेरे पास एक व्यूक गाड़ी है आप शायद उसमें न आ सकें, इसलिए मैं एक शेवरले लारी आपके लिए लेता आया हूँ।"

जीवन में पहली बार मैंने शेवरले लारी में सफर किया। भाई, यह लोहे का गधा खूब होता है!

बरजूटिया महल सचमुच एक महल की तरह सजा हुआ था। जिस सोफे पर ले जाकर मुझे बिठाया गया, वह इतना बड़ा था कि उस पर दो गधे आसानी से आराम कर सकते थे।

बरजूटिया महल में 'तशरीफ रखवाए' जाने के बाद बरजूटिया ने बड़े आदरपूर्वक झुककर मुझसे कहा, "अब आप क्या पीएंगे? लेमन, स्क्वैश या शर्बत रुहअफजा?"

मैंने कहा, "मैं थोड़ी सी घास खाऊंगा।"

बरजूटिया ने बड़ी गम्भीरता से घण्टी बजाई, जैसे आयु भर मेहमानों को घास खिलाना उसका नियम रहा हो। उसके बाद उसने अपने नौकर को कुछ आदेश दिया।

थोड़े समय के बाद जब नौकर ने फिर कमरे में प्रवेश किया तो मैं क्या देखता हूं कि चांदी की एक बड़ी सुन्दर ट्रे में हरी-हरी सुगन्धित दूब धुली-धुलाई रखी है। बड़ी बारीक कटी हुई घास थी, जिसके खाने से दांतों को जरा भी कष्ट नहीं होता था। घास खाने के बाद नौकर नम्बर 2 ने चांदी की एक बाल्टी में मुझे पानी प्रस्तुत किया। रेफ्रीजरेटर का ठण्डा किया हुआ पानी था, जिसमें जाने कितनी सुगन्धियां और शर्बत मिले हुए थे। जब मैं पानी पी चुका तो नौकर नम्बर 3 ने सफेद तौलिये से मेरा मुंह साफ किया।

नौकर नम्बर 4 ने आकर पूछा, "आप कौन-सा पान नोश फर्माएंगे, सादा या क्वाम वाला?"

मैंने कहा, "क्वाम बेहतर रहेगा; लेकिन देखना, क्वाम खास लखनऊ का हो वरना सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।"

इतना कह चुकने के बाद मैं सेठ बरजूटिया की ओर मुड़ा और उनसे पूछना पड़ा, "आपने इतना कष्ट किसलिए किया?"

सेठ बरजूटिया ने अपनी कुर्सी जरा आगे सरका ली और मेरी ओर ध्यान से देखकर बोला, "श्रीमानजी! साफ-साफ कह दूं?"

"बिल्कुल साफ-साफ कहिए।" मैंने आग्रहपूर्वक कहा।

"तो बात यह है," सेठ बरजूटिया ने मेरे और करीब आते हुए कहा, "मैं उस प्रेस कान्फ्रेंस में मौजूद था। उस समय मैंने अनुमान लगाया था कि आप पण्डितजी से अपने इंटरव्यू का मूल उद्देश्य बिलकुल गोल कर गए हैं ! बस, वहीं मुझे संदेह हुआ।”

“आह !” मैंने बात को कुछ-कुछ समझते हुए कहा ।

"बस, आप मुझे साफ-साफ बता दीजिए कि आपके और पण्डितजी के दर्मियान क्या क्या बातें हुईं !"

"बातें तो बहुत-सी हुईं।" मैंने संतोषजनक स्वर में सिर हिलाकर कहा, "राष्ट्रीय जीवन की बातें। विदेशी राजनीति की बातें पंचवर्षीय योजना की बातें।"

"कुछ ठेके की बातें भी हुई थीं ?"

मेरे मस्तिष्क में तेल की रिफाइनरी की चर्चा उभर आई। मैंने कहा, “हां, कुछ ठेके की बातें भी हुई थीं।"

"कितने के ठेके की ? दस लाख या बीस लाख ?"

" इससे अधिक।"

“एक करोड़ ?” बरजूटिया ने कुरसी को और आगे सरकाते हुए कहा । "इससे भी अधिक । "

"पांच करोड़ ?"

"जी नहीं, इससे भी अधिक।"

"दस केरोड़ ?"

बरजूटिया की आवाज़ कांपने लगी वह कुरसी खिसकाते खिसकाते बिलकुल मेरे चेहरे के करीब आ गया ।

"बीस करोड़ से अधिक !” मैंने कहा ।

“बस, बस, आगे मुझे कुछ न बताइए।" सेठ बरजूटिया ने मेरे होंठों पर हाथ रखते हुए कहा, "दीवार के भी कान होते हैं।"

"मगर सुनिए तो..." मैंने कुछ कहना चाहा।

“श्श्-श्श्” सेठ बरजूंटिया ने अपने होंठों पर उंगली रखते हुए कहा, “मुझे और कुछ नहीं पूछना । बस इतना काफी है। पच्चीस करोड़ ! बाप रे !! - सुनिए, श्रीमान्जी ! आज से आप मेरे पार्टनर हैं।"

"पार्टनर ?” मैंने हैरान होकर कहा, “किस बात के ?"

"उसी सौदे के", बरजूटिया ने संकेत करते हुए कहा, "जिसकी चर्चा पंडितजी से हुई।" "मगर..." मैंने कहना चाहा, मगर बरजूटिया ने फिर मेरा वाक्य काट दिया। "अगर-मगर नहीं चलेगी मेरे साथ ।” बरजूटिया मुझे समझाने लगे, "देखिए, यों तो आप बड़े बुद्धिमान हैं, मगर आपके पास रुपया नहीं है और रुपया मेरे पास है जितना चाहिए। मैं आपको इस बिज़नेस में एक-तिहाई का हिस्सेदार बना लूंगा।"

मैंने इन्कार में सिर हिलाकर कहा, “मगर यह भी तो देखिए..."

“अच्छा ! अच्छा ! मैं समझ गया, आप हिस्सा अधिक चाहते हैं। अच्छा चलिए, फिफ्टी-फिफ्टी ! आधा हिस्सा मेरा आधा आपका। रुपया सब मैं लगाऊंगा। चलिए, अब तो ठीक है ! कीजिए इस कागज़ पर हस्ताक्षर। मैंने टेलीफोन पर सॉलीसिटर को कहकर सब मामला पहले ही से लिखवा रखा था। देखिए, मेरा अनुमान कितना ठीक निकला !”

"मगर साहब, आपको बड़ी गलतफहमी हो रही है, मैं इस कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करूंगा।"

बरजूटिया ने मेरी ओर घूरकर देखा, बोला, “मैं आपको गधा समझता थ लेकिन आप तो बड़े काइयां निकले। अच्छा, चलिए साहब! मैं आपको अपनी फर्म में आधे का हिस्सेदार बनाए लेता हूं। इस ठेके के अतिरिक्त मेरी फर्म के दूसरे ठेकों में भी आपका हिस्सा रहेगा। देखिए, अब इन्कार मत कीजिए, इस कागज़ पर हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं आपसे सच कहता हूं, इससे अच्छी शर्ते आपको कहीं नहीं मिल सकतीं। बरजूटिया, बरजूटिया एण्ड बरजूटिया कंस्ट्रक्शन कम्पनी का हिस्सेदार बनना भारत के किसी बड़े से बड़े पूंजीपति के लिए भी गौरव की बात हो सकती है।"

"देखिए ना...” मैंने कहा, "मैं एक मामूली गधा हूं और..."

बरजूटिया मेरी बात काटकर बोला, "इससे क्या होता है। हमारे शेयर होल्डर अक्सर गधे होते हैं वरना हम इतना लाभ कैसे कमा सकते हैं ? आप तो सब जानते हैं।"

बरजूटिया ने मेरी खाल में चुटकी भरी और ज़ोर से कहकहा लगाने लगा और इस प्रकार मेरी पीठ थपकने लगा जैसे वह और मैं बचपन के लंगोटिया गधे रह चुके हों और वर्षों इकट्ठे घास चरते रहे हों।

फिर उसने मुझे आंख मारकर कहा, “मैं इस कोठी में आपके लिए एक अच्छा-सा कमरा अलग किए देता हूं। फर्स्ट क्लास एयरकंडीशण्ड कमरा ! जैसा किसी महाराजा के रेस के घोड़े को भी नसीब न हो। हर प्रकार का ऐश-आराम - रात आपको मुन्ननबाई का नाच और गाना....”

मैं सोफे से उठने का प्रयत्न करते हुए कहा, “मुझे तो आप आज्ञा दीजिए। देखिए, मैं एक गरीब विधवा का गधा हूं। वह और उसके बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। प्रधानमंत्री ने मुझे उनके लिए रकम दी है, उसे उन्हें देने जाऊंगा।” "कहां जाएंगे आप ?” बरजूटिया ने पूछा।

"कृष्णनगर, यमुनापार ।"

"तो वहां तक जाने की क्या आवश्यकता है? मैं अपनी ब्यूक भेजकर उन लोगों को यहीं बुलाए लेता हूं। रामू धोबी की विधवा और उसके तीनों बच्चों को यहीं क्वार्टरों में जगह दिए देता हूं, और मुझे अपनी कोठी में एक धोबिन की ज़रूरत भी है। पहला धोबी साला बड़ा कामचोर है। आप बिलकुल चिंता न कीजिए सब ठीक हो जाएगा। वैसे आप घबराएं नहीं। अगर आप कुछ देर सोचना चाहते हैं, इस कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहते, न सही; मैं भी अभी आपको मजबूर नहीं करना चाहता। मगर इतना निवेदन अवश्य करूंगा कि अभी कुछ दिन आप मेरे मेहमान रहिए। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।”

उसने पार्टनरशिप का कागज़ जेब में डाल लिया और मेरी ओर ऐसी दयनीय दृष्टि से देखने लगा कि मुझसे इन्कार न हो सका। फिर मैंने सोचा, चलो, मेरे कारण बेचारे रामू की विधवा को नौकरी मिल रही है और उसके बच्चों के लिए ठिकाना भी बन रहा है। यहां कुछ दिन रहेंगे, क्या बुरा है ?

दूसरे दिन मुझे संगीत की मद्धिम-मद्धिम धुन के साथ ख्वाबे - खरगोश (गहरी नींद) बल्कि ख्वाबे-खर (गधे की नींद से जगाया गया। मैंने मसहरी से उठकर देखा, बहुत-से नौकर नाश्ता लिए खड़े थे। सोंधी सोंधी भुनी हुए बाजरे की दलिया खाने में बहुत आनन्द आया। इससे पहले केवल सुन रखा था कि मनुष्य अपने मतलब के लिए गधे को भी बाप बना लेता है, आज अपनी आंखों के सामने इसकी पुष्टि हो गई, क्योंकि जब मैं दलिया खा रहा था, उसी समय क्या देखता हूं कि सेठ बरजूटिया हाथ में बहुत-से समाचार-पत्रों का पुलिंदा उठाए खुशी-खुशी चले आ रहे हैं। आते ही ऐसे उल्लास से गले मिले जैसे मैं गधा न था- उनका सगा भाई या बाप था। आते ही कहने लगे, "यह देखिए दुनिया भर के पत्रों में आज आपके फोटो छपे हैं और मुखपृष्ठ पर ! आज तो आपने फारमूसा के संकट को भी पिछले पन्नों पर फेंक दिया। यह देखिए, चर्चिल का भाषण भी दूसरे पन्ने पर आया है।"

मैंने देखा, 'डेली मिरर' ने सात कालम की सुर्खी दी थी।

'बोलते हुए गधे की प्रधानमंत्री से भेंट संसार का महान् चमत्कार' !

और 'न्यूयार्क टाइम्स' ने पहले पन्ने पर मेरे और फ्रांसिस के चित्र एक साथ प्रकाशित किए थे। इसके अतिरिक्त एक सम्पादकीय भी लिखा था, जिसका सारांश यह था कि अगर पण्डित नेहरू भारत के एक गधे को इण्टरव्यू दे सकते हैं तो हमारे प्रधान मेट्रोगोल्डविन मेयर के फ्रांसिस को क्यों इसका अवसर नहीं दे सकते ? जितनी शीघ्र यह काम कर डाला जाए उचित होगा। अन्यथा पूरे एशिया में अमेरिका की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाएगी।

'लन्दन टाइम्स' की सुर्खी थी :

'अब संसार के गधे भी युद्ध के विरुद्ध बोलने लगे, पश्चिम को खतरा ।'

फ्रांस के कन्ज़रवेटिव पत्र 'ला मादे' ने एक व्यंग्यात्मक सुर्खी जमाई थी :

'नेहरू का गधा-
पंचशील के पक्ष में !'

लेकिन 'ला मांदे' से कब न्याय की आशा की जा सकती है ! भारत के लगभग सभी पत्रों ने मोटे टाइप में मेरा इण्टरव्यू छापा था। बहुत से पत्रों ने सम्पादकीय भी लिखे थे। और कई एक पत्रों ने इस बात पर कड़ी नुक्ताचीनी की थी कि क्यों पण्डितजी ने एक मामूली गधे को इण्टरव्यू दिया। अर्थात् जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि एक ही रात में मैंने अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था और आज पूरे संसार में मेरी ही चर्चा थी ।

"अजी ये तार तो देखिए !" सेठ बरजूटिया ने तारों का बंडल दिखाते हुए कहा। अधिकतर तार बधाई के थे, लेकिन कुछ काम के भी थे।
...........................

खिलखिलाते हुए, कहकहे लगाते हुए मुझे घेर लिया। सबकी सब अपनी आटोग्राफ -बुक लिए मुझसे आटोग्राफ मांग रही थीं। उनकी आटोग्राफ -बुक पर शीला रमानी, देवानन्द, राज कपूर, दिलीपकुमार और दूसरे फिल्म स्टारों के आटोग्राफ थे। और अब वे मेरे आटोग्राफ मांग रही थीं। कैसी हैं ये लड़कियां? जिन्हें एक दिलीपकुमार और एक गधे में कोई फर्क नज़र नहीं आता। सभी को एक ही आटोग्राफ से हांकती हैं। इनकी आंखें इस तथाकथित ख्याति से कितनी चुंधियाई हुई हैं !

जब मैं उन्हें आटोग्राफ दे रहा था, तो मैंने देखा, बरजूटिया एक लड़की को लिए विशेष रूप से मेरे आगे-पीछे घूम रहे हैं। आखिर मेरे पास आकर कहने लगे, "वह मेरी बेटी है-रूपवती। इसकी आटोग्राफ बुक पर विशेष रूप से कुछ लिख दीजिए।"

मैंने रूपवती को देखा। लम्बी, पतली, छरहरी सुकुमार-सी लड़की थी। उसकी नज़र में विचित्र प्रकार की धृष्टता थी। स्वर अत्यन्त अपमानजनक और हर अदा अत्यन्त कृत्रिम रूप-रंग से वह एक लड़की नहीं, एक चलती-फिरती गुड़िया दिखाई देती थी।

मैंने रूपवती से पूछा, "क्या लिखूं ?"

वह तुनककर बोली, "अब मैं क्या जानूं लिखना हो तो लिख दीजिए वरना ऐसी कोई जरूरत भी नहीं।" उसने अपनी आटोग्राफ -बुक बन्द कर दी ।

“बेटी !” बरजूटिया ने उसे प्यार से परन्तु इतने धीमे स्वर में डांटा कि मुझे पता न चले। परन्तु मुझे पता चल गया। लड़की की दहकती नज़रें एकदम बुझ गई और अब उनमें चंचलता उत्पन्न हो गई।

"कोई अच्छा सा आटोग्राफ दे दीजिए ना !” उसका कोमल हाथ मेरे कन्धे पर क्षण-भर के लिए रुक गया और उसने एक लम्बा-मीठा श्वास लिया और मुझे ऐसा लगा जैसे मैं सख्त संगमरमर के फिसलते हुए फर्शवाले कमरे में बन्द हूं। एक हरी दूबवाली गहरी चारागाह में हूं। मेरे चारों ओर सुगन्धित घास लहलहा रही है। ढलवानों पर चश्मे उबल रहे हैं। सुहानी धूप ने वृक्षों के आस-पास अपनी सुन्दर शतरंज बिछा रखी है और बादलों के सफेद-सफेद टुकड़े आकाश में उड़ानें भर रहे हैं।

एकाएक प्रसन्न होकर मैंने ज़ोर से अपनी ढींचू-ढींचू की हांक लगाई। वह साफ, खुली, निश्चिन्त जीवन से परिपूर्ण हांक ! जब गधा अत्यन्त प्रसन्न होता है और संसार को अपनी आत्मा के संगीत से गुंजा देता है, वही संगीत उस समय मेरे होंठों पर आया ।

लेकिन मैंने देखा कि दूसरे ही क्षण लड़कियां मेरी आवाज़ सुनकर भाग गई। बहुत-सी लड़कियां तो अपनी आटोग्राफ बुक भी वहीं भूल गईं। कुछ क्षणों के बाद मैं अपने कमरे में अकेला खड़ा था।

मनुष्य कितना विचित्र जीव है ! उसे केवल अपनी प्रसन्नता में संगीत सुनाई देता है, दूसरे की प्रसन्नता अर्थहीन मालूम देती है।

11. निकलना गधे के जलूस का चांदनी चौक से और फूल बरसाना स्त्रियों का झरोखों में से । सम्मान-पत्र भेंट करना म्युनिसिपल कमेटी के प्रधान का और उत्तर गधे का

पाठकगण ! अब मैं क्या निवेदन करूंगा कि किस ठाठ का जलूस दिल्लीवालों ने मेरा निकाला है ! लाखों लोगों की भीड़ थी, जो एक बोलते हुए गधे को देखने-भर आए थे। बेचारी स्त्रियां अपनी मूढ़ता के कारण बड़ी अन्धविश्वासी होती हैं। किसी ने उनके कान में डाल दिया कि मैं जो बोलता चालता हूं, तो वह दैवी चमत्कार है। अर्थात् इस प्रकार की अनेकों बातें यार लोगों ने उन अन्धविश्वासी स्त्रियों के दिलों में डाल दीं। फलस्वरूप जब चांदनी चौक से मेरा जलूस गुजरा तो ऊपर मकानों की खिड़कियों से मुझ पर पुष्पवर्षा होती रही।

जलूस में बार-बार 'गधे की जय' के नारे गूंजते और जगह-जगह मेरी सवारी को ठहराकर दर्शनाभिलाषियों को मेरे दर्शनों का शुभ अवसर प्रदान किया जाता
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गया। इन तीनों सम्मान-पत्रों में मेरी सेवाओं को सराहा गया था। उन सेवाओं में प्रत्येक सम्मान-पत्र में इतनी वृद्धि होती चली जा रही थी कि अब मैंने लज्जित होना छोड़ दिया था और अपनी सेवाओं पर विश्वास करने लगा था। रेड़ी वालों की सभा के सम्मान-पत्र के अन्तिम वाक्य कुछ इस प्रकार थे :

" आपने न केवल दिल्ली के गधों की बल्कि भारत-भर के गधों की लाज रख ली है। आपकी महान् सेवाओं को राष्ट्र कभी न भुला सकेगा। आपके कारण भारतीय गधों का सम्मान पूरे भारत में बढ़ गया है। भगवान् अंतकाल तक हम पर आपकी छत्रछाया बनाए रखें ताकि आप इसी प्रकार राष्ट्र की सेवा करते रहें इत्यादि..."

इन सम्मान-पत्रों के बाद मेरी बारी आई कि मैं धन्यवाद स्वरूप कुछ शब्द कहूं । अतएव मैं माइक्रोफोन हटाने लगा तो चेयरमैन ने फरमाया, “हजूर ! यह माइक्रोफोन है ।"

मैंने कहा, "मुझे मालूम है कि यह माइक्रोफोन है। इसीलिए तो इसे हटा रहा हूं, क्योंकि मैं गधा हूं और मेरी आवाज़ इतनी ऊंची है कि मुझे माइक्रोफोन की ज़रूरत नहीं ।"

अब जाकर चेयरमैन साहब मेरी बात को समझे। उन्होंने एक कर्मचारी को माइक्रोफोन हटाने को कहा और जब माइक्रोफोन मेरे सामने से हट गया तो मैंने भाषण शुरू किया:

“उपस्थित महिलाओं तथा सज्जनों! यह दिल्ली है। यह वह दिल्ली है, जो सैकड़ों बार बसी और उजड़ी। उजड़ी और फिर बसी। यहां बड़े-बड़े बादशाह आए और अपनी शान-शौकत दिखाकर चले गए। यहां बड़े-बड़े गधे आए और अपनी-अपनी बोलियां बोलकर उड़ गए। आज भी आप अपने सामने एक गधे को देख रहे हैं, जिसमें इसके अतिरिक्त और कोई विशेषता नहीं है कि वह एक गधा होकर मुनष्य की बोली बोल सकता है। इसमें कोई विचित्र बात नहीं है। अगर एक इन्सान का बच्चा भेड़ियों में रहकर भेड़ियों के गुण-स्वभाव अपना सकता है तो एक गधा इन्सानों में रहकर क्यों इन्सानों के गुण-स्वभाव नहीं अपना सकता ? आपने मेरा सम्मान किया क्योंकि मैं एक गधा होकर इन्सानों की-सी बात करता हूं लेकिन आपने उन लाखों इन्सानों का सम्मान नहीं किया जो इन्सान होकर गधों की-सी बात करते हैं।

“आपने बिलकुल उचित बात की, क्योंकि इन्सान- इन्सान है। उसमें समझ है, बुद्धि है, ज्ञान है, और ये समस्त गुण पशुओं के मुकाबले में उसे अधिक प्राप्त हैं, इसलिए वह हमसे प्रबुद्ध है।

"आज मुझे यहां से बोलने की ज़रूरत न पड़ती, अगर आज मैं महसूस न करता कि इन्सान अपनी परम्परा, अपनी जाति और अपने इतिहास के अनुभवों की उपेक्षा कर मृत्यु की भयानक घाटियों में खोता चला जा रहा है। आज वह जीवन की नहीं मृत्यु की तलाश कर रहा है। बड़े से बड़ा जीवन नहीं, बड़ी से बड़ी मृत्यु ! भयानक, भयंकर ! करोड़ों इन्सानों, गधों पशुओं, पेड़ों, पत्तों, झाड़ियों को जलाकर राख कर देने वाली मृत्यु ! आज इन्सान इस धरती पर स्वर्ग नहीं नरक उतारने पर उतारू है। आज इन्सान के इस व्यवहार से न केवल गधों को बल्कि संसार के हर पशु को खतरा है, हर पेड़ को खतरा है, हर पत्ते को खतरा है ।

“इसलिए एक बेज़बान गधा होते हुए भी मैं इन्सानों की ज़बान में तुम लोगों से कहने आया हूं - ऐ इन्सान ! ऐ आदरणीय भाई ! आज तेरे कारण हर जीव-जन्तु को खतरा है। जंगल के शेर से लेकर झील में खिलते हुए कमल तक हर शानदार चीज़ को खतरा है। हम तेरे भाई हैं। विकास के मार्ग में तुझसे बहुत पीछे हैं, लेकिन जीवन के मार्ग में तुझसे बहुत निकट हैं। अपनी स्वार्थपरता तथा विद्वेष के कारण शायद तुझे यह अधिकार तो प्राप्त है कि तू अपने शत्रु की हत्या कर डाले लेकिन तुझे यह अधिकार प्राप्त नहीं कि तू इस धरती पर से एटमी मृत्यु द्वारा पूरा जीवन नष्ट कर डाले।

"अगर तुझमें इन्सानों की-सी सूझ-बूझ नहीं रह गई है तो गधों की बुद्धि से काम ले। एक खरगोश की बुद्धि से काम ले। देख, भेड़िया किस प्रकार अपने बच्चों की रक्षा करता है। वृक्ष के तने में जीवन का रस कैसे दौड़ता है। पत्ता सूरज के प्रकाश से कैसे खाद्य पदार्थ प्राप्त करता है। काश ! तू गधे की नहीं तो एक पत्ते की बुद्धि से काम ले सके।"

“ऐ मेरे इन्सान ! ऐ मेरे आदरणीय भाई ! मृत्यु की ओर से लौट आ । इस भूमण्डल पर चारों ओर सहमा सहमा जीवन, उदास जीवन तेरे हाथों की ओर देख रहा है। तू हमें क्या देगा ? बम या जीवन ? अस्तित्व या अनस्तित्व ?”

उस दिन सेठ मनसुखलाल ने अपनी कोठी पर मेरे सम्मान में एक बहुत बड़ी दावत का प्रबन्ध किया था। दावत इस रूप से बड़ी नहीं थी कि उसमें बहुत-से लोग आए थे बल्कि इसलिए बड़ी थी कि उसमें बड़े-बड़े लोग आए थे अर्थात् वे लोग जिन्हें यहां की सोसायटी में बड़ा समझा जाता है। शहर के लगभग दो सौ सम्मानित सज्जन पधारे थे। प्रत्येक की कोशिश यह थी कि किसी प्रकार मुझसे हाथ मिलाए, मुझसे बातें करे, मेरे साथ उसका फोटो उतरे। ये बड़े लोग भी भीतर से कितने छोटे होते हैं ! सस्ती ख्याति के कितने भूखे होते हैं ! यहां मैं यह भी अवश्य कहूंगा कि इनमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें मेरे साथ फोटो खिंचवाने पर आग्रह नहीं था बल्कि देखने में मुझसे बात तक न करना चाहते थे। उनमें से एक करोड़पति सेठ भाटिया जी थे, जो कई बैंकों, कारखानों, बिल्डिंगों के मालिक थे। उनके सेक्रेट्री ने दावत के दौरान आकर मेरे कान में कहा, "सेठ भाटिया जी आपसे मिलना चाहते हैं, अकेले में, आप कोई समय कीजिए।"

अभी मैं कोई उत्तर सोच भी न पाया था कि सेठ मनसुखलाल जी मुझे वहां से हटाकर मेहमानों की दूसरी पार्टी की ओर ले गए और फिर वहां पर मेरा वही परिचय शुरू हुआ और वही लम्बी-चौड़ी बेसिर-पैर की बातें सुनने में आईं। फिर वहां भी एक रोबीला व्यक्ति, जो चेहरे-मोहरे से किसी स्टेट का महाराजा मालूम होता था, मगर बाद में लाला हरदयाल पुशकरनी का मुनीम मालूम हुआ, मुझे एक ओर ले जाकर कहने लगा, “उस पच्चीस करोड़ रुपये की स्कीम के बारे में हमारे सेठ पुशकरनी जी आपसे बात करना चाहते हैं।"

अभी मैं उनसे भी कुछ न कह पाया था कि सेठ मनसुखलाल जी हांफते हुए मेरे सामने आए और बोले, "वह लेडी 'सारेगामा गाओ' हैं ना, जो विलिंगडन क्लब की प्रधान भी हैं, उन्हें आपसे मिलने की बड़ी उत्सुकता है।"

मैंने कहा, "यह सारेगामा तो भारतीय संगीत की आधी सप्तक है।"

वे बोले, "नहीं, यह उनका नाम है। हां, भारतीय संगीत में उन्हें दिलचस्पी अवश्य है। खैर, आप चलकर उनसे मिलिए तो सही।"

इसके बाद वे मेरे गले में हाथ डालकर और पुशकरनी जी के मुनीम की ओर तीखी नज़रों से घूरकर, मानो यह कहकर कि 'अच्छा, तुम्हारा यह साहस कि मेरे ही शिकार पर हाथ साफ करना चाहते हो', मुझे अपने प्रतिद्वन्द्वियों के चंगुल से निकाल लेडी सारेगामा गाओ की ओर ले चले। लेकिन रास्ते में कुछ महिलाओं ने घेर लिया।

मिसेज़ गुलालचन्द, जिनका चेहरा सुर्खी लगाने से सचमुच गुलाल हो रहा था, बोलीं, “मनसुखलाल जी ! हमें भी तो आज के 'हीरो' से मिलाओ ।"

मनसुखलाल जी ने इधर-उधर देखा। पांच-छः महिलाएं थीं। ये सब बड़े-बड़े सेठों-सौदागरों की दूसरी या तीसरी या चौथी पत्नियां थीं। ये नये दौलतिए लोगों की नई पत्नियां थीं। पुरानी गंवारू पत्नियां जो वे अपने गांवों से लाए थे, जिन्होंने उनके लिए सात-आठ बच्चे जने थे, एक धोती में निर्वाह किया था और एक-एक पाई संभालकर रखी थी, वे पत्नियां अब नई परिस्थितयों में 'परित्यक्ता' हो गई थीं। जैसे कुछ शब्द शब्दकोश से बाहर हो जाते हैं, उसी प्रकार वे पत्नियां अब नये समाज के तकाजों को पूरा करने के अयोग्य थीं, इसलिए समाज से बाहर हो गई थीं। इस समाज में बदन की सुन्दरता, बाल रूम की नग्नता और फरटिदार अंग्रेज़ी बोलना कितना आवश्यक था ! इससे अधिक इन बेचारी स्त्रियों के पास कुछ और था भी नहीं, अर्थात् यदि उनके मस्तक के कपबोर्ड के हिस्से बराबर कर दिए जाएं, तो एक खाने में आपको कुछ साड़ियां मिलेंगी, एक में कुछ शृंगार की थोड़ी-सी सामग्री, एक खाने में कुछ सैंडल मिलेंगे, एक खाने में अंग्रेज़ी के मुश्किल से डेढ़-दो सौ शब्द मिलेंगे, एक खाने में पालतू बन्दर, मैना, कुत्ते घुसे होंगे। हां, बच्चों वाला खाना खाली होगा। लेकिन इस नये समाज में, जो नित्य नये प्रोजेक्टों डैमों और ठेकों के कारण उत्पन्न हुआ था, इन स्त्रियों की हैसियत प्रमाण सिद्ध थी। इनमें से कोई तो सीमेन्ट गर्ल कहलाती थी, जिसने अपने पति को सीमेन्ट का परमिट लेकर दिया था। कोई आयरन गर्ल, कोई पेपर गर्ल, तो कोई हेवी मशीनरी गर्ल । एक सेठ ने ताबड़-तोड़ सात विवाह किए थे। केवल इसी एक बात से पता चलता था कि उस सेठ का धंधा कितना फैला हुआ था।

सेठ मनसुखलाल ने इधर-उधर बड़ी विवशता से देखा । फिर उन पांच-छः महिलाओं की ओर देखा और उसे हर तरफ मगरमच्छ ही मगरमच्छ नज़र आए, जो उस गरीब के पच्चीस करोड़ के ठेके को निगल जाने के लिए बेचैन नज़र आते थे। इससे पूर्व कि वह मुझे उनके चंगुल से बचाने के लिए कोई अच्छा-सा बहाना ढूंढ सकता, सोफे पर बैठी हुई उन महिलाओं ने उठकर मुझे चारों ओर से घेर लिया।

मिसेज़ गुलालचन्द बिल्ली की तरह खर खर करती हुई मेरे कानों पर हाथ फेरकर बोली, "हाउ स्वीट !"

"एण्ड हाउ हैंडसम !" मिसेज़ दुल्ला रानी मेरे माथे पर हाथ फेरकर बोली, "यह तो मिस्टर गाउल्ज़ से भी हैंडसम हैं- याद है कमला !”

कमला को खूब याद था क्योंकि कमला जिस सेठ की तीसरी पत्नी थी, उसे एक बार मिस्टर गाउल्ज़ से काम पड़ा था। मिस्टर गाउल्ज़ एक विदेशी इन्जीनियर था और यहां एक प्रोजेक्ट के सम्बन्ध में आया था, यद्यपि बाद में निकाला गया। लेकिन इतने समय में कमला के सेठ ने आठ लाख का सौदा कर लिया था । कमला को अच्छी तरह याद था। क्योंकि उन दिनों मिसेज दुल्ला रानी और कमला में उस ठेके के सम्बन्ध में बहुत चल गई थी। दोनों मिस्टर गाउल्ज़ को अत्यन्त सुन्दर समझती थीं मगर आखिर में पलड़ा कमला का भारी रहा।
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लेडी सारेगाम गाओ ने मुझे अपने पति की ओर घूरते हुए देखकर कहा, "इनकी ओर अधिक मत घूरिए, वरना अभी इनका हार्ट फेल हो जाएगा।"

सर सारेगामा गाओ का चेहरा कानों तक सुर्ख हो गया। दूसरे क्षण में गरदन तक पीला हो गया। होंठ भी पीले पड़ गए। उन्होंने कुछ बोलने का प्रयत्न किया, लेकिन सफल न हो सके।

लेडी सारेगामा गाओ ने कहा, “आपकी बुद्धिशीलता की बड़ी प्रशंसा सुनी है और इस समय मामला भी एक ऐसा आन पड़ा है, जिसका फैसला कोई बुद्धिजीवी कर सकता है।"

"मैं तो मामूली गधा हूं।"

लेडी सारेगामा गाओ ने कहा, “अब आप बनिए नहीं हम सब जानते हैं। बात असल में यह है, मेरे निकम्मे गधे ! कि कल शाम को हमारे विलिंगडन क्लब में सौन्दर्य-प्रतियोगिता है। शहर की सुन्दरतम स्त्रियां इस प्रतियोगिता में भाग ले रही हैं। हम चाहते हैं कि इस बार इस प्रतियोगिता का फैसला करने के लिए किसी आदमी को जज नियत न किया जाय, बल्कि तुम्हें एक गधे को- उसका जज नियत किया जाए।"

"वह क्यों ?” मेरी दिलचस्पी ज़रा बढ़ी इसलिए मैंने यह प्रश्न किया ।

वह बोली, “इसलिए कि आदमी औरतों को हमेशा दिलचस्पी की नज़र से देखते आए हैं।"

" आपको कैसे मालूम है कि एक गधा नहीं देख सकता ?”

लेडी सारेगामा गाओ हंसकर बोलीं, “कोई बात नहीं। मगर अबके हम तुम्हें ही इस सौन्दर्य - प्रतियोगिता का जज बनाते हैं। एक तो भई, हमारे यहां क्लब में पुरुषों में ऐसी चलती है कि हर व्यक्ति अपनी प्रेमिका के पक्ष में राय देने पर तुला हुआ है। मतलब यह कि हर किसी को किसी न किसी में दिलचस्पी है। इस स्थिति में कोई निष्पक्ष व्यक्ति ढूंढ निकालना बहुत कठिन है। सौभाग्य से तुम्हारे आगमन ने इस समस्या का लगभग समाधान कर दिया है। लगभग इसलिए कि हम नहीं जानते कि तुम स्त्रियों के बारे में कुछ जानते भी हो या नहीं ?"

मैंने कहा, "मैं एक गधा हूं, इसलिए इस बारे में जो बात मैं नहीं जानता, वह संसार भर में कोई भी आदमी नहीं जान सकता।"

"वह कैसे ?"

मैंने कहा, “अगर आपने इतिहास का अध्ययन किया है तो आपको मालूम होगा कि रोमन साम्राज्य के काल में सुन्दर स्त्रियां केवल गधी का दूध पीती थीं क्योंकि गधी के दूध के पौष्टिक तत्त्व मनुष्य की माता के दूध के पौष्टिक तत्त्वों से मिलते-जुलते हैं। मैं यह कोई मज़ाक की बात नहीं कह रहा हूं। आप आज
...........

सम्बन्धी भी नहीं हो सकते।"

"बेटा !” मेरा पिता अपने नथुने फड़फड़ाते हुए धीरे से बोला ।

सेठ मनसुखलाल ने, जो गधों की बोली नहीं समझता था, परन्तु चिल्लाकर एक नौकर से कहा, "इस बदमाश धोखेबाज़ को, इसके गधों समेत यहां से निकाल बाहर करो !"

बूढ़ा धब्बू मेरे पांव पड़ गया और बोला, “कितनी आशाएं लेकर तेरे पास आया था धबडू ! कैसी-कैसी अभिलाषाएं लेकर तेरे बूढ़े माता-पिता तेरे पास आए थे और तू हमसे ऐसा व्यवहार कर रहा है ! मेरी जान ! तुझे तो मैंने बचपन से पाला है। मैं तो कर्ज़ लेकर रेलगाड़ी का टिकट कटाकर आया हूं। इन्हें भी बड़ी मुश्किल से मालगाड़ी में लाया हूं। अब तो वापस जाने के लिए पैसे भी नहीं धबडू।"

मैंने सेठ से कहा, “ज़रूर इसे कोई गलतफहमी हो रही है। असल में गधों का रूप-रंग एक-दूसरे से बहुत मिलता-जुलता है ना ! इसीलिए यह गलतफहमी हो रही है। इस बेचारे का इसमें अधिक दोष नहीं है। मेरे ख्याल में इसे रेल का किराया और कुछ रुपये देकर चलता करना चाहिए।"

सेठ मनसुखलाल ने बूढ़े को एक सौ रुपये का नोट देकर कहा :

"खबरदार ! जो इसके बाद तूने इधर कदम भी रखा या किसी से कहा कि तू (मेरी ओर संकेत करके) इनका कभी मालिक था, या ये लोग इनके माता-पिता थे। हमारे साहब तो असली खानदानी गधे हैं। वे तो यहां के हैं ही नहीं। वे तो पिछले सोहल सौ साल से एक ही कुल से चले आ रहे हैं। किसी वंश में लहू नहीं बिगड़ा । विश्वास न आए, तो वंशावली उठाकर देख लो। इन जैसा सच्चा शुद्ध वंश तो मनुष्य में भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगा ।"

"सच है माई-बाप ?” बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा, और फिर उन दोनों बूढ़े गधों को रस्सी से खींचता हुआ कोठी से बाहर चला गया।

जब वे तीनों अभागी आत्माएं कोठी से बाहर निकल गईं, तो मेरी जान में जान आई। मैंने कुछ क्रोध से और कुछ बनकर सेठ की ओर मुड़कर कहा, "देखिए ना ! यानी देखा आपने कितना....यानी कि..." क्रोधवश मुझसे बात नहीं कही जा रही थी।

सेठ मनसुखलाल ने सिर हिलाकर हामी भरी, "मैं समझता हूं, मैं सब समझता हूँ, ज़माना देखे हुए हूँ श्रीमान् जी ! यह कोई नई बात नहीं है ! इस संसार में यही कुछ होता है। जहां किसी व्यक्ति ने ज़रा भी उन्नति की, चाहे वह गधा ही क्यों न हो, तुरंत उसके माता-पिता, मित्र-हितैषी, सगे-सम्बन्धी पैदा हो जाते हैं और तरह-तरह से वंशावली मिलाकर उससे अपना नाता जोड़ने में सफल हो जाते हैं। जाने ये लोग बरसाती मेढकों की तरह किधर से आ जाते हैं ?"
...................

तो अपने बारे में सोच रहा हूं। देखिए, मैं तो केवल एक गधा हूं जानवर हूं और आप लोग इन्सान हैं। कितने युगों के बाद एक जानवर और एक इन्सान में - शायद लाखों वर्ष के बाद - विवाह का सम्बन्ध स्थापित होगा। मुझे इस समय बोकेशियो के 'सौन्दर्य और पशु' की याद आ रही है।"

"बोकेशियो कौन ? स्टाक एक्सचेंज वाला दलाल ?"

"जी नहीं ! वह बेचारा एक चित्रकार था ।"

"अजी, लानत भेजो इन चित्रकरों पर हम इस समय एक अत्यन्त आवश्यक विषय पर बात कर रहे हैं। यहां बोकेशियो को आप कहां से घसीट लाए ?" मनसुखलाल ने मेरे कानों से खेलते हुए कहा, “बस, मेरी बात आप मान जाइए और..."

"मगर..." मैंने फिर बात काटते हुए कहा, “आपने इस प्रस्ताव पर विचार कर लिया है ?"

"खूब अच्छी तरह।"

"मगर देखिए ना ! यह एक लड़की के जीवन तथा मृत्यु का प्रश्न है। आप रूपवती से पूछे बिना कैसे यह सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं? उसे इस विवाह पर आपत्ति तो नहीं होगी ?"

"नहीं होगी।” मनसुखलाल ने घोषणा की, 'मैंने उससे बात कर ली है।"

"बाप रे !” मैं आश्चर्य से चिल्लाया, “मुझे विश्वास नहीं आता।" "आप स्वयं उससे बात करके पूछ सकते हैं।"

"मगर..."

मगर मनसुखलाल ने मेरी बात न सुनी, जल्दी से उसने घंटी बजाई। एक नौकर तुरंत पहुंचा। मनसुखलाल ने उससे कहा, "बिटिया को जरा नीचे भेज दो ।"

" मगर वह तो कब की 'सोने के लिए जा चुकी है।" एकाएक मुझे याद आया ।

सेठ मनसुखलाल मुस्कराए और बोले, "नहीं, वह जाग रही है और हमारी बातचीत के परिणाम की प्रतीक्षा कर रही है।"

मैं आश्चर्य से सेठ मनसुखलाल के मुंह की ओर देखने लगा ।

इतने में हाल की सीढ़ियों से मिस रूपवती अठखेलियां करती नीचे उतरने लगी। उसने गहरे नीले रंग का एक गरारा पहन रखा था, जिसमें सोने के लहरिये चमकते थे। हल्के काशनी रंग का दुपट्टा उसके कटे हुए बालों के सौन्दर्य में चार चांद लगा रहा था। गरारे के नीचे से दो सुन्दर पांव सीढ़ियों से नीचे उतरते नज़र आ रहे थे। मेरा दिल भी अपनी सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। जब वह मेरे बिलकुल निकट आ गई, तो मेरा दिल धक से रह गया। अब नीचे जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं थी। मैंने सहायता के लिए इधर-उधर देखा, लेकिन मौका पाकर सेठजी खिसक गए थे। अब ड्राइंग रूम में मैं और वह बिलकुल अकेले थे ।

मेरा जी घबराकर गधे की तरह रैंकने को चाहा, लेकिन इसका अवसर न देखकर चुप हो गया।

"फरमाइए", रूपवती ने अपने दुपट्टे से खेलते हुए कहा ।

मैं थूक निगला । आखिर किसी न किसी प्रकार साहस करके पूछ ही लिया, 'क्या यह सच है ?"

"क्या ?” रूपवती ने अपनी बड़ी-बड़ी सुन्दर आंखें मेरी आंखों में डालते हुए पूछा।

"कि आप मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हैं ?"

"हां!” आवाज़ बहुत धीमी और प्यारी थी। मेरा जी चाहा कि प्रसन्नतावश एक दुलत्ती झाड़ दूं, लेकिन फिर चुप हो रहा कि कहीं अशिष्ट न समझा जाऊं ।

"मगर, देखिए”, मैंने बहस का प्रारम्भ करते हुए कहा, “आपने क्या सब कुछ सोच लिया है ? कहीं बाद में आपको पछताना न पड़े। आप देख रही हैं कि मैं एक गधा हूं।"

"हर एक पति को ऐसा ही होना चाहिए।" रूपवती निश्चयात्मक स्वर में बोली ।

लेकिन, लोग क्या कहेंगे? सेठ मनसुखलाल का जमाई एक गधा है। इतने बड़े आदमी का जमाई...”

"मैंने अक्सर बड़े आदमियों के जमाई ऐसे ही देखे हैं। वे जितने गधे हों, उतने ही सफल रहते हैं और बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त किए जाते हैं। इसलिए नहीं कि वे गधे हैं, बल्कि इसलिए कि वे बड़े आदमियों के जमाई हैं। किसी बड़े आदमी के जमाई के लिए बुद्धिमान होना ज़रूरी नहीं। उसकी उन्नति के लिए यही काफी है कि वह एक बड़े आदमी का जमाई है।"

मेरी आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गई। नए समाज के नियम अब धीरे-धीरे मेरी समझ में आ रहे थे।

“मगर”, मैंने एक और एतराज करते हुए कहा, “दुनिया आपको क्या कहेगी कि आपने जान-बूझकर एक गधे से विवाह किया, जबकि आपको अपनी बिरादरी में एक से एक बढ़िया वर मिल सकता है।"

"यह तो मेरी इच्छा है और इसमें किसी दूसरे को बोलने का अधिकार नहीं ।" रूपवती ने तीखे स्वर में कहा, “फिर मैं कौन-सा आपसे सबके सामने विवाह कर रही हूं। विवाह तो बिलकुल गुप्त रूप से होगा।"

" गुप्त रूप से ?"
....................

अपनी बेटी की ओर देखकर मुस्कराते हुए सेठ मनसुखलाल शयनागार से बाहर निकल गए।

12. जाना गधे का विलिंगडन क्लब में और सभापति बनना सौन्दर्य- प्रतियोगिता का तथा घिर जाना झुरमुट में नटखट सुन्दरियों के

विलिंगडन क्लब में उस दिन बड़ी चहल-पहल थी। क्लब के बड़े हॉल को कागज़ी फूलों, रंग-रंग के गुब्बारों और रेशमी पर्दों से दुल्हन की तरह सजाया गया था । हॉल के चारों ओर छोटे-छोटे स्टालों में शृंगार का सामान बेचने वालों ने अपनी चीजें सजा रखी थीं। सौन्दर्य प्रतियोगिता के सम्बन्ध में जितना खर्च हो रहा था, उसे उन स्टालों की कम्पनियों के मालिक लोग अपनी जेब से पूरा कर रहे थे। इन स्टालों में जौहरियों की दुकानें थीं, लिपस्टिक और पाउडर की दुकानें थीं, तेल और क्रीम की दुकानें थीं, इत्र और फुलेल की दुकानें थीं, कपड़े की दुकानें थीं, स्त्रियों के नाइयों की दुकानें थीं, तौलियों, छतरियों, दस्तानों, जूतियों की दुकानें थीं, पर पुस्तकों की एक भी दुकान न थी। भला कहीं पुस्तकें पढ़ने से भी सौन्दर्य में वृद्धि होती है !

लेडी सारेगामा गाओ ने पहले तो मेरा परिचय बड़े शानदार शब्दों में क्लब के माननीय मेम्बरों से कराया। बाद में वह मुझे उस बड़े हॉल में ले गई, जिसका जिक्र अभी मैंने ऊपर किया है। यहां सौन्दर्य - प्रतियोगिता में भाग लेने वाली सुन्दरियां पंक्ति बनाए खड़ी थीं। यहीं पर मेरा उनसे परिचय कराया गया। "ये हैं सोलन की सुन्दरी नम्बन वन ।”

"आपका मतलब है सोलन विस्की नम्बन वन ?”

"नहीं साब !" लेडी सारेगामा गाओ ने मुझे समझाते हुए कहा, "सोलन में जो सौन्दर्य - प्रतियोगिता हुई थी, उसमें यह वहां की 'रानी' चुनी गई थीं। प्रतियोगिता में पहले नम्बर पर आई थीं।"

"यह शिमले की रानी ।"

"यह नैनीताल की रानी ।"

"यह डलहौज़ी की रानी ।"

"यह कोडाईकनाल की रानी ।"

"यह ऊटी की रानी ।"

" दार्जिलग की रानी ।"
.....................

"कृपा है !" मैंने झुककर कहा ।

आगे जाकर क्या देखा कि वही लड़की, जो मिस्टर दारूवाला से अपने पांवों की बनावट और टखनों की गोलाई का अनुमान ले रही थी, यहां पर तांडव नृत्य का एक पोज़-सा देकर अपनी जांघों और पिंडलियों का नाप दे रही है। यहां पर एक व्यक्ति कंधे पर फीता डाले अपनी चुग्गी दाढ़ी खुजाता हुआ पहले जांघों की, फिर घुटनों की, फिर पिंडलियों की फीते से नाप ले रहा था।

" शायद यह कोई दर्जी है।" मेरे मुंह से निकल गया ।

"हश् !” लेडी गामा ने मुझे जल्दी से चुप कराते हुए कहा, 'आप नहीं जानते इन्हें । अरे ये तो हमारी शिल्प तथा मूर्ति कला के सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं, मिस्टर खटखट खंडलिया। एलोरा में जितनी स्त्रियों की मूर्तियां हैं उन सबकी जांघों और पिंडलियों के नाप इन्हें जबानी याद हैं, लेकिन अपनी पत्नी का नाम तक याद नहीं ।"

"बहुत खूब ! मिस्टर खटखट खंडलिया ! आप जैसे कलाकार से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई।"

"हां!" मिस्टर खटखट खंडलिया ने मानो पहचानने का प्रयत्न करते हुए कहा, "पहले भी आपसे मुलाकात हो चुकी है।"

"शायद बाराबंकी में आपके दर्शन हुए होंगे।" मैंने यों ही उनका मन रखने के लिए कह दिया, क्योंकि ऐसे चुगद से कौन गधा मुलाकात करना पसंद करेगा !

"नहीं, बाराबंकी में नहीं ।" मिस्टर खटखट खंडलिया ने अपनी उंगली मेरी ओर नचाते हुए कहा, "हां! अब याद आया ! सांची में आप ही से मुलाकात हुई थी।"

"सांची में ! लेकिन मैं तो कभी सांची नहीं गया।” कुछ खीझकर मैंने कहा।

"आप झूठ बोलते हैं। मैंने आपको वहां देखा है। सांची में पत्थर की प्लेट नम्बर ग्यारह पर एक भिक्षु भगवान् बुद्ध के दर्शन करने जा रहा है। उसके पीछे- पीछे एक गधा चल रहा है। आप वही गधे हैं- अगर मैं गलती नहीं करता।"

मिस्टर खटखट खंडलिया ने दोबारा कहा, "तो आप बिलकुल वही गधे हैं। बिलकुल वही जांघें, वही पिंडलियां ।”

मैं आश्चर्यचकित था, इतने में लेडी गामा ने कहा, "देखा इनका कमाल! ये आदमियों को देखकर पत्थर की मूर्तियों का अनुमान नहीं करते, पत्थर की मूर्तियों को देखकर आदमियों और चीज़ों को पहचानने का प्रयत्न करते हैं !"

"क्या खूब चीज़ हैं ये भी ।"

जब मैं वहां से चलने लगा तो मिस्टर खटखट खंडलिया ने मुझसे पूछा, “भई, वह भिक्षु कहां है ?"

मैंने जलकर कहा, "वहीं सांची में होगा।"

मिस्टर खंडलिया के चेहरे पर संदेह के चिह्न उत्पन्न हुए। शायद वे यह सोच रहे थे- ऐसा कैसे हुआ ? वह सांची वाला गधा यहां आ गया, लेकिन भिक्षु वहीं पत्थर की प्लेट पर जमा रहा। ऐसा कैसे हो गया ? लेकिन इतने में एक लड़की अपनी पिंडलियों का नाप देने के लिए उनके सामने आ गई और मिस्टर खटखट खंडलिया अपना फीता लेकर अपने काम में लग गए।

आगे चलकर प्रोफेसर बांकेबिहारी 'आह' बनारसी और जनाब हामिदहसन 'वाह' लखनवी खड़े नज़र आए।

प्रोफेसर बांकेबिहारी 'आह' बनारसी हिंदी और संस्कृत के विद्वान् थे और जनाब 'वाह' लखनवी उर्दू ज़बान के माने हुए शायर । 'आह' बनारसी को हिन्दी और संस्कृत में 'कूल्हे' के विषय पर समस्त बड़े क्लासिकल कवियों की अछूती उपमाएं कंठस्थ थीं। 'वाह' लखनवी को 'कमर' के सम्बन्ध में उर्दू और फारसी के हज़ारों शेर याद थे। 'आह' बनारसी 'कूल्हा-विशेषज्ञ' थे, तो 'वाह' लखनवी 'कमर-विशेषज्ञ' । दोनों शेर पढ़कर नम्बर देते थे। मैंने 'वाह' लखनवी से कहा,

" 'वाह' साहिब ?"

वे बोले, "हां साहिब !"

मैंने कहा, “वाह साहिब ! लखनऊ की जो मलिका-ए-हुस्न होगी, सुनते हैं कि उसके तो कमर ही नहीं हैं, फिर आप क्या करेंगे ?"

'वाह' लखनवी ने कहा, “ऐसे मौकों के लिए मैं हमेशा एक खुर्दबीन रखता हूं।" 'वाह' लखनवी ने जेब से एक छोटी-सी खुर्दबीन निकालकर दिखाते हुए कहा। मैं उनकी सूक्ष्मदर्शिता की प्रशंसा करते हुए आगे बढ़ गया।

बस, इसी प्रकार एक के बाद एक तालाब के किनारे-किनारे दर्जनों कलाकार अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। छाती से सिर के बालों तक के हर प्रकार के कलाकार थे। हर लड़की के पास फार्म था। उस फार्म के साथ एक फोटो लगा हुआ था। हर कलाकार नाप-तोल करते हुए ठीक-ठीक आंकड़े फार्म में भर देता और अपनी राय लिख देता। इसी प्रकार छाती, बाहें, होंठ, आंखें, बाल, कान, हर चीज़ का नाप हो रहा था और बड़ी गंभीरता से उसके सम्बन्ध में राय दी जा रही थी।

एकाएक मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानो मैं किसी क्लब में नहीं लाया गया, किसी निर्जीव कारखाने की मशीनों की खट-खट से गूंजते हुए हॉल में खड़ा हूं किसी तैरने के तालाब के किनारे नहीं, स्त्रियों के कारखाने में खड़ा हूं। यहां स्त्रियां बनती हैं, जिस तरह साइकिलें बनती हैं या मोटरें बनती हैं। यह एसेम्बली-लाइन है, जहां पर विभिन्न कलाकार टखनों, जांघों, पिंडलियों, कूल्हों, बांहों, होंठों, गालों को नापकर, तोलकर और विभिन्न अंग जोड़-जोड़कर स्त्री बना रहे हैं। सुन्दरता की रानी, मलिका-ए-हुस्न, ब्यूक सुपर डीलो। स्त्री या सन् छप्पन की स्टुडीवेकर।

सनबीम टायलर 56 !

दो-तीन घण्टे यही नाप-तोल जारी रही और हिसाब-किताब होता रहा, अन्त में जब सब सूचियां बन चुकीं सारे फार्म भर गए, तो ये समस्त सूचियां और उनके साथ नत्थी किए हुए फोटो मुझे दे दिए गए और उनके अध्ययन के लिए मुझे पौन घंटा दिया गया, जिसके बाद मुझे अपना फैसला सुनाना था और भारत की सबसे सुन्दर लड़की की घोषणा करनी थी।

मैंने समस्त सूचियां बड़े ध्यान से देखीं। फोटो भी ध्यान से देखे। आंकड़ों को जांचा, परखा। अपने मन में विभिन्न छातियों, होठों, बालों, बांहों का अनुमान लगाया। उसके बाद अपना फैसला सुनाने के लिए तैयार हो गया। फैसला करने में मुझे मुश्किल से आधा घंटा लगा। लेडी गामा हैरान रह गईं।

"इतनी जल्दी आपने सब सूचियां पढ़ डालीं और फैसला कर लिया ?"

"हां"

"तो चलिए, क्लब के हॉल में वहां शहर के सब बड़े-बड़े लोग और शहर की बड़ी-बड़ी सुन्दरियां आपका फैसला सुनने के लिए बेचैन हैं।"

13. प्रवेश करना गधे का क्लब के बड़े हॉल में और भाषण देना खड़े होकर माननीय नागरिकों के सम्मुख तथा उल्लेख करना सौन्दर्य प्रतियोगिता के परिणाम का

अब जब हमने दोबारा क्लब के हॉल में प्रवेश किया, तो कई घंटे व्यतीत हो चुके थे। शहर में पहले ही से घोषणा कर दी गई थी कि अमुक समय सौन्दर्य-प्रतियोगिता का फैसला सुनाया जाएगा। अतएव बड़े-बड़े राज्यमंत्री, रईस, डिप्लोमैटिक कालोनी के राजदूत, विदेशी कैमरामैन और भारतीय समाचार-पत्रों के फोटोग्राफर हॉल में एकत्र थे। अबके हॉल का आकार ही बदल गया था। अब तो वह पहले से भी चमकीला और सजीला हो गया था। ऊंचे वर्ग की जितनी सुन्दर महिलाएं होंगी, मेरे विचार में वे सब यहां उपस्थित थीं। उनमें से कई एक तो वे थीं, जो पिछले वर्ष या उससे पिछले वर्ष की 'रानियां' रह चुकी थीं। और अब मोटरों के माडलों की तरह बदली जा चुकी थीं।

हॉल में एक ओर एक ऊंचा डायस बनाया गया था। बीच में एक मेज़ और मेज़ के सामने दो कुर्सियां और दो माइक्रोफोन लगे हुए थे। सबसे पहले लेडी गामा ने स्टेज पर आकर दर्शकों का धन्यवाद किया और सौन्दर्य-प्रतियोगिता का महत्त्व बतलाया। सहायक जजों का धन्यवाद किया, जिन्होंने आंकड़ों के संकलन में मेरी सहायता की थी। उसके बाद लेडी गामा ने मेरा परिचय कराया और बताया कि क्यों मुझे, एक तुच्छ गधे को इस महत्त्वपूर्ण काम के लिए चुना गया था ! वही रोमन सुन्दरियों के गधी के दूध में स्नान करने की कथा दोहराई गई, जिससे लोग बहुत प्रभावित हुए। इसके बाद तालियों के शोर में मुझे कुर्सी प्रस्तुत की गई। उसके तुरन्त बाद बैंड बजा और सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने वाली सुन्दरियां स्नान करने के सुन्दर और नये डिजाइन के वस्त्र पहने हाल में प्रविष्ट हुईं। लोग उनकी सुन्दरता देखकर स्तब्ध रह गए। जितनी स्त्रियां थीं, वे प्रत्येक सुन्दरी से बारी-बारी अपनी मौन तुलना करती जाती थीं और हर बार मन-ही-मन अपने-आपको अधिक नम्बर ती जाती थीं। जितने पुरुष थे वे यह सोच रहे थे कि यदि प्रत्येक लड़की उनके पास एक मिनट खड़ा होकर फिर आगे बढ़े तो अधिक अच्छा हो। लेकिन सुन्दरियों की परेड बहुत शीघ्र समाप्त हो गई और वे सबकी सब हमारी, अर्थात् मेरी और लेडी गामा की कुर्सियों के पीछे एक दायरे में रखी हुई कुर्सियों पर सुशोभित हो गईं।

लेडी गामा ने उठकर एक-एक सुन्दरी को बारी-बारी से माइक के सामने बुलाया। उपस्थित लोगों से उनका परिचय कराया। उनसे धन्यवाद के दो शब्द कहलवाए और फिर उन्हें वापस कुर्सी पर भेज दिया। इससे कम से कम यह तो हुआ कि दर्शकों को उन सुन्दरियों को अच्छी तरह देखने का अवसर मिल गया- न केवल दर्शकों को, बल्कि मुझे भी, जिसे अभी-अभी इस सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने वाली प्रत्येक सुन्दरी मुस्कराकर सबका धन्यवाद् करती थी, लेकिन जब वह मेरा धन्यवाद करने के लिए मेरी ओर झुकती थी तो अपने होंठों की सबसे मधुर मुस्कान एक कली की तरह मेरी ओर फेंकती थी। कितनी कृपा प्रार्थी मुस्कानें थीं वे आंखें, नजरें, शायद होंठ कहते थे, “अगर कहीं तुम हमें 'सुन्दरता की रानी' की उपाधि प्रदान कर दो तो हम तुमसे विवाहको तैयार हो जाएंगी, हालांकि तुम केवल एक गधे हो।"

रूपवती की मुस्कान सबसे विचित्र थी । उसकी मुस्कान में एक विचित्र प्रकार का सन्तोष था, एक विचित्र प्रकार की मालिकाना मुस्कराहट!

कमला ने न केवल अपनी मुस्कराहट से बल्कि अपने शरीर के प्रत्येक अंग से मुझपर भरपूर वार किया। ऐसी चमकती हुई बल्कि चुंधियाई हुई मुस्कराहट थी वह कि मैं सहन न कर सका। मैंने नजरें नीची कर लीं। सचमुच यह कमला बड़ी खतरनाक औरत थी। उसके शरीर का प्रत्येक अंग कह रहा था-मुझसे बचकर कहां जाओगे। मैं संसार भर की सबसे सुन्दर स्त्री हूं- तुम्हें विवश होकर मुझीको 'सुन्दरता की रानी' चुनना पड़ेगा ।

कमला की मुस्कान में एक विचित्र प्रकार का निमन्त्रण था। मेरा दिल कांपने लगा।

आखिर जब लेडी गामा ने घोषणा की कि श्रीमान् गधे जी सौन्दर्य- प्रतियोगिता का फैसला सुनाएंगे तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

माइक्रोफोन हटाकर कहा "महिलाओ तथा सज्जनो!

“जिस तरह यहां पधारने वाली बहुत सी महिलाओं ने इस सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेना जरूरी समझा क्योंकि उनकी सुन्दरता की ख्याति प्रमाण सिद्ध है, इसी प्रकार मैं भी अपने लिए माइक्रोफोन का प्रयोग जरूरी नहीं समझता क्योंकि मेरी आवाज की कड़क भी प्रमाण सिद्ध है। (तालियां और कहकहे) और मेरा ख्याल है कि किसी गधे को भी माइक्रोफोन के प्रयोग की आज्ञा नहीं होनी चाहिए हालांकि मैंने बड़े-बड़े गधों को माइक्रोफोन का अनुचित प्रयोग करते देखा है.....

(कम तालियां, कम कहकहे)

"महिलाओ तथा सज्जनो!

“इस अवसर पर भारत के कोने-कोने से सुन्दरियां सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने आई हैं, इसका हमें हर्ष है; लेकिन दुःख उन सुन्दरियों के लिए है जो किसी कारण से इस प्रतियोगिता में भाग न ले सकीं।

“मैं एक गधा हूं, इसलिए मेरी स्पष्टोक्ति पर मुझे क्षमा किया जाए, यदि मैं साफ-साफ कह दूं कि मुझे दुःख उस मजदूर औरत का है, जो दो बच्चों की मां होने के बावजद इतनी सुन्दर है कि अगर वह इस प्रतियोगिता में भाग ले सकती तो आप उसे देखकर हैरान रह जाते ।

"मगर वह इस प्रतियोगिता में भाग न ले सकी क्योंकि वह दो बच्चों की मां है। उसके पास न इतना समय था न इतना किराया ही कि वह यहां तक आ सकती। उसके पास इस सौन्दर्य प्रतियोगिता के प्रवेश-पत्र के लिए पच्चीस रुपये भी नहीं थे। फर्ज कीजिए कि किसी तरह रुपये का प्रबन्ध करके वह यहां आ भी जाती और इस प्रतियोगिता की 'रानी' भी चुन ली जाती तो भी लासऐंजल्स अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेने का प्रश्न बना रहता, क्योंकि उसके दो बच्चों को लासऐंजल्स की सैर कौन कराता? और अगर वह बच्चे यहां छोड़ जाती तो वे खाते कहां से?

"मैं एक स्वर्गीय धोबी का गधा हूं। मेरी मालकिन के दो बड़े प्यारे-प्यारे बच्चे हैं। वह आज भी इतनी सुन्दर है कि अगर वह भूल से यहां आ जाए तो आप सब लोग आदरवश खड़े हो जाएंगे और एकमत हो उसे 'भारत की रानी' की उपाधि दे देंगे। लेकिन अफसोस है कि वह भी इस प्रतियोगिता में भाग न ले सकी। वह इस समय कपड़े धो रही होगी, ऐसी लड़की के कपड़े जो स्वयं इस
......................

ऊंची एड़ी वाले, नीची बुद्धि वाले सब अपनी-अपनी वस्तुओं का विज्ञापन करते हैं।

“इसलिए मैं आपसे कहता हूं कि आपकी वह सौन्दर्य प्रतियोगिता बिल्कुल फ्राड है धोखा है, जालसाजी है और बददयानती है और मेरा इसके बारे में यही फैसला है।"

जब मैंने यह भाषण समाप्त किया तो उसके बाद कुछ क्षण तक तो हाल में सन्नाटा रहा, ऐसा पूर्ण सन्नाटा कि मेरा जी चाहा उसे तोड़ने के लिए जोर से रैंकना शुरू कर दूं।

कुछ क्षणों के बाद से खुसर- फुसर शुरू हो गई। हमारे पीछे बैठी हुई सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने वाली कुछ सुन्दरियां मूर्छित हो गयीं। कई चीखें मरने लगीं। थोड़े समय बाद हाल में प्रत्येक व्यक्ति चिल्ला रहा था

“साला!”
“कमीना !”
"गधा कहीं का!”
"मूर्खानन्द !”

“इसे बाहर निकाल दो! जूते मारकर बाहर निकाल दो! कौन-सा गधा पकड़ लाए हो! बदतमीज ! बदजबान !! नालायक!!!”

फिर ‘गधा मुर्दाबाद' के नारे शुरू हो गए। कुछ मनचले हल्ला बोलकर स्टेज पर चढ़ आए। उनका इरादा था कि सभापति का सत्कार इण्डों से करें। लेकिन मैं उनका इरादा भांप गया। इसलिए मैंने छूटते ही दो-चार दुलत्तियां बल्कि चौलत्तियां ऐसी जमाई कि उन शूरवीरों से भागते ही बनी। मुझे विफरते देखकर स्टेज पर भी हंगामा मच गया। माइक्रोफोन गिर पड़ा। लेडी गामा बेहोश हो गईं। लड़कियां चीखने-चिल्लाने लगीं। ऐसी स्थिति में मैंने वहां से खिसकना ही उचित समझा। अतएव मैं स्टेज पर दुलत्तियां झाड़ता हुआ और अपनी विशेष बोली बोलता हुआ नीचे उतरा और भागता हुआ क्लब के बाहर चला गया। बहुत से लोग क्राँध में आकर मेरे पीछे भागे, परंतु उस समय मेरे जीवन और मृत्यु का प्रश्न था, इसलिए मैंने भी आंखें बंद करके अन्धाधुन्ध भागना शुरू कर दिया।

मुझे मैं न-सी सड़क से किधर को भागा, किधर मुड़ा, किधर घुस पड़ा। मुझे उस समय होश आया, जब मेरा सिर एक मेज से टकराया और बहुत-सी चौनी की प्यालियां एकदम छन-से-छूट पड़ीं और बहुत से लोग एकदम घबराकर अपनी-अपनी कुर्सियों पर से उठ खड़े हुए और बाहें फैला- फैलाकर चिल्लाने लगे-

“यह गधा किधर से घुस आया, निकालो इसे बाहर!”

अब मैंने जरा ध्यानपूर्वक इधर-उधर देखा तो मालूम हुआ कि मैं तो विलिंगडन क्लब से बहुत दूर, इण्डिया गेट से भी बहुत आगे, जींद हाउस में घुस आया हूं। यहां जींद हाउस के लंबे-लंबे लॉन में एक बहुत बड़ी गार्डन पार्टी प्रबंध किया गया था, जिसे मैंने आकर तहस-नहस कर दिया था।

14. भाग जाना गधे का विलिंगडन क्लब से और घुस जाना साहित्य अकादेमी में और मुलाकात करना देश के सुप्रसिद्ध लेखकों से-

मैं अभी वहीं खड़ा था और चौकन्ना होकर सोच रहा था कि अब किधर जाऊं, कि क्या देखता हूं कि एक लेखकों जैसी मुखाकृति का व्यक्ति सिर से कंधों तक बाल लटकाए, हाथ में ढेला उठाए मुझे मारने चला आ रहा है। उसका चेहरा किताबी था, माथा नूरानी और दादी सफेद ! पहले तो वह मुझसे दूर रहा और ढेला उठाए डराता रहा और कहता रहा-

“अहिंसा में विश्वास रखता हूं, नहीं तो अभी ढेला मार देता । भलाई इसी में है कि यहां से चले जाओ।"

"पीछे-पीछे बहुत से लोग डण्डे उठाए मारने को चले आ रहे हैं, इसलिए वापिस नहीं भाग सकता, चाहे तुम हिंसा करो या अहिंसा।"

मुझे बोलता देख उस व्यक्ति के हाथों से ढेला छूट गया। आंखें फटी की फटी रह गई, रंग उड़ गया और दाढ़ी के बाल यों कांपने लगे कि मुझे भय होने लगा, कहीं उसकी दाढ़ी चेहरे से छूटकर नीचे न गिर पड़े। किसी प्रकार कुछ क्षणों के बाद उस महानुभाव ने अपने-आप पर काबू पाया और बड़ी मुश्किल से बोला- "तुम कौन हो?"

मैंने कहा,

"बनाकर गधों का हम भेस गालिब'
तमाशा-ऐ-अहले-करम देखते हैं।

वह व्यक्ति यह सुनते ही पलट गया। अपनी मेज पर जाकर अपने साथी लेखकों से कहने लगा, “मित्रो! कमाल हो गया।"

"क्या हुआ?" बहुत-से लेखक एक साथ बोल उठे । “चाचा गालिब गधे का भेस बनाकर हमसे मिलने आए हैं। "

“झूठ!”

“अरे नहीं, अपनी आंखों से देख लो, अपने कानों से सुन लो - वे सामने खड़े हैं। उस महानुभाव ने मेरी ओर संकेत किया।

इतने में चपरासी, साहित्य अकादेमी का सेक्रेटरी और उनका असिस्टैंट, जिसका नाम मुझे बाद में मालूम हुआ कि श्री डी. डी. गुड़च है-वे सब डण्डे उठाए मुझे बाहर निकालने आए कि उस महापुरुष ने हाथ के संकेत से उन्हें रोक दिया, बल्कि मेरे लिए स्पेशल कुर्सी लाने को कहा।

इसके बाद मुझे बड़े आदर से उन लेखकों की सभा में बिठाया गया। बहुत लोग मुझे बराबर घूरे जा रहे थे। आखिर मुझसे न रहा गया, मैंने कहा, "क्यों सज्जनो ! क्या आपने आज तक कोई गधा नहीं देखा जो इसे बुरी तरह घूर रहे हो?"

एक सज्जन बोले, "हम सब जानते हैं। आप वह बताइए कि आपने अपनी यह दशा क्यों बना रखी है-किसलिए?"

मैंने कहा, “इस मिट्टी के पुतले जिस्म को किसी तरह तो ढांपना चाहिए।”

“कहिए, कैसे आना हुआ? जहां पर आप हैं वहां पर तो कोई मुश्किल से आ सकता है।"

"जी हां, बजा इरशाद फर्माया ! बड़ी मुश्किल से आया हूं। अभी तक कानों में उन लोगों की आवाजें गूंज रही हैं, जो मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे।"

“अजी साहब! आपके शेर जो एक बार सुनेगा, वह सौ बार आपके पीछे भागेगा, इसमें क्या शुबहा है !" यह मरियल-सा लेखक बड़ी मरियल आवाज में बोला ।

“शेर!” मैं आश्चर्यचकित सा रह गया। उस पहले महानुभाव ने मेरे कान में कहा-

"मैंने इन्हें बता दिया है कि आप कौन हैं ! गालिब, गधे के भेस में ।”

“गालिब! लाहौल बिलाकुव्वत!” मैंने क्रोध भरी नज़रों से उसकी ओर देखकर कहा, “अजी साहब! मैं तो एक मामूली गधा हूं, जिसे लिखने-पढ़ने की - सुध-बुध है ! कहां मैं और कहां गालिब ! "

"अच्छा! अच्छा!" अकादेमी के सेक्रेटरी साहब बोले, “मैं समझ गया, आप वे बोलने वाले गधे हैं, जिनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे हैं। ”

"अजी बोलने वाले गधे तो दुनिया में बहुत हैं। हां, चित्र किसी-किसी के छपते हैं।” मैंने सिर झुकाकर कहा, "लेकिन मेहरबानी करके मुझे यह तो बतलाइए कि मैं किस महफिल में बिना बुलाए मेहमान की तरह घुस आया हूँ?"

"सेक्रेटरी साहब बोले, “यह साहित्य अकादेमी, कला केन्द्र और संगीत- नाट्य अकादेमी की मिली-जुली सभा है। "

“आपको यहां पर भारत भर के चोटी के लेखक, कलाकार, संगीतकार तथा नाटककार मिलेंगे। इस मेज पर, जहां आप बैठे हैं, देखिए, ये महानुभाव श्री गन्द्रनाथ नागपाल हैं। आप हिन्दी के सबसे बड़े उपन्यासकार हैं। आपने दस उपन्यास लिखे हैं । इनके उपन्यासों की विशेषता यह है कि जो बात आप एक उपन्यास में कहते हैं, दूसरे उपन्यास में स्वयं ही उसका खण्डन कर देते हैं। इनका पूरा साहित्यिक जीवन अपनी कही हुई बातों के खण्डन में व्यतीत हुआ है। इसलिए तो हिन्दी साहित्य में इनका विशेष स्थान है। ये हमारी कार्यकारिणी समिति के सदस्य हैं। इनसे मिलिए, ये अचकन वाले, टोपी वाले, चुग्गी दाढ़ी वाले अब्बू अदीब हैं। इनका कमाल यह है कि पिछले पन्द्रह वर्षों से इन्होंने उर्दू साहित्य की कोई पुस्तक नहीं पढ़ी। ये भी हमारी कार्यकारिणी समिति के एक सदस्य हैं। आपसे मिलिए, आप श्री सुन्दरसिंहजी हैं, आप लेखक हैं न अदीब, न कवि, न शायर, लेकिन बड़ी ऊंची श्रेणी के धर्मोपदेशक हैं | आप भी हमारी कार्यकारिणी समिति के सदस्य हैं। आपसे मिलिए, श्री डी. डी. गुड़च! गुजराती के लेखक हैं, लेकिन गुजराती के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखकों तथा उनके साहित्य पर आपकी दृष्टि बड़ी गहरी है। आप श्री अब्दुल शकूर प्रोफेसर ! यद्यपि आप भी अदीब नहीं हैं फिर भी पिछले पन्द्रह वर्षो से इस बात पर रिसर्च फर्मा रहे हैं कि उर्दू का कायदा अगर 'अलफ' के स्थान पर 'ये' से शुरू हो तो कैसा रहे!"

“कैसा रहे?” मैंने पूछा। अब्दुलशिकूर बोले, "मेरा ख्याल है कि अगर अब एक बच्चा उर्दू का कायदा छह महीने में खत्म कर लेता है, तो फिर छह साल में खत्म किया करेगा।” मैंने पूछा, “इससे क्या फायदा होगा?” ।

वे बोले, “इससे एक तो एक बच्चे की समझ-बूझ की बुनयादें पक्की होंगी और दूसरे जबान मुश्किल से मुश्किलतर होती जाएगी।”

“मुश्किल जबान से क्या फायदा होगा?"

“सही इल्म तो मुश्किल जबान में ही मिलती है।”

अब्दुल शकूरजी फिर बोले, "हमारे यहां तो सहज जबान में लिखने वाले हीं। हमने अपनी साहित्य अकादेमी में इस बात का खास इन्तजाम कर रखा है कि कोई ऐसा अदीब इसमें न घुसने पाए, जिसने पिछले पन्द्रह-बीस साल में कोई बात, कोई काम की बात आसान जबान में कही हो । हमारे सामने अकादेमी फ्रांसे का उदाहरण है। उस अकादेमी में रूसो और वाल्टेयर जैसे अदीबों को शामिल नहीं किया गया था। "

मैंने कहा, “आपको इस बात पर फ़न करने के बजाय शर्म आनी चाहिए।"

" अपना-अपना विचार है। " श्री गणेन्द्रनाथ नागपाल ने एक रसगुल्ले की ओर देखते, बल्कि योगाभ्यास करते हुए कहा ।

"खैर, छोड़िए इस बात को," मैंने बाँत को पलटते हुए कहा, "मुझे बचपन से पढ़ने-लिखने का शौक रहा है, क्या मैं अकादेमी का मेम्बर हो सकता हूं?" “बस यही तो खराबी है।” श्री गुड़च इन्कार में सिर हिलाकर बोले ।

“क्या?”

"यही कि आपको पढ़ने-लिखने का शौक है। " श्री गुड़च मुझे समझाते हुए बोले, “वास्तव में हमारे यहां मेम्बर होने के लिए बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पहली बात तो यह है कि हम पचास वर्ष से इधर की आयु के लेखक को अपना मेम्बर बनाते ही नहीं, क्योंकि इस समय तक वह वास्तविक शब्दों में जिम्मेदार नहीं कहला सकता। आप हमारी अकादेमी के मेम्बरों को देखिए। एक से एक बूढ़ा पड़ा है, जिसने वर्षों से कोई पुस्तक नहीं पढ़ी, न पढ़ने
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मैंने इधर-उधर देखा। इस बहस में भाग लेने को कोई तैयार नहीं था। श्री गणेन्द्रनाथ नागपालजी ने रसगुल्ला निगल लिया था और अब समाधि में चले गए थे। श्री अब्बू अदीब ऊंघते ऊंघते मराक्बे (समाधि) में पहुंच गए थे।

सुन्दरसिंहजी इस तरह बार-बार अपनी दाढ़ी खुजला रहे थे, जैसे उन्हें कोई नयाँ विचार सता रहा हो, हालांकि वहां केवल खुजली थी। जब मैंने यह देखा कि कोई लेखक इस खतरनाक बहस में भाग लेने को तैयार नहीं, तो मैंने भी यही उचित समझा कि घास खाना शुरू कर दूं। एक गधा इससे अधिक कर भी क्या सकता है-विशेषकर जब उसे ऐसे लोगों से पाला पड़े जो अपनी प्रकृति से लेखक कम और मढ़ा के महन्त अधिक मालूम होते हो।

मैंने घास खानी शुरू कर दी। अभी दो-तीन कौर ही लिए थे कि उधर से खटका हुआ। देखा तो एक महाशय गले में चादर डाले, धोती बांधे, तानपूरा हाथ में लिए मुस्कराये हुए मेरी ओर चले आ रहे हैं।

पास आकर बोले, "हमने सुना है, आपको पक्का गाना सुनने का शौक है। " मैंने कहा, “अजी, मैं स्वयं पक्का गाना गाता हूं। कहिए तो अभी मैं दरबारी विलम्बित शुरू कर दूं।”

वे हंसकर बोले, “नहीं! अभी तो आप चलकर हमारे संगीतकार से 'गुणकली' सुनिए ।"

“ठहरिए तो,” मैंने कहा, “यह थोड़ी-सी घास खा लूं। फिर जाने कब मिले न मिले..."

15. जाना गधे का अकादेमी की सभा में और सुनना 'गुणकली' का और स्वयं सुनाना एक पक्का गाना और पकड़े जाना वहां पर और रस्सी से बांधकर ले जाना मिस रूपवती का उसको

चूंकि यह कला-संबंधी तीनों अकादेमियों की संयुक्त सभा थी, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसे पक्के गाने में दिलचस्पी थी या नहीं, 'गुणकली' सुनने में पूर्ण रूप से निमग्न हो गया।

'गुणकली' डेढ़ घंटे तक जारी रही। इस बीच में मैं धीरेधीरे घास खाता रहा। तन्मयता ऐसी थी कि कभी-कभी मुझे यह अनुभव होने लगता मानो मैं ‘गुणकली' खा रहा हूं और घास सुन रहा हूं। बहुत से लेखक कुर्सियों पर सिर टिकाए सो गए थे। अब्बू अदीब तीन ताल के खर्राटे ले रहे थे। कला केन्द्र के कुछ कलाकार उकताकर 'गुणकली' गाने वाले उस्ताद कृष्णदास देशपाण्डे के कार्टून बना रहे थे; हालांकि जो स्वयं कार्टून हो, उसका कार्टून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

उस्ताद कृष्णदास देशपाण्डे का घराना पिछले डेढ़ सौ वर्ष से 'गुणकली' के आलाप का विशारद समझा जाता था। पिछले डेढ़ सौ वर्ष से उस घराने ने केवल इसी राग का अभ्यास किया था, अन्य सब राग-रागिनियां छोड़ दी थीं और शायद इसलिए ‘गुणकली' में ऐसी प्रवीणता प्राप्त की थी कि डेढ़ घण्टा 'गुणकली' सुनने के बाद फूलों को भी नींद आने लगती थी और वे बोर होकर अपनी पत्तियाँ बंद करके फूल से कली बन जाते थे। क्लासिकल संगीत विद्या का चमत्कार आज भी उस्ताद कृष्णदास देशपाण्डे के घराने में देखा जा सकता है।

'गुणकली' के बाद पन्द्रह मिनट का आराम दिया गया। यदि न देते तो बहुत संगीत प्रेमियों के हार्टफेल हो जाने का भय था । इस विराम के दौरान में सुनने वालों को चाय पिलाई गई और सुनाने वालों के फेफड़ों में ऑक्सीजन भरी गई, क्योंकि क्लासिकल संगीत की एक विशेषता यह भी है कि इसे डेढ़-दो घंटे गाने के बाद तुरंत ऑक्सीजन की आवश्यकता अनुभव होती है।

मैंने एक संगीतकार से पूछा, “मैंने सुना है क्लासिकल संगीत में कई राग ऐसे हैं, जिनका आलाप पूरा होते-होते तीन घंटे लग जाते हैं।

"तीन घंटे ! " संगीतकार ने खफा होकर कहा, “अजी महाशय ! इस विराम के बाद आपको उस्ताद रघीबअली खां गन्धर्व मात्रा 'मियां की मल्हार' सुनाएंगे, जो कम से कम छः घंटे तक का प्रोग्राम है। आज उस्ताद पूरी तरह तैयार होकर आए हैं। ”

मैंने कहा, “आप भी तो ऐसे अवसरों के लिए उनकी कब्र खोदकर तैयार रखते होंगे।"

“क्या मतलब?” मैंने कहा, “अगर मुझे गणित का एक ही प्रश्न दो लाख बार हल करने को दिया जाए तो इस बीच में किसी न किसी दुर्घटना का हो आवश्यक है। संभव है, मैं पागल हो जाऊं। किसी के बाल नोच लूं, आपका गला काट डालूं ।”

संगीतकार ने मुझे समझाते हुए कहा, “क्लासिकल संगीत में ऐसा नहीं होता। हां, अधिक से अधिक गाने वाला बेहोश हो जाता है। इससे अधिक आज तक कुछ नहीं हुआ। संभव है, किसी सुनने वाले ने घर जाकर आत्म-हत्या कर हो, लेकिन हमारी अकादेमी के पास इस प्रकार की कोई सूचना नहीं है, इसलिए पूरे विश्वास से हम कुछ नहीं कह सकते।”

मैंने कहा, "मैंने तो यही सुना है कि जब से आपने और ऑल इण्डिया रेडियो क्लासिकल संगीत को प्रोत्साहन देना आरंभ किया है, देश में पागलों और आत्म-हत्या करने वालों की संख्या बढ़ गई है।” दूसरे संगीतकार ने, जो हमारी बातें सुन रहा था, मेरी ओर देखकर कहा, " मगर सन्तुलन के साथ। जिस क्लासिकल संगीत के प्रसार के लिए आप प्रयत्नशील हैं, उसमें से संगीत तो बिल्कुल निकल जाता है, केवल गणित विद्या बाकी रह जाती है।”

"आप नहीं जानते," दूसरे संगीतकार ने क्रुद्ध होकर कहा, “हमारा भारतीय संगीत संसार का सबसे प्राचीन संगीत है। पिछले तीन हजार वर्ष में इस संगीत का एक सुर नहीं बदला है। राग का जो सुर आज से तीन हजार वर्ष पहले था, वही आज भी है। "

मैंने कहा, "इसमें गौरव की क्या बात है? हमारे अपने वंश में जब से संसार बना है, हमारे घराने के संगीत का एक भी सुर नहीं बदला। एक गधा आज से एक लाख साल पहले जिस तरह गाता था, आज भी उसी तरह गाता है। क्या मजाल जो कहीं एक सुर का भी फर्क रह जाए। कहिए तो अभी गाकर सुनाऊं।” पहले संगीतकार ने घूरकर मेरी ओर देखा मगर चुप रहा।

मैंने कहा, "कभी न बदलना, कभी किसी से न सिखना, अपने ढर्रे में कभी कोई परिवर्तन न करना कोई विशेष गुण तो है नहीं । जीवन के अन्य विभागों की तरह कला में भी परिवर्तन होते रहें तो अच्छा है और यह कहना कि भारतीय संगीत ने बाहर से कोई प्रभाव स्वीकार नहीं किया, बिल्कुल गलत है।

"जिस प्रकार भारतीय संगीत भारत से बाहर गया, उसी प्रकार अरबी और यूरोपीय संगीत बाहर से यहां आया है। उसने भारतीय संगीत से मिलकर जीवन का नया संगीत उत्पन्न किया है, जो निस्सन्देह पहले से अधिक मनमोहक है। आप बाहर से प्रभावों को अपने संगीत में से क्यों निकाल फेंकना चाहते हैं? यह प्रतिक्रिया आपको क्यों पसंद है?"

“हम अपने देश की संस्कृति में विदेशी तत्त्वों को क्यों घुसा रहने दें।

“हर देश की कला तथा संस्कृति का अपना एक स्वभाव होता है। वह निस्सन्देह राष्ट्रीय होता है, लेकिन उसमें जो बाहर के तत्त्व आकर इस प्रकार घुल-मिल गए हों कि अपनी राष्ट्रीय संस्कृति तथा उसके स्वभाव का एक अंग बन गए हों, उन्हें चुनकर इस प्रकार निकाल फेंकना जिस प्रकार आजकल भाषा में से बहुत से विदेशी शब्द निकाले जा रहे हैं; महामूर्खता है।

“मैं क्लासिकल संगीत के विरुद्ध नहीं हूं, लेकिन मैं यह जरूर चाहता हूं कि आप लोक संगीत की भी उन्नति करें और फिल्मी संगीत में यूरोपीय और अरबी को सोकार जो नए संगीत का निर्माण किया जा रहा है, उसकी ओर भी ध्यान दें। उसकी त्रुटियों पर नजर रखें, लेकिन उसकी अच्छाइयों की प्रशंसा भी करें। आश्चर्य है कि हमारा लोक-संगीत और फिल्मी-संगीत भारत की पूरी जनता और भारत से बाहर पूरे एशिया और अफ्रीका बल्कि यूरोप में भी प्रसिद्ध हो रहा है, लेकिन यहां के संगीत आकदेमी सांप की कुण्डली बनाए उसी प्रकार क्लासिक संगीत के ऊपर बैठी है। क्या आप अपनी केंचुली को कभी नहीं उतारिएगा? और फिर आप यह क्या कहते हैं। यों तो आप क्लासिक संगीत का प्रोपेगण्डा करते हैं।

भारत भर में जनता की अभिरूचि को ऊंचा करना चाहते हैं। लेकिन जब कोई शो करते हैं और उसमें बड़े उस्तादों को बुलाते हैं तो टिकट का दाम सौ रुपया रखते हैं। क्या आपका ख्याल है कि ऊंचा टिकट रखने से जनता की अभिरूचि ऊंची हो जाएगी?

“महाशय! आप पचास-पचास हजार के जन-समुदाय में हमारे प्रसिद्ध को नहीं सुना सकते, जो हमारा राष्ट्रीय धन है। अगर आप संगीत के भंडारों से भारतीय जनता को लाभान्वित नहीं कर सकते और उसे केवल सप्रू हाउस तक ऊपर के वर्ग के कुछ व्यक्तियों तक सीमित करना चाहते हैं, तो फिर मैं कहूंगा कि इस देश को ऐसी संगीत अकादेमी की आवश्यकता नहीं है और उसे जनता के खजाने से एक पाई तक नहीं मिलनी चाहिए।"

क्रोधवश मेरी पूंछ खड़ी हो गई। उधर उस्ताद रघीबअली खां गन्धर्व मात्रा का आग्रह था कि जब तक यह गधा सभा में मौजूद है, वे 'मियां की लहर' नहीं सुनाएंगे। विवश हो कला केन्द्र के माननीय सदस्य श्री म. म. चन्द्रे मेरे पास आए और बड़े विनम्र स्वर में मुझसे बोले -

"हमारी प्रदर्शनी को आपने देखा ही नहीं भारतीय चित्रकारों के बहुत-से नए- नए चित्र आए हैं। अभी परसों ही इस प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ है। जरा चलकर आप भी उसे देख लीजिए और अपनी बहुमूल्य राय दीजिए।”

श्री म. म. चन्द्रे ने पूरे पांच वर्ष तक पेरिस में रहकर भारतीय चित्रकला की शिक्षा प्राप्त की है। उनके एक मित्र 'कांटे ही कांटे' पर इस प्रदर्शनी के जजों ने दूसरा पुरस्कार दिया है। वे सबसे पहले मुझे अपने उसी चित्र को दिखाने ले । यह चित्र एक बहुत बड़े कैनवस पर था। एक नग्न स्त्री की पीठ का चित्र था, जो गर्दन मोड़े अपने पांव से कांटा निकाल रही थी।

मैंने पूछा, “नंगा दिखाना क्यों आवश्यक था? स्त्री अगर बाथरूम में न हो तो उसे कांटा प्रायः उसी समय चुभता है, जब वह कोई लिबास पहने हुए न हो।"

चन्द्रे ने कहा, “आप चित्र को समझे नहीं। देखने में यह कांटा इस स्त्री को चुभ रहा है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। ”

"फिर क्या है?" मैंने पूछा ।

“कांटा नहीं, स्त्री इस कांटे को चुभ रही है।” म. म. चन्द्र ने बड़े गौरव से मुझे समझाया।

"अच्छा! कांटा इस स्त्री को नहीं चुभ रहा, स्त्री इस कांटे को चुभ रही है! क्या कहने हैं! यह रहस्य अब मेरी समझ में आया। देखिए न, मैं भी कितना गधा हूं, मार्डन कला को अभी तक नहीं समझ पाया। "

"पूरी प्रदर्शनी देख लीजिए।" म. म. चन्द्रे सहानुभूति प्रकट करते हुए बोले, “फिर कुछ न कुछ समझ में आ जाएगा यह देखिए! इस काल्पनिक कला का अद्भुत उदाहरण ! उसे मिस्टर गरफिश ग्रामे ने भेजा है!”

त्रिकोणों, चतुष्कोणों में घिरी हुई कहीं कहीं एक स्त्री की झलक नजर आ जाती थी। बांहों के स्थान पर वायलिन बनी हुई थी, गर्दन के स्थान पर सितार के तार खिंचे हुए थे। जहां स्त्री का धड़ होता है, वहां तानपूरा बनाया गया था। कण्ठ के बाहर एक हथौड़ा लटका हुआ था।

मैंने पूछा, "यह क्या है?" वे बोले, "यह रोशनआरा बेगम का चित्र है।” मैंने कहा, "अरे वह महान् संगीतकार इस चित्र को देखने के बाद भी जीवित है?"

(यह रचना अभी अधूरी है)

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