एक अश्लील कहानी (कहानी) : कमलेश्वर
Ek Ashleel Kahani (Hindi Story) : Kamleshwar
नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं, कैसा उल्लास और कैसी तृप्ति उसमें होती है! एक-एक रेखा का बाँकपन नया-नया लगता है। खुला हुआ तन दूर ही सही, पर उसके रोम-रोम में बसी हजारों-लाखों आँखें बरबस अपनी ओर खींचती हैं। दिन-भर के थके-हारे क़दम और रात-भर अपनी विवशताओं के विचारों से टूटा हुआ मन एक ही जगह केन्द्रित हो जाता है। सब मजबूरियों के खयाल उस क्षण न जाने कहाँ दुबक जाते हैं। वैसा सम्मोहन, वैसी मुग्धता और प्यास कभी महसूस ही नहीं की। रूप की अनुभूति इस तरह घेर लेती है कि न आँखें मूँदते बनता है न खोलते ही।
मैंने उसे ऐसी ही विमुग्ध स्थिति में अनवरत खड़े देखा है। जब वह उस प्यास से जलता होता, तब न उसके चेहरे पर तमतमाहट होती, न पशुता। बस वह देखता खड़ा रहता। कुछ देर बाद वह अपनी आँखों को बड़े ज़ोर से मलता और वैसी ही उन पर गदेलियाँ रखे अपने बिस्तर पर आकर बैठ या लेट जाता। अपनी बरबादी और मुसीबतों की बातें वह सिर्फ़ शाम को ही करता है। सुबह आँख खुलने के बाद उसके मन की बेचैनी और छटपटाहट सिर्फ महसूस की जा सकती है। सुबह वह ज्यादा बात भी नहीं करता। बात करता भी है तो चार-चार, पाँच-पाँच मिनिट बाद, जैसे उसे किसी कि याद आती रहती है। उसकी सब बातें अधूरी रह जाती हैं, यहाँ तक कि नौकरी की भी। सुबह नौ बजे तक का समय बिलकुल उसका अपना नहीं होता। वह कमरे से बाहर नहीं जाता, कोई मिलने आ जाये तो मुझसे मना करवा देता है। एकाध बार मैंने कहा भी, ‘‘क्यों चन्द्रनाथ, मान लो वह तुम्हारी नौकरी के लिए कोई सन्देशा लेकर आया हो तब?’’
‘‘मैं दस बजे उससे जाकर खुद मिल लूँगा।’’ चन्द्रनाथ सहज ही कह देता, ‘‘इतनी-सी देर में क्या बना-बिगड़ा जाता है?’’
‘‘लेकिन तुम्हें…’’ मैं कुछ भी आगे बोलने को होता तो वह संकोच में पड़ जाता और बड़ी बोदी दलील पेश करता, ‘‘कुछ थोड़ा-सा वक़्त मेरा अपना भी होना चाहिए, दिन-दिन भर खाक छानता हूँ, रात-रात-भर दौड़ता रह जाता हूँ तो कुछ देर अकेले बैठने को मन करता है…तुम तो जानते हो कि मैं इस वक़्त…’’ कहते-कहते उसे अपनी बात झूठी लगने लगती, पर जिस बात के लिए आदमी मन से बेबस होता है उसके लिए वह बेशरमी भी लाद लेता है। ऐसा नहीं कि उसे इस बात का अहसास न हो कि मैं उसकी हरकतें नहीं जानता। पहले वह तरह-तरह के बहाने बनाकर खिड़की के पास खड़ा होता था, अब खुलेआम खड़ा होने लगा है और इस तरह खड़ा होता है कि यह बात उसकी अपनी और नितान्त वैयक्तिक है। इसमें हस्तक्षेप करने का साहस किसी को नहीं होना चाहिए।
औरतों और अफ़सरों के सम्बन्ध में चन्द्रनाथ के एक-से विचार थे। पर जब वह कुन्ती को देखता…हाँ, सामने वाले मकान में रहने वाली उस सुन्दर-सी औरत का नाम कुन्ती ही है, लेकिन आपको उसके नाम से क्या मतलब? आप सिर्फ़ इतना जान लीजिए कि कुन्ती की उम्र लगभग तीस वर्ष है, रंग गोरा ही नहीं, उसके गोरेपन में रेशम-सी आभा है। आँखों की पुतलियाँ बेहद काली हैं और बालों के सिरे भूरे।
उसके घर का जितना हिस्सा इस दोमंज़िले पर बने कमरे से दिखाई पड़ता है, उसकी सजावट में बड़ी सुरुचि है। घर देखकर उसके जीवन के सुख से सहज ही किसी को ईर्ष्या हो सकती है। नीले परदों के पीछे सजे वे कमरे बड़े रहस्यमय लगते हैं, रात को जब उनमें रोशनी होती है और कुन्ती अपनी साड़ी का पल्ला कमर से लपेटे कभी उन परदों के पीछे से गुज़रती है तो उसकी समतल चाल से फ़र्श पर क़ालीन बिछे होने का बोध होता है। वह कभी सन्तप्त या व्याकुल नहीं दिखाई दी, उसने कभी नज़र उठाकर इधर-उधर वहशी निगाहों से किसी को देखा हो, ऐसा भी नहीं हुआ। उसके मन में कभी बादल घुमड़े हों और बरसने से पहले की उदासी ही छायी हो, यह भी नहीं दिखाई दिया।
इस खिड़की से उसके घर का नक़्शा ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी सुरंग में बसे मकान के कटे हुए हिस्से दिखाई दे रहे हों। यहाँ से इन ऊपर वाले कमरों के अलावा नीचे गुस्लखाना, आँगन का थोड़ा-सा भाग, तीन-चौथाआई बरामदा और बरामदे के भीतर वाले कमरे का वह हिस्सा दिखाई पड़ता है जिसमें श्रृंगार-मेज़ रखी है। सुबह वह यहीं दिखाई पड़ती है, लगभग एक-डेढ़ घण्टे के लिए। उसके बाद वह भीतर वाले उन रहस्यमय कमरों में खो जाती है। घर में दो पुरुष दिखाई पड़ते हैं, जिनमें से एक उसका पति है और एक सौतेला लड़का, जिसकी उम्र लगभग बीस वर्ष की होगी। कुन्ती के पति छोटे–मोटे रईस हैं। उन्हें कपड़े पहनने और ढ़ग से रहने का शौक़ है। इस घर में कभी दंगा-लड़ाई या मनमुटाव की छाया तक नहीं दिखाई दी। छोटे-से गिरजे की तरह ईश्वरीय शान्ति यहाँ फैली थी और ये तीनों ही प्राणी मिशनरियों की तरह अपने-अपने कर्त्तव्य में लगे नजर आते थे। इन कमरों से कभी ऊँची आवाज, उन्मत्त कहकहे या विलासपूर्ण जीवन की गुनगुनाहट भी नहीं सुनाई दी?
पर यह शान्ति तूफ़ान से पहले की थी। यह पता नहीं था। कोई भी घटना इतने अप्रत्याशित रूप से सामने आयेगी, इसका अहसास नहीं था। कुन्ती आत्मलीना थी। जब वह ग़ुस्लखाने में नहाने जाती या वहाँ से निकलती तो अपने में लीन रहती। उसे इस बात का ज्ञान तक न होता कि कई खिड़कियों की आँखें उसे घूरती हैं या किसी दूसरे मकान की छत पर भी कोई हो सकता है।
पता नहीं किस दिन चन्द्रनाथ ने उसे ऐसी स्थिति में देख लिया कि तब से उसका कार्यक्रम ही बदल गया। पहले वह सुबह सात बजे ही एक प्याला चाय खुद पीकर और मुझे पिलाकर काम की तलाश में निकल जाता था और शाम गये लौटता था। खिड़की के पास उसके अटकाव को मैं तब जान पाया जब उसने सात बजे की बजाय दस बजे जाना शुरू किया और एक दिन जब वह मित्र-मण्डली में खुलकर बोला।
यह अभी तीन-चार महीने पहले की ही बात है। हम तीन-चार दोस्त यूँ ही सड़क पर चहलक़दमी कर रहे थे। शाम का समय था, सिविल लाइन्स की सड़कों पर निर्द्वन्द्व आदमी-औरतों का सैलाब उमड़ आया था। वैसे उस समय बात इराक़ की कान्ति पर चल रही थी और किशन कर्नल नासिर के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी बातें कर रहा था जैसे इराक में राज्य-कान्ति की योजना कर्नल नासिर ने उसके साथ बैठकर बनायी हो। इतने में एक सजी-बजी महिला पास से गुजर गयी और चन्द्रनाथ ने शैतानी से लम्बी आह भरी। वर्मा ने बड़ी हिक़ारत से चन्द्रनाथ की इस हरकत को नामंजूर किया, ‘‘यह बदतमीजी है, इसीलिए मैं ऐसे लोगों के साथ रहना पसन्द नहीं करता…’’
चन्द्रनाथ एकाएक तिलमिला उठा, ‘‘मतलब क्या है आपका? मैं अगर शरीफ़ज़ादा नहीं हूँ तो ये भी शरीफ़ जादियाँ नहीं हैं। समझे आप? ये लोग यही चाहती हैं कि कोई इन्हें देखे और फ़बतियाँ कसे। इससे इनका अहं सन्तुष्ट होता है और इन्हें अपनी खूबसूरती पर गर्व होता है…’’
‘‘यह बकवास है!’’ वर्मा ने अपनी पेटी ऊपर सरकाते हुए कहा, ‘‘सुन्दर बनने और सुन्दर दिखने की इच्छा किसमें नहीं होती? इसका यह मतलब नहीं कि दुनिया की सभी औरतें–ऐसी औरतें जो अपने रूप को सँवारकर रखती है–चरित्रहीन हैं, और वे आपकी निगाहों की मोहताज हैं! उनके पास उनके आदमी हैं, उनके रूप और यौवन को सराहने वाले मन और आँखें हैं…’’
‘‘यही तो नहीं है!’’ चन्द्रनाथ ने तेजी से कहा, ‘‘यही उनके पास नहीं है, उनकी प्यास के लिए पानी नहीं है!’’ वह और भी तेज़ हो आया था, ‘‘मैं पूछता हूँ, इन औरतों का काम क्या है? भरे हुए घरों में यह रह नहीं सकती, शादी से पहले अलग घर के सपने इनके दिमाग में मँडराने लगते हैं, शादी के बाद ये बच्चे पैदा करने से कतराती हैं, नौकरी इनसे हो नहीं सकती, घर का काम ये कर नहीं सकतीं; आखिर ये करना क्या चाहती हैं? इनकी जिन्दगियाँ किसलिए हैं? इनके सामने कौन-सा आदर्श है जिसके लिए ये जीना चाहती हैं!’’
‘‘जीने वाली बात बहुत सीधी है!’’ बिशन ने कहा, ‘‘हर आदमी जीना चाहता है। पेड़ों की जड़ें और मिट्टी खाकर जीना चाहता है, रही जिन्दगी में आदर्श की बात, सो भाई, जीने के लिए जीना छोटा आदर्श नहीं है!’’ कहते-कहते वह हँस पड़ा। वर्मा भीतर-भीतर छटपटा रहा था, बिशन की हँसी ने उसका पारा और भी चढ़ा दिया, रूमाल से मुँह पोंछकर बोला, ‘‘मतलब तुम्हारा यह है कि ये सब औरतें बेकार जी रही हैं, इनके लिए वासना और ऐश्वर्य ही सब कुछ है–यानी ये चरित्रहीन हैं!’’
‘‘जी!’’ चन्द्रनाथ ने व्यंग्य से कहा, ‘‘एक-एक बात काग़ज़ पर नोट कर लीजिए, तब बात कीजिए!’’
‘‘यह क़सूर उनका नहीं, तुम लोगों की भूखी आँखों का है!’’ वर्मा बोला तो चन्द्रनाथ ने बड़ी हिक़ारत से कहा, ‘‘अभी आपने औरत की भूखी आँखें देखी नहीं हैं। एक बार देख लीजिए तो पसीना छूट जायेगा पसीना! इनका यह श्रृंगार उसी भूख की खामोश आवाज है! आखिर इस बनने-ठनने का मतलब क्या है? ये औरतें सिर्फ़ आदमी के लिए बनती-सँवरती हैं! क्या ज़रूरत है कि आप सज-सँवरकर शाम को ही निकलें और ऐसी जगहों में आयें जहाँ हजार निगाहें हों। इन्हें बेवक़्त घरों में जाकर देखिए, मसली हुई साड़ियाँ, फीके होंठ और रूखे बाल। सौन्दर्य-प्रियता का यह मतलब नहीं कि शाम चार बजे आपका वह जुनून जागे!’’ बोलते-बोलते चन्द्रनाथ हकलाने लगा था और उसके मुँह से शब्द साफ़ नहीं निकल पा रहे थे। राह चलते कुछ आदमियों का ध्यान इधर खिंच आया था। वर्मा बड़ी दबसट में फँस गया था। उसे इस तरह गरमागरम तर्क करना भी बुरा लग रहा था और चुप रह जाना उसे स्वीकार नहीं था। कॉफ़ी हाउस के पास चन्द्रनाथ की बाँह पकड़कर ले जाते हुए वह बोला, ‘‘यहाँ सड़क पर मत चीखो, आओ बैठकर बातें होंगी…आओ।’’
बातचीत के उसी तूफ़ान में हम लोग कॉफी, हाउस की एक मेज़ के इर्द-गिर्द बैठ गये। चन्द्रनाथ सचमुच बहुत भरा हुआ था, ‘‘यह तुम्हारी आदत है वर्मा। एक-न-एक बात तुम ऐसी शुरू कर देते हो जिस पर गुस्सा आता है। सारी दुनिया के दीन-ईमान, भलमनसाहत और अच्छाई का ठेका तुमने जबरदस्ती ले रखा है। तुम्हें दुनिया में सब आदमी बुरे नज़र आते हैं…’’
तभी कॉफ़ी आ गयी और बात बदल गयी, पर चन्द्रनाथ उसे फिर खींच लाया, ‘‘हाँ वर्मा साहब, अब कहिए। क्या कहना चाहते हैं?’’
‘‘कुछ नहीं यार, पर तुम्हारा यह रुख देखकर बुरा लगता है…और क्या है।’’ वर्मा ने टालने के लहजे में कहा।
‘‘मुझे ऐसी औरतों से चिढ़ है, ये खोखली हैं, इन्हें दुनिया में सिर्फ़ आदमी की बाँहें चाहिए। मरी हुई आत्माओं की ये लाशें बदबू करती हैं, इन्होंने नौजवानों को रास्तों से उतारकर गन्दी खाइयों में फेंक दिया है–हताश और भटकते हुए आदमियों के वचे-खुचे आदर्श और महत्त्वाकांक्षाएँ इन सड़ी हुई औरतों ने छीन ली हैं, इन्हें गुमराह किया है।’’ चन्द्रनाथ का हाथ मेज़ पर काँप रहा था।
‘‘चोट खा गया है भाई। लड़का चोट खा गया है कहीं।’’ बिशन ने वातावरण हलका करना चाहा। पर चन्द्रनाथ पर जैसे भूत सवार था, इस फ़वती को नकारते हुए वह वर्मा की ओर ताकते हुए बोला, ‘‘और आप मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं। उन्हें जाकर समझाइए जो चार बजे से मेक-अप करते-करते शाम को छह बजे सिर्फ़ इसीलिए निकलती हैं। इनके प्रति श्रद्धा तब हो, जब हम इन्हें खेतो में काम करते देखें, इंजनों को चलाते देखें, फ़ैक्टरियों में खटते देखें, बिजलीघरों में पसीना बहाते देखें। हम इन्हें काम में लवलीन देखें। रँगे हुए नाखून, पुते हुए होंठ; खुले हुए पेट और आँख में कागल की लकीरें इस बात का बुलावा है कि इन्हें श्रद्घा की नहीं, सिर्फ़ वासना की नज़र से देखो। और आप मुझसे नैतिकता की बात करते हैं!’’
अपने दिमाग़ के खलल के कारण मैं हर बात को दार्शनिकता का पुट देकर गम्भीर बना देने के लिए मजबूत हूँ, इस बीच मैं गूँगा था, अब एक सूत्र हाथ आया तो मैं बोल ही पड़ा, ‘‘नैतिकता या सहज संयम व्यक्ति के हाथों के बाहर है, सामाजिक और वैयक्तिक आचरण के स्तर आदमी ने समाज के सन्दर्भ में बनाये हैं और हमेशा की तरह मैं अपनी ही बात में उलझ गया। पता नहीं क्या हो जाता है कि सोचता हूँ तब सब साफ़-साफ़ दिमाग़ में होता है और बोलते ही साफ़ बात भी उलझ जाती है और मैं यह महसूस करता हूँ कि जो कहना चाहता था, वह नहीं कह पाया। ऐसे मौक़ों पर बिशन नहीं चूकता। मेरी बात को बड़ी व्यंग्यपूर्ण मुद्रा से सुनते हुए उसने कहा, ‘‘हाँ भाई, अब गीता-प्रवचन आरम्भ हुआ। अर्जुन सुनो!’’ और उसने चन्द्रनाथ की बाँह हिलाकर मेरी ओर मुखातिब कर दिया।
‘‘आप भी कहिए।’’ चन्द्रनाथ ने मुझसे कहा। ऐसे में मेरी हालत बहुत पतली हो जाती है, पर चुप रहकर अपनी मजबूरी या बेवक़ूफ़ी का प्रदर्शन करूँ, यह बरदाश्त नहीं होता। अपने को बहुत सँभालते हुए मैंने कहा, ‘मेरा मतलब यह है कि…’’ विशन ने बात काटी, ‘‘पहले मतलब समझा दीजिए, बात बाद में सुनाइएगा।’’
‘‘बोलो-बोलो।’’ चन्द्रनाथ बात करने के मूड में था। बड़े साहस से फिर मैंने कहा, ‘‘मेरा मतलब यह है कि सभी नैतिकताओं का जन्म समाज में हुआ है। नैतिकता की भावना ही समाज ने दी है, आदमी अकेले में घोर अनैतिक है।’’ बात तो मैंने कह दी पर मैं इसे किस जगह फ़िट करना चाहता था या कौन-सा निष्कर्ष निकालना चाहता था, यह मेरी समझ के बाहर हो गया था।
‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’ किशन ने प्याला सरकाकर मुझसे लोहा लेने के अन्दाज में कहा, ‘‘यह तो कुछ इस तरह की बात हुई कि चार दोस्त साहित्य या कला के बारे में, बात कर रहे हों और आप उसी गम्भीरता से कहें–मुझे आलू की सब्ज़ी पसन्द है। नैतिकता के ऊपर आखिर आप क्या प्रवचन देना चाहते हैं, साफ-साफ़ कहिए, उसका सिरा किसी तरफ़ जोड़िए, ये बेसिर-पैर की क्या बात हुई? अच्छा पर्स निकालिए और आज का बिल पे कीजिए।’’
मैं चुप ही बैठा रहा। वर्मा ने फिर बात शुरू कर दी, ‘‘ये कह रहे थे कि जहाँ चार आदमी होते हैं वहाँ सब पर लगाम लगी रहती है? पर अकेले में हर आदमी लगाम छुड़ाकर भाग खड़ा होता है। क्यों, है न?’’ वर्मा ने मेरी ओर ताका।
‘‘ये निष्कर्षवादी आदमी है।’’ बिशन बोला, ‘‘आप कह डालिए जो भी कहना हो…’’
‘‘वर्मा साहब ने मेरी बात कह दी।’’ मैंने कहा तो चन्द्रनाथ ने पानी का घूँट लेते हुए मुँह बिगाड़ा, बोला, ‘‘नैतिकता आदमी की अपनी चीज है, उसका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं। आदमी नैतिक या अनैतिक होता है, पतित या महान् होता है–समाज नहीं।’’
‘‘लेकिन जीवन के सब अच्छे मूल्य, जिनमें नैतिकता ही एक है, समाज में जन्म लेते हैं।’’ मैं अपनी बात साफ करना चाहता था। ‘‘समूह के बोध के साथ ही अच्छी ज़िन्दगी के लिए नियम बनाये गये। उन नियमों का उपयोग भी समूह में ही है, अकेले आदमी के लिए वे व्यर्थ हैं, ज़रूरत ही नहीं उनकी। मेरा मतलब…’’ मैं फिर उलझ गया था।
‘‘इसी को हरा लो भाई।’’ बिशन ने मेरी ओर इशारा किया, ‘‘हारेगा तो पे करेगा।’’ शायद मेरी रूखी बात से सबका मन उचट चुका था। चन्द्रनाथ शान्त हो चुका था और वर्मा सन्तुष्ट तो नहीं था पर चुप ज़रूर था। बिशन को बराबर मज़ाक़ सूझ रहा था। मेज़ पर बड़ी उदास खामोशी-सी छा गयी थी। सभी को ऐसा लग रहा था कि यह बेकार की बहस और व्यर्थ की बातें क्या कर पायेंगी? चारों जने एक-दूसरे से नहीं, अपने से असन्तुष्ट नज़र आ रहे थे…हमारी मण्डली में अकसर ऐसा होता था। चन्द्रनाथ ऐसी बहसों के बाद बहुत घुटा-घुटा महसूस करता था। उस दिन वह पूरे रास्ते गुमसुम-सा घर तक आया। शायद उसे सुबह का इन्तजार था।
कुन्ती के घर की ओर चन्द्रनाथ का आकर्षण बढ़ता ही गया। और उस दिन से चन्द्रनाथ की हरकतें और भी खुलती गयीं। मैंने देखा, वह डायरी लिखने लगा था। एक दिन चोरी से मैंने उसकी डायरी निकालकर पढ़ी।
कुछ पन्नों पर पहले की लिखी इबारत थी जिसमें खर्च इत्यादि का वृत्तान्त था। कुछ कोरे पन्नों के बाद जो कुछ भी लिखा था,
उसे पढ़कर रोमांच हो आया, साथ ही गुस्सा भी आया और दुःख भी हुआ। बीस-पचीस पृष्ठ निहायत गन्दे वर्णनों से भरे थे, जिनमें कुन्ती के अंग-प्रत्यंग का विशद खाका खींचा गया था, कहीं मन को अकुलाहट थी तो कहीं खीझ। लेकिन उसमें सब साफ़-साफ़ और खुलकर लिखा गया था। जो उपमाएँ और प्रतीक उसने इस्तेमाल किये थे, वे किसी भी तरह रीतिग्रन्थों की परम्परा से हेठे नहीं थे। चन्द्रनाथ के मन का उबाल और उसकी पाशविकी इच्छाओं के वे उद्गार सचमुच भयंकर थे। उस दिन से मुझे थोड़ा खौफ़ भी लगने लगा था, किसी भी आदमी का क्या पता? कहीं यह कुछ ऐसा-वैसा न कर डाले। इस शरीफ़ मुहल्ले में रहने लायक़ नहीं रह जाऊँगा…।
और तब से वह निर्द्वन्द्व भाव से कुन्ती के घर की ओर ताका करता है, जिसके पत्थर के खम्भों की नक़्क़ाशी और तराश, फ़र्श पर रंग-विरंगे टाइल्स की डिज़ाइनें और बरामदे की कॉर्निस पर बने बेल-बूटों से सामन्ती घराने का अहसास होता था। कुन्ती का पति अधिकतर घर से बाहर रहता था–फ़िनले की महीन धोती, काला चमचमाता हुआ पतली टो का पम्प जूता और चुन्नट पड़ा हुआ कुरता पहनकर वह निकल जाता था। वह शायद अपने किसी दोस्त के घर ही सारा समय गुजारता था। वह जुआ खेलने का शौक़ीन था और जब हारकर आता तो उँगलियों के बीच में सिगरेट दबाये मुट्ठी बाँधकर बड़े लम्बे कश खींचता। उसकी धोती की काँछ ढीली होकर झूलती होती। उसका सौतेला लड़का इन सब बातों की ओर से उदासीन था और कुन्ती निश्चिन्त-सी अपना दिन शुरू करती।
वह आत्मलीना कुन्ती चन्द्रनाथ का एक कार्यक्रम बन गयी थी। रोज़ सुबह आठ बजे के क़रीब वह गुस्लखाने में जाती और दस-बारह मिनिट बाद नहाकर निकल जाती। उन्हीं भीगे कपड़ों में वह बरामदे में पड़े तख्त पर खड़ी होती और बड़े ही भूले-भूले ढंग से, बिलकुल बेफ़िक्र होकर एक-एक कपड़ा उतारती जाती। चन्द्रनाथ साँस रोके वहीं खिड़की पर खड़ा होता। कपड़े उतारकर वह अपने अंग-प्रत्यंग को बड़े चाव और ग़ौर से देखती। बड़े इत्मीनान से वह तौलिया से पानी सुखाती और उसी अवस्था में भीतर श्रृंगार-मेज़ पर चली जाती। चन्द्रनाथ की एकाध बहुत गहरी साँसें सुनायी पड़ती और उसका अंग-अंग थिरकता होता। वह पैर बदल-बदल कर खड़ा होता, सूखे गले को थूक निगल-निगलकर तर करता और जब तक कुन्ती अपने कपड़े पहनकर उस कमरे से ओझल न हो जाती, वह अपलक उधर ताकता रहता। उसके जाते ही वह हथेलियों से आँखें रगड़ता और वैसे ही आँखें मूँदे हुए अपनी खाट पर गिरता। अनजाने ही कुन्ती उसके अस्तित्व पर छाती जा रही थी। हमारे कमरे में जैसे वह हर समय उपस्थित रहती।
कभी-कभी लगता कि कुन्ती अपने घर में बड़ी उदास और क्लान्त है, जैसे उसने अपना मुँह सी रखा है और अब उसने अपनी समस्त आत्म-चेतना अपने शरीर पर केन्द्रित कर रखी है। हर रोज़ नहाने के बाद वह अधिक आत्मलीन दिखाई पड़ती, जैसे वह अपने शरीर के रोम-रोम में पानी देती हो और प्रतिदिन उत्सुकता से अपने विकास को निहारती हो। बड़े ही हलके हाथ से वह शरीर पोंछती, तन के एक-एक अंग को सहेज-सहेज कर रखती, शायद उसका तन किसी की प्रतीक्षा में हो, शायद उसने किसी को वचन दिया हो कि यह ढलने नहीं पायेगा–मैं तन-मन से तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी, जैसा छोड़कर जा रहे हो वैसा ही पाओगे, एक रोम तक इधर से उधर नहीं होगा। जिस तन्मयता और एकाग्र भाव से वह यह सब करती, उसमें न जाने ऐसी कौन-सी बात थी कि मन छटपटाने लगता था। श्रृंगार-मेज़ पर खड़ी होकर वह सारे शरीर पर पाउडर छिड़कती और एक-एक मोड़ को ध्यान से देखती, कपड़े पहनते ही उसकी यह तन्मयता समाप्त हो जाती थी–वह एकदम कोई दूसरी औरत हो जाती कभी-कभी वह शीशे के सामने खड़े होकर बाल सँवारते हुए तीन-चार बालों को पकड़कर उनमें से एक तोड़कर पल-भर देखती और फेंक देती। निश्चय ही वह सफेद बाल होता होगा–सचमुच तब उसे कितनी ठेस लगती होगी, उस क्षण उसके मन में कैसी बेबसी व्यापती होगी, उसके मुख पर क्या-क्या भाव आते-जाते होंगे, यह काफ़ी स्पष्ट न हो पाया। शायद उसकी आँखों की कोरें गीली हो आयी हों या एक बहुत गहरी साँस ही निकली हो, पर दीवारों की वह दूरी न उन भीगी आँखों को देखने देती थी, न पीड़ा से भरी वह आवाज़ ही इस पार आ पाती थी।
चन्द्रनाथ में इधर बहुत अन्तर आ गया था। अनजाने ही वह कुन्ती के पति की आलोचना करने लगता, ‘‘वह जुआरी है, सुबह से रात तक जुआ खेलता है। और जाने कितने ऐब उसमें होंगे, पीता होगा–कभी पत्नी से ठीक तरह बात करते नहीं देखा–मुझे तो शक होता है कि यह उसकी बीवी है भी या नहीं।’’
‘‘तुम्हें इससे क्या लेना-देना?’’ मैंने कहा तो चन्द्रनाथ के चेहरे पर वहशी चमक बिखर गई। अपने हाथ से माथे के बाल झटके से हटाते हुए बोला, ‘‘मैं इस औरत को लेकर भाग जाऊँगा।’’
मैं स्तब्ध रह गया। एक क्षण बाद मैंने स्थिति को भाँपने के लिए पूछा, ‘‘कभी मिलना-जुलना हुआ कि बस यूँ ही?’’
‘‘मिलने-जुलने की कौन-सी जरूरत है।’’ कहते हुए वह उठकर टहलने लगा, ‘‘उसने कभी मेरी तरफ़ देखा भी नहीं। न देखे! पर मैं एक दिन इसे डाकुओं की तरह घर से उठा ले जाऊँगा। किसी औरत को यह हक़ नहीं कि वह अपनी ज़िन्दगी यूँ ही खराब कर दे, जो उसे पाना चाहिए उसे वह नकार दे!’’
‘‘इससे तुम्हें क्या? वह क्या पाती है क्या नहीं, यह तुम्हारा मसला नहीं है। हर आदमी अपने बारे में सोचने के लिए स्वतन्त्र है…’’
‘‘ये सब बेकार बातें हैं। मुझे तुम लोग सीख मत दिया करो। वह मुझे नहीं चाहेगी, न सही। वह मेरी नहीं होगी, न सही। पर जो मुझे चाहिए वह मैं लेकर रहूँगा। पुलिस में दे देगी–बस।’’ वह अपने से कह रहा था और उसके हाव-भाव और चेष्टाओं में भीषण और असुन्दर संकेत उभरते जा रहे थे। उससे ज़्यादा बात करने का मतलब होता–शालीनता की सीमा से बाहर चला जाना। अभी वह बहुत लगाम लगाकर बात कर रहा था, किस क्षण उसके भीतर की दबी हुई गन्दगी फूट पड़ेगी, यह कहना कठिन था। फिर भी उसने बुदबुदाने के अन्दाज में कुछ बहुत ही अशोभन और कुत्सित बातें कह डाली, जो उसकी जबान से नहीं निकल पायीं वे हाथों के इशारों से प्रकट हो गयीं। दोनों मुट्ठियाँ बाँधे और दाँत भीचे हुए वह कठोर क़दमों से कमरे में पागल जानवर की तरह चक्कर काटने लगा, उसकी समस्त इन्द्रियाँ केवल एक ही बिन्दु पर केन्द्रित थीं–कुन्ती। हाड़-मांस की कुन्ती। उसकी कनपटियाँ रह-रहकर तमक रही थीं और बालों के नीचे माथे पर पसीने का गीलापन चमक रहा था। चक्कर काटते हुए जब उसकी परछाई दीवार पर पड़ती तो उसके व्यक्तित्व की भयानकता और भी बढ़ जाती।
उस रात वह बहुत परेशान रहा। खाट पर पड़े-पड़े उसकी नसें फटती रहीं और वह करवटें बदलता रहा। सुबह उसका चेहरा फूला-फूला और मुख पर बेहद सूखापन था। आँखों के नीचे काले घेरे दिखाई दे रहे थे। नाखूनों की किनारियों पर सफ़ेदी की लकीरें थीं। लगता था कि वह किसी लम्बे सफ़र से लौटा है। मुँह धोने के बाद उसके चेहरे की खुश्की और बढ़ गई थी। बार-बार वह जीभ फेरकर अपने सूखे हुए होंठों को तर कर रहा था–सिर्फ़ पैण्ट पर पेटी बाँधकर वह साढ़े सात बजे से खिड़की पर खड़ा था–हाथ में पेन्सिल थी जिसे वह ब्लेड से लगातार काटता जा रहा था।
घोर अकुलाहट से भरा वह दिन तो घटनाहीन बीत गया, पर उसके बाद वह और भी परेशान नज़र आने लगा। उसके शरीर की स्फूर्ति और आँखों की बुद्धिमत्तापूर्ण चमक लुप्त हो गयी थी…उन आँखों में जैसे पशुता-भरी मूढ़ता और जंगलीपन समा गया था। उसका सुन्दर चेहरा बिगड़ गया था।
रात को वह गहरी नींद सोने का आदी था, वह नींद कहीं दूर उड़ गई थी। एकाएक चौंककर वह जाग जाता और काफ़ी-काफ़ी देर तक कमरे में चक्कर काटता रहता। अभी तक वह अपने कपड़े लापरवाही से इधर-उधर अलमारी के कोनों या बक्सों पर लटका या फेंक दिया करता था।
अब वे कोने में रखे होल्डॉल की जेबों में रखे जाने लगे। वह अपने पहने हुए कपड़े बहुत एहतियात से छिपाकर रखता। रात में अचानक कभी उठता तो चोरों की तरह मुझ पर निगाह डालता, बड़े साध-साध कर क़दम रखकर अपने बक्स के पास पहुँचता। आहिस्ता से उसे खोलता और पैजामा बदलकर फिर लेट जाता। पंजों के बल चलकर वह पहना हुआ पैजामा कहीं इधर-उधर सँभाल कर रख दिया करता था। अपने कपड़े भी उसने मेरे धोबी को देना बन्द कर दिये थे। एक अख़बार में सारे कपड़ें लपेटकर वह हर हफ़्ते नई वाशिंग कम्पनियों में दे आता। उसकी बातों की वह तेज़ी और चाल की अल्हड़ स्वाधीनता खो गई थी। सुबह खाट पर पड़े-पड़े वह अँगड़ाइयाँ लेता, श्लथ और थके क़दमों से उठकर इधर-उधर के काम करता।
इतवार के दिन अकस्मात् कुन्ती के घर में कुछ हलचल दिखाई दी। चन्द्रनाथ सुबह साढ़े सात से साढ़े नौ बजे तक खिड़की की दरार से आँखें फाड़े देखता रहा, पर वह नहाने नहीं आयी। धीरे-धीरे जब वह एकदम हताश हो गया तो मेरे पास आकर बोला, ‘‘सामने वाले घर में कोई बात हो गयी।’’
‘‘क्या बात हो सकती है? क्यों, वह नहीं आयी आज?’’ मैंने पूछा तो उत्तर में चन्द्रनाथ ने सिर हिलाकर ‘न’ कर दिया।
‘‘आज उसका आदमी घर पर है शायद।’’ मैंने बात कुरेदनी चाही। अपनी खिड़की के पल्ले खोलते हुए चन्द्रनाथ बोला, ‘‘शायद है। देखो, आज ऊपर वाले कमरे भी बन्द पड़े हैं, खिड़कियाँ तक नहीं खुलीं, कोई बात ज़रूर है वरना ऐसा कभी नहीं हुआ। हो सकता है, वह बीमार हो।’’ फिर कुछ सोचते हुए उसने कहा, ‘‘तुमने कुछ ऊँची-ऊँची आवाज़ें नहीं सुनीं?’’
‘‘मैंने ध्यान नहीं दिया…’’
‘‘उधर वाली गली में एक टैक्सी आकर रुकी थी, शायद किसी के जाने के लिए बुलायी गयी थी। आधा घण्टा रुककर टैक्सी खाली ही वापस चली गयी। उसका आदमी घर से निकला था, टैक्सी वाले खड़े होने के कुछ पैसे देकर वह तेज़ी से घर में लौट गया था।’’ चन्द्रनाथ चिन्तापूर्ण ढंग से सब बातें बता रहा था, ‘‘एक बार ऊपर वाले कमरे की खिड़की खोलने की कोशिश की गयी, पर उसके पति ने झटके से उसे बन्द कर चटरनी चढ़ा दी, आखिर खिड़की क्यों नहीं खोलने दी गयी?’’
‘‘अब मैं क्या बताऊँ?’’ कुछ खीझते हुए मैंने कहा। चन्द्रनाथ ने मेरी खीझ पर ध्यान न देते हुए बात जारी रखी, ‘‘कुछ तेज़-तेज़ बातें भी हुई हैं। कुन्ती की आवाज़ मैंने सुनी, पर वह कह क्या रही थी, नहीं समझ पाया। कोई बात है ज़रूर।’’ कहकर वह चिन्तातुर-सा कमरे में चक्कर काटता रहा।
हमारी यह बात हो ही रही थी कि कुन्ती के घर से अजीब-अजीब आवाज़ें आने लगीं। कुछ भी साफ़ नहीं सुनायी दे रहा था। बन्द कमरे में उसकी और उसके पति की आवाज़ें गूँज रही थीं, गिरजे-सा शान्त वह घर अचानक कोलाहट से भर गया था। शायद कुन्ती ने खिड़कियाँ खोलने की कोशिश की थी–तभी उसके पति की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मुहल्ले वालों को सुनाना चाहती है। समझती है मेरी इज़्जत खराब कर लेगी। हट…हट…हट यहाँ से…’ और खिड़की के बन्द होते ही वह आवाज़ें फिर घुट गयी थीं, जैसे किसी ने तेज़ बजते रेडियों का स्विच ऑफ़ कर दिया हो। फिर कुन्ती की एक भयंकर चीख सुनाई दी। अब उसकी काफ़ी ऊँची आवाज़ बाहर तक आ रही थी, ‘‘मैं नहीं रहूँगी, अभी तेरी पोल खोलूँगी, तेरी एक-एक बात दुनिया को सुनाऊँगी, तेरी…’’ उसकी आवाज़ भर्राकर रुक गयी थी।
‘‘तुझे रोकता कौन है, तू जा, चली जा! जहाँ जाना हो। पर शरीफ़ की बीवी है, शराफ़त से जा…’’
‘‘अब शराफ़त का कौन-सा सवाल रह गया, मैं नहीं समझती थी कि तू इतना जलील है। तू औरत पर हाथ उठा सकता है…’’ वह चीख रही थी।
चन्द्रनाथ के नथुने फूल आये थे। वह अपनी जगह खड़ा-खड़ा कसमसा रहा था। उसके चेहरे पर खून छलछला आया था–उस शरीर के साथ ऐसी बेरहमी! उस संगमरमर के शरीर से भी कोई इस जंगलीपन से पेश आ सकता है? उफ़, न जाने कहाँ-कहाँ पर मारा होगा उसने। जिन तन से किरनें फूटती हैं और जो बदन अपनी ओर चुम्बक की तरह खींचता है, जिसके पोर-पोर को धीरे-धीरे छूने के लिए मन ललकता है, जिसे बाँहों में घेरकर बेसुध हो जाने को मन करता है, वह केले-सा शरीर–उस पर इतना अत्याचार! ऐसी अमानुषिकता। अपनी आस्तीनें चढ़ाता हुआ वह बोला, ‘‘आओ, चलकर देखें ज़रा उस बदमाश को!’’
‘‘हम जाकर क्या कर लेंगे? दरवाज़े बन्द हैं।’’ मैंने जवाब दिया।
‘‘दरवाज़ा तोड़कर नहीं घुसा जा सकता? आओ…’’ वह बोला।
‘‘नादानी नहीं करते, समझे! यह उनकी आपसी लड़ाई है, थोड़ी देर बाद सब ठीक हो जाएगा। वह उसी आदमी की गोद में सिर छिपा लेगी और वही आदमी उसे फिर प्यार करेगा। समझे!’’ मैंने कहा तो चन्द्रनाथ को बहुत बुरा मालूम हुआ। वह मेरे कथन की चित्रात्मक स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उसके भिंचे हुए होंठ से लगता था कि यदि कुन्ती ने उस आदमी की गोद में सिर छिपा लिया और उसने कुन्ती को फिर प्यार किया तो अब चन्द्रनाथ नहीं करने देगा। वह कुन्ती को उसकी गोद से निकालकर फेंक देगा, वह उन्हें साथ नहीं रहने देगा, वह उस पर अब किसी का अधिकार सहन नहीं कर पायेगा–उस शरीर पर किसी का कैसा भी स्पर्श बरदाश्त नहीं कर सकेगा…
एक क्षण कुछ सोचने के बाद वह धीरे से मुसकराता हुआ बोला, ‘‘होने दो लड़ाई, खूब होने दो, यहाँ तक हो कि वह उसे घर से निकाल दे। फिर वह जहाँ भी जायेंगी, मैं साथ जाऊँगा और उसे लेकर कहीं बहुत दूर चला जाऊँगा। वह अगर किसी पागलपन की सनक में वह अपना सूटकेस सँभालने लगा। ‘‘मुझे तैयार रहना चाहिए।’’
‘‘क्या बच्चों की तरह हरकतें करते हो। जानते नही हो, यह ऊँचे घराने के बिगड़े हुए आदमी का घर है…’’ मैं उसे समझाना चाहता था, ‘‘अगर ये लड़कर अलग भी होंगे तो बड़े क़ायदे से। पति घर में बैठा-बैठा देखता रहेगा और कुन्ती अपना सामान तैयार करेगी…अपनी माँग में चलते समय सिन्दूर भरेगी, श्रृंगार करेगी। उसका पति उसे रुपये देगा, हो सकता है वह गुस्से में रुपये न ले, फिर टैक्सी आएगी और एक नौकर साथ जाकर उसे घर तक छोड़ आएगा और इसके बाद वे बग़ैर एक-दूसरे के लिए रोये हुए एकदम अलग-अलग हो जाएँगे…न वह आयेगी, न यह बुलाएगा।’’ उसकी ओर देखकर मैंने बात पूरी की, ‘‘पहले जो टैक्सी आई थी, वह इसीलिए आई होगी…।’’ मैं कह ही रहा था कि कुन्ती का पति नीचे बरामदे में दिखाई दिया, उसके कपड़े मलगूजे और अस्तव्यस्त थे। तेज़ी से वह इधर वाले दरवाजे पर आया और खोलकर बाहर गली में निकल गया। चलने से पहले उसने दरवाज़े पर ताला लगाया और गुस्से में गली पार करके सड़क की ओर मुड़ गया। वैसे वह कभी भी इस पीछे वाले दरवाज़े से नहीं जाता था, पर वह मुँह बचाकर निकल जाना चाहता था।
दस मिनिट बाद ही टैक्सी फिर आयी। गली के नुक्कड़ पर उसे रोक-कर वह धड़धड़ाता हुआ आया और ताला खोलकर भीतर चला गया। भीतर पहुँचते ही उसने कमरे का दरवाज़ा खोलकर सामान आँगन में फेंकना शुरू कर दिया। वह बेहद गुस्से में था। दौड़ा-दौड़ा ऊपर गया, एक क्षण बाद कुन्ती को बाँह से घसीटता हुआ लाया और चीखा, ‘‘जो भी तेरा सामान हो उठा ले और मुँह काला कर…’’
कुन्ती बाल बिखेरे हुए ग़ुस्से से भरी चुपचाप देखती रही। चन्द्रनाथ कब उतरकर नीचे गली में चला गया, यह मैं नहीं जान पाया। वह गली में तेज़ क़दमों से चक्कर काट रहा था, हर क्षण ऐसा लगता था कि वह अभी तूफ़ान की तरह कुन्ती के घर में घुस जायेगा, फिर क्या करेगा, किस तरह पेश आएगा, यह सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये।
तभी कुन्ती चीखी, ‘‘यह घर मेरा है, इसकी ईंट-ईंट मेरी है, तू चला जा यहाँ से और फिर कभी इधर क़दम रखने की ज़रूरत नहीं है।’’
दाँत पीस कर उसका पति पास पड़ी एक लकड़ी से उस पर वार करते हुए चीखा, ‘‘बड़ी आयी है मकान वाली! निकल जा यहाँ से! एक तिनका तेरा नहीं है, मैं इसे बेचूँगा, रेहन रखूँगा, इसे खँडहर कर दूँगा–तुझसे मतलब! चली जा यहाँ से…’’
और फिर जो दृश्य सामने आया वह भीषण था, पागलों की तरह रोती हुई कुन्ती चीखी, ‘‘मेरा कुछ भी नहीं है?’’
‘‘नहीं है। तिनका भी नहीं है…’’ वह आदमी उसे मारता हुआ चीख रहा था।
बड़ी ही कातर आवाज़ में कुन्ती रो पड़ी, ‘‘मुझे तेरा कुछ भीं नहीं चाहिए…सब बिगाड़ दे…तेरा सब छोड़ जाऊँगी…सब छोड़ जाऊँगी…’’
‘‘छोड़ जा, सब उतारकर रख दे, एक-एक चीज़ उतार दे…’’
और कुन्ती ने एक-एक ज़ेवर उतार कर आँगन में फेंक दिया, चलने के लिए जो चप्पल पैर में डाली थीं वह भी झटककर एक ओर फेंक दीं। वह खड़ा हुआ होंठ चबाता हुआ सब देख रहा था और कुन्ती शरीर की एक-एक चीज़ उतारकर फेंकती जा रही थी, काँच की चूड़ियाँ टुकड़े-टुकड़े होकर आँगन में बिखर गईं।
वह सचमुच पागलपन की सीमा तक पहुँच गया था, बस एक ही बात उसके मुँह से निकलती थी, ‘‘सब उतार दे…सब उतार दे।’’ और उत्तर में अपने बदन की एक-एक चीज़ फेंकते हुए कुन्ती चीख रही थी, ‘‘ले ले, तेरी एक चीज़ जो इस वदन पर रहने दूँ।’’
इतनी चीख-पुकार और भयंकर वातावरण के बीच बड़ी ही मनहूस खामोशी छायी-सी लगती थी। मैं हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया और गली में चन्द्रनाथ वहशियों की तरह चक्कर काटता हुआ लगातार घूम रहा था, उसके क़दमों से गली गूंज रही थी, पर उस गूँज में दहशत भरी थी–कहीं कोई खून न हो जाए। अब कुन्ती दरवाज़े के बाहर पैर रखने ही वाली है, और चौखट के बाहर क़दम रखते ही चन्द्रनाथ उसे बाज़ की तरह दबोच लेगा। देहरी से बाहर आते ही उसके सारे रिश्ते समाप्त हो जायेंगे, यही तो कह रहा था चन्द्रनाथ। हो सकता है, चन्द्रनाथ और कुन्ती दोनों ही उसके पति के हाथों मारे जायें, उस पर खून सवार है और चन्द्रनाथ पर पाशविक वासना।
‘‘मैं तुझे नंगी करके निकालूँगा।’’ कुन्ती का पति क्रोध से काँपता हुआ चीख रहा था, ‘‘तू मुझे ज़लील करना चाहती है। तुझे ज़लीलों की तरह गली में न निकाला तो अपने बाप का नहीं!…उतार साड़ी। ये तेरे बाप ने दी है! उतार साड़ी! निकल!’’
और अब कुन्ती का पैर चौखट पर था। अभी एक क़दम भीतर है, उसके बाल बिखरे हुए हैं और उस संगमरमरी शरीर पर सिर्फ़ एक साड़ी है। वह अपनी बाँहें छाती पर भींचे हुए हैं, एक ओर की साड़ी खुलकर लटक गयी है और उसकी चोट खायी पिण्डलियाँ गाजर के गूदे की तरह चमक रही हैं…
चन्द्रनाथ लपककर कुछ क़दम आगे बढ़ आया। वह चीते की तरह उछलकर झपटना ही चाहता था कि ठिठक गया। कुन्ती के क़दम अपनी देहरी पर अटक रहे हैं, वह बुरी तरह काँप रही है और बदहवास-सी चारों ओर देख रही है, उसने छाती पर अपनी बाँहें और भी कड़ी कर ली हैं, पैर के फूटे हुए अँगूठे से खून बह आया है…
क्रोध के आवेश में उसके पति ने उसे एक धक्का दिया और अटकता हुआ पैर सँभालती हुई वह हाथों के बल ज़मीन पर आ गिरी। साड़ी का पल्ला छाती से सरक गया और उसका आधा शरीर नंगा हो गया…
चन्द्रनाथ पत्थर की मूरत की तरह निश्चल खड़ा आँखें फाड़े देख रहा था। उसके पैर जड़ हो गये थे…
कुन्ती सँभलकर एक क्षण में उठी और गली में उतर गयी। लपककर उसके पति ने घिसटती हुई साड़ी का पल्ला पैर से दाब लिया और चिल्लाया, ‘‘इसे भी उतार कर जा। इसे भी…।’’
कुन्ती ने आग उगलती आँखों से उसे ताका, ‘‘उतार दूँ?’’
‘‘उतार दे…चली जा।’’ दोनों पसीने से लथपथ आग में चलते हुए काँप रहे थे। चन्द्रनाथ को काठ मार गया था।
और एक क्षण बाद ही कुन्ती ने कमर से साड़ी खोलकर वहीं छोड़ दी और एक भयानक चीख मारकर वहीं घुटनों में अपना मुँह और छाती दबाकर निस्तब्ध हो गयी। उसके बाल आगे-पीछे बिखर गये थे।
संगमरमर-सा वह शरीर एकदम अनावृत था। सिर्फ़ कुन्ती की भयंकर पुकारें और दिल को चीरता हुआ रोने का सुनाई पड़ रहा था। चन्द्रनाथ बाज़ की तरह झपटा, ‘‘यह क्या किया?’’ और उसने अपनी कमीज उतारकर उसके सिर और मुड़ी हुई टाँगों पर रख दी, उसके हाथ बेतरह काँप रहे थे, जैसे कुन्ती के शरीर का स्पर्श होते ही झुलस जायेंगे। वह कमीज़ भी ठीक से उसके तन पर नहीं रख पा रहा था। न जाने कैसी आग की लपटे तन से फूट रही थीं कि चन्द्रनाथ चौंक-चौक कर अलग हो जाता…।
उस बदहवासी में मैंने पास पड़ी खाट की दरी खिड़की से नीचे फेंक दी। चन्द्रनाथ थरथराता हुआ हकला-हकलाकर बोल रहा था, ‘‘इससे ढक लो…इससे ढक लो…’’
और पागलों की तरह कुन्ती ज़ोर-ज़ोर से सिर हिलाकर ‘नहीं-नहीं करती जा रही थी…
‘‘मैं तुम्हारे पैर पकड़ता हूँ। इससे ढक लो।’’ कहते हुए चन्द्रनाथ ने वह दरी उसके ऊपर डाल दी। एक झटके में कुन्ती ने उसे फेंक दिया।
मैं उतरकर नीचे पहुँच गया था। गली में बढ़ती हुई भीड़ देखकर चन्द्रनाथ के हाथ-पैर फूल आये थे।
‘‘तू हट जा! तू हट जा।’’ कुन्ती ज़ोर से चीखी चन्द्रनाथ की समझ से सब बाहर हो गया था; बुरी तरह छटपटाता हुआ बोला, ‘‘माँ, तुझे अपने बेटे की क़सम! ढक ले माँ…’’ और कोई रिश्ता उसकी समझ में नहीं आया था। यही तो आखिरी रिश्ता रह जाता है जिससे ग़ैर भी अपना हो जाता है, और उस दरी से ढँककर उसने कुन्ती को गठरी की तरह उठाकर दरवाजे के भीतर लुढ़का दिया। बाहर से साँकल चढ़ाकर वह विक्षिप्त की तरह दौड़ा हुआ अपने कमरे में आया और खिड़की की चढ़कनी चढ़ाकर मुरदे की तरह खाट पर पड़ रहा। पड़ा-पड़ा वह घण्टों रोता रहा। बहुत मनाया, पर वह चुप न हुआ।
उस दिन से बात-बात पर उसकी आँखें भर आती हैं, उसकी आँखों में हर समय बादल मँडराते रहते हैं। न मज़ाक सह पाता है न हँसी, बात-बात रो पड़ता है। मुझसे कहता है, ‘‘कमरा बदलो, अब यहाँ अच्छा नहीं लगता।’’