दुर्गा (कहानी) : नरेश मेहता
Durga (Hindi Story) : Naresh Mehta
अपने शैशव से ही अनाथबाबू को कस्बे तथा आसपास के क्षेत्र में ठेकेदारी करते देखा था। ये बंगाली बाबू मालवे के पठारों को चीरकर इस ‘प्रवास' पर कैसे आए, इसे और कोई जानता हो, मैं नहीं जानता। जो जानता हूँ वह यही कि वे आजन्म अपने को एक प्रवासी ही स्वीकारते रहे और 'प्रवासी' पत्रिका भी पढ़ते रहे। अनाथबाबू सारे मुहल्ले के लिए कौतूहल थे। बंद गले का हाफकोट, ढीली धोती, बीच से निकली हुई माँग, कंधे पर उपवस्त्र एवं पैरों में विद्यासागरी, जिसे हम 'पुराणिका' कहते हैं। बारोमास छाता लिए जब किसी गाहक के साथ ऊँचे बोलते हुए वे निकलते :
"शाला, ईतना कोम दाम में शोदा करने से हम कीया खाएगा?"
तब हम 'नोमोश्कार' करना नहीं भूलते। वे किसी को टिल्लू, किसी को भुल्लू और मुझे नीटू कहते थे।
वैष्णव प्रधान मालव, स्वभाव से ही शाकाहारी प्रदेश है। किंतु हमारे अनाथबाबू की चटर्जी-बाड़ी में दोनों जून माछ राँधी जाती और वह भी सरसों के तेल में। यहाँ का जन तो इसका प्रयोग या तो चमरौधों में या अचार में ही करता है। कुल मिलाकर गुजराती वैष्णवों के लिए तो वे साक्षात् औरंगजेब के अवतार ही थे। दैवमारे बेचारे'श्री अनाथनाथ चट्टोपाध्याय, ठेकेदार-प्री. मैट्रिक; कलकत्ता' जब भी इस कस्बे में आए होंगे और उपरोक्त नामपट्टिका लगाए होंगे तब मुहल्ले वालों ने कुछ वर्षों अवश्य ही नींद हराम कर दी होगी। सुपुत्र श्री नीरोद बरन जो कि आंग्ल प्रभाव के कारण 'चटर्जी' कहलाना पसंद करते हैं, इसी मालवभू की संतान हैं, भले ही वे भी अपने को प्रवासी स्वीकारें। अनाथबाबू की दुर्गा तो मालवी श्रावणी संध्या में ही उत्पन्नी थी। जब कभी मेघराज बरसते होते, झड़ी लगी होती तो अनाथबाबू चीख उठते :
"शाला ईहाँ भी एकदोम हामरा बेंगाल का माफिक वृष्टि होता।"
जिसके उत्तर में 'नॉन बेंगाली हिंदूश्तानी' उनके मित्र, जिनमें मेरे पिता प्रमुख थे, उनके ही लहजे में कह उठते :
"अनाथबाबू! शाला तोमरा बेंगाल का लोग भी ईहाँ के माफक ही सूरत-शकल का होता।"
और इस प्रकार श्री अनाथनाथ चट्टोपाध्याय, श्रीमती सुप्रिया चट्टोपाध्याय एवं दो संततियाँ उस कस्बे में निवासती थीं।
अनाथबाबू की पत्नी, जिन्हें हम 'काकी माँ' डाकते थे, को शुरू में मुहल्ले के महिला समाज ने सम्मान तो दूर, उपेक्षित ही रखा। असूर्यपश्या मालवी घूघट वाली स्त्रियों के बीच पीठ पर फैले बाल लिए घंटों सँवरने वाली इस बंगालिन सुप्रिया चट्टोपाध्याय को मालवी महिला समाज भला कैसे सहनता? हमारी चाची, जो ब्रह्मा की सृष्टि में भी दोष निकालने वाली रही हैं, सुप्रिया को कैसे निर्दोष स्वीकारतीं? सहनतीं? जहाँ चार जनीं मिलीं कि यही चर्चा :
“अरी, ये तो रामजनियों के लच्छन हैं, रामजनियों के। देखा; चूड़ी के बाजे संगे गावे और कैसी मटक-मटक के नाचे भी। भला औरत जात ऐसी कहीं देखी है तैने? कुल चार ताले ही दीखे हैं घर में, तभी न पल्लू में बाँध के गाम भर को दिखाती फिरे है। साँझ पड़ी और रँग के कैसी मटर-मटर हवाखोरी को जावे है। अरी आतू माँ! इसी को तो घोर कलजुग कहें हैं।"
किंतु जब नवरात्रि आती और जिस भाव एवं तन्मयता से दुर्गा-पूजा संपन्नती उसने हमारी चाची को भी परास्त कर दिया कि नहीं, सुप्रिया भी उतनी ही पतिव्रता तथा धार्मिक है जितनी कि वे लोग स्वयं हैं। और उसके बाद से वे काकी माँ की 'बोउदी' हो गईं। अब यही चाची पूछने पर कहती :
“अरे, ये तो देस-देस का चलन है। बंगाल में गेहूँ नहीं होता, इसीलिए वहाँ के बिचारे ब्राह्मणों तक को पेट के लिए मच्छियाँ खानी पड़ती हैं। इससे क्या? देखते नहीं ब्रह्म-संबंध की कंठी दोनों जनों के गले में है?"
पहले की भाँति सुप्रिया देवी अब काशी की न तो रामजनी ही रहीं और न किसी की विधवा ही, जिसे अनाथबाबू भगाकर लाए, वरन् वे उनकी ब्याहता हैं; जिन्हें 'बंगाले का जादू' आता है। इसीलिए चाची सदा ही चाचा जी पर एक आँख से चौकसी करने में नहीं चूकती हैं। माना कि सुप्रिया का मन तो साफ है पर मरद का किसने जाना? जहाँ ढलान देखी और बस। और इस प्रकार काकी माँ ने उस मालवी समाज में प्रवेश पाया। दुर्गा हमारे परिवार में कन्या-कुँआरी स्वीकार ली गई। अब काकी माँ के हारमोनियम पर दूसरी चाचियाँ-भाभियाँ भी बीनना-घुनना निबटाकर ब्रह्मानंद या मीरा के भजन गाने पहुँचतीं। चूड़ी के बाजे पर बंगाली नाटक के साथ बिल्वमंगल या अभिमन्यु-वध का ड्रामा भी नियम से सुना जाता।
नित्य रात हमारे कचेरी वाले हॉल में पुरुष एकत्र होते तथा आँगन में बिल्वपत्र के गाछ तले स्त्रियाँ। और हम लोग बाहर सेरी में चाँदनी-आँधार की झलफलिया में 'पकड़ापाटी' खेलते होते। नवरात्रि में बहनों के साथ जब दुर्गा मिट्टी के कलश में छिद्र करके दीपों का खेल खेलती होती, तब सबसे पहले उसी का दीप-कलश तोड़ने में मुझे मजा आता था। बहनें झुंझला जातीं किंतु वह अवश हो जाती। दुर्गा मुझसे दो-एक बरस छोटी होगी। जैसे प्रत्येक बंगाली भागकर अगत्या कलकत्ता पहुँच जाता है, वैसे ही हमारे नीरद बाबू भी एक दिन सहसा भागकर कलकत्ते चले गए, किंतु दुर्गा हमारे बीच ही रही, खेली और बड़ी भी हुई। दुर्गा को शायद ही किसी ने सुंदर कहा हो किंतु उसमें वह था जो अन्य किसी भी मालवी केसरमुख में नहीं था। सँवलाया रंग, दीर्घ केशराशि एवं अंडाकार मुख, सीपियों-से दो खिंचे नयन। आज भी नहीं भूल पाता हूँ कि जब कभी खेल-खेल में उसकी आँखें ढाँपी तब अपनी हथेलियों में उसकी पेंडुलम-सी हिलती पुतलियों से मेरी पूरी हथेलियाँ भरी होतीं।
श्राद्धपक्ष में फूलों से दीवारों पर अल्पना एवं छवियाँ आँकने की प्रथा को मालवे में 'संझा' कहते हैं। बहनों के आँके गए नगरकोट, महल, चोबदार और रथों की अपेक्षा जब मैं दुर्गा की संझा की प्रशंसा करता तो दोनों ओर राग हो आता। बहनों को बंगाली 'राग' हो आता और दुर्गा को हिंदी। खेलते जब देर हो जाती तो उसके नाम की डाक पड़ती और वह शंख-सी आँखों में 'ताड़ाताड़ी' लौटने का आश्वासन एवं समाधान करते हुए भाग जाती। काकी माँ की तब डाँट सुनाई देती :
"की शारा दीन खेला करचोशके? लेखा-पाडा किछ होबे ना?"
उत्तर कौन देता? दुर्गा? किंतु वह उत्तर कैसे देती? वह तो गूंगी थी। मुझे याद है, जब मैं बहुत छोटा था। माँ से मैंने शिकायत करते हुए कहा था :
“माँ! दुर्गा किसी से बात नहीं करती।"
काकी माँ भी माँ के काम में हाथ बँटाने आई हुई सूप में धान फटकार रही थीं। एक क्षण को मेरी ओर देखा और गहरी साँस भरते हुए बोलीं :
"नीटू! दुर्गा केमोन बोलचीश? ओके भगवान बचाओ दिए ना।"
और वे सहसा डबडबाई आँखें लिए उठ खड़ी हुईं। माँ ने मुझे आँखों ही आँखों में घड़क दिया। उस दिन अपने ओटले (चबूतरे) बैठा रान्नीघर (रसोईघर) में काम करती दुर्गा की झुकी पीठ, जिस पर फैले गीले बाल और सिंदूरी रंग की साड़ी खिड़की से देखता रहा।
दुर्गा गूंगी थी, किंतु बोलने को छोड़ वह समझती सब थी। गृहकाज में निष्णात थी। वह पढ़ती थी। बँगला का उसका लेख. सलेख था। उसकी शंखीय आँखों में मूक भाषा इतनी सजीव थी कि जब मैं बारह वर्ष का हो गया तब, जब कभी उसके दीपकलश को फोड़ने के लिए आगे बढ़ता, उसकी आँखें निषेधतीं। तब क्या मजाल थी कि मैं उसके कलश को फोड़ देता। मेरी विवशता पर उसके शंख मुसकरा देते और फिर मेरा हाथ पकड़ स्वयं ही उन्हें फोड़ देती। बचपन में मुहल्ले के बच्चे जब छोटी-सी दुर्गा को चिढ़ाते :
"दुर्गा गूंगी
साँवली मूंगी
शादी होगी
कोटा बूंदी"
और वह अवश रोते हुए अपने केशों में अपना अपशकुन ढंके भाग जाती। तब मैं उपरोक्त पंक्तियों के व्यंग्य को न समझ, दुर्गा को वापस लाने के लिए उसके पीछे हो लेता था। रान्नीघर में काज करती काकी माँ के पास खड़ी दुर्गा को चलने के लिए बाध्य करता, किंतु वे मुझे बरज देती :
"नीटू! जा रे भाई, आपनी खेला करा, एई हतभागी के प्रारब्धे..."
दुर्गा के हतभाग्य से मुझे शैशव से ही परिचित होना पड़ा। एक बार अंबा की जात्रा (मेला) थी। दुर्गा भी संग थी। गाड़ियों से उतरने के बाद दुर्गा सहसा खो गई। खलबली मच गई। काकी माँ बारंबार यही कहती दिन-भर प्रतीक्षा करती रहीं:
“ओ रे हतभागी, भालोई हए छे, पालिए गिए छे?"
साँझ हमारे बड़े भाई दुर्गा संग लौटे। तब उसकी आँखों में न दोष था, न दुःख ही। केवल अपने व्यक्तित्व का आहत रंग, लोहित-सिंदूरी रँगा हुआ था। दुर्गा मुझे चोरी-चोरी बचपन में संदेश खिलाती थी। उसका विचार रहा होगा कि हम बंगाली घर की कोई रकम नहीं खाते। मैं भी प्रारंभ में दुर्गाबाड़ी की सारी चीजों में मछली समझता था। और जब प्रथम बार संदेश खाया और वह गले में फँसा-फँसा-सा लगा तो मैंने दुर्गा को फटकारा था कि उसने मुझे चोरी से मच्छी खिलाई। माँ और काकी माँ तब से मुझे चिढ़ातीं कि 'नीटू ने मछली खा ली और वह अब गुजराती नहीं, बंगाली हो गया। नीटू की शादी भी किसी बंगालिन से होगी, जो कि सरसों के तेल में उसे मच्छी राँध-राँधकर खिलाएगी।' मैं चिढ़कर रो देता और फिर खीझ जाता था, कारण कि पास ही खड़ी दुर्गा हँसती होती थी।
तुलसी क्यारे पर दीप जला जब वह प्रणाम करती होती, तब मैं उससे पूछता :
"दुर्गा! तुलसी माता से क्या वरदान माँग रही हो?"
वह मुझे घसीटते हुए अपनी खिड़की के पास ले जाती, जहाँ उसने एक स्लेट रख छोड़ी थी और जिस पर लिखकर वह सारे प्रश्नों के उत्तर देती थी।
"नीटू! आमी हतभागिनी, आमी की माँगिबो?"
हतभागा के संस्कार में पली दुर्गा नित सवेरे खिड़की में होती, जिस बेला मुहल्ले की लड़कियों के लिए स्कूल की नौकरानी घर-घर पुकारती होती :
"शाला चलो बाईऽऽईऽऽईऽऽ"
सब लड़कियाँ स्कूल जाते हुए दुर्गा को बुलाती, हँसती जातीं और वहीं से अवश बनी दुर्गा सूनी सेरी के खालीपन को, दूर खिलखिलाते पीपल गाछ को, कवेलुओं (खपरैल) पर अलसाती चिड़ियों को बड़ी देर तक देखा करती।
दुर्गा को नृत्य अच्छा आता था। पूजा-पर्व में जब वह नृत्य करती थी, तब उसे देख कोई नहीं कह सकता था कि दुर्गा गूंगी है, किंतु निःसंदेह दुर्गा गूंगी थी।
वह राधा बनी नृत्य कर रही थी और अनाथबाबू मृदंग पर गा रहे थे :
शामरी तोरा लागी
अनुखन बिकल मुरारि
तभी हाथ की मंजीर फेंक काकी माँ..."दुग्गा ओ!" चिल्लाती हुई भागीं। दुर्गा अचेत हो गई थी। तब दुर्गा चौदह की रही होगी। मुझे आगे पढ़ने उज्जैन चला जाना पड़ा।
मैं तब इंटर में था। एक दिन अपने कॉलेज के फाटक पर श्री अनाथनाथ चट्टोपाध्याय, काकी माँ, नीरद बाबू और दुर्गा को खड़े पाया। उस दिन मुझे लगा कि दुर्गा ‘खोकी' से 'लक्खी' हो गई। यह सब कैसे हो जाता है, इसका गणित उस हो जाने वाले के पास भी नहीं होता, बस वह हो जाता है। हम सहज से सहजतर होने के लिए बड़े नहीं होते वरन् गूढ़ या गोपन के लिए बड़े होते हैं। हम सरल उस दिन हो जाते हैं जिस दिन हमारा गोप्य चुक-चुका होता है। संकोच का होना, बड़ा होना है। संकोच, संबंधों का नहीं होता वरन् वयस का होता है। वयस प्राप्त व्यक्ति निःसंकोची हो सके, इसका दायित्व भूतपूर्व भोक्ता माता-पिता अनायास अपने हाथों में ले लेते हैं। यह संकोच, चरित्र को शील प्रदान करता है एवं अंगों को यौवन। तो, दुर्गा में उस दिन प्रथम बार मैंने संकोच पाया। उसके शंख, अरुण लग रहे थे। साड़ी से वह शिखरों को प्रयासती ढंकती रही। दुर्गा वही थी परंतु जबसे मैं उज्जैन आया था तब से वह अपनी देह में अनेक नए उपादान धार चुकी थी। वह उस दिन फाटक पर सहसा दीखी और मैंने प्रथम बार उसे 'नमस्कार' कर जतला दिया कि उसे आज के बाद गंभीर रूप में ही स्वीकारना होगा।
अनाथबाबू कॉलेज के पास ही एक होटल खोलना चाहते हैं। जब वे निश्चय ही कर चुके थे तब भला मैं क्या कहता? मुझे तो जो भार दिया था वह यही कि यूनियन के सेक्रेटरी के नाते कॉलेज-उत्सवों, पार्टियों का ऑर्डर उन्हें दिलवा दूँ। और एक दिन विधिवत् श्री अनाथनाथ चट्टोपाध्याय का 'तृप्ति मंदिर' उद्घटित हुआ। अनाथ बाबू को ठेकेदारी में भारी हानि हुई और चूँकि नीरद बाबू भी अब उज्जैन आ गए थे इसलिए अनाथबाबू ने अगत्या उज्जैन आना ही श्रेयस् समझा। नीरद बाबू ने एक 'चटर्जी हाईस्कूल' खोल रखा था, जहाँ समस्त भारत के अनेकानेक बार निराश हुए मैट्रिक फेल विद्यार्थियों को ठेके पर शिक्षा देते थे तथा उन्हें पंजाब मैट्रिक परीक्षा के लिए लाहौर ले जाकर मुक्ति दिलवाने का पुण्य कार्य करते थे।
एक दिन काकी माँ दुर्गा के साथ मेरे बासे पर आईं और हुकुम सुनाया कि मुझे तुरंत यहाँ से चल देना होगा तथा उनके साथ ही रहना होगा।
"नीटू! बोदी जदी शोनेगाके शुप्रिया के रहते खोका को कोष्ट हुआ तो बोल किया कहेगा? ना बाबा, तत्खनात चलना होगा।"
और जिस प्रकार काँजी हाउस से गाय वाला गाय छुड़ाकर ले जाता है उसी प्रकार तीन तल्ले के 'तृप्ति मंदिर' में मुझे लेकर पहुंचीं। नीचे के तल्ले में होटल था, दूसरे तल्ले में अनाथबाबू निवासते थे तथा तीसरे तल्ले के कमरे में मेरा सामान लगा दिया गया।
अनेक बार मैं देर से लौटता तो दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ जाता ताकि किसी को पता न चले। किंतु अभी मैं फीते खोलता ही होता कि दुर्गा एक हाथ में जल की कलशी एवं दूसरे में थाली लिए खड़ी होती।
“एक मित्र के यहाँ से खाकर आया हूँ।-सच मानो, मैंने खा लिया है दुर्गा!"
उसके शंख अविश्वास से रँगे होते कि 'जो तुमने खाया है वह मुझे ज्ञात है। अब उठो, देखते नहीं, अभी तो मुझे भी खाना है। फिर सवेरे के लिए अंगीठियों में कोयला भरना है। होटल में कोई एक-दो काम होते हैं? मुझ हतभागी को अभी जाने कितना सहेजना-समेटना है। उठो भी।'
सवेरे मैं जागा भी नहीं होता हूँ कि चाय लगी होती। नीचे से न डाके जाने पर भी ‘आश्चे' के बदले हूँ' इतने जोरों से दुर्गा कहती और जाती होती कि मैं जाग जाता। काकी माँ नीचे से पूछती होती :
"चा खाल्लाम? आर चाई? दुग्गा! आर चा निये जा।"
जब मेरे चाय के बर्तन वह समेटती होती तब उसके खिंचे मुख पर आदेश उभर आता कि-काल के दूसर कप आनबो, बुझ ते पारी?'
किंतु न तो मैं ही खिंचे मुख का वह गूंगा आदेश बूझ सका और न दुर्गा ही कभी दूसरा कप लाना भूली। रोज कुरते के बटन टाँक दाँत से जब वह डोरा तोड़ती होती तब उसकी गूंगी खीझ मुझ जैसा अंधा भी समझ जाता कि रोज-रोज बटन कैसे टूट जाते हैं? किंतु लगता कि उसने जिस प्रकार अपने गूंगेपन से अवश समझौता किया था उसी प्रकार नीटू के अंधेपन को भी सहते रहने के लिए ही तो जन्मी थी, नहीं तो बंगाली होकर वह मालवे क्यों आती?
एक दिन भोजन करते मैंने दुर्गा से कहा कि मैं भी माछ खाऊँगा। वह आसन्न रह गई। शंख गीले हो आए। तीन दिन वह ऊपर नहीं आई। सीढ़ियाँ उतरते वह दिख जाने पर इतना बड़ा ‘घोमटा' निकाल लेती जैसे किसी अफगानी को देख लिया हो। काकी माँ से मैंने प्रतिवाद किया। वे हँसते हुए बोली :
"हतभागी बोलछे जे तोमरा संगे कखनो कथा बोलबो ना..."
उस उपासी, अबोली दुर्गा को जब शपथ देकर आश्वासित किया तब जाकर कहीं वह अनुपासी हुई।
सवेरे से देर रात तक वह होटल में लगी रहती। 'तृप्ति मंदिर' कोई ऐसा तो चलता नहीं था कि दस नौकर रखे जा सकते थे! काकी माँ ऊपर का देखती तथा दुर्गा पर बनाने-सहेजने का सारा भार था। सवेरे की जली भट्ठियाँ तीसरे पहर बुझी-बुझी होती कि ग्राहकों का तांता लग जाता। रसगुल्ले के तैयार छेने के गुल्ले बनाए जाते, मैदा माँड़ा जाता, चाश्नी के तार देखे जाते। मैंने उसे कभी विश्राम करते नहीं देखा। चूड़ियाँ चढ़ाए कढ़ाई माँजती दुर्गा से लेकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस की छवि के सम्मुख दीप बालती दुर्गा में एक लय, एक भाव, एक गति ही देखी-करुणा, अनंत धृति, अव्यक्त गाथा! वेदना से मँजे हुए ताम्र के पूजा-कलश-सी दुर्गा, घर का अबोला दीप थी, जिसे समझने की किसी को आवश्यकता ही नहीं लगी। वह सबको समझे, यही आवश्यक स्वीकारा गया था। दुर्गा मिटकर आदेश हो चुकी थी।
उस दिन क्या था यह तो पता नहीं, शायद कोई पूजा थी। जैसे ही वह मेरे कमरे में आई, मैं अँधेरे में बैठा था, उसने बिजली जलाई और शंखों के प्रश्न लिए उसने मेरा माथा छुआ। आश्वस्त हुई कि मुझे कुछ नहीं हुआ है, वह लौटने लगी। मैंने कहा :
"आज पूजा थी न?"
दुर्गा ने स्वीकारा।
“मैं भी आज पूजा करूँगा।"
दुर्गा ने हँस दिया।
“सच मानो, मैं भी पूजूँगा"
दुर्गा की आँखों ने प्रश्न किया कि-'किसकी?'
और मैंने उसकी हथेलियों में अधमुँदी कुमुदिनियाँ रख दीं।
"मेरी पूजा हो गई दुर्गा!"
वह अवश, अवाक्, अमूर्त क्षण-भर तो खड़ी रही किंतु तत्क्षण वह दरवाजे को पकड़ अचेत न होने की चेष्टा करती रही।
"दुग्गा! ए की दुग्गा?"
मैंने उसे बाजुओं से पकड़कर हिलाया। उसकी आँखों से शिप्रा बह रही थी। जूड़ा खुलकर घिर आया था। तभी काकी माँ ने डाका। वह सचेत, अदेखे लौट गई।
मैं सो रहा था कि नीचे के तल्ले में अनाथबाबू और काकी माँ का हो-हल्ला सुनाई दिया।
“दुग्गा कोथाई।"
माँ! गो!!
मैं गया। देखा और अवाक रह गया। क्या दुर्गा ऐसा भी कर सकती है? कैसा? क्या किसी बात को करने के लिए कुछ विशेष होना आवश्यक है? लेकिन इसका क्या प्रमाण कि दुर्गा ने ऐसा किया? प्रमाण न होने पर भी दुर्गा ने कुछ ऐसा ही किया-स्पष्ट होता जा रहा था। दौड़-धूप होने लगी। भिनसार हो आया था। काकी माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। सवेरे के ग्राहक अभी आने को थे। सड़कें सुनसान नहीं थीं। मेहतर उन्हें साफ करने में लगे थे। बूढ़ी दक्षिणी महिलाएँ पंचपात्र लिए बगल में धोती दबाए शिप्रा से लौट रही थीं। दूर्गा, गूंगी दुर्गा क्या सच ही भाग गई? तब क्या होगा? और तभी वह गीले वस्त्र में चुचुआते बालों में लौटती दीखी। जैसे ही वह द्वार पर पहुँची, उसे झकझोरते अनाथबाबू चीखे :
"कोथाय होलो तुमि?"
तभी काकी माँ ने उसका झोंटा पकड़ धकेलते हुए कहा :
"हतभागिनी!"
वह अवश, अवाक्, जड़ बनी एक-एक बार सबकी ओर देखती असंपृक्त हो सीढ़ियाँ चढ़ गई। सब अपनी ही दृष्टि में लज्जित खड़े थे।
दुर्गा क्यों भागती? उसे बाहर क्या पाना था जो यहाँ का छोड़कर भागती? यहाँ कम से कम बोलने वाले अंधे तो थे। बाहर तो अंधे ही नहीं, गूंगे भी, जिन्होंने कि उसका सिद्धांत, मर्यादा, संस्कृति तक बना रखी है।
दुर्गा नहीं भागी, कोई बोलने वाला उसे भगा ही कैसे सकता है? दुर्गा, प्राचीन काल की अज्ञात लिपि का भाग्यलेख थी और हम, दो आने के अखबार की एक शीर्षपंक्ति!