Dukhi Jivan (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
दु:खी जीवन (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
हिंदू दर्शन दु:खवाद है, बौद्ध दर्शन दु:खवाद है और ईसाई दर्शन भी दु:खवाद है! मनुष्य सुख की खोज में आदिकाल से रहा है और इसी की प्राप्ति उसके जीवन का सदैव मुख्य उद्देश्य रही है। दु:ख से वह इतना घबराता है कि इस जीवन में ही नहीं, आने वाले जीवन के लिये भी ऐसी व्यवस्था करना चाहता है कि वहाँ भी सुख का उपभोग कर सके। जन्नत और स्वर्ग, मोक्ष और निर्वाण, सब उसी आकांक्षा की रचनाएँ हैं। सुख की प्राप्ति के लिये ही हमने जीवन को निस्सार और संसार को अनित्य कहकर अपने मन को शांत करने की चेष्टा की। जब जीवन में कोई सार ही नहीं, और संसार अनित्य ही है, तो फिर क्यों न इनसे मुँह मोड़कर बैठें? लेकिन हम क्यों दु:खी होते हैं, वह कौन-सी मनोवृत्ति है जो हमें दु:ख की ओर ले जाती है, इस पर हमने विचार नहीं किया। आज हम इसी प्रश्न की मीमांसा करेंगे और देखेंगे कि इस अंधकार में कहीं प्रकाश भी मिल सकता है या नहीं।
दु:ख के दो बड़े कारण हैं- एक तो वे रूढ़ियां जिनमें हमने अपने को और समाज को जकड़ रखा है, दूसरा वे व्यक्तिगत मनोवृत्तियाँ हैं जो हमारे मन को संकुचित रखती हैं और उसमें बाहर की वायु और प्रकाश नहीं जाने देतीं। रूढ़ियों से तो हम इस समय बहस नहीं करना चाहते; क्योंकि उनका सुधार हमारे बस की बात नहीं, वह समष्टि की जागृति पर निर्भर है, लेकिन व्यक्तिगत मनोवृत्तियों का संस्कार हमारे बस की बात है, और हम अपना विचार यहीं तक परिमित रखेंगे।
अक्सर ऐसे लोग बहुत दु:खी देखे जाते हैं जो असंयम के कारण अपना स्वास्थ्य खो बैठे हैं या जिन पर लक्ष्मी की अकृपा है। लेकिन वास्तव में सुख के लिये न धन अनिवार्य है न स्वास्थ्य। कितने ही धनी आदमी दु:खी हैं, कितने ही रोगी सुखी हैं। सुखी जीवन के लिये मन का स्वस्थ होना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन फिर भी सुखी जीवन के लिये निरोग शरीर लाजिमी चीज है। सभी तो ऋषि नहीं होते। बलवान और स्वस्थ मन, बलवान और स्वस्थ देह में ही रह सकता है। साधना और तप इस नियम में अपवाद उत्पन्न कर सकते हैं, लेकिन साधारणत: स्वस्थ देह और स्वस्थ मन में कारण और कार्य का संबंध है। यद्यपि वर्तमान रहन-सहन ने इसे दुस्तर बना दिया है, तथापि सामान्य मनुष्य अगर बुद्धि से काम ले और प्राकृतिक जीवन के आदर्श की तरफ से आँखें न बंद कर ले, तो वह अपनी देह को निरोग रख सकता है। देह तो एक मशीन है। इसे जिस तरह कोयले-पानी की जरूरत है उसी तरह इससे काम लेने की जरूरत है। अगर हम इस मशीन से काम न लें तो बहुत-थोड़े दिनों में इसके पुर्जों में मोरचा लग जायेगा। मजदूरों के लिये यह प्रश्न ही नहीं उठता। यह प्रश्न तो केवल उन लोगों के लिये है जो गद्दी या कुर्सी पर बैठकर काम करते हैं। उन्हें कोई न कोई कसरत जरूर ही करनी चाहिए। क्रिकेट और टेनिस के लिये हमारे पास साधन नहीं है तो क्या, हम अपने घर में सौ-पचास डंड-बैठक भी नहीं लगा सकते? अगर हम स्वास्थ्य के लिये एक घंटा भी समय नहीं दे सकते तो इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि हम सुख को ठोकरों से मारकर अपने द्वार से भगाते हैं।
भोजन का प्रश्न भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। क्या चीज किस तरह और कितनी खाई जाये, इस विषय में मूर्खों से अधिक शिक्षित लोग गलती करते हैं। अधिकतर तो ऐसे आदमी मिलेंगे जो इस विषय में कुछ जानते ही नहीं। जिंदगी का सबसे बड़ा काम है भोजन। इसी धुरी पर संसार का सारा चक्र चलता है और उसी के विषय में हम कुछ नहीं जानते! बच्चों में शील और विनय का तथा बड़ों में संयम का पहला पाठ भोजन से आरंभ होता है। यह हास्यास्पद-सी बात है, पर वास्तव में आत्मोन्नति का पहला मंत्र भोजन में पथ्यापथ्य का विचार है।
दु:ख का एक बड़ा कारण है अपने-ही-आप में डूबे रहना, हमेशा अपने ही विषय में सोचते रहना। हम यों करते तो यों होते, वकालत पास करके अपनी मिट्टी खराब की, इससे कहीं अच्छा होता कि नौकरी कर ली होती। अगर नौकर हैं तो यह पछतावा है कि वकालत क्यों न कर ली। लड़के नहीं हैं तो यह फिक्र मारे डालती है कि लड़के कब होंगे। लड़के हैं तो रो रहे हैं कि ये क्यों हुए, ये कच्चे-बच्चे न होते तो कितने आराम से जिंदगी कटती। कितने ही ऐसे हैं जो अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट हैं। कोई माँ-बाप को कोसता है जिन्होंने उसके गले में जबरदस्ती जुआ डाल दिया- कोई मामा या फूफा को जिन्होंने विवाह पक्का किया! अब उनकी सूरत भी उसे पसंद नहीं। बीबी से आए दिन ठनी रहती है- वह सलीका नहीं रखती, मैली है, फूहड़ है, मुर्दा है या मुहर्रमी है। जब देखो, मुँह लटकाएं बैठी रहती है। यह नहीं कि पति महोदय दिन-भर के बाद घर में आए हैं तो लपक कर उनके गले से लिपट जाये! इस श्रेणी में अधिकतर लेखक-समाज और नवशिक्षित युवक हैं। ये दूसरों की बीवियों को देखकर अपनी किस्मत ठोकते हैं- वह कितनी सुघड़ है, कितनी हँसमुख, कितनी सुरुचि रखने वाली! दिन-रात बेचारे इसी डाह में जला करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो चाहते हैं कि सारी दुनिया उनकी प्रशंसा करती रहे। खुद जब मौका पाते हैं, अपनी तारीफ शुरू कर देते हैं। वे खुद किसी के प्रशंसक नहीं बनते, किसी से प्रेम नहीं करते। लेकिन इच्छुक हैं कि दुनिया उनके आगे नतमस्तक खड़ी रहे, उनका गुण-गान करती रहे। दुनिया उनकी कद्र नहीं करती, इस फिक्र में घुले जाते हैं, इससे उनके स्वभाव और व्यवहार में कटुता आ जाती है। और ऐसे लोग तो घर-घर मिलेंगे जो निन्नानबे के फेर में पड़कर जीवन को भार बना लेते हैं। संचय, संचय, लगातार संचय! इसी में उनके प्राण बसते हैं। ऐसा आदमी केवल उन्हीं से प्रसन्न रहता है जो संचय में उसके सहायक होते हैं। और किसी से उसे सरोकार नहीं। बीबी से हँसने-बोलने का उसके पास समय नहीं, लड़कों को प्यार करने और दुलारने का उसे बिलकुल अवकाश नहीं। घर में किसी से धेले का नुकसान भी हो गया तो उसके सिर हो जाता है। बीबी ने अगर एक आने की जगह पाँच पैसे की तरकारी मंगवा ली तो पति को रात-भर झींकने का मसाला मिल गया- तुम घर लुटा दोगी, तुम्हें क्या खबर पैसे कैसे आते हैं, आज मर जाऊँ तो भीख माँगती फिरो। ऐसी-ऐसी दिल जलाने वाली बातें करके आप रोता है और दूसरों को रुलाता है। लड़के से कोई चिमनी टूट गई, तो कुछ न पूछो, बेचारे निरपराध बालक की शामत आ गई। मारते-मारते उसकी खाल उधेड़ डाली। माना, लड़के से नुकसान हुआ, तुम गरीब हो और तुम्हारे लिये दो-चार आने का नुकसान भी कठिन है। लेकिन लड़के को पीटकर तुमने क्या पाया? चिमनी तो जुड़ नहीं गई! हाँ, स्नेह का बंधन जरूर टूटने-टूटने हो गया। यह सब अपने-आपमें डूबे रहने वालों का हाल है। उनके लिये केवल यही औषध है कि अपने विषय में इतनी चिंता न करें, दूसरों में भी दिलचस्पी लेना सीखें- चिड़िया पालना, फूल-पौधे लगाना, गाना-बजाना, गपशप करना, किसी आंदोलन में भाग लेना। गरज मन को अपनी ओर से हटाकर बाहर की ओर ले जाना ही ऐसे चिंताशील प्रकृतिवालों के लिये दु:खनिवारक हो सकता है।
उदासीन प्रकृति वाले भी अक्सर दु:खी रहते हैं। संसार में इनके लिये कोई सार वस्तु नहीं। यह मरज अधिकतर उच्च कोटि के विद्वानों को होता है। उन्होंने संसार के तत्व को पहचान लिया है और जीवन में अब ऐसी उन्हें कोई वस्तु नहीं मिलती जिसके लिये वे जिएँ! संसार रसातल की ओर जा रहा है, लोगों से प्रेम उठ गया, सहानुभूति का कहीं नाम नहीं, साहित्य का डोंगा डूब गया, जिससे प्रेम करो वही बेवफाई करता है, संसार में विश्वास किस पर किया जाए? यह चीज तो उठ गई, अब लखन-से भाई और हनुमान-से सेवक कहाँ? यह उदासीनता अधिकतर उन्हीं लोगों में होती है जो संपन्न हैं, जिन्हें जीविका के लिये कोई काम नहीं करना पड़ता। मजे से खाते हैं और सोते हैं। क्रियाशीलता का उनमें अभाव होता है। वे दुनिया में केवल रोने के लिये आए हैं, किसी का उनकी जात से उपकार नहीं होता। हर-एक चीज में ऐब निकालना, हर-एक चीज से असंतुष्ट रहना, यही उनका उद्यम है। ऐसे लोगों का इलाज यही है कि तुरंत किसी काम में लग जायें। और कुछ न हो सके तो ताश खेलना ही शुरू कर दें। कोई भी व्यसन उस रोने से अच्छा है। संसार कब रसातल की ओर नहीं जा रहा था? जब कौरवों ने द्रौपदी को भरी सभा में नंगा करना चाहा और पांडव बैठे टुकुर-टुकुर देखते रहे, क्या तब संसार रसातल को नहीं जा रहा था? किस युग में भाई ने भाई का गला नहीं काटा, मित्रों ने विश्वासघात नहीं किया, व्यभिचार नहीं हुआ, शराब के दौर नहीं चले, लड़ाइयाँ नहीं हुई, अधर्म नहीं हुआ? मगर पृथ्वी आज भी वहीं हैं जहां दस हजार बरस पहले थी! न रसातल गई न पाताल! और इसी तरह अनंत काल तक रहेगी। संदेह जीवन का तत्व है। स्वस्थ मन में सदैव संदेह उठते हैं और संसार में जो कुछ उन्नति है उसमें संदेह का बहुत हाथ है। लेकिन संदेह क्रियाशील होना चाहिए, जो नित नए आविष्कार करता है, जो साहित्य और दर्शन की सृष्टि करता है। संसार अनित्य है तो आपको इसकी क्या चिंता है? विश्वास मानिए, आपके जीवन में प्रलय न होगा। और अगर प्रलय भी हो जाये तो आपके चिंता करने की वजह? जो सबकी गति होगी वही आपकी भी होगी। घर से बाहर निकलकर देखिए- मैदान में कितनी मनोहर हरियाली है, वृक्षों पर पक्षियों का कितना मीठा गाना हो रहा है, नदी में चाँद कैसा थिरक रहा है। क्या इन दृश्यों से आपको जरा भी आनंद नहीं आता? किसी झोपड़ी में जाकर देखिए। माता फाके कर रही हैं, पर कितने प्रेम से बालक को अपने सूखे स्तन से चिमटाए हुए हैं! पत्नी अपने बीमार पति के सिरहाने बैठी मोती बरसा रही है और ईश्वर से मनाती है कि पति की जगह वह खुद बीमार हो जाये। विश्वास कीजिए, आप सेवा और त्याग तथा विश्वास के ऐसे-ऐसे कृत्य देखेंगे कि आपकी आँखें खुल जाएँगी। हो सके तो उनकी कुछ मदद कीजिए, प्रेम करना सीखिए। उस उदासीनता की, उस मानसिक व्यभिचार की, यही दवा है।
आज-कल दु:ख की एक नई टकसाल खुल गई है और वह है- जीवन संग्राम! जीवन-संग्राम! जिधर देखिए, यही आवाज सुनाई देती है! इस संग्राम में आप किसी से सहानुभूति की, क्षमा की, प्रोत्साहन की, आशा नहीं कर सकते। सभी अपने-अपने नख और दंत निकाले शिकार की ताक में बैठे हैं। उनकी क्षुधा प्रशांत-महासागर से भी गहरी है, किसी तरह शांत नहीं होती। काश! यह दिन चौबीस घंटों की जगह अड़तालीस घंटों का होता! इधर सूर्य निकला और उधर मशीन चली। फिर वह दो बजे रात से पहले नहीं बंद हो सकती- एक मिनट के लिये भी नहीं। नाश्ता खड़े-खड़े कीजिए, खाना दौड़ते-दौड़ते खाइए, मित्रों से मिलने का समय नहीं, फालतू बातें सुनने की फुर्सत नहीं। मतलब की बात कहिए साहब, चटपट! समय का एक-एक मिनट अशरफी है, मोती है, उसे व्यर्थ नहीं खो सकते। यह संग्राम की मनोवत्ति पच्छिम से आई है और बड़े वेग से भारत में फैल रही है। बड़े-बड़े शहरों पर तो उसका अधिकार हो चुका। अब छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में भी उसकी अमलदारी होती जाती है। मंदी, तेजी, बाजार के चढ़ाव-उतार, हिस्सों का घटना-बढ़ना-यही जीवन है। नींद में भी यही मंदी-तेजी का स्वप्न देखते हैं! पुस्तकें पढ़ने की किसे फुर्सत, सिनेमा देख लेंगे। उपन्यास कौन पढ़े, छोटी कहानियों से मनोरंजन कर लेते हैं। लेकिन यह खब्त भी है कि हम किसी क्षेत्र में भी किसी से पीछे न रहें। साहित्य और दर्शन और राजनीति, हर विषय में नई से नई बातें भी हमसे बचने न पावें। सुरुचि और सर्वज्ञता के प्रदर्शन के लिये नई से नई पुस्तकें तो मेज पर होनी ही चाहिए। किसी तरह उनका खुलासा मिल जाये तो क्या कहना, दस मिनिट में किताब का लुब्बे-लबाब मालूम हो जाये। आलोचना पढ़कर भी तो काम चल सकता है। इसीलिये लोग आलोचनाएं बड़े शौक से पढ़ते हैं। अब हम उन ग्रंथों पर अपनी राय देने के अधिकारी हैं! सभ्य समाज में कोई हमें मूर्ख नहीं कह सकता। इस भाग-दौड़ के जीवन में आनंद के लिये कहाँ स्थान हो सकता है? जीवन में सफलता अवश्य आनंद का एक अंग है और बहुत ही महत्वपूर्ण अंग, लेकिन हमें उस तेज घोड़े को अपनी रानों के नीचे रखना चाहिए। यह नहीं कि वह हमें जिधर चाहे लिए दौड़ता फिरे। जीवन को संग्राम समझना- यह समझना कि यह केवल पहलवानों का अखाड़ा है और हम केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिये ही संसार में आए हैं, उन्माद है। इसका परिणाम यह होता है कि हमारी इच्छा तो बलवान हो जाती है, लेकिन विचार और विवेक का सर्वनाश हो जाता है। इसका इलाज केवल यह है कि हम संतोष और शांति का मूल्य समझें। जीवन का आनंद खोकर जो सफलता मिले वह वैसी ही है जैसे अंधी आँखों के सामने कोई तमाशा। सफलता का उद्देश्य है आनंद। अगर सफलता से दु:ख बढ़े, अशांति बढ़े, तो वह वास्तविक सफलता नहीं।
भविष्य की चिंता दु:ख का कारण ही नहीं, प्रधान कारण है। कल कहीं चल बसे तो क्या होगा! घर का कुछ भी इंतजाम न कर सके। मकान न बनवा सके। पोते का विवाह भी न देखा। इधर हमने आँखें बंद कीं और उधर सारी गृहस्थी तीन-तेरह हुई! लड़का उड़ाऊ है, पैसे की कद्र नहीं करता, न जमाने का रुख देखता है। इस चिंता में अक्सर रात को नींद नहीं आती, जिसका स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ऐसी मनोवृत्ति नई-नई शंकाओं की सृष्टि करने में निपुण होती है। दो-चार दिन खाँसी आई तो तुरंत तपेदिक की शंका होने लगी। दो-चार दिन हल्का ज्वर आ गया तो शंका हुई, जीर्ण ज्वर है! अगर जवानी में आँखें बहक गई है तो अब पाप की भावना हृदय को दबाए हुए हैं। यही शंका लगी हुई है कि उस अपराध के दंड-स्वरूप न जाने क्या आफत आने वाली है। लड़का बीमार हुआ और मान-मनौती होने लगी। बस वही दंड है। किसी बड़े मुकदमे में हारे और वही शंका सिर पर सवार हुई। बस यह सब उसी का फल है। इतना बोझ लेकर वैतरणी कैसे पार होगी! नरक की भीषण कल्पना खाना-पीना हराम किए देती है। इसका इलाज यही है कि आदमी हर-एक विषय पर ठंडे मन से विचार करे, यहां तक कि उस पर उसके सारे पहलू रोशन हो जायें। तुम क्यों समझते हो कि तुम्हारे लड़के तुमसे ज्यादा नालायक होंगे? इसी तरह तुम्हारे बाप ने भी तो तुम्हें नालायक समझा था! पर तुम तो लायक हो गए और आज गृहस्थी की देख-भाल मजे से कर रहे हो। तुम्हारे बाद इसी तरह तुम्हारा लड़का भी घर सँभाल लेगा। मुमकिन है, वह तुमसे ज्यादा चतुर निकले। और पाप तो केवल पंथों का ढकोसला है।
हमारे समुदाय में कोई शराबी नहीं, हमने पी ली तो पाप किया। क्यों पाप किया? करोड़ों आदमी रोज पीते हैं, खुले-खजाने पीते हैं। वे इसे पाप नहीं समझते, बल्कि उनकी निगाह में जो शराब न पिए वही पापी है। हमारे कुल में मांस खाना वर्जित है, हमने खा लिया तो कोई पाप नहीं किया। सारी दुनिया खाती है, फिर हमारे लिये ही क्यों मांस खाना पाप है? पाप वही है जिससे अपना या दूसरों का अहित होता हो। अगर शराब पीने से तुम्हारे सिर में दर्द होने लगता है या तुम बहककर गालियाँ बकने लगते हो, तो बेशक तुम्हारे लिये शराब पीना पाप है। अगर तुम शराब के पीछे बाल-बच्चों को खाने-पीने का कष्ट देते हो, तो बेशक शराब पीना तुम्हारे लिये पाप है, उसे तुरन्त छोड़ दो। इसी तरह मांस खाने से अगर तुम्हारे पेट में दर्द होने लगे तो वह तुम्हारे लिये वर्जित है। मांस ही क्यों, दूध पीने से तुम्हारी पाचन क्रिया बिगड़ जाये तो दूध भी तुम्हारे लिये वर्जित है। धर्म-अधर्म के मिथ्या विचारों में पड़कर, दैवी दंड की कल्पनाएं करके, क्यों अपने को दु:खी करते हो? बाबा-वाक्य की गुलामी-केवल इसलिये कि बाबा-वाक्य है- चाहे कट्टरपंथियों में तुम्हारा सम्मान बढ़ा दे, पर है मूर्खता। स्वयं विचार करो कि वास्तव में दुष्कर्म क्या है। अपने कारोबार में काइयाँपन, नौकरों से कटु व्यवहार, बाल-बच्चों पर अत्याचार, अपने सहवर्गियों से ईर्ष्या और द्वेष, प्रतिद्वंद्वियों पर मिथ्या आरोप, बुरी नीयत, दगा-फरेब-ये सब वास्तव में दुष्कर्म हैं जिनकी कानून में भी सजा नहीं, लेकिन जिनसे मानव-समाज का सर्वनाश हो रहा है। मन में पाप की कल्पना का बैठ जाना हमारे आत्म-सम्मान को मिटा देता है और जब आत्म-सम्मान चला गया तब समझ लो कि बहुत-कुछ चला गया। पापाक्रांत मन सदैव ईर्ष्या से जला करता है, सदैव दूसरों के ऐब देखता रहता है, सदैव धर्म का ढोंग रचा करता है। जब तक वह दूसरों के पाप का पर्दा न खोल दे और अपनी धर्म-परायणता प्रमाणित न कर दे, उसको शांति नहीं!
हमारे दो-एक मित्र ऐसे हैं जिन्हें हमेशा यह फिक्र सताया करती है कि लोग उनसे जलते हैं, उनके लेखों की कोई प्रशंसा नहीं करता, उनकी पुस्तकों की बुरी आलोचनाएं ही होती हैं। अवश्य ही कुछ लोगों ने एक गुट बनाकर उनका अनादर करना ही अपना ध्येय बना लिया है। ऐसे आदमी सदैव दूसरों से इस तरह सशंक रहते हैं मानों वे खुफिया पुलिस हों। बस, जिसने उनकी प्रशंसा न की उसे अपना दुश्मन समझ लिया। इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे अपने को उससे कहीं बड़ा आदमी समझते हैं जितने वे हैं। संसार को क्या गरज पड़ी है कि उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाये। हम अपनी रचना को अमूल्य समझें, इसका हमें अधिकार है, लेकिन दूसरे तो उसे तभी अमूल्य समझेंगे जब वह अमूल्य होगी। यह मनोवृत्ति जब बहुत बढ़ जाती है तब आदमी अपने लड़कों को ही अपना बैरी समझने लगता है। वह कदाचित आशा करता है कि उसके लड़के अपने लड़कों से ज्यादा उसका खयाल रखें। यह अस्वाभाविक है। किसी को यह अधिकार नहीं कि वह किसी दूसरे को, चाहे वह उसका लड़का ही क्यों न हो, उसके स्वाभाविक मार्ग से हटाकर अपनी राह पर लगाए।
[‘हंस’, अप्रैल, 1933]