एक बूढ़े आदमी के खिलौने (कहानी) : प्रकाश मनु
Ek Boodhe Aadmi Ke Khilaune (Hindi Story) : Prakash Manu
1
आज उस बूढ़े को याद करने से फायदा? मैं सोचता हूँ। उसे गुजरे तो कोई साल भर होने को आया। पिछली सर्दियों की बात थी। जाड़ा उस बरस भी खासा पड़ा था और दिसंबर के महीने मे आते-आते तो उसका रंग इतना गाढ़ा हो गया था कि अच्छे-अच्छे खाँ चीं बोल गए थे।...तब वह बूढ़ा! सबसे त्याज्य, निरुद्देश्य जीवन जीता हुआ! उसे गुजरना था, वह गुजर गया। जीता रहता भी तो क्या लेता? उसकी जिंदगी में अब बचा ही क्या था!
दो बेटे थे, वे दूर-दूर थे। एक हैदराबाद में, दूसरा कलकत्ता! पत्नी पहले ही गुजर चुकी थी। बेटों का, बहुओं का क्या! फिर बेटों के बेटे-बेटियों, नाती, पोते-पोतियों का कोई खास लगाव था उस बूढ़े के साथ, ऐसा तो कभी कोई खास जिक्र उसने नहीं किया था! हाँ, छोटे बेटे का एक छोटा-सा अप्पू था, तीन बरस का उस बूढ़े का पोता, जो जरूर यहाँ आने पर उससे बातें करता था और उसे अपने खिलौने दे गया था, एकांत काटने के लिए! जी हाँ, खिलौने...! भालू, हाथी, हिरन, जोकर वगैरह-वगैरह। आपको यकीन नहीं आया?
अलबत्ता ऐसा अकेला!...बिलकुल अकेला और अकारज-अकारथ आदमी! ठंड लगी, नहीं बर्दाश्त कर पाया और चल बसा तो इसमें कौन सी अनहोनी हो गई, भई राजेश्वर बाबू? दुनिया में इतने लोग रोजाना मरते हैं, उसे भी मरना था। तब भी, जब से वह गुजरा है, यह निरंतर जी को कलपाने वाला शोक कि वह बूढ़ा...वह बूढ़ा...वह बूढ़ा! क्यों भई, उस बूढ़े की माला अपने से तुम्हें क्या मिलने वाला है मि. राजेश्वर कौशिक?
मेरे भीतर जाने कौन है जो हँसा है और मैं थरथरा उठा हूँ!
उफ, हँसी ऐसी कातिल—क्रूर! क्या यह समय है? आज का समय, जिसमें मौत भी मजाक है, खिल-खिल, हँसने की चीज है!
जितना-जितना उसकी मौत को छोटा किया जा रहा है, उतना-उतना मेरे भीतर प्रचंड आँधी-सी उठती है, नहीं-नहीं-नहीं...! और मौत के खिलाफ उस बूढ़े का लंबा, अनवरत संघर्ष मुझे याद आता है। उसकी जीने की अपरंपार ललक। उसकी गहरी, गहरी, बहुत-बहुत गहरी जिजीविषा! याद करता हूँ, तो आँखें बरसने लगती हैं, वह बूढ़ा... वह अकेला, एकाकी बूढ़ा, महाभारत के भीष्म पितामह-सा! आह, वह बूढ़ा!
यों मेरा उसका रिश्ता तो क्या था? सोचता हूँ। सोचता हूँ तो सोच की धारा रुकने का नाम ही नहीं लेती और यादों की वेगवान नदी के साथ बहुत कुछ अल्लम-गल्लम बहता चला आता है।
2
हाँ, पर मेरा उसे रिश्ता ही क्या था? कौन सा भावनात्मक तंतु...!
बस, यही न कि सुबह-सुबह मुँह अँधेरे जब हम दोनों पति-पत्नी घूमने जाते थे, तब वह कृशकाय, सौम्य बूढ़ा अक्सर हमें चौराहे के पास वाली पुलिया पर बैठा नजर आता था। और हमें देखते ही उसकी आँखों की चमक थोड़ी बढ़ जाती थी। झुर्रियों से भरे चेहरे पर जरा लुनाई आ जाती थी, या शायद ऐसा हमें ही लगता था। और फिर उसका दिल की मिठास से पगा सा सुर, ‘राम-राम... बाबू जी राम-राम!’ अचानक छलक पड़ता था।
“राम-राम, बाबा राम-राम!...ठीक तो हो न!” रोज-रोज मेरा वही चिर-परिचत ढंग बात शुरू करने का। जवाब में रोज की उसकी वही चिर-परिचित हँसी। बड़ी सरल, निष्कलुष और अपनापे से भरी हुई।
“ठीक हूँ... बाबू! ठीक हूँ, एकदम फस्र्ट क्लास!”
‘फस्र्ट क्लास’ कहने में, लगता था...हमेशा लगता था कि उसे थोड़ा ज्यादा जोर लगाना पड़ रहा है, ताकि भीतर जो चोर था वह पकड़ में न आए। लिहाजा कुछ अतिरिक्त उत्साह से निकलता था—‘फस्र्ट क्लास! एकदम फस्र्ट क्लास!’
यों बरसों की मुलाकातों के बाद भी परिचय उससे कुछ खास नहीं था। हाँ, उसके ‘राम-राम बाबू जी!’ अभिवादन के साथ बात कभी थोड़ी इधर, थोड़ी उधर बढ़ जाती थी कि यानी उसने हमारे घर का नंबर ले लिया, हमने उसके घर का। वह शहर की एक पुरानी ‘अशर्फीलाल एंड संस’ नाम की कंपनी में एकाउटेंट था और अब पिछले पाँच-सात बरसों से सेवामुक्त था। नाम रमाकांत सहाय।...यह भी भला कोई ऐसा परिचय हो सकता है जिसे उत्सुकता से याद रखा जाए?
और उसे भी हमारे बारे में सिर्फ इतना पता था कि हम दोनों पति-पत्नी सुबह-सुबह बिना नागा घूमने निकलते हैं। चाहे गरमी हो, घोर जाड़ा या बारिश। कोई भी मौसम हमारे कदमों को रोक नहीं पाता। घूमते हुए न जाने कब...शायद बरबस ही आसपास और दुनिया-जहान की बातें हमारी बातचीत में उतरने लगती हैं। पता नहीं कब उस बूढ़े के कानों में वे बातें पड़ी होंगी और उसे लगा होगा, ये लोग कुछ अलग-से हैं। तभी से वह बस उत्सुकता से हमें बातें करते बगल से गुजरते देखता था। और फिर ‘राम-राम...बाबू जी, राम-राम!’ का यह सिलसिला।
कोई ढाई तीन बरस तो हो ही गए।
एकाध बार, याद पड़ता है, उसने बताया था कि हैदराबाद वाला यानी छोटा बेटा दिनेशकांत सहाय घर आ रहा है, पत्नी और बच्चों के साथ। कलकत्ते वाला यानी बड़ा बेटा सुमनकांत सहाय तो कभी आता-जाता नहीं। उसकी पत्नी नखरीली है, बड़े घर की है। उसका तो रंग-ढंग ही कुछ और है! पर हैदराबाद वाला जो छोटा बेटा है, उसमें अब भी थोड़ा दिल बचा है, अब भी बूढे़ बाप को कभी याद कर लेता है। फोन पर हाल-चाल तो लेता ही रहता है।
“शुरू से ही साहब, वह पढ़ाई में तेज है।” कहते-कहते बूढ़े की गदरन हलके-से तन गई। बोला, “मैंने ये उससे कह दिया था बाबू जी, कि तुम्हें जितना पढ़ना है, पढ़ लो। मैं दफ्तर से लोन ले लूँगा। कोई कसर नहीं छोड़ी अपनी तरफ से तो बाबू जी! अब वह वहाँ कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के काम में लगा है।...मियाँ-बीबी दोनों ही नौकरी करते हैं। पचास-साठ हजार से कम तो क्या कमाते होंगे! साल में एकाध बार छुट्टी लेकर कभी-कभार हवा पानी बदलने को इधर आ जाते हैं। तब मेरा घर भी गुलजार हो जाता है।...बच्चों का हँसी-मजाक, दौड़ने-कूदने, फलाँगने का ऐसा छनछनाता संगीत गूँजता है पूरे घर में कि जैसे घर भी जवान हो गया हो। और मुझे तो लगता है कि यह घर मुझसे भी ज्यादा उनका ही इंतजार करता है कि वे लोग आएँ, तो घर में फिर वही चहल-पहल हो, फिर वही सुर-संगीत! मुझे तो बाबू जी, अकेले घर में टीवी खोलकर बैठना भी अच्छा नहीं लगता। अकेले घर में टीवी खोलकर बैठो तो लगता है मनहूसियत टपक रही है। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूँ न बाबू जी!”
ऐसे ही बातों-बातों में उसने अपने छोटे पोते अप्पू के बारे में बताया था कि वह किस कदर नटखट है। बिलकुल आफत का परकाला।
“बाबू जी, बड़ा शैतान है वह।” हँसते-हँसते उसने बताया था, “इतनी बातें करता है, इतनी बातें कि मेरे तो कान खा जाता है। कहता है—दादा जी, चलो, हमारे साथ हैदराबाद चलो। यहाँ रहने से क्या फायदा? मैं पूछता हूँ कि वहाँ चलकर क्या करूँगा? तो कहता है—अरे वाह, आपको अपने साथ पूरा शहर घुमाऊँगा। हम दोनों दो दोस्तों की तरह सुबह-शाम साथ-साथ घूमा करेंगे और खूब बातें करेंगे, क्यों दादा जी? मम्मी-पापा दोनों को फुर्सत नहीं है, तो फिर हम दोनों क्यों न दोस्ती कर लें! इस पर बेटे ने कहा, बहू ने भी कि चलिए बाबू जी, वहीं चलकर रहिए हमारे पास। यहाँ अकेले क्यों पड़े हैं? मैंने पल भर सोचा भी, पर नहीं, बाबू जी, मेरा मन नहीं हुआ। जिस शहर में अपनी जड़ें हैं, उसे छोड़कर जाना? आप देखो, यहीं खेला-कूदा, बचपन गुजारा। शादी हुई, बच्चे हुए। उन्हें पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। फिर यहीं घरवाली की यादें हैं साहब, घर के चप्पे-चप्पे में!...नहीं बाबू जी, नहीं! मैंने मना कर दिया।”
“जड़ें...?” सुना तो मुझे कुछ अजीब-सा लगा।
यह बूढ़ा क्या कह रहा है? ऐसी भाषा तो बरसों से सुनी नहीं मैंने।
अरे, जड़ें-वड़ें क्या होती हैं! जहाँ फायदा देखा, पैसा देखा, उधर भाग निकले। मगर...मगर यह बूढ़ा तो जड़ों की बातें कर रहा है। इक्कीसवीं सदी में भी? अजीब बात है, बहुत अजीब बात!
3
उन दिनों जब शायद दीवाली के आसपास जब उसके घर बेटा-बहू आए हुए थे, उसके बार-बार बुलाने पर भी हम नहीं जा सके। ऐसा नहीं कि मन न था। पर व्यस्तता कुछ ऐसी थी कि एक पैर भी इधर से उधर रखना मुश्किल! सुबह-सबह घूमकर आने के बाद बच्चों के स्कूल जाने की तैयारी। इसी बीच मेरा आध घंटा अखबार पढ़ना। फिर झटपट तैयार हो टिफिन हाथ में लिए दिल्ली के लिए बस पकड़ना। भागमभाग। और रात लौटने पर तो देह और मन में ऐसी थकान उतर आती थी कि फिर कुछ और करने या कहीं आने-जाने का मन ही नहीं होता था!
पर नहीं, हम गए उसके घर! तब नहीं, जब उसने बुलाया था, बल्कि तब, जब उसने नहीं बुलाया था। और हमारे भीतर उसकी दस्तकों पर दस्तकें इतनी तेज हो गई थीं कि हम जाए बगैर रह ही नहीं सके थे।
हुआ यह है कि सर्दी बढ़ रही थी, लगातार बढ़ रही थी और अब तो दो-एक दिन से हड्डियों तक को कँपाने लगी थी। और वह बूढ़ा अब कई दिनों से दिखाई नहीं देता था। तब तारा ने कहा कि राजेश्वर, हमें उसके घर जाकर उसका हाल-चाल लेना चाहिए।
मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस...! ढूँढ़ना इतना मुश्किल तो नहीं था। पर वहाँ जाने पर उस बूढ़े को देखा, तो उसके भीतर उस बूढ़े को ढूँढ़ना वाकई थोड़ा मुश्किल लगा, जो रोज सुबह हमें चौराहे के पास वाली पुलिस पर मिलता था, और जिससे मीठी-मीठी ‘राम-राम’ होती थी।
कोई पंद्रह दिन से उससे मुलाकात नहीं हुई थी...बस, पंद्रह दिन! और इन पंद्रह दिनों में, हैरानी है, वह महज हड्डियाँ का ढाँचा रह गया था।
हालाँकि हमें देखकर उसने ठीक-ठीक पहचाना। उसी तरह मुसकराकर स्वागत भी किया। बोला, “आप आ गए बाबू जी, बड़ा अच्छा किया! आपको देखकर तबीयत खुश हो गई। मुझे उम्मीद थी, आप आएँगे, आप जरूर आएँगे। कोई और न आए पर आप...!”
कोई और? कुछ था जो मेरे भीतर गड़ गया। वह क्या था?
आखिर कौन ऐसा है, जिसकी यह बूढ़ा प्रतीक्षा कर रहा है, जबकि पूरे शहर में अपना कहने को अब इसका कोई नहीं, कोई भी नहीं। कुछ लोग दूर-दूर की जान-पहचान वाले हैं, पर आदमी अकेला होता है, तो सारे रिश्ते टूटने लगते हैं। “बाबू जी, राम-राम! भइया जी, राम-राम...बहन जी, राम-राम! माता जी, राम-राम!” मानो जितना-जितना वह अकेला होता जा रहा था, उतना-उतना वह अपने को सीधा-सरल और अभिमानशून्य होकर फैलाता जा रहा था, हममें-तुममें...सबमें!
तो क्या यह इसीलिए था? इसी उम्मीद में कि जब कोई न रहेगा और वह अकेला होगा, एकदम निपट अकेला और असहाय, तो कोई न कोई तो उसकी परेशानी में साथ देने आएगा। कोई न कोई...! क्या वह इसी की याचना कर रहा था?
और क्या इसी को जड़ें कह रहा था यह बूढ़ा? जड़ें माने? धरती में जड़ें! लोगों के दिलों में जड़ें...मिलने वालों के दिलों में जड़ें।
पर उससे बात करने पर लगा कि बीमारी जितनी शरीर की है, उससे ज्यादा मन की है। बुखार आया तो कोई तीन-चार दिन तक उतरा ही नहीं। उसने हैदराबाद में बेटे को फोन किया, तो उसने दो-टूक लहजे में कहा, “बाबू जी, अभी तो हम लोग महीने भर पहले वहाँ रहकर गए थे। अब बार-बार आना तो हमारे लिए मुश्किल है। यहाँ नौकरी की अपनी परेशानियाँ और झंझट हैं। फिर पैसा भी लगता है आने-जाने में। अब या तो आप यहाँ हमारे पास आकर रह लीजिए या फिर अकेले फेस कीजिए।...जो कुछ होना होगा, वह तो होगा ही! डॉक्टर बी.एन. शर्मा को मैं पंद्रह हजार रुपया दे आया हूँ। जब-जब आप फोन करेंगे, वे देखने आ जाएँगेे। वैसे भी ठीक तो डॉक्टर ने ही करना है, हम ही वहाँ आकर क्या कर लेंगे?”
कहते-कहते बूढ़े की आवाज जैसे बिखर गई। पहले तार पतला हुआ और फिर पतला होते-होते जैसे टूट गया। अब उसके चेहरे पर निराशा ही नहीं, खौफ भी था और एक टूटन। बुरी तरह टूटन।
“आप चिंता न करें, हम बीच-बीच में मिलने के लिए आ जाया करेंगे।” तारा ने मानो ढाढ़स बँधाया। फिर कहा, “खाने की दिक्कत हो, तो मैं किसी को खाना पकाने के लिए भेज दूँगी।”
“नहीं, एक लड़की है पड़ोस में, जो आ जाती है। झाड़ू-पोंछा कर जाती है और खाना भी! बेटा सारा इंतजाम कर गया है। ऐसा नहीं कि वो मुझसे प्यार नहीं करता, पर मजबूरियाँ हैं उसकी भी। आजकल अच्छी नौकरी कहाँ मिलती है बाबू जी! हमारे जैसे लोगों को तो मरना ही है, आज नहीं को कल। कब तक कोई उसकी चिंता...!” कहते-कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई।
“अगर डॉक्टर शर्मा की दवा से ज्यादा फायदा न हो तो बताइए, किसी और को दिखा देते हैं। हमारे पड़ोस में भी एक अच्छे डॉक्टर हैं बी.के . दत्त। हमें जानते हैंअच्छी तरह।” मैंने सुझाया।
“नहीं बाबू जी। डॉक्टर के बस की अब कोई बात नहीं रही। रोग शरीर में नहीं, भीतर है। उसका कोई क्या इलाज करेगा?” अब उसके चेहरे पर लाचारी साफ झलक आई थी।
“तो भी हमारे लायक जो भी काम हो तो आप बेशक बताइए। यों भी हम कभी-कभार तो मिलने आते ही रहेंगे।” मैंने अपनी ओर से दिलासा दिया।
इस पर वह हँसा। बड़ी अजीब-सी रोती हुई हँसी। बोला, “आप क्यों करेंगे? आप लोग काम करने वाले लोग हैं। एक बीमार, मरते हुए बूढ़े के लिए इतना कुछ...?”
पर फिर हम दोनों पति-पत्नी ने तय कर लिया कि सुबह घूमने के बजाए हम घंटा, आध घंटा उस बूढे़ के पास ही बिताया करेंगे। मानो यही हमारा रोज का घूमना हो गया। ...और फिर सचमुच यह सिलसिला शुरू हो गया। हम वहाँ जाते तो वह बूढ़ा जाग रहा होता और एक तरह से हमारे इंतजार में ही होता। वहाँ जाकर तारा चाय बनाती और मैं उससे बातों में मशगूल हो जाता।
4
एक दिन गया तो चकरा गया। देखा, उस बूढ़े की रजाई के नीचे से कपड़े के कुछ खिलौने झाँक रहे हैं। भालू, हाथी, हिरन और न जाने क्या-क्या! बाप रे,, इतने सारे खिलौने!
“आप...आप इन खिलौनों का क्या करते है?” मुझे ताज्जुब हो रहा था, “क्या खेलते हैं इनसे?”
“असल में अप्पू...बाबू जी, अप्पू छोड़ गया था इन्हें! तो इनमें अप्पू की याद...” कहते-कहते बूढ़े की आवाज में एक अलग-सा रोमांच, एक अलग-सा कंपन उभर आया।
तब तक तारा भी चाय लेकर आ गई थी। हम दोनों की उत्सुकता देखकर बूढ़े ने बड़े चंचल भाव से वे खिलौने हमें दिखाए। वे कपड़े के बने रंग-बिरंगे खिलौने थे। उनमें फूले गालों वाला एक गोल-मटोल गुड्डा था, एक प्यारी-सी सजीली-सी गुड़िया। हो रहा था, एक ढोलक बजाता हुआ मोटे पेट वाला भालू। एक चालाक-सा ललमुँहा बंदर। एक भागता हुआ चंचल सुंदर हिरन। दो-तीन मोती जड़ी, सफेद बतखें। एक खूब बड़ा सा हाथी...और एक तोंद फुलाए हुए ही-ही-ही हँसता जोकर!
“अरे, अप्पू को याद नहीं रहे अपने ये खिलौने?” तारा ने अचरज से भरकर पूछा।
“हाँ, बच्चे अक्सर भूलते तो नहीं हैं अपने खिलौने!” मेरे मुँह से भी निकला।
सुनकर बूढ़ा एक क्षण के लिए चुप रह गया, जैसे सोच न पा रहा हो कि बताए न बताए। फिर शरमाकर उसने कह दिया, “बाबू जी, सच्ची कहूँ, अप्पू जान-बूझकर मेरे लिए छोड़ गया है ये खिलौने। पूछता था—तुम क्या करते हो दादा जी, सारे सारे दिन? फिर यह जानकार कि मैं अकेला हूँ, उसने कहा—दादा जी, दादा जी, आप तो बहुत बोर होते होंगे। सो पिटी ऑफ यू...! तो मैं ये करता हूँ दादा जी, कि अपने खिलौने छोड़ जाता हूँ। आप इनसे खेलना। फिर टाइम आसानी से कटेगा। मैं भी तो यही करता हूँ। मेरे पास वहाँ बहुत खिलौने हैं। कुछ पापा से कहकर और मँगवा लूँगा। आप मेरे खिलौने ले लो दादा जी!...”
“फिर बाबू जी, मैंने हँसकर कहा—ठीक है, लाओ। तो बोला कि मेरे बड़े प्यारे खिलौने हैं, इनको सँभालकर रखना दादा जी। इनको खराब नहीं करना। खोना भी मत...प्रॉमिस?”
“प्रॉमिस—मैंने कहा। इस पर ‘याद रखना दादा जी। नहीं तो कुट्टी हो जाएगी।’ अप्पू बोला। और फिर अपना खजाना...अपना सबसे बड़ा और प्यारा खजाना मेरे लिए छोड़कर चला गया। और अब तुम यकीन मानो या न मानो, बाबू जी, मैं तो अक्सर इन्हीं के साथ खेलता और समय बिताता हूँ।
“इनके साथ खेलते-खेलते समय का कुछ पता ही नहीं चलता। जैसे तेज घोड़े पर बैठकर बरसों बरस इधर से उधर और उधर से इधर चले आते हैं। बड़े मजे की बात है, है न!” कहते-कहते बूढ़ा हँसा तो साथ-साथ हमारी भी हँसी छूट गई।
लेकिन बूढ़ा जल्दी ही फिर उसी सुर में आ गया। बोला, “कभी-कभी इनसे खेलता हूँ बाबू जी, तो लगता है, मेरा पोता अप्पू एकदम मेरे सामने है और खेल में मेरा साथ दे रहा है। कभी-कभी अप्पू की जगह उसका बाप आ जाता है। यानी हैदराबाद वाला मेरा छोटा बेटा दिनेश। देखते ही देखते वह इतना छोटा हो जाता है, जैसे कि अप्पू।...कभी कलकत्ते वाला बेटा सुमन आ जाता है और वह भी बिलकुल वैसा नजर आता है। गोलमटोल, गदबदा सा, जैसे बचपन में था। मै उनके साथ बातें करता हूँ, खेलता हूँ और समय का कुछ पता ही नहीं चलता!... कभी-कभी तो बाबू जी, पूरी रात नींद नहीं आती। तब पूरी-पूरी रात यही खेल चलता है बाबू जी! तब ये भालू, ये हाथी, ये हिरन, ये जोकर...ये सबके सब जिंदा हो जाते हैं! और यह जोकर—सच्ची कहूँ कोई और नहीं, मैं हूँ बाबू जी, मैं! और क्या, बूढ़ा होकर आदमी जोकर ही तो हो जाता है...क्यों बाबू जी!
कहते-कहते वह बड़े जोर से हँसा। बोला, “मेरे एक बुजुर्ग दोस्त, जब मैं जवान था, तब कहा करते थे कि बुढ़ापा इज ए फनी थिंग। पर इसका आदमी को पता तब चलता है, जब वह खुद बूढ़ा होता है!...हा-हा-हा!”
बूढ़ा इतने जोर से हँसा कि देर तक हमारी निगाहें उसके चेहरे से नहीं हटीं। फिर खुद पर काबू पाकर बोला, “आपको बताऊँ बाबू जी, ये खिलौने बड़े शातिर हैं! अभी तीन दिन पहले की ही तो बात है। मैं इन खिलौनों से खेल रहा था कि पता नहीं कैसे, इस हिरन की नाक में एकाएक झट से पार्वती की-सी नाक चमकी और माथा भी! और फिर आप यकीन नहीं करेंगे, हिरन नहीं, हिरन की जगह पार्वती आकर शामिल हो गई खेल में। मेरे दिनेश और सुमन की माँ, जिसे गुजरे आज चार साल होने को आए! पर वह इतनी छोटी हो गई थी, इतनी छोटी कि एकदम बच्ची समझो!
“बाबू जी, हैरान न होना, पिछले तीन दिनों से तो अजीब हालत है। जब मैं इन खिलौनों से घर-घर खेलता हूँ, तो मैं भी बच्चा बन जाता हूँ और पार्वती भी बच्ची बनकर सामने आकर बैठ जाती है। और हम खेलते हैं, खेलते रहते हैं देर तक। फिर यों ही खेलते-खेलते पूरी रात गुजर जाती है। आप यकीन नहीं करेंगे बाबू जी, पिछले तीन दिनों से तो जब-जब आँख लगती हैं, बस पार्वती के ही सपने आते हैं... कि वह छोटी बच्ची बन गई है, मैं भी। और वह मेरा हाथ पकड़कर दौड़ रही है। बस, दौड़ती जा रही है—आसमान तक!”
कहते-कहते बूढ़ा चुप हुआ, तो मैंने देखा, उसकी एक आँख हँस रही थी, एक रो रही थी।...
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इसके बाद भी, याद पड़ता है, उस बूढ़े को दो-तीन और मुलाकातें हुईं। और हर बार उन खिलौनों की बात छिड़ने पर बूढ़े की वही सनक भरी, लेकिन प्यारी-प्यारी बातें।
और फिर एक दिन....
‘ट्रीं...ट्रीं...!’
फोन की घंटी। फिर फोन पर एक अपरिचित रोबदार आवाज। कोई चालीस-पैंतालीस की उम्र का युवक रहा होगा। बोला, “अंकल, हमारे पिता जी को लकवा मार गया है। आपसे मिलने के लिए बहुत बेचैन है। आप शायद जानते है उन्हें... मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस!”
—नौ सौ सत्ताईस?
—हाँ-हाँ, मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस...
— क्या हुआ, क्या!
—याद किया है...आपको।
6
हम वहाँ गए तो मौन। जबान जैसे छिन गई हो, फिर भी बोले बगैर चैन न हो। मौन संभाषण! दीर्घ आलाप। लगातार।
...आँखें लगातार बरस रहीं थीं।
हम बैठे रहे। बैठे रहे और एक मूक वेदना को पिघलते हुए महसूस करते रहे। धीरे-धीरे, शांत पिघलता हुआ हिमालय।
हिमगिरि गल रहा था। हमने देखा।...हमने देखा, फिर चले आए।
उसके तीसरे रोज वह बूढ़ा गुजर गया।
उस मकान का नाम बूढे़ ने न जाने क्या सोचकर ‘आशीर्वाद’ रखा था।...सुना आपने—आशीर्वाद!
कोई हफ्ते भर के अंदर आशीर्वाद बिक गया। जैसे यह भी कोई नाटक हो। नाटक का कोई दृश्य। पहले से सब कुछ तय। मकान से पहले मकान का सारा सामान बिका और कई बड़े-बड़े नोटों में समा गया।
...नोट पर्स में!
पर्स...तिजोरी में! तिजोरी...?
और पूरा का पूरा जिंदा और हँसता-बोलता, बतियाता मकान—सिर्फ एक मुट्ठी में! सिर्फ एक मुट्ठी भर नोट...कि गहने...कि...!
जादू नहीं, हकीकत!
7
फिर कुछ रोज बाद देखा, मकान को गिराया जा रहा है। जिस नए आदमी ने मकान को खरीदा था, वह उसे तोड़कर एक नया ‘स्मार्ट’ लुक देना चाहता था।
‘आशीर्वाद’ की पत्थर की पट्टिका टूट गई थी और तीन या चार टुकड़ों में एक किनारे पटक दी गई थी।
बूढ़े का जवानी वाला एक फोटो भी। पुराना, मगर खासा शानदार। दो-एक रोज बाद गली के जमादार ने उसे उठाया और बिजली के खंभे पर लटका दिया।
आशीर्वाद का मर चुका बूढ़ा अब ‘सड़क का बादशाह’ हो चुका था।
खंडित इतिहास। खंड-खंड इतिहास...! और एक जिंदा शख्स मुझे लगा—कि तब नहीं, आज खत्म हुआ है।
मगर...उस बूढ़े का जो आशीर्वाद हमें जो मिला था, वह भी क्या भूलने की चीज है?
अब भी कभी-कभी सन्नाटे में ‘राम-राम...बाबू जी, राम-राम!’ उस बूढ़े की शहद-सी मीठी गुनगुनी आवाज सुनाई दती है। तब जाने क्यों लगता है, वह बूढ़ा जहाँ भी है, वहाँ से हमारे लिए आशीर्वाद बरस रहा है।