दुष्टता का परिणाम : नागा लोक-कथा
Dushtata Ka Parinam : Naga Folktale
नागालैंड की प्राकृतिक सुषमा मनोहारी है। पर्वत, नदी, झरनों के साथ-साथ
इसके प्राकृतिक वैभव को बढ़ाते हैं यहाँ के पेड़-पौधों, लताओं, झाड़ियों
में लहराते हरे-भरे अंचल। यहाँ एक पौधा बहुतायत से उगता है, जिसे ईंधन के
रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है और इसका औषधीय महत्त्व भी है। यह पौधा
है 'काचू'। आज 'लाल-काचू' बहुतायत से मिलता है । परंतु सदा से ऐसा नहीं था,
पहले इसका रंग लाल नहीं था। लोथा नागाओं में प्रचलित लोककथा के अनुसार
'लाल-काचू' आज भी याद दिलाता है कि दुष्ट को अपनी दुष्टता का दंड अवश्य
भोगना पड़ता है।
बहुत पुरानी बात है--एक व्यक्ति बहुत परेशान था, क्योंकि उसके खेतों में
एक जंगली शुकर प्रतिदिन उत्पात मचाया करता था। वह व्यक्ति जो कुछ भी
उगाता, जंगली शूकर उसे थोड़ा खाता और शेष नष्ट कर डालता । शूकर का उत्पात
बढ़ा तो उस व्यक्ति ने घात लगाकर उसे अपने जुपफीनो (हँसिए) से घायल कर
दिया। जंगली शूकर को मारने की तीव्र इच्छा से उसने शूकर के शरीर से बहते रक्त
के सहारे उसका पीछा करना प्रारंभ किया। पीछा करते करते वह पहाड़ की चोटी
पर एक गुफा के किनारे पहुँच गया। गुफा के बाहर खड़े होकर उसने इधर-उधर
देखा और गुफा के भीतर प्रवेश कर गया। अंदर प्रवेश करते ही गुफा के अलौकिक
वातावरण को देखकर वह ठिठका और उसे याद आ गया कि जंगली शुकर तो
देवताओं के पालतू पशु हैं। अपराध-बोध से वह थर-थर काँपने लगा, वह बाहर
भाग जाना चाहता था, परंतु तभी गुफा में स्थित देवता ने गंभीर स्वर में उससे पूछा,
“हे मनुष्य ! तुम क्या चाहते हो ? ठहरो, अपनी कामना बाद में प्रकट करना पहले
यह बताओ कि कहीं तुम मेरे शुकर को घायल करने जाले, उसे पीड़ा पहुँचाने वाले
क्रूर मानव तो नहीं हो।"
शूकर को आसपास न पाकर मनुष्य ने साहस जुटाकर कहा, “देवता, मैं वहाँ
नीचे गाँव में रहता हूँ। वहाँ से मैंने यहाँ एक लड़की को घूमते देखा था, उसके
रूप से आकर्षित होकर मैं यहाँ आया था, ताकि उसके पिता से अपने लिए उसका
हाथ माँग लूँ और विवाह कर अपना घर बसाकर सुख से रहूँ। पर लगता है मैंने
उस दूरी से जिसे कन्या समझा था, वह मेरा भ्रम था। आप मुझे आज्ञा दें तो मैं
वापस लौट जाऊँ।” मनुष्य की विनम्रता से देवता प्रसन्न हुए, उन्होंने उसे अपनी
दो बेटियाँ दिखाईं। एक कुरूप थी, उसने सुंदर बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहने
हुए थे; दूसरी सुंदर थी, परंतु उसके शरीर पर साधारण से वस्त्र थे। उस मनुष्य ने
दूसरी लड़की का चुनाव किया। देवता ने अपनी दूसरी बेटी उस मनुष्य को सौंप
दी। शूकर को घायल करने के बदले मिलने वाले दंड के स्थान पर देवता की
आकर्षक कन्या को प्राप्त कर उस मनुष्य ने देवता को धन्यवाद दिया और कन्या
को अपनी पीठ पर टँगी टोकरी में बिठाकर अपने गाँव की ओर चल दिया।
पीठ पर टँगी टोकरी को उसने सावधानी से ढक रखा था, ताकि घर पहुँचने
से पूर्व किसी को भी इस बात की भनक न लग पाए कि वह अपने विवाह के लिए
देवकन्या लाया है। गाँव की सीमा के पास पहुँचकर उसने इस बात पर विचार
किया कि गाँववालों के सामने अपनी होने वाली पत्नी को साधारण वस्त्रों में लाने
से लोग उसके देवता की बेटी होने की बात को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे।
अच्छी तरह सोच-विचार के बाद उसने निर्णय किया कि अभी वह अकेले जाकर
अपने परिवारजनों को सारी बात बताएगा और उस सुंदर कन्या को समारोहपूर्वक
घर ले जाएगा। गाँव के निकट ही पानी के स्रोत के निकट उसने टोकरी को ठीक
से, सुरक्षित ढंग से रखा और धीरे से ''मैं अभी घर के लोगों को लेकर आता हूँ,
तब तक तुम इसी टोकरी में चुपचाप मेरी प्रतीक्षा करना", कहकर वह व्यवित
अपने परिवार के लोगों के पास आ गया। अपने निकट संबंधियों को उसने सारी
घटना और देवता की सुंदरी कन्या को विवाह हेतु प्राप्त कर गाँव के बाहर तक
लाने की बात बताई। कुटुंबी-जनों ने अत्यधिक उत्साह में भरकर घर को नवबधू
के लिए सुंदर वस्त्र और आभूषणों से डलिया भर दी। उस व्यक्ति की माँ तथा अन्य
स्त्रियों ने परंपरापूर्वक नववधू को घर लाने को तैयारियाँ कीं और सभी शीघ्रता से
उस स्थान की ओर चल पड़े, जहाँ वह कन्या प्रतीक्षा कर रही थी।
विधि की अजब लीला देखिए, पानी के उस स्रोत के पास टोकरी को रखकर
वह व्यक्ति जैसे ही घर की ओर बढ़ा, वैसे हो पानी भरने आई एक अत्यंत कुरूप
स्त्री हनचीबीली उस टोकरी के पास आ गई। हनचीबीली ने उस व्यक्ति की सारी
बात सुनी थी और समझ गई कि इसमें कोई कन्या है, जिसे वह युवक पत्नी बनाने
वाला है। हनचीबीली ने टोकरी का ढक्कन उठाया तो अंदर उसे कोमल सी सुंदर
कन्या दिखाई दी। कन्या ने समझा परिवारजन आ गए हैं। वह कुछ समझ पाती,
इससे पहले ही हनचीबीली ने उसके सिर पर जोर से आघात किया और मूर्च्छित
हुई उस कन्या को उठाकर पत्थरों भरी, बहती नदी की जलधारा में जोर से पटक
दिया। निष्प्राण बहते उसके शरीर को देख हनचीबीली ने चैन की साँस ली और
दौड़कर उस टोकरी में घुसकर उसने अपने ऊपर ढक्कन खींचकर बंद कर दिया।
बाहर से आती हर आहट को सुनती हुई वह मक्कार हनचीबीली सिर झुकाकर बैठ
गई।
कुछ समय बीतने के बाद वह व्यक्ति भी अपने नाते रिश्तेदारों के साथ उस
स्थान पर पहुँच गया। देवता की सुंदर कन्या को देखने और अपनी कुलवधू के रूप
में अपनाने की उत्कंठा से वे सभी टोकरी के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। उन्होंने
टोकरी खोली और प्यार से उसमें बैठी कन्या को बाहर निकाला। सारा वातावरण
प्रसन्नता से भरा था, परंतु जैसे ही कन्या के चेहरे पर पड़ा वस्त्र हटाया गया, सभी
निराशा से भरकर मौन हो गए। सभी की प्रश्न भरी नजरें उस व्यक्ति की ओर मुड़
गईं। उस व्यक्ति ने आगे आकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। उसे विश्वास
नहीं हो रहा था कि देवता की गुफा से जिस कोमल सुंदर कन्या को उसने देवता
से माँगा था, जिसके अलौकिक सौंदर्य को उसने टोकरी का ढक्कन बंद करते हुए
आनंदपूर्वक निहारा था, वह सौंदर्य इस थोड़े से समय के अंतराल में कहाँ अदृश्य
हो गया। सामने सिर झुकाए खड़ी कुरूप स्त्री को देखकर वह स्तब्ध खड़ा था।
गाँव के कुछ लोगों ने कहा, “तुम्हारी अति सुंदरी पत्नी शायद तुम्हारी आँखों से
देखनी पड़ेगी, हमारी आँखें तो उसे देख नहीं पा रहीं !" कुछ ने कहा, ''इस सुंदरी
के लिए तुम इतनी ऊँची पहाड़ी पर देवता की गुफा तक गए। धन्य हो तुम और
तुम्हारी देवकन्या!” कुछ ने कहा, ''अच्छा है, हमने अपनी धरती की कन्याओं
को पत्नी बनाया, ये देवकन्या का सौंदर्य हमसे तो झेला ही नहीं जाता!" चुपचाप
सिर झुकाए खड़ी हनचीबीली को देखकर कुछ परिवारजनों के मन में उसके प्रति
सहानुभूति उमड़ी तो उन्होने कहा, ''देखो, ये सब बातें अब कोई अर्थ नहीं रखती ।
हमारे घर का लड़का इस निर्दोष, सीधी-सादी कन्या को अपनी पत्नी बनाने के
लिए, इसके घर से इसके पिता से माँगकर यहाँ तक ले आया है। अब ये रूपवती
हो या कुरूप। बस इस घर की वधू बनना इसका अधिकार है।'' उस युवक की
समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि देवता की गुफा से जिस परम सुंदरी को पत्नी
बनाने की उत्सुकता में वह पहाड़ के ऊँचे-नीचे रास्तों पर प्रसन्न मन से दौड़ता
हुआ यहाँ तक आ पहुँचा था, वह इतनी कुरूप कैसे बन गई ? अपने इस प्रश्न का
उत्तर, अपनी शंका का समाधान वह कैसे प्राप्त करता ? मन मारकर उसे स्वीकारना
पड़ा कि शायद हनचीबीली ही गुफा से लाई हुई लड़की है, अत: उसने उससे
विवाह कर लिया। हनचीबीली अपनी सफलता पर मन ही मन प्रसन्न होती और
घर के सभी कार्यों में औरों का हाथ बँटाती। वह निश्चिंत थी कि उसके दुष्कृत्य
का कोई गवाह नहीं। पर्वतश्रेणियों के उस पार वह अपनी उस बस्ती के बारे में
सोचना भी नहीं चाहती थी, जहाँ उसके अपने कुटुंबी और गाँव वाले उसके सुंदर
न होने के कारण उसे अपमानित करते थे।
इसी समय उस युवक की वास्तविक पत्नी; जिसे हनचीबीली ने नदी की
तीव्र जलधारा में फेंक दिया था। बाँस के पौधे के रूप में पुन: जीवन धारण कर
विकसित होने लगी। नए पल्लवों से भरे बाँस के उस पौधे को देख उस युवक के
कदम अनायास ही उसकी ओर बढ़े। उस युवक ने कोमल-कोमल नए पल्लवों
को तोड़ा और घर ले आया। हनचीबीली ने पति द्वारा लाए गए बाँस के पल्लवों
को धोकर पकाने के लिए आग पर चढ़ा दिया और स्वयं अनाज के कोठार से
चावल लेने चली गई। आग पर रखे बरतन में उबलते बाँस के पल्लव जो अब तक
चुपचाप उबल रहे थे, युवक को अकेला देखकर उनके उबलने के स्वर सिसकियों
में बदल गए और सिसकियों के साथ “हनचीबीली ओह! हनचीबीली" के शब्द
सुनाई देने लगे। युवक इन स्वरों को बरतन से आता देखकर बुरी तरह घबरा गया।
भयभीत युवक ने बाँस के पल्लवों से भरा पात्र आँगन में फेंक दिया।
आवाज सुनकर हनचीबीली अन्न भंडार से बाहर आई, पति को भयभीत
देखकर उसने कारण पूछा तो पति ने कहा कि कुछ नहीं, बस इस पात्र में कुछ पड़
गया था, इसलिए पात्र ही घबराहट में फेंक दिया। हनचीबीली ने बरतन उठाया
और भीतर चली गई। वहां खड़ा-खड़ा वह युवक सोचने लगा कि जो उसने सुना
वह शायद उसका भ्रम था और फिर धीरे-धीरे वह इस घटना को भूल गया। जिस
स्थान पर बाँस के वे पल्लव गिरे थे, उसी स्थान पर एक नारंगी का पेड़ उग आया,
युवक उसके गहरे हरे पत्तों को देखकर बहुत प्रसन्न होता था। उसने नारंगी के पेड़
के आसपास के सारे खर-पतवार खोद डाले और उसके चारों ओर पत्त्थरों से सुंदर
सी सीमा रेखा बाँध दी। युवक के संरक्षण में नारंगी का पेड़ भली- भाँति विकसित
होने लगा। समय पाकर उस पर फूल आए और फिर नारंगी का एक सुंदर फल
भी वृक्ष पर लग गया। उस फल को तोड़ने के लिए हनचीबीली जितनी भी ऊँचाई
पर खड़ी हो जाती, फल वाली डाली ऊँची होकर उसकी पहुँच से बाहर ही रहती ।
युवक जब भी फल को अपने हाथों से छूना चाहता पेड़ की डालियाँ सिमटकर
फल को उसके निकट ले आती थीं।समय पाकर फल पक गया और युवक ने उसे
तोड़कर फलों को टोकरी में रख दिया। कुछ दिन बाद सभी नारंगी के उस फल
को भूल गए।
तत्पश्चात् युवक और हनचीबीली जब खेतों में काम करने जाते तो घर वापस
लौटने पर उन्हें युवक की शय्या अच्छी तरह साफ और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाई
हुई तथा हनचीबीली की शय्या मिट्टी धूल व गंदगी से भरी हुई मिलने लगी।
युवक ने कुछ दिन तो इस सबको सहन किया, परंतु जब यह प्रतिदिन ही घटित
होने लगा तो वह अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाया। रोष में भरकर उसने
अपने पड़ोसियों को बुलाया और इस घटना के विषय में उनसे जानकारी प्राप्त
करने का प्रयास किया। उसे लगा था कि पड़ोस के ही लोग या उनके बच्चे ही
इस घटना के लिए उत्तरदायी हैं। सभी प्रयत्न विफल हो गए । पड़ोसियों के परिवारों
ने उस युवक के घर प्रतिदिन घटित होने वाली घटना के प्रति अपनी अनभिज्ञता
जताई। हनचीबीली ने अपने पति से कहा, “पड़ोसी झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि यह
सारा काम उन्हीं का किया-धरा है। वास्तव में ये सभी मुझसे ईर्ष्या करते हैं,
क्योंकि आप स्वयं एक सुंदर और बलिष्ठ युवक हैं, परंतु आपने मुझ जैसी कुरूप
स्त्री से विवाह कर लिया। ये सब मुझे भगाना चाहते हैं, ताकि अपने नातेदारों में
से किसी की बेटी आपसे ब्याह सकें। इसी कारण ये मेरी शय्या को गंदा और
आपकी शय्या को सजा देते हैं।''
युवक को हनचीबीली की इस बात में सत्यता दिखाई दी, क्योंकि गाँव के
अधिकांश लोग उनके विवाह को बेमेल विवाह मानते थे और वह स्वयं भी
अनिच्छापूर्वक ही इस संबंध को अपना उत्तरदायित्व मानकर ढो रहा था। युवक
ने सत्यता जानने का संकल्प किया और एक दिन जब हनचीबीली लकड़ी काटने
वन की ओर गई, तो वह खेतों से चुपचाप लौट आया और घर की ड्योढ़ी के पास
छिपकर खड़ा हो गया। घर के भीतर की गतिविधियों पर ही उसका पूरा ध्यान
केंद्रित था। उसने देखा, फलों की टोकरी में से देवता की बेटी नीचे उतर आई,
उसने युवक की शय्या को साफ किया और फिर उसे सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा दिया।
इसके बाद उसने कूड़ा-करकट लिया और हनचीबीली की शय्या पर डाल दिया।
सबकुछ करने के बाद युवक की शय्या के पास ही नीचे बैठकर रोने लगी। युवक
ने शीघ्रता से द्वार खोला और इससे पहले कि वह अदृश्य हो, उसने उस देव कन्या
को अपने मजबूत हाथों से पकड़ लिया। उसका मुख देखकर युवक आश्चर्यवकित
स्वर में बोला, ''तुम ही तो हो, जिसे मैं देवता से माँगकर लाया था, फिर तुम
हनचीबीली में कैसे बदल गई और अब क्यों प्रतिदिन मेरी शय्या सजाती हो और
दूसरी शय्या को गंदा कर देती हो, बताओ तुम ऐसा किस कारण कर रही हो ?”
युवक के पूछने पर देवकन्या ने कहा, “मैं वही हूँ जिसे आप मेरे पिता से
माँगकर लाए थे, जिसे आप उस जलश्रोत के पास प्रतीक्षा करते की बात कहकर
गाँव आए थे। बस वहाँ तक मैं थी फिर “इस दुष्ट स्त्री ने मुझे मारकर मेरा स्थान
ले लिया। मैं बाँस के पेड़ के रूप में जन्मी और अब इस नारंगी के फल के रूप
में आपके पास आ गई हूँ। मैंने जो कुछ किया, अपने पति को वापस पाने के लिए
किया, अब निर्णय आपका है, आप जो भी कहेंगे, मैं स्वीकार करूँगी।” युवक
के सामने देवकन्या के कष्ट और पीड़ा से जुझते दिन थे, निरपराध को अकारण
दिया गया दंड था। वह हनचीबीली की मक्कारी और दुष्टता को जान गया था।
उसने अपना दाओ सँभाला, अत्यधिक क्रोध के कारण उसका चेहरा लाल हो गया
था। इसी बीच हनचीबीली लकड़ियाँ लेकर लौटी । उसने लकड़ियों का बोझ नीचे
रखने में मदद के लिए युवक को आवाज लगाई, युवक हाथ में दाओ लिये बाहर
आया तो उसके पीछे खड़ी देवकन्या को देखकर हनचीबीली समझ गई कि उसके
पाप का भेद खुल चुका है, उसने भागने का असफल प्रयास किया तो अनजाने में
युवक ने हाथ में पकड़ा दाओ उसकी ओर खींचकर फेंका, दाओ के एक ही वार
में वह निष्प्राण होकर लकड़ियों के ढेर पर गिर पड़ी । हनचीबीली 'काचू' की जिन
लकड़ियों को घर का चूल्हा जलाने के लिए लाई थी, वे सभी उसके रक्त से लाल
हो गईं और तभी से 'लाल काचू' उगना प्रारंभ हुआ । शायद यह प्रमाणित करने
के लिए कि पापकर्म लाख परदों में भी किया जाए, उसका पता एक न एक दिन
अवश्य चल जाता है और पापी को दंड भी अवश्य मिलता है।
उस दिन के बाद युवक और देवकन्या सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने
लगे। समस्त समाज ने हनचीबीली का सत्य जाना और वास्तविक पति-पत्नी का
विधिपूर्वक विवाह कर अच्छे जीवन के लिए शुभकामनाएँ दीं। हनचीबीली की
दुष्टता का परिणाम क्या हुआ ? ये 'लाल काचू' आज भी बताता है और अंत भले
का ही भला होता है, इसकी घोषणा तब से अब तक निरंतर करता आ रहा है।
(स्वर्ण अनिल)