दुराशा (प्रहसन) : मुंशी प्रेमचंद
Durasha (Prahasan) : Munshi Premchand
पात्र
दयाशंकर - कार्यालय के एक साधारण लेखक
आनंदमोहन - कॉलेज का एक विद्यार्थी तथा दयाशंकर का मित्र
ज्योतिस्वरूप - दयाशंकर का एक सुदूर-सम्बन्धी
सेवती - दयाशंकर की पत्नी
[होली का दिन]
(समय-9 बजे रात्रि आनंदमोहन तथा दयाशंकर वार्तालाप करते जा रहे हैं।)
आनंदमोहन - हम लोगों को देर तो न हुई। अभी तो नौ बजे होंगे !
दयाशंकर - नहीं अभी क्या देर होगी !
आनंदमोहन - वहाँ बहुत इंतज़ार न कराना। क्योंकि एक तो दिन भर गली-गली घूमने के पश्चात् मुझमें इंतज़ार करने की शक्ति ही नहीं दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिंग हाउस का दरवाज़ा बंद हो जाता है।
दयाशंकर - अजी चलते-चलते थाली सामने आवेगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सामान तैयार रखना।
आनंदमोहन - तुम्हारा घर तो अभी दूर है। यहाँ मेरे पैरों में चलने की शक्ति ही नहीं। आओ कुछ बातचीत करते चलें। भला यह तो बताओ कि परदे के सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है भाभी जी मेरे सामने आयेंगी या नहीं क्या मैं। उनके चंद्रमुख का दर्शन कर सकूँगा सच कहो।
दयाशंकर - तुम्हारे और मेरे बीच में तो भाईचारे का सम्बन्ध है। यदि सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सम्मुख आ जाय तो मुझे कोई म्लान नहीं। किंतु साधारणतः मैं परदे की प्रथा का सहायक और समर्थक हूँ। क्योंकि हम लोगों की सामाजिक नीति इतनी पवित्र नहीं है कि कोई स्त्री अपने लज्जा-भाव को चोट पहुँचाये बिना अपने घर से बाहर निकले।
आनंदमोहन - मेरे विचार में तो पर्दा ही कुचेष्टाओं का मूल कारण है। पर्दे से स्वभावतः पुरुषों के चित्त में उत्सुकता उत्पन्न होती है और वह भाव कभी तो बोली-ठोली में प्रकट होता है और कभी नेत्रों के कटाक्षों में।
दयाशंकर - जब तक हम लोग इतने दृढ़प्रतिज्ञ न हो जायँ कि सतीत्व-रक्षा के पीछे प्राण भी बलिदान कर दें तब तक परदे की प्रथा को तोड़ना समाज के मार्ग में विष बोना है।
आनंदमोहन - आपके विचार से तो यही सिद्ध होता है कि यूरोप में सतीत्व-रक्षा के लिए रात-दिन रुधिर की नदियाँ बहा करती हैं।
दयाशंकर - वहाँ इसी बेपर्दगी ने तो सतीत्व-धर्म को निर्मूल कर दिया है। अभी मैंने किसी समाचारपत्र में पढ़ा था कि एक स्त्री ने किसी पुरुष पर इस प्रकार का अभियोग चलाया था कि उसने मुझे निर्भीकतापूर्वक कुदृष्टि से घूरा था किन्तु विचारक ने उस स्त्री को नख-शिख से देख कर यह कह कर मुकदमा खारिज कर दिया कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि हाट-बाट में नौजवान स्त्री को घूर कर देखे। मुझे तो यह अभियोग और यह फैसला सर्वथा हास्यास्पद जान पड़ते हैं और किसी भी समाज को निंदित करनेवाले हैं।
आनंदमोहन - इस विषय को छोड़ो। यह तो बताओ कि इस समय क्या-क्या खिलाओगे मित्र नहीं तो मित्र की चर्चा ही हो।
दयाशंकर - यह तो सेवती की पाक-कला-कुशलता पर निर्भर है। पूरियाँ और कचौरियाँ तो होंगी ही। यथासंभव खूब खरी भी होंगी। यथाशक्ति खस्ते और समोसे भी आयेंगे। खीर आदि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। आलू और गोभी की शोरबेदार तरकारी और मटर दालमोट भी मिलेंगे। फीरिनी के लिए भी कह आया था। गूलर के कोफते और आलू के कबाब यह दोनों सेवती खूब पकाती है। इनके सिवा दही-बड़े और चटनी-अचार की चर्चा तो व्यर्थ ही है। हाँ शायद किशमिश का रायता भी मिले जिसमें केसर की सुगंध उड़ती होगी।
आनंदमोहन - मित्र मेरे मुँह में तो पानी भर आया। तुम्हारी बातों ने तो मेरे पैरों में जान डाल दी। शायद पर होते तो उड़ कर पहुँच जाता।
दयाशंकर - लो अब तो आ ही जाते हैं। यह तम्बाकूवाले की दूकान है इसके बाद चौथा मकान मेरा ही है।
आनंदमोहन - मेरे साथ बैठ कर एक ही थाली में खाना। कहीं ऐसा न हो कि अधिक खाने के लिए मुझे भाभी जी के सामने लज्जित होना पड़े।
दयाशंकर - इससे तुम निश्शंक रहो। उन्हें मिताहारी आदमी से चिढ़ है वे कहती हैं- जो खायेगा ही नहीं दुनिया में काम क्या करेगा आज शायद तुम्हारी बदौलत मुझे भी काम करनेवालों की पंक्ति में स्थान मिल जावे। कम से कम कोशिश तो ऐसी ही करना।
आनंदमोहन - भई यथाशक्ति चेष्टा करूँगा। शायद तुम्हें ही प्रधानपद मिल जाये।
दयाशंकर - यह लो आ गये। देखना सीढ़ियों पर अँधेरा है। शायद चिराग जलाना भूल गयी।
आनंदमोहन - कोई हर्ज नहीं। तिमिरलोक ही में तो सिकंदर को अमृत मिला था।
दयाशंकर - अंतर इतना ही है कि तिमिरलोक में पैर फिसले तो पानी में गिरोगे और यहाँ फिसला तो पथरीली सड़क पर।
[ज्योतिस्वरूप आते हैं ]
ज्योति.-सेवक भी उपस्थित हो गया। देर तो नहीं हुई डबल मार्च करता आया हूँ।
दयाशंकर - नहीं अभी तो देर नहीं हुई। शायद आपकी भोजनाभिलाषा आपको समय से पहले खींच लायी।
आनंदमोहन - आपका परिचय कराइए। मुझे आपसे देखा-देखी नहीं है।
दयाशंकर - (अँगरेजी में) मेरे सुदूर के सम्बन्ध में साले होते हैं। एक वकील के मुहर्रिर हैं। जबरदस्ती नाता जोड़ रहे हैं। सेवती ने निमंत्रण दिया होगा मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं। ये अँगरेजी नहीं जानते।
आनंदमोहन - इतना तो अच्छा है। अँगरेजी में ही बातें करेंगे।
दयाशंकर - सारा मजा किरकिरा हो गया। कुमानुषों के साथ बैठ कर खाना फोड़े के आप्रेशन के बराबर है।
आनंदमोहन - किसी उपाय से इन्हें विदा कर देना चाहिए।
दयाशंकर - मुझे तो चिंता यह है कि अब संसार के कार्यकर्त्ताओं में हमारी और तुम्हारी गणना ही न होगी। पाला इसके हाथ रहेगा।
आनंदमोहन - खैर ऊपर चलो। आनंद तो जब आवे कि इन महाशय को आधे पेट ही उठना पड़े।
[तीनों आदमी ऊपर जाते हैं ]
दयाशंकर - अरे ! कमरे में भी रोशनी नहीं घुप अँधेरा है। लाला ज्योतिस्वरूप देखिएगा कहीं ठोकर खा कर न गिर पड़ियेगा।
आनंदमोहन - अरे गजब...(अलमारी से टकरा कर धम् से गिर पड़ता है)।
दयाशंकर - लाला ज्योतिस्वरूप क्या आप गिरे चोट तो नहीं आयी
आनंदमोहन - अजी मैं गिर पड़ा। कमर टूट गयी। तुमने अच्छी दावत की।
दयाशंकर - भले आदमी सैकड़ों बार तो आये हो। मालूम नहीं था कि सामने आलमारी रखी हुई है। क्या ज़्यादा चोट लगी
आनंदमोहन - भीतर जाओ। थालियाँ लाओ और भाभी जी से कह देना कि थोड़ा-सा तेल गर्म कर लें। मालिश कर लूँगा।
ज्योति.-महाशय यह आपने क्या रख छोड़ा है। ज़मीन पर गिर पड़ा।
दयाशंकर - उगालदान तो नहीं लुढ़का दिया हाँ वही तो है। सारा फर्श ख़राब हो गया।
आ.-बन्धुवर जा कर लालटेन जला लाओ। कहाँ ला कर काल-कोठरी में डाल दिया।
दयाशंकर - (घर में जा कर) अरे ! यहाँ भी अँधेरा है ! चिराग तक नहीं। सेवती कहाँ हो
सेवती - बैठी तो हूँ।
दयाशंकर - यह बात क्या है चिराग क्यों नहीं जले ! तबीयत तो अच्छी है
सेवती - बहुत अच्छी है। बारे तुम आ तो गये ! मैंने समझा था कि आज आपका दर्शन ही न होगा।
दयाशंकर .- ज्वर है क्या कब से आया है
सेवती - नहीं ज्वर-स्वर कुछ नहीं चैन से बैठी हूँ।
दयाशंकर - तुम्हारा पुराना बायगोला तो नहीं उभर आया
सेवती - (व्यंग्य से) हाँ बायगोला ही तो है। लाओ कोई दवा है
दयाशंकर - अभी डाक्टर के यहाँ से मँगवाता हूँ।
से.-कुछ मुफ़्त की रकम हाथ आ गयी है क्या लाओ मुझे दे दो अच्छी हो जाऊँ।
दयाशंकर - तुम तो हँसी कर रही हो। साफ-साफ कोई बात नहीं कहती। क्या मेरे देर से आने का यही दंड है मैंने नौ बजे आने का वचन दिया था। शायद दो-चार मिनट अधिक हुए हों। सब चीज़ें तैयार हैं न
सेवती - हाँ बहुत ही खस्ता आधो-आध मक्खन डाला था।
दयाशंकर - आनंदमोहन से मैंने तुम्हारी खूब प्रशंसा की है।
सेवती - ईश्वर ने चाहा तो वे भी प्रशंसा ही करेंगे। पानी रख आओ हाथ-वाथ तो धोयें।
दयाशंकर - चटनियाँ भी बनवा ली हैं न आनंदमोहन को चटनियों से बहुत प्रेम है।
सेवती - खूब चटनी खिलाओ। सेरों बना रखी है।
दयाशंकर - पानी में केवड़ा डाल दिया है
से.-हाँ ले जा कर पानी रख आओ। पानी आरम्भ करें प्यास लगी होगी।
आनंदमोहन - (बाहर से) मित्र शीघ्र आओ। अब इन्तजार करने की शक्ति नहीं है।
दयाशंकर - जल्दी मचा रहा है। लाओ थालियाँ परसो।
सेवती - पहले चटनी और पानी तो रख आओ।
दयाशंकर - (रसोई में जा कर) अरे ! यहाँ तो चूल्हा बिलकुल ठंडा पड़ गया है। महरी आज सबेरे ही काम कर गयी क्या
सेवती - हाँ खाना पकने से पहले ही आ गयी थी।
दयाशंकर - बर्तन सब मँजे हुए हैं। क्या कुछ पकाया ही नहीं
सेवती - भूत-प्रेत आ कर खा गये होंगे।
दयाशंकर - क्या-चूल्हा ही नहीं जलाया गजब कर दिया।
सेवती - गजब मैंने कर दिया या तुमने
दयाशंकर - मैंने तो सब सामान ला कर रख दिया था। तुमसे बार-बार पूछ लिया था कि किसी चीज़ की कमी हो तो बतलाओ। फिर खाना क्यों न पका क्या विचित्र रहस्य है ! भला मैं इन दोनों को क्या मुँह दिखाऊँगा।
आनंदमोहन - मित्र क्या तुम अकेले ही सब सामग्री चट कर रहे हो इधर भी लोग आशा लगाये बैठे हैं। इन्तजार दम तोड़ रहा है।
सेवती - यदि सब सामग्री ला कर रख ही देते तो मुझे बनाने में क्या आपत्ति थी
दयाशंकर - अच्छा यदि दो-एक वस्तुओं की कमी ही रह गयी थी तो इसका क्या अभिप्राय कि चूल्हा ही न जले यह तो किस अपराध का दंड दिया है आज होली का दिन और यहाँ आग ही न जली
सेवती - जब तक ऐसे चरके न खाओगे तुम्हारी आँखें न खुलेंगी।
दयाशंकर - तुम तो पहेलियों से बातें कर रही हो। आखिर किस बात पर अप्रसन्न हो मैंने कौन-सा अपराध किया जब मैं यहाँ से जाने लगा था तुम प्रसन्नमुख थीं और इसके पहले भी मैंने तुम्हें दुखी नहीं देखा था। तो मेरी अनुपस्थिति में कौन ऐसी बात हो गयी कि तुम इतनी रूठ गयीं
सेवती - घर में स्त्रियों को कैद करने का यह दंड है।
दयाशंकर - अच्छा तो यह इस अपराध का दंड है मगर तुमने मुझसे परदे की निन्दा नहीं की। बल्कि इस विषय पर जब कोई बात छिड़ती थी तो तुम मेरे विचारों से सहमत ही रहती थीं। मुझे आज ही ज्ञात हुआ कि तुम्हें परदे से कितनी घृणा है ! क्या दोनों अथितियों से यह कह दूँ कि परदे की सहायता के दंड में मेरे यहाँ अनशन व्रत है आप लोग ठंडी-ठंडी हवा खायें
सेवती - जो चीज़ें तैयार हैं वह जा कर खिलाओ और जो नहीं हैं उसके लिए क्षमा माँगो।
दयाशंकर - मैं तो कोई चीज़ तैयार नहीं देखता
सेवती - हैं क्यों नहीं चटनी बना ही डाली है और पानी भी पहले से तैयार है।
दयाशंकर - यह दिल्लगी तो हो चुकी। सचमुच बताओ खाना क्यों नहीं पकाया क्या तबीयत ख़राब हो गयी थी अथवा किसी कुत्ते ने आ कर रसोई अपवित्र कर दी थी
आनंदमोहन - बाहर क्यों नहीं आते हो भाई भीतर ही भीतर क्या मिसकौट कर रहे हो अब सब चीज़ें नहीं तैयार हैं नहीं सही जो कुछ तैयार हो वही लाओ। इस समय तो सादी पूरियाँ भी खस्ते से अधिक स्वादिष्ट जान पड़ेंगी। कुछ लाओ भला श्रीगणेश तो हो। मुझसे अधिक उत्सुक मेरे मित्र मुंशी ज्योतिस्वरूप हैं।
सेवती - भैया ने दावत के इंतज़ार में आज दोपहर को भी न खाया होगा।
दयाशंकर - बात क्यों टालती हो मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देतीं
सेवती - नहीं जवाब देती क्या कुछ आपका कर्ज़ खाया है या रसोई बनाने के लिए लौंडी हूँ
दयाशंकर - यदि मैं घर का काम करके अपने को दास नहीं समझता तो तुम घर का काम करके अपने को दासी क्यों समझती हो !
सेवती - मैं नहीं समझती तुम समझते हो !
दयाशंकर - क्रोध मुझे आना चाहिए उल्टी तुम बिगड़ रही हो।
सेवती - तुम्हें क्यों मुझ पर क्रोध आना चाहिए इसलिए कि तुम पुरुष हो
दयाशंकर - नहीं इसलिए कि तुमने आज मुझे मेरे मित्रों तथा सम्बन्धियों के सम्मुख नीचा दिखाया।
सेवती - नीचा दिखाया तुमने मुझे कि मैंने तुम्हें तुम तो किसी प्रकार क्षमा करा लोगे किंतु कालिमा तो मेरे मुख लगेगी।
आनंदमोहन - भई अपराध क्षमा हो मैं भी वहीं आता हूँ। यहाँ तो किसी पदार्थ की सुगंध तक नहीं आती।
दयाशंकर - क्षमा क्या करा लूँगा लाचार हो कर बहाना करना पड़ेगा।
सेवती - चटनी खिला कर पानी पिलाओ। इतना सत्कार बहुत है। होली का दिन है यह भी एक प्रहसन रहेगा।
दयाशंकर - प्रहसन क्या रहेगा कहीं मुख दिखाने योग्य न रहूँगा। आखिर तुम्हें यह क्या शरारत सूझी
सेवती - फिर वही बात ! शरारत क्यों सूझती ! क्या तुमसे और तुम्हारे मित्रों से कोई बदला लेना था लेकिन जब लाचार हो गयी तो क्या करती तुम तो दस मिनट पछता कर और मुझ पर क्रोध मिटा कर आनंद से सोओगे। यहाँ तो मैं तीन बजे से बैठी झींक रही हूँ। और यह सब तुम्हारी करतूत है।
दयाशंकर - यही तो पूछता हूँ कि मैंने क्या किया
सेवती - तुमने मुझे पिंजरे में बंद कर दिया पर काट दिये ! मेरे सामने दाना रख दो तो खाऊँ मुधिया में पानी डाल दो तो पीऊँ यह किसका कसूर है
दयाशंकर - भाई छिपी-छिपी बातें न करो। साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं !
आनंदमोहन - विदा होता हूँ मौज उड़ाइए। नहीं बाज़ार की दुकानं भी बंद हो जायँगी। खूब चकमा दिये मित्र फिर समझेंगे। लाला ज्योतिस्वरूप तो बैठे-बैठे अपनी निराशा को खुर्राटों से भुला रहे हैं। मुझे यह संतोष
कहाँ! तारे भी नहीं हैं कि बैठ कर उन्हें ही गिनूँ। इस समय तो स्वादिष्ट पदार्थों का स्मरण कर रहा हूँ।
दयाशंकर - बंधुवर दो मिनट और संतोष करो। आया। आँ ! लाला ज्योतिस्वरूप से कह दो कि किसी हलवाई की दूकान से पूरियाँ ले आयें। यहाँ कम पड़ गयी हैं। आज दोपहर ही से इनकी तबीयत ख़राब हो गयी हे। मेरे मेज की दराज में रुपये रखे हैं।
सेवती - साफ-साफ तो यही है कि तुम्हारे परदे ने मुझे पंगु बना दिया है। कोई मेरा गला भी घोंट जाय तो फरियाद नहीं कर सकती।
दयाशंकर - फिर भी वही अन्योक्ति ! इस विषय का अंत भी होगा या नहीं !
से.-दियासलाई तो थी ही नहीं फिर आग कैसे जलाती !
दयाशंकर - अहा ! मैंने जाते समय दियासलाई की डिबिया जेब में रख ली थी...जरा-सी बात का तुमने इतना बतंगड़ बना दिया। शायद मुझे तंग करने के लिए अवसर ढूँढ़ रही थीं। कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ता है।
सेवती - यह तुम्हारी ज्यादती है। ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ गयी किंतु वह लापता थी। ताड़ गयी कि तुम ले गये। तुम मुश्किल से दरवाज़े तक पहुँचे होगे। अगर ज़ोर से पुकारती तो तुम सुन लेते। लेकिन नीचे दूकानदारों के कान में भी आवाज़ जाती तो सुन कर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते। हाथ मल कर रह गयी। उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती तो अच्छा होता। मगर कोई वश न चलता था। अंत में लाचार हो कर बैठ रही।
दयाशंकर - यह कहो कि तुम मुझे तंग करना चाहती थीं। नहीं तो क्या आग या दियासलाई न मिल जाती
सेवती - अच्छा तुम मेरी जगह होते तो क्या करते नीचे सबके सब दूकानदार हैं। और तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पंडित जी रहते हैं। उनके घर में कोई स्त्री नहीं। सारे दिन फाग हुई है। बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे। दूसरी ओर बंगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियाँ किसी सम्बन्धी से मिलने गयी हैं और अब तक नहीं आयीं। इन दोनों से भी बिना दज्जे पर आये चीज़ न मिल सकती थी। लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते। और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो। महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गयी थी। रह-रह कर तुम्हारे ऊपर क्रोध आता था।
दयाशंकर - तुम्हारी लाचारी का कुछ अनुमान कर सकता हूँ पर मुझे अब भी यह मानने में आपत्ति है कि दियासलाई का न होना चूल्हा न जलने का वास्तविक कारण हो सकता है।
सेवती - तुम्हीं से पूछती हूँ कि बतलाओ क्या करती
दयाशंकर - मेरा मन इस समय स्थिर नहीं किंतु मुझे विश्वास है कि यदि मैं तुम्हारे स्थान पर होता तो होली के दिन और ख़ासकर जब अतिथि भी उपस्थित हों चूल्हा ठंडा न रहता। कोई-न-कोई उपाय अवश्य ही निकालता।
सेवती - जैसे
दयाशंकर - एक रुक्का लिख किर किसी दूकानदार के सामने फेंक देता।
सेवती - यदि मैं ऐसा करती तो शायद तुम आँख मिलाने का मुझ पर कलंक लगाते।
दयाशंकर - अँधेरा हो जाने पर सिर से पैर तक चादर ओढ़ कर बाहर निकल जाता और दियासलाई ले आता। घंटे-दो घंटे में अवश्य ही कुछ-न-कुछ तैयार हो जाता। ऐसा उपवास तो न पड़ता।
सेवती - बाज़ार जाने से मुझे तुम गली-गली घूमनेवाली कहते और गला काटने पर उतारू हो जाते। तुमने मुझे कभी इतनी स्वतंत्रता नहीं दी। यदि कभी स्नान करने जाती हूँ तो गाड़ी का पट बंद रहता है।
दयाशंकर - अच्छा तुम जीती और मैं हारा। सदैव के लिए उपदेश मिल गया कि ऐसे अत्यावश्यक समय पर तुम्हें घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता है।
सेवती - मैं तो इसे आकस्मिक समय नहीं कहती। आकस्मिक समय तो वह है कि दैवात् घर में कोई बीमार हो जाय और उसे डाक्टर के यहाँ ले जाना आवश्यक हो।
दयाशंकर - निस्संदेह वह समय आकस्मिक है। इस दशा में तुम्हारे जाने में कोई हस्तक्षेप नहीं।
सेवती - और भी आकस्मिक समय गिनाऊँ
दयाशंकर - नहीं भाई इसका फैसला तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर है।
सेवती - मित्र संतोष की सीमा तो अंत हो गयी अब प्राण-पीड़ा हो रही है। ईश्वर करे घर आबाद रहे बिदा होता हूँ।
दयाशंकर - बस एक मिनट और। उपस्थित हुआ।
सेवती - चटनी और पानी लेते जाओ और पूरियाँ बाज़ार से मँगवा लो। इसके सिवा इस समय हो ही क्या सकता है
दयाशंकर - (मरदाने कमरे में आकर) पानी लाया हूँ प्यालियों में चटनी है। आप लोग जब तक भोग लगावें। मैं अभी आता हूँ।
आनंदमोहन - धन्य है ईश्वर ! भला तुम बाहर तो निकले ! मैंने तो समझा था कि एकांतवास करने लगे। मगर निकले भी तो चटनियाँ ले कर। वह स्वादिष्ट वस्तुएँ क्या हुईं जिनका आपने वादा किया था और जिनका स्मरण मैं प्रेमानुरक्त भाव से कर रहा हूँ
दयाशंकर - ज्योतिस्वरूप कहाँ गये
सेवती - ऊर्द्ध्व संसार में भ्रमण कर रहे हैं। बड़ा ही अद्भुत उदासीन मनुष्य है कि आते ही आते सो गया और अभी तक नहीं चौंका।
दयाशंकर - मेरे यहाँ एक दुर्घटना हो गयी। उसे और क्या कहूँ। सब सामान मौजूद और चूल्हे में आग न जली।
आनंदमोहन - खूब ! यह एक ही रही। लकड़ियाँ न रही होंगी।
दयाशंकर - घर में तो लकड़ियों का पहाड़ लगा है। अभी थोड़े ही दिन हुए कि गाँव से एक गाड़ी लकड़ी आ गयी थी। दियासलाई न थी।
आनंदमोहन - (अट्टहास कर) वाह ! यह अच्छा प्रहसन हुआ। थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया। कम से कम मेरी तो बधिया बैठ गयी।
दयाशंकर - क्या कहूँ मित्र लज्जित हूँ। तुमसे सत्य कहता हूँ। आज से मैं परदे का शत्रु हो गया। इस निगोड़ी प्रथा के बन्धन ने ठीक होली के दिन ऐसा विश्वासघात किया कि जिसकी कभी भी संभावना न थी। अच्छा अब बतलाओ बाज़ार से लाऊँ पूरियाँ अभी तो ताजी मिल जायँगी।
आनंदमोहन - बाज़ार का रास्ता तो मैंने भी देखा है। कष्ट न करो। जा कर बोर्डिंग हाउस में खा लूँगा। रहे ये महाशय मेरे विचार में तो इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो। प्रातःकाल चौंकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे।
दयाशंकर - तुम्हारा यों वापस जाना मुझे खल रहा है। क्या सोचा था क्या हुआ ! मजे ले-ले कर समोसे और कोफ्ते खाते और गपड़चौथ मचाते। सभी आशाएँ मिट्टी में मिल गयीं। ईश्वर ने चाहा तो शीघ्र ही इसका प्रायश्चित्त करूँगा।
आनंदमोहन - मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि तुम्हारा सिद्धान्त टूट गया। अब इतनी आज्ञा दो कि भाभी जी को धन्यवाद दे आऊँ।
दयाशंकर - शौक़ से जाओ।
आनंदमोहन - (भीतर जा कर) भाभी जी साष्टांग प्रणाम कर रहा हूँ। यद्यपि आज के आकाशी भोज से मुझे दुराशा तो अवश्य हुई किन्तु वह उस आनन्द के सामने शून्य है जो भाई साहब के विचार-परिवर्तन से हुआ है। आज एक दियासलाई ने जो शिक्षा प्रदान की है वह लाखों प्रामाणिक प्रमाणों से भी संभव नहीं है। इसके लिए मैं आपको सहर्ष धन्यवाद देता हूँ। अब से बन्धुवर परदे के पक्षपाती ने होंगे यह मेरा अटल विश्वास है।
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