एक अकहानी का सुपात्र : फणीश्वरनाथ रेणु

Ek Akahani Ka Supatra : Phanishwar Nath Renu

पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब 'कहानी' नाम की कोई चीज दुनिया में ऐसे ही रह गई है-मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गई।

हमारा मौजूदा समाज “कहानीहीन' हो गया है, हठातू कहीं, किसी घर के किसी कोने में भी कहानी नहीं घट रही।

सभी लोग, अकहानीमय जीवन बिना किसी परेशानी या दुख के जीए जा रहे हैं।

फलतः समाज के सभी कहानीकार बेकार हो रहे हैं, हुए जा रहे हैं।

मैंने इन तथ्यों के आधार पर अकहानी की एक मोटी-सी परिभाषा कं ली थी।

बेकार कथाकार बेकारी के क्षण में जो कुछ भी गढ़ता है, उसे अकहानी कहते हैं।

किन्तु, ऐसे ही दुर्दिन में हठात्‌ एक दिन मेरी छोटेलाल से मुलाकात हो गई और मेरा सारा भ्रम दूर हो गया।

यानी मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि कहानी के मरने की खबर गलत थी।

छोटेलाल के प्रथम दर्शन और संभाषण से ही मैं आश्वस्त हो गया- हमारा समाज अभी पूर्णतः कथाहीन नहीं हो पाया है।

छोटेलाल का समस्त अस्तित्व ही मुझे अकहानी से ओतम-प्रोत प्रतीत हुआ ।

जी नहीं, छोटेलाल कोई कथाकार नहीं-नगर में खोया हुआ एक ग्राम्य-कथापात्र है। और जब तक छोटेलाल-जैसे सुपात्र जीवित रहेंगे, कहानी मरकर भी जी जाया करेगी।

मेरी छोटेलाल से मुलाकात अपने नगर के नुक्कड़ पर पिछले साल-ठीक श्रावणी पूर्णिमा के दिन हुई थी, पान की दुकान पर ।

वह बार-बार पानवाले का नाम ले-लेकर जल्दी से आठ 'खिल्ली” मीठा पान लपेटने को कह रहा था-“ए क्रिस्ना! लपेट न यार... !!

नगर के ऐसे गृहसेवकों के साधारण चरित्रों से मेरा साधारण परिचय है। अतः उन्हें पहली ही निगाह में पहचान लेता हूँ और वे भी मेरे चेहरे-मोहरे और बातचीत से समझ गए हैं कि मैं उन्हीं की कोटि का जीव हूँ।

किन्तु छोटेलाल को पहचानने में मैंने गलती की-यह मैं स्वीकार करता हूँ।

पानवाले ने जब झुँझलाकर पहले के बाकी-बकाए का तकादा किया, तो वह तनिक भी अप्रतिभ नहीं हुआ। बोला-“अरे यार, बाकी-बकाया लेकर कोई भागा जा रहा है! पहले मोड़ न आठ मीठा पत्ती... !!

ऐसे अवसरों पर मैं अक्सर कुछ नहीं बोलता।

लेकिन उस दिन बोल पड़ा-

“अजी, बाकी-बकाया का हिसाब-किताब मालिक से करना । नौकर से क्यों उलझ रहे हो बेकार...”

कि छोटेलाल ने चोट-खाए हुए प्राणी की तरह मुझ पर प्रत्याक्रमण किया-““जरा आदमी देखकर बात कीजिए साहेब। यहाँ कोई किसी का नौकर नहीं... ।”

पानवाले लड़के ने कहा-“परफेस्वर बाबू के छोटे भाई हैं।'

मैंने तुरन्त छोटेलालजी से क्षमा-याचना की -“माफ कीजिए भाई साहब!”

पान की दूकान से सटे ही एक छोटी-सी चाय की दूकान है जो डबल-रोटी और बिस्कूट के अलावा उबले हुए अंडे भी बेचता है।

मैं अपने उन दोस्तों को, जो मेरे कुत्ते से घबराते हैं अथवा जिनकी बोली सुनकर मेरा कुत्ता चिढ़कर भूँकने लगता है अथवा जो तिमंजिले की सीढ़ियों पर चढ़ने से लाचार होते हैं या जिन्हें अपने फ्लैट में ले चलने में मैं लाचार होता हूँ-इसी चाय की दूकान पर लाकर “चाय-पान सिगरेट आदि' से सत्कार करता हुआ उनका अबोध संभाषण सुनता रहता हूँ।

छोटेलाल ने मुझे सिर से पैर तक तजबीज करते हुए पूछा - “आप कौन हैं ?”

मैंने अपना नाम बतलाया और यह भी कि मैं तीन नम्बर रोड के एक वकील साहब का क्लर्क हूँ। छोटेलाल बोला-“सीधे मोहरिल कहते लाज लगती है, इसीलिए क्लर्क... !”

छोटेलाल मुझ पर आक्रमण करके प्रसन्‍न हुआ ।

फिर अपने वक्तव्य की व्याख्या करता हुआ बोला-“शहर की हर बात पर ऊपरी सजावट। अब देखिए न-यही “च्छाबंधन” । देहात में 'सलोनी पुरनि्माँ” के दिन... ।”

“सलोनी पुरनिमों ?”-मैंने अस्फुट शब्दों में जिज्ञासा प्रकट की। छोटेलाल ने मुझे महामूरख समझकर मुझ पर तरस खाने की मुद्रा बनाई-“सलोनी पुरनिमाँ नहीं समझते ? आज ही है सलोनी पुरनिमाँ!”

मैंने फिर अपनी गलती के लिए छोटेलालजी से क्षमायाचना की-“ओ ? श्रावणी...यानी...सावनी...हाँ सावनी पूर्णिमा की रात तो सलोनी होगी ही।”

मुझे छोटेलाल ने अनजाने ही एक सुन्दर पंक्ति दे दी-सावनी सलोनी पूर्णिमा की रात। मुँह से निकल पड़ा, “वाह भाई!”

छोटेलाल ने अपने अधूरे वक्तव्य का सूत्र पुनः पकड़ा-“सो सलोनी पुरनिमाँ के दिन देहात में “बाभन सब” हाथ में रंग-बिरंगी राखी की लच्छियाँ लेकर घर-घर घूम-घूमकर जजमानों को राखी बाँधते हैं-“जैन-बन्धूबलिराजा” मन्‍तर पढ़कर।

मगर शहर में राखी-'छौड़ी सब” बाँधती है। अपने भाइयों को नहीं साहेब-मुँहबोले भाइयों को...!”

मैंने फिर अपनी अज्ञता प्रकट की-“'मुँहबोले भाई ?”

छोटेलाल ने इस बार मुझको करुणा की दृष्टि से घूरते हुए मुझसे पूछा-“भाई साहब! आप किस 'डिस्टिक' के रहनेवाले हैं जो मुँहबोला भाई का मतलब भी नहीं समझते ?”

समझाने की आवश्यकता नहीं हुई। मैं स्वयं ही तत्काल समझ गया। छोटेलाल ने पानवाले को पान में भरपूर मीठा मसाला डालने की ताकीद करने के बाद फिर शुरू किया -''भैया की भी दो मुँहबोली बहन आई हैं-राखी बाँधने... ”

पानवाले क्रिस्ना ने टोका-''तो आपके भैया की मुँहबोली बहन आपकी भी मुँहबोली बहन ही लगेगी... ।”

छोटेलाल का चेहरा तमतमा उठा फिर-'“यार क्रिस्ना! तुम भी एकदम बेबात की बात...?

भैया की मुँहबोली बहनों से मेरा क्या रिश्ता ? न तीन में, न तेरह में। तिस पर शहर की 'लपस्टिक लड़कियाँ'...जी, भाई साहेब, आपका चेहरा देखकर मैं बूझ गया कि आप फिर मतलब पूछना चाहते हैं...लपस्टिक लड़की का मतलब आपको फिर कभी समझा देंगे।

यार क्रिस्ना-लपेटना, देखते नहीं कि एक ही घंटे में चार बार चाह-बिस्कुट और टौफी-लेमनचूस लेने के लिए इस चौबटिया पर आ चुका हूँ... अब यही देखिए न-यह लेमनचूस। देहात में यह बच्चों को फुसलानेवाली मिठाई है और यहाँ ?

यहाँ यह लड़कियों की-खासकर स्कूल-कॉलेज की लड़कियों की । कहते हो जल्दी क्‍या है ?

अभी दोनों को पहुँचाने के लिए जाना होगा।

एक रहती है ईरगाट तो दूसरी मीरघाट।

भौजी सुबह को ही अपने मुँहबोले भाइयों को राखी बाँधने गई है सो अभी तक लौटी नहीं। अगर कहीं “बरखा - बुन्नी' के मारे अटक गई तो उनको भी ढूँढ़कर लाने के लिए इस छोटेलाल को ही जाना होगा।

और शहर में लड़कियों को पहुँचाने के लिए कहीं जाना कितना मुश्किल का काम है - यह...अरे भैया- पीछे-पीछे सायकल पर रिक्शा के साथ जाना होगा।

पीछे सायकिल पर रिक्शा के साथ जाना खेल नहीं !

एक दिन किसी लड़की को कहीं पहुँचाकर देखो न...यहाँ के सभी छुरेबाज छोकरों को पहचान गया हूँ...लेकिन, जो कहो-रास्ता चलते वे जब लड़कियों पर ऐसे-ऐसे 'शब्दभेदी बान' छोड़ते हैं कि कभी-कभी तो हमको भी हँसी आ जाती है।” कम

“बरखा-बुन्नी' शब्द को सुनकर मन हर्षित हुआ।

शायद आकाश में मँडरानेवाले काले-काले बादल भी प्रसन्न हुए - नन्हीं-नन्हीं बूँदें पड़ने लगीं। हम सभी चायवाले के छज्जे के नीचे-बेंचों पर जा बैठे। छोटेलाल ने आर्डर दिया-“तो बनाओ यार, एक इसपिसिल चाह... ।”

छोटेलाल ने, शहर के दूध और दूधवालों से लेकर गायों तक की निन्दा कर लेने के बाद अपने गाँव के दूध पर पड़नेवाली मलाई की तुलना भागलपुरी रेशम की रजाई से की।

तब, चायवाले से नहीं रहा गया, शायद। वह कुढ़कर बोला-““तो वैसी मोटी मलाई छोड़कर यहाँ शहर का घासी-घी खाने क्‍यों आए? देहात में ही रहते!”

लगा, छोटेलाल के पास चायवाले का उधार-बाकी कुछ ज्यादा ही था पानवाले से।

लेकिन छोटेलाल तनिक भी छोटा नहीं हुआ। तमककर बोला-“'आया हूँ क्‍या अपने मन से ? तीन साल पहले एक बार गाँव से भागकर आया तो तीन दिन भी नहीं

रहने दिया था-भैया-भौजी ने। अब जब छोटेलाल की जरूरत हुई है, तो पाँच दिन तक खुशामद करके गाँव से बुला लाए हैं... ।”

इस सिलसिले में छोटेलाल ने विस्तारपूर्वक अपने प्रोफेसर भैया के शहर की एक 'लपस्टिक लड़की” से 'लटपटा” जाने से लेकर रजिस्ट्री-शादी तक के किस्से सुना दिए-उदारतापूर्वक ।

अन्त में 'क्लाइमेक्स' पर आकर गर्व से बोला-“और जब से वह बन्दा यानी छोटेलाल आया है, तब से दोनों प्राणी' सुख-चैन से सोते हैं।

भैया की गैरहाजिरी में अब कोई "'मस्तान' हमारी गलीवाली खिड़की के आसपास कोई 'दिलफेंक फिल्‍मी गाना” गाकर देख ले जरा!...पहले तो यहाँ के 'इन सुथनसाह बादशाहों' ने मुझे देहाती - भुच्चा समझकर सिगरेट के धुएँ से उड़ा ही देने की कोशिश की।

लेकिन जब छोटेलाल ने एक फुटफुटीबाज का “गट्टा” पकड़ा कसके तो पहले तो सालों ने ठीक सिनेमा के 'फैट” के अन्दाज में बाँके तिरछे कायदे दिखाए-बाद में जब छोटेलाल का पहला 'झापड़” पड़ा कि बाकी साले ऐसे भागे...तो, कहते हो कि क्यों आए!

नहीं तो, आज के दिन से ही, माने सलोनी पुरनि्माँ के दिन से ही, क्रिस्नाकुम्भर मेले में होनेवाले 'ड्रामा' का 'रिहलसल' शुरू हो जाता है। ओह! इस बार, अभी क्‍या जो होता होगा वहाँ... ?”

छोटेलाल को गाँव की याद में इस तरह खोते हुए देखकर मैंने उसे जगाया- “आप ड्रामा में क्या करते थे ?”

मेरा सवाल पूरा भी नहीं हो पाया, इसके पहले ही छोटेलाल ने जवाब दिया- “क्या नहीं करता था ?

पर्दा-पोशाक जमा करने से लेकर 'रिहलसल' के लिए दरी-जाजिम-लैटपंचलैट-चाहहलवा-भाँगबूटी का इन्तजाम...और ड्रामा हो चाहे कुश्ती, चाहे घुड़दौड़-बिना छोटेलाल के हो तो जाए कोई काम ?

यह मत समझिए कि देहात में एकदम देहाती ड्रामा करता होगा। जी नहीं, एकदम नहीं। स्टेज पर बजते 'फौकसिंग' के खेला होता था-“बगदाद का सोदागर” तो, 'सुलताना डाकू तो, 'भगतसिंह”...तो खेला ऐसा कि गुलाबबाग मेला में आनेवाली दि ग्रेट 'ठेठरिकल' कम्पनी औफ इंडिया भी मात! समझे ?”

पहली मुलाकात के बाद से ही हम मित्र हो गए।

उससे बातें करके सदा मुझे कुछ नए शब्दों और मुहावरों की प्राप्ति हो जाती है।

कभी-कभी एक ही साथ कई कहानियाँ-'सच्ची कहानी', “बनती हुई कहानी”, 'बिगड़ती हुई कहानी', 'धारावाहिक कहानी” ! छोटेलाल समझ गया है कि उसके “देहाती माल' से लेकर 'शहरी मसाला' का असल गाहक मैं ही हूँ।

कभी चाय, कभी बिस्कुट अथवा उबला हुआ अंडा पाकर वह चटपटी प्रेम कहानियाँ सुनाने लगता है-“अरे भैया! देहात में जिसको 'लाट-साट' या “'लटपटा जाना” कहते हैं, उसको ही शहर में “लभ' चाहे 'प्रेम' कहते हैं--हमारी “दइया” है न...उसके जिम्मे एक-से-एक “मोहब्बत मार्का' किस्सा है।

इस नगर के पाँच रोड के पचास 'फेमिली' के नौकर और दाई और जमादार-जमादारी से मेरा हेलमेल है।

सो, रोज तीन-चार प्रेम-पिहानी...वह छोटकी गाड़ी में चंडोल-सफाचट बूढ़ा अभी गया न-वह अपनी जमादारनी से 'इशकबाजी'...अरे बूढ़ा है ?

दिल भी कहीं बूढ़ा होता है...उस लौंडे को देखते हैं न...वही जो 'लेडिजफिंगर' खरीद रहा है अपनी अघेड़ मालकिन का 'ख़ानगी' नौकर है - मौज कर रहा है - मैं उसको क्‍या कहता हूँ. जानते हैं ?

बैसाखी खीरे का बतिया!...तीन नंबर के लाल बंगले के छत पर हर रात को “जिन्दा-सिनेमा' होता है।...और, 'लभ' वाली शादी कहिए चाहे प्रेमविवाह-मगर है यह बालू की दीवार...अब मेरी भाभी को ही देखिए न...भैया के जितने दोस्त आते हैं, सभी "लभ' की नजर से देखते हैं।

माने, एक बार एक आदमी से 'लभ' करनेवाली लड़की हमेशा किसी-न-किसी आदमी से 'लभ' करती ही रहती है - लोग वही समझते हैं। मेरा भी यही अनुमान है। फिर किसी दिन सुनाएँगे आपको”

कभी - कभी वह बहुत ही उदास दीखता तो मैं टोक देता - आज कुछ उदास नजर आ रहे हो छोटे ? क्‍यों, क्या बात है ?”

उस दिन क्रिस्ना के कोंचने और चिढ़ाने पर भी वह कोई जवाब नहीं देता।

किन्तु मेरे सवाल के जवाब में प्रायः वह कहा करता-“जी करता है, उड़कर चला जाऊँ।”

“कहाँ ?” मैं अचरज से पूछता।

“और कहाँ ? गाँव ।”

सात-आठ महीने की बैठकों में मैं उसके भैया-भौजी, गाँव-घर, टोला-समाज के लोगों के अलावा उसके गाँव के आस-पास के खेत-मैदान, नदी-पोखरे, हाट-घाट से अच्छी तरह परिचित हो चुका था।

पूछता-“क्यों ? रानीगंज हाट की जलेबी खाने का जी करता है या रजौली पोखरे की मछली ?”

उस दिन ऐसा लगा कि वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।

उदासी का कारण पूछते ही वह मुझे चाय की दूकान पर ले गया हाथ पकड़कर-“अब आप ही बतलाइए जी।

मैं कया करूँ ? भैया - भौजी की लड़ाई अब आखिरी सीमा पर पहुँच गई है।

अब तो कभी-कभी मार-पीट, 'पझड़ा-पझ्नड़ोवल' भी हो जाती है।

जब दोनों झगड़ने लगते हैं तो मैं रेडियो को और तेज कर देता हूँ। पानी के दोनों नलों को 'फुलस्पीड' में खोल देता हूँ, ताकि बाहर के लोगों तक-पास - पड़ोस में उनके झगड़े की आवाज नहीं पहुँच सके। मगर अब लगता है, बात फैल जाएगी।

अब मैं क्या करूँ ? किसका साथ दूँ ?...भौजी को सन्देह समा गया है कि भैया किसी मुँहबोली बहन के साथ 'लभ' में लटपटा गए हैं और भैया कहते हैं कि शहर की लड़की से शादी करके उनकी शान्ति समाप्त हो गई।

अब मैं अगर भैया का 'पच्छ' लेता हूँ तो भौजी और भौजी के तरफ से बोलू तो भैया-दोनों ओर से जाता हूँ-दोनों मुझसे नाराज...अजीब साँसत में मेरी जान फंसी है। बताइए न, क्‍या करूँ ?”

आज छोटे बहुत प्रसन्‍न है। उसने भैया के गृहकलह को शान्त कर दिया है। मैंने भैया से एकान्त में कहा-“भाभी की गैरहाजिरी में अब अगर किसी मुँहबोली लड़की को घर में लाइएगा तो मैं भाभी को बता दूँगा।” और भाभी को धमकी दी-“मैके जाने का बहाना बनाकर आप इस मुहल्ले की मौसी और उस मुहल्ले की मामी के घर जाना बन्द करिए भाभी! नहीं तो बिलट रिक्शावाला को गवाही में लाकर खड़ा कर दूँगा कि आप कहाॉँ-कहाँ जाती हैं और किस - किससे मिलती हैं।'

अन्त में, सबसे बड़ी खुशखबरी देते हुए वह तनिक लजाया। फिर मुस्कुराया- “अब आप ही बतलाइए न, मैं कया करूँ? भाभी के एक मौसी है। उसकी छे लड़कियाँ । लेकिन चौथी लड़की ठीक भाभी की तरह है, देखने में। भाभी उसको खूब मानती हैं। कभी-कभी वह आकर दो-तीन रह भी जाती है।

सो...अब क्या बतावें। अपने जानते तो मैं बड़ा होशियारी से रहता आया हूँ, इस शहर में । मगर वह लड़की पता नहीं कैसे और कब से मुझसे 'लभ' करने लगी कि मुझसे पहले भाभी को पता चल गया।

अब भाभी कहती हैं कि छोटे! अब कया बताऊँ कि भाभी क्‍या कहती है ?

एकदम, सीधे शादी कर लेने को कहती है। अब आप ही बतलाइए न-मैं कया करूँ? अगर “लभ' नहीं करने लगी होती तो मैं साफ-साफ कह देता कि शहर की लपस्टिक लड़कियाँ मुझे पसन्द नहीं। लेकिन अब ऐसा कहने से उसका दिल टूट जाएगा न। है कि नहीं ?

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