दूधो नहाओ, पूतो फलो : बुंदेली लोक-कथा
Dudho Nahao, Puto Phalo : Bundeli Lok-Katha
गरीबी के मारे एक बाम्हन और एक चमार परिवार आस-पास रहते थे। दोनों परिवारों में एक-एक बच्चा था। बच्चे ऊँच-नीच, जात-पाँत क्या जाने? उन दोनों में दोस्ती हो गई। दोनों धीरे-धीरे बढ़ते गए, गाँव-घर के लोगों को दोनों की दोस्ती फूटी आँखों न सुहाती। वे दोनों में फूट डालने के नित्य नए तरीके खोजते पर किसी की दाल न गली। समय चक्र घूमता रहा और दोनों के विवाह हो गए। लोगों को लगा अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे, पंडिताइन और चमारन को भड़काने की कोशिशें होने लगीं।
एक दिन गप-शप मारने के बाद पंडित अपने घर की ओर गया तभी कुछ बात याद हो आई और उसे बताने के लिए चमार के घर लौटा तो देखा कि जहाँ वह बैठा था, उस स्थान को चमार धो रहा था। पंडित ने कारन पूछा तो चमार बोला कि भैये बुरा न मानना। हम दोस्त हैं इसलिए झूठ न कहूँगा। तुमाई भौजी के कैबे से जे कर रौ हौं। बो कैत आय के तुम निपूते आओ, तुमई बैठे की जगा पै तुमाओ भतीजो खेलहै तो असगुन हुई है। मैं जे सब बकबास नई मानों मगर घर में सांति की खातिर धो देत हौं।
पंडित को बुरा तो लगा मगर दोस्त की भावना का ख्याल रखते हुए चुपचाप अपने घर चला आया। उसे उदास देख पंडिताइन ने कारण पूछा तो वह टालता रहा पर बहुत आग्रह करने पर सब किस्सा कह सुनाया और बोला कि संतान न होना तो हमें भी सालता है। तुम तो विष्णु भगवान् की पत्नी लक्ष्मी जी की पक्की और सच्ची भक्त हो, उनसे अपने लिए एक संतान माँग लो।
पंडिताइन बोली भक्ति तो निष्काम भाव से करना चाहिए पर पंडित के बार-बार जोर देने पर मान गई कि लक्ष्मी जी से संतान माँगेगी। वह लक्ष्मी जी का चिंतन करते-करते सो गई। उसे रात सपने में लक्ष्मी जी ने दर्शन दिए तो उसने अपने मन की बात कही। लक्ष्मी जी बोलीं कि तुम धन-संपत्ति माँगतीं तो मैं दे दूँ पर संतान देना मेरे लिए संभव नहीं है। चलो पार्वती जी के पास चलते हैं। शायद काम बन जाए।
दोनों पार्वती जी के पास पहुंची और पूरी बात बताई तो उन्होंने संतानदाता छठ मैया के पास चलने की सलाह दी और तीनों मिलकर छठ मैया के पास पहुँची। सारी बात सुनकर छठ मैया ने पंडिताइन का माथा देखकर उससे कहा कि तुम्हारे भाग में पूर्व जन्मों के पाप कर्म के कारण अगले जन्म में भी संतान नहीं है। यह सुनते ही पंडिताइन जोर-जोर से रोने लगी तो पार्वती जी और लक्ष्मी जी ने छठ मैया से कोई उपाय सुझाने को कहा। छठ मैया ने बहुत सोच-विचार कर कहा कि हम सब चलते हैं, कहीं कोई माँ अपनी संतान को बहुआ दे रही होगी तो उसकी बात को सच करते हुए उसकी संतान के प्राण ले आएँगे और तब इस पंडिताइन की कोख में डाल देंगे।
वे सब अदृश्य होकर कई स्थानों पर गई। एक कुम्हारिन बाजार से मिट्टी के बर्तन बेचकर घर का सामन लेते हुई थक कर लौटी थी। उसे देखते ही बच्चे उससे लिपट गए और कुछ खाने के लिए माँगने लगे। उसने बिना विश्राम किए एक हंडिया में दलिया बनाया और अपने छह बच्चों को परोस दिया। बच्चों ने हिल-मिलकर दलिया निकाला और खाने लगे। कुम्हारिन ने कुम्हार की राह देखते हुए बाहर से पूछा कि बच्चों कम तो नहीं है?, कोई भूखा तो नहीं रहा? बच्चे अपने माता-पिता को दिन-रात मेहनत करते देखते थे कि किस प्रकार वे पहले उन्हें खिलाते थे, फिर बचे तो ही खाते थे। बड़े बच्चे पहले छोटों को खिलाते, फिर खुद खाते। आज भी बच्चों ने इस प्रकार खाया कि माता-पिता के लिए भी बच जाए। कुम्हारिन की आवाज सुनकर बच्चे बोले कि सबका पेट भर गया और बच भी गया, एक और भाई या बहिन होती तो उसे भी मिल जाता।
छठी मैया ने कहा यहाँ तो एक और बच्चे की चाह है, यहाँ काम नहीं बनेगा। तब वे सब एक कहार के घर गई। कहारिन सांझ को चने बेचकर लौटी थी। उसकी आहट पाते ही बच्चे किलकारी मारकर उससे मिलने के लिए दौड़ पड़े। उसने सबसे छोटे को गोदी में उठाया, उससे बड़े के गालों को दुलराया, फिर एक की पीठ थपथपाई, एक के सिर पर हाथ फेरा, एक को मुस्कुराकर देखा और एक से एक गिलास पानी माँग लिया। एक से पूछा सब हिल-मिलकर रहे, लड़े तो नहीं? सब बच्चे एक साथ बोल पड़े कि वे मिलकर खेलते रहे। कहारिन ने झटपट कुछ भोजन पकाया, सबको खिलाया और कहार की राह देखने लगी। बच्चों ने एक कथरी निकाली और सोने लगे। बच्चों कथरी छोटी तो नहीं है? कहारन ने पूछा। नहीं मैया, इसमें एक और आ सकता है, बच्चे बोले।
छठ मैया बोलीं कि यहाँ भी एक और चाहिए, आगे चलो। इस तरह वे तीनों मनिहारिन, काछिन, ललाइन, नाइन आदि कई के घरों में गईं पर बात न बनी। आखिरकार थक-हार कर वे नगर के सेठ के आलीशान भवन में पहुँची। वहाँ चारों तरफ आपाधापी मची हुई थी। नौकर-चाकर इधर-उधर दौड़-भाग रहे थे। नगर सेठ का बीमार पुत्र आँखें बंद किए गहरी-गहरी साँस ले रहा था। उसके कराहने से पता चलता था की उसे पीड़ा है। उसके समीप ही वैद्यराज बैठे थे, उनके चेहरे पर निराशा थी, सेठ भी उदास था। सेठ की पत्नी ने वैद्य से कहा की कुछ करिए वैद्य जी, अब इसका कष्ट देखा नहीं जाता। भगवान इसे ठीक कर दे या उठा ले। डूबता हुआ सूरज बादलों की ओट में हुआ और अँधेरा छा गया।
उसके ऐसा कहते ही छठ मैया ने कुछ इशारा किया और उस बच्चे के प्राण पखेरू उड़ गए। चारों ओर रोने की आवाजें आने लगीं। बच्चे की माँ ने विलाप करते हुए कहा की हे भगवान यह क्या किया? अब मैं कैसे जिऊँगी? मुझे मेरा लाल वापिस दे दो। बेटा तू कहाँ चला गया? एक बार लौट आ. अब महाराजिन की राह देखे बिना अपने हाथ से जो कहेगा बना दूँगी, अब कभी बिना खाना खिलाए घर से न जाने दूँगी, कभी अकेले सड़क पर दौड़ने न दूँगी।
छठ मैया ने कहा कि ब्राह्मणी यह सब ध्यान से सुन ले। ऐसा करेगी तो ही बच्चा तेरे पास रुकेगा नहीं तो अपनी राह चला जाएगा। पंडिताइन ने हामी भरी तो वे तीनों अपने-अपने स्थान पर चली गईं। नौवें माह में पंडिताइन ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पंडिताइन उसके लिए सब काम छोड़कर खुद ही उसके लिए खाना पकाती, अपने सामने बैठा कर परोसती-खिलाती और घर से बाहर जाते समय हेमशा किसी न किसी को उसके साथ रखती। बच्चे को हमेशा समझाती कि धीरे-धीरे करने से सब काम हो जाता है, दौड़ चले और गिर पड़े तो सब काम बिगड़ जाएगा।
बीच-बीच में मैया आकर पंडिताइन को चेतावनी दे जातीं कि वह अधिक मोह न पाले, बच्चा कभी भी अपने रास्ते जा सकता है। पंडिताइन ने बहुत सोच-विचार कर अखण्ड सौभाग्यवती रहनेवाली कन्या खोजकर बच्चे का विवाह कर दिया। तीनों देवियाँ आई तो ब्राह्मणी के सिखाए अनुसार पुत्रवधु ने चरणस्पर्श कर सिंदौरा उन्हें देते हुए उनसे अपनी मांग में सिंदूर भरने की प्रार्थना की। तीनों ने बहू की माँग में सिन्दूर भरकर आशीर्वाद दिया की दूधो नहाओ, पूतो फलो, सदा सौभाग्यवती रहो।
कुछ देर बाद देवियाँ जाने लगी तो ब्राह्मणी से बोलीं कि समय आ गया है, विदा करो। ब्राह्मणी ने तीनों के हाथ जोड़कर कहा ‘तेरा तुझको अर्पण’ वचन भंग न करूंगी। जो उचित हो वही कीजिए। तभी घूघट की ओट से बहू बोल पड़ी मैया! आप तीनों को कहा कभी असत्य नहीं हो सकता। अभी-अभी आपने मुझे सौभाग्य और संतान का वरदान दिया है। फिर आप उन्हें कैसे ले जा सकती हैं?
तीनों देवियों ने एक-दूसरे की ओर देखा और पुनः आशीर्वाद देकर ब्राह्मणी से कहा जब तक तेरा वचन रहेगा, तब तक बहू का सुहाग बना रहेगा। धीरे-धीरे समय बीतता गया। बहू-बेटे सुखमय जीवन व्यतीत करते रहे। कुछ दिन बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी की तिथि आई। ब्राह्मणी ने हलषष्ठी का व्रत रखा। उसने पुत्र से कहा आज कहीं मत जाना। मेरा व्रत है। पुत्र ने बात नहीं मानी और अकेला ही खेत चला गया। वहां एक सर्प ने काटा और तत्क्षण उसकी मृत्यु हो गई। घर में खबर आते ही हाहाकार मच गया। ब्राह्मणी तत्काल खेत में गयी और वहीं पलाश तथा कुश बुलवाकर छठ मैया की पूजा कर उन्हें गुहारने लगी। छठ मैया ने प्रकट होकर पुकारने का कारण पूछा तो ब्राह्मणी बोली मैया! तू ही संतानदात्री है। मैं तेरी दी संतान की कुशलता के लिए तेरा ही व्रत कर रही हूँ। तेरी दी संतान तेरे पूजन का सामान लेने ही खेत में आई और तूने ही उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। तेरा व्रत कैसे पूर्ण होगा? व्रत पूर्ण किये बिना मैं और बहू कुछ ग्रहण नहीं कर सकतीं। तू हम दोनों को भी ले चल और अपने दिए वर को झूठा कर दे। तूने ही बहू को ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ का आशीर्वाद दिया और पूत होने के पहले ही बहू का सुहाग ले लिया?
छठ मैया यह सुनकर अवाक् रह गईं और उन्होंने ब्राह्मणी के पुत्र को जीवित कर दिया। तब से कार्तिक शुक्ल षष्ठी को छठ मैया की पूजा का विधान हुआ।
(साभार : आचार्य संजीव वर्मा)