इजिप्शियन नाइट्स (रूसी कहानी) : अलेक्सान्द्र पूश्किन
Egyptian Nights (Russian Story) : Alexander Pushkin
(पूश्किन की कवि कल्पना को इजिप्ट की साम्राज्ञी का व्यक्तित्व अनेक बार आकर्षित कर चुका था। सन् 1824 में उन्होंने क्लियोपेट्रा के बारे में कविता भी लिखी। रचना के मूल में रोमन लेखक अव्रेली विक्टर की वह कहानी है, जिसके अनुसार क्लियोपेट्रा अपना प्यार बेचा करती थी और अनेक लोगों ने अपने जीवन की क़ीमत देकर उसे खरीदा भी था। पूश्किन इस विषय वस्तु की ओर मुड़े सन् 1828 में, तभी पद्यांश 'जगमग करता राजमहल...' की रचना हुई (जिसे बाद में 'इजिप्शियन नाइट्स' में शामिल किया गया)। कहानी अधूरी ही रह गयी। पहली बार सन् 1837 में, पूश्किन की मृत्यु के बाद 'सव्रेमेन्निक' में प्रकाशित हुई थी।)
1
चार्स्की पीटर्सबुर्ग के मूल निवासियों में से एक था। अभी उसकी उम्र तीस साल की नहीं हुई थी, उसकी शादी नहीं हुई थी, नौकरी का बोझ उस पर नहीं था। उसके स्वर्गवासी चाचा ने, जो खुशहाल दिनों में उपगवर्नर रह चुके थे, उसके लिए अच्छी खासी जायदाद छोड़ी थी। उसकी ज़िन्दगी ख़ुशगवार हो सकती थी, मगर दुर्भाग्यवश वह कविताएँ लिखा करता और प्रकाशित किया करता था। पत्रिकाओं में उसे कवि कहा जाता और नौकर-चाकर उसे रचनाकार कहा करते ।
उन सभी सुविधाओं के बावजूद, जो कवियों को प्राप्त हैं (मानना पड़ेगा : सिर्फ़ सम्बन्धकारक के स्थान पर कर्मकारक का प्रयोग एवं इसी प्रकार की अन्य तथाकथित काव्यात्मक स्वतन्त्रताओं के अलावा, रूसी कवियों के पास हमें कोई विशेष सुविधाएँ नज़र नहीं आतीं)-चाहे कुछ भी हो जाए, सभी सम्भाव्य सुविधाओं के बावजूद ये लोग कई बड़ी-बड़ी हानियों एवं अप्रियताओं के शिकार हो जाते हैं। एक कवि के लिए सर्वाधिक कटु, सर्वाधिक असहनीय है उसकी उपाधि एवं उसका उपनाम, जिससे वह चिपका दिया जाता है और जो उससे कभी अलग नहीं होता। जनता उसे अपना ही माल समझती है; जिसकी राय में उसका जन्म उसके लाभ एवं प्रसन्नता के लिए ही हुआ है। वह अपने गाँव से वापस लौटता है तो पहला मुलाक़ाती उससे पूछता है, “क्या आप हमारे लिए कोई नयी चीज़ लाए हैं?” अपने बेतरतीब मामलों के बारे में वह चिन्तित हो या अपने प्रिय व्यक्ति की बीमारी को लेकर परेशान : फ़ौरन एक कमीनी मुस्कुराहट के साथ ज़हरीला उद्गार प्रकट होता है, “शायद, कुछ रच रहे हैं!” वह प्यार करता है?-उसकी सुन्दरी अंग्रेज़ी दुकान में अपने लिए एल्बम ख़रीदती है और तुरन्त एक शोकगीत की उम्मीद कर बैठती है। वह अपरिचित व्यक्ति के पास आता है, किसी ज़रूरी काम के बारे में बातें करता है, वह फ़ौरन अपने बेटे को पुकारता है और उसे फलाँ-फलाँ की कविता सुनाने के लिए मजबूर करता है; और बच्चा कवि का उसी की बिगाड़ी हुई कविताओं से स्वागत करता है। ये तो हुए उसकी कारीगरी के फल! नुक़सान क्या है? चार्स्की मानता है कि अभिवादनों, आकांक्षाओं (अपेक्षाओं) एल्बमों और बच्चों से वह इतना तंग आ चुका है कि हर पल बदतमीज़ी करने से बचने के लिए उसे स्वयं पर क़ाबू रखना पड़ता है।
चार्स्की ने अपने असहनीय उपनाम को फेंक देने की हर सम्भव कोशिश की। वह अपने साहित्यकार बन्धुओं से भागता फिरता और उनके बदले समाज के गण्यमान्य व्यक्तियों की, एकदम बेवक़ूफ़ों की भी, संगत पसन्द करता। उसकी बातचीत एकदम निचले दर्ज़ की होती और साहित्य से कभी भी सम्बन्धित न होती ।
उसकी आधुनिकतम फ़ैशन की वेशभूषा में शामिल होती थी उस मॉस्कोवासी की विनम्रता एवं आत्मविश्वास, जो पहली बार पीटर्सबुर्ग आया हो।
किसी महिला के शयनकक्ष की भाँति साफ़-सुथरे उसके अध्ययनकक्ष में कोई भी चीज़ ऐसी न थी जो एक लेखक की याद दिलाती; मेज़ों के ऊपर और मेज़ों के नीचे किताबें बिखरी नहीं हुआ करतीं; सोफ़े पर स्याही का छिड़काव नहीं हुआ था; उस बेतरतीबी का अभाव था, जो काव्य की उपस्थिति एवं झाड़ू तथा ब्रश की अनुपस्थिति का आभास कराती । यदि उच्च समाज के किसी दोस्त ने उसे हाथों में क़लम पकड़े देख लिया तो चार्स्की झुँझला उठता। विश्वास करना कठिन है कि एक प्रतिभासम्पन्न एवं सहृदय व्यक्ति किस हद तक जा सकता है। कभी वह घोड़ों का शौक़ीन होने का दिखावा करता या मँजे हुए खिलाड़ी होने का या फिर खाने-पीने का शौक़ीन होने का; हालाँकि पहाड़ी घोड़े (टट्टू) और अरबी घोड़ों में भेद न कर पाता, उसे कभी ट्रम्प कार्ड याद नहीं रहता, और राज़ की बात यह थी कि फ्रांसीसी व्यंजनों के सभी सम्भव आविष्कारों के बदले भुने हुए आलू पसन्द करता था। जीवन भी बड़ी बेतरतीबी से बिताता; सभी बॉल नृत्यों में घुस जाता, राजनयिकों के सभी भोजों में खाना खाता और आमन्त्रितों के लिए आयोजित सभी पार्टियों में आइसक्रीम की भाँति अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता।
मगर फिर भी वह कवि था और उसका भावनावेग दबाया नहीं जा सकता था : जब उस पर वह “भूत” सवार होता (प्रेरणा को वह इस नाम से पुकारा करता) तो चार्स्की अपने अध्ययनकक्ष में बन्द हो जाता और सुबह से देर रात तक लिखता रहता। अपने सच्चे मित्रों के सामने वह स्वीकार करता कि तभी वह वास्तविक सुख का अनुभव करता। बाक़ी समय में वह घूमता रहता, विनयशीलता दिखाते हुए और ढोंग करते हुए और हर क्षण प्यारा-सा सवाल सुनते हुए : क्या आपने कोई नयी रचना लिखी है।
एक दिन सुबह चार्स्की को अपने दिल में उस सम्पूर्ण आनन्द की अनुभूति का अहसास हुआ, जब ख़याल आपके सामने मूर्त रूप ग्रहण करने लगते हैं और आप इन तस्वीरों को साकार बनाने के लिए सजीव, आकस्मिक शब्दों को दूँढ़ लेते हैं, जब कविता हौले से आपकी क़लम के नीचे बिछ जाती है और सुडैल साकार विचारों का स्वागत करने मुखर काफ़िये दौड़े चले आते हैं। चार्स्की इस मीठी विस्मृति में डूबा हुआ था...और समाज, सामाजिक राय और उसकी अपनी सनक उसके लिए अस्तित्वहीन हो गये थे। वह कविता लिख रहा था।
अचानक उसके अध्ययनकक्ष का दरवाज़ा चरमराया और एक अनजान सिर दिखाई दिया। चार्स्की काँप गया थरथराया और उसने बुरा मुँह बनाया।
“कोन है?” उसने क्षोभ से पूछा, मन-ही-मन अपने नौकरों को गालियाँ देते हुए, जो कभी भी सामने के कमरे में उपस्थित नहीं रहते थे।
अजनबी अन्दर आया।
वह था ऊँचे क़द का-दुबला-पतला और प्रतीत हो रहा था क़रीब तीस साल का। उसके साँवले चेहरे के नाक नक़्श भावदर्शी थे : काले बालों की लटों से ढँका हुआ निस्तेज ऊँचा माथा, काली चमकीली आँखें, गरुड़ जैसी नाक और पिचके हुए, साँवले-पीले गालों को घेरती हुई घनी दाढ़ी, उसके विदेशी होने का संकेत दे रहे थे। उसने काला फ्रॉक कोट पहना हुआ था, जिसका सिलाई पर रंग उड़ चुका था, पतलून गर्मियों वाली (हालाँकि बाहर पतझड़ का मौसम था); पीली पड़ चुकी क़मीज़ के ऊपर काले रंग की बदरंग-सी टाई पर नक़ली हीरा चमक रहा था; खुरदुरी टोपी, लगता था अच्छे-बुरे मौसम देख चुकी है। यदि इस व्यक्ति से जंगल में मुलाक़ात होती तो आप उसे डाकू समझ बैठते, समाज में उससे मिलते तो राजनीतिक षड़यन्त्रकारी समझते; और मेहमानख़ाने में-तरह-तरह की ताक़त बढ़ानेवाली दवाइयों और संखिया बेचनेवाला नीमहकीम समझ बैठते ।
“क्या चाहते हैं आप?” चार्स्की ने उससे फ्रांसीसी में पूछा।
“सिन्योर,” विदेशी ने काफ़ी नीचे झुक-झुककर अभिवादन करते हुए कहा,
“महाशय कृपया मुझे माफ़ करें, अगर...”
चार्सकी ने उससे बैठने के लिए नहीं कहा और स्वयं भी खड़ा हो गया, बातचीत इतालवी भाषा में ज़ारी रही।
“मैं नेपल्स का कलाकार हूँ।” अजनबी ने कहा, “परिस्थितियों ने मुझे पितृभूमि छोड़ने पर मजबूर कर दिया; मैं रूस चला आया अपनी प्रतिभा पर उम्मीदें लगाये।”
चार्सकी ने सोचा कि नेपल्सवासी वॉयलिन के कुछ कॉन्सर्ट्स का प्रदर्शन करना चाहता है और घर-घर जाकर टिकटें बेच रहा है। उसने उसके हाथ में अपने पच्चीस रुबल्स थमाकर उससे जल्दी ही पीछा छुड़ाने का इरादा भी कर लिया, मगर अपरिचित ने आगे कहा :
“मुझे उम्मीद है, महाशय कि आप अपने हमपेशा लोगों की ओर दोस्ताना मदद का हाथ बढ़ाएँगे ओर मुझे उन परिवारों से परिचित करवाएँगे, जहाँ आपकी पहुँच है।”
चार्स्की के अभिमान का इससे अधिक गहरा अपमान नहीं किया जा सकता था। उसने फ़ौरन उस आदमी की ओर देखा, जो उसे अपना हमपेशा कह रहा था।
“माफ़ कीजिए आप कौन हैं ओर आप मुझे समझ कया रहे हैं?” बड़ी कठिनाई से उसने अपनी नाराज़गी को रोकते हुए कहा।
नेपल्सवासी ने उसकी अप्रसन्नता को भाँप लिया।
“महाशय,” उसने हकलाते हुए कहा...मैंने सोचा...मैंने समझा...आप...महानुभाव, ...क्षमा करें...
“क्या चाहिए आपको?” चार्स्की ने रूखेपन से फिर पूछा।
“मैंने आपकी अद्भुत प्रतिभा के बारे में बहुत कुछ सुना है; मुझे विश्वास है कि यहाँ के बड़े लोग आप जैसे प्रख्यात कवि को यथासम्भव संरक्षण देने में गर्व का अनुभव करेंगे” इतालवी ने जवाब दिया, “ओर इसीलिए में आपके पास आने की हिम्मत कर सका...”
“आप ग़लती कर रहे हैं महाशय,” चार्स्की ने उसे बीच ही में टोकते हुए कहा, “हमारे यहाँ कवियों की उपाधियाँ नहीं होतीं। हमारे कवियों को उच्चवर्ग का आश्रय प्राप्त नहीं होता; हमारे कवि स्वयं ही 'उच्च कुल' के होते हैं और अगर हमारे संरक्षक (भाड़ में जाएँ!) यह नहीं जानते तो यह उन्हीं के लिए बुरा है। हमारे यहाँ ऐसे भगोड़े एबट्स1 नहीं हैं, जिन्हें संगीतकार लिब्रेटो2 की रचना के लिए रास्ते से उठाकर लाएँ। हमारे यहाँ कवि मदद की याचना करने के लिए पैदल घर-घर नहीं घूमते । हाँ, आपको, शायद, मज़ाक़ में किसी ने कह दिया होगा कि मैं एक महान कवि हूँ। यह सच है कि मैंने कभी कुछ बुरे लतीफ़े लिखे हैं, मगर ईश्वर की कृपा से, कवियों से न तो मेरा कोई लेना-देना है और न होगा ।”
1. एबट्स-मठाध्यक्ष ।
2. लिब्रेटो-क्रिसी ऑपेरा, नाटक आदि का सारांश।
बेचारा इतालवी झेंप गया | वह अपने चारों ओर देखने लगा । तस्वीरों, संगमरमर के बुतों, ताँबे की मूर्तियों, क़ीमती खिलौनों ने जो गोथिक शैली के आलों में रखे थे उसे चौंका दिया। वह समझ गया कि उसके सामने खड़े, सुनहरे तारों से कढ़ी रेशमी फुन्देदार टोपी, सुनहरा चीनी चोगा, तुर्की कमरबन्द पहने इस सजीले नौजवान के और उस ग़रीब, लड़खड़ाते, बदरंग टाई और जीर्ण-शीर्ण फ्रॉक कोट पहने कलाकार के बीच कोई भी साम्य नहीं है। उसने क्षमायाचना में कुछ असम्बद्ध शब्द कहे, झुककर अभिवादन किया और बाहर जाने लगा। उसकी दयनीय आकृति ने चार्स्की के मन को छू लिया, जिसका दिल, अपनी छोटी-मोटी चारित्रिक विशेषताओं के बावजूद बड़ा भला और उदार था। उसे अपने चिड़चिड़े आत्माभिमान पर बड़ी शर्म आयी।
“कहाँ जा रहे हैं?” उसने इतालवी में कहा, “रुकिए...मैं इस अनावश्यक उपाधि को दूर हटाकर आपके सामने स्वीकार करना चाहता था, कि मैं कवि नहीं हूँ। चलिए अब आपके काम के बारे में बात करते हैं। मैं आपकी हरसम्भव सहायता करने के लिए तैयार हूँ। आप संगीतज्ञ हैं?”
“नहीं, महाशय!” इतालवी ने जवाब दिया, “मैं एक ग़रीब आशुकवि हूँ।”
“आशुकवि !” चार्सकी अपने आचरण की समस्त कठोरता को महसूस करते हुए चिल्लाया, “आपने पहले क्यों नहीं वताया कि आप आशुकवि हैं?” और चार्स्की ने वास्तविक पश्चात्ताप की भावना से उससे हाथ मिलाया।
उसके मैत्रीपूर्ण व्यवहार से इतालवी का हौसला बढ़ा। उसने बड़ी सादगी से अपने इरादों के बारे में बताना आरम्भ किया। उसकी वेशभूषा धोखा नहीं दे रही थी; उसे पैसों की ज़रूरत थी; वह अपनी घरेलू परिस्थिति को सुधारने की आशा से रूस आया था।
“मुझे उम्मीद है,” उसने ग़रीब कलाकार से कहा, “कि आपको सफलता मिलेगी; यहाँ के समाज ने अभी तक कभी किसी आशुकवि को सुना नहीं है। उनकी उत्सुकता जाग उठेगी; हाँ, हमारे यहाँ इतालवी भाषा का प्रयोग नहीं होता है, आपको लोग समझ न पाएँगे; मगर इससे घबराने की बात नहीं; ख़ास बात यह है कि आप फ़ैशनेबुल हों ।”
“मगर यदि आपके यहाँ कोई भी इतालवी भाषा नहीं समझता, तो मुझे सुनने के लिए कौन आएगा?”
“आएँगे, डरिये मत : कुछ उत्सुकतावश, कुछ सिर्फ़ यूँ ही शाम बिताने के लिए, कुछ यह दिखाने के लिए कि इतालवी समझते हैं; मैं फिर दुहराता हूँ, यह ज़रूरी है कि आप फ़ैशन में हो; और आप फ़ैशन में होंगे, यह रहा मेरा हाथ ।”
चार्सकी ने बड़े प्यार से आशुकवि का पता लेकर उसे विदा किया और उसी शाम को वह उसके काम पर निकल पड़ा।
2
मैं हूँ राजा, मैं गुलाम हूँ. मैं कीड़ा हूँ, ईश्वर हूँ मैं।
-देर्झाविन
दूसरे दिन चार्स्की ने एक सराय के अँधेरे, गन्दे गलियारे में पैंतीसवें नम्बर का कमरा ढूँढ़ निकाला। रुककर उसने दरवाज़ा खटखटाया। कलवाले इतालवी ने उसे खोला।
“कामयाबी !” चार्स्की ने उससे कहा, “आपका जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। राजक॒मारी xx आपको अपना हाल देंगी; कल शाम को पार्टी में मैंने आधे पीटर्सबुर्ग को आपके बारे में बता दिया; टिकट और इश्तिहार छापिए। आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि अगर आप पूरी तरह न भी जीते तो पैसों की बारिश तो होगी ही...”
“यही तो ख़ास बात है!” अपनी ख़ुशी को दक्षिणवासियों के सजीव हाव-भावों से व्यक्त करते हुए इतालवी चिल्लाया।
“मैं जानता था कि आप मेरी मदद करेंगे। शैतान ले जाए! आप भी वैसे ही कवि हैं, जैसा कि मैं और चाहे कुछ भी कहिए, कवि होते हैं बड़े बेहतरीन! अपनी कृतज्ञता आपके सामने कैसे प्रकट करूँ? ठहरिए...आप आशु-कविता सुनना चाहेंगे?”
“आशु-कविता!...क्या आप श्रोताओं के बगैर, साज़-संगीत के बगैर और तालियों की गड़गड़ाहट के बगैर काम चला सकते हैं?”
“बकवास, बकवास! मुझे आपसे बेहतरीन श्रोता कहाँ मिलेगा? आप कवि हैं आप मुझे उनसे बेहतर समझेंगे और आपकी ख़ामोश प्रेरणा मेरे लिए तालियों के तूफ़ान से ज़्यादा क़ीमती है...कहीं बैठ जाइए और मुझे कोई विषय दीजिए ।”
चार्स्की सूटकेस पर बैठ गया (कमरे में रखी दो कुर्सियों में से एक टूटी थी और दूसरी कपड़ों और काग़ज़ों से लदी थी)। आशु कवि ने मेज़ पर से गिटार उठाया-और अपनी हड़ीली उँगलियों से उसके तारों को ठीक करते हुए चार्स्की के सम्मुख खड़ा हो गया, उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा करते हुए।
“तो ये है विषय आपके लिए,” चार्स्की ने उससे कहा, “कवि ख़ुद विषयवस्तु चुनता है अपने गीतों के लिए; भीड़ को उसकी प्रेरणा पर अधिकार जताने का कोई अधिकार नहीं है।”
इतालवी की आँखें चमक उठीं, उसने कुछ मुखड़े बजाये, गर्व से सिर ऊपर उठाया और जोशभरी पंक्तियाँ, उसकी क्षणिक भावनाओं की प्रतीक, उसके होंठों से फूटने लगीं...ये रहीं वे पंक्तियाँ, जो चार्स्की की स्मृति में बैठे शब्दों के आधार पर हमारे मित्र ने बड़े स्वैर ढंग से सुनाई थीं :
“कवि जा रहा : खुली हैं पलकें मगर न देखे कहीं किसी को; वस्त्रों का एक कोना पकड़े खींच रहा है उसे पथिक... । “निरुद्देश्य क्यों, कहो, घूमते? ऊँचाई पर अभी गये हो; नज़र वादियाँ नीचे लाते, नीचे गिरने तत्पर क्यों तुम”? सुन्दर सृष्टि दिखे धुंधलाई व्यर्थ अगन से विह्वल तुम; तुच्छ वस्तु से होते हर पल उत्तेजित, आकर्षित तुम। आसमान को लक्ष्य बनाना है असली कवि का कर्तव्य; अन्त:प्रेरित गीत रचो तुम चुन मेधावी विषय उदात्त।” -हवा घूमती खाई में क्यों पर्ण उठाती, ध्वूल उड़ाती; निश्चल जल में नौका को क्यों आस है उसकी साँसों की? क्यों पर्वत, बुर्ज़ों को छूकर उड़ता है विकराल गरुड़ वृद्ध ठूँठ के पास? पूछो उससे, क्यों करती है प्यार दास को युवा सुंदरी देज़्देमोना? चाँद को भाये धुँधली रात क्यों? हवा, गरुड़ और युवा हृदय को क्योंकि न भाये कोई नियम । कवि वैसा ही एक्विलोव है; जैसा चाहे; वैसा पहने गरुड़ के जैसा उड़ता जाए; पूछे बिना किसी से भी युवा देज़्देमोना की भाँति चुनता अपने दिल का साथी।
इतालवी चुप हो गया...चार्स्की ख़ामोश रहा, आश्चर्यचकित और भाव-विभोर ।
“तो फिर?” आशुकवि ने पूछा। चार्स्की ने उसका हाथ पकड़कर बड़े जोश से भींच लिया।
“क्या?” आशुकवि ने पूछा, “कैसा है?”
“अद्भुत” कवि ने उत्तर दिया, “वाह! पराया विचार आपके कानों तक पहुँचा नहीं कि आपका अपना हो गया, मानों आप उसे साथ लिए घूम रहे थे, उसे सहला रहे थे, उसे लगातार पाल-पोस रहे थे। और, क्या आपको कोई मेहनत, कोई संज्ञाशून्यता, कोई परेशानी, जो इस प्रेरणा से पूर्व अवश्यम्भावी है, अनुभव नहीं होती ? अद्भुत, अद्भुत!”
आशुकवि ने जवाब दिया : “किसी भी कला को समझाना असम्भव है। संगमरमर के एक टुकड़े में मूर्तिकार छिपे हुए जुपिटर को कैसे देख लेता है और फिर उसके आवरण को छेनी और हथौड़े से हटाकर कैसे उसे सबके सामने लाता है? कवि के दिमाग़ से कल्पना क्यों समान चरणों से नपे-तुले चार काफ़ियों से सजकर बाहर आती है? तो, कोई भी, सिवाय स्वयं आशु कवि के, प्रभावों की तेज़ी को, स्वयं की प्रेरणा और पराये विचार के मध्य इस बन्धन को नहीं समझा सकता, मैं व्यर्थ ही इसे समझाना चाहता हूँ। खैर मेरी पहली शाम के बारे में सोचना होगा। आप क्या कहते हैं? टिकटों का मूल्य कितना रखना चाहिए, ताकि लोगों को भारी न पड़े और मैं भी नुक़सान न उठाऊँ? कहते हैं कि मैडम कतालानी1 ने 25 रूबल लिए थे? अच्छी क़ीमत...”
1. कतालानी-कतालानी अंजेलिका (1780-1847) प्रसिद्ध इतालवी ऑपेरा गायिका, जो सन् 1820 में पीटर्सबुर्ग आयी थी।
कवित्व की ऊँचाई से अचानक व्यापारी की दुकान पर उतर आना चार्स्की को पसन्द न आया; मगर वह जीवन की ज़रूरतों को बहुत अच्छी तरह समझता था, अतः इतालवी के साथ व्यापारिक हेर-फेर की उधेड़बुन में पड़ गया । इस मामले में इतालवी इतना लालची प्रतीत हुआ, पूँजी के प्रति खुले दिल से उसने इतना प्यार दिखाया कि चार्स्की को तिरस्कृत प्रतीत होने लगा और उसने फ़ौरन उसे वहीं रोक दिया, ताकि बेहतरीन आशु कविता से उत्पन्न प्रभाव से जन्मी उल्लास की भावना को पूरी तरह न खो बैठे।
चिन्तित इतालवी इस परिवर्तन को न देख पाया और उसने उसे गलियारे से तथा सीढ़ियों से झुककर अभिवादन करते और चिरकृतज्ञता का विश्वास दिलाते हुए विदा किया।
3
टिकिट दर 10 रूबल्स, आरम्भ 7 वजे -इश्तिहार
राजकुमारी xx का हाल आशुकवि के हवाले कर दिया गया था। एक स्टेज बनाया गया; कुर्सियों को बारह पंक्तियों में रखा गया; निश्चित दिन, शाम के सात बजे से हाल को रौशन किया गया, दरवाज़े के निकट मेज़ पर टिकट बेचने और लेने के लिए मुड़ेतुड़े पंखों वाली भूरी टोपी और सभी उँगलियों में अँगूठियाँ पहने लम्बी नाकवाली एक बुढ़िया बैठी थी। प्रवेश-द्वार पर सन्तरी खड़े थे। लोग आने लगे। सर्वप्रथम आया चार्स्की । इस आयोजन की सफलता में वह सक्रिय रूप से भाग ले रहा था और वह आशुकवि से मिलना चाहता था यह पूछने के लिए कि सब-कुछ ठीक-ठाक है या नहीं । उसने पार्श्व में बने कमरे में इतालवी को पाया जो बेसब्री से घड़ी देख रहा था। वह इतालवी नाटकों वाली वेशभूषा में था; सिर से पाँव तक काली पोशाक; उसकी कमीज़ की झालरदार कॉलर खुली हुई थी, नंगी गर्दन अपने विचित्र गोरेपन के कारण घनी काली दाढ़ी से हटकर प्रतीत हो रही थी, खुले वालों की लटें उसके माथे और भँवों को ढाँक रही थीं। चार्स्की को यह सब ज़रा भी अच्छा नहीं लगा, जिसे कवि को परदेसी विदूषक की पोशाक में देखना अप्रिय प्रतीत हो रहा था। संक्षिप्त-सी बातचीत के बाद वह हाल में लैट आया, जो अधिकाधिक भरता जा रहा था।
शीघ्र ही कुर्सियों की सभी क़तारें चमक-दमकवाली महिलाओं से भर गयीं; पुरुष स्टेज के निकट, दीवारों से लगकर और अन्तिम कुर्सियों के पीछे खड़े थे। संगीतकार अपने-अपने ताम-झाम के साथ स्टेज के दोनों छोरों पर जम गये। बीचोंबीच मेज़ पर चीनी मिट्टी का फूलदान रखा था। दर्शकों की संख्या काफ़ी थी। सभी बेसब्री से आरम्भ का इन्तज़ार कर रहे थे; आखिरकार साढ़े सात बजे संगीतकारों में हलचल हुई, उन्होंने अपने-अपने साज़ तैयार करके 'तांक्रेद1 की प्रस्तावना' बजाई । सब-कुछ शान्त और स्थिर हो गया, प्रस्तावना के अन्तिम सुर गूँजे..और आशुकवि चारों ओर से उठे तालियों के बहरा कर देनेवाले शोर के बीच झुककर अभिवादन करता हुआ स्टेज के किनारे तक आ गया।
1. तांक्रेद-इतालवी संगीतकार जोकिनों रोस्सिनी का ऑपeरा।
चार्स्की बड़ी बेचैनी से प्रथम क्षण में पड़नेवाले प्रभाव की राह देख रहा था, मगर उसने देखा कि वह साज़-सज्जा जो उसे बेहूदा प्रतीत हुई थी, दर्शकों पर वैसा ही प्रभाव नहीं डाल रही थी। अनेक जगमगाते लैम्पों तथा मोमबत्तियों से आलोकित निस्तेज चेहरे को स्टेज पर देखकर स्वयं चार्स्की को भी उसमें कोई हास्यास्पद बात प्रतीत नहीं हुई | तालियों की गड़गड़ाहट शान्त हुई, आवाज़ें ख़ामोश हो गयीं...इतालवी ने अशुद्ध फ्रांसीसी भाषा में दर्शकों से अनुरोध किया कि वे विशेष काग़ज़ों पर उसे कुछ विषय लिखकर दें। इस अप्रत्याशित निमन्त्रण से सभी ने एक-दूसरे की ओर चुपचाप देखा और किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर इन्तज़ार करने के बाद इतालवी ने बड़े नम्र और शान्त लहजे में अपनी प्रार्थना दुहराई। चार्स्की स्टेज के ठीक नीचे खड़ा था; वह परेशान होने लगा; उसने महसूस किया कि उसके बिना काम नहीं चलेगा और उसे अपना विषय लिखकर देना होगा। सचमुच में, कुछ महिलाओं के सिर उसकी ओर मुड़े और उसे पहले दबी ज़बान में और फिर ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगे। उसका नाम सुनकर आशुकवि ने आँखों से उसे ढूंढा और उसे अपने पैरों के निकट ही पाकर दोस्ताना मुस्कुराहट के साथ काग़ज़ का एक टुकड़ा और पेन्सिल थमा दी। इस प्रहसन में अभिनय करना चार्स्की को बड़ा अप्रिय लगा, मगर कोई चारा न था। उसने इतालवी के हाथों से पेन्सिल और काग़ज़ ले ली, उस पर कुछ शब्द लिखे; इतालवी हाथों में मेज़ पर रखा फूलदान उठाकर स्टेज से नीचे आया और उसे चार्स्की के सामने लाया, जिसमें उसने अपना कागज़ डाल दिया। उसके उदाहरण का प्रभाव पड़ा, दो संवाददाताओं, साहित्यकारों ने, एक-एक विषय लिखकर देना अपना कर्तव्य समझा, नेपल्स के दूतावास के सचिव ने और हाल ही में यात्रा से लोटे नौजवान ने फ्लोरेंस के बारे में प्रलाप करते हुए अपने काग़ज़ों को मोड़कर डाल दिया; आखिर में एक बदसूरत लड़की ने अपनी माँ की आज्ञा से, आँखों में आँसू भरकर इतालवी में कुछ पंक्तियाँ लिखीं और कानों तक लाल होते हुए उन्हें आशुकवि को दे दिया, जब कि अन्य महिलाएँ चुपचाप, मुश्किल से दिखाई देनेवाली मुस्कुराहट से उसे देख रही थीं। स्टेज पर वापस आकर आशुकवि ने बर्तन को मेज़ पर रख दिया और एक के बाद एक उसमें से काग़ज़ निकालते हुए उन्हें ज़ोर से पढ़ने लगा :
चेंची का परिवार।
पोम्पेई का आखिरी दिन ।
क्लिओपेट्रा और उसके प्रेमी।1
आँधेरे से दृष्टिगोचर होती बहार।1
तास्सो की विजय ।3
1. आशुकवि को सुझाये गये सभी विषय-क्लिओपेट्रा को छोड़कर तत्कालीन लोकप्रिय साहित्यिक एवं चित्रकला की कृतियों से सम्बन्धित थे (शैली की शोकांतिका चेंची, 1819; इतालवी लेखक सिल्विओं पेलिका की पुस्तक मेरे अँधेरे, ।832; ब्रूलोव का चित्र पोम्पेई का अन्तिम दिन जो अगस्त 1834 में पीटर्सबुर्ग में प्रदर्शित किया गया था। चेंची का परिवार-सन् 1798 में मौत के घाट उतारे गये प्रसिद्ध रोमवासी फ्रांचेस्को चेंची से तात्पर्य है। इस अपराध में उसके पुत्र एवं उनकी सौतेली माँ शामिल थे, जिन्होंने जाँच के दौरान सब-कुछ स्वीकार कर लिया। हालाँकि जाँच के दौरान यह स्पष्ट किया गया कि इस कार्य के लिए उन्हें चेंची की क्रूरता एवं दुराचारिता ने बाध्य किया था, मगर फ़ादर क्लेमेण्ट आठवें की आज्ञानुसार उनका वध कर दिया गया।
2. अँधेरे से दृष्टिगोचर होती बहार-सिल्विओं पेलिको की पुस्तक में एक प्रसंग है, जहाँ यह वर्णन किया गया है कि कैसे उसका मित्र मारोंचेली जेल में कविताएँ लिखता है, जिनमें बहार के जेल की कीठरी के अन्दर न आने की शिकायत की गयी है।
3. तास्सो की विजय-महान रोम के कवि तास्सो के दुर्भाग्य की कथा, जो कापितोलिआ में विजय का सेहरा पहनाये जाने के कुछ ही दिन पूर्व मर गया था। इस विजय मुकुट की वह जीवन भर प्रतीक्षा करता रहा।
“आदरणीय दर्शक क्या हुक्म देते हैं?” शान्त इतालवी ने पूछा, “क्या स्वयं आप इनमें से कोई एक विषय चुनकर मुझे बताएँगे या फिर लॉटरी निकाली जाए ?...”
“लॉटरी!” भीड़ में से एक आवाज़ आयी।
“लॉटरी, लॉटरी ।” दर्शकों ने दुहराया।
आशुकवि दुबारा नीचे आया हाथों में बर्तन लिए और पूछने लगा, “कौन विषय निकालेगा?” आशुकवि ने कुर्सी की पहली क़तार की ओर विनती भरी नज़र से देखा। वहाँ बैठी सजी-धजी महिलाओं में से एक भी टस-से-मस न हुई। आशु कवि, जिसे उत्तरी उदासीनता की आदत नहीं थी, शायद, दुःखी हो गया...अचानक उसे एक कोने में छोटा, सफ़ेद दस्तानेवाला ऊपर उठा हुआ हाथ नज़र आया, वह बड़ी ज़िन्दादिली से मुड़ा और दूसरी पंक्ति में बैठी युवा सुन्दरी के निकट गया। वह बिना किसी हिचकिचाहट के खड़ी हो गयी और उसने यथासम्भव सादगी से बर्तन में अपना आभिजात्य हाथ डालकर मोड़ा गया काग़ज़ का एक टुकड़ा निकाल लिया।
“कृपया खोलकर पढ़िए”, आशु कवि ने उससे कहा। सुन्दरी ने काग़ज़ को खोला और ज़ोर से पढ़ा :
“क्लिओपेट्रा और उसके प्रेमी ।”
ये शब्द धीमी आवाज़ में कहे गये थे, मगर हाल में इतनी ख़ामोशी थी कि सभी ने उन्हें सुन लिया। आशु कवि ने सुन्दरी महिला को झुककर सलाम किया, गहरी धन्यवाद की भावना से और वापस स्टेज पर लौट आया।
“सज्जनो!” उसने दर्शकों से मुख़ातिब होते हुए कहा, “लॉटरी ने क्लियोपेट्रा और प्रेमियों का विषय चुना है मेरी आशु कविता के लिए। इस विषय को लिखनेवाले व्यक्ति से मैं निवेदन करता हूँ कि अपना इरादा मुझे बतायें; किन प्रेमियों की बात यहाँ हो रही है; क्योंकि महान साम्राज्ञी के अनेक...”
यह सुनकर पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। आशुकवि कुछ झेंप गया।
"मैं जानना चाहूँगा?” उसने आगे कहा, “कि किस ऐतिहासिक विशेषता की ओर इशारा किया है इस विषय को चुननेवाले व्यक्ति ने...मैं बड़ा शुक्रगुज़ार होऊँ अगर वो मुझे समझा सकें।” किसी ने भी जवाब देने की जल्दी नहीं की । कुछ महिलाओं ने बदसूरत लड़की की ओर नज़रें घुमाईं, जिसने अपनी माँ के आदेश पर यह विषय लिखा था। बेचारी लड़की ने इन बेरहम नज़रों को देखा और वह इतनी परेशान हो गयी कि उसकीपलकों पर आँसू तैर गये...चार्सकी यह बर्दाश्त न कर सका और आशु कवि को सम्बोधित करते हुए इतालवी भाषा में बोला :
“यह विषय मैंने सुझाया था। मेरा इशारा विक्टर अवरेंली के विवरण की ओर है, जिसमें वह लिखता है, मानों क्लिओपेट्रा अपने प्रेम की क़ीमत मृत्युदंड के रूप में चुकाती थी और ऐसे भी प्रेमी थे, जिन्हें ऐसी शर्त से न डराया जा सकता था और न इससे डिगाया ही जा सकता था...मगर मैं सोचता हूँ कि विषय कुछ काठिन...क्या आप कोई दूसरा विषय चुनना चाहेंगे ?...”
मगर आशु कवि को ईश्वर की निकटता का आभास हो चला था। उसने संगीतकारों को इशारा किया...। उसका चेहरा बहुत निस्तेज हो गया, वह मानों सरसाम की हालत में झूमने लगा, आँखें विचित्र तेज से चमकने लगीं, उसने हाथों से अपने काले बाल हटाये, रूमाल से ऊँचा माथा पोंछा जिस पर पसीना छलछला रहा था ...और अचानक आगे बढ़ा, सीने पर सलीब का निशान बनाते हुए हाथों को रखा ...संगीत थम गया...आशु कविता आरम्भ हो गयी-
जगमग करता राजमहल, गूँज उठे सुर गायकों के, बंसी और वीणा के संग। साम्राज्ञी ने मीठे सुर से, स्निग्ध नज़र से; समारोह को किया सजीव और सिंहासन तक खिंच आये दिल । तभी थामकर स्वर्ण चषक वह पड़ी सोच में; सुन्दर पलकें अपना सुन्दर शीश झुकाये... भव्योत्मव तब लगा ऊँघने शब्द हीन थे सब मेहमान । गान थम यया;, तब उसने फिर शीश उठाया, साफ़-साफ़ शब्दों में पूछा : -मेरे प्यार में पाते हो सुख? चाहो तो लो इसे खरीद... करो भरोसा मुझ पर तुम : समान होंगे हम और तुम कौन बढ़ेगा आगे इस भयानक व्यापार में बेचूँगी अपना प्यार; कैन ख़रीदेगा बोलो तुममें से जीवन देकर मेरी रात? मौन हुई वह; दिल धड़के सबके चाहत से; भय ने किया पर सज्ञाहीन... धृष्ट, कठोर परेशां मुख पर छलका अप्रसन्नता का भाव; दृष्टि फिरी सन्देह भरी दीवानों पर अपने सभी । तभी भीड़ से निकला एक उसके पीछे निकले दो; क़दम भरे विश्वास से; नज़रें थीं निर्मल कोमल खड़ी हुई उनके स्वागत में, हुआ तभी पक्का सौदा; गयी खरीदी रातें तीन गोद मौत की उन्हें पुकारे। पाकर आशीष पुजारी से अभिशप्त कलश से निकले वे; सम्मुख निश्चल मेहमानों के आये एक एक करके । पहला फ्लावी, निडर योद्धा, रोम सैन्य में वृद्ध हुआ, सहन न कर पाता पत्नी का तिरस्कारमय वह व्यवहार । आवाहन स्वीकार किया आमोद-ग्रमोद का यूँ उसने, जैसा करता युद्ध काल में बलिदान का निमन्त्रण स्वीकार । उसके पीछे पीछे आया होनहार क्रीतोन युवा, एपिकूर कुंजों में जन्मा गाता गीत, प्रशंसा करता खरीत, किपप्रीद और आमूर की... दिल, आँखों को लगे सुदर्शन, वसन्त का जैसे मन्द प्रकाश अतिम प्रेमी आगे आया नाम न उसने अपना बताया। मसें फूटतीं नाजुक उसकी गालों पे बिखरी श्यामलता । आँखों में उन्माद चमकता मारें हिलोरें युवा हृदय में... अनुयग की लहरें पहली बार... उदास नज़रें ठहर गयीं तब गर्वीली रानी की उस पर -शपथ लेती हूँ... हे आनन्द की देवी; करूँगी सेवा तन से, मन से, मत्त कामना की श्य्या पर आऊँगी दासी बनकर । करो भरोसा, महान किप्रीदा ओर तुम पृथ्वी के सम्राटो, भ्रयानक आइदा के देवताओ, क़सम--भोर की पहली किरण तक प्यास बुझाऊँगी स्वामी की प्यार से, मिठास से, चुम्बनों के सभी रहस्यों से और अनुपम आनन्द से। मगर ज्योंही फूटेगी उषा की पहली लाली, वादा है-गंडासे से होंगे, शीश भाग्यशालियों के धराशायी ।
(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : ए. चारुमति रामदास)