दुराग्रह (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Duragrah (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
उत्तरप्रदेश विधानसभा में राज्यपाल के भाषण की भाषा पर जो विवाद हुआ, उसने सोचने के लिए बाध्य किया। राज्यपाल श्री गिरि अपना भाषण अंग्रेजी में देनेवाले थे। उन्होंने असमर्थता जाहिर की कि वे हिंदी में कुशलता से अपने विचार प्रगट नहीं कर सकते, अतएव उन्हें अंग्रेजी में बोलना पड़ रहा है।
इस पर विधानसभा में समाजवादी दल के नेता ने माँग की कि राज्यपाल को भारत की विधान मान्य राजभाषा हिंदी में ही भाषण करना चाहिए। राज्यपाल ने जब इस माँग को स्वीकार नहीं किया, तब श्री राजनारायण ने तथा उनके दल के अन्य सदस्यों ने व कुछ और सदस्यों ने राज्यपाल के भाषण के समय सभा भवन त्याग दिया। इसके पहले गरमा-गरम बहस हो चुकी थी ।
इस विवाद में कांग्रेस दल की, और विशेषकर हिंदी के बड़े हिमायती डॉ. संपूर्णानंद की, बड़ी मनोरंजक स्थिति हो गयी। विरोधी दल द्वारा यह प्रश्न उठाए जाने के कारण और विवाद का विषय गवर्नर का भाषण होने के कारण कांग्रेस दल को मजबूरन अंग्रेजी भाषा में राज्यपाल के भाषण का समर्थन करना पड़ा ।
इस विवाद में कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें समझ लेना चाहिए। प्रश्न तो यह कि क्या राज्यपाल गिरि इतने वर्षों में भाषण पढ़ सकने लायक हिंदी नहीं सीख सकते थे ? और हिंदी जिनकी शासन की भाषा हो, उस राज्य के सर्वोच्च वैधानिक पद पर आसीन होकर क्या यह उचित है कि वे दूसरी भाषा में ही भाषण करें? गिरि की भाषागत कमजोरी तो वे और उनके निकटस्थ लोग जानें, हमें इसमें कहीं हिंदी सीखने का थोड़ा हठ जरूर दिखता है।
लेकिन राजनारायण का विरोध जिस प्रकार व्यक्त हुआ, उससे हिंदी का अहित ही अधिक होगा। हिंदी की समस्या को (किसी भी भाषा या साहित्य-संस्कृति की समस्या को ) राजनैतिक तरीके से हमेशा नहीं सुलझाया जा सकता। समाजवादी दल के कार्यक्रम में हिंदी का प्रचार प्रमुखता रखता है और यह बड़ी प्रशंसनीय बात है कि जब कांग्रेस भाषा के मामले में बहुत अस्थिर नीति लिये है; प्रजासमाजवादी दल की कोई नीति ही नहीं है और साम्यवादी दल कभी 'अल्पसंख्यकों की भाषा' का नारा लगाकर समस्या को उलझाता है, तब समाजवादी दल ने स्पष्ट रूप से हिंदी - प्रचार का प्रोग्राम बनाया; प्रसार की कोशिश भी की और आंदोलन भी चलाया।
परंतु गवर्नर के भाषण की भाषा का जैसा विरोध राजनारायण ने किया, वह राजनैतिक दुराग्रह और हठधर्मी अधिक है, हिंदी का समर्थन कम । विरोधी दल को सत्ताधारी दल के कार्यों में हमेशा उन मुद्दों की खुर्दबीनी तलाश रहती है जिन पर विरोध किया जा सके। कई बार - इस शाश्वत विरोध की भावना के कारण - जनहित के कार्यों में भी मतभेद हो जाता है। लगता है, हिंदी के इस समर्थन के पीछे दलगत विरोध की भावना अधिक थी। राजनारायण और उनके दल के सदुद्देश्य पर हम शक नहीं करते, पर राज्यपाल के भाषण के इस प्रकार के बायकाट से हिंदी समर्थकों पर दुराग्रह और असहनशीलता का आरोप और पुष्ट होता है। राज्यपाल का भाषण एक वैधानिक महत्त्व रखता है; फिर राज्यपाल दक्षिण भारतीय हैं। ऐसी स्थिति में इस प्रकार के विरोध ने अहिंदी भाषियों के हाथ में एक और प्रबल तर्क दे दिया जिसका उपयोग हिंदी के विरुद्ध होगा। मजे की बात है कि 'हिंदीवालों' के व्यवहार-बर्ताव के कारण बेचारी हिंदी की हानि होती है।
'वसुधा, वर्ष : 3 अंक 4-5, अगस्त-सितंबर 1958